गुरुवार, 29 नवंबर 2007
गूगल का स्काई
यहाँ देखिये इस फ़ीचर के बारे में गूगल की एक परिचयात्मक फ़िल्म..
बुधवार, 28 नवंबर 2007
आई आई टी से निकला ब्लॉग बुद्धि
माफ़ी चाहता हूँ बात शुरु होते ही बीच में चली गई। क्रम से बताता हूँ । कल शाम यानी बुधवार २७ नवम्बर को सात बजे से आई आई टी के सुरम्य प्रांगण में एक ब्लॉगर मिलन सम्पन्न हुआ। इस में शामिल होने वाले थे मेज़बान मनीष (जो स्वयं मुम्बई के मेहमान हैं) और विकास के अलावा अनीता कुमार, अनिल रघुराज, विमल वर्मा, प्रमोद सिंह, युनुस खान और मैं।
इसी निर्मल-आनन्द के बीच अनीता जी ने विकास को प्यार से झिड़का कि कुछ काम क्यूं नहीं करता और तुरन्त आज्ञाकारी बालक की तरह विकास ने अनीता जी के लाए नाश्ते/मिठाई को हम सब के हाथ में धकेल दिया। हम उन्हे इस को धन्यवाद दे रहे थे मगर उन्होने इसे अपने महिला होने का विशेषाधिकार कह कर टाल दिया।
(जिन्हे स्माइली की कमी महसूस हो रही हो वे कल्पना से यहाँ वहाँ टाँकते हुए चलें और जो खुले और छिपे रूप से स्माइली से चिढ़ते हैं वे देख सकते हैं कि उन्हे आहत करने योग्य यहाँ कुछ भी नहीं है!)
(तस्वीर में बाएं से दाएं: मनीष, अनिल भाई, युनुस, विमल भाई, विकास, प्रमोद भाई और कुर्सी पर अनीता जी)
तरल और सरल बातें तो बहुत हुईं पर एक ठोस बात ये हुई कि सभी ने अपनी तकनीकि कठिनाईयों का रोना रोते हुए पिछली ब्लॉगर मिलन में आशीष से की हुई गुज़ारिश और फ़रमाईश को याद किया। जिस पर विकास ने तपाक से इस काम को अपने दोनों हाथों से लूट लिया और देखिये उत्साही बालक ने काम शुरु भी कर दिया.. ब्लॉग बुद्धि नाम के इस ब्लॉग पर विकास पर अपने बुद्धि से जो विषय समझ आएंगे उस पर तो लिखेंगे ही साथ ही साथ आप सब की तकनीकि समस्याओं का समाधान भी करेंगे। आप को किसी भी प्रकार की तकनीकि तक्लीफ़ हो.. आप उन्हे मेल करें। वे हल मुहय्या करने की भरपूर कोशिश करेंगे ऐसा क़ौल है उनका..।
और हाँ विकास का नाम अंग्रेज़ी में Vikash लिखा ज़रूर जाता है.. पर पुकारने का नाम विकास ही है।
ये ब्लॉगर मिलन मेरे लिए इस लिए खास यूँ भी रहा कि मनीष ने बहुत कहने के बाद जब गाना नहीं गाया तो प्रमोद जी के कहने पर विमल भाई ने हमारे छात्र जीवन का एक क्रांतिकारी गीत गाया, मैंने और अनिल भाई ने साथियों की भूमिका ली। तन मन पुरानी स्मृतियों और अनुभूतियों से सराबोर हो गया। प्रमोद भाई को गाना याद था पर वे चुप रहे। बाद में उन्होने कहा कि उन्हे गाने के अनुवाद और धुन दोनों से शिकायत रही.. हमेशा से। आज जब विमल भाई ने इसे अपने ब्लॉग पर छापा तो मैंने ग़ौर किया कि तसले को बड़ी आसानी से थाली से बदला जा सकता है.. ह्म्म.. प्रमोद भाई की सटीक नज़र..
अनीता जी को दूर जाना था, उनसे फिर मिलने का वादा कर और विदा ले कर हम ने थोड़ा सा कुछ खाया-पिया और फिर चलने के पहले पवई झील के किनारे चाँदनी रात का कुछ लुत्फ़ उठाया!
क्योंकि हमारे पास दिमाग़ हैं!!!
आठ बच्चे एक दौड़ में भाग लेने के लिए ट्रैक पर तैयार खड़े थे.
रेडी! स्टेडी! धाँय!
एक खिलौना पिस्तौल के धमाके के साथ सभी आठों लड़कियाँ दौड़ने लगीं.
बमुश्किल वे दस पन्द्रह कदम ही दौड़े होंगे कि उनमें से सबसे छोटी फ़िसली और गिर गई, चोट लगी और दर्द के मारे रोने लगी.
जब बाक़ी सात लड़कियों ने ये रोना सुना, तो वे रुक गईं, एक पल को ठिठकी फिर मुड़ीं और गिरी हुई बच्ची के पास वापस लौट आईं.उनमें से एक ने झुक कर गिरी हुई बच्ची को उठाया, चूमा और प्यार से पूछा, ‘दर्द कम हो गया न’. सातों बच्चियों ने गिरी हुई बच्ची को उठाया, चुप कराया, उन में से दो ने गिरी हुई बच्ची को अच्छे से पकड़ा और सातों हाथ पकड़ कर विजय रेखा तक चलते चले गए.
अधिकारीगण सन्न थे. स्टेडियम, बैठे हुए हज़ारों लोगों की तालियों से गूँज रहा था. कई लोगों की आँखें नम हो कर शायद ईश्वर को भी छू रही थीं.
जी हाँ. यह हैदराबाद में हुआ, हाल ही में.
यह प्रतियोगिता राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान द्वारा आयोजित की गई थी.
प्रतियोगिता में भाग लेने वाले सभी बच्चे स्पैस्टिक हैं. जी, मानसिक चुनौतियों से ग्रस्त.
उन्होने दुनिया को क्या सीख दी?
सामूहिकता?
मानवता?
आपस में बराबरी?
सफल लोग उनकी मदद करते हैं जो सीखने में धीमे हैं, ताकि वे पिछड़ न जायँ. यह सच में एक बड़ा सन्देश है.. इसे फैलायें!
हम ऐसा कभी नहीं कर सकते क्योंकि हमारे पास दिमाग़ हैं!!!!
(इस प्रेरक प्रसंग का मैंने अनुवाद भर ही किया है अंग्रेज़ी से.. जिसे कपिलदेव शर्मा ने मेल में भेजते हुए आदेश दिया कि पब्लिश दिस.. ज़ाहिर है मैं आदेश टाल नहीं सका.. )
मैं चुप रहा..
मैं चुप रहा
नाज़ी जब कम्यूनिस्टों के लिए आए
तो मैं चुप रहा
मैं तो कम्यूनिस्ट नहीं था
फिर जब उन्होने समाजवादियों को सलाखों में डाला
तो मैं चुप रहा
मैं समाजवादी नहीं था
फिर जब मज़दूरों की धर-पकड़ हुई
तो भी मैं चुप रहा
मैं मज़दूर नहीं था
जब यहूदियों को घेरा गया
तो फिर मैं चुप रहा
मैं यहूदी भी नहीं था
और जब वे मुझे पकड़ने आए
तो बोलने के लिए कोई नहीं बचा था बाकी़..
- मार्टिन नाइमोलर
(ग़लती से इस कविता को बर्तोल्त ब्रेख्त (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट) द्वारा रचित समझा जाता है)
(अनुवाद खाकसार का..)
मंगलवार, 27 नवंबर 2007
असली आतंकवादी!
सोमवार, 26 नवंबर 2007
रसातल भी पलट कर घूरता है
मेरे ख्याल में परते अच्छी हैं.. वे प्रकृति और समाज की विविधिता का आप के भीतर प्रतिबिम्बन का प्रमाण हैं । इसलिए बताने वाले का आकलन सही है। और उन्होने हमारी परतों को भोलेपन का नाम दिया है इसके लिए उन्हे धन्यवाद के सिवा और क्या प्रेषित किया जा सकता है। वैसे हम कोशिश करेंगे चतुर बनने की..
आगे हमें बताया गया कि हम अक्सर उन लोगों के साथ खड़े नज़र आते हैं, जो या तो सांप्रदायिक हैं, या आंदोलनकारियों को गाली देते हैं। ये बात भी हम मान लेते हैं.. हम ऐसा करते हैं। क्योंकि मेरा मानना है कि न तो ओसामा का प्रशंसक होने से कोई आतंकवादी सिद्ध होता है और न ही मोदी की तरफ़दारी करने से कोई दंगाई। जार्ज बुश का एक ‘लोकप्रिय’ विचार है कि या तो आप सौ प्रतिशत उनके साथ हैं या सौ प्रतिशत उनके खिलाफ़.. ऐसी सोच का मैं विरोध करता हूँ चाहे वह बुश की ओर से आए.. मुशर्रफ़ ओर से या अपने ही किसी मित्र की ओर से।
मोदी की प्रशंसा करने भर से कोई ऐसे राक्षस में नहीं बदल जाता जिसके भीतर की सारी मनुष्यता मृत हो गई है। अपने विरोधियों से व्यवहार के बारे में नीत्शे की एक बात याद रखने योग्य है: ‘राक्षसों से लड़ने वालों को सावधान रहना चाहिये कि वे स्वयं एक राक्षस में न बदल जायं क्योंकि जब आप रसातल में देर तक घूरते हैं तो रसातल भी पलट कर आप को घूरता है..'
शनिवार, 24 नवंबर 2007
मनुष्य हर पल बदल रहा है..
..और अब मैं जानता हूँ कि जिसका मन और मस्तिष्क दृढ़ और मजबूत होगा वही उन पर राज करेगा। जो बहुत हिम्मत करता है वही सही होता है। जिस चीज़ को लोग पवित्र मानते हैं, उसे जो तिरस्कार से ठुकरा देता है उसी को वे विधाता मानते हैं, और जो सबसे बढ़कर साहस करता है उसे वे सबसे बढ़कर सही मानते हैं । अब तक ऐसा ही होता आया है और हमेशा ऐसा ही होता रहेगा! सिर्फ़ जो अंधे हैं वे ही इस बात को नहीं देख पाते!
ये निराशापूर्ण विचार मेरे नहीं अपराध और दण्ड के नायक रस्कोलनिकोव के हैं.. मैं तो मानता हूँ कि मनुष्य हर पल बदल रहा है.. यदि आप के प्रति उसने अपने आपको बंद नहीं कर लिया है तो आप भी उसके भीतर होने वाले बदलाव के उत्प्रेरक बन सकते हैं।
सामाजिक व्यवहार के बारे में अभी पिछले दिनों किसी ने अपने चिट्ठे पर ही एक शानदार बात लिखी थी .. विचार के प्रति निर्मम रहें और व्यक्ति के प्रति सजल! मुश्किल यह है कि लोग विचार के प्रति निर्मम होते-होते व्यक्ति के प्रति भी निर्मम हो जाते हैं। इसी बीमारी के चलते नक्सल आंदोलन के अठहत्तर फाँके हो गईं। किसी ने ज़रा असहमति की बात की नहीं कि तत्काल उसे मनचाये बिल्लों से दाग कर अपने से विलगति कर दिया। उसे नीच-पतित कह कर स्वयं को महिमामण्डित कर डाला। आज भी यह रोग बदस्तूर जारी है और ये सिर्फ़ हास्यास्पद है।
कैसी आस्था है न्याय में?
मासूम लोगों को निशाना बनाने वाली ऐसी किसी भी कायर आतंकवादी घटना की मैं घोर निंदा करता हूँ.. पर इसका यह अर्थ नहीं कि लखनऊ, वाराणसी और फ़ैज़ाबाद में वकीलों ने जो किया वह भी मासूम लोकतांत्रिक भावना थी। वो भी बेहद शर्मनाक और कायरतापूर्ण था। अन्यायी पुलिस द्वारा सिर्फ़ शक़ की बिना पर गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों को अदालत के बाहर पीटना और उनका मुक़दमा लड़ने से भी इंकार कर देना कैसी आस्था है न्याय व्यवस्था में और लोकतंत्र में?!
इसके पहले कि अदालत में उनका अपराध साबित हो उन्हे पहले ही आतंकवादी स्वीकार कर लिया वकीलों ने! ऐसा कितनी बार होता है कि पुलिस जिन्हे पकड़ती है उनका अपराध से कोई लेना-देना भी नहीं होता.. वे पुलिस की चपेट में सिर्फ़ इसलिए आ जाते हैं क्योंकि पुलिसवालों को कुछ करते हुए दिखाई पड़ना है। अभी कहा जा रहा है कि हमें ज़्यादा कड़े का़नूनों की ज़रूरत है.. ताकि प्रिवेन्टिव मेज़र्स लिए जा सकें। आप समझते हैं इसका क्या मतलब है.. इसका मतलब होगा कि ऐसा क़ानून जिसके तहत पुलिस सिर्फ़ शक़ की बुनियाद पर ही किसी को भी गिरफ़्तार कर सकेगी, जेल में डाल सकेगी, गोली मार सकेगी।
रुकिये.. सोचिये.. एक कायर अपराधी की सज़ा एक पूरे समुदाय को मत दीजिये! दण्ड की एक भूमिका होती है न्याय में। पर अगर वह दण्ड न्याय के बजाय अन्याय करने लगे तो अपराध कम नहीं होगा.. बढ़ेगा। ज़रूरत है न्याय की पुनर्स्थापना की।
सोचिये तो क्यों बन रहे हैं मुस्लिम नौजवान आतंकवादी..? क्या अन्याय हुआ है पिछले सालों में मुस्लिम समुदाय के साथ? क्यों मुस्लिम समुदाय बाकी देश की तरह मॉल संस्कृति में रचने-बसने के बजाय अपने धर्म में और अधिक क्यों धँसता जा रहा है?.. जवाब शायद धर्म की इस परिभाषा में है…
धार्मिक पीड़ा, वास्तविक पीड़ा की ही एक अभिव्यक्ति है.. और धर्म सताये हुये लोगों की एक कराह है.. धर्म हृदय हीन संसार का हृदय, आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा.. और अन्त में जनता की अफ़ीम है...
पढ़िये इसी विषय पर दो पुराने लेख:
चालीस कमीज़े खरीदने की बेबसी बनाम धर्म
किसे राहत दे रहा है ये न्याय
शुक्रवार, 23 नवंबर 2007
आप तो मुस्कराइये!
बुधवार, 21 नवंबर 2007
वह हमें प्यार नहीं करता..
मुश्किल यह है कि यह समस्या का अंत नहीं बल्कि उस की शुरुआत है। हम जिसे प्यार करते हैं अकसर वह हमें प्यार नहीं करता.. यह शिकायत आम है! जिन्हे यह शिकायत नहीं है उनमें भी दो तरह के लोग हैं एक वो जो सिर्फ़ इसी में संतुष्ट रहते हैं कि उनका प्रेम स्वीकार कर लिया गया- इसे लोकाचार में सम्बन्ध स्थापित हो जाना कहते हैं। और दूसरी तरह के लोग वो जिन्हे अपने प्यार करने वालों से वापस प्यार मिलता तो है मगर उसी मात्रा में नहीं। या तो ज़्यादा देते हैं और कम पाते हैं और या वे कम देते हैं और बहुत ज़्यादा मिलता है।
जीवन के और किसी क्षेत्र में इंसान संतुलन को लेकर इतना व्यथित नहीं होता जितना स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में। कभी किसी बाप ने शिकायत नहीं की कि मेरी बेटी मुझ से उतना प्यार नहीं करती जितना मैं उसे चाहता हूँ। ज्योतिष में स्त्री-पुरुष का यह विभाग तुला राशि के पास है- समझ रहे हैं तुला.. तराज़ू! आदिकाल से प्यार में इस कमीबेशी को लेकर लोग व्यथित रहे हैं। लोग अपनी तरफ़ से जितना दें उतना अलग-अलग स्रोतों से मिलने से भी संतुष्ट नहीं होते; उन्हे उसी व्यक्ति से ही वापस उतना प्यार चाहिये जितना दिया गया। सोचिये क्या मुश्किल है। कुछ लोग तो इस समीकरण को उस स्थिति तक खींच कर ले जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति सिर्फ़ प्यार देता है और दूसरा व्यक्ति सिर्फ़ प्यार पाता है।
राजा भृर्तहरि का क़िस्सा मशहूर है। उन्हे एक साधु ने अमरत्व पाने के लिए एक अमरफल दिया। राजा ने प्रेम से अभिभूत होकर अपनी रानी को दे दिया। रानी को भी अगर राजा से उतना ही प्यार होता तो वो उनसे खाने की ज़िद करती। हार कर दोनों आधा-आधा खा लेते, क़िस्सा खत्म हो जाता। मगर रानी तो सेनापति पर मरती थी, उसे दे दिया, सेनापति नगरवधू का दीवाना था, उसके दरबार में जा उस के चरणों में अर्पित कर आया। नगरवधू ने अमरफल एक मूर्तिकार को सौंप दिया जो उस की आँखों में बसा हुआ था। मूर्तिकार ने सोचा कि मेरा जीवन तो व्यर्थ है, राष्ट्र का हित इसी में है कि राजा भृर्तहरि सदा बने रहें। जब अमरफल लौट कर वापस राजा के पास आया तो उन्हे अपने प्रेम की विफलता का एहसास हुआ।
क्रोध में वे रानी को मृत्युदण्ड दे सकते थे, उसे बन्धनों में रख कर प्रताड़ित-अपमानित कर सकते थे, उसे डरा-धमका कर चरणों पर गिर कर क्षमा याचना करने पर मजबूर कर सकते थे.. मगर सब व्यर्थ था.. ये सब कुछ करके भी वे रानी का प्यार नहीं पा सकते थे। इस विषम दुष्चक्र के आगे उन्हे अपनी असहायता का बोध हुआ और उन्हे वैराग्य हो गया, राज-पाट विक्रम को सौंप वे वन को पलायन कर गए।
कुछ लोग इस कहानी में व्यभिचार देख सकते हैं कि रानी व्यभिचारी थी, सेनापति व्यभिचारी था आदि आदि.. मगर भृर्तहरि ने भी इसे व्यभिचार की तरह देखा होगा, मुझे शक़ है। क्योंकि अगर व्यभिचार माना होता तो वो पलायन क्यों करते, रुकते और व्यभिचार को हटाकर सदाचार स्थापित करने की कोशिश करते। मेरा विचार है कि भृर्तहरि ने इस चक्र को दुनिया का असली मर्म जाना, यही सत्य है संसार का। यही माया है जिसके पार जाना हो तो एक ही रास्ता है जो भृर्तहरि ने पकड़ा- वैराग्य! संसार में बने रहना है तो इस दुःख से बचा नहीं जा सकता।
मार्क्स के यूटोपिया- साम्यवाद में जब कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे अन्तरविरोध खत्म हो जाएंगे; मनुष्य अपनी पूरी ऊर्जा से प्रकृति के साथ अपने अन्तरविरोध पर लग सकेगा। उस आदर्श अवस्था में भी यह अन्तर्विरोध बना ही रहेगा.. यह दुःख बना ही रहेगा।
दोनों चित्र: एदुवर्द मुंच
मंगलवार, 20 नवंबर 2007
अपराध का असाधारण अधिकार
..असाधारण लोगों के लिए यह लाजिमी नहीं है कि वे, जिसे आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों का पालन करें.. असाधारण आदमी को इस बात का अधिकार होता है, सरकारी तौर पर नहीं, अंदरूनी अधिकार होता है कि वह अपने अंतः करण में इस बात का फ़ैसला कर सके कि वह कुछ बाधाओं को .. पार कर के आगे जा सकता है, और वह भी उस हालत में जब ऐसा करना उसके विचार को व्यवहार में पूरा करना ज़रूरी हो (शायद कभी-कभी पूरी मानवता के हित में)।
.. मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दरज़न, एक सौ या उस से भी ज़्यादा लोगों की जान की क़ुर्बानी दिये बिना केपलर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछिये तो यह उनका कर्तव्य होता .. कि वह अपनी खोजों की जानकारी पूरी दुनिया तक पहुँचाने के लिए .. उन दर्ज़न भर या सौ आदमियों का सफ़ाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करते रहें और रोज़ बाज़ार में जाके चीज़ें चुराएं।
इसका नतीजा मैं यह निकालता हूँ कि सभी महापुरुषों को.. .. स्वभाव से ही अपराधी होना पड़ता है..
दरअसल कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करने वालों इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज़्यादात्र भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इसका नतीजा मैं यह निकालता हूँ कि सभी महापुरुषों को.. .. स्वभाव से ही अपराधी होना पड़ता है.. .. वरना उनके लिए घिसी पिटी लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाय...
प्रकृति का एक नियम लोगों को आम तौर पर दो तरह के लोगों में बाँट देता है: एक घटिया (साधारण), यानी कहने का मतलब यह कि वह सामग्री बार-बार पैदा करते रहने के लिए होती है, और दूसरे वे जिनमें कोई नई बात कहने का गुण या प्रतिभा होती है।.. .. आम तौर पर पहली क़िस्म के लोग स्वभाव से ही दकि़यानूसी और क़ानून को मानने वाले होते हैं, वे आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसन्द करते हैं। मेरी राय में उन्हे आज्ञाकारी ही होना चाहिये, क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती।
अगली पीढ़ी में पहुँच कर यही आम लोग इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं
आम लोग इस अधिकार को शायद कभी मानेंगे ही नहीं; वे ऐसे लोगों को या तो मौत की सजा सुना देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं (कमोबेश), और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी फ़र्ज को पूरा करते हैं, जो बिलकुल ठीक भी है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर यही आम लोग इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं (कमोबेश)। पहली क़िस्म के लोगों का अधिकार सिर्फ़ वर्तमान पर रहता है और दूसरी क़िस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं। पहली तरह के लोग दुनिया को ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं और उनकी बदौलत दुनिया बसी रहती है; दूसरी तरह के लोग दुनिया को आगे बढ़ाते हैं और उसे उसकी मंज़िल की ओर ले जाते हैं।
इन विचारों के लिखने के लगभग बीस सालों बाद नीत्शे ने भी इस से मिलती जुलती बातें अपने महामानव (superman) के विचार के सन्दर्भ में कहीं, जिसमें असाधारण के 'अपराध' कर सकने के अधिकार की क्रूरता अपने चरम पर पहुँच गई थी।
सोमवार, 19 नवंबर 2007
वार मेड ईज़ी
इसी साल अमरीकी सिनेमा घरों में एक डॉक्यूमेन्टरी भी प्रदर्शित हुई –वार मेड ईज़ी जो पिछले पचास साल से एक के बाद एक हर अमरीकी सरकार के उस धोखेबाज़ और फ़रेबी व्यवहार का जायज़ा लेती है जिसके तहत वे अपनी जनता को वियतनाम से इराक़ तक एक के बाद दूसरे युद्ध के लिए उकसाते रहे हैं.. इस फ़िल्म को देख कर एक दर्शक की यह प्रतिक्रिया हुई.. जो उसने IMDB की साइट पर दर्ज की है..
Feel Your Blood Boil.. That's exactly how I felt after walking out at the end of this gripping, but short documentary (only about 75 minutes). I was riveted to the screen from start to finish. I thought to myself, "I'm so glad I didn't vote for the Fourth Reich (i.e. The Bush Administration)either in 2000, or 2004 (not that voting mattered much, as I'm sure the voting machines were rigged so that Fuhrer George II came out on top both times). ... there is still a chance for you to see this important document on how our (alleged)leaders are flushing our country down the proverbial toilet.
सुन्दर होने का हक़
दूसरा पक्ष यह कहता है कि स्त्री सौन्दर्य को दमित कर के हम किसी सभ्य राह पर आगे बढ़ सकेंगे इस में शंका है। सभ्यता की राह मुक्ति के आकाश के नीचे से जाएगी। किसी परदे भरी सुरंगो से नहीं। स्त्री और पुरुष को अपनी प्राकृतिक वृत्तियों को अभिव्यक्त करने का पूरा अधिकार दे कर ही हम और अधिक सभ्य और स्वस्थ बन सकेंगे। और सुन्दर होना तथा सौन्दर्य की प्रशंसा करना हमारी सहज वृत्ति है।
मगर उनका क्या जिन्हे युद्ध की कुरुपता ने विकल कर दिया..
रविवार, 18 नवंबर 2007
बस जिये जाना!
"जब किसी को मौत की सज़ा सुना दे जाती है तो वह अपनी मौत से घंटे भर पहले कहता है या सोचता है कि अगर किसी ऐसी ऊँची चट्टान पर, किसी ऐसी पतली सी कगर पर भी रहना पड़े, जहाँ सिर्फ़ खड़े होने की जगह हो, और उसके चारों ओर अथाह सागर हो, अनंत अंधकार हो, अनंत एकांत हो, अनंत तूफ़ान हो, अगर उसे गज भर चौकोर जगह में सारे जीवन, हजार साल तक, अनंत काल तक खड़े रहना पड़े, तब भी फ़ौरन मर जाने से इस तरह जिये जाना कहीं अच्छा है! बस जिये जाना, जिये जाना और जिये जाना! ज़िंदगी वह कैसी भी हो!.. कितनी सच बात है! क़सम से, कितना सच कहा है! आदमी भी कैसा बदज़ात है!.. बदज़ात है वो जो उसे इस बात पर बदज़ात कहता है,"
मनुष्य के भीतर ऐसी जीवन-वृत्ति के बावजूद कुछ ऐसे ज़िन्दादिल लोगों से भी मेरा परिचय रहा जिन्होने स्वयं आत्मघात कर लिया.. कैसा विचित्र बल है आदमी की (आत्मघाती!) विचार शक्ति में जो जीवन-वृत्ति को भी परास्त कर देती है।
शनिवार, 17 नवंबर 2007
क्या जवाब दूँगा शाहरुख को?
दूसरा कारण भी दो प्रतिक्रियाएं ही रहीं भाई संजीत ने कहा कि आपका शिष्यत्व ग्रहण करना है, निर्धारित योग्यताएं बतलाएं मान्यवर!! .. और प्रियंकर भाई पहले ही कह चुके थे कि यार अभय! गज़ब का शोध और संयोजन है . जगह हो और भर्ती चालू हो तो मुझे चेला मूंड़ लो .
किसी भी नश्वर से ऐसी बाते कहीं जाएंगी तो गर्व से माथा बिगड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में तत्काल झुक कर सामने वाले की वन्दना कर लेने से बीमारी से बचाव हो जाता है पर मैं वो करने से चूक गया। उलटा पता नहीं किस तरंग में घर पर पड़ी हुई जलेबियों पर दिल ललचा गया। जबकि पिछले एक साल से मैदे और दही की बनी चीज़ों से परहेज़ कर रहा हूँ। जलेबी में मैदा भी है और खट्टा दही भी और सल्फ़रयुक्त शक्कर का शीरा भी। परिणामतः ऐसी भयंकर नींद आई कि सोच रहा था कि क्लब जाकर बैडमिन्टन खेल आऊँ.. उस लायक तो क्या घर पर बैठ कर एक ब्लॉग पोस्ट लिखने लायक भी नहीं रहा। और यह पोस्ट न लिख पाने का तीसरा कारण बन गया। एक अजब सी तन्द्रा से आक्रान्त रहा। जाने यह तन्द्रा जलेबी जनित थी यह दो महानुभावों के शिष्यत्व स्वीकरण प्रस्ताव जनित?
मेरा पूरा दिन इसी में चला गया और दोपहर होते-होते गर्व की रेसिपी में एक पाव और आ मिला जब मनोज कुमार ने शाहरुख से अपना अपमान करने की शिकायत की। मन में लोगों को यह कहने के लिए भाव पेंगें मारने लगा कि लो मैंने तो कल ही लिखा है कि यह दोनों खान मिलकर पूरी इंडस्ट्री को नीचा दिखाकर अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए हैं। देखो.. कह दिया मनोज कुमार ने.. सही न कहता था मैं!.. और बाकी लोग जो चुप हैं वो इसलिए क्योंकि वे किंग खान से पंगा नहीं लेना चाहते। ये धंदा है भाई सब से बना कर रहना पड़ता है।
शाम होते-होते ही शाहरुख और फ़रहा ने प्रेस कान्फ़ेरेन्स करके अपनी माफ़ी पेश कर दी। पूरे देश के आगे मनोज कुमार एक गुड-ह्यूमर्ड मासूम मज़ाक को न समझने वाले 'रोअंटे' और शाहरुख एक 'विशाल हृदय लीजेंड' साबित हो गए जो अपने पूर्वगामी से चांटा भी खाने को तैयार थे। उनकी यह सदाशयता देख कर मुझे भी ग्लानि होने लगी कि हाय-हाय यह क्या लिख डाला मैने एक सुपरस्टार के खिलाफ़। कल को अगर उसके साथ काम करना पड़ गया तो क्या मुँह दिखाऊँगा उसे.. यह सोचता हूँ मैं आप के बारे में- ‘आने वाली पीढ़ियाँ पूछने वाली हैं कि देखते क्या थे आप लोग उस आदमी में?’
मेरे पास कोई जवाब नहीं है कि मैं क्या जवाब दूँगा शाहरुख को जो एम सी आर सी में मेरा दो साल का सीनियर भी रह चुका है और मेरा गुरु भाई भी है.. लेख टण्डन को वो भी एक वक़्त गुरु मानकर पैर छूता रहा है और मैं भी। मगर मेरे और उसके बीच अरबों रुपये का फ़ासला है। और सिर्फ़ यह फ़ासला ही वो अकेली वज़ह नहीं है कि मैं शाहरुख के बारे में जो सच में महसूस करता हूँ लिखना चाहता हूँ।
शाहरुख खान के नेतृत्व में इस पूरे मीडिया तंत्र को मेरे घर के टीवी में से चीख-चीख अपने माल और अपने मूल्यों का प्रचार करने का पूरा हक़ है.. खुद शाहरुख को तमाम चीज़ों के बारे में एक झूठ बोलकर मेरे समय, मेरे मानस पर कब्ज़ा कर मुझे अपने हाथों की कठपुतली बनाने का पूरा हक़ है.. तो मानवता की प्रगतिशील कदमों ने इन्टरनेट और ब्लॉग के ज़रिये मेरे हाथों में जो अभिव्यक्ति के मार्फ़त मुक्ति का जो रास्ता बख्शा है उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार होने का मुझे हक़ क्यों नहीं है? मुझे वह कहने का हक़ क्यों नहीं है जो मैं सच में सोच रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ? मुझे हक़ है.. और अगर मैं अपने जीवन के दबावों और आशंकाओं के चलते उस के प्रति बेईमानी करता हूँ तो यह बेईमानी मैं उसके साथ नहीं अपनी ही मुक्ति के साथ कर रहा हूँ।
पुनश्च: तन्द्रा और गर्व को सर से उतार कर धरती पर आ गया हूँ.. भाई प्रियंकर, भाई संजीत आगे आप लोग मुझे ऐसी मुश्किल से बचाए रखेंगे इस उम्मीद के साथ!
इतना सब कहने के बाद भी सवाल रह ही जाता है कभी शाहरुख मिल गया तो क्या बोलूँगा उस से? उस के मुँह पर उसकी तारीफ़ कर दूँगा और यह मान कर चलूँगा कि उसे मेरे ब्लॉग के बारे में पता चलने की कोई महीन सम्भावना भी नहीं है..
या उसे पता चल भी गया तो उसे उसके ही अंदाज़ में सॉरी बोलकर कह दूँगा ब्रदर इट वाज़ ऑल इन गुड ह्यूमर! चाहो तो चाँटा मार लो! वैसे भी उमर में भी बड़ा है मुझसे!
या फिर उस से मिलने की सम्भावना के उपस्थित होते ही अपनी आपत्तिजनक पोस्ट को डिलीट कर दूँगा..
या फिर.. उस से मिलने को ही लात मार दूँगा.. उसे लात मार कर भी दाल रोटी मिल ही जाएगी..
गुरुवार, 15 नवंबर 2007
पद्मिनी नारी का विचार और मुश्किलें
मर्दों-औरतों के इस सिंह-शशक और पद्मिनी-हस्तिनी वर्गीकरण ने भारतीय इतिहास में बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं- लुक्स से लेकर एनेटॉमी तक को इनका आधार बनाया जाता था और जो भी राजा-रानी इन पर खरा नहीं उतरता था उसकी अपनी तो जिंदगी रद्द होती ही थी, अपने प्रजाजनों का भी वह जीना दूभर कर देता था। पूरब में कोणार्क मंदिर बनवाने वाले राजा नरसिंह से लेकर पश्चिम में चित्तौड़ नाश की वजह बनी रानी पद्मिनी तक इसके अनेक उदाहरण हैं। आपकी पोस्ट से प्रभावित होकर यह सिलसिला कहीं दुबारा न चल पड़े...
ऐसी किसी खतरे का परिहार करने के लिए(:)) पद्मिनी नारी पर अपना स्पष्टीकरण पहले ही दे रहा हूँ। ये वर्गीकरण आदिकाल से चला आ रहा है और आज तक जारी है.. मध्य काल में स्त्रियों के चार प्रकारों की चर्चा आम थी; हस्तिनी, शंखिनी, चित्रिणी, और पद्मिनी। मलिक मुहम्म्द जायसी ने भी पद्मावत में इसका ज़िक्र इस प्रकार किया है।
चौथी कहौं पदमिनि नारी। पदुम गंध ससि दैउ सँवारी।
पदमिनि जाति, पदुम रंग ओही।पदुम बास,मधुकर संग होही।
ना सुठि लांबी, ना सुठि छोटी। ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी।
सोरह करा रंग ओहि बानी। सो सुलतान! पदमिनि जानी।
दीरघ चारि, चारि लघु सोइ। सुभर चारि, चहुँ खीनी होई।
औ ससि बदन देखि सब सोहा। बाल मराल चलर गति सोहा।
खीर अहार न करि सुकुवाँरी।पान फूल के रहै अघारी।
सोरह करा संपूरन, औ सोरहौ सिंगार।
अब ओहि भाँति कहत हौ, जस बरनै संसार।
अर्थात सोलह कलाओं युक्त पद्मिनी नारी की चार कला/अंग (केश, उंगली, नेत्र, ग्रीवा) लम्बे होते हैं। चार कला/ अंग (दशन, कुच, ललाट और नाभि) छोटे होते हैं। चार कला/अंग (कपोल, नितम्ब, बाहु और जंघा) पुष्ट होते हैं। शेष चार कला/अंग (नासिका, कटि, पेट, और अधर) पतले होते हैं।
नारियों के वर्गीकरण की यह परम्परा मध्यकाल में आ कर नहीं शुरु हुई, बहुत सारी दूसरी चीज़ों की तरह इस के बीज भी पुराने हैं। महाभारत के गालव प्रकरण में आये उद्योग पर्व के ११६ वें अध्याय से ये श्लोक देखिये;
उन्नतेषून्नता षट्सु सूक्ष्मा सूक्ष्मेसु पञ्चसु।
गम्भीरा त्रिषु गम्भीरेष्वियं रक्ता च पञ्चसु।।
श्रोण्यौ ललाट मूरू च घ्राणं चेति षडुन्नतम।
सूक्ष्माण्यङ्गुलिपर्वाणि केशरोमनखत्वचः।।
स्वरः सत्वं च नाभिश्च त्रिगम्भीरे प्रचक्षते।
पाणिपादतले रक्ते नेत्रान्तौ च नखानि च॥
अर्थ: इस कन्या के जो छै अंग ऊँचे होने चाहिये, ऊँचे हैं। पांच अंग जो सूक्ष्म होने चाहिये, सूक्ष्म हैं। तीन अंग जो गम्भीर होने चाहिये, गम्भीर हैं तथा इसके पांच अंग रक्त वर्ण के हैं।
दो नितम्ब, दो जांघे, ललाट, और नासिका, ये छै अंग ऊँचे हैं। अङ्गुलियों के पर्व, केश, रोम, नख और त्वचा- ये पाँच अंग सूक्ष्म हैं। स्वर, अंतःकरण और नाभि- ये तीन गम्भीर कहे जा सकते हैं तथा हथेली, पैरों के तलवे, दक्षिण नेत्र प्रान्त, वाम नेत्र प्रान्त और नख, ये पाँच अंग रक्त वर्ण के हैं। आगे श्लोक और है;
बहुदेवासुरालोका बहुगन्धर्व दर्शना।
बहुलक्षण सम्पन्ना बहुप्रसवधारिणी।।
समर्थेयं जनयितुं चक्रवर्तिनमात्मजम।
ब्रूहि शुल्कं द्विजश्रेष्ठ समीक्ष्य विभव मम॥
अर्थ: यह बहुत से देवो-असुरों के लिए भी दर्शनीय है। इसे गन्धर्वविद्या (संगीत) का भी अच्छा ज्ञान है। यह अनेक शुभ लक्षणों द्वारा सुशोभित और अनेक संतानों का जन्म देने में समर्थ है। विप्रवर आपकी यह कन्या चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करने में समर्थ है; अतः आप मेरे वैभव की समीक्षा करके इसका समुचित शुल्क बताएं।
तो आदिकाल और मध्यकाल से होता हुआ इस वर्गीकरण की अनुगूँज अब पश्चिम की वैज्ञानिक सभ्यता में भी सुनाई दे रही है। अभी हाल में किए गए एक शोध के अनुसार जिन स्त्रियों की कमर और कूल्हे का अनुपात ज़्यादा होता हैं वे कम अनुपात वाली स्त्रियों से अधिक बुद्धिमान होती हैं। क्योंकि कूल्हों में मौजूद वसा में ओमेगा-३ एसिड पाया जाता है जो गर्भ के दौरान शिशु के मस्तिष्क के विकास में सहायक होता है और स्त्री के अपनी मानसिक शक्ति के लिए भी और इसके विपरीत कमर में जमा होने वाला वसा –ओमेगा-६ मस्तिष्क विकास में सहायक नहीं होता।
अब इस पर दो तरह से प्रतिक्रिया हो सकती हैं;
१) ये मर्दवादी सोच कि आकर्षक स्त्रियाँ बुद्धिमान नहीं होती, ग़लत साबित हो ही गई।
२) या फिर इसके ठीक उलट कि ये शोध बकवास है क्योंकि यह सिद्ध करती है कि अनाकर्षक स्त्रियाँ बुद्धिमान भी नहीं होती।
सही-गलत से इतर एक सवाल और भी है जो मुझे हमेशा परेशान करता है.. क्या सत्य का फ़ैसला इस आधार पर होगा कि वह पोलिटिकली करेक्ट है या नहीं?
आप देखते क्या थे उस आदमी में?
फ़िल्म में कहानी बुरी है, उसका छायांकन बुरा है, गाने लिखे बुरे हैं, धुने बुरी हैं, नाच बुरे हैं.. जबकि फ़रहा मूलतः एक नृत्य निर्देशक हैं। शाहरुख तो घटिया अभिनय के बादशाह हैं ही पर इस फ़िल्म में उनसे भी घटिया अभिनय करने वाले अर्जुन रामपाल मौजूद हैं। श्रेयस तलपडे अच्छे हैं लेकिन शाहरुख इतने बुरे हैं कि मुझे बार-बार राजेन्द्र कुमार की याद आती रही जो अपने समय में जुबली कुमार कहे जाते थे मगर बाद के पीढ़ियाँ ६० की पीढ़ी से सवाल करती ही रहीं कि भैया आप लोग देखते क्या थे उस आदमी में। भाइयों आने वाली पीढ़ियाँ ये तोहमत हम पर भी लगाने वाली हैं.. तैयार रहें।
सावरिया से मुझे शिकायते हैं मगर ओम शांति ओम के आगे मैं सावरिया को सिंहासन पर बिठाता हूँ। मैं हूँ ना में फिर भी एक मासूमियत थी, एक हलकापन था.. लेकिन इसमें एक प्रकार का वैमनस्य है.. पूरी इन्डस्ट्री के खिलाफ़। वही वैमनस्य जो अमिताभ बच्चन से उनकी होड़ में झलकता है। शाहरुख और फ़रहा जैसे अपने अलावा सभी को मज़ाक बनाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहते हों। श्रेष्ठता सिद्ध करने के इस हथकण्डों में उन्होने पूरे मीडिया तंत्र को जोता हुआ है। सब जगह सावरिया को हारा हुआ बता कर ओम शांति ओम को विजेता घोषित किया जा रहा है। पहले तीन दिन में ओ शा ओ की कमाई ८४ करोड़ की है और सावरिया की ५८ करोड़ की। किस तर्क से सावारिया फ़्लॉप कही जा सकती है? मगर ये उन मूल्यों के अंतर्गत है जिन्हे शाहरुख खुद भी प्रचारित करते हैं- सबसे ज़रूरी है जीतना.. कैसे भी।
फ़िल्म में इतनी सब बुराइयों के बाद एक अच्छाई भी हैं – दीपिका पादुकोने। उनके अभिनय की परिपक्वता देखकर लगता ही नहीं कि उनकी पहली फ़िल्म है। वे बेहद खूबसूरत लगी हैं और इतनी सब बेहूदगी के बीच आप को उनके भीतर एक निर्दोषता की झलक देख कर आन्तरिक खुशी मिलती है। सिनेमा के दीवाने इसी निर्दोषता को देखने के लिए बार-बार थियेटर के अंधेरों में वापस लौट जाया करते थे.. मैं भी तो।
मध्य काल में स्त्रियों के चार प्रकारों की चर्चा आम थी; हस्तिनी, शंखिनी, चित्रिणी, और पद्मिनी। मलिक मुहम्म्द जायसी ने भी पद्मावत में इसका ज़िक्र किया है। दीपिका निश्चित ही पद्मिनी नारी हैं।
बुधवार, 14 नवंबर 2007
न्यायसंगत हिंसा?
बुद्धदेब ने आरोप लगाया कि भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के कार्यकर्ताओं को माओवादियों ने हथियार दिए हैं और प्रशिक्षण भी दिया है. उन्होंने स्वीकार किया कि नंदीग्राम के इलाक़े में पुलिस नहीं जा पा रही है. (बीबीसी की रपट से)
एक मुख्यमंत्री के ऐसे बयान का मतलब है कि उनकी पुलिस और प्रशासन क़ानून का राज क़ायम करने में असफल और अक्षम है। और सीपीएम एक दल के तौर पर पुलिस से अधिक बल और सामर्थ्यवान है तो क्यों न पश्चिम बंगाल में राज्य व्यवस्था को भंग करके राज्य की पूरी बागडोर पार्टी के हाथों ही सौंप दी जाय। जो कि देश के संविधान के विरुद्ध होगा.. चूंकि पश्चिम बंगाल की सरकार का़नून व्यवस्था का़यम रखने में न सिर्फ़ पूरी तरह से असफल रही है बल्कि एक दंगाई दल का खुले आम समर्थन भी कर रही है, अतः संविधान के अनुसार होना तो यह चाहिये कि वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाय।
और चूँकि बुद्धो बाबू के बयान यह भी कह रहा है कि सीपीएम के कार्यकर्ताओं को अपना घर हासिल करने के लिए एक व्यापक हिंसा अभियान करने का हक़ है तो नरेन्द्र मोदी के गुण्डों को गोधरा का बदला लेने का हक़ भी सिद्ध हो जाता है। इस तरह से तो देश के हर अपराधी को खुला अपराध करने की छूट मिल जानी चाहिये बशर्ते उसके पास तो बस बंदूक उठाने की एक वज़ह हो। वो गोली मारने के बाद कह सकता है कि मरने वाले ने उसे माँ की गाली दी थी.. और बस उसकी हिंसा न्यायसंगत हो जाएगी।
इस हिंसा के तांडव ने मुझे अपने देश और मानवता के भविष्य के प्रति बुरी तरह से चिंतित कर दिया है.. क्या हम कभी भी इतने सभ्य और विवेकवान न हो सकेंगे कि कम से कम अपने जैसे मनुष्यों के प्रति हिंसा की वृत्ति का शमन कर सकें ? उत्तर में कश्मीर में रोज़ाना हिंसा हो रही है, पश्चिम में ‘शांतिप्रिय’ गुजरात की ऐतिहासिक हिंसा को कैसे भुला सकेगा, दक्षिण में तमिल ईलम की हिंसा से भी भारत के तार जुड़े हुए हैं, पूरे का पूरा उत्तर पूर्व हिंसा से पहले ही कम जल रहा था कि वामपंथी बंगाल ने भी अपना नक़ाब नोंचकर फ़ासीवादी चेहरा दिखा दिया।
पढ़ें कैसे माकपा ने कब्जियाया नन्दिग्राम
मंगलवार, 13 नवंबर 2007
बेदखल की डायरी
मनीषा पाण्डेय स्वतंत्र मानस की एक मेधावी लड़की हैं। वैसे तो वे इलाहाबाद से तअल्लुक रखती हैं पर मेरा उनसे परिचय मुम्बई का है, जब वे यहाँ पर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही थीं। उस दौरान ही उन्होने तमाम किताबों के अनुवाद को अंजाम दे डाला। फ़िलहाल वे इन्दौर में रहते हुए वेबदुनिया से सम्बद्ध हैं।
उनकी दिलचस्प डायरी पहले मोहल्ला पर शाया होती रही है.. अब से यह उन के खुद के ब्लॉग पर नियमित देखी जा सकेगी.. बेदखल की डायरी के नाम से.. जो इस धरती से बेदखल आधी आबादी के लिए लिखी जा रही है.. पर उसे पढ़ने का हक़ पूरी आबादी को प्राप्त है.. जिसमें आप भी शामिल हैं.. ज़रूर पढ़े मनीषा को और उनका उत्साह वर्धन भी करें.. उनके लेखन से मेरी बड़ी उम्मीदें हैं..
वेबदुनिया में ब्लॉग चर्चाओं के पुराने लिंक..
(इसमें से शुरुआती तीन, यूनुस खान, रवि रतलामी और पंकज पराशर वाले मनीषा की बीमारी के दौरान किसी और ने लिखे हैं। बाकी के उन्होने ही लिखे हैं)
यूनुस खान
रवि रतलामी
पंकज पराशर
उदय प्रकाश
प्रत्यक्षा
रवीश कुमार
ज्ञानदत्त पांडेय
अनिल रघुराज
अभय तिवारी
अगली चर्चा फ़ुरसतिया पर है.. ऐसी सूचना मिली है..
सोमवार, 12 नवंबर 2007
आ रहा है लोकतंत्र पाकिस्तान में
शर्मनाक है नन्दिग्राम
नन्दिग्राम की शर्मनाक घटनाओं से ये बात साफ़ हो जाती हैं कि पिछले दिनों अनिल भाई ने कम्यूनिस्ट और संघियो को एक वाक्य में इस्तेमाल करके कुछ प्रतिबद्ध लोगों से जो पंगा ले लिया था वह अकारण और आधारहीन नहीं था। क्योंकि नन्दिग्राम के दमनचक्र में पार्टी और राज्य की जो मिलीभगत चल रही है उसे देखकर गुजरात की याद बार-बार आती है। दोनों ही जगह हिंसा के ज़रिये एक तबके़ को दबाने की कोशिश की गई। वह मुसलमान थे या गरीब किसान.. यह गौण है.. मुख्य बात है कि इस हिंसा का इस्तेमाल राज्य सत्ता पर अपनी पकड़ और जकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए किया गया।
और यह बात भी दुखद तौर पर सिद्ध हो जाती है कि भारतीय राजनीति में पार्टी का नाम और झण्डे का रंग कौन सा है इस से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। कांग्रेस और भाजपा के चरित्र का परिचय कराने की किसी को कोई ज़रूरत नहीं.. हज़ारों लाखों लोगों की सुनियोजित हत्याओं के अपराधी हैं ये पार्टियाँ। शिवसेना, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगुदेसम, और सीपीआई एम.. सभी का एक गहरा हिंसात्मक पक्ष है। चुनाव के ज़रिये सत्ता पाने में उनकी पूरी श्रद्धा है मगर लोकतांत्रिक व्यवहार में उनकी आस्था अभी कम है। भारतीय राजनीति का चरित्र है यह। भारत की जनता समय-समय पर प्रतिरोध की आवाज़ें उठाती रही है। आज यह सीपीआई एम के खिलाफ़ है.. कल तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ़ होगा।
सीपीआई एम का उलटा आरोप है कि नन्दिग्राम में उनके दल को उखाड़ फेंकने की एक हिंसात्मक साजिश चल रही है। उनके दल के सभी लोगों को नन्दिग्राम से खदेड़ कर बाहर कर दिया गया है और इस अभियान की अगुआई एक रंजित पाल नाम का माओइस्ट कर रहा है। ऐसे वक्तव्य जारी करने से पहले यह दल यह भी नहीं सोचता कि लोग पूछ सकते हैं कि माओइस्ट बिना जनता के लोकप्रिय सहयोग के कैसे ऐसा कर पा रहे हैं? और क्यों लोग सीपीआई एम के इतना खिलाफ़ हैं? और क्यों अचानक वह सीपीआई एम इतनी असहाय हो गई है जो अपने विरोधियों को मिट्टी का तेल डालकर आग लगा देने के लिए प्रसिद्ध है?
रविवार, 11 नवंबर 2007
चन्द्रहीन रजत रातें
फ़िल्म सावरिया दोस्तोयेव्स्की की एक रजत रातें नाम की कहानी पर आधारित है- जिस पर फ़्रेंच डाइरेक्टर रॉबर्ट ब्रेसॉन और इटैलियन डाइरेक्टर लूचिनो विस्कोन्ती पहले ही हाथ आजमा चुके हैं। चार रातों की कहानी है.. लड़का लड़की पर फ़िदा है मगर लड़की को अपने पूर्व प्रेमी का इंतज़ार है.. जो लड़के के हज़ार न चाहने पर भी फ़िल्म के अंत में आ ही जाता है। और लड़का फ़िर अकेला रह जाता है।
इस महीन कहानी को अपने खास सजावटी फ़्रेम्स में गढ़ते हुए उन्होने सोचा होगा कि मैं एक परदे पर उकेर रहा हूँ अ पोएट्री इन ब्लू.. और एक गुनगुनी सरसराहट उनके मेरूदण्ड में दौड़ गई होगी। और यह सोचकर उनके गर्वीले भाल में तनाव का एक पेंच और कस गया होगा कि इस दफ़े वे सूक्ष्म दोस्तोयेवस्कियन उत्कण्ठा को गढ़ रहे हैं। दिक़्क़त यह है कि सावरिया भंसाली की सभी दूसरी फ़िल्मों की तरह अपने समय, अपने समाज से विछिन्न हैं.. वह एक स्वैर कारीगरी का घमण्डपूर्ण प्रदर्शन है। फ़िल्म में प्रदर्शित उत्कण्ठा में कोई दारुणता नही है और स्थूल शरतचन्द्रीय देवदासीय अतिनाटकीयता भी नहीं है जिसे उनकी उस दर्शक दीर्घा को लत पड़ चुकी है जिसकी मुख्य खुराक एकता कपूर के मद्रास कट वाले टीवी सीरियल्स हैं। और शायद यही उनकी असफलता का मुख्य कारण होगा, अगर फ़िल्म सचमुच असफल है तो! और रही बात उनकी सजावटी फ़्रेम्स की.. निश्चित ही उनमें एक सौन्दर्य है पर ताज़े फूलों का सौन्दर्य नहीं... पानी मारे हुए बासी फूलों का सौन्दर्य भी नहीं.. प्लास्टिक के फूलों का सौन्दर्य.. जो अपने रंगो में असली से भी ज़्यादा आकर्षक दिख सकते हैं.. मगर बे-खुशबू होते हैं।
भंसाली का सिनेमा दुनिया की एक सपाट समझ का सिनेमा है.. उसमें खुलने के लिए कोई परत नहीं होती.. उतरने के लिए कोई गहराई नहीं होती। उनके लिए सिनेमा का मतलब अपने नायक और नायिका को एक खूबसूरत पृष्ठभूमि के सामने खड़ाकर, चलाकर, नचाकर, गवाकर तस्वीर उतारना है। लोग मानते हैं कि वह रूमानी क्षणों की रचना करने में उस्ताद हैं.. निश्चित ही नायक-नायिका के बीच की आपसी नोंक-झोंक और खींच-तान की जो रचना उन्होने ‘हम दे दिल दे चुके सनम’ में की वह आज भी दर्शकों के मानस में दर्ज है। पर उनकी यह कुशलता उन्हे मुम्बईया फ़िल्मों की ‘फ़िल्मी’ कारीगरी का एक बाजीगर ही बनाती है उस से ज़्यादा कुछ नहीं। जिस तरह से उनकी पिछली फ़िल्म को ‘क्रिटिकल एक्लेम’ मिला.. उस से उनको और बहुत सारे लोगों को यह भ्रम बना होगा कि वे एक सच्चे कलाकार हैं। कला की जिस परिभाषा को मैं जानता हूँ उसमें भंसाली का सिनेमा किसी भी तरह से कला के दायरे में नहीं आता। न तो वो अपने समाज को अभिव्यक्त करता है न भंसाली के भीतर के व्यक्ति को.. वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक माल है.. बाज़ारू खपत के लिए।
इसका मतलब यह नहीं समझा जाय कि कला का कोई बाज़ार नहीं होता.. होता है ज़रूर होता है.. पर कला और बाज़ार का कोई सीधा रिश्ता नहीं है। बाज़ार में बिकने वाली हर चीज़ कला नहीं है और हर कलात्मक चीज़ की सही पहचान कर पाने की क़ुव्वत बाज़ार में नहीं होती। हो सकता है कि कोई कला तुलसीदास, हिचकॉक और पिकासो की तरह लोकप्रिय हो और कोई कला वैनगॉग की तरह अपने समय में बुरी तरह असफल.. और उसका महत्व काफ़ी सालों बाद ही समझा जा सके।
जो लोग भंसाली के सिनेमा को पसन्द करते रहे हैं उन्हे इस फ़िल्म से निराशा नहीं होगी ये मेरा अनुमान है। और फिर देखने के लिए रनबीर राज और सोनम भी तो हैं.. जो काफ़ी सारे उन लोगों से बेहतर हैं जो फ़िल्मी परिवार के होने की बिना पर ही हमारे सर पर लादे जाते रहे हैं।
फ़िल्म कई बार रनबीर राज का राज कपूर से सम्बन्ध याद दिलाने की कोशिश करती है .. पर व्यर्थ में.. राज कपूर का सिनेमा अपने सारे सपनीले यथार्थ के बावजूद ख्वाजा अहमद अब्बास की ज़मीन से उगता था। सावरिया का यथार्थ अपनी रजत रातों से इतना कटा हुआ है कि उसमें चाँद आता तो ज़रूर है 'साँवरिया' के 'सा' के ऊपर टिकता नहीं.. डूबा ही रहता है।
गुरुवार, 8 नवंबर 2007
कैसे गिरा सद्दाम
एक बड़ा सीधा संदेश छुपा था इस छवि में- इराक़ के हत्यारे तानाशाह को अमरीकी सेना ने अन्ततः उखाड़ फेंका और इराक़ी जनता अपनी मुक्ति का उत्सव मना रही है। यदि मैं आप से कहूँ कि न इस सन्देश का सच से कोई लेना देना था और न इस छवि का.. तो क्या आप मेरा यक़ीन करेंगे। शायद नहीं- अपनी आँखों देखी बात को आप मेरे कहने भर से क्यों झूठ मानने लगे!
कल मैंने कन्ट्रोल रूम नाम की एक डॉक्यूमेन्टरी देखी, जो इराक़ युद्ध के दौरान मीडिया की भूमिका पर केन्द्रित है। अल-जज़ीरा नाम के चैनल को लोग भूले नहीं होंगे। युद्ध के दौरान एक ओर तो वह अमरीकी प्रशासन की आँख की किरकिरी बना हुआ था और दूसरी ओर सद्दाम प्रशासन का भी आरोप था कि अल-जज़ीरा अमरीकी कुत्ता है। फ़िल्म मुख्य रूप से इस चैनल और अमरीकी मीडिया मैनेजमेंट और इराक़ युद्ध के रिश्तों की पड़ताल करती चलती है।
अमरीकी सेना के बग़दाद अधिग्रहण के पहले आप को याद होगा कि अमरीकी सेना ने बग़दाद के भीतर एक हमले के दौरान तीन मीडिया सेन्टर को निशाना बनाया था। यह घटना हमें फ़िल्म के भीतर विस्तार से देखने को मिलती है जिसमें दोहा टीवी सहित दो अन्य मीडिया सेन्टर्स पर हमले के साथ-साथ अल-जज़ीरा के बग़दाद कार्यालय पर हमला किया गया –सीधा डाइरेक्ट रॉकेट हमला। जिसमें अल-जज़ीरा के मुख्य रिपोर्टर की मौत हो गई। इस बर्बर हमले का कारण पूछे जाने पर अमरीकी वक्तव्य था कि इन ठिकानों से उनके जहाजों के ऊपर हमले किये जा रहे थे इसलिए उन्होने सिर्फ़ जवाबी कार्रवाई की। क्या बात है जवाबी कार्रवाई की। पूरी दुनिया जानती है कि पूरे का पूरा इराक़ युद्ध एक जवाबी कार्रवाई था- अगर अमरीका ने हमला ना किया होता तो सद्दाम ने अपने वेपन्स ऑफ़ मास डिस्ट्र्कशन्स के सहारे अमरीका जनता को धुआँ कर दिया होता। खैर..
दुनिया भर के मीडिया को हिला देने वाले इस हमले का नतीजा ये हुआ कि जितने भी मीडियाकर्मी स्वतंत्र रूप से यहाँ-वहाँ टहल कर युद्ध का हाल बयान करने की कोशिश कर रहे थे, वे सब डर कर अमरीकी सेना के साथ लटक लिए.. युद्ध देखना है और दुनिया को दिखाना है तो वैसे देखो-दिखाओ जैसे हम बता रहे हैं। अल जज़ीरा ने फिर भी चाहा कि वह स्वतंत्र ही रहे पर किसी भी इराक़ी इमारत में उन्हे जगह नहीं मिली.. हर जगह लोग डरे हुए थे कि अमरीकी सेना उन्हे निशाना बना रही है.. वे जहाँ जायेंगे.. बम वहीं मारा जायेगा।
मीडिया ने थोड़ी निंदा ज़रूर की पर अमरीकी सेना ने एक बड़ी लड़ाई जीत ली थी अब वे सच को स्टेज-मैनेज कर सकते थे.. एक एक घटना को वैसे बना-बना कर पेश कर सकते थे जैसा कि वे चाहते थे.. फ़िक्शन की तरह.. पहले सीन लिखा.. एक्टर तैयार किए.. सेटिंग तैयार की.. और सबसे आखिर में कैमरामैन को बुलाकर शूटिंग कर ली.. ये जो इराक़ युद्ध का अविस्मरणीय दृश्य मेरे/ आप के मानस में अंकित है वह इसी तरह से तैयार किया गया था।
इराक़ में बम मारे जा रहे थे.. बेगुनाह आदमी, बूढ़े, बच्चे, औरतें मर रहे थे.. लोगों डर के मारे अपने घरों में बंद थे। मगर अमरीकी टैंको के आते ही ये कौन और कैसे नौजवान थे जो अचानक सड़कों पर निकल आए और बेधड़क हो कर विदेशी कैमरों के आगे उत्पात मचाने लगे.. सद्दाम को ऊँची पत्थर की मूर्ति को पूरे साजो सामान के साथ गिराने लगे.. क्या यह सब स्वतःस्फूर्त था? फ़िल्म के अन्दर एक अरब चरित्र बताता है कि वह इराक़ी है और वह पहचानता है इराक़ी लहज़े को.. उत्पात मचाने वे लोग बग़दादी तो क्या इराक़ी भी नहीं थे! इस पूरे घटना क्रम के दौरान बाकी शहर में क्या हो रहा था लोग क्या महसूस कर रहे थे.. ये बताने वाला कोई रिपोर्टर नहीं था। उन्हे बम खा कर मरना नहीं था.. वे सब अमरीकी सेना के इशारे पर आ-जा रहे थे.. वही दिखा रहे थे जो उन्हे सेना दिखा रही थी।
तो साहब वह छवि झूठी थी और दोनों ही बातें झूठी थी उस छवि के संदेश में। न तो वहाँ की जनता सद्दाम से मुक्ति पा कर कोई उत्सव मना रही थी- बल्कि अमरीकियों से मुक्ति पाने के लिए लड़ रही है आज भी - और न ही उस घटना के साथ इराक़ युद्ध समाप्त हो गया था। इराक़ में क़त्लो-ग़ारत आज भी जारी है।
चलते चलते एक बात और यदि अमरीकी प्रशासन एक छवि का निर्माण करने के लिए इतना कुछ कर सकता है तो वह ११ सितम्बर के हमले की योजना खुद बनाकर, खुद अमल में लाकर दोष ओसामा सहित मुस्लिम आतंकवादियों पर क्यों नहीं मढ़ सकता? आखिर तेल पर कब्ज़े और दुनिया पर अमरीकी आधिपत्य की इस पूरी लड़ाई के बीज तो उसी घटना में दबाए गए हैं। और यह आरोप किसी अल-जज़ीरा नाम के अरब चैनल का नहीं है.. खुद अमरीकी जनता के एक बड़े प्रबुद्ध और जागरूक हिस्से का है।
मंगलवार, 6 नवंबर 2007
सारे लेखक सलीम खान नहीं होते!
हमारे यहाँ हाल बड़े बुरे हैं। पहले तो कोई अनुबन्ध होता नहीं। यदि होता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्माता के हित की रक्षा करने के ही उपनियम लिखे जाते हैं। लेखक से उम्मीद की जाती है कि वह चुपचाप उस पर हस्ताक्षर करे दे। अधिकतर कर भी देते हैं मगर आजकल कुछ जागरूक लेखक अपने हितों की शर्तें भी अनुबंध में शामिल करवाने के लिए बहस करने लगे हैं। पर सच्चाई यह है कि सलीम-जावेद की जोड़ी के सलीम खान जैसे दबंग और तेज़तर्रार लेखक लाखों में एक ही कोई होता है। जो अपने मूल्य को समझते हों और उसकी समुचित पहचान के लिए बराबर लड़ने के लिए तैयार रहते हों। खुद जावेद साब का मानना है कि यदि सलीम साब उनके साथ न होते तो वे कभी वैसा नाम और दबदबा न पैदा कर पाते कि जैसा कि फ़िल्म इतिहास में सलीम-जावेद के नाम से दर्ज है।
बहुसंख्यक तो दीन-हीन, लुटे-पिटे ही बने रहते हैं और रसोई चलाने के लिए जो थोड़ा-मोड़ा मिल जाय उसी पर संतुष्ट हो जाते हैं। निर्माता/निर्देशक हर लेखक को काम देते वक़्त ऐसा जताते हैं कि वह यह काम देकर उस बहुत बड़ा ब्रेक दे रहे हों और बहुसंख्यक लेखक अपनी दलित मानसिकता में बने रहते हुए किए गए काम को सचमुच निर्माता/निर्देशक का एहसान मानते हैं। पर नहीं भी मानते हैं और एक मानसिक दबाव और अस्तित्व की घुटन में जीते हैं।
मेरे एक मित्र हैं वे फ़िल्म इंडस्ट्री का एक दिलचस्प जाति विभाजन करते हैं। उनका कहना है कि अभिनेता क्षत्रिय है.. या तो वो स्टार बनकर राज करता है या सैनिक बनकर धक्के खाता है। निर्माता वैश्य है असली माल वह बटोरता है। लाइटमैन, मेकपमैन आदि शूद्र हैं और लेखक ब्राह्मण है। और ब्राह्मण तो दरिद्र ही अच्छा लगता है।
सही है.. कहावत भी है कि लक्ष्मी और सरस्वती साथ-साथ नहीं रहती। और यह बात भारत ही नहीं दुनिया भर में लागू होती है। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो लेखक, वैज्ञानिक, अध्यापक दरिद्रता के दामन में पलते आए हैं। आज तो स्थिति और भी बदतर है- आज न वे सिर्फ़ दरिद्र है बल्कि अपने आदर-सम्मान से भी वंचित हो कर एक लतखोर मजदूर में बदले जा चुके हैं जो चन्द सिक्के फेंक कर खरीदा जा सकता है।
अगर भारतीय संस्कृति की आपत्तिजनक शब्दावलि का प्रयोग करें तो 'ब्राह्मण' अब धीरे-धीरे 'शूद्र' में बदल रहा है। उन्ही शब्दों को और खींचते हुए सभी 'वैश्य' की तानाशाही में पिस रहे हैं। 'क्षत्रिय' का मज़दूरीकरण तभी आरम्भ हो गया था जब उन्होने पैसे लेकर पक्ष चुनना शुरु कर दिया था- मध्यकाल से ही। और स्वजाति भक्षण के रूप में छोटे व्यापारी को निगलने के लिए क़ानून लागू होने शुरु हो गए हैं- दिल्ली में सीलिंग, चाट आदि की दुकानों पर पर प्रतिबन्ध इसी कड़ी में हैं।
इस आपत्तिजनक शब्दावलि को छोड़ भी दें तो एक बात तो साफ़ है कि पूरे समाज का मजदूरीकरण चालू है.. किसी को ये शब्द अच्छा लगे या बुरा उस से कोई फ़रक नहीं पड़ता। बुद्दि, सम्पत्ति, शक्ति, और सत्ता के केन्द्रीकरण की दमनकारी प्रक्रिया चालू है.. आगे-पीछे सभी उसकी चपेट में आयेंगे। सावधान!!
सोमवार, 5 नवंबर 2007
असल में क्या होती है लीला!
चलायमान हो जाता है सारा आस-पास, एक स्पंदन में धड़कने लगता है, जैसे जो गोशे चुपचाप अनजाने भाव में सिमटे-लिपटे पड़े थे अचानक एक परिचय की बयार में फड़कने लगे हों। खेलते हुए ये सारी भौतिक इकाईयाँ भी जैसे हमारे साथ एक खेल में शामिल हो जातीं हैं। जब इस खेल भाव से मैं उनके सम्पर्क में आता हूँ तो न तो बहुत गम्भीर होता हूँ न बहुत आह्लादित, न उनसे कुछ लेना चाह रहा होता हूँ और न कुछ देना। किसी मक़्सद किसी मंशा से उन भौतिक इकाईयों के सम्पर्क में नहीं आता; अपनी मौज में उनके क़रीब आता-जाता हूँ। जो आम तौर पर एक गेंद की शक्ल में यहाँ से वहाँ उछल-कूद कर रही होती है।
ये आम अनुभव है, सभी को होता है बचपन में और मेरे जिसे कुछ लोग जो बचपन में मनन के मारे जम के खेलने से रह गए, उन को अब भी होता है- खेलने के बचे हुए घण्टे पूरे करते हुए। इस सिलसिले के दौरान हम आस-पास के सभी पेड़, पत्थर, झाड़ी, दीवार, नाली, स्कूटर, साइकिल सभी के सम्पर्क में आते हैं।
इस अनुभव के दौरान एक और अनुषंगी अनुभव होता है। मैंने पाया है कि खेल शुरु होने के कुछ समय बाद ही ये सारी इकाईयाँ भी हमारे साथ खेल में शामिल हो जाती हैं- अपनी भौतिक सीमाओं के अन्दर रहते हुए। झाड़ी बहुत चाह कर भी अन्डर-आर्म बोलिंग नहीं कर सकती, मगर फ़ील्डिंग कर सकती है और करती है। कभी-कभी अपनी शानदार फ़ील्डिंग के मुज़ाहिरे पर दाद न मिलने या किसी दूसरी वज़ह से शैतानी भी करने लगती है। जैसे ही गेंद उसके पास आती है वह उसे लपक के अन्दर कर लेती है और वापस ही नहीं करती। अरे भाई साहब मैंने कितनी बार तो मोटरसाइकिल को गेंद को अपने पहियों के तीलियों में जकड़ के पकड़ते हुए पाया है और कितनी बार कार के अपने पेट के नीचे लुकाते हुए। नालियाँ भी कुछ कम पंगेबाज़ नहीं होती। गेंद को जैसे लील लेती हैं, फिर खोजते रहिये आप? अब ये पूरी तरह उनकी नाराज़गी के स्तर पर निर्भर होता है कि गेंद आप को वापस मिलेगी या नहीं मिलेगी।
मेरी ये बात उनको भी हवाई लग सकती है जिनके जीवन का मक़सद कुर्सी-बिस्तर और मकान-गाड़ी ही है। लेकिन जिन लोगों ने बचपन में अपनी न जाने कितनी गेंदे इस तरह से गँवाई हैं, वे मेरी बात समझेंगे। मैं तो आज तक गँवा रहा हूँ.. एक तो कल शाम को ही लील ली गई नाली द्वारा। जिस से खीज कर यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा हुई। और पोस्ट लिखते-लिखते ये समझ आई कि असल में क्या होती है लीला!
रविवार, 4 नवंबर 2007
ईश्वर और यौनाचार
इसका कोई समुचित उत्तर नहीं मिलता बावजूद इसके कि हमारे सनातन धर्म में वेदों, पुराणों से लेकर श्रीमदभागवत तक ऐसा गड्ड-मड्ड बराबर होता आया है। चाहे वह अश्वमेध यज्ञ का प्रकरण हो या स्कन्द की जन्म कथा या श्रीकृष्ण का महारास.. सबमें 'अश्लील' तत्व जम कर मौजूद है। फिर भी लोग उसे भक्ति भाव से सुनते-गुनते हैं। आजकल के गुरुओं से पूछिये तो वे इस का जवाब नहीं देते.. लीपापोती करते हैं। कहते इन सन्दर्भों में यौन तत्व देखने वाले लोग मतिभ्रष्ट हैं- जनता ताली बजाकर उनकी बात का अनुमोदन करती है और हमारा धर्म शुद्ध,निर्विकार बना रहता है।
मगर भाई अगर यौन-तत्व है ही नहीं तो व्यासादि ॠषियों को पागल कुत्ते ने काटा था या वे खुद मतिभ्रष्ट थे जो यौन रूपक लेकर आध्यात्मिक ज्ञान धकेल रहे थे? कुछ तो वज़ह रही होगी.. इस पर लोग ज़्यादा बात नहीं करते?
मन्दिरों के बाहर 'अश्लील' मूर्तियों के चित्रण को लेकर मेरी माँ के पास एक दिलचस्प दलील है- उनका कहना है कि मन्दिर के बाहर विभिन्न प्रकार के यौनाचार की सैकड़ों मूर्तिय़ाँ हैं और भीतर ईश्वर की मूर्ति है। ईश्वर तक पहुँचने के लिए तुम्हे उन सारे यौनाचार से ध्यान हटाकर आना होगा, उसे बाहर छोड़कर आना होगा। अगर तुम्हारी दिलचस्पी यौनाचार में ही है तो तुम कभी अन्दर आओगे ही नहीं बाहर ही बाहर बने रहोगे। ईश्वर तक पहुँचना है तो यौनाचार को बाहर छोड़ो और भीतर आओ। और हमारे प्रतीकात्मक सनातन धर्म में मन्दिर कुछ और नहीं हमारे शरीर का मन्दिर है। बाहर भौतिक जगत में यौनाचार है, और वही उसका स्वरूप है.. वही सृष्टि है.. उसको नकारोगे तो सृष्टिक्रम रुक जायेगा.. पर वही सब कुछ नहीं है..भीतर और भी सुन्दरता है.. भीतर ईश्वर है।
शनिवार, 3 नवंबर 2007
बंद करो बीकॉसूल-भक्षण!
इस चार्ट के अनुसार जो हर स्वस्थ-अस्वस्थ आदमी बीकोसूल, लिव-५२, डाइजीन, ग्लूकॉन डी और रिवायटल गटके जा रहा है, वह नितान्त ठगी है और कुछ नहीं। अरे भाई, अब तो बन्द करो बीकॉसूल खाना.. और ज़ोर से बोलो जय बाबा रामदेव!
विभ्रम का अनोखा संसार
आइरिश लेखक ब्रायन ओ'नोलन की फ़्लैन ओ’ब्रायन छद्म नाम से लिखी पुस्तक दि थर्ड पुलिसमैन एक ऐसे फँसे हुए आदमी की कहानी है जिसकी जीवन की साध तो अपने पूज्य दार्शनिक पर किए गए शोधकार्य को प्रकाशित कराना है मगर हालात ऐसे बनते हैं कि वह इस काम को अंजाम देने के लिए पैसा जुटाने की जुगत में अपने गाँव के एक बूढ़े की हत्या में सहभागी हो जाता है। और जब लूट के माल को हासिल करने का वक़्त आता है तो एक अजीब सी दूसरी दुनिया में फ़िसल जाता है जो लगती तो सामान्य ही है मगर जहाँ सामान्य दुनिया के कोई नियम काम नहीं करते। जिसमें इमारतें दो-आयामी हैं, सूरज जहाँ से उगता है वहीं से वापस लौट कर डूब भी सकता है, आदमी के परमाणु साइकिल में जा सकते हैं और साइकिल के आदमी में। साइकिल और आदमी प्रेम और विवाह करने के लिए भाग भी सकते हैं।
उपन्यास में एक अनोखी तरलता है जिस पर आप सहजता से विश्वास भी कर सकते हैं और साथ-साथ चकित भी होते चलते हैं। मेरी नज़र में यह एक सफल सर्रियल संसार है बनाम उस असफल सर्रियल संसार के जिसे अनुराग नो स्मोकिंग में रचते पाए गए। खैर! उपन्यास अभी पढ़ ही रहा हूँ इसलिए किसी अन्तिम निष्कर्ष की घोषणा नहीं कर सकता।
एक और खास बात है उपन्यास में – फ़्लैन ओ’ब्रायन लगातार नायक के पूज्य दार्शनिक के विचारों की चर्चा करते चलते हैं जिनका नाम हैं डि सेल्बी। ये पूरी तरह से काल्पनिक चरित्र हैं मगर जिस तरह से इनका ज़िक्र आता है, आप को उनके अस्तित्व पर वैसे ही यक़ीन हो जाता है जैसे किसी भौतिकी की पाठ्य पुस्तक पढ़ते हुए आप को न्यूटन या हाइज़नबर्ग पर। आप उन महानुभावों से मिलते नहीं मगर पूरी किताब में उनका ज़िक्र यहाँ वहाँ और नीचे फ़ुटनोट्स में पढ़ते रहते हैं। उसी तरह डि सेल्बी जनाब के फ़ुटनोट्स भरे पड़े हैं। लेकिन वे दिमाग़ पच्ची नहीं करते, आप को हैरत से भरते हैं। जैसे कि यह विचार कि अगर दर्पणों के एक संजाल का समीचीनता से संरेखण किया जाय तो सतत परावर्तन के ज़रिये भूतकाल में देखा जा सकता है। या यह टुकड़ा..
मनुष्य का अस्तित्व एक विभ्रम है जिसके भीतर दिन व रात का अनुषंगी विभ्रम है, जो श्याम वायु के अभिवर्धन से उत्पन्न वातावरण की एक अशौच स्थिति है। किसी भी सचेत व्यक्ति के लिए उचित है कि वह उस महाविभ्रम के मायावी स्वरूप के प्रति जाग्रत हो जाय जिसे मृत्यु कहते हैं।