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गुरुवार, 14 मई 2009

एफ़ टी आई आई में सरपत

पिछले हफ़्ते मेरी लघु फ़िल्म सरपत का फ़िल्म एण्ड टेलेविज़न इन्स्टीट्यूट में प्रदर्शन हुआ। भाई कमल स्वरूप दूसरे वर्ष के छात्रों के लिए एक वर्कशॉप का संयोजन कर रहे थे, उसी के एक हिस्से के बतौर सरपत भी छात्रों को दिखाई गई।

अभी तक सरपत दोस्तों-यारों को ही दिखाई गई थी। फ़िल्म का पहला सार्वजनिक मंच एफ़ टी आई आई जैसा प्रतिष्ठित संस्थान बना, यह मेरे लिए गर्व की बात है। दर्शकों की संख्या कोई बहुत बड़ी नहीं थी मगर फिर भी अनुभव सुखद था।




















फ़िल्म के बाद छात्रों से कुछ परिचर्चा भी हुई जिसमें उनकी तरफ़ से कुछ सार्थक प्रश्न आए और मैंने उनका सन्तोषजनक समाधान किया। एक चीज़ मेरे लिए ज़रूर सीखने का सबब बनी – मेरा परिचय। हमेशा से ही मैं अपने प्रति कुछ हिचिकिचाया, शर्माया रहता आया हूँ। यह दिक़्क़त मुझे वहाँ भी पेश आई।

मुझे हमेशा लगता आया है कि मैंने जीवन में कुछ भी बतलाने योग्य तो नहीं किया अब तक। इस फ़िल्म को बनाने के बाद से वह एहसास कुछ जाता रहा है। और इसलिए अब सोचा है कि इस शर्मिन्दगी से छुटकारा पा कर इसे अलविदा कहा जाय। क्योंकि सार्वजनिक जीवन में लोग आप के बारे में सहज रूप से उत्सुक होते हैं और उस का सरल समाधान करना आप की ज़िम्मेदारी है उसमें शर्मिन्दगी की बाधा नहीं होनी चाहिये।

आजकल तमाम फ़िल्म-उत्सवों में सरपत को भेजने की क़वायद भी चल रही है। वे भी एक डाइरेक्टर्ज़ बायग्राफ़ी की तलब करते हैं- लगभग १०० शब्दों में। यह एक अच्छी कसरत है अगर कोई करना चाहे- अपने जीवन को सौ शब्दों में समेटना। वैसे मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कुछ मुश्किल नहीं था जिसे लगता रहा हो कि जीवन में कुछ नहीं किया – सिवाय इस फ़िल्म के।

वैसे तो किसी भी चीज़ के बनने में तमाम चीज़ों का योगदान होता है। कुछ ऐसी जिनके प्रति व्यक्ति सजग होता है और तमाम ऐसी जो अनजाने ही मनुष्य को प्रभावित करती चलती हैं। मेरी इस रचना यात्रा में भी अनेकानेक चीज़ों की भूमिका रही है, अनजानी चीज़ों की तो बात कैसे कहूँ, पर जानी हुई चीज़ों में इस ब्लॉग की भूमिका प्रमुख है।

इस ब्लॉग पर लिखते हुए मैंने अपने सरोकारों को पहचाना, समझा, विकसित किया और अपनी अभिव्यक्ति को निखारा है। अकेले बैठे हुए सोचने और ब्लॉग पर लिखने में बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है- पाठक का।

पाठक के अस्तित्व में आते ही फिर आप जो लिखते हैं – अपने मन की ही लिखते हैं – मगर पाठक को केन्द्र में रखकर लिखते हैं। वह आप के भीतर एक उद्देश्य की रचना करता है और एक ऊर्जा का संचार करता है। अपनी पुरातन परम्परा के अनुसार पाठक भी एक देवता हो सकता है- जो आप के भीतर एक सकारात्मक परिवर्तन कराने में सक्षम है।

अपने इस नन्हे से क़दम को उठा पाने में सफल होने के लिए मैं आप सब की भूमिका का सत्कार करता हूँ और आप का धन्यवाद करता हूँ।


* तस्वीर में संस्थान के प्राध्यापक व मेरे मित्र अजय रैना सूचना पट्ट पर लिखते हुए।

शुक्रवार, 23 मई 2008

मेरे मित्र बोधिसत्त्व

बोधि को कोई ब्लॉगर कह रहा है कोई साहित्यकार। मैं बोधि को तब से जानता हूँ जब वे साहित्यकार नहीं थे और ब्लॉगर तो नहीं ही थे.. वे थे सिर्फ़ एक छात्र.. मेरी तरह। हम दोनों इलाहाबाद में पढ़ते थे.. और कुछ-कुछ सामाजिक सरोकार भी रखते थे। मैं पी एस ओ का सदस्य था और वे एस एफ़ आई के। ये दोनों संगठन बहुधा मुद्दों पर एक साथ खड़े होते थे और चुनाव में एक दूसरे के विरूद्ध प्रत्याशी खड़ा करते थे और लड़ते थे.. मगर मेरे और बोधि के बीच में कोई संघर्ष नहीं था.. हाँ बहसें होती थीं.. और जैसी कि मेरी आदत थी मैं सामने वाले को ध्वस्त करने की कोशिश में रहता भले ही वो मित्र बोधि ही क्यों न हों। पर मेरी इस मरकही फ़ित्रत के बावजूद बोधि और मेरे बीच कभी कोई कड़वी घटना नहीं घटी। हम मित्र ही बने रहे..

बरसों बाद हम मुम्बई में मिले और मित्रता वहीं से शुरु हो गई। संयोग से आज हम दोनों एक ही पेशे में हैं; दोनों ही शब्द बेच कर पैसे कमाते हैं। आजकल बोधि भाई एकता कपूर के लिए महाभारत सीरियल के लेखन की ज़िम्मेवारी संभाले हुए हैं। ऐसा मौका मुझे मिलता तो मैं भी लोक लेता.. पर ये सौभाग्य बोधि भाई को मिला है। वैसे ये महज़ भाग्य की ही बात नहीं है.. उनकी व्यवहार-कुशलता का भी योगदान है। मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूँ.. कई दूसरे लोग भी नहीं है.. पर इससे क्या बोधि की व्यवहार-कुशलता एक दुर्गुण में बदल जाती है?

मगर ये काम उन्हे मिलने के पीछे सब से महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह इस काम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिना किताब का सहारा लिए वे घंटो महाभारत पर व्याख्यान कर सकते हैं.. रामचरित मानस की सैकड़ों चौपाइयाँ उन्हे मुँहज़बानी याद हैं। उनकी जैसी स्मृति का स्वामी मैंने दूसरा नहीं देखा। बोधि में अनेकों गुण हैं पर वो मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं.. हम-आप सब की तरह मनुष्य हैं। जहाँ गुण हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। ज़रूर हैं—सबकी होती हैं।

मेरे मित्र हैं .. गुणों को सोहराता हूँ और अवगुणों को हतोत्साहित करता हूँ। और ऐसा भी नहीं कि मेरे उनके बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं.. दो अलग मस्तक हैं मतभेद तो स्वाभाविक है। पर मित्रता मस्तक का नहीं हृदय का विभाग है। ज्योतिष जानने वाले बन्धु जानते होंगे कि कुण्डली में मित्र का स्थान चौथा घर है.. हृदय का स्थान। वैसे ग्यारहवां घर भी मित्रों का बताया जाता है पर वो लाभ का स्थान है.. और उस स्थान से संचालित मित्रता भी नफ़ा-नुक़सान वाली होती है। असली मित्रता तो चौथे स्थान की ही है।

इसीलिए मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं जो भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कुछ शिव सेना के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यानी कि जिनसे वैचारिक रूप से छत्तीस का आँकड़ा है। पर मित्रता तो व्यक्ति से होती है उसके विचारों से नहीं.. विचार तो व्यक्ति की संरचना का बहुत छोटा हिस्सा है। विचार बदलने में देर नहीं लगती .. तर्क की बात है .. एक पल में विचार इधर के उधर हो जाते हैं। और अगर तर्क से नहीं हुए तो मतलब साफ़ है कि विचार की जड़ में कोई आवेग कुण्डली मार के पड़ा है.. विचार की प्रधानता की बात ही खत्म हो गई।

फिर भी अगर किसी को लगता है कि मित्रता विचार के आधार पर होती है तो बचपन के मित्रों का क्या करेंगे? वो तो मित्र कहलाने के क़ाबिल ही नहीं रहेंगे! जबकि सच्चाई ये है कि जब कॉलेज से निकल कर नौजवान कुछ विचार करने लायक होता है तो मित्र बनाने की कला न जाने कहाँ हेरा आता है?

लुब्बे-लुबाब ये है कि बोधि भाई साहित्यकार हैं, ब्लॉगर हैं, और भी बहुत कुछ हैं.. पर वे उस वजह से तो मेरे मित्र नहीं हैं? मित्र तो सिर्फ़ एक मनुष्य, एक व्यक्ति होने के नाते हैं और रहेंगे।

भाई बोधि को कुछ लोग देख कर पुलिसवाला और पहलवान भी समझ लेते हैं पर अपने डील-डौल के बावजूद वे इतने विनम्र हैं कि मेरी ज़रूरत की चार किलो की पुस्तक को खरीद कर बलार्ड पिअर से ढो के मेरे घर तक छोड़ जाते हैं, अपनी एकता कपूर के साथ अपनी मसरूफ़ियत के बीच। फिर खुद पेचिश से कमज़ोर हो जाने के बावजूद अपने घर के मेहमानों के आग्रह पर उन को टाँड़ से किताबें निकाल-निकाल कर भी दिखाते हैं.. भले ही वो मेहमान उनके मित्र हों चाहे न हों!

प्रमोद भाई, अब तो ज़ाहिर हो गया, बोधि को अपना मित्र नहीं मानते.. और वे जो कुछ कहें- वो उनका मामला है- वो कह सकते हैं। वे भी मेरे मित्र है.. और मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। बोधि के बचाव की मुद्रा में मैं उन पर पलटवार नहीं कर सकता.. पर बोधि अकेले खड़े पिटते रहें ये भी मैं नहीं देख सकता। ग़लतियाँ सबसे होती हैं.. बोधि से भी हो सकता है हुई हो.. पर वे खलनायक हैं ऐसा मानना मेरे लिए अस्वीकार्य है।

सोमवार, 31 मार्च 2008

फ़ैमीन ऑर फ़ीस्ट

ब्लॉग के सभी दोस्तों से माफ़ी.. पिछले कई दिनों से न तो ब्लॉग लिख रहा हूँ और न पढ़ पा रहा हूँ.. टिप्पणी तो ज़ाहिर है कहीं नहीं कर रहा.. हाँ इस बीच दिल्ली से यशवंत और उनके पनवेल के भड़ासी साथी डॉ० रूपेश से ज़रूर मुलाक़ात हुई.. ये ब्लॉगर मीट (कुछ लोग इसे मिलन कहते हैं और कुछ इसे संगत के नाम से नोश फ़रमाते हैं) मेरे घर पर ही सम्पन्न हुआ.. जिसमें मैंने यशवंत पर थोड़ी भड़ास निकाली और उसने निर्मलता से मुझे सुना.. प्रमोद भाई, अनिल भाई और बोधि के अलावा उदय भाई से भी इसी बहाने काम की अफ़रातफ़री के बीच, मिलना हो गया..

कुछ दोस्तों की चिट्ठियाँ आईं थीं.. उनका जवाब भी नहीं दे सका.. पर क्या है कि मैं एक स्टीरियोटिपिकल मेल हूँ विद वनट्रैकमाइन्ड.. सोचा कि अब जवाब लिख दूँगा कि तब.. मगर काम में मुब्तिला रहा और कई रोज़ निकल गए..इन दिनों कुछ ग़मेरोज़गार परवान चढ़ा हुआ है.. बीबी के ही भरोसे दालरोटी खाने लगूँगा तो स्टीरियोटिपिक्ल मेल की ईगो बड़ी गहरी डैन्ट हो जाएगी.. अभी भी कुछ प्रोजेक्ट्स निबटाने शेष हैं.. फिर फ़ुर्सत से लौटूँगा ब्लॉगिंग की दुनिया में..

मेरे एक लेखकीय गुरु रहे हैं मुम्बई में - सुजीत सेन.. उन्होने अर्थ और सारांश जैसी फ़िल्में लिखी थीं.. बाद में बहुत कुछ बाज़ारू भी लिखा... पर जो भी लिखा क़लम को दिल के क़रीब रखकर लिखा.. सब बनाने वाले तो महेश भट्ट नहीं होते न.. जो मर्म की बात का मर्म समझ सकें.. उनका ज़िक्र वी एस नईपाल ने भी अपनी किताब इन्डिया अ मिलियन म्यूटिनीज़ में भी एक छद्म नाम से किया है*.. सुजीत दा की एक बात हमारी फ़िल्म और टीवी इन्डस्ट्री के बारे में बड़ी सटीक थी.. वे कहते थे.. इन दिस इन्डस्ट्री.. इट्स आइदर फ़ैमीन ओर फ़ीस्ट.. नथिंग इन बिटवीन..

यही सूरतेहाल है.. बस यहाँ फ़ीस्ट और फ़ैमीन का अर्थ समय के सन्दर्भ में समझा जाय.. और फ़ीस्ट का अर्थ काम की बहुतायत निकाला जाय या रचनात्मक आराम की बहुतायत.. यह निर्णय आप खुद करें..




*ढाई बरस पहले पाँच दिल के दौरे झेलने के बाद सुजीत दा चल बसे..

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

इन प्रेज़ ऑफ़ अ नान-भिन्नाटी वूमन

मेरी प्यारी भाभी,

सादर चरण स्पर्श,

मैं यहाँ कुशल-मंगल से हूँ और ईश्वर से आप की और भाईसाहब की कुशलता की कामना किया करता हूँ। पिछले दिनों भाईसाहब ने आपकी बहू के हाथ की खिचड़ी खाने की इच्छा प्रकट की थी। मैंने भाईसाहब को निमंत्रण तो उसी वक्त दे दिया था पर इस कामकाजी औरत ने तो..क्या बताएं.. जिन्दगी खराब कर दी हमारी।

अगर आप की बात मानकर वो सिराथू वाली से बिआह कर लिए होते तो आज ये दिन न देख रहे होते। अशोक नगर वाला बंगले के साथ सफ़ेद एस्टीम भी गद्दी के नीचे होती और बीबी हाथ जोड़े खड़ी भी होती और घर में कोई भिन्ना रहा होता तो हम। बड़ा मिसटेक हो गया वरना आज भाईसाहब जैसा जलवा अपना भी होता.. कहा ही है.. बिहाईन्ड एव्हरी सकसेजफ़ुल मैन.. देअर इज अ वूमन। आई वुड से.. देअर इज अ नान-भिन्नाटी वूमन।

आप चिंता न करें.. भाईसाहब की खिचड़ी पक्की है। अरे मेरी इज्जत का सवाल है। सबके सामने कहा है.. अगर नहीं खिलाई तो क्या कहेंगे लोग कि देखो साला जोरू का गुलाम है बीबी इसकी खिचड़ी तक नहीं बनाती। इस मामले में भाईसाहब बड़े लकी हैं उनको आप जो मिली हैं।

अच्छा भाईसाहब का स्वास्थ्य तो ठीक-ठाक है ना.. ये अचानाक अपनी ब्लॉगरी छोड़कर आप को रसोई से निकाल कर आप के पीछे जा कर क्यों खड़े हो गए हैं? क्या उनको लगता है कि औरतों के मुँह नहीं लगना चाहिए? और औरतों के मामले में घर की औरत ज्यादा अच्छा मुँहतोड़ जवाब दे सकती है? खैर जो भी बात हो आप ने भी क्या करारा रख के दिया है.. औरतें इतनी जल्दी भिन्ना क्यों जाती हैं। जरा सी बात में ’नारी मुक्ति संगठन’ खड़ा हो जाता है। जिन्दाबाद मुर्दाबाद शुरू हो जाता है..

आप की यह बात पढ़कर तो हमारा माथा श्रद्धा से और झुक गया कहाँ मिलती हैं ऐसी औरतें आजकल जो जरूरत पड़ने पर मर्द की रक्षा कर सकें। आप महान हैं भाभी जी सचमुच महान! आप को दुर्गा की तरह कलम उठाते देख कर ही तो मेरे अन्दर भी अपनी बात कहने की प्रेरणा जाग गई।

और कहा ही क्या था भाईसाहब ने.. औरतों को किताब पढ़ने की जरूरत क्या है..? ठीक ही तो कहा था मैं तो कहता हूँ कि किताब ही पढ़ने का जरूरत क्या है। अरे इस सर्दी में किताब पढ़ने से अच्छा उसे अलाव में झोंक के थोड़ा आग ताप लो। हाँ नहीं तो.. बेकार की चिकाई चल रही है।

भाईसाहब के प्रमोशन के लिए मैंने सिद्धिविनायक के दरबार में चार आने का प्रसाद चढ़ा दिया है। बड़े प्रसन्न थे.. अपने पास मुम्बई बुलाने की बात कर रहे थे। चार आने की ये बुद्धि रामखिलावन ने दी थी- हमारा चौकीदार- उसका कहना था कि सिद्दिविनायक के दरबार में सब सौ-हजार-लाखों का चढ़ावा चढ़ाएगा, उसमें चार आने का प्रसाद गणपति बाप्पा को अपने पुरातन काल की स्वर्णिम याद दिलाएगा। बस सजल होकर इच्छा पूरन कर देंगे। है न कमाल की बुद्धि अपने रामखिलावन की.. होनी ही है किताब जो नहीं पढ़ा कोई। जैसे अपना भरतलाल .. क्य दिमाग पाया है उसने।

कभी कभी सोचता हूँ कि अगर वो न होता तो भाईसाहब इतनी बड़ी अफ़सरी सम्हालते कैसे? कॉलेज के समय जो दो चार किताब पढ़े थे, उसका असर तो आप के मिलने के बाद ठिकाने लग गया था; लेकिन फिर बीच में गीता बाँच लिए? अगर उन दिनो भरतलाल छुट्टी पर नहीं गया होता तो फिर लोग उनकी बुद्धि ऐसे थोड़ी भ्रष्ट कर पाते। ये आजकल भाईसाहब जो बीच-बीच में बहक के उलटी खोपड़ी की बात करने लगते हैं.. ये सब किताब पढ़ने की बीमारी ही है। आप को याद है न जब तक नहीं पढ़े थे.. तो कितना मीठी-मीठी बात करते थे। लो भूली (और भोली भी) दास्तां फिर याद आ गई..

अब इस याद के बोझ से कलम भारी हो गई अब आगे लिखना मुश्किल हो रहा है..

बड़ों को नमस्कार छोटों को प्यार
कम लिखा ज्यादा समझना

आशा है आप ने इस बार करौंदे का अचार डालते समय मेरा हिस्सा अलग कर दिया होगा.. मैंने यहाँ पर गोभी का अचार डाला है। पिटू मंगल को बनारस जा रहा है महानगरी से, उसके हाथ भेज रहा हूँ। भरतलाल को स्टेशन भेज कर मँगवा लीजियेगा। उसका कोच नम्बर भाईसाहब को मालूम है, उन्होने ही तो कनफ़र्म करवाया है।

आपका आज्ञाकारी देवर

और हाँ भाईसाहब को कहियेगा किताब बुरी चीज है मैं भी मानता हूँ पर कम से कम चिट्ठी की बहिष्कार तो छोड़ दें.. वो मान जायं तो उनको भी चिट्ठी लिखना शुरु करूँ फिर से..

और एक बात और.. भाईसाहब की किताब वाली वो रैक जिसके बराबर खड़े होकर पन्ने पलटते हुए मनन करते रहे हैं उसकी किताबों को रैक समेत इस जाड़े का मुकाबला करने में काम में ले आयं.. कुछ तो उपयोग हो इन कटे हुए पेड़ की रंगी हुई लुगदी का.. इस कोहरे में किसी को चमकाने के काम की भी नहीं रही..

सोमवार, 28 जनवरी 2008

मंगलेश जी की पार्टीलाइन

क्या मंगलेश जी बाबरी मस्जिद की वर्षगाँठ पर प्रकाशित चीज़ों को हाण्डी का चावल मान रहे हैं कि एक सर्च मारकर देख लिया और पता चल गया की ब्लॉग की हाण्डी में कितनी धर्मनिरपेक्षता है। अगर मंगलेश जी को उसी विषय पर अपनी सर्च में चार लोगों की श्रद्धांजलि मिल जातीं तो उनकी राय क्या होती?.. कि ब्लॉग की दुनिया बड़ी प्रगतिशील, बड़ी परिपक्व है? नवभारत टाईम्स में छपे अपने आलेख में वे लिखते हैं कि

लेकिन ब्लॉग की अवधारणा और उसके उद्देश्यों के समर्थक इन पंक्तियों के लेखक का एक दुख यह है कि उसे 6 दिसंबर 2007 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पंद्रहवें वर्ष पर ब्लॉगों के हलचल-भरे संसार में सिर्फ 'कबाड़खाना' नामक एक ब्लॉग पर कैफी आजमी की कविता 'दूसरा वनवास' के अलावा कुछ नहीं मिला।

क्या ब्लॉग के बारे में राय बनाने का यह सही पैमाना है। मुझे कल यदि मंगलेश जी की कविता के ऊपर एक लेख लिखना हो तो क्या मैं फटाफट उनकी कविता संग्रह में भोपाल त्रासदी पर लिखी किसी कविता की तलाश करूँ और न मिलने पर घोषित कर दूँ कि कवि में सामाजिक चेतना का अभाव है।

मैं पूछना चाहता हूँ कि ये ६ दिसम्बर का संदर्भ दिया क्यों जा रहा है? जो भी ब्लॉग की दुनिया से परिचित है वह जानता है कि साम्प्रदायिकता को लेकर यहाँ कितनी आग उगली गई है.. हिन्दी ब्लॉगिंग के तथाकथित 'मोहल्ला युग' में तो काफ़ी सारे ब्लॉगर्स ने और उसके पहले भी भाई प्रियंकर और अफ़लातून ने भी साम्प्रदायिक सोच के खिलाफ़ मोर्चा खोला है। मगर इसकी मंगलेश जी को कोई हवा नहीं इसीलिए मेरा शक़ है कि मंगलेश जी को हिन्दी ब्लॉग की दुनिया की उतनी ही जानकारी है जितनी हाथी की पूँछ पकड़ कर उसका आकार रज्जुवत बताने वाले पण्डित की होती है।

वे यहीं नहीं रुकते और दुःख प्रगट करते हैं कि किसी एक अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता जिसका हिंदी अनुवाद कवि असद जैदी ने किया था उन्हे ब्लॉग पर नहीं मिली.. हद है.. उम्मीद पालने की.. बच्चा जुम्मा- जुम्मा आठ दिन का हुआ और आप उस से कह रहे हैं कि हाइज़ेनबर्ग का अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल बताओ.. जिसमे आधुनिक विज्ञान को मूलभूत रूप से बदल दिया.. बहुत महत्वपूर्ण है पर कितने लोगों को पता है क्या होता है अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल..?

मुझे भी दो दुःख हैं एक तो यह कि मैं एक बड़े कवि से इस सुर में बात कर रहा हूँ और दूसरे यह कि मेरी भाषा का बड़ा कवि उलटे-सीधे निष्कर्ष निकाल रहा है। उन्होने हिन्दी ब्लॉग की दुनिया विकसित होने से पहले ही उसके उद्देश्य और मंज़िलें तय कर दी है-

लगता है कि बाजारवादी और वर्चस्ववादी मुख्य धारा के मीडिया के बरक्स यह वैकल्पिक माध्यम आने वाले वर्षों में हाशियों की अस्मिता का एक प्रभावशाली औजार बनेगा.. वे आगे कहते हैं कि क्या ब्लॉगों से गंभीर, वैचारिक, बौद्घिक होने की मांग करना अनुचित होगा, क्या यह कहना गलत होगा कि उन्हें उर्दू के सतही शायर चिरकीं की मलमूत्रवादी गजलों, लेखकों की निजी कुंठाओं और पारिवारिक तस्वीरों की बजाय एमानुएल ओर्तीज की कविताएं, एजाज अहमद की तकरीरें और तहलका द्वारा ली गई गुजरात के कातिलों की तस्वीरें जारी करनी चाहिए?

अगर आप सचमुच सवाल कर रहे हैं तो मेरा जवाब है कि हाँ अनुचित होगा। पहली बात तो ये कि आप जिस बौद्धिकता, वैचारिकता की अनुपस्थिति की बात कर रहे हैं वो ही ग़लत है। दूसरे ये कि आप सवाल नहीं कर रहे माँग कर रहे हैं.. और मैं तो कहता हूँ कि आप माँग भी नहीं कर रहे.. आप सवाल की शक्ल में व्हिप जारी कर रहे हैं। जैसे साहित्य की दुनिया में राजनीतिक पार्टी और आलोचक लेखक का मार्गदर्शन करते हैं कि किन विषयों पर लिखो.. क्या विमर्श करो? जैसे कुछ साल पहले स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का दौर था अभी भी शायद वही चल रहा है। जो साहित्य पार्टीलाइन सोच कर लिखा जाता है.. मैं उसे अभिव्यक्ति नहीं नारेबाज़ी कहता हूँ।

ब्लॉग के ज़रिये आम आदमी को एक आज़ादी मिली है। आप उस में पार्टी लाइन चलाना चाहते हैं? भड़ास वाले अपने ब्लॉग पर विचार वमन करें या साधुवादी लोग जन्मदिन मना कर एक दूसरे को बधाई दें..वो उनकी अभिव्यक्ति है। वे भी आप की ही तरह सम्पूर्ण मनुष्य हैं और वे वही अभिव्यक्त करेंगे जो करना चाहते हैं और उन्हे इसका हक़ है। अगर आप को लगता है कि आप लोगों को यह बताकर कि उन्हे क्या करना चाहिये किसी बौद्धिकता का परिचय दे रहे हैं तो मुझे फिर दुःख है। वे क्या बो्लें या न बोलें और कब बोलें.. आप ज़रा सोचें.. आप उन्हे बताएंगे?

सदिच्छाएं तो मेरी भी बहुत हैं पर वास्तविक समाज से अलग कोई ब्लॉग का समाज बन जाएगा.. ऐसी कोई ग़लतफ़हमी हम और आप कैसे पाल सकते हैं? हमें तो मार्गदर्शन की ज़रूरत है पर आप तो समझदार आदमी हैं। गुजरात में मोदी जीतता रहे और गुजराती ब्लॉगियों से आप उम्मीद करें कि वे गुजरात के क़ातिलों के तस्वीर जारी करें। क्या उनको आप आकाश से आया हुआ मान रहे हैं? जितने प्रतिशत लोग आप की कविताएं पढ़कर आह्लादित होते हैं उस से अधिक लोग यहाँ एमानुएल ओर्तीज की कविताओं पर भावुक हो रहे होंगे ऐसी कल्पना ही बचकानी है। रही बात उन बहुसंख्यक लोगों की जो न आप की कविता पढ़ते हैं और न गुजरात पर धरना-प्रदर्शन.. उनसे ऐसी उम्मीद, साफ़ शब्दों में, मूर्खतापूर्ण है।

रविवार, 27 जनवरी 2008

ज्ञान जी भी बदल जाएंगे

मेरे कई मित्र नाखुश हैं कि मैने ज्ञान जी के प्रतिक्रियावाद को ढंग से जवाब क्यों नहीं दिया । वे मेरी प्रगतिशीलता पर शक़ तो नहीं करते पर मेरी शीतलता को उनके ‘गोल’ में बने रहने की मेरी दबी हुई इच्छा मानते हैं। मैं अपने दोस्तों से माफ़ी चाहता हूँ (वे चाहें तो इसे उनके 'गोल' में बने रहने की मुखर इच्छा मान सकते हैं) पर मेरे ऐसे ठण्डे जवाब के कुछ कारण हैं;


१) ज्ञान जी का सुर खिलंदड़ा था और उन्हे एहसास नहीं था कि उनका मज़ाक किसी को इतना बुरा लगेगा। मेरे प्रतिक्रिया करने के पहले कई लोगों ने ज्ञान जी के मज़ाक में छिपी हुई स्त्री-विरोधी विचार को चिह्नित कर दिया था.. अगर वे ज़रा भी समझदार हैं तो समझ चुके होंगे कि उनसे क्या गलती हो गई और समझदार नहीं है तो मेरे भी उसी बात को दोहराने से कोई लाभ नहीं होने वाला था.. बल्कि असर उलटा होता। मेरे उनके बीच स्नेह का जो सम्बन्ध है वो टूट जाता। मेरा मानना है कि ज्ञान जी समझदार व्यक्ति हैं और वो पहली प्रतिक्रिया के बाद ही समझ गए थे कि उनसे कुछ ग़लती हो गई। और उन्होने फ़ौरन माफ़ी भी माँग ली थी।


२) मेरा मानना है कि भीतर बैठे हुए संस्कार सिर्फ़ समझदारी से नहीं बदलते.. एक भौतिक प्रक्रिया में बदलते हैं। मैंने अपने निजी अनुभव में पाया है कि एक व्यक्ति जो अपनी बहनों के सर से दुपट्टा थोड़ा सरकते ही उनके माथे पर दुपट्टे को कील से ठोंकने की बात करता था.. अपने बहुओं को जीन्स पहनकर स्कूटर चलाता हुआ देखकर प्रसन्न होता है और उसकी बहनें इस दुभाति व्यवहार के लिए कुढ़ती हैं। एक दूसरा आदमी जिसने कभी अपने हाथ से एक गिलास पानी लेकर नहीं पिया, अपने खाने-पीने को लेकर इतना अड़ियल रहा कि उसकी पत्नी को जीवन भर दो तरह ही की रसोई बनानी पड़ी (एक बाकी सब के लिए और एक उसके लिए)। वही आदमी अपनी बेटी के जल्दी दफ़्तर जाने पर अपनी नातिन के लिए कभी-कभी लंचबॉक्स भी बनाता है। ईवोल्यूशन का सिद्धान्त बताता है कि वातावरण के अनुकूल वांछित परिवर्तन पीढ़ियों के ज़रिये विकसित होते हैं।

३) मेरे पास इतनी ऊर्जा नहीं है कि हर प्रतिक्रियावादी विचार के साथ मैं एक बहस में उतरूँ। ज्ञान जी के अगर किसी विचार से मुझे तक्लीफ़ है मगर उसका सीधा प्रभाव मुझ पर तो पड़ नहीं रहा तो सही है मैं क्यों खर्चा होऊँ? ज्ञान जी झेंलेंगे उनका परिवार झेलेगा। मेरे-आपके बहस करने से थोड़ी बदलती है दुनिया। दुनिया के बदलने की अपनी चाल है।

अगर कोई समझता है कि सभी मनुष्यों को बराबरी का हक किसी वॉल्तेयर साहिब के सिद्धान्त और कुछ फ़्रांसीसी क्रांतिकारियों के बलिदान के चलते मिला है या भारत से जातिवाद किसी गाँधी बाबा या बाबा साहेब के बदौलत खत्म हो रहा है या स्त्रियों के अधिकार किसी रोज़ा लक्ज़्मबर्ग या मैडम क्यूरी की देन है तो ये उनकी ग़लतफ़हमी है। इन महान लोगों का योगदान को कम नहीं कर रहा बस उन्हे उनके समय में स्थापित कर रहा हूँ। ये सारे परिवर्तन इसलिए हुए और हो रहे हैं और होंगे क्योंकि वे एक ऐतिहासिक प्रगति का हिस्सा हैं। पूँजीवाद ने दुनिया में ऐसे भौतिक परिवर्तन कर दिए हैं कि कोई चाह कर भी आदमी के सांस्कृतिक जगत के इन बदलावों को नहीं रोक नहीं सकता।

गाँव में सबको सबकी जाति मालूम होती है। मगर एक बार जब ट्रेन आ गई, और आप को गाँव छोड़कर धंधे की तलाश में शहर जाना पड़ा तो आप नहीं जान सकते कि ट्रेन में आप के बगल में सटकर बैठने वाले अनजान आदमी की जाति क्या है? जाति की जड़ तो कट गई.. कुछ दिनों में पेड़ भी गिर जाएगा। ऐसे ही स्त्रियों के प्रति व्यवहार है जो वैचारिक बहस से नहीं, ठोस व्यवहार में बदलेगा।

४) ब्लॉग की दुनिया बड़ी हो रही है पर इसमें अभी भी एक पारिवारिक भावना बनी हुई है। वो पूरी तरह कब खत्म हो जाएगी या खत्म हो ही जाएगी ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। पहले-पहले जब हम एक-दूसरे को नहीं जानते थे तो हमारी उनकी बड़ी रार हुई थी, जो उनकी और मेरी पुरानों पोस्टों में देखी जा सकती है। पर अब ज्ञान जी से एक बड़े भाई जैसा सम्बन्ध बन गया है। और अगर बड़ा भाई कुछ ग़लत बात कर भी रहा हो तो उसको जवाब देने का सब का अलग तरीक़ा होता है- मेरा यह तरीक़ा है।

आखिर ‘क़यामत से क़यामत तक’ के सामंतवादी समाज से ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे’ के पूँजीवादी समाज में कुछ तो अंतर है। आप को उम्मीद है कि पिछली पीढ़ी बदल जाएगी।

५) यह सिर्फ़ मेरी अपनी प्रतिक्रिया का मेरे मित्रों के लिए स्पष्टीकरण हैं मेरे उन मित्रों का विरोध नहीं जिन्होने इस मसले पर कड़ा रुख अपनाया है। बड़े भाई ज्ञान जी अगर ऐसी पोस्ट लिखेंगे तो उन्हे लोगों ऐसे कड़े रुख के लिए तैयार भी रहना चाहिये और छोटे भाई शिव कुमार मिश्र को भी।

सोमवार, 17 दिसंबर 2007

ब्लॉगर को टिप्पणी करने वाला चाहिये

दिलीप मण्डल ने मेरी पिछली पोस्ट के जवाब में अपने चिट्ठे पर एक नई पोस्ट में बहस को आगे बढ़ाया है.. दिलीप जी! सब से पहले तो मैं आप का धन्यवाद देना चाहूँगा कि आप ने एक स्वस्थ संवाद का रास्ता खोला है। अपने ब्लॉगजगत पर टिप्पणियों की जो संस्कृति है उस पर आप की पैनी नज़र और निष्कर्ष काबिले तारीफ़ हैं। मैं आप की बात से पूरी तरह असहमत नहीं हूँ.. और पूरी तरह सहमत भी नहीं। हमारे चिट्ठों के पाठक वही गिने चुने हैं और बार-बार वही लोग टिप्पणी करते हैं.. और अक्सर सिर्फ़ पीठ थपथपाने ले लिए ही करते हैं.. जिसे कोई पीठ खुजाना भी समझ सकता है; ये बातें सही हैं।

व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार तो लिखने का बल बना रहता है..
आप का डर है कि ये प्रवृत्तियाँ हिन्दी साहित्य की दुनिया की हैं जिसने साहित्य की दुनिया को बरबाद कर रखा है। मैं आप की यह बात भी मान लेता हूँ, बावजूद इसके कि हिन्दी साहित्य की दुनिया को मैं ठीक से नहीं जानता। पर अपने समाज को जानता हूँ जिसमें भाई-भतीजावाद, जुगाड़वाद खूब चलता है। मेरा मानना है कि चूँकि इस बुराई की जड़ हमारे उस समाज में हैं जिस से हम आते हैं तो इस से पूरी तरह बच पाना असम्भव होगा।

अंग्रेज़ी ब्लॉगस की दुनिया में ये प्रवृत्ति इस तीव्रता से नहीं मिलती.. पर मिलती है। अतनु डे के ब्लॉग पर आप उन्ही पाठकों को बार-बार आते हुए देख सकते हैं.. पर वे ‘पीठ नहीं खुजाते’.. बहस करते हैं। फिर हमारे हिन्दी ब्लॉगस की दुनिया में ऐसा क्यों है? इस का विरोध करने से पहले इसे समझा जाय ! मेरे समझ में ये पाठकों की सीमा के चलते हैं.. जो चिट्ठाकार हैं वही पाठक भी हैं। ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो शुद्ध पाठक हैं- जैसे जैसे वे आएंगे.. चिट्ठाकार टिप्पणी पाने के लिए साथी चिट्ठाकारों पर निर्भरता से स्वतंत्र हो जाएगा।

चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है! ..
इस बारे में समीर लाल जी ने मुम्बई के ब्लॉगर मिलन में बड़ी अच्छी बात बताई। उन्होने बताया कि हिन्दी चिट्ठाकारिता के शुरुआती दिनों में बहुत सारे चिट्ठे सिर्फ़ इसलिए बंद हो गए क्योंकि कोई टिप्पणी नहीं मिली। उन्होने बताया कि खुद अपनी कई पोस्ट को उन्होने कई बार दुबारा चढ़ाया ताकि टिप्पणी आए। अपने भीतर टिप्पणी की ऐसी चाह देखकर उन्हे टिप्पणी के संजीवनी होने का एहसास हुआ और उन्होने घूम-घूम कर उत्साहवर्धक टिप्पणी बाँटना शुरु कर दिया। व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार.. तो लिखने का बल बना रहता है- ऐसा कहा समीर भाई ने। जब कि हिन्दी चिट्ठाकारिता अपने शैशव काल में थी.. ऐसे उत्साहवर्धन की ज़रूरत थी। अब कितनी ज़रूरत है और आगे कितनी ज़रूरत पड़ेगी ये दूसरे सवाल हैं..

सवाल ये भी है कि टिप्पणी क्यों चाहिये हमें या लिखने वाले को? जैसे कवि को श्रोता चाहिये.. गाने वाले को सुनने वाला चाहिये.. अभिनेता को देखने वाला चाहिये.. वैसे ही ब्लॉगर को टिप्पणी करने वाला चाहिये.. मेरे विचार से तो इसे आर्यसत्य मान लिया जाय! चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है!

मेरे एक मित्र हैं जो सालों तक क्रांतिकारी राजनीति से जुड़े रहे। उनका अपना ब्लॉग भी है। और टिप्पणी के बारे में उनकी राय आप से ज्यादा अलग नहीं है। पहले तो करते नहीं और करते हैं तो साधुवादी टिप्पणी कभी नहीं.. असहमति की अभिव्यक्ति या बहस में योगदान के लिए ही बस। यही साथी अपने चिट्ठे पर टिप्पणी के अभाव में बेचैन हो कर चिट्ठा बंद कर देने जैसे विचार से भी दो चार होने लगते हैं।

मेरी समझ में सामाजिक तौर पर हिन्दी समाज एक हीनग्रंथि से ग्रस्त समाज है.. जिसका आत्मविश्वास झूला हुआ रहता है.. टिप्पणियाँ हमारे आत्मविश्वास का सहारा बनती हैं। जिस दिन हम अपनी इस ग्रंथि से मुक्त हो जाएंगे तो टिप्पणी की हमारी भूख पूरी तरह शांत भले न हो कम ज़रूर हो जाएगी..

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

ब्लॉग हो ब्लॉगर मिलन न हो..

पिछले दिनों मैं ने दिलीप मंडल को अपने चिट्ठे पर तमन्ना ज़ाहिर करते हुआ पढ़ा कि हिन्दी में चिट्ठों की संख्या दस हज़ार या कुछ और हो जाय। बड़ी भली ख्वाहिश है.. वे फिर आगे लिखते हैं कि ब्लॉग मिलन बंद होना चाहिये।

"ये निहायत लिजलिजी बात है। शहरी जीवन में अकेलेपन और अपने निरर्थक होने के एहसास को तोड़ने के दूसरे तरीके निकाले जाएं। ब्लॉग एक वर्चुअल मीडियम है। इसमें रियल के घालमेल से कैसे घपले हो रहे हैं, वो हम देख रहे हैं। समान रुचि वाले ब्लॉगर्स नेट से बाहर रियल दुनिया में एक दूसरे के संपर्क में रहें तो किसी को एतराज क्यों होना चाहिए। लेकिन ब्लॉगर्स होना अपने आप में सहमति या समानता का कोई बिंदु नहीं है।"

इसी लेख में ठीक ऊपर आप ने कहा है कि 'ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो' और फिर यह बात? बात साफ़ नहीं हो रही कि आप सहमति के पक्षधर हैं या नहीं? और ब्लॉगर होना अपने आप में एक समानता का बिंदु क्यों नहीं है..? या आप की राजनीति कहती है कि मजदूर संगठित हों, किसान संगठित हों, दलित संगठित हो पर ब्लॉगर्स न हो? और ब्लॉगर्स के संगठित होने का जो मंच बन सकता है- ब्लॉगर मिलन- वो न हो?

और क्यों यह शहरी अकेलेपन को दूर करने का छ्द्म उपाय है? अपने ख्यालों की आज़ाद अभिव्यक्ति करते इतने सारे लोग एक दूसरे से मिलें, उन प्रश्नों पर चर्चा करें जिसके बारें में वे सोच रहें हैं और एक दूसरे को साक्षात मनुष्य के रूप में जानें .. इस में क्या ग़लत है? ब्लॉग तो उस साक्षात संवाद का विकल्प है जो वास्तविक जीवन में गायब हो रहा है। इसलिए हम जिसे पढ़ रहे होते हैं उसके बारे में जानने की स्वाभाविक इच्छा उमड़ती है.. जिसकी वजह से हम लोगों का प्रोफ़ाइल देखते-पढ़ते हैं.. और जिनका पढ़ा पसन्द करते हैं उनसे मिलने के लिए उत्सुक रहते है। यह मानवीय व्यवहार है.. ऐसी भावनाओं को छाँट देंगे तो मनुष्य शुष्क वैचारिक मशीन भर रह जाएगा।

मुझे लगता है दिलीप मानवीय व्यवहार के बारे में निर्णय सुनाने में हड़बड़ी कर रहे हैं.. । मेरी समझ में तो मनुष्य सामाजिक प्राणी है जहाँ रहेगा एक समाज बना कर एक दूसरे से जुड़ेगा.. वैचारिक तौर पर भावनात्मक तौर पर। ‘ये हो और ये न हो’ जैसी घोषणाएं कर के हम सिर्फ़ मनुष्य की सम्भावनाओं को सीमित करने कोशिश करते हैं। काँट-छाँट की इसी मानसिकता से सभी दमनकारी विचारधाराएं जन्म लेती हैं!

मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

समीर भाई को साधुवाद!

पिछले दिनों समीर भाई की उड़नतश्तरी मुम्बई में उतरी.. और समीर भाई के साधुवाद का साक्षात दर्शन और आभार प्रदर्शन करने के लिए मुम्बई के सारे ब्लॉगर उमड़ पड़े.. पहले ये आयोजन अनीता जी के घर पर होना था.. जो ठाणे की खाड़ी के उस पार है। मगर आखिरी मौके पर बोधि भाई ने इसे ठाणे की खाड़ी के इसी पार, आरे की झील पर, खींच लिया.. हम इस पर अफ़सोस करते रहे कि अनीता जी हम सब की मेहमाननवाज़ी से और हम सब उनकी मेज़बानी से वंचित हो गए पर अन्दर ही अन्दर हम इस स्थान परिवर्तन से प्रसन्न भी रहे ये जो कि सबसे पास हमारे घर से ही था।

शशि जी ने समीर भाई को ले आने की ज़िम्मेदारी स्वतः उठा ली थी और बखूबी निभाई.. ये अलग बात है कि लोग बाद में देर तक इस पर हैरान होते रहे कि समीर भाई को लाने की ज़िम्मेदारी को उन्होने उठाया कैसे !

मैं तो सबसे पहले पहुँच ही गया था.. मेरे बाद आए अनिल भाई और प्रमोद भाई.. अनिल भाई ने ज़ुल्फ़ें कटवा कर एक नया स्टाइल अपनाया है.. सोचिये वे आप को किस की याद दिला रहे हैं.. समय पर किसी को न आता देख प्रमोद भाई ने फ़ैसला किया कि वे चमकती धूप में नौका विहार का आनन्द लेंगे.. मैं इस आनन्द का पान करने से एकदम पीछे हट गया.. जलराशि मेरे भीतर गहरा डर उपजाती है.. अनिल भाई और प्रमोद भाई ने इस आनन्द में साझेदारी की.. ये बात अलग है कि वे बाद में इसे वे पैर का दर्द का नाम देते रहे.

ये दोनों पुराने मित्र अभी नौकारूढ़ ही थे कि समीर भाई का आगमन हुआ.. उन्हे देख कर लगा ही नहीं कि पहली बार मुलाक़ात हो रही है..लगा किसी पुराने मित्र से बड़े दिनों बाद मिलना हो रहा है.. धीरे-धीरे सभी लोग आ गए.. हर्षवर्धन आ गए.. युनुस के साथ बोधि जी भी आ गए जो काफ़ी देर तक मुझे उल्लू बनाते रहे कि वे नहीं आ पा रहे हैं.. आभा फिर भी नहीं आईं.. ये मलाल रह गया.. समीर भाई अपने कनाडा के जीवन के विषय में बताते रहे.. सब उनके विशाल हृदय कोमल व्यक्तित्व और उदार जीवन मूल्यों के प्रति उत्सुक थे.. बात होती रही..
जब विकास और विमल भाई भी आ गए तो हम ने जगह बदलने की क़वायद की.. दूसरी जगह थोड़ी सी ऊँचाई पर स्थित थी.. इस जगह का नाम रखा गया है छोटा काश्मीर.. डल लेक तो देख ली थी.. अब पहाड़ भी देखने थे.. तो हम चले पहाड़ों की शरण में..
शशि जी ने देर से आने की भरपाई करने का जो वादा किया था वो कचौड़ी/ लिट्टी की शक्ल में झोले से निकाला और प्लास्टिक की प्लेट में सब के आगे वितरित कर दिया.. प्रमोद जी वितरण की इस कृपणता से खुश नहीं रहे.. जिसमें सब के हिस्से एक ही एक लिट्टी आई और जो एक बची हुई थी वो बोधिसत्त्व ने हथिया ली..
बातें जारी थीं.. फिर किसी ने अचानक यह शिकायत की कि समीर भाई के सानिध्य को घंटे भर से ऊपर हुआ जाता है और अभी तक किसी ने साधुवाद नहीं दिया.. यह कहते ही पूरा छोटा काश्मीर साधुवाद के घोष से गूँज उठा.. और वहाँ बैठे सभी लोगों को विश्वास हो गया है कि समीर भाई के रहते साधुवाद के युग का अंत हो ही नहीं सकता..
इसके बाद तमाम असाधुवादी बातों की चर्चा भी हम ने की मगर उन्हे असंसदीय क़रार दिया गया.. और फिर मोमबत्ती की लौ पर हाथ रखकर सबने कसम खाई कि वहाँ मौजूद कोई भी ब्लॉगर अपनी ब्लॉगर मिलन रपट में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेगा.. यह अविस्मरणीय तस्वीर भी इसी कारण से सेंसर हो गई..

इस तरह सब की हथेलियों में गरमी आ जाने के बाद लोगों के हाथों में कुछ खुजली से होने लगी.. और सब एक दूसरे की तस्वीर खींचने में व्यस्त हो गए..

भाई हर्षवर्धन की खुजली फिर भी शांत न हुई तो वे हाथ मलते हुए उठे और सबसे हाथ मिला कर विदाई का लग्गा लगाया.. वे विदा हुए फिर मिलने के वादे के बाद.. ये एहसास होते ही कि अब विदाई का क्षण नज़दीक है एक सामूहिक तस्वीर खींची गई..

बाहर निकल कर एक चाय और पी गई और फिर चलते चलते समीर भाई ने बताया कि हो सकता है कनाडा लौटने के पहले एक बार फिर उनकी उड़न तश्तरी यहाँ लैंड करे.. हम इस बात पर उन्हे अनेकों आभार और ढेरों साधुवाद देते हैं.. साधुवाद! साधुवाद!! साधुवाद!!!

(सबसे नीचे की सामूहिक तस्वीर में बाएं से दाएं: अनीताजी, युनुस, समीर भाई, बोधिसत्व, प्रमोद भाई, विकास, अनिल भाई, शशि सिंह और विमल भाई।
उसके ठीक ऊपर की तस्वीर में कत्थई कमीज़ में हर्षवर्धन)

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

सत्य का निर्णय अब हुआ सरल..

जी हाँ.. तेज़ी से बदलते अपने संसार में वास्तविक से आभासी की भूमिका अधिकाधिक बढ़ती जा रही है.. और इसी को ख्याल में रखते हुए एक महाशय ने सत्य के निर्णय का यह सरल समीकरण प्रतिपादित किया है..





जबकि अन्तरजाल पर सत्य की स्थिति ऐसी विकट है कि 'मिजाज़' होता है या 'मिज़ाज' ज़रा इन्टरनेट पर खोज कर देखिये.. दोनों के बराबर मात्रा में उदाहरण मिल जाएंगे.. करते रहिये सत्य का निर्णय..

सत्य के ऐसे पैमानों पर ये एक डेड-पैन ह्यूमर का प्रयास है.. मगर क्या करें.. हम हिन्दुस्तानी गम्भीरता के ऐसे प्रेमी हैं जब तक स्माइली दिखाई न दे.. हर बात को 'सत्य' मान कर चलते हैं.. सत्य की शकल में कोई उपहास या परिहास भी हो सकता है.. यह लचीलापन हमारी आत्मा में बहुधा उपलब्ध नहीं होता..

मैं खुद इस रोग का बीमार हूँ कोई भाई अन्यथा न ले..

बुधवार, 28 नवंबर 2007

आई आई टी से निकला ब्लॉग बुद्धि

कुछ रोज़ पहले युनुस का मेल आया कि रांची से मनीष कुमार आये हैं और आई आई टी में ठहरे हैं जो विकास का अपना शिक्षा संस्थान है। पिछली बार जब अनूप जी आए थे तो बाद में विकास ने मेल लिख कर शिकायत की थी कि हम उसे भूल गए.. ये हमें याद था। और विकास के द्वारा हमें याद रखा गया जबकि भूल तो हम अनीताजी को भी गए थे.. ऐसा उन्होने बताया और ये भी बताया कि हम ने उनकी मेल का जवाब न देने की बदतमीज़ी भी की थी। मैं भूल जाता हूँ पर सच में कुछ गड़बड़ हुई थी.. मैंने अनीता जी को यक़ीन दिलाया.. मेल मुझे नहीं मिला था। मुझे शर्मिन्दा होते देख उन्होने मुस्कुरा के हमारी बात पर यक़ीन कर लिया।

माफ़ी चाहता हूँ बात शुरु होते ही बीच में चली गई। क्रम से बताता हूँ । कल शाम यानी बुधवार २७ नवम्बर को सात बजे से आई आई टी के सुरम्य प्रांगण में एक ब्लॉगर मिलन सम्पन्न हुआ। इस में शामिल होने वाले थे मेज़बान मनीष (जो स्वयं मुम्बई के मेहमान हैं) और विकास के अलावा अनीता कुमार, अनिल रघुराज, विमल वर्मा, प्रमोद सिंह, युनुस खान और मैं।
बातचीत का कोई एजेण्डा नहीं था बात एक दूसरे के परिचय से लेकर ब्लॉग जगत के ज्वलन्त सवालों तक यहाँ से वहाँ झूलती रही। सबसे पहले तो विकास और मनीष के प्रमोद जी को देखते ही भयाकुल हो जाने की चर्चा बड़ी देर तक हमारे कौतूहूल का विषय बनी रही। उन्हे स्वप्न में भी उम्मीद नहीं थी कि प्रमोद भाई अपने साहचर्य से उन्हे उपकृत करेंगे। और हमें रह-रह कर गर्व की एक अनोखी अनुभूति होती रही कि न सिर्फ़ हम इस साहचर्य का मुफ़्त सेवन हर दूसरे-तीसरे रोज़ करते हैं बल्कि हम प्रमोद जी की डाँट-फटकार का सामना पूरे अभय होकर करते हैं।

इसी निर्मल-आनन्द के बीच अनीता जी ने विकास को प्यार से झिड़का कि कुछ काम क्यूं नहीं करता और तुरन्त आज्ञाकारी बालक की तरह विकास ने अनीता जी के लाए नाश्ते/मिठाई को हम सब के हाथ में धकेल दिया। हम उन्हे इस को धन्यवाद दे रहे थे मगर उन्होने इसे अपने महिला होने का विशेषाधिकार कह कर टाल दिया।
वैसे तो वरिष्ठता के लिहाज़ से अनीता जी को सबसे सीनियर सभी मान रहे थे.. मगर उन्होने सब से उमर पूछ कर यह इति सिद्धम भी कर दिया। और मनीष ने सबको परोक्ष रूप से याद दिलाया कि उमर में हम से ज़रूर छोटे हों पर वरिष्ठता क्रम में ब्लॉगजगत पर आलोक जी से टक्कर लेने का भ्रम भी पैदा कर सकते हैं, ऐसा उन्होने अपनी ब्लॉगयात्रा का इतिहास बताते हुए कई बार ९८ का ज़िक्र करके सिद्ध कर दिया। (विन्डोज़ ९८ जिसे हम १९९८ समझ रहे थे)

(जिन्हे स्माइली की कमी महसूस हो रही हो वे कल्पना से यहाँ वहाँ टाँकते हुए चलें और जो खुले और छिपे रूप से स्माइली से चिढ़ते हैं वे देख सकते हैं कि उन्हे आहत करने योग्य यहाँ कुछ भी नहीं है!)

(तस्वीर में बाएं से दाएं: मनीष, अनिल भाई, युनुस, विमल भाई, विकास, प्रमोद भाई और कुर्सी पर अनीता जी)

तरल और सरल बातें तो बहुत हुईं पर एक ठोस बात ये हुई कि सभी ने अपनी तकनीकि कठिनाईयों का रोना रोते हुए पिछली ब्लॉगर मिलन में आशीष से की हुई गुज़ारिश और फ़रमाईश को याद किया। जिस पर विकास ने तपाक से इस काम को अपने दोनों हाथों से लूट लिया और देखिये उत्साही बालक ने काम शुरु भी कर दिया.. ब्लॉग बुद्धि नाम के इस ब्लॉग पर विकास पर अपने बुद्धि से जो विषय समझ आएंगे उस पर तो लिखेंगे ही साथ ही साथ आप सब की तकनीकि समस्याओं का समाधान भी करेंगे। आप को किसी भी प्रकार की तकनीकि तक्लीफ़ हो.. आप उन्हे मेल करें। वे हल मुहय्या करने की भरपूर कोशिश करेंगे ऐसा क़ौल है उनका..।

और हाँ विकास का नाम अंग्रेज़ी में Vikash लिखा ज़रूर जाता है.. पर पुकारने का नाम विकास ही है।

ये ब्लॉगर मिलन मेरे लिए इस लिए खास यूँ भी रहा कि मनीष ने बहुत कहने के बाद जब गाना नहीं गाया तो प्रमोद जी के कहने पर विमल भाई ने हमारे छात्र जीवन का एक क्रांतिकारी गीत गाया, मैंने और अनिल भाई ने साथियों की भूमिका ली। तन मन पुरानी स्मृतियों और अनुभूतियों से सराबोर हो गया। प्रमोद भाई को गाना याद था पर वे चुप रहे। बाद में उन्होने कहा कि उन्हे गाने के अनुवाद और धुन दोनों से शिकायत रही.. हमेशा से। आज जब विमल भाई ने इसे अपने ब्लॉग पर छापा तो मैंने ग़ौर किया कि तसले को बड़ी आसानी से थाली से बदला जा सकता है.. ह्म्म.. प्रमोद भाई की सटीक नज़र..

अनीता जी को दूर जाना था, उनसे फिर मिलने का वादा कर और विदा ले कर हम ने थोड़ा सा कुछ खाया-पिया और फिर चलने के पहले पवई झील के किनारे चाँदनी रात का कुछ लुत्फ़ उठाया!

सोमवार, 26 नवंबर 2007

रसातल भी पलट कर घूरता है

मुझे बताया गया है कि हम जितने भोले दिखते हैं, उतनी ही परतें हैं हमारे भोलेपन में। पहले हमें लगा कि हमें गरियाया गया है.. फिर थोड़ा विचार करने के बाद पाया कि कहने वाले ने ग़लत नहीं कहा। परते ज़रूर हैं हमारे चरित्र में.. मगर क्या व्यक्ति को सतह भर गहरा ही होना चाहिये? और यदि गहराई हो भी तो नितान्त एकाश्मी? परतें यानी लेयर्स हो हीं ना?

मेरे ख्याल में परते अच्छी हैं.. वे प्रकृति और समाज की विविधिता का आप के भीतर प्रतिबिम्बन का प्रमाण हैं । इसलिए बताने वाले का आकलन सही है। और उन्होने हमारी परतों को भोलेपन का नाम दिया है इसके लिए उन्हे धन्यवाद के सिवा और क्या प्रेषित किया जा सकता है। वैसे हम कोशिश करेंगे चतुर बनने की..

आगे हमें बताया गया कि हम अक्‍सर उन लोगों के साथ खड़े नज़र आते हैं, जो या तो सांप्रदायिक हैं, या आंदोलनकारियों को गाली देते हैं। ये बात भी हम मान लेते हैं.. हम ऐसा करते हैं। क्योंकि मेरा मानना है कि न तो ओसामा का प्रशंसक होने से कोई आतंकवादी सिद्ध होता है और न ही मोदी की तरफ़दारी करने से कोई दंगाई। जार्ज बुश का एक ‘लोकप्रिय’ विचार है कि या तो आप सौ प्रतिशत उनके साथ हैं या सौ प्रतिशत उनके खिलाफ़.. ऐसी सोच का मैं विरोध करता हूँ चाहे वह बुश की ओर से आए.. मुशर्रफ़ ओर से या अपने ही किसी मित्र की ओर से।

मोदी की प्रशंसा करने भर से कोई ऐसे राक्षस में नहीं बदल जाता जिसके भीतर की सारी मनुष्यता मृत हो गई है। अपने विरोधियों से व्यवहार के बारे में नीत्शे की एक बात याद रखने योग्य है: ‘राक्षसों से लड़ने वालों को सावधान रहना चाहिये कि वे स्वयं एक राक्षस में न बदल जायं क्योंकि जब आप रसातल में देर तक घूरते हैं तो रसातल भी पलट कर आप को घूरता है..'

शनिवार, 24 नवंबर 2007

मनुष्य हर पल बदल रहा है..

मैं लगातार अपने आप से यही सवाल करता रहता था कि मैं इतना बड़ा बेवकूफ़ क्यों हूँ और अगर दूसरे लोग भी बेवकूफ़ हैं, और मैं पक्की तौर पर जानता हूँ कि वे बेवकूफ़ हैं तो मैं ज़्यादा समझदार बनने की कोशिश क्यों नहीं करता? और तब मेरी समझ में आया कि अगर मैंने सब लोगों के समझदार बन जाने का इंतज़ार किया तो मुझे बहुत समय तक इंतज़ार करना पड़ेगा.. और उसके भी बाद मेरी समझ में यह आया कि ऐसा कभी नहीं हो सकेगा, कि लोग कभी नहीं बदलेंगे, कि कोई भी उन्हे कभी नहीं बदल पाएगा, और यह कि उसकी कोशिश करना भी बेकार है। हाँ ऐसी ही बात है! यह उनके अस्तित्व का नियम है.. यह एक नियम है! यही बात है!

..और अब मैं जानता हूँ कि जिसका मन और मस्तिष्क दृढ़ और मजबूत होगा वही उन पर राज करेगा। जो बहुत हिम्मत करता है वही सही होता है। जिस चीज़ को लोग पवित्र मानते हैं, उसे जो तिरस्कार से ठुकरा देता है उसी को वे विधाता मानते हैं, और जो सबसे बढ़कर साहस करता है उसे वे सबसे बढ़कर सही मानते हैं । अब तक ऐसा ही होता आया है और हमेशा ऐसा ही होता रहेगा! सिर्फ़ जो अंधे हैं वे ही इस बात को नहीं देख पाते!

ये निराशापूर्ण विचार मेरे नहीं अपराध और दण्ड के नायक रस्कोलनिकोव के हैं.. मैं तो मानता हूँ कि मनुष्य हर पल बदल रहा है.. यदि आप के प्रति उसने अपने आपको बंद नहीं कर लिया है तो आप भी उसके भीतर होने वाले बदलाव के उत्प्रेरक बन सकते हैं।

सामाजिक व्यवहार के बारे में अभी पिछले दिनों किसी ने अपने चिट्ठे पर ही एक शानदार बात लिखी थी .. विचार के प्रति निर्मम रहें और व्यक्ति के प्रति सजल! मुश्किल यह है कि लोग विचार के प्रति निर्मम होते-होते व्यक्ति के प्रति भी निर्मम हो जाते हैं। इसी बीमारी के चलते नक्सल आंदोलन के अठहत्तर फाँके हो गईं। किसी ने ज़रा असहमति की बात की नहीं कि तत्काल उसे मनचाये बिल्लों से दाग कर अपने से विलगति कर दिया। उसे नीच-पतित कह कर स्वयं को महिमामण्डित कर डाला। आज भी यह रोग बदस्तूर जारी है और ये सिर्फ़ हास्यास्पद है।

शनिवार, 17 नवंबर 2007

क्या जवाब दूँगा शाहरुख को?

कल सबेरे उठा तो कुछ रंग-बिरंगी प्रतिक्रियाएं इनबॉक्स में मेरा इंतज़ार कर रही थीं। तरुण ने मुझे भी अपनी तरह निठल्ला मानते हुए चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनी नारियों के चित्र पेश किये जाने की माँग रख दी और साथ ही उनकी व्याख्या पूछने की भी धमकी दे दी। सच बात तो यह कि मैं इस धमकी से वाक़ई में डर गया। भाई पद्मिनी नारी के विचार की ऐतिहासिकता तलाशना एक मामला है और उस पूरे नारी वर्गीकरण की सचित्र चर्चा करना नितान्त दूसरा। पहले में तो सिर्फ़ प्रतिगामी होने के खतरे थे.. यह तो बेशक़ प्रतिगामी है। कल कोई पोस्ट न चढ़ा पाने के पीछे यह ऊहापोह सिर्फ़ एक कारण रहा। (यह पोस्ट लिखने के बाद देखा कि वरिष्ठ और सम्मानित साथी, जो टिप्पणीकार नाम का ब्लॉग चलाते हैं, ने मुझे पुराना मर्दवादी घोषित कर ही डाला। देखिये.. लागा चुनरी में दाग़..)

दूसरा कारण भी दो प्रतिक्रियाएं ही रहीं भाई संजीत ने कहा कि आपका शिष्यत्व ग्रहण करना है, निर्धारित योग्यताएं बतलाएं मान्यवर!! .. और प्रियंकर भाई पहले ही कह चुके थे कि यार अभय! गज़ब का शोध और संयोजन है . जगह हो और भर्ती चालू हो तो मुझे चेला मूंड़ लो .

किसी भी नश्वर से ऐसी बाते कहीं जाएंगी तो गर्व से माथा बिगड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में तत्काल झुक कर सामने वाले की वन्दना कर लेने से बीमारी से बचाव हो जाता है पर मैं वो करने से चूक गया। उलटा पता नहीं किस तरंग में घर पर पड़ी हुई जलेबियों पर दिल ललचा गया। जबकि पिछले एक साल से मैदे और दही की बनी चीज़ों से परहेज़ कर रहा हूँ। जलेबी में मैदा भी है और खट्टा दही भी और सल्फ़रयुक्त शक्कर का शीरा भी। परिणामतः ऐसी भयंकर नींद आई कि सोच रहा था कि क्लब जाकर बैडमिन्टन खेल आऊँ.. उस लायक तो क्या घर पर बैठ कर एक ब्लॉग पोस्ट लिखने लायक भी नहीं रहा। और यह पोस्ट न लिख पाने का तीसरा कारण बन गया। एक अजब सी तन्द्रा से आक्रान्त रहा। जाने यह तन्द्रा जलेबी जनित थी यह दो महानुभावों के शिष्यत्व स्वीकरण प्रस्ताव जनित?

मेरा पूरा दिन इसी में चला गया और दोपहर होते-होते गर्व की रेसिपी में एक पाव और आ मिला जब मनोज कुमार ने शाहरुख से अपना अपमान करने की शिकायत की। मन में लोगों को यह कहने के लिए भाव पेंगें मारने लगा कि लो मैंने तो कल ही लिखा है कि यह दोनों खान मिलकर पूरी इंडस्ट्री को नीचा दिखाकर अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए हैं। देखो.. कह दिया मनोज कुमार ने.. सही न कहता था मैं!.. और बाकी लोग जो चुप हैं वो इसलिए क्योंकि वे किंग खान से पंगा नहीं लेना चाहते। ये धंदा है भाई सब से बना कर रहना पड़ता है।

शाम होते-होते ही शाहरुख और फ़रहा ने प्रेस कान्फ़ेरेन्स करके अपनी माफ़ी पेश कर दी। पूरे देश के आगे मनोज कुमार एक गुड-ह्यूमर्ड मासूम मज़ाक को न समझने वाले 'रोअंटे' और शाहरुख एक 'विशाल हृदय लीजेंड' साबित हो गए जो अपने पूर्वगामी से चांटा भी खाने को तैयार थे। उनकी यह सदाशयता देख कर मुझे भी ग्लानि होने लगी कि हाय-हाय यह क्या लिख डाला मैने एक सुपरस्टार के खिलाफ़। कल को अगर उसके साथ काम करना पड़ गया तो क्या मुँह दिखाऊँगा उसे.. यह सोचता हूँ मैं आप के बारे में-आने वाली पीढ़ियाँ पूछने वाली हैं कि देखते क्या थे आप लोग उस आदमी में?

मेरे पास कोई जवाब नहीं है कि मैं क्या जवाब दूँगा शाहरुख को जो एम सी आर सी में मेरा दो साल का सीनियर भी रह चुका है और मेरा गुरु भाई भी है.. लेख टण्डन को वो भी एक वक़्त गुरु मानकर पैर छूता रहा है और मैं भी। मगर मेरे और उसके बीच अरबों रुपये का फ़ासला है। और सिर्फ़ यह फ़ासला ही वो अकेली वज़ह नहीं है कि मैं शाहरुख के बारे में जो सच में महसूस करता हूँ लिखना चाहता हूँ।

शाहरुख खान के नेतृत्व में इस पूरे मीडिया तंत्र को मेरे घर के टीवी में से चीख-चीख अपने माल और अपने मूल्यों का प्रचार करने का पूरा हक़ है.. खुद शाहरुख को तमाम चीज़ों के बारे में एक झूठ बोलकर मेरे समय, मेरे मानस पर कब्ज़ा कर मुझे अपने हाथों की कठपुतली बनाने का पूरा हक़ है.. तो मानवता की प्रगतिशील कदमों ने इन्टरनेट और ब्लॉग के ज़रिये मेरे हाथों में जो अभिव्यक्ति के मार्फ़त मुक्ति का जो रास्ता बख्शा है उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार होने का मुझे हक़ क्यों नहीं है? मुझे वह कहने का हक़ क्यों नहीं है जो मैं सच में सोच रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ? मुझे हक़ है.. और अगर मैं अपने जीवन के दबावों और आशंकाओं के चलते उस के प्रति बेईमानी करता हूँ तो यह बेईमानी मैं उसके साथ नहीं अपनी ही मुक्ति के साथ कर रहा हूँ।

पुनश्च: तन्द्रा और गर्व को सर से उतार कर धरती पर आ गया हूँ.. भाई प्रियंकर, भाई संजीत आगे आप लोग मुझे ऐसी मुश्किल से बचाए रखेंगे इस उम्मीद के साथ!

इतना सब कहने के बाद भी सवाल रह ही जाता है कभी शाहरुख मिल गया तो क्या बोलूँगा उस से? उस के मुँह पर उसकी तारीफ़ कर दूँगा और यह मान कर चलूँगा कि उसे मेरे ब्लॉग के बारे में पता चलने की कोई महीन सम्भावना भी नहीं है..
या उसे पता चल भी गया तो उसे उसके ही अंदाज़ में सॉरी बोलकर कह दूँगा ब्रदर इट वाज़ ऑल इन गुड ह्यूमर! चाहो तो चाँटा मार लो! वैसे भी उमर में भी बड़ा है मुझसे!
या फिर उस से मिलने की सम्भावना के उपस्थित होते ही अपनी आपत्तिजनक पोस्ट को डिलीट कर दूँगा..
या फिर.. उस से मिलने को ही लात मार दूँगा.. उसे लात मार कर भी दाल रोटी मिल ही जाएगी..

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

बेदखल की डायरी

पिछले दिनों आप ने वेब दुनिया में हुई मेरी चर्चा के बारे में देखा होगा। मुझसे पहले भी जिन चिट्ठाकारों की चर्चा की गई आज मुझे उनके लिंक प्राप्त हो गए मनीषा के माध्यम से। ये चर्चाएं मनीषा ने ही कलमबद्ध की हैं। आज इन कड़ियों को उपलब्ध कराने के अलावा मेरा मक़सद आप को मनीषा के ब्लॉग से रूबरू करवाना भी है।

मनीषा पाण्डेय स्वतंत्र मानस की एक मेधावी लड़की हैं। वैसे तो वे इलाहाबाद से तअल्लुक रखती हैं पर मेरा उनसे परिचय मुम्बई का है, जब वे यहाँ पर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही थीं। उस दौरान ही उन्होने तमाम किताबों के अनुवाद को अंजाम दे डाला। फ़िलहाल वे इन्दौर में रहते हुए वेबदुनिया से सम्बद्ध हैं।

उनकी दिलचस्प डायरी पहले मोहल्ला पर शाया होती रही है.. अब से यह उन के खुद के ब्लॉग पर नियमित देखी जा सकेगी.. बेदखल की डायरी के नाम से.. जो इस धरती से बेदखल आधी आबादी के लिए लिखी जा रही है.. पर उसे पढ़ने का हक़ पूरी आबादी को प्राप्त है.. जिसमें आप भी शामिल हैं.. ज़रूर पढ़े मनीषा को और उनका उत्साह वर्धन भी करें.. उनके लेखन से मेरी बड़ी उम्मीदें हैं..

वेबदुनिया में ब्लॉग चर्चाओं के पुराने लिंक..
(इसमें से शुरुआती तीन, यूनुस खान, रवि रतलामी और पंकज पराशर वाले मनीषा की बीमारी के दौरान किसी और ने लिखे हैं। बाकी के उन्होने ही लिखे हैं)

यूनुस खान

रवि रतलामी

पंकज पराशर

उदय प्रकाश

प्रत्‍यक्षा

रवीश कुमार

ज्ञानदत्‍त पांडेय

अनिल रघुराज

अभय तिवारी


अगली चर्चा फ़ुरसतिया पर है.. ऐसी सूचना मिली है..

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

हमारी भी चर्चा हो गई

भाईसाहब बहुत दिनों से बड़े-बड़े ब्लॉगर जनों की कीर्ति-चर्चा तमाम अखबारों-रिसालों में पढ़ता रहा, मन ही मन कुढ़ता रहा। पर आज सब क्लेश धुल कर मन निमल हो गया। हो गई अपनी भी चर्चा। किसी टैक्टाइल मैगज़ीन में नहीं तो न सही.. आभासी वेब दुनिया भी किसी से कम नहीं। बन्दे के ऊपर इस आलेख के पहले उसी जगह पर रवि रतलामी, प्रत्यक्षा, रवीश कुमार, ज्ञानदत्त पाण्डेय, आलोक पुराणिक, अनिल रघुराज, उदय प्रकाश, पंकज पराशर और युनुस खान भी शोभायमान हो चुके हैं।

यह मधुर चर्चा करने वाली मनीषा पाण्डेय से आप पूरी तरह अनजान न होंगे.. उनकी डायरी को आप मोहल्ले पर देख चुके हैं।

बन्दे के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कर के वेबदुनिया पर एनर्जाइज़ हो जायँ!

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

एक मोहल्ला दो कबाड़ी

आजकल अपने हिन्दी ब्लॉग्स की दुनिया में कबाड़ के प्रति कुछ अधिक ही प्रेम उमड़ रहा है। मित्र इरफ़ान के नाम के साथ जुड़कर कबाड़खाना नामक इस ब्लॉग पर पहले-पहले दृष्टि गई थी मेरी। अशोक पाण्डे नामक बन्धु चला रहे हैं इसे.. या उनके शब्दों में कहें तो खरीद रहे हैं पेप्पोर रद्दी पेप्पोर.. लगभग दो महीने हो गए उन्हे अपने मोहल्ले में आए..

इस बीच मैं घूमता-घामता रहा और फिर कुछ कामकाजी बना रहा तो बहुत देख नहीं पाया पाण्डे जी ने क्या-क्या खरीदा। आज अचानक देखता हूँ कि अशोक जी के धंधे में सेंध लगाने एक और कबाड़ी आ गया है। ब्लॉगवाणी पर कबाड़खाना देखा और नाम देखा विकास परिहार। सोचा कि जैसे आजकल तमाम लोग सामूहिक ब्लॉग चला रहे हैं तो ये भी उनके कबाड़ी परिवार के एक सदस्य होंगे। कबाड़खाना पर जा कर देखा तो एक जगमगाती गज़ल सुगबुगा रही थी।

पर मुझे कुछ अजीब सी बू आ रही थी। ये तो किसी दूसरी दुकान पर चला आया हूँ। बहुत खोजने पर भी अशोक पाण्डे का नाम नहीं मिला। फिर इरफ़ान के ब्लॉग से उनके ब्लॉगरोल में जाकर कबाड़खाना पर क्लिक किया तो एक दूसरे दुकान पर पहुँचा। इसका नाम भी कबाड़खाना था। किन्ही कामरेड पंत जी के संस्कृत कबाड़ की एक रोचक कहानी कोई ताज़ी-ताज़ी बेच कर गया था।

ह्म्म.. तो राज़ खुला कि वाक़ई एक ही नाम से दो ब्लॉग सक्रिय हैं.. उनके पते में भी सिर्फ़ एक 'a' का ही फ़र्क है और दोनों सक्रिय भी लगभग एक ही समय पर हुए हैं। दोनों श्रेष्ठ कबाडि़यों से मेरा निवेदन है कि भाई एक ही मोहल्ले में रहना है.. कबाड़ खरीदना-बेचना है.. तो थोड़ा आपस में समझौता कर के नाम में कुछ अन्तर कर लो। जनता के लिए थोड़ी सहूलियत होगी और आप के लिए भी।

ब्लॉगरोल की नई छटा

बहुत दिनों से टल रहा था यह काम। क्योंकि इसमें मेहनत थी और सर खपाई थी। मगर कल चार घंटे के कड़े परिश्रम के उपरांत यह काम कर ही डाला। अपने ब्लॉगरोल को एक नई शक्ल दे डाली। पहले भी उसमें कुछ कम चिट्ठे नहीं थे.. अब तो पचास से ऊपर चले गए हैं। मगर चूँकि श्रेणियों में विभाजित हैं तो भीड़ जैसे नहीं लगते। कुछ समय पहले इसकी चर्चा अनिल भाई ने भी की थी.. बेहतर होने की सम्भावना अभी भी अनेको होंगी पर मुझे तो पहले से ठीक ही लग रहा है।

रविवार, 21 अक्टूबर 2007

माँ के ब्लॉग-पते में परिवर्तन

हमारी ब्लॉग की दुनिया के साथियों ने तकनीक के बारे में सबसे ज़्यादा किसी से सीखा है तो रवि रतलामी जी से और श्रीश पण्डित से.. मैंने निजी रूप से श्रीश से ही.. आज भी वो मेरी मदद को स्वतः ही आगे आए.. मैंने कल मम्मी के ब्लॉग का पता अपनी मूर्खता में उनके ब्लॉग के शीर्षक को ही रख छोड़ा था.. http://jeevanjaisamainedekha.blogspot.com/ .. श्रीश ने अपनी प्रतिक्रिया में मेरी माँ के ब्लॉग पर खुशी ज़ाहिर तो की ही साथ-साथ एक सुझाव भी दे डाला..

तो मैंने जवाब में पूछा कि भाई ग़लती तो हो गई अब इसका कोई उपाय भी बताइये महाराज.. तो धड़ाक से उत्तर आया...

तो एक दिन के अन्तराल में ही मम्मी के ब्लॉग के पते में एक सुखद परिवर्तन हो गया है.. जिन मित्रों ने जीवन जैसा मैंने देखा को http://jeevanjaisamainedekha.blogspot.com/ के रूप में अपने ब्लॉगरोल में शामिल किया हो या अपने रीडर में सब्सक्राइब किया हो.. मेहरबानी कर के वे अब मम्मी के ब्लॉग के पते में आवश्यक बदलाव कर लें.. नया पता है आसानी से याद रहने वाला.. http://vimlatiwari.blogspot.com/

श्रीश पण्डित की जय हो..!!

शनिवार, 20 अक्टूबर 2007

मेरी माँ का अपना ब्लॉग


मेरी माँ की पारम्परिक शिक्षा सुव्यवस्थित तरह से नहीं हुई.. जो भी पढ़ा-जाना..स्वयं-शिक्षा से सम्भव हुआ.. एक पुरुषवादी समाज में एक स्त्री को जो हमेशा दोयम दरज़े पर धकेला जाता रहा है.. इस प्रवृत्ति के प्रति वे हमेशा सचेत रही हैं.. कहने का अर्थ यह नहीं कि मेरे पिता कोई राक्षस थे.. बस एक पुरुषवादी समाज में एक पुरुष थे.. और क्रांतिकारी नहीं थे.. फिर भी उन्होने अपने स्तर पर मेरी माँ की प्रतिभा को एक सामाजिक मंच देने की कोशिशें की.. पर वह उनके जीवन का उद्देश्य नहीं था.. मम्मी की प्रतिभा को दुनिया के सामने प्रकाशित कर देना मेरा भी जीवन उद्देश्य नहीं.. बस अपने स्तर पर जो कर सकता हूँ कर रहा हूँ..


काफ़ी दिनों से मम्मी की कविताओं का ब्लॉग खोलना चाह रहा था.. मगर मैं मुम्बई से निकल नहीं पा रहा था.. फोन पर मम्मी से कविताओं को लेना सम्भव नहीं था.. अब वे उमर के उस मकाम पर पहुँच गई हैं जहाँ आप को दूसरों की आवाज़े स्पष्ट नहीं सुनाई देतीं.. तो इस दफ़े कानपुर जा कर उनकी कविताओं को सहेज लाया हूँ और धीरे धीरे उनके अपने ब्लॉग पर चढ़ाता रहूँगा.. उम्मीद है आप लोग मेरी माँ के भीतर के कवि का उत्साह-वर्धन करेंगे.. अपने ब्लॉग का नाम उन्होने स्वयं चुना है.. जीवन जैसा मैंने देखा.. आप देखें और टिप्पणी अवश्य करें..

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