गुरुवार, 7 जून 2012

रुपया



शांति नहा रही थी। बाहर से अजय की आवाज़ आई- ये क्या है शांति? आवाज़ में बेसब्री थी और हैरानी भी और शायद थोड़ा ग़ुस्सा भी। अन्दर से शांति ने जानना चाहा कि अजय किस चीज़ की बात कर रहा है। मगर उसका जवाब कुछ ऐसा लम्बा, उलझा और चिड़चिड़ाहट से भरा हुआ था कि शांति को कुछ समझ नहीं आया। उसने बाथरूम से बाहर आने तक उस संवाद को मुल्तवी कर दिया। 

अजय बेड पर बैठा बाथरूम के दरवाज़े की ओर देख रहा था जब शांति उस दरवाज़े में आई। अजय ने अपनी नज़रें गद्दे की ओर उचकाई और पूछा- ये क्या है? बेड पर पाँच सौ और हज़ार के नोटों की कुछ गड्डियाँ पड़ी थीं। साथ में एक काग़ज़ का मुचड़ा हुआ लिफ़ाफ़ा भी सुस्ता रहा था। शांति उन गड्डियों को और उस लिफ़ाफ़े को पहचानती थी। वो ठीक-ठीक कितने रुपये थे, शांति नहीं जानती थी। सबसे पहले शांति ने उन्हे अपनी डेस्क पर पड़े देखा था। बाद में वो कुछ देर उसके पर्स में रहे और एक लम्बे समय तक उसके लॉकर में। और इन सन जगहों के अलावा वो शांति के ज़ेहन में भी बने रहे, लगातार। कभी जागते में उनका ख़याल आया और कभी सपनों में विचित्र स्थितियों में वो शांति के सामने उपस्थित होते रहे। 

'कहाँ से आए ये पैसे?' अजय पूछ रहा था। सवाल पाँच शब्दों का ही था मगर उन पाँच शब्दों के वाक्य में और भी दूसरे सवाल छिपे थे जो अजय ने नहीं पूछे; मसलन- क्या ये पैसे हमारे हैं, जो तुमने घर के तमाम खर्चों में से पाई-पाई जोड़कर बचा के रखे और मुझे बताया तक नहीं? या फिर तुम्हारे पास इतने पैसे पड़े हैं और तुमने परसों दस हज़ार के लिए मुझे डेढ़ मील एटीएम तक दौड़ाया क्योंकि अगली सुबह आने वाले मकानमालिक की बात न सुननी पड़े? या फिर कहाँ से आए ये पैसे?  अपना एक घर होने की जो बरसों की तुम्हारी अभिलाषा है, उसे पूरी करने के लिए किससे उधार लिए हैं तुमने ये पैसे? और अगर उधार लिए हैं तो मुझे बताया क्यों नहीं?  

और क्यों न होते इतने सारे सवाल? रुपया चीज़ ही ऐसी है। जितना सरल और समतल दिखता है वैसा है नहीं। रुपया एक ऐसी आभासी शै है जिस के ज़रिये आदमी अपने भौतिक अरमानों का संसार गढ़ता है। रुपये को न खाया जा सकता है, न पहना जा सकता है, न ओढ़ा और बिछाया जा सकता है मगर खाने, पहनने, ओढ़ने, बिछाने से लेकर आकांक्षाओं की सारी सम्भावनाओं अपने भीतर समाए रहता है। 

अपने मूल चरित्र में अरूप होते हुए भी रुपया त्रिआयामी जगत के सारे रूप और गति प्राप्त कर सकता है और यही नहीं काल नामक चौथे आयाम में यात्रा का सामर्थ्य भी रखता है। भूत और वर्तमान के अलावा भविष्यकाल में हाज़िर होने वाला रुपया भी आदमी के भौतिक और आध्यात्मिक तल में गुणात्मक परिवर्तन करने में सक्षम होता है। रुपया रूप बदलता है, और आदमी को भी बदलता है। चाहे जेब में हो चाहे बैंक के खाते में, रुपये की उपस्थिति आदमी का किरदार बदल देती है, चेहरे की चमक बदल देती है।अजय के पूछे और अनपूछे सवाल उन सारे सम्भावित बदलावों की बेचैनी से आक्रान्त थे। लेकिन शांति ने अजय के उन सारे अनपूछे सवालों को किनारे कर दिया- 'असीम के हैं..'  
असीम शांति का चचेरा भाई है जो रहता तो शाहाबाद में है लेकिन अपने काम के सिलसिले में साल छै महीने में उसका एकाध चक्कर इधर लग जाता है। 
असीम के..? अजय का स्वर पहले से बदल गया था। उनमें मौजूद सम्भावनाएं इस बार कहीं दूर पीछे चली गई थीं। 
दो लाख रुपये.. असीम के.. तुम्हारे पास क्या कर रहे हैं? 
दो लाख हैं? शांति ने हैरत व्यक्त की।
क्यों.. तुम्हें नहीं मालूम? 
'मैंने कभी गिने नहीं..!' 

तक़रीबन दो महीने पहले अचानक एक रोज़ असीम शांति के दफ़्तर आ गया। इधर-उधर की बातों के बीच शांति अपना काम भी करती रही। फिर उसका एक फ़ोन आया। और फ़ोन पर बात करते-करते वो कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया और दफ़्तर की तमाम कुर्सियों के बीच इधर से उधर टहलने भी लगा। शांति ने बहुत ध्यान नहीं दिया, वो अपने काम में लौट गई.. दो-तीन मिनट भी ज़ाया करने से क्या फ़ायदा। पर जब वो फ़ोन पर बात ख़त्म करके कुर्सी पर वापस बैठा तो वो कुछ बेचैन और परेशान नज़र आया। शांति ने चाय मँगाई थी, वो आ गई। मगर असीम ने चाय की तरफ़ देखा तक नहीं। वो उठकर खड़ा हो गया और कहा कि कुछ प्राबलम हो गई है उसे जाना होगा। और इतना कहकर उसने शांति के कुछ कहने का इंतज़ार भी नहीं किया और लगभग दौड़ता हुआ सा वहाँ सा चला गया। उसके जाने के काफ़ी बाद शांति जब मेज़ का सामान समेट रही थी, तब उसने देखा उस प्लास्टिक की थैली को। वो शांति की नहीं थी, किसी और की भी नहीं थी।  शांति ने ज़ोर देकर सोचा तो उसे याद आया कि जब असीम आया था तो उसके हाथ में वो थैली थी और उसने वो मेज़ पर रख दी थी। शांति ने खोलकर देखा तो थैली के अन्दर एक काग़ज़ का लिफ़ाफ़ा था और उसके अन्दर से नोटों की कई गड्डियां बेशर्मी से बाहर झांक रही थी। शांति ने तुरंत असीम को फ़ोन किया। कई बार घंटी जाती रही पर असीम ने फ़ोन नहीं लिया। पहले शांति ने सोचा कि दफ़्तर की दराज़ में ही छोड़ दे। उन रुपयों के असली हक़दार के ग़ैर-हाज़िरी में उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी न चाहते हुए भी शांति पर आ पड़ी थी। और इसलिए उस भार को दराज़ में असुरक्षित छोड़ने का विकल्प ठुकरा कर अपने पर्स में डालकर घर तक ले आई। घर आकर भी शांति ने कई बार असीम को फ़ोन मिलाया पर बात नहीं हुई। और जब बात हुई उसके पहले शांति  को उस दिन अचानक असीम के परेशान हो जाने की वजह मालूम चल चुकी थी। असीम के शाहाबाद वाले घर पर सी बी आई वालों ने छापा मारा था। और एक मामूली सरकारी कर्मचारी के घर से करोड़ों की रक़म, ज़ेवर और अचल सम्पत्ति के ब्योरे बरामद किए थे। जब असीम शांति के पास था, छापा ठीक उसी वक़्त मारा गया था। ये जानकारी मिलने के बाद वो रुपये शांति के ज़ेहन में और खलबली मचाने लगे जैसे किसी अपराध में वो भागीदार बन गई हो।  

किसी तरह जब शांति से असीम की बात हुई, तो वो अपने वक़ील के साथ था। और उसने उन रुपयों से बिलकुल कन्नी काटते हुए कहा कि शांति रख ले, और खर्च करना चाहे तो खर्च कर दे। शायद वो सीबीआई द्वारा और माल की बरामदगी से डरा हुआ था। जब शांति उसके प्रस्ताव पर राजी नहीं हुई तो उसने कहा कि वो बाद में कभी ले लेगा। शांति उन रुपयों को अपने पास रखने को क़तई तैयार नहीं थी मगर दे तो किसको दे। असीम की पत्नी दो साल से बच्चों को लेकर अलग रह रही है, वो लेगी भी या नहीं, और उसे देना ठीक होगा कि नहीं- यह सब सोचकर उसने असीम के पिताजी को फ़ोन किया और खुद शाहाबाद आकर रुपये देने की पेशकश की। लेकिन चाचा जी ने असीम की काली कमाई को अपने लिए गुनाह बताया और लेने से इंकार कर दिया। तब से असीम के वो अनगिने रुपये जिन्हे अजय ने गिनकर दो लाख बताया, शांति के लॉकर में उसे मुचड़े लिफ़ाफ़े में पड़े रहे, अचल। हालांकि शांति के मन को वो लगातार विचलित करते रहे। 
तुमने मुझे क्यों नहीं बताया- शांति के पूरे बयान को सुनने के बाद अजय ने पूछा। 
'देखो अजय.. ये रुपये हैं.. और बहुत सारे रुपये हैं.. एक तरह के लावारिस रुपये.. मैं इन्हे वापस लौटाने के लिए बेचैन हूँ.. क्योंकि कहीं न कहीं मेरे भीतर एक लोभ है.. मैं तो उस से लड़ ही रही थी.. नहीं चाहती थी कि तुम भी.. '  

अजय ने कुछ नहीं कहा। उसने नज़र घुमा के देखा, दो लाख रुपये अपनी पूरी बेशर्मी के साथ बिस्तर पर पड़े हुए थे। अजय और उनके बीच एक अदृश्य डोरी थी जिसके एक सिरे पर ईमान था तो दूसरे पर लोभ। 

*** 

(दैनिक भास्कर में छपी.. शायद पिछले हफ़्ते)

मंगलवार, 29 मई 2012

अदब के लठैत




"एक विशेष माहौल और परिवेश में मेरा जन्म हुआ और परवरिश हुई। यह लोग मुझसे ऐसी आशा क्यों करते हैं कि मैं उस जीवन का चित्रण करूँ जिससे मैं परिचित नहीं? गाँव की ज़िन्दगी से कुछ हद तो मैं वाक़िफ़ हूँ क्योंकि उसका मुझे अनुभव था लेकिन वह अनुभव एक बड़े फ़ासले का था। तरक़्क़ी पसन्द लोगों ने मुझको बहुत बुरा-भला कहा और इस तरह मज़ाक़ उड़ाया मानो मैं लोक-आन्दोलन की विरोधी हूँ।"

किसी मौक़े पर यह बयान दिया था मरहूम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ़ ऐनी आपा ने। हिन्दुस्तानी अदब में ये बड़ी पहचानी प्रवृत्ति है, हमारे कुछ जोशीले वामपंथी लठैत समय-समय पर अदीबों को ढोर की तरह हांका और पीटा करते हैं। चोट खाए साथियों से अपील है कि उनकी आलोचनाओं को मानस से फटकार दें, हौसला बनाए रखें और जिस दुनिया को वे देखते-समझते हैं उसी पर अपनी उंगलियों को चलाते रहें।  


शुक्रवार, 25 मई 2012

निहितार्थ




प्रश्न: आर्य इस देश के निवासी हैं, हड़प्पा और ऋगवेद की सभ्यता में अन्तर नहीं है, एक ही सभ्यता है ऋगवेद के रूप में आर्यों की, जो हड़प्पा की नगर सभ्यता- तथाकथित नगर सभ्यता के रूप में है- ये सारी बातें संघ परिवार की संस्थाएं भी कह रही हैं (और आप भी कह रहे हैं)। मेरी पीढ़ी के लोग और नवयुवक लोग - सभी की तरफ़ से मैं आप से यह जानना चाहता हूँ कि आपका एजेण्डा और उन लोगों का एजेण्डा जिन्होने बाबरी मस्जिद गिरायी थी, एक ही दिखाई पड़ता है, क्यों? यह सिर्फ़ संयोग है? क्या इसमें सम्बन्ध है? 

यह सवाल नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा से एक साक्षात्कार के दौरान किया था सन २००० में कभी, और मंगलेश डबराल ने उसे एक टेप रिकार्डर पर रिकार्ड कर  लिया था। यह साक्षात्कार तद्भव के २५वें अंक में प्रकाशित हुआ है (पहले के किसी अंक में भी छपा था, इस अंक में दुबारा छपा है)। यह बातचीत बेहद दिलचस्प इसलिए है कि इसमें से हिन्दी साहित्य की एक विशेष प्रवृत्ति का पता मिलता है। नामवर जी के सवाल और रामविलास जी के उत्तर, ऐसा लगता है कि दो अलग-अलग दुनियाओं से हैं। अब जैसे देखिये ये जो सवाल किया गया है, उसके जवाब में रामविलास जी बताते हैं कि.. 

(पूरे तर्क देखने के लिए तद्भव देखें.. मैं संक्षेप में मूल बिन्दु दे रहा हूँ)

१. भारत जैसे देश में अपनी संस्कृति और इतिहास का अध्ययन फ़ासिस्टों के हाथों में छोड़कर आर एस एस जैसी संस्थाओं से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। 
२. भारत में आर्यों की कोई अखण्ड इकाई नहीं थी, जैसा कि पूंजीवादी इतिहासकार और मार्क्सवादी इतिहासकार दोनों मानते हैं, 
३. नस्ल मे आधार पर भारत या संसार में किसी समाज का संगठन नहीं हुआ,
४. ऐतिहासिक भाषा विज्ञान, भाषाओं का अध्ययन नस्ली आधार पर करता रहा है, 
५. किसी आदि भाषा से अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ है.. उसके बदले गण भाषाएं थीं।

इसके जवाब में नामवर जी विषय की इन सारी बारीक़ियों पर कोई बात नहीं करते। वे वापस अपनी मूल चिन्ता पर लौट जाते हैं,  कि आर्यों का मूल स्थान क्या था, इस प्रश्न के जवाब के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं और रामविलास जी को उस का फ़िक्रमंद होना चाहिये और आर्यों के भारत का मूल निवासी होने से पैदा होने वाली फ़ासिस्ट राजनीति का खण्डन करना चाहिये। इस के जवाब में रामविलास जी वापस विषय की बारीक़ी में लौटते हैं- 

१. हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए वैदिक भाषा आदिभाषा है और आर्यभाषा परिवार की सारी भाषाएं वैदिक संस्कृत से निकली हैं, और ये बात पूंजीवादी भाषाविज्ञान भी मानता है। 
२. मैं गणभाषाओं की बात करता हूँ.. मराठी में तीन लिंग होते हैं, बंगला में एक भी नहीं होता- दोनों भाषाएं कैसे संस्कृत से निकल सकती हैं? गणभाषाओं का व्याकरण अलग है, शब्द भण्डार अलग है। 
३. वैदिक संस्कृति, हिन्दू संस्कृति नहीं है। (यानी हिन्दू संस्कृति में दूसरे तत्व में मिले हुए हैं) 
४. हिन्दू कट्टरपंथी और इस्लामिक कट्टरपंथी दोनों ही जातीयता का विरोध करते हैं, 
५. जबकि आर्य विभिन्न गणों में विभाजित थे, उनकी संस्कृति और भाषाओं में फ़र्क़ था, वे आपस में लड़ते थे, ऐसा कोई मार्क्सवादी इतिहासकार भी नहीं स्वीकार करता (परोक्ष रूप से वे भी जातीयता  के पहलू को अनदेखा करते हैं)  
६. आर्य भारत में रहते थे, उनके साथ द्रविड़ और मुण्डा लोग भी रहते थे, अन्य भाषाभाषी लोग भी रहते थे, हिन्दू राष्ट्रवादी उनकी बात नहीं करते, मैं करता हूँ.. मैंने उस पर किताबे लिखी हैं.. 

रामविलास जी के लम्बे जवाब के बाद नामवर जी इन मसलों पर चर्चा नहीं करते, वे वापस अपने मूल बिन्दु पर लौटते हैं- आप के ग्रंथो से जो राजनीति निकलती है उसका लाभ हिन्दू राष्ट्रवाद उठाता है। रामविलास जी कहते हैं- मैं जो लिख रहा हूँ वह हिन्दू राष्ट्रवाद का बिलकुल उलटा है, तुम न समझो तो मैं क्या करूँ। 

पूरी बातचीत में रामविलास जी विषय की बारीक़ियों की बात करते रहते हैं और नामवर जी निष्कर्षो के निहितार्थ की। और रामविलास जी कुछ बेचैन और चिड़चिड़े भी समझ में आते हैं। शायद इस वजह से कि रामविलास जी बार-बार अपने खोजे हुए सत्य पर बल दे रहे हैं और नामवर जी उसके सम्भावित उपयोग के भय की ओर उन्मुख हैं। इसको पढ़ते हुए चर्च और कोपरनिकस के अन्तरविरोध की याद हो आई, चर्च भी कोपरनिकस के आनुसंधानिक सत्य को झुठलाने पर आमादा था। हालांकि उस सत्य और इस सत्य की कोई तुलना नहीं। और मेरा आशय यह भी नहीं कि रामविलास जी की अवधारणा सत्य ही है। दिल को खटकने वाली बात इतनी सी है कि क्या इसी वजह से कोई बात न कही जाएगी कि वो पार्टीलाइन नहीं है या फिर कोई उसका ग़लत इस्तेमाल कर लेगा? 

फिर भी मेरे लिए यह संवाद पढ़ना बहुत मनोरंजक रहा। एक तो इसलिए भी कि हमारी भाषा के दो महापुरुषों का संवाद हम कमज़र्फ़ों की तरह ही उछलता-कूदता सा चलता हुआ मिला और दूसरे बड़ी वजह यह कि इसको पढ़कर दो विद्वानों के अलग-अलग मानसिक संगठन से रूबरू भी हुए। एक जो पूरी तरह अपने अनुसंधान में डूबा, राजनैतिक रूप से गहरे तौर पर प्रतिबद्ध मगर अपने निष्कर्षों को लेकर सिर्फ़ इस वजह से शर्मिन्दा नहीं कि किसी को लग सकता है कि वो फ़ासिस्ट इस्तेमाल के है; और दूसरा जो साहित्य और अनुसंधान को लगातार उनके राजनैतिक निहितार्थों से तौलता हुआ।

हिन्दी साहित्य रामविलास जी के अनुसंधान के कठोर अनुशासन, और अपने खोजे हुए सत्य के प्रति आग्रह का कितना अनुगामी हुआ है, कहना मुश्किल है। हो सकता है कुछ झक्की जीव यश और प्रसिद्धि के प्रलोभनों से दूर किसी आधुनिक मड़ई में अपनी गहरी साधना में लगे पड़े हों, और आने वाले दिनों का समाज उनके श्रम और साधना का ऋणी रहे, इस वक़्त उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस वक़्त हम जिनके बारे में कह सकते हैं वो हैं एक पिटे-पिटाए राजनैतिक सत्य की लीक पकड़कर चलने वाले और फ़टाफ़ट कुछ पहचान, मान, प्रकाशन, पुरस्कार, और सामाजिक प्रतिष्ठा लूट लेने के लिए आतुर शिष्यों की भीड़, जिनके लिए साहित्य सिर्फ़ एक राजनैतिक निहितार्थ है, उस से ज़्यादा कुछ नहीं। कुछ और लोग भी हैं, पर वो इस मुख्य धारा से बाहर किसी छोटी धारा में हैं, या एकदम हाशिये पर हैं। 

***  

(जहाँ कहीं भी कोष्ठक आया है, उसके भीतर मेरे शब्द हैं) 





रविवार, 13 मई 2012

दोस्त


उस दिन शांति के सर में तेज़ दर्द था। शायद गर्मी की वजह से।  शांति आँख बंद करके लेटी ही थी कि एस एम एस की घंटी बजी। लेटे-लेटे ही शांति ने फ़ोन की खिड़की पर देखा- आरती का मेसेज था- उसकी माँ नहीं रही। शांति का मन दो मिनट तक उस के दर्द से भरे सर और हाथ में पकड़े फ़ोन के बीच झूलता रहा। आरती शांति के सामने वाली इमारत में रहती है। उसका बेटा पीयूष, अचरज के ही क्लास में है और दोनों की अच्छी दोस्ती भी है। दो-एक बार आरती और पंकज, शांति के घर आए हैं और दो-एक बार शांति और अजय उनके घर गए हैं। आरती की माँ और पिताजी शांति की इमारत के दूसरे विंग में रहते थे। और शांति का घर उनके लिए आरती के घर से भी पास पड़ता था। मगर उनका कहीं आना-जाना कम ही होता था। आंटी को वैसे भी गठिया था और चलने-फिरने में तकलीफ़ होती थी और अंकल वैसे तो स्वस्थ हैं मगर बहुत मिलनसार नहीं। नमस्ते करने पर मुस्करा कर जवाब ज़रूर देते हैं पर उससे ज़्यादा नज़दीकियों की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते। न बच्चों का हाल पूछते, और न मौसम के हाल पर बिसूरते। बस आंटी के बगल में खड़े होकर उनकी बातों के खतम होने का इन्तज़ार करते। और अक्सर उस इंतज़ार में उनकी भंगिमा बिगड़ सी जाती। मगर आंटी उनपर ज़रा ध्यान नहीं देती- वो सूचनाओं के पर्याप्त आदान-प्रदान के बाद ही हिलतीं। वैसे भी उनकी हड्डियों को हिलने में तक़्लीफ़ थी तो वो हर क़दम का भरपूर लाभ लेकर ही आगे बढ़ना चाहतीं। अंकल बेचारे, जो शायद किसी भी आम पुरुष की तरह चलने में नहीं पहुँचने में यक़ीन रखते थे, उतनी देर कसमसाते रहते। अब आंटी चली गईं.. अब उन्हे कभी इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा- शांति ने सोचा। सर दर्द से बोझिल हो रहा था। खड़े-खड़े उसे उठाए रखना भारी पड़ रहा था, इसीलिए शांति लेट गई थी। मगर इस नई सूचना न उसका लेटे रहना मुश्किल हो गया। उसे आरती के पास जाना ही होगा- सोचकर शांति उठ गई। पहले अजय को मेसेज किया, फिर पाखी को बताया, और निकल पड़ी। 

घर के बाहर जूते-चप्पलों की ढेरी लगी हुई थी। दरवाज़ा खुला था। और बाहर के कमरे में ही आंटी का शव कमरे के बीचो-बीच रखा था।  शांति ने पिछली बार जब आंटी को देखा था उसके मुक़ाबले काफ़ी कम वजन लग रहा था। अस्पताल में बिताए अन्तिम दिनों में शायद ये बदलाव आया होगा।  शांति की नज़रें आरती को खोजने लगीं। कुछ पहचाने हुए और कुछ अनजान चेहरे भी उस कमरे में मौजूद थे। सबके चेहरे गम्भीर और उदास। पर उनमें आरती नहीं थी। आंटी के शव के साथ उन अनजान लोगों के बीच खड़े रहना शांति को अजीब सा लगने लगा। शांति अन्दर चली गई।  आरती रसोई में पंकज और एक दो अन्य लोगों के साथ थी-  दाह-संस्कार के बारे में बात हो रही थी। कब होगा, कैसे होगा.. किस-किस को खबर हो गई, कौन रह गया आदि। जैसे ही शांति और आरती की नज़रें मिलीं। दोनों स्वाभाविक रूप से एक दूसरे के गले लग गईं। शांति ने आरती की पीठ पर एक-दो दफ़े दिलासा के लिए हाथ फेरा। आरती ने भी हलके से शांति की पीठ थपथपाई.. कुछ पल वे इसी मुद्रा में रहे और फिर अलग हो गए। आरती वापस अपनी चिंताओ में लौट गई। शांति को एक पल का अवकाश मिला और उसे अपना सरदर्द याद आया। वो वहीं था, कहीं नहीं गया था। उस सर दर्द की उपस्थिति में ही शांति ने पाया कि शांति का आरती को दिलासे के लिए गले लगाना एक औपचारिकता था- उसने पहले से सोचा हुआ था कि वो क्या करेगी। आंटी की मृत्यु दुख का मौका था मगर तक़ल्लुफ़ का भी मौक़ा था। शांति को दुख है पर इतना भी नहीं कि उसे रोना आ जाय। और आरती के दुख में शरीक़ होना बिना रोए कैसे मुमकिन है.. शायद सिर्फ़ उसे गले लगाकर और पीठ थपथपाने की दिलासा देकर। लेकिन अपनी औपचारिकता के अलावा उस गले लगने में शांति को आरती की भी औपचारिकता का एहसास हुआ। जैसे पहले से तय था कि वो गले मिलेंगे और कुछ पल एक-दूसरे की पीठ सहलाकर अलग हो जाएंगे। आरती पहले से तैयार थी। शांति ने आरती के चेहरे को देखा- आरती उदास थी पर रो नहीं रही थी। उसके हावभाव से लग रहा था कि ज़िम्मेदारी निभा रही थी। मृत्यु एक निजी अवसर है, मरने वाले के लिए और उसके क़रीबी लोगों के लिए। मगर मृत्यु एक सामाजिक अवसर भी है, जहाँ दोस्त, पड़ोसी और दूर के सम्बन्धी उस सत्य के साक्षी होते हैं। उस वक़्त आरती को देखते हुए बिलकुल नहीं लगा कि उसके लिए आंटी की मृत्यु  कोई निजी अवसर थी। वो पूरी तरह उसके सामाजिक आयाम में बनी हुई थी। तो फिर आंटी की मृत्यु का आरती पर निजी तौर पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था? ऐसा कैसे सम्भव था! 
रसोई में भीड़ बढ़ने लगी थी। शांति पीछे हट आई। अचानक उसकी नज़र दूसरे कमरे में बिस्तर पर बैठे अंकल पर पड़ी। अंकल कमरे में एकदम अकेले थे और वो उसी ओर देख रहे थे। शांति को एकाएक समझ नहीं आया कि वो क्या करे? नमस्ते करे या कुछ और? शांति ने अपने आप को आरती का सामना करने के लिए तो तैयार किया था, पर अंकल की बात वो भूल ही गई थी। और इसीलिए उनसे कैसे मिले में कुछ भी सूझ न पाने की स्थिति में शांति दरवाज़े के सामने से हट गई। 

अंकल अकेले क्यों थे? उनकी पत्नी की मृत्यु हुई थी.. कोई उनको दिलासा क्यों नहीं दे रहा? फिर शांति ने ग़ौर से देखा पूरे घर में आरती और पंकज के दोस्त और पड़ोसी ही थे। अंकल का एक भी दोस्त वहाँ नहीं था? शांति को लगा कि उसे अंकल के पास बैठना चाहिये। वो दरवाज़े पर लौट गई। अंकल ने वापस उस की ओर देखा। इस बार शांति तैयार थी- उसने नमस्ते कर ली.. और उनके पास ही बैठ गई। पर उसके पास कहने को कुछ नहीं था। अंकल की तरफ़ सीधे देखना भी आसान नहीं था। वो इधर-उधर देखती रही। बीच-बीच में एक नज़र अंकल को भी देख लेती। अंकल भी रो नहीं रहे थे। उदास थे और चुप थे। जिस बिस्तर पर वो बैठे थे उस पर अस्पताल जाने से पहले आंटी भी सोया करती होंगी। कितनी रातों दोनों ने जीवन और मृत्यु की बाते की होंगी। अचानक शांति को एहसास हुआ कि क्यों नहीं रो रहे थे अंकल और आरती। आंटी की मृत्यु के पहले ही उनकी बीमारी के दौरान उन्होने आंटी की मृत्यु की कल्पना करना शुरु कर दिया होगा.. और शायद उसका इंतज़ार भी। 
कुछ वक़्त बीत गया। कमरे में शांति और अंकल ही बने रहे। अंकल का कोई दोस्त तब भी नहीं आया था। शायद उनका कोई दोस्त था ही नहीं। आंटी ही उनकी एकमात्र दोस्त थीं। अंकल और दुनिया का जो भी सम्बन्ध था, आंटी के ज़रिये था। बिना आंटी के अंकल शायद अब चलते समय किसी से मिलने के लिए कहीं नहीं रुकेंगे। किसी का इंतज़ार नहीं करेंगे.. सीधे अपनी मंज़िल पर पहुँच जायेंगे। 

*** 

पिछले इतवार को दैनिक भास्कर में छपी

गुरुवार, 10 मई 2012

समय की नदी




 जब शांति छोटी थी तो तो उसके पास बहुत खिलौने नहीं थे। बच्चों के खेलने के लिए उन दिनों लट्टू, फिरकी, झुनझुना, गुब्बारे आदि होते थे। लड़के गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते, पतंग उड़ाते, और बेकार हो गए साइकिल के टायर को किसी लोहे की तीली से घुमाते। और लड़कियां गुड्डे- गुड़ियों  से घर-घर खेलती। लोगों की आमदनी कम थी और इसलिए माना जाता था कि बच्चों के मन बहलाने के लिए टूटी-फूटी बेकार हो गई चीज़ें काफ़ी है। और होता भी यही था। कांच की टूटी हुई चूड़ियां, शीशे के टुकड़े, कोई गुलाबी रिबन, कोई चमकीली पन्नी या गोटा और ऐसी हुई कुछ बटोरी हुई चीज़ें शांति का ख़ज़ाना हुआ करती थीं। बची-खुची चिंदियों और फटी हुई साड़ियों से शांति की माँ ने उसके लिए गुड़िया बनाई थी। जब तक उसका बचपन रहा शांति उस गुड़िया से खेलती रही। स्कूल जाने, घर में माँ का हाथ बँटाने, और इन सब से खेलने के बाद भी बहुत सारा वक़्त था जो बचा रह जाता था। उस वक़्त में शांति और उसकी उमर के दूसरे बच्चे बिलकुल खाली रहते। कुछ भी न करते। अगर घर के अन्दर होते तो खिड़की पर बैठकर बाहर ताका करते। और अगर बाहर होते तो पेड़, मिट्टी और घास के उस अबूझ संसार में फैले अनगिन रहस्यों पर अचरज किया करते। कभी बाग में टपाटप गिरते महुओं की कालीन पर से महुए बीन कर खाते। कभी पहली बरसात के बाद ज़मीन की दरारों से निकलती बीर-बहूटी की फ़ौजों के कुछ सिपाहियों को माचिस की खाली डिब्बियों में क़ैद करते। तो कभी निपट दुपहरी में तपती छत पर पानी की बूंद टपका कर उसका हवा होना देखते। 

अब ज़माना बदल गया है। अब अचरज के पास असली खिलौने हैं। क्योंकि शांति और अजय के पास दाल-रोटी, कपड़े-लत्ते आदि जुटाने के बाद भी इतना पैसा बचा रहता है कि वो अपने बच्चों की ज़िद को पूरा कर सकें। असल में सच तो ये है कि पहले की तरह बच्चों को अब पैर पटक कर ज़िद करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। माँ-बाप उनके मुँह खोलने से पहले ही उनकी पसन्द के खिलौने हाथों में उठाए चले आते हैं। और इस हद तक खिलौने खरीदते हैं कि कमरे में उनको रखने की जगह कम पड़ने लगती है। ज़्यादातर बच्चे असत्ती होते हैं, जुनूनी होते हैं। एक कहानी पसन्द आ गई तो बीस बार उसी कहानी को सुनाने की ज़िद करेंगे। कोई चीज़ पसन्द आयी तो हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते हैं। बार-बार उसी को दोहराते जाते हैं। एक बार जो मज़ा मिला उसी को निरन्तर तलाशते जाते हैं। न जाने ये अकेले बच्चों का स्वभाव है या मनुष्य मात्र का! जो भी हो ये तर्कातीत भाव बच्चों में विशेष रूप से में झलकता है। शायद इसी नादानी को बचपना और इस तर्कातीत स्वभाव से ऊपर उठ जाने को परिपक्वता कहा जाता है। कोई मोकेपॉन और कोई टेनबेन बच्चों की इस वृत्ति को जमकर निचोड़ते हैं। और नतीजे में बच्चों की अलमारियों टेन्बेन की घड़ी, टेन्बेन के बैग, और न जाने क्या-क्या से उबलने लगती हैं। बहुत एहतियात बरतने पर भी शांति अचरज को इस जमाख़ोरी से अलग नहीं रख पाई। और फिर धीरे-धीरे शांति को एहसास हुआ था कि बच्चे सिर्फ़ अपने माँ-बाप और परिवार से नहीं, पूरे समाज से संस्कार ग्रहण करते हैं।  

जिस समाज में शांति बड़ी हुई थी, अब वो समाज नहीं रहा। इस समाज का रहन-सहन अलग है, मूल्य अलग, गति अलग है। बड़ों के पास तो समय नहीं ही है, बच्चों के पास भी समय नहीं है। अचरज के पास समय की मात्रा उतनी ही है जितनी शांति के पास होती थी। वही चौबीस घंटे। पर सुबह उठने से लेकर रात सोने तक अचरज शांति से कहीं ज़्यादा चीज़ें कर रहा होता है और कहीं अधिक सूचनाएं बटोर रहा होता है। शांति कभी-कभी अचरज और पाखी की किताबें और पाठ्यक्रम देखकर चकरा जाती है। इतनी कम उमर में क्या-क्या पढ़ना पड़ रहा है उसके बच्चों को। उनकी उमर शांति को देश-दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जबकि पाखी और अचरज स्कूल में जो सीखते हैं वो तो सीखते ही हैं उसके अलावा इन्टरनेट, और टीवी से भी लगातार सूचनाओं का संग्रह और विश्लेषण करते रहते हैं। घर से बाहर निकलते हैं तो भी हर ओर से उन पर साइनबोर्ड, पोस्टर और बिलबोर्ड की शकल में सूचनाओं और संदेशों की बारिश हो रही होती है। वे लगातार सीख रहे होते हैं और समझ रहे होते हैं। और ऐसा नहीं होता कि वे इस से ऊब जाते हैं। वे खुशहाल है, प्रसन्न है, जीवन की ऊर्जा और उत्तेजना से भरे हुए हैं। उनका मानस लगातार सक्रिय है। आँख बंद करने पर भी कानों में हेडफ़ोन लगाकर वे गीत-संगीत की शकल में जीवन की कैसे-कैसे सच्चाईयां समझते रहते हैं। हर वक़्त उनका चेतन और अवचेतन व्यस्त है। उनकी ये व्यस्तता शांति को बेचैन करती है। समय उनके लिए अबाध निरन्तर बहती नदी नहीं है। शांति के लिए भी नहीं थी। पर शांति के समय की नदी पर दो-चार ढीले-ढाले बाँध होते थे- स्कूल जाने से पहले की सुबह, स्कूल में बिताई दोपहर और घर लौटकर शाम तक का एक लम्बा वक़्फ़ा जिसमें करने को कुछ भी ठोस नहीं होता था, और अंत में शाम से लेकर सो जाने तक की रात। पर आजकल समय इतनी सुगठित और संगठित हो चुका है कि उस की निरन्तरता लगातार बाधित होती चलती है। जैसे किसी एक नदी के स्वाभाविक प्राकृतिक प्रवाह पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बहुत सारे बाँध बने हों। हर किताबी विषय को पढ़ने के लिए स्कूल में अलग घंटा तो होता ही है, उसके अलावा खेलने का अलग घंटा है, पिकनिक जाने का अलग घंटा है, और जब घंटे कम पड़ते हैं तो होमवर्क है।

शांति ने अपने जीवन में शायद ही कभी होमवर्क किया था। और जो किया था वो भी बेहद मामूली। स्कूल के संगठित समय की नकेल से बच्चे निकल भी नहीं पाते कि वो नकेल उनका पीछा करते हुए उनके घर में उनके कमरों में पहुँचकर उनका इंतज़ार करने लगती है। कंधो पर स्कूलबैग का बोझ और सर पर होमवर्क का बोझ लेकर बच्चे घर आते हैं और एक सांस लेकर होमवर्क में लग जाते हैं। और होमवर्क से जो समय असंगठित बच जाय उसके लिए एसाइनमेंट हैं। किसी विज्ञान या सामाजिक विज्ञान के विषय पर शोध करने के लिए एसाइनमेंट है। प्रकृति के सरंक्षण की जागरूकता बढ़ाने के लिए भी एसाइनमेंट हैं। जो भी चीज़ बच्चे के ज़ेहन में असर करने का ताब रखती हो, उसके लिए स्कूलवालों के पास एक एसाइनमेंट है- फ़िल्मों और खेलों के लिए भी!  हर चीज़, हर शै एक प्रोजेक्ट, एक एसाइनमेंट बन चुकी है। बच्चे की स्वतंत्र, स्वाभाविक प्रतिभा को सरल विकास के लिए कोई जगह नहीं है। हर बच्चा एक अलग फूल होता है। और ज़रा सोचिये कि   अगर हर फूल को गोभी के फूल में बदलने की कोशिश की जाने लगे तो क्या होगा? 

आज अचरज और पाखी के पास खाली समय नहीं है, छुट्टियों में भी नहीं। छुट्टियों में भी उनके पास होमवर्क है, एसाइनमेंट हैं, और प्रोजेक्ट्स हैं, और यदि उन से समय बचे तो इन्टरनेट और टीवी और प्लेस्टेशन पर समय को तोड़ने की अनेक विधाएं हैं। ऐसा कोई खाली समय नहीं जिसमें बैठकर वो प्रकृति को चुपचाप निहार सके, उसके और अपने सम्बन्ध की गहराई को समझ सके। और ये लगातार की व्यस्तता उसे किसी ऐसे पल का विलास नहीं देती जिसमें वो अपने भीतर बैठे सत्य से सामना कर सके। वो जो देखता है, सुनता है, गुनता है वो सब बाहर से आ रहा है। उसमें उसका अपना क्या है? और जो उसका अपना है, उस अन्दर की आवाज़ या उस मौन को सुनने का वक़्त कहाँ है उसके पास?  

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२९ अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी

मंगलवार, 8 मई 2012

बाबा


एक दिन अचानक पहली मंज़िल वाली निर्मला आई। खुशी चेहरे से टपकी पड़ रही थी। सुबह-सुबह किसी चमकते हुए फूल की तरह की कोई सूरत देखने को मिल जाए तो बात ही क्या! शांति को लगा कि ज़रूर इसकी लॉटरी लग गई होगी। पर उसने बताया कि बाबा ने याद किया है.. वो जा रही है। इतना कहकर निर्मला ने एक चाभी उसके हाथों में सरका दी। और कहा कि पांच दिन में लौट आएगी.. पौधों को पानी देती रहना। अच्छे पड़ोसी एक-दूसरे के काम आते हैं। शांति अच्छी पड़ोसन थी। हँसते हुए ज़िम्मेदारी ले ली। पांच दिन बिला नागा पानी देती रही। पांचो दिन की सुबह जब वो पानी देने के लिए निर्मला के घर में प्रवेश करती तो घुसते ही उसकी नज़र सिंहासन पर बैठे, गेरुआ पहने बाबा की करुणामय मूर्ति पर पड़ती। यही वो बाबा थे जिन्होने अपने दरबार में     हाज़िरी देने के लिए निर्मला को सपरिवार बुलाया था।

शांति ने उनकी तस्वीरें पहले भी देख रखी थीं। आजकल उनके भक्तों की गिनती बढ़ती ही जा रही है। उनके नाम के नए-नए मन्दिर बन रहे हैं। प्राचीन मन्दिरों में उनकी नई मूर्ति की प्राण- प्रतिष्ठा हो रही है। बसों पर, कारों पर, टैक्सी और ऑटो रिक्शा के पीछे उनका नाम और संदेश पढ़ा जा सकता है। कभी भी, कहीं भी, अनायास। कहीं उनके हाथ में ओम लिखा हुआ है। कहीं माथे पर बिंदी है, कहीं तिलक और कहीं तो उनके माथे पर शैव त्रिपुण्ड रचा हुआ है। कहीं उनकी हाथों से ज्योति पुंज फूटा पड़ रहा है। कहीं बाबा के सर के पीछे एक रौशनी का चक्र है। कहीं वो रेशमी वस्त्र धारण किए डमरू बजाते नाच रहे हैं। कहीं सोने के मुकुट सर पर सजाए हैं तो कहीं सिंहासन पर विराजे हैं। आसमानी, गुलाबी, बैंगनी, पीले, भगवा, हर रंग में, हर चोले में दिखाई पड़ते हैं बाबा।

छठे रोज़ जब निर्मला लौटी तो चाभी लेने के पहले उसने शांति के हाथ में एक प्लास्टिक की थैली थमा दी- बाबा का प्रसाद है! उस प्रसाद में थोड़ी लैया, थोड़ा रामदाना, कुछ सूखे हुए फूल और बाबा की एक रंगीन तस्वीर थी। गेरुआ वस्त्र पहने बाबा अपनी पहचानी मुद्रा में पैर पर पैर रखे बैठे थे। हर दो तीन महीनें में शांति को बाबा की ऐसी तस्वीर का प्रसाद मिलता रहता है। सालों पहले जब पहली बार उसे ऐसी तस्वीर मिली थी तो उसने बाबा की तस्वीर को सर झुका कर, पैर छू कर, अपने घर के मन्दिर वाले कोने में दूसरी मूर्तियों और तस्वीरों के साथ ही सजा दिया था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, और श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती गई, शांति के घर में इतनी तस्वीरें जमा हो गईं कि उन्हे सम्हाल पाना शांति के लिए मुश्किल होने लगा। जब घर के मन्दिर वाले कोने में  में कोई कोना खाली नहीं बचा। तो बाबा घर के दूसरे कोनों में प्रगट होने लगे। कभी रसोई की कपबोर्ड के कांच पर, कभी ड्राइंग रूम के शोकेस में, कभी उसकी बेडसाइड टेबल पर,  कभी आईने पर, तो कभी बच्चों के पढ़ने की मेज़ पर। बाबा की व्यापकता इतनी बढ़ी कि एक रोज़ बाबा की तस्वीर पैर के नीचे आते-आते बची। उस दिन शांति ने सारी तस्वीरें इकट्ठा की और एक बंडल बना के मन्दिर वाले कोने में बनी दराज़ के अन्दर अटा दीं। श्रद्धा के लिए एक तस्वीर ही काफ़ी थी। तो जब निर्मला के प्रसाद में एक बार फिर बाबा प्रगट हुए तो शांति ने तस्वीर को खेद सहित लौटाना चाहा। तो निर्मला ने उसका हाथ लगभग धकेलते हुए उसे समझाया- प्रसाद है, लौटाया नहीं जाता। शांति से कैसे बताती कि मन्दिर वाली दराज़ प्रसाद से गले-गले तक भर चुकी है, उसमें और जगह नहीं है। लिहाज़ा बाबा की एक और तस्वीर उनकी तस्वीरों की गड्डी में बंध गई।

शांति ने बाबा को पहली बार बड़े परदे पर देखा था। फ़िल्मों का एक बड़ा हसीन हीरो हुआ करता था जिसके इश्क़ में कई पीढ़ियों की लड़कियां आँसू बहाती रही थी। वो हीरो किसी वीराने में एक दरगाहनुमा मन्दिर में बाबा के बुत के आगे झूम-झूम कर क़व्वाली गा रहा था। उसके इस भक्ति का  बाबा पर इस क़दर असर हुआ कि बाबा की आँखों से एक ज्योति निकली और उसकी बिछड़ी हुई अंधी माँ की नैनों की रौशनी बन गई।  न जाने हीरो का प्रताप था या बाबा का- फ़िल्म ज़बरदस्त हिट हुई। और बाबा का नाम सब तरफ़ गूँजने लगा। ये वही दौर था जब जय सन्तोषी माँ फ़िल्म ने मुनाफ़े के सारे रेकार्ड तोड़ डाले थे। शांति को अपने बचपन में कुँवारी कन्या की हैसियत से हर शुक्रवार किसी ने किसी आंटी के घर से न्योता मिलता रहता। शानदार दावत होती, मान-सम्मान के साथ पैर छुए जाते, और गुड़-चने के प्रसाद के साथ कुछ रुपये भी मिलते। न जाने क्या हुआ- सन्तोषी माता की भक्ति का बाज़ार ही गिर गया। शायद अर्थवयवस्था के विकास और उपभोक्तावाद की आंधी में लोगों के जीवन से सन्तोष भाव ही बिला गया। जब भी शांति अपने कुँआरी कन्या वाले एडवेंचर पाखी को सुनाती, पाखी ईर्ष्या से जलभुन जाती-  किसी उद्यापन के लिए उसे कभी कोई बुलावा नहीं आया। किसी ने उसके पैर नहीं छुए। शांति कभी-कभी हैरान भी होती है कि सन्तोषी माता तो बिसरा दी गईं मगर बाबा की भक्ति का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है।

ऐसे ही एक रोज़ इन्टरनेट पर शांति का सामना बाबा की एक वास्तविक तस्वीर से हो गया, जिसे उनके जीवित रहते ही किसी ने कैमरे में क़ैद कर लिया था। बाबा की बाक़ी तस्वीरों से एकदम अलग तस्वीर। नगे पैर खड़े बाबा ने बेरंग सा ढीला-ढाला कुर्ता पहना हुआ है। कुर्ते के नीचे न तो पाजामा है और न धोती। सर और कंधो पर एक लम्बी सी चादर पड़ी हुई है। एक कंधे पर एक झोला जैसा कुछ है, जिसे दूसरे हाथ से बाबा सम्हाल रहे हैं। झोले वाले ही हाथ में एक छोटा सा डब्बा है। न जाने क्यों शांति को लगा कि बाबा का डब्बा खाली है। जिस हलके अन्दाज़ में बाबा अपनी दो उंगलियों से डब्बे को साधे हुए दिख रहे हैं- मुश्किल है कि उसमें कुछ भी रहा होगा। नज़र झोले पर गई तो लगा कि झोला भी खाली है। भरे हुए झोले की लटकन अलग होती है। ये खाली झोला ही होता है जो बार-बार कंधे से उतर जाता है। सुना भी है कि बाबा भीख माँगकर खाते थे और मस्जिद में सोते थे। ऐसे निस्पृह बाबा लगभग चकित और जिज्ञासु भाव के कैमरे की ओर, और एक तरह से हर देखने वाले की ओर ताक रहे हैं- जैसे उसकी मंशा समझने की कोशिश कर रहे हों।

इन्टरनेट की इस तस्वीर में न रंगीन चोले थे, न मुकुट था, और न ही सिंहासन। तो फिर मन्दिर वाली दराज़ में गट्ठर में बंधी उन ढेर सारी तस्वीरों में क्यों है? शांति सोच में पड़ गई-  हाथ में खाली डब्बा लेकर नंगे पैर खड़े होने वाले आदमी को धकेलकर सोने के सिहांसन पर बिठा, उसके सर पर सोने का ताज रखने में क्या राज हो सकता है?  बाबा की दो शब्दों की शिक्षा तो बड़ी प्रसिद्ध है- श्रद्धा और सबुरी। कहीं ऐसा तो नहीं कि भक्त बाबा के रंग में रंगने के बदले, बाबा ही भक्तों के रंग में रंगे गए?

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22 अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

छलांग


जब से शादी हुई है, शांति छै अलग-अलग मकानों में रह चुकी है। किराएदार कहीं मकान पर क़ब्ज़ा न कर ले- इस डर से कोई मकानमालिक दो-तीन बरस से अधिक रहने ही नहीं देता। हर मकान के खिड़की, दरवाज़ों और दीवारों का अपना एक अलग चरित्र होता है जिसके साथ तालमेल बैठने में कुछ समय लगता है। और जब तक इन्सान उस चरित्र के साथ रहनेवाले आराम का कोई समीकरण बना पाए, तब तक किराएदारों के मकान से बाहर होने की बारी आ जाती है। 

शांति को इस मकान में आए लगभग डेढ़ साल होने को आया। यह मकान शांति के रहे हुए पहले के सभी मकानों से अपेक्षाकृत बड़ा और हवादार है। तीन दिशाओं में खुलने वाली बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ और एक कुशादा बालकनी भी है। मगर सभी खिड़कियों पर लोहे की जाली जड़ी हुई हैं यहाँ तक कि बालकनी के आगे भी लोहे का एक भारी जंगला लगा के उसे बंद कर दिया है। तो बालकनी और खिड़कियों से हवा और धूप तो आ सकती थी मगर किसी जानवर या आदमी का आ पाना नामुमकिन है। कबूतर- चूहे और गिलहरी जैसे छोटे जानवरों के लिए अलबत्ता कोई रुकावट नहीं है।  यह जंगले और जालियां सुरक्षा के नज़रिये से परे शांति के लिए बड़ी परेशानी का सबब रहीं। पहले के मकानों की खिड़कियों में भी जंगले थे मगर इस मकान के जंगले कुछ ज़्यादा ही सघन हैं। ऐसी कि खिड़की से बाहर झांकते हुए नज़र बाहर पसरने के बजाए जंगले से ही उलझ कर वहीं दम तोड़ देती। घर के काम-काज के बीच कुछ पल के अवकाश के कुछ पल चुराने के लिए घर के किसी भी कोने से बाहर के संसार पर नज़र फ़ेरते हुए कभी जो सुस्ताती तो एक मुक्ति के भाव को प्राप्त होने के बजाय और बन्धन में बँधा हुआ महसूस करती। कभी तो उसे ख़ुद के घर के भीतर क़ैद होने का एहसास होता तो कभी उसे आकाश समेत शेष संसार के जंगले के बाहर बंद होने जैसी भाव ग्रस लेता।  

दूसरे का मकान है, कितने दिन रहना है, किसी तरह दिन काट लो आदि भावों से ग्रस्त होकर शांति अपनी परेशानी को ज़ब्त करती रही। मगर तीन महीने पहले जब मकानमालिक से सामना हुआ तो शांति के मन की बात बाहर आ ही गई। 
'आप के मकान में सब अच्छा है.. बस ये जंगले निकलवा दीजिये! '
'क्यों? '
'बहुत घुटन होती है.. लगता है जेल में बंद हैं.. '
'क्या बात कर रही हैं आप.. इस से तो बड़ी हिफ़ाज़त रहती है.. '
'हिफ़ाज़त तो जेल में भी बड़ी रहती है.. '
मकानमालिक लाजवाब होकर भी हुज्जत करते ही रहे। लेकिन शांति के बार-बार आग्रह करने पर मकानमालिक ने अगले महीने निकाल देने की बात पर विदा ली। पर शांति को दिख रहा था कि वो वाएदा कम और टालना ज़्यादा था। इस बात को लगभग तीन हफ़्ते गु़ज़र गए थे जब कॉलोनी में एक हादसा हो गया। 

शांति इमारतों के जिस संकुल में रहती है उसी के नज़दीक में एक नई बीस मंज़िला इमारत रॉक्सी हाईट्स खड़ी हो गई थी। पिछले चार-पाँच महीनों से उसकी कुछ खिड़कियों में बत्तियां भी जगमगाने लगी थीं। पिछले हफ़्ते जब वो दफ़्तर से आ रही थी तो उसने देखा कि रॉक्सी हाईट्स के आगे कुछ लोगों की भीड़ जमा है जिसके चलते ट्रैफ़िक चींटी की चाल पर उतर आया है। उसके स्कूटर के पास रुके मोटरसाइकिल वालों की गुफ़्तगू पर कान देने से उसे पता चला कि किसी नौजवान से इमारत की बारहवीं मज़िल से क़ूद कर जान दे दी। इस हौलनाक ख़बर के साथ ही ट्रैफ़िक में थोड़ी हलचल हुई और शांति को अपने उमड़ रहे जज़्बात को किनारे कर के घर की दिशा में स्कूटर आगे बढ़ाना पड़ा। 

लौटकर आई तो सारे कॉलोनी में इसी हादसे की चर्चा हो रही थी। पार्किंग में स्कूटर खड़ा करके घर के अन्दर दाखि़ल होने तक शांति को मरने वाले की कहानी के कई संस्करण सुनने को मिले। और अगली सुबह अख़बार में उसी हादसे की सुर्ख़ी थी और तफ़्सील भी। ख़ुदकुशी करने वाले नौजवान की उमर कुल बत्तीस साल थी, एक बड़े बैंक का मैनेजर था, लाख रुपये के ऊपर तनख़्वाह थी, मगर प्रेमविवाह करने के बाद तलाक़ हो गया था। उसके बाद बैंक की ही किसी जूनियर अधिकारी से प्रेम करने लगा था मगर वो विवाहित थी और अपने पति को छोड़ने को तैयार न थी। जिस दिन यह हादसा हुआ वो महिला भी उसके साथ फ़्लैट में मौजूद थी। नौजवान दिन से लगातार शराब पी रहा था तो न जाने किस भावुक मौक़े की उत्तेजना में उसने बालकनी से नीचे छलांग मार दी।  

उस दिन दफ़्तर में इस मामले की तार्किक, नैतिक और भावुक चीरफाड़ हुई। किसी ने नए क़िस्म के शहरी जीवन और पश्चिमी मूल्यों को दोष दिया, किसी ने शराब को तो किसी ने नौजवानी को। एक साहब ने तो हद ही कर दी- उन्होने बिना जंगले की बालकनी को दोष दे डाला। उनके मुताबिक़ इन्सान के भीतर गाहे-बगाहे ऐसी भावना उमड़ती ही रहती है- ऊँची इमारतों में खुली बालकनी रखना तो मरने वालों को दावत देना है। और आगे उन्होने दिल्ली की क़ुतुब मीनार की मिसाल भी दे डाली जिसकी ऊपरी मंज़िलों में आज भी जाने की मनाही है क्योंकि जब रोक नहीं थी तब आए दिन कोई न कोई वहाँ से छलांग मार देता। बात यहीं ख़तम हो जाती तो कुछ न था। इस के अगले ही रोज़ जिस महिला के तथाकथित प्रेम में नौजवान ने अपनी जान दी थी, उस महिला ने भी अपनी चार मंज़िला इमारत की बालकनी से छ्लांग मार दी। 

इस मामले की मार्मिकता से अलग शांति के मन में एक अलग ही आशंका पलने लगी। अपने मकान की बालकनी के ख़िलाफ़ जो अभियान उसने मकानमालिक से साथ छेड़ा था, उस अभियान की सफलता पर काले बादल मंडलाते हुए उसे नज़र आने लगे। और हुआ भी वही जिसका उसे डर था। अगली दफ़े जब मकानमालिक साहब आए तो वो बालकनी के जंगले निकालने के अपने आधे वाएदे से सरासर मुकर गए। कहने लगे कि वो अपने किराएदारों के साथ किसी भी हादसे होने की सूरत पैदा करना नहीं चाहते थे। 

शांति की नज़र और ख़याल के विस्तार के अरमान तो धरे के धरे रह गए। उलटे उसने देखा कि वो मकान जिनकी खिड़कियों-बालकनी में पहले कोई जाली-जंगले नहीं थे, उनमें से तमाम पर चमचमाते काले नए लोहे जड़े दिखाई देने लगे। तय था कि लोग डरे हुए थे। उन सब के भीतर कोई था जो छलांग मारना चाहता था या उन्हे लगता था कि उनके परिवार के भीतर कोई है जो मार सकता है कभी भी छलांग।  

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२२ जनवरी को दैनिक भास्कर में छपी.


गुरुवार, 29 मार्च 2012

प्रतिशोध




सुबह जब शांति पौधों को पानी देने के लिए बालकनी पर गई तो सूरज उग रहा था। पानी देते हुए उसने सूरज की तरफ़ एक अनुरागी दृष्टि डाली। सूरज सफ़ेद हो रहा था। ये नज़्ज़ारा शांति को बड़ा अजीब मालूम दिया। सूरज सफ़ेद ही होता है.. पर उगते हुए और डूबते हुए सूरज में लाली देखने की आदत पड़ी हुई है हमको। वैज्ञानिक बताते हैं यह एक दृष्टि भ्रम है जो प्रकाश के परावर्तन के चलते होता है। शांति ने सर उठा कर शेष आकाश की ओर देखा। पूरा आसमान एक अजब सलेटी रंग में पुता पड़ा था। आस-पास के पेड़ उगते सूरज की रौशनी में अच्छे चटख रंगो में खिले होने के बजाय एक धूसर उदासी से लिपटे खड़े थे। धूसर रंग उस धूल में था जो पेड़ और शांति की आँख के बीच ही नहीं, सारे आलम में तैर रही थी। अभी वसन्त में ही आए नए पत्तों और ताज़े खिले फूल के चटख रंगों के खुल कर पसरने की राह उसी धूल ने अवरुद्ध की हुई थी। वही धूल उगते सूरज की लाली को भी लील गई थी,  ऐसे कि सूरज नारंगी-लाल न होकर किसी अख़बारी काग़ज़ की तरफ़ निस्तेज और सफ़ेद नज़र आ रहा था। कभी-कभी ऐसा भी होता है, यह सोचकर शांति अपने में वापस लौट गई। बाहर धूल मचलती रही। 

तक़रीबन ढाई घंटे बाद जब शांति तैयार होकर दफ़्तर जाने के लिए निकली तो सूरज सर पर चढ़ आया था मगर धूप बहुत ही ख़स्ताहाल थी। धरती पर शांति की बौनी छाया थी ज़रूर पर बेहद क्षीण और महत्वहीन। शांति ने सर उठाकर ऊपर देखा। आकाश में कोई बादल न था पर सब तरफ़ बदली छाई हुई थी। जहाँ तक नज़र जाती थी धूल के नन्हे-नन्हे कण हवा में अठखेलियां करते नज़र आ रहे थे। पहले कभी नहीं देखी इस तरह की धूल? पहले जब कच्ची सड़कें होती थीं तो  गर्मी के प्रचण्ड प्रहार से धरती चटकने लगती थी और उसकी सतह के छोटे-छोटे टुकड़े हवा के साथ  पूरे वातावरण में उड़ने लगते थे। पर उस धूल की अपनी कोई गति नहीं थी वो हवा के कंधों पर सवार होकर यहाँ-वहाँ भटकती फिरती थी। पर उस दिन न तो प्रचण्ड गर्मी थी तो न ही हवा हुंकारे भर रही थी। ये वो धूल नहीं थी.. तो फिर ये कौन सी धूल थी? कहाँ से आई थी यह धूल?  शहर में न तो कच्ची सड़कें थीं, न नंगी पड़ी हुई ऊसर ज़मीन और न ही घास या बेघास के चटियल मैदान.. जिनसे छूटकर धूल इधर-उधर आवारा फिरती। 

शहर में भी धूल होती है। पर वो बिलकुल अलग क़िस्म की धूल है.. लम्बी-ऊंची इमारतों की तामीर में लगने वाली सीमेंट-मौरम के ज़र्रों की धूल। पर वो इस क़दर सरकश और आवारा नहीं होती। वो तो बहुत ही चुपचाप और रहस्यमय तरीक़े से रोज़ बरोज़ आसपास के घरों में जा टिकती है और हर सुबह घरों से बाहर बुहार फेंकी जाती है। जो कचरे के डब्बों से होते हुए शहर के बाहर बने कूड़े के टीलों में अपना अन्तिम स्थान पाती है। जहाँ उसके साथी होते हैं प्लास्टिक की थैलियां,  पन्नियां, कपड़ों के टैग, कच्ची-पक्की और सड़ी-गली सब्ज़ियां, टूटे हुए कांच के टुकड़े,  ठुकराए हुए खिलौने,  चिंदी करके फेंके हुए काग़ज़, कीलें, पतरे, लोहा-लंगड़ और कई तरह की धातुओं के टुकड़े। उसके ये सारे साथी उस धूल को इस क़दर जकड़ कर रखते हैं कि धूल वहाँ से कहीं जाने नहीं पाती। वहाँ से अगर कुछ उठता है तो उन सब की समवेत गंध, जिसका सामना करने की ताब किसी सामान्य मनुष्य में नहीं होती। फिर भी कुछ दिलेर नाक पर पट्टी बांधे, और कुछ तो बिना किसी पट्टी के भी उन ठुकराई हुई बेकार चीज़ों के ढेरों में अपने काम की चीज़ें खोजा करते हैं। 

फिर कौन सी धूल थी ये? इसी सोच को लिए-लिए शांति दफ़्तर पहुँची। जब उसने हेलमेट उतार कर हाथ में लिया तो देखा कि उस पर धूल की पतली सी परत आरामफ़र्मा है। शांति ने हौले से अपनी उंगली को हेलमेट पर फिराया तो उसकी इस हरकत के निशान को अंकित होते हुए देखा और फिर हेलमेट को स्कूटर पर ही टांगकर दफ़्तर में दाख़िल हो गई। दफ़्तर में एसी चल रहा था और सामान्य सरगर्मी थी। लोग दुनिया जहान की जो बातें कर रहे थे उनमें धूल भी एक चर्चा का मुद्दा थी। लेकिन जब दफ़्तर बंद हुआ तो हालात संगीन हो चले थे।  

शाम होते-होते तक धूल ने आदमी की बनाई दुनिया की ऊँचाई से दूर ऊपर कहीं तैरना छोड़कर वापस धरती की ओर धावा बोल दिया। हवाएं उसका साथ दे रही थीं। एक-दूसरे से सटकर चलने  वाली मछलियों और पंछियों के समूह की तरह धूल बड़े वेग से दिशाओं को झकझोरने लगीं। चलना तो दूर उस आँधी में खड़े रहना भी मुश्किल था, आँखें बंद हुई जाती थीं। सवारियों के लिए सड़कों पर चलना असम्भव हो गया। पहले रेंगने की गति पर आया ट्रैफ़िक एक पल में आकर एकदम ठप पड़ गया। पूरे शहर में समय जैसे ठहर गया। पर हवाओं पर सवार धूल अंधड़ बनकर चलती रही। 

एक बहुत लम्बे अंतराल के बाद शांति घर पहुँची। जैसे-जैसे शांति घर के भीतर क़दम रखती गई फ़र्श पर जमी धूल की परत पर अपने जूतों के निशान छोड़ती गई। सारा घर धूल से अटा पड़ा था। अजय, पाखी, अचरज डाइनिंग टेबल पर सन्न से बैठे थे। फोन सेवाएं ठप पड़ चुकी थी और पिछले कई घंटो से उनका शांति से सम्पर्क टूटा हुआ था। सासू माँ भी वहीं बैठी थीं- केबल भी बंद था। उस समय सफ़ाई करने का माद्दा नहीं था शांति में। वो सिर्फ़ नहाना चाहती थी। पर न जाने क्यों पानी नहीं आ रहा था। धूल से काली हो गई शांति का बदन एक उतनी ही किरकिरी चिड़चिड़ाहट से दरकने लगा। किसी तरह उसने अपने पर क़ाबू पाया और रखे हुए आधी बाल्टी पानी से अपने हाथ-पैर धो लिए। भूख मर चुकी थी पर पाखी और अजय के कहने पर उसने थोड़ा सा खाना अपनी प्लेट पर डाल लिया। निवाला मुँह में डालते ही उसे खाने का नहीं धूल का स्वाद आया। शांति ने वैसे ही प्लेट रख दी। और नहीं खाया फिर भी ज़बान पर धूल का स्वाद बैठा ही रहा। 

बाहर अंधड़ जारी था। घर में धूल बढ़ती ही जा रही थी। मेज़, कुर्सी, परदे, सब कुछ धूल से सन चुका था। शांति इतना थक चुकी थी कि बस बिस्तर पर गिर कर सो जाना चाहती थी पर बिस्तर, धूल के बिस्तर में बदल गया था। उस पर सोना नामुमकिन था। शांति ने चादर बदलने के लिए अलमारी खोली। तभी लाइट चली गई। अलमारी के भीतर शांति का हाथ जहाँ भी पड़ा वहाँ धूल मौजूद थी। किसी तरह शांति ने एक चादर बिस्तर पर डाल दी। और दूसरी दरवाज़े की झिरी पर तोप दी। उसके बाद भी धूल अदेखे-अनजाने छेदों से निकल-निकल कर शांति पर और कमरे की हर  चीज़ पर बैठती ही रही। जैसे धूल को कोई ईश्वरीय वरदान था और वो उसी वरदान का दीर्घप्रतीक्षित प्रतिशोध ले रही थी। 

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शनिवार, 24 मार्च 2012

नौनिहाल


सवा पाँच बज रहे थे। दफ़्तर लगभग ख़ाली हो चुका था। परम्परा के मुताबिक लोग अपना आज का काल कल पर टालकर जा चुके थे। आज का काम आज ही ख़तम कर डालने की ज़िद करने वाली शांति अपना काम समेट रही थी जब हवाओं पर चढ़कर रह-रहकर एक धमक सी आने लगी।  शांति तो अपने काम में व्यस्त थी। सबसे पहले उनकी पहचान दफ़्तर की पुरानी खिड़कियों में जड़े शीशों ने की। हर धमक के साथ उनका पूरा अस्तित्व कम्पन करने लगा। और सारे शीशों के समवेत कम्पन से पूरे दफ़्तर में एक अजब माहौल तारी हो गया। तब शांति ने भी उस धमक की लहरों को अपने शरीर से टकराते हुए महसूस किया जिससे उसके मन में एक विचित्र आकुलता का संचार होने लगा। उसने लैपटॉप बन्द कर दिया। उस आकुलता में काम करना मुमकिन नहीं था। और बाहर की ओर चल पड़ी। जैसे-जैसे वो बाहर की ओर चलती गई, हवाओं में धमक बढ़ती चली गई। और जब वो लिफ़्ट से बाहर आई तो एक कान चीर देने की नीयत रखने वाले संगीत से उसका सामना हुआ। वो धमक इसी संगीत की निचली तरंगे थी।

शांति स्कूटर पार्किंग से निकालकर सड़क पर आ गई। ये सड़क जिस पर शांति का दफ़्तर था, बहुत संकरी तो न थी। लेकिन कुछ हिस्से पर दुकान अपनी हदों से बाहर निकलकर पसर गई थीं और कुछ पर ठेलेवाले अपनी रोज़ी बिछाए हुए थे। शहर का प्रशासन  एक सहिष्णु आचार का परिचय देते हुए इस अतिक्रमण के प्रति पूरी तरह उदासीन बना हुआ था। और आम नागरिक की हालत किसी कोलस्ट्राल से भरी रकतवाहिनी में बहते पोषक तत्वों सी हो चली थी। लेकिन उस समय सड़क का आवागमन रुका हुआ था। क्योंकि शांति से लगभग पचास मीटर आगे एक ट्रक था जिस पर पांच छै भीमकाय स्पीकर रखे थे। ट्रक के ऊपर, आगे-पीछे और अगल-बगल नौजवान लड़कों की एक उछलती-कूदती टोली थी। साठ-सत्तर की संख्या वाले उस दल में शायद ही एक-दो ऐसे थे जिन्होने कमर के ऊपर कोई कपड़ा पहन रखा हो। जो शोर ट्रक के स्पीकरों से उपज रहा था न तो उसे संगीत कहा जा सकता था और न ही उनकी फूहड़ उछल-कूद को नृत्य। वे अपने भीतर की ही किसी विकृति से विवश होकर हवा में हाथ-पैर फेंकते दिख रहे थे। वे पास ही स्थित विश्वविद्यालय के छात्रावासों में रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर छात्र थे।

किसी लगातार हो रहे विस्फोट की तरह उस शोर की उत्तेजना शांति को परेशान करने लगी। वो शोर एक ऐसा आक्रमण था जिसका उसके पास कोई बचाव नहीं था। उसके आगे वाहनों की लम्बी क़तारें थी और वैसी ही धीरे-धीरे पीछे भी बनती जा रही थीं। न वो आगे निकल सकती थी और न लौट सकती थी। उस शोर की धमक में उसके ज़ेहन में उठने वाली हर सोच उठते ही दम तोड़ दे रही थी। जबकि उसकी देह के किसी निचले तल से उठता एक आदिम आवेग उस पर छाता जा रहा थी।  उसका मन कर रहा था कि सबको कुचलकर आगे बढ़ जाय। अगर वो कोई सिद्ध योगिनी होती तो अपने स्कूटर को टैंक में बदल डालती उसी पल। अचानक उसे लगा कि कोई कुछ कह रहा है उस से। उसने मुड़कर देखा- उसके बाज़ू में रुकी हुई कार से एक औरत उस से कुछ पूछ रही थी।  उसके मुँह से निकल ज़रूर होंगे कुछ शब्द मगर वो कहीं पहुँचने पहले से दबा कर मार डाले गए। उस आततायी शोर में किसी स्त्री के कोमल शब्द के लिए कोई जगह नहीं बची थी। शांति को कुछ समझ नहीं आया। ड्राइवर की सीट पर बैठा उस औरत का पति उसके कंधों को हिलाकर कुछ बोल रहा था। लेकिन वो अपने पति को अनदेखा कर के शांति से बार-बार कुछ पूछती ही रही। उसके लगातार हिलते हुए होंठ, सवालिया निगाहें और शांति तक पहुँचता सिर्फ़ शोर शांति से बरदाशत नहीं हो रहा था। उस पर से अपनी ध्यान हटाने के लिए शांति ने पिछली सीट पर देखा। पिछली सीट पर दो बच्चे आपस में लड़ रहे थे। एक छै-सात बरस का लड़का एक तीन-चार बरस की लड़की, जो शायद उसकी बहन थी, बुरी तरह पीट रहा था। बच्ची का मुँह खुला था, गले की नसें तनी हुई थीं, और आँखों से आँसू बह रहे थे। निश्चित ही वो गला फाड़ कर रो रही थी पर रोने की कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। अगली सीट पर बैठे उनके माँ-बाप को पता भी नहीं था कि पिछली सीट पर क्या चल रहा है।

होली के चार-पाँच रो़ज़ पहले ही होली मिलन का उत्सव मना रहे छात्रों का जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। और एक ख़ास घर के आगे जाकर रुक गया। शांति ने देखा उस घर पर दीपा गर्ल्स हॉस्टल की तख्ती लगी हुई थी। शायद वो विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए कोई निजी छात्रावास था। उस हॉस्टल में कोई चौकीदार नहीं था। और अगर था भी तो लड़कों के हिंसक नाच से भयभीत होकर कहीं अन्तर्धान हो गया था। अगल-बगल फलों और जूस के ठेले थे। मगर वो घबराकर अपने सामान को ढककर किनारे होने में लगे थे। उन्हे डर था कि अगर लड़कों की नज़र तिरछी हुई तो उनका माल लुटते देर नहीं लगेगी। ये उनका सौभाग्य था कि लड़कों की दिलचस्पी किसी और 'माल' में थी। जिस के चलते वो गर्ल्स हॉस्टल के बाहर खड़े होकर भीमकाय स्पीकरों से निकल रहे उन्मादक शोर पर देर तक अश्लील ढंग से उछलते-कूदते रहे। और गंदे इशारे करते रहे। जिस पर भी जब किसी भी लड़की ने उनको दर्शन की तवज्जो नहीं दी तो एक लड़के ने जूस के ठेले के साथ रखे टोकरी में से संतरे और मौसम्बी  छिलके और गाजर-चुकन्दर के सिरों को उठा-उठाकर हॉस्टल की बंद खिड़कियों पर फेंकना शुरु कर दिया। बाक़ी लड़कों ने अनुसरण किया और हॉस्टल पर अपने हथियारों की वर्षा कर दी। वो पल तमाम तरह की ख़तरनाक सम्भावनाओं से थरथराने लगे। इस दृश्य को देखते-देखते कुछ पल पहले क्रोध में उबल रही शांति, बिलकुल उलट भय की गर्त में गिर पड़ी।

घर पहुँचने के बहुत देर बाद तक भी शांति भीतर कहीं काँपती रही। क्योंकि वो एक स्त्री है, और किसी तल पर बेहद असुरक्षित है। और उसके भीतर इस आदिम असुरक्षा की भावना पैदा करने वाले कोई अनपढ़, जंगली और गँवार नहीं थे। विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा लेकर, आने वाले दिनों में आईएएस, पीसीएस आदि बनने वाले छात्र थे, नौनिहाल थे, देश का भविष्य थे। उच्च शिक्षा हासिल करके वे किस प्रकार के बेहतर मनुष्य और किस तरह के बेहतर समाज की रचना करेंगे ये कल्पना करना शांति को बहुत कठिन और कष्टकर मालूम दिया।

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(10 मार्च को दैनिक भास्कर में छपी) 


शुक्रवार, 23 मार्च 2012

ग़रीब की गरिमा



जब वे प्लैटफ़ार्म पर दाख़िल हुए गाड़ी छूटने में तब भी चालीस मिनट थे।। उनके हलके-फुलके सामान के लिए कुली लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। दो दिन का कार्यक्रम था- शादी में शामिल होके बस अगले दिन वापसी। ए-वन डब्बा सबसे आख़िर में था। जीवन में पहली बार वे पहले दर्ज़े में सफ़र करने का आनन्द लेने जा रहे थे। अजय अपना वर्ग और अपनी औक़ात जानता है। पर कुछ सौ रुपये के फ़र्क़ से अगर आपका वर्ग बदल सकता है तो अजय एक बारगी यह क़ीमत देने को तैयार हो गया। और वर्गों के पार यह छलांग मार दी। अजय और शांति आराम से अपनी ट्रालियां खींचते हुए गाड़ी के अन्त की ओर चल पड़े। दूर से उन्हे गाड़ी के आख़िर में एक लम्बी मानव श्रंखला दिखाई दी। एक-दूसरे की देह में चपक जाने तक की निकटता वाली श्रंखला, सबसे निचले दर्ज़े में बैठने की जगह पा जाने के लिए लगाई गई लाइन थी। हाथ में और कंधे पर कई आकार और प्रकार के बैग थामे और लटकाए अलग-अलग उम्र के मर्द, बच्चे और औरतें थे। बैठने की जगह या सिर्फ़ खड़े हो जाने की जगह पा जाने के संघर्ष से जिनके चेहरे तनाव से आड़े-तिरछे खिंचे हुए थे। आर पी एफ़ के कुछ सिपाही उनके उस संघर्ष के उग्र और हिंसक होड़ में बदल जाने से रोकने के लिए रह-रह कर अपने डंडे को और गले के सुर को उठा रहे थे। ऐसा नहीं था कि शांति ने पहले ऐसी क़तारें नहीं देखीं थीं। पर पहला दर्ज़ा और जनरल डब्बा इस तरह एक दूसरे से सटा होता है यह देखकर उसे एक अजब से हैरत हुई जिसमें कहीं कोई अपराध भावना भी छिपी हुई थी। कोई पहले दर्ज़े का यात्री सबसे निचले दर्ज़े की ठसाठस तक़लीफ़ों को नज़रअंदाज़ कर सकता था। और जनरल डब्बे में कशमकश करने वाला सवार भावनाओं की किन तंग गलियों से गुज़रता होगा- यह शांति सोचती ही रही। 

पहले दर्ज़े के कम्पार्टमेन्ट में साइड की बर्थ नहीं होतीं। उनकी जगह खिड़कियों से लगा हुआ एक गलियारा होता है और शेष जगह में चार-चार बर्थ के कूपे। कूपे के भीतर बैठने-लेटने के लिए जो बर्थ थीं वो थी टियर और टू टियर से कहीं ज़्यादा चौड़ी थीं। उनके ऊपर बढ़िया गहरे लाल रंग की टेपेस्ट्री लगी थी। बर्थ के तरफ़ तो खिड़की थी और दूसरी तरफ़ छोटा-मोटा सामान रखा जा सकने लायक़ एक फ़ुट चौड़ी साइडटेबल थी। इतना ही नहीं उन के ऊपर सूट टांगने के लिए एक आलमारी भी थी। शांति को उसे देखकर बार-बार किसी लाल मुँह वाले अंग्रेज़ की याद आती रही जिसका सूट टाँगने के लिए उस आलमारी का विधान बनाया गया होगा। कुल मिलाकर चार लोगों के रईस परिवार के सफ़र को सुकूनसाज़ बनाने का पूरा इंतज़ाम था। यहाँ तक कि कोच परिचालक को फ़ौरन तलब करने के लिए हर बर्थ के पास घंटी भी लगी हुई थी। हालांकि कुछ समय मे ही शांति ने समझ लिया कि वो भी अंग्रेज़ो के ज़माने का अवशेष है। तब गोरे साहब के लिए हिन्दुस्तानी अटेंडेंट दौड़ा चला आता होगा- अब वो नहीं आता। या शायद किसी एमपी-एमएलए या किसी बड़े अफ़सर के कोच में उपस्थित होने पर अब भी आता हो। वैसे भी पहले दर्ज़े की रेलयात्रा जिस तरह शांति और अजय के लिए अपवाद थी शायद वे भी पहले दर्ज़े के उस कोच के लिए अपवाद थे। 

रात भर का सफ़र था। अटेंडेंट कम्बल-चादर आके दे गया। बाहर हलकी ठण्ड थी। मगर डब्बे के भीतर उससे भी ज़्यादा ठण्ड थी। इसके बावजूद शांति के सहयात्री बार-बार शिकायत करते रहे- "ठण्डा नहीं हो रहा.. पसीना आ रहा है.. और बढ़ाओ.. !" शांति हैरत से उन्हे देखती ही रह गई। क्या रहस्य था उनकी गर्मी का? बुरी तरह कुड़कुड़ाए बिना क्या उनका पैसा वसूल नहीं होने वाला था? वो कुछ कहना चाहती थी पर अजय ने उसका हाथ दबा दिया। 

रात को शांति की जब नींद खुली तो गाड़ी खड़ी हुई थी। कोई स्टेशन आया था। पांच बज रहे थे। शांति चाय की तलाश में उठकर बाहर तक गई। दरवाज़ा खोलते-खोलते ही चायवालों की आवाज़ आनी शुरु हो गई। बाहर झांक कर देखा तो उसके डब्बे के सामने कोई नहीं था। सारे चायवाले जनरल डब्बे की खिड़कियों के आगे मंडला रहे थे। मगर वे सारे जनरल डब्बे के दरवाज़े पर लगी भीड़ से बुरी तरह आच्छादित थे। चढ़ने वालों के बीच गज़ब की जद्दोजहद चल रही थी। वहाँ कोई पुलिस वाला भी नहीं था। डब्बे में दाख़िल होने के लिए धक्कामुक्की ही एकमात्र योग्यता साबित हो रही थी। और अपनी योग्यता का परिचय देने में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था। गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। शांति को उस प्रभात वेला में चाय मिलने की उम्मीद ख़तम होती नज़र आनी चाहिये थी। पर उसे उस भीड़ में अधिकतर की अपने गंतव्य में पहुँच पाने की उम्मीद डूबती नज़र आई। भीड़ के एकदम अंत के एक अधेड़ दम्पति ऊहापोह में पहले दर्ज़े के दरवाज़े की ओर चले आए। मगर कोच के ज़ीने पर पैर रखने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। न जाने किस ख़्याल में शांति दरवाज़े से पीछे हट गई। शांति के इस मुद्रा को उन्होने एक इशारा समझा और चढ़ गए। और डब्बे  के एक कोने में अनाधिकार भाव से खड़े हो गए और किसी अनजान शिकायतकर्ता से बुदबुदाकर कहने लगे- आगे उतर जाएंगे। शांति वहाँ खड़े होने भर में असहज अनुभव करने लगी। वो अपनी बर्थ पर लौट गई और लेट गई। उसे नींद नहीं आई। थोड़ी देर में कुछ आवाज़े आईं। उठकर बाहर गई तो पता चला कि उस दमपति को अटेंडेंट ने लगभग धकेल कर गाड़ी के भीतर चलता कर दिया। किसी और कोच की तरफ़। 

 क़ानूनन ग़लती उस दम्पति की थी। वे पहले दर्ज़े में चढ़ने के अधिकारी नहीं थे। पर क्या इस ग़लती में सरकार की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं थी? आम आदमी न तो ऊँचे दर्ज़े का किराया वहन कर सकता है और न ही अपनी यात्राओं को पहले से योजनाबद्ध कर सकने का नियंत्रण अपने जीवन पर रखता है- तो क्या सरकार उसे जनरल दर्ज़े में मुर्ग़ियों की तरह भरने के लिए अभिशप्त बनाए रखेगी। अभी तो उनजानवरों के 'एनीमल राइट्स' की बातें उठने लगीं हैं। जनरल डब्बे में सफ़र करने वाले आदमी के 'ह्यूमन राइट्स' का कोई मसला बनता है क्या? या उसे अपनी गरिमा के साथ सफ़र करने का कोई हक़ नहीं? या तो वो एक लम्बी लड़ाई के बाद आलू-प्याज़ की तरह जनरल डब्बे की बोरी में बंद हो जाए- जहाँ पेशाब करने के बाथरूम तक सफ़र भी एक बड़ा संघर्ष है- और या फिर किसी ऊँचे दर्ज़े के अटेंडेंट के हाथों अपने सम्मान का सौदा करे। और न जाने क्यों शांति को यक़ीन है कि ये सिर्फ़ सरकार के पास पैसों की तंगी और रेलवे के ठसाठस भरे टाइमटेबल का मसला नहीं है। इस हालात के पीछे काली खाल में गोरी आत्मा वाले शासक वर्ग की आम आदमी के प्रति एक गहरी उदासीनता और उपेक्षा की भावना है।  

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(20 फ़रवरी को दैनिक भास्कर में छपी) 

सोमवार, 19 मार्च 2012

भूतपूर्व विद्रोही



बहुत सारे आंकड़ों के बीच सर खपाते हुए शांति ने बजते हुए फ़ोन को देखा। उस पर दस नम्बर का एक आंकड़ा था। एक अनजान आंकड़ा। उसे तवज्जो दे- न दे की दुविधा के बीच शांति ने फ़ोन ले ही लिया।  
हलो?
हलो शांति.. मैं रणवीर बोल रहा हूँ.. 
येस? 
अरे भई.. मैं रणवीर सिंह बोल रहा हूँ..
रणवीर सिंह? शांति के ज़ेहन में ये नाम कुलबुलाने लगा। वो तो रणवीर सिंह नाम के एक ही शख़्स को जानती थी। भारतीय क्रांतिकारी दल के नेता रणवीर सिंह! कॉलेज के ज़माने में जो चंद लोग उसके लिए आदर्श हुआ करते थे.. रणवीर भाई का स्थान उनमें कहीं शिखर के नज़दीक़ था। 
रणवीर भाई?! 
..हाँ.. कैसी हो! 
अच्छी हूँ.. आप कैसे हैं रणवीर भाई? 
ठीक हूँ.. तुम्हारे शहर में आया था.. सोचा मुलाक़ात करता चलूँ.. 
रणवीर भाई को उसी शाम लौट जाना था इसलिए शांति ने उन्हे दफ़्तर में ही बुला लिया। उनके आने तक शांति उन्ही के बारे में सोचती रही। उस दौर में समाज में बड़ी उथल-पुथल हो रही थी। रणवीर भाई का दल समाज के आमूल-चूल बदलाव चाहता था और इसके लिए समाज के हाशिए पर पड़े हुए वर्गों की गोलबंदी में यक़ीन रखता था। शहर के मध्यवर्ग में तो उनकी मौजूदगी नाममात्र की थी पर शहर के सारे कॉलेजों के विद्यार्थियों के बीच उनके दल की ज़बरदस्त लोकप्रियता थी। अधिकत कॉलेजों के चुनाव में भारतीय क्रांतिकारी दल के ही प्रत्याशी जीतते थे। और उसका प्रमुख कारण रणवीर भाई थे। उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि जो भी एक बार उनसे मिल लेता, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लम्बा क़द, साँवला रंग, तेजस्वी मुखमुद्रा और अंगारे की तरह चमकती हुई आँखें। उनसे नज़रें मिलाना सूरज से आँखे चार करने से कम नहीं था। और उनसे बात करना जैसे किसी लाइब्रेरी में दाख़िल होना था। सभी क़ायल थे उनकी मेधा के। उनके बारे में मशहूर था कि वे जब चाहें आई ए एस हो जाएं। पर उनकी नैतिक नज़र में उनका निजी हित विराट मानवता के हित के आगे कुछ भी नहीं था। शांति भी उनकी आदर्शवादी राजनीति और सम्मोहक शख़्सियत से बहुत मुतास्सिर रही। उनके दल की सदस्य कभी नहीं बनी पर एक सक्रिय हमदर्द के रूप में जब मौक़ा मिले उनकी गतिविधियों में शामिल होती रही। 

रणवीर भाई ने तीन बजे आने को कहा था। शांति कुछ काम पहले निबटाकर और कुछ काम उनसे मुलाक़ात के बाद के लिए छोड़कर तीन बजे से ही उनका इंतज़ार करने लगी। रणवीर भाई वक़्त के बेहद पाबन्द थे। पर जब चार बजे गए तो शांति को लगा कि शायद वे नहीं आएंगे। और शांति अपने आँकड़ों की दुनिया में लौट गई। 
हलो शांति! 
शांति ने सर उठाकर देखा। पहचान तो लिया कि रणवीर भाई ही थे.. पर काफ़ी बदले हुए से। पहले सी छरहरी काया नहीं थी, पेट निकल आया था। 
रणवीर भाई ..मुझे तो लगा आप अब नहीं आयेंगे.. 
माफ़ करना.. देर हो गई.. 
आइये! बैठिए!! 
गर्मी होने लगी.. थोड़ा पानी पिऊंगा.. 
जी.. ज़रूर!! 
रणवीर भाई की बाल-दाढ़ी भी काफ़ी पक गई थे। दाढ़ी उस दौर में भी होती थी पर कपड़ों की उन्होने कभी परवाह नहीं की। वे अक्सर एक ही जोड़ी पैंट-कमीज़ हफ़्तों डाँटे रहते- वैसी ही गुंजली और मैली। पर उससे उनकी कशिश पर कुछ फ़र्क़ न पड़ता। एक चमक थी तब जो हर देखने वाली को चौंधियाए रहती। शांति ने देखा कि उनके कपड़े धुले और इस्त्री किए हुए थे पर चेहरे की चमक लापता थी। शांति ने डरते-डरते उनकी आँखों की सिम्त नज़र फेरी - वहाँ एक अजब सी धुंधली हताशा और उदासी डेरा डाले थी। ये क्या हो गया रणवीर भाई को? वो आदमी कहाँ है जिसकी आँखों मे देखने से लोग झुलस जाते थे? शांति उनसे पूछना तो बहुत कुछ चाहती थी- आदर्श, व्यवस्था और विप्लव की बाबत -पर न जाने क्यों साहस न कर सकी। जैसे किसी के घाव की ओर देखने से झिझकते हैं लोग..  
कितने सालों बाद देख रही हूँ आप को.. 
एक ज़माना बीत गया.. 
आपने शादी नहीं की.. ?
की तो.. आठ साल हो गए..
अच्छा? किससे? मै जानती हूँ उन्हे?
नहीं आप नहीं जानती.. उनका नाम शैला है..
 क्या करती हैं शैला जी?
आजकल बहुत बीमार रहती हैं.. 
क्या हुआ उन्हे.. 
एक नहीं तमाम बीमारियां है.. पिछले आठ साल में कम से कम तीन साल तो उन्होने अस्पताल के बिस्तर पर बिताए हैं.. 
अरे!!  
.. क्या करें..!?  
तो कैसे मैनेज करते हैं आप.. 
आसान नहीं है.. कुछ दोस्त हैं जो मदद करते हैं.. आप तो जानती हैं बाज़ारीकरण के इस दौर में स्वास्थ्य में कमोडिटी बन चुका है.. और मुफ़लिस को सेहत भी नसीब नहीं..  
ये कहते हुए रणवीर भाई की आँखें और मुरझा गईं। उन्हे इस हालत में देखकर शांति के भीतर कुछ बिलखने सा लगा। देर तक मद्धम सुरों में बात करने और दफ़्तर बंद होने के बाद ही शांति और रणवीर भाई वहाँ से निकले। शांति उन्हे स्टेशन तक छोड़ने गई। और जाने से पहले उनके हाथ में एक चेक थमा दिया- शैला जी के इलाज के लिए। रणवीर भाई ने चेक पर एक निगाह डाली और एक खिसयायी मुस्कराहट के साथ उसे जेब में सरका लिया। लौटते हुए शांति ने सोचा कि जिस आसानी से उसने शैला जी के इलाज के लिए इम्दाद दे दी.. क्या उसी आसानी से रणवीर भाई का भी इलाज मुमकिन है? जिस रोग ने उनकी आँखों की चमक और चेहरे का तेज हर लिया, उसका क्या?  एक क्रांतिकारी का सबसे आकर्षक पहलू होता है जीवन के प्रति उसका सघन और उदात्त नज़रिया। उसके ढह जाने के बाद रणवीर भाई निहायत खोखले नज़र आए थे शांति को। 

घर लौटने के बाद भी रणवीर भाई उसके साथ ही बने रहे..  ढेरों तकलीफ़ देने वाल सवाल छटपटाते रहे उसके भीतर.. रणवीर भाई ऐसे क्यों हो गए? ये उनकी राजनीति का दोष था या उनकी कोई व्यक्तिगत कमज़ोरी थी? या हर आदर्शवादी विद्रोही की यही नियति होती है? क्यों हमारे समाज में आदर्शों पर चलने वाली डगर इतनी कांटो भरी और कठोर होती है..? क्या आम आदमी का जीवन जीते हुए गहरा सामाजिक बदलाव करना मुमकिन है ही नहीं?  क्यों यौवन के कुछ वर्षों के बाद  आदर्शों की डगर चलना नामुमकिन हो जाता है.. या फिर आदर्श सिर्फ़ यौवन का ही शग़ल है? 

*** 

(इस  इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

स्मृति




पहचाना? शांति ने पूछा।
शांति साफ़ देख पा रही थी कि शब्बो देर तक उस मुस्कराते चेहरे से मिलती-जुलती कोई शकल अपनी स्मृतियों की गठरी में टटोलती रही। कुछ बहुत भारी पल गुज़रे। शब्बो के लिए समय जैसे लिथड़ने लगा। वो चेहरा किसी ख़ुशनुमा जवाब के इन्तज़ार में मुसकराता ही रहा। हर एक गुज़रते पल के साथ शब्बो के चेहरे पर एक अपराधबोध सा उभरता आ रहा था। न पहचानना सरासर बदतमीज़ी और बेअदबी है। अपनी शर्म में शब्बो ने चेहरे पर एक झूठी मुस्कराहट ओढ़ ली.. और तुक्के फेंकने लगी..
स्कूल में थे न..?
'थे तो.. पर नाम याद नहीं आ रहा न? 
'त्च्च..!! ..सचमुच याद नहीं आ रहा..!'  
'मैं जानती थी.. तू भूल जाएगी मुझे..!' अनजान चेहरे पर थोड़ी उदासी फैल गई। 
इसके पहले कि उदासी और पैर फैलाये शांति ने मामले को अपनी गिरफ़्त में ले लिया।  
'सुमन है रे शब्बो!' शांति ने शब्बो को याद दिलाने की कोशिश की..'याद नहीं है टेन्थ सी..हम तीनों साथ थे..मेरे बगल के घर में रहती थी.. कितनी बार साथ चाट खाई है हमने.. कितनी एम्बीज़ बॉरो की थी उससे.. सब भूल गई?'
'और दीदी की शादी में जीजा जी के जूते छिपाने की लीडरशिप भी तूने ही की थी..' सुमन ने याद दिलाया। 
'और फिर 'मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां' पर नाचकर सबके होश भी उड़ा दिए थे', शांति ने जोड़ा। 
इतना बताने के बाद भी शब्बो के ज़ेहन में कोई कुलबुलाहट नहीं हुई। उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी और के बारे में चर्चा हो रही हो या फिर उसके किसी ऐसे पूर्वजन्म की बातें जिनकी उसे कोई याद नहीं है। मगर ये सारे भाव दबा देने की पूरी कोशिश की झलक भी उसके चेहरे से हल्की-हल्की ज़ाहिर हो ही जा रही थी। 
'अब आया याद?, शांति ने उसका हाथ पकड़ कर झकझोरा। 
'ह..हाँ..' शब्बो अपने झूठ पर जारी रही, 'याद है.. याद है.. पर आजकल न जाने मेरी याददाश्त को क्या हो गया है.. आजकल तो कुछ भी भूल जाती हूँ.. दूधवाले और वाचमैन का नाम तो सभी भूलते होंगे पर मैं तो हीरो-हीरोइन का नाम भी भूलने लगी हूँ.. मरियम नकल करती है मेरी- अरे वो कौन सी फ़िल्म थी.. जिसमें वो गाना था.. अरे वो जो हसीन सा हीरो है उस की तो फ़िल्म थी.. अरे वही जो अपनी ज़ुल्फ़ें अदा से झटकता रहता है..' 
'अच्छा.. ये हाल हो गया तुम्हारा!?' सुमन ने हमदर्दी से पूछा? 

शांति जानती थी कि शब्बो अपनी झेंप मिटाने के लिए बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर बता रही थी। पर शब्बो झूठ भी नहीं बोल रही थी। शांति और शब्बो बचपन की दोस्त हैं। स्कूल से एक दूसरे के साथ हैं। स्कूल- कालेज की तमाम बातें और क़िस्से जो शांति को चमकीले उजाले की स्पष्टता के साथ याद हैं, शब्बो के ज़ेहन से परमानेंटली डिलीट हो चुके हैं। बेचारी शब्बो! ऐसी स्मृति है उसकी कि बार-बार दोस्तों के बीच शर्मिन्दा होना पड़ता है उसे। सुमन के सामने वाली यह हालत पहली बार नहीं हुई है। जब भी कभी पुराने दोस्त मिलते हैं तो ऐसी ही हालत बार-बार पैदा होती है। जो असहजता सुमन को भूल जाने से शब्बो में जनमी थी - शब्बो को उसे भी भूलते देर नहीं लगी। दो-चार बातों के बाद शब्बो अपने रंग में वापस लौट आई। शांति को शब्बो के इस गुण पर बड़ी हैरानी होती और कभी-कभी रश्क भी होता! शांति कभी कुछ नहीं भूलती। उसे सब कुछ सब समय याद रहता है। 

सुमन चली गई, शब्बो भी। खाना-पीना करके, सबकुछ समेट कर शांति सो गई। देर रात अचानक उसकी नींद खुल गई। अजीब एहसास था एक तरफ़ गला कुछ सा सूख रहा था और वहीं पैर गल से रहे थे। गला तर करने के लिए रजाई से निकलने का यकायक मन नहीं किया शांति का। चुपचाप वहीं पड़ी रही। पूरे आलम में सन्नाटा था। बस बग़ल में अजय की सांस की आवाज़ और एक कुत्ता कहीं दूर भौंक रहा था लगातार। और कहीं कोई और आवाज़ नहीं थी। बस एक नियमित अन्तराल के बाद उस कुत्ते की भौंकने की आवाज़ आती जा रही थी-  भौं-भौं.. भौं-भौं.. भौं-भौं। 

शांति ने चाहा फिर सो जाए पर एक बात जो वो कभी भूली नहीं, उसके ज़ेहन में घूमती जा रही थी- गर्मी थी.. छुट्टियां थीं.. दोपहर थी.. माँ को हलका सा बुख़ार था। चिपचिपाते लम्बे उबाऊ दिनों के बहुत इन्तज़ार के बाद बादल घुमड़े और फिर गड़गड़ाकर मेह बरसने लगा। नन्ही शांति उत्साह से झूम उठी और चीख़ी- माँ देखो बारिश हो रही है! माँ ने कराह कर उसे बरज दिया- अच्छा है पर तू बाहर मत जाना! शांति के सारे उत्साह पर पानी फिर गया- क्यों माँ? माँ को बोलने में कष्ट हो रहा था। वो कहना चाहती थी कि पहली बारिश में भीगने से त्वचा के रोग हो सकते हैं, पर नहीं कहा। बस डाँटकर चुप करा दिया। शांति चुप तो हो गई पर मानी नहीं। हौले से दरवाज़ा खोलकर बारिश में देर तक नहाती रही। और जब बदन में शिअरन होने लगी तो उसी तरह हौले घर में दाखिल हुई। देखा माँ कहाँ है- माँ वहीं अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी। नन्ही शांति बाथरूम में जाकर कपड़े बदलने लगी। दो मिनट बाद किसी के रपटकर गिरने का शब्द हुआ। जब शांति बाहर आई तो देखा कि माँ अपने कमरे के बाहर फ़र्श पर गिरी पड़ी है। जहाँ शांति ने रुककर माँ को चुपके से देखा था, वहीं पर शांति के बदन से गिरकर जमा हुए पानी पर माँ फ़िसल गई थी। और तब से अक्सर शांति की स्मृति में रात-बिरात फ़िसलती रहती है।   

ऐसी ही कितनी दुख, क्षोभ, पश्चाताप और अपमान की बातें हैं जो उसे रातों में सोने नहीं देतीं। ऐसे ही देर रात में कूदकर उसकी नींद की राह अवरुद्ध कर देती हैं। शांति ने बहुत चाहा कि फिर सो जाए पर माँ के चेहरे का वो कष्ट और अवसाद उसकी आत्मा में और बिछौने में काँटे की तरह गड़ता रहा। कुत्ता अभी भी भौंक रहा था, उसी नियमितता से- भौं-भौं.. भौं-भौं.. भौं-भौं। न जाने वो कोई बात भूल गया था या उसे कोई बात याद आ रही थी। 

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(१५ जनवरी को दैनिक भास्कर में छपी) 

रविवार, 29 जनवरी 2012

लार्स वॉन ट्रिअर का सिनेमा और दर्शक की आज़ादी


लार्स वॉन ट्रिअर कहते हैं, “मेरी फ़िल्मे आदर्शों के बारे में हैं जो दुनिया से जा टकराते हैं. जब भी मुख्य भूमिका पुरुष की होती है, वो आदर्श भुला बैठते हैं. और जब भी एक स्त्री मुख्य भूमिका निभाती है तो वो आदर्शों को अपने अन्तिम परिणति तक ले कर जाती है.” इस उत्तरआधुनिक समय में एक नए लक्षण का उदय हुआ है. रचनाकार स्वयं अपना आलोचक और समीक्षक भी होने लगा है. वह रचना करता है और फिर यह भी बताता है कि उसकी रचना को कैसे देखा जाय, कैसे पढ़ा जाय और उसने कहाँ, कौन सा तत्व, कैसे और क्यों गढ़ा है और उसका कैसे अर्थ किया जाय. लार्स वॉन ट्रिअर भी इससे मुक्त नहीं है. अपने काम के बारे में लार्स वॉन ट्रिअर का अपना नज़रिया हो सकता है मगर कोई ज़रूरी नहीं कि उससे सहमत हुआ ही जाय.

लार्स वॉन ट्रिअर की फ़िल्मों की दो विशेषताएं हैं. एक तो यह कि वे प्रचण्ड रूप से भावनाप्रधान होती हैं और दूसरे उनमें तकनीक के स्तर पर नए और अनोखे प्रयोग होते हैं. इसी अनूठे मेल के चलते वॉन ट्रिअर विश्व सिनेमा के लाडले फ़िल्मकार बने हुए हैं. उनकी फ़िल्म देखकर निरपेक्ष बने रहना मुश्किल है. फ़िल्म देखने के बाद लोग अक्सर उनके प्रबल पक्षधर या विरोधी बन जाते हैं. यह उनके सिनेमा की ताक़त है. इस लेख में मैं उनके सिनेमा के भावनात्मक पहलू को मोटे तौर पर नज़रअन्दाज़ करते हुए उनकी तकनीक पर चर्चा करूँगा.
***
वॉन ट्रिअर के जीवन का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण साल १९९५ का है जब पैरिस में सिनेमा के सौ साल का उत्सव मनाने के लिए एक कौन्फ़्रेन्स में सिनेमा के भविष्य पर बोलने के लिए उनका नाम पुकारा गया तो लार्स वॉन ट्रिअर उठे और उन्होने सभागार में बैठी जनता पर किसी जोशीले क्रांतिकारी की तरह लाल पर्चों की एक बरसात कर दी. इन लाल पर्चों पर एक ‘शुद्धता की शपथ’ ली गई थी और जिसे उन्होने ‘डॉग्मा ९५’ का नाम दिया था. इस घोषणापत्र के दस बिन्दु थे, जो मोटे तौर पर इस प्रकार हैं-
१. शूटिंग लोकेशन पर की जानी चाहिये. न सेट लगाना चाहिये और न ही बाहर से कोई साज़ोसामान लाना चाहिये. अगर किसी ख़ास सामान की ज़रूरत हो तो वहीं शूटिंग करनी चाहिये जहाँ पर सामान मौजूद है.
२. ध्वनि और छवि, दोनों को एक साथ ही रेकार्ड करना चाहिये, अलग-अलग कभी नहीं. संगीत अगर इस्तेमाल करना है तो उसका उद्गम सीन के अन्दर से होना चाहिये.
३. कैमरा हैण्डहेल्ड होना चाहिये.
४. फ़िल्म रंगीन होनी चाहिये. विशेष प्रकाश व्यवस्था स्वीकार्य नहीं होगी. अगर रौशनी कम है तो कैमरे के ऊपर एक अकेला बल्ब लगाकर शूटिंग करनी चाहिये.
५. औप्टिकल ईफ़ेक्ट्स और फ़िल्टर्स इस्तेमाल नहीं किए जा सकते.
६. फ़िल्म में हथियार और हत्या आदि बनावटी कार्यव्यापार नहीं हो सकते.
७. दिक्काल की सीमाओं को नहीं तोड़ा जा सकता यानी फ़िल्म ‘अभी और यहाँ’ में ही शूट की जा सकती है. भूतकाल और भविष्य की फ़िल्में नहीं बनाई जा सकतीं.
८. ‘ज़ान्र’ फ़िल्में अस्वीकार्य होंगी.
९. सभी फ़िल्में ऐकडमी ९५ के फ़ौरमेट पर ही शूट होंगी.
१०. निर्देशक का नाम नहीं जाएगा.
डॉग्मा के इन बन्धनों के पीछे मूल विचार हॉलीवुड के लगातार मँहगे होते जाते फ़िल्म निर्माण के प्रतिमानों को चुनौती देना और फ़िल्म को अधिक से अधिक ‘जीवन’ के क़रीब लेकर जाना था. उनकी उम्मीद थी कि इस तरह कहानी और अभिनेता पर ध्यान केन्द्रित करके फ़िल्मकार दर्शक को ज़्यादा अपनी तरफ़ खींच पाएगा.
यह घोषणापत्र बहुत कुछ साठ के दशक के आन्दोलन सिनेमा वेरिते (सच का सिनेमा) के नक़्शे क़दम पर है मगर एक बुनियादी फ़र्क़ यह है कि जहाँ सिनेमा वेरिते वास्तविक लोगों की वास्तविक घटनाओं का चित्रण होता था, वहीं डॉग्मा ९५ सिनेमा वेरिते के कपड़े पहन कर काल्पनिक कथाओं के नाटकीय मंचन की प्रस्तावना हैं. ज़ाँ लुक गोदार की पहली फ़िल्म ‘अ बू द सूफ़्ल’ सिनेमा वेरिते के एक महानायक ज़ाँ रूश की एक फ़िल्म ‘म्वा उन न्वाह’ (मैं एक काला) से इतनी मिलती जुलती है कि ‘अ बू द सूफ़्ल’ को ‘म्वा उन ब्लाँ’ (मैं एक गोरा) कहा जा सकता है. मगर दो बुनियादी फ़र्क़ उनमें भी है. गोदार की फ़िल्म अभिनेताओं के द्वारा मंचित की गई; और भले ही उन्होने किसी छपी हुई स्क्रिप्ट का इस्तेमाल नहीं किया और फ़िल्म शूट करने के दौरान ही कथानक को विकसित करते रहे, यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि कथानक के अहम फ़ैसले लेने वाले व्यक्ति स्वयं गोदार थे. जबकि असली सिनेमा वेरिते की फ़िल्म रूश की ‘म्वा उन न्वाह’ वास्तविक लोगों की कहानी है और जिसका कथानक किस दिशा में जाएगा और क्या मोड़ लेगा यह फ़ैसला रूश नहीं, फ़िल्म के परदे पर दिखने वाले वास्तविक लोग स्वयं कर रहे थे. तो अगर रूश अपनी फ़िल्म में निर्देशक का नाम न दें तो समझ में आता है; हालांकि वो देते हैं. मगर जब डॉग्मा के निर्देशक सारे फ़ैसले करने के बाद भी अपना नाम न दें तो यह शुद्ध पाखण्ड लगता है.
इसके अलावा एक और बुनियादी फ़र्क़ यह भी है कि सिनेमा वेरिते की फ़िल्मों का सम्पादन अक्सर बहुत तरल नहीं हो पाता था क्योंकि उसका सिनेमाई दिक्काल वास्तविक दिक्काल के अधीन था. जबकि यथार्थवादी काल्पनिक फ़िल्मों में मामला उलटा होता है. वास्तविक दिक्काल काल्पनिक दिक्काल के अधीन रखकर फ़िल्म का निर्माण किया जाता है. उसके चलते फ़िल्मकार के पास यह सुविधा होती है कि वह अपने सम्पादन को अपने दर्शक के लिए अधिक से अधिक तरल बना सके. चाहते तो सिनेमा वेरिते के फ़िल्मकार भी यही थे मगर अपनी सीमाओं के चलते मजबूर थे. दिलचस्प बात यह है कि डॉग्मा के सिद्धान्तकार वॉन ट्रिअर एक तरल सम्पादन कर सकने की सारी सुविधाओं और क्षमताओं के मालिक होने के बावजूद जम्पकट्स की ऊबड़खाबड़ता का चुनाव करते हैं.
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स घोषणापत्र के एक साल बाद आई फ़िल्म ब्रेकिंग द वेव्स के निर्माण में लार्स वॉन ट्रिअर १९९१ से ही लगे हुए थे. हालांकि ब्रेकिंग द वेव्स डॉग्मा के अधिकतर बन्धनों से आज़ादी लेती है मगर फिर भी वह फ़िल्म वॉन ट्रिअर की पहले की फ़िल्मों से निहायत जुदा है और उनके कृतित्व में एक नया मोड़ ले कर आती है. इस फ़िल्म के साथ वॉन ट्रिअर की जीवन में बाधाओं का एक सिलसिला और फ़िल्मोग्राफ़ी में एक नया अध्याय शुरु होता है जिसे ‘गोल्डेन हार्ट त्रयी’ के नाम से जाना जाता है.
इस के पहले भी वो चार फ़िल्में बना चुके थे जिनमें से तीन स्वयं उन्ही के अनुसार ‘योरोपा त्रयी’ का हिस्सा हैं, मगर तकनीक और निर्माण की दृष्टि से वे चारों ही एक अलग दौर की प्रतिनिधि हैं. अनावश्यक विस्तार के भय उनकी चर्चा यहाँ मुमकिन नहीं है.
ब्रेकिंग द वेव्स बैस नाम की एक आस्थावान लड़की की कहानी है जो ईश्वर से निजी वार्तालाप में अपने जीवन को संचालित करने के निर्देश प्राप्त करती है. बैस के परिवार व संकीर्ण ईसाई समुदाय की नज़र से बैस मंदबुद्धि है. फ़िल्म की शुरुआत ही यहाँ से होती है कि बैस समुदाय के बाहर के एक व्यक्ति यान से शादी करने का फ़ैसला करती है. यान समुद्र में तेल के कुँए पर काम करता है और वो लगातार बैस के साथ नहीं रह सकता और बैस को उससे जुदाई असह मालूम होती है. वो एक सीधे संवाद में अपने ईश्वर से इसरार करती है कि यान को घर वापस भेज दिया जाय. संयोग से एक दुर्घटना के बाद यान मरणासन्न होकर घर वापस भेज दिया जाता है. बैस को लगता है कि यह सब ईश्वर के आगे उसकी ज़िद के चलते हुआ है. दूसरी तरफ़ मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार हो चुका यान उसे दूसरे मर्दों से सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित करता है. सरलहृदय बैस इसे भी अपने उच्च प्रेम का ही एक स्वरूप समझ और ईश्वरीय आदेश मानकर करती जाती है. अंत में एक यौन-उत्पीड़क का शिकार होकर उसकी मौत हो जाती है जबकि यान चंगा हो जाता है.
पश्चिमी साहित्य में इस तरह की सरल हृदय नायिका की एक परम्परा रही है जिसमें जोन ऑफ़ आर्क, दि साद की जस्टीन और ग्राहम ग्रीन के उपन्यास एण्ड ऑफ़ दि अफ़ैयर की नायिकाएं शामिल हैं. तीस के दशक में जोन ऑफ़ आर्क बनाने वाले प्रसिद्ध डैनिश निर्देशक कार्ल ड्रायर के मनोयथार्थ से स्वयं को प्रभावित मानने वाले वॉन ट्रिअर ब्रेकिंग द वेव्स को एक सरल प्रेम कथा बताते हैं. पर इसे देखना क़तई सरल अनुभव नहीं है. फ़िल्म की कहानी जितनी ही भावुक और दारुण है, फ़िल्म की तकनीक बिलकुल भी उससे मेल खाती हुई नहीं है. कहानी दर्शक को काफ़ी कुछ फ़ंसाने और उलझाने की कोशिश करती है मगर लार्स वॉन ट्रिअर की सिनेमाई तकनीक उसे अजब तरह से विलगाती हुई चलती है. एक तरफ़ तो वॉन ट्रिअर क्लोज़प और एक्सट्रीम क्लोज़प का बहुत उदारता से इस्तेमाल कर के दर्शक को फ़िल्म के चरित्रों के साथ बहुत ही अंतरंग सम्बन्ध बनाने के लिए न्योता देते हैं. मगर दूसरी तरफ़ डाक्यू परम्परा के हैण्डहैल्ड कैमरे की नज़र देकर उस सम्बन्ध को कभी स्थिर नहीं रहने देते. और इतना ही नहीं इस तरह के गतिमान कैमरे के द्वारा इकट्ठे किए हुए शाट्स को वे किसी तरल संयोजन में नहीं प्रस्तुत करते बल्कि पूरी फ़िल्म जम्पकट्स में ही सम्पादित करते हैं.
अब ये बड़ी विचित्र और दुविधापूर्ण बात है कि एक तरफ़ तो निर्देशक अतीव क्लोज़प के ज़रिये दर्शक को चरित्रों के इतना क़रीब ले आए और दूसरी तरफ़ बार-बार जम्पकट करके उन्हे झटके देता जाय. बड़ा विरोधाभासी प्रभाव पैदा होता है. और बावजूद वॉन ट्रिअर के सारे लटको-झटकों के, कहानी का भावुकबल डाक्यू स्टाइल कैमरे और जम्पकट्स जैसी तकनीकों का कोई मायने नहीं रहने देता. बस थोड़ी देर ही वो दर्शक को डिसओरियेन्ट करती है. बीस-पचीस मिनट बाद दर्शक कहानी में गहरे उतरते हुए इन सारे तत्वों को नज़रअन्दाज़ करना शुरु कर देता है.
फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफ़र रॉबी मुलर का काम उनकी एक दूसरी फ़िल्म ‘पैरिस, टेक्सास’ से बिलकुल जुदा नज़र आता है. ‘पैरिस, टेक्सास’ की कुदरती ख़ूबसूरती आपको निरन्तर अचम्भित किए रहती है. मगर यहाँ वॉन ट्रिअर ने उन्हे ऐसा सीमाबद्ध किया है कि कैमरा कुदरत को देखता ही नहीं, सिर्फ़ मनुष्यों को पछियाये रहता है. और छवि को फ़िल्म से वीडियो और वीडियो से वापस फ़िल्म पर छापने के बाद वॉन ट्रिअर ने छवि में दृश्य की सारी सूक्ष्मता को मारकर उसमें से सारे रंग निचोड़ लिए और छवि को सिर्फ़ चरित्रों के हाव-भाव तक सीमित कर दिया. वैसे ये कोई अनोखा कारनामा नहीं है- हिन्दी फ़िल्में दशकों से यही काम कर रही हैं. इसीलिए इस फ़िल्म पर अगर किसी मुम्बईया या तमिल फ़िल्म निर्माता की नज़र पड़ जाय तो करोड़ों का मुनाफ़ा कमाने की उसकी मुराद पूरी हो जाएगी.
इस पूरी कसरत का असर यही होता है कि आप चरित्रों के अलावा किसी और चीज़ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर ही नहीं सकते. और वॉन ट्रिअर की यह फ़िल्म दर्शक के लिए बहुत दमनकारी हो जाती है. वो उसे पूरी तरह बन्धन में रखती है और उसकी भावनाओं पर बुरी तरह से शासन करती है. उसके जज़्बातों का वैसे ही शोषण करती है जैसे संजय लीला भंसाली ब्लैक जैसी फ़िल्मों से करते हैं. एक नज़र से देखा जाय निरन्तर गतिमान कैमरे और जम्पकट्स के आवरण के पार यह फ़िल्म बुरी तरह से एक टीयरजर्कर है. नायिका को इतना पीड़ित किया गया है कि आप को रोना ही पड़ेगा.
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वॉन ट्रिअर की पहली और अकेली डॉग्मा फ़िल्म ईडियट्स है जिसके निर्माण में डॉग्मा की लगभग सभी बाधाओं का पालन किया गया. बताते हैं कि ईडियट्स की पटकथा वॉन ट्रिअर ने चार दिन में तैयार कर ली थी. और इसके फ़िल्मांकन में डैनमार्क के शीर्ष अभिनेताओं ने भाग लिया. यह फ़िल्म डॉग्मा फ़िल्म होने के साथ-साथ वॉन ट्रिअर की गोल्डेन हार्ट त्रयी का दूसरा हिस्सा है. तो ज़ाहिर है कहानी के केन्द्र में एक सरल हृदय निश्छल स्त्री कैरेन है जो एक रेस्तरां में कुछ मन्दबुद्धि लोगों के एक समूह से टकरा जाती है और वे उसे अपने साथ ले जाते हैं. निश्छल कैरेन उनका दिल रखने के लिए उनके साथ चली जाती है. आगे राज़ यह खुलता है कि उनमें से कोई भी मंदबुद्धि नहीं है. वे सारे के सारे एक क़िस्म के अराजक कम्यून के सदस्य हैं जो अपने भीतर के मंदबुद्धि को अभिव्यक्ति देकर मध्यवर्गीय दुनियादारी और नैतिकता को चुनौती देना पसन्द करते हैं और ऐसा करके अपना मनोरंजन करते हैं. मुश्किल ये है इतना करने पर भी वे दुनिया का सामना करने के बजाय एक टापूयी जीवन बसर कर रहे हैं. इसीलिए कम्यून का नेता उन्हे चुनौती देता है कि वे अपने-अपने पारिवारिक, और पेशेवर हालात में मंदबुद्धि बनकर दिखायें. उसकी इस चुनौती को पूरा करने में सभी असफल रहते हैं सिवाय कैरेन के. जो अपने परिवार के आगे अपने भीतर के मंदबुद्धि को आज़ाद करके दिखाती है और अपने मध्यवर्गीय पति से एक तमाचा भी खाती है. और उसके साथ ही हमें उसके जीवन की त्रासदी का ज्ञान होता है- जिस दिन वो कम्यून के सदस्यों से मिली उसी दिन उसके छोटे बालक की मृत्यु का भी दिन था.
एक अनोखी कहानी वाली यह बेहद दिलचस्प फ़िल्म अपने शिल्प में काफ़ी कुछ डाक्यूमेण्टरी होने का धोखा देती है. हालांकि ब्रेकिंग द वेव्स के मुक़ाबले ईडियट्स में झटकेदार छायांकन की तीव्रता कम है. कैमरा अपेक्षाकृत स्थिर दिखता है. आप कम से कम देख सकते है कि फ़्रेम के भीतर क्या-क्या है. हालांकि डिजिटल माध्यम पर शूट करने के कारण स्ट्रोब प्रभाव के विशिष्ट डिजिटल गुण को हर पैन शाट में देखा जा सकता है. जो वास्तविकता का भ्रम पैदा करने की एक तरक़ीब ही है. याद रखा जाय कि वास्तविकता नहीं है वास्तविकता का भ्रम है और इसलिए इस पद्धति को छद्म डाक्यूमेण्टरी कहा जाय तो ग़लत नहीं होगा. फ़िल्म के भीतर बीच-बीच में टांके गए फ़िल्म के चरित्रों से साक्षात्कार के टुकड़े भी इसी विन्यास का हिस्सा हैं. डॉग्मा का घोषणापत्र कहीं यह नहीं कहता कि अदृश्य सम्पादन से छुट्टी पा लेनी चाहिये मगर फिर भी वॉन ट्रिअर ऐसा करते हैं. डॉग्मा ९५ घोषणापत्र द्वारा प्रमाणित पहली फ़िल्म ‘फ़ेस्टेन’, जो डॉग्मा के सह-सिद्धान्तकार टामस विन्टरबेर्ग ने बनाई थी, में डॉग्मा के लगभग सभी नियमों का पालन किया है लेकिन उस फ़िल्म में कोई जम्पकट्स नहीं है. ‘फ़ेस्टेन’ में सम्पादन में गति और दृष्टि की तरलता को बनाए रखने की कोशिश की गई है. यानी कि डाक्यूमेण्टरी की यह अदा वॉन ट्रिअर की ख़ास अपनी है उसका डॉग्मा से कोई सैद्धान्तिक रिश्ता नहीं है.
एक तरफ़ तो वॉन ट्रिअर जैसे फ़िल्मकार अपनी फ़िल्म को अधिक से अधिक वास्तविक बताने के लिए फ़िक्शन की परम्परागत तकनीकों को तिलांजलि दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ वास्तविक लोगों और परिघटनाओं पर फ़िल्म बनाने वाले डौक्यूमेन्टरी फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों को बनाने के लिए अधिक से अधिक फ़िक्शनल परम्परा के तत्वों का सहारा ले रहे हैं जैसे कि अदृश्य सम्पादन, एनीमेशन, कृत्रिम प्रकाश आदि. यह एक अजब उलटफेर सा हुआ है. लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं. इसे एक तरह का द्वन्द्वात्मक विकास समझा जा सकता है. सिनेमा के इतिहास की शुरुआत से ही ये दो आरम्भिक वृत्तियां – लूमियर बन्धुओं का शुद्ध डाक्यूमेन्टेशन और मेलियस का जादू- लगातार एक दूसरे को प्रभावित करके एक दूसरे में बदलती रही हैं.
इस तरह की डाक्यूमेन्टरी तकनीक के इस्तेमाल को दो तरह से देखा जा सकता है. एक तो यह कि निर्देशक (हांलाकि डॉग्मा ९५ उसके अस्तित्व को नकारती है, जबकि वो पूरी रूप से मौजूद है, वरना वो कौन है जो इन सब नियमों का पालन कर रहा है?) एक विलगाव का प्रभाव पैदा कर रहा है और दूसरा यह कि वह वास्तविकता का भ्रम पैदा कर रहा है. दोनों एकदम विरोधी बाते हैं लेकिन एक के भीतर से दूसरे ने जन्म ले लिया है. जो फ़र्क़ भद्र और भद्दा में है वही इन दोनों में भी है हालांकि दोनों अपने मूल में एक ही शब्द हैं. कभी इस तरह का प्रभाव विलगाव का असर दे सकता था मगर अब वो बात नहीं.
पर मेरे तर्क से यह अर्थ न निकाला जाय कि मैं काल्पनिक फ़िल्मों के ख़िलाफ़ हूँ या फिर ये कि मेरा आशय यह है कि वे किसी तरह का सत्यसंधान करती ही नहीं हैं. अगर डाक्यूमेण्टरी एक तरह की वास्तविकता का बयान हैं तो काल्पनिक फ़िल्में भी एक अन्य तरह की वास्तविकता का बयान हैं. कल्पना वास्तविकता का ही एक विकास है और उससे जुदा कल्पना का कोई अस्तित्व नहीं है. सवाल यह है कि इस मूल मुद्दे पर वॉन ट्रिअर की क्या सोच है? और काल्पनिक फ़िल्मों में इस तरह की डाक्यूमेण्टरी फ़िल्मों का भ्रम पैदा करने के पीछे उनकी क्या मुराद है? वे कहते हैं कि वे एक सरल फ़िल्म बनाना चाहते हैं मगर बनाते नहीं. अपनी तकनीक से कहानी और दर्शको के बीच चल रहे संवाद को बराबर उलझाते रहते हैं.
अब देखिये ऊपर-ऊपर से मालूम दे सकता है कि फ़िल्म की कहानी ने ‘बुर्ज़ुआ कथाशैली’ से एक बड़ा विस्थापन किया है. लार्स वॉन ट्रिअर स्वयं कहते हैं कि डॉग्मा ९५ और उनकी फ़िल्म ईडियट्स का अहम मक़सद है फ़िल्मकार के हाथ से कलात्मक नियंत्रण को छुड़वाना और उस आदर्श नाटकीय स्थिति की ओर बढ़ना जिससे फ़िल्में मुख्यधारा की हस्पताली चमक-धमक के बजाय कैमकार्डर वायुरिज़्म के अधिक क़रीब हो जाय. मगर वॉन ट्रिअर की यह तथाकथित क्रांतिकारी डॉग्मा फ़िल्म, ‘कैमकार्डर वायुरिज़्म’ की माला जपते हुए भी पटकथा के परम्परागत ढांचों में कोई बुनियादी तोड़फोड़ नहीं करती बल्कि बहुत हद तक उनका अनुगमन ही करती है. फ़िल्म में प्राचीन ‘थ्री एक्ट’ ढांचा स्पष्ट देखा जा सकता है. और जोसेफ़ कैम्पबेल के ‘हीरोज़ जर्नी’ के नए ढांचे के भी सभी मुक़ाम फ़िल्म के कथानक में मौजूद हैं. कैरेन अपनी दुनिया से निकलकर एक दूसरी दुनिया में जाती है वहाँ तमाम तरह की परीक्षाओं को पार कर के एक नयी जीवन दृष्टि का ‘अमृत’ लेकर अपनी दुनिया में लौट आती है. परम्परागत तथाकथित ‘बुर्ज़ुआ’ पटकथालेखक अपने दर्शक के साथ सूचनाओं को छुपाने और बताने का जो खेल खेलते हैं, लार्स वॉन ट्रिअर भी उसे खेलने में पीछे नहीं रहते. और उसी अनुद्घाटित सूचना के आधार पर अपनी फ़िल्म को चरम तक ले कर जाते हैं. अपने ढांचे में यह फ़िल्म भी दर्शक के साथ वही खेल खेलती है जो दूसरी फ़िल्में.
***
ईडियट्स फ़िल्म के क्रेडिट्स में वॉन ट्रिअर का नाम नहीं गया. मगर उनकी अगली ही फ़िल्म शुरु होते ही परदे की पूरी चौड़ाई में विराट अक्षरों से लिख कर आया ‘लार्स वॉन ट्रिअर’ और फिर कुछ देर बाद इसी नाम को पृष्ठभूमि बना कर फ़िल्म का नाम अपेक्षाकृत काफ़ी छोटे अक्षरों में आया. यानी जैसे कहा जा रहा हो कि फ़िल्म लार्स वॉन ट्रिअर के वृहद व्यक्तित्व का एक अंश भर है. कहाँ ये रवैया है और कहाँ डॉग्मा का निर्देश कि निर्देशक का नाम फ़िल्म के क्रेडिट्स में जाना ही नहीं चाहिये? मतलब साफ़ था वॉन ट्रिअर ने डॉग्मा के सिद्धान्तों को दफ़्न कर दिया था. फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है. और अभिनेता समेत बाक़ी सभी योगदानकर्ता निर्देशक द्वारा उसके नज़रिये को मूर्त रूप देने में कच्चे माल और औज़ार की तरह इस्तेमाल होते हैं. यह बात जनता और मीडिया भलीभात जानते हैं. इसीलिए ईडियट्स फ़िल्म में वॉन ट्रिअर का कोई नाम न भी होने के बावजूद फ़िल्म उन्ही के नाम से जानी और पहचानी जाती है. अच्छी बात ये रही कि वॉन ट्रिअर ने अपनी ख़ब्त को जल्दी ही अलविदा कह दिया और अपने मूल स्वर पर लौट आए. डांसर इन द डार्क में वॉन ट्रिअर अपने डॉग्मा के शेष सिद्धान्तों को भी एकदम पलट देते हैं.
डांसर इन द डार्क एक ग़रीब ख़ुशदिल, चेक शरणार्थी सेलमा की कहानी है. वो वाशिंगटन की एक फ़ैक्ट्री में मज़दूर है और धीरे-धीरे अंधी हो रही है. अपनी सारी कमाई वो अपने बेटे की आँखों के इलाज के लिए बचा रही है क्योंकि उसे डर है कि वो भी आगे चलकर अंधा हो सकता है. मगर उसका पुलिसवाला मकानमालिक सेलमा की सारी बचत लूट लेता है. जब वह अपना पैसा वापस लेने की कोशिश करती है तो ग़लती से उसके हाथों पुलिसवाले की मौत हो जाती है. और फिर उसके ख़ून के जुर्म में सेलमा को सज़ाए मौत. तो अपने इकलौते बेटे के इलाज के लिए जो पैसा उसने इकट्ठा किया था, वो उसे अपने मुक़द्दमे के लिए खर्च करने के बजाय फ़ांसी पर चढ़ जाना चुनती है बावजूद इसके कि उसे ज़िन्दगी से बहुत प्यार है.
डांसर इन द डार्क एक म्यूज़िकल है. आम तौर पर म्यूज़िकल्स कॉमेडी होती हैं मगर वॉन ट्रिअर ने इस विश्वविख्यात हॉलीवुड जॉनर को सर के बल खड़ा कर दिया और एक ट्रैजिक म्यूज़िकल बनाई है. सेलमा एक जगह कहती है कि उसे म्यूज़िकल बहुत पसन्द है और वो फ़ैक्ट्री में काम करते हुए म्यूज़िकल्स की कल्पना करती थी क्योंकि म्यूज़िकलस में कभी कुछ भी बुरा नहीं होता. मगर सेलमा लार्स वॉन ट्रिअर की जिस सच्चाई में क़ैद की गई है उसमें सब बुरा ही बुरा है हालांकि वो बहुत ही हमदर्दी रखने वाले चरित्रों से घिरी हुई है. ये अमरीका की सच्चाई नहीं है यह अमरीका की सच्चाई को लेकर लार्स वॉन ट्रिअर की कल्पना है. और वॉन ट्रिअर अपने हुनर के बादशाह हैं. वो जो असर चाहते हैं पैदा कर सकते हैं. सिनेमा के औज़ारों के इस्तेमाल पर उनको महारत हासिल है. सेलमा के लौकिक जीवन और काल्पनिक जीवन में बुनियादी फ़र्क़ दिखाने के लिए वे लौकिक जीवन में फ़ीके रंग और जम्पकट्स का इस्तेमाल करते हैं मगर उसकी कल्पना की संगीतमय दुनिया में खिले हुए चमकदार रंग हैं और तरल अदृश्य सम्पादन है जैसा कि हॉलीवुड फ़िल्मों में होता है. उन्हे अपने फ़न की सारी तरक़ीबें मालूम हैं और अपनी कलाकारी को कैसे दिखाते हैं और कैसे छिपाते हैं ये भी वो बख़ूबी जानते हैं.
अब वॉन ट्रिअर ने जो कहानी चुनी है वो दर्शक पर क्या असर छोड़ेगी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि निर्देशक उसे किस अन्दाज़ और ढब से सुनाता है. यही कहानी एक एक्शन फ़िल्म भी बन सकती है. विडम्बना भी पैदा कर सकती है. और कोई हुनरमंद निर्देशक इसमें कटु हास्य भी उपजा सकता है. मगर वॉन ट्रिअर इस करुण कथा को अपने अन्दाज़ के चुनाव से और करुण बनाते हैं. इतना कि आपका दिल टुकडे-टुकड़े हो जाता है. अपने करुणरस के सौन्दर्यशास्त्र में इस तरह चरम तक धंसी हुई रहती है यह फ़िल्म कि उसके समर्थन में मेरे जैसे भावुक दर्शकों की आँखों से एक अन्य रस का स्राव होने लगता है. मगर ये जो असर है इसमें से कुछ भी अनायास नहीं. सब कुछ बहुत आयोजित है. अब जैसे आज के अमेरिका में मृत्युदण्ड फांसी के द्वारा नहीं दिया जाता. तो सिर्फ़ इसी एक बात के लिए वॉन ट्रिअर ने फ़िल्म की कहानी को १९६० में धकेल दिया क्योंकि वो फ़ांसी के ज़रिये ही सेलमा की मौत दिखाना चाहते थे. शायद इसलिए कि वो कहीं अधिक भावोद्वेलक है? निश्चित ही फ़िल्मकार दर्शक के भीतर दया का उद्वेलन ही पैदा करना चाहता है. और उसके लिए चरित्रों और घटनाओं को निरन्तर मैनिपुलेट कर रहा है. और शायद उनके इसी गुण के चलते डांसर इन द डार्क की नायिका, प्रसिद्ध और विलक्षण गायिका ब्योर्क ने किसी मौक़े पर उन्हे ‘इमोशनल पोर्नोग्राफ़र’ का तमगा दे दिया.
वॉन ट्रिअर के मैनिपुलेशन की मिसाल के तौर पर डांसर इन द डार्क की सेलमा का चरित्र लें. सेलमा एक अंधी चेक शरणार्थी है जो अपने बच्चे के इलाज के लिए पैसे बचा रही है. मगर शुद्ध घटनाक्रम के आधार पर देखें तो वो एक ख़ूनी भी है. अपने मकानमालिक का ख़ून करने के बाद भी फ़िल्मकार चतुराई से उसके इस अपराध को तुरन्त धो डालते हैं. सेलमा चेकोस्लावाकिया में बिताए अपने बचपन के दौरान हॉलीवुड म्यूज़िकल देखती रही है और उन म्यूज़िकल्स की काल्पनिक दुनिया की ईंटो से ही उसके सपनों की दुनिया की इमारत खड़ी हुई है. तो ख़ून करने के बाद सेलमा एक दिवास्वप्न में उतर जाती है जिसमें ख़ून किया हुआ शख़्स ख़ुद उठकर खड़ा हो जाता है और उसे अपने ख़ून के अपराध से मुक्त कर देता है. एक पल के लिए भी हम यानी दर्शक सेलमा को ख़ूनी नहीं मान पाते क्योंकि निर्देशक ने उसके दूसरे गुणों की आड़ में उसके अपराध को ढक दिया है. अधिकतर बाज़ारू फ़िल्में यही करती हैं कि वो अपने नायिका और नायक के हर कर्म को न्यायपूर्ण सिद्ध करती हैं और उनके पापों को नैतिकता का आवरण देती हैं. वॉन ट्रिअर भी यही करते हैं.
फ़िल्म पूरी तरह से एक ही चरित्र के गिर्द घूमती है. इस बात में कोई बुराई नहीं. मगर यह तब अखरने लगता है जब सारे चरित्रों का जीवन भी फ़िल्म की नायिका के चरित्र चित्रण की सेवा में अर्पित होते दिखाई देता है. हम उनका स्वतंत्र जीवन न देखें ये समझ में आता है मगर उनका स्वतंत्र जीवन मानो हो ही न, ये समझ में नहीं आता. चाहे वो सेलमा का शालीन आशिक़ हो, या फ़ैक्ट्री में साथ काम करने वाली उसकी पक्की सहेली हो या फिर जेल की अटेंडेंट- ऐसा लगता है कि उनका पूरा जीवन सेलमा के लिए ही हो. इसे सहूलियती लेखन कहते है.
ये कोई नया अन्दाज़ नहीं है. बहुत पहले से फ़िल्मकार और पटकथाकार इस तरह का लेखन करते आ रहे हैं. इसके पीछे उनकी मंशा दर्शक के दिलोदिमाग़ पर अधिकतम असर पैदा करने की होती है, दर्शक के भीतर अपने चरित्र और कहानी के प्रति अधिकतम भावना और करुणा जगाने की होती है. इसी तर्क के रास्ते पर चलकर वह विधा अपना पूरा आकार पाती है जिसे मेलोड्रामा कहा जाता है. वॉन ट्रिअर होशियार हैं, वो अपने इरादों को जम्प कट्स और छद्म डाक्यूमेण्टरी स्टाईल में छिपा के पेश करते हैं और अधिकतर लोग ऊपर-ऊपर धोखा खा जाते हैं कि वे क्या कर रहे हैं. क्लोज़प और अति क्लोज़प के कारण दर्शक को फ़िल्मकार चरित्र के इतना क़रीब धकेल देता है कि वो उसकी भावनाओं में इस तरह डूबने-उतराने लगे कि पूरी तरह से यथार्थ का सम्यकबोध खो बैठे. कान्स जैसे महोत्सव में पॉमे दि’ओर का ईनाम मिल जाने से उनका असर नहीं बदलता. देखिये कि दर्शक पर उनका असर क्या हो रहा है? क्या वो दर्शक को रुला रहे हैं? क्या वो दर्शक के मानस में भावनाओं का विरेचन कर रहे हैं. वही विरेचन या कैथारसिस जिसकी वक़ालत दो हज़ार साल पहले अरस्तू साहब कर गए हैं. और हॉलीवुड, बॉलीवुड समेत और दुनिया भर की सभी बाज़ारू फ़िल्में तनाव और दुख की भावनाओं का विरेचन करके दर्शक को हलका महसूस करने में मदद करते हैं. और अगर वही वॉन ट्रिअर भी कर रहे हैं तो वॉन ट्रिअर क्या अलग कर रहे हैं?
डांसर इन द डार्क में भी वॉन ट्रिअर जम्प कट्स और डिजिटल कैमरों के ज़रिये छद्म डाक्यूमेन्टरी स्टाईल का छायांकन (यानी इस तरह भटकता हुआ सा कैमरा जैसे उस पता ही न हो कि दृश्य में क्या होने वाला है) का प्रयोग करते हैं. जिसके चलते वो चरित्रों और उनकी गति के अलावा कुछ भी दिखाने की ज़रूरत नहीं समझते. इस तरह की तकनीक का क्या अर्थ निकाला जाय? क्या यह कि दृश्य में चरित्र के अलावा कोई और शै किसी भी अहमियत की नहीं है? चरित्र के सिवाय कोई भी चीज़ चरित्र पर या उसकी मार्फ़त दर्शक पर किसी तरह का कोई असर छोड़ने में बिलकुल योग्य नहीं है? तो क्या इसे चरित्र और उसके वातावरण के बीच का विलगाव माना जाय या फ़िल्मकार और उसके वातावरण के बीच का अलगाव? निश्चित ही डांसर इन द डार्क में यह चरित्र और उसके वातावरण के बीच का विलगाव है क्योंकि फ़िल्म में जब भी सेलमा की कल्पना का संसार परदे पर दिखाई देने लगता है तो उसमें रंग पूरी तरह खिले हुए होते हैं, कैमरा हर समय हिलता हुआ और भटकता हुआ सा नहीं है, और दृश्य का सम्पादन भी शास्त्रीय परम्परा में निरन्तरता के भ्रम को पैदा करने वाला है. डांसर इन द डार्क में सच्चाई और सपने में इस तरह का अन्तर रखना समझ में आता है मगर गोल्डेन हार्ट ट्रायलजी की दूसरी फ़िल्मों का क्या? इडियट्स में तो वॉन ट्रिअर के पास डॉग्मा ९५ के घोषणापत्र का पालन करने का तर्क था मगर ब्रेकिंग द वेव्स में आले दर्ज़े की रूहानियत रखने वाली बैस अपने वातावरण से विलगित क्यों है?
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डांसर इन द डार्क जब कान्स फ़िल्मोत्सव में प्रदर्शित हुई तो कुछ अमरीकियों ने फ़िल्म के भीतर मौजूद अमरीकी समाज की आलोचना को बरदाश्त न करते हुए वॉन ट्रिअर से कहा कि उन्हे अमरीका के बारे में फ़िल्म बनाने का क्या हक़ है? वे जानते ही क्या हैं उस देश के बारे में? वॉन ट्रिअर अपने हवाई यात्रा के भय के चलते कभी अमरीका नहीं जा सके हैं. वॉन ट्रिअर ने इस आलोचना को बिलकुल दिल से लगा लिया और ऐलान किया कि वो अमेरिकी समाज पर तीन और फ़िल्में बनायेंगे. अगर हॉलीवुड के फ़िल्मकार बिना गए, बिना जाने और बिना समझे दुनिया भर की संस्कृतियों और समाजों के बारे में फ़िल्में बना सकते हैं तो वो क्यों नहीं. २००३ की डॉगविल और २००५ की माण्डरले उनकी इसी खुन्दक का नतीजा हैं. इस त्रयी की तीसरी फ़िल्म उन्होने अब तक नहीं बनाई है.
डॉगविल एक अमरीकी क़स्बे की कहानी है. फ़िल्म की शुरुआत होती है जब ग्रॆस नामक एक अनजान लड़की अमरीकी माफ़िया से बचते हुए डॉगविल में आ जाती है. क़स्बे के लोगों और ग्रॆस के बीच हुए एक समझौते के तहत, वह मिली हुई शरण के बदले उनके लिए मेहनत-मज़ूरी करती है. समझौते की एक शर्त के अनुसार उसका डॉगविल में रहना समुदाय के सभी लोगों की सहमति पर निर्भर करता है; लिहाज़ा उसे सबको खुश रखना लाज़िमी हो जाता है. और यहीं से शुरु होता है उसके शोषण का एक सिलसिला. और धीरे-धीरे क़स्बे का लगभग हर मर्द उसका बलात्कार करता है. उसकी भागने की कोशिश भी नाकाम रहती हैं. और एक अन्तिम दण्ड के रूप में उसका हितैषी और प्रेमी माफ़िया को उसकी मौजूदगी की सूचना दे देता है. वे आते हैं मगर उनके आते ही पासा पलट जाता है. ग्रॆस असल में माफ़िया सरदार की बेटी है जो अपने पिता के साथ नैतिक असहमति के कारण भाग आई थी. उसका पिता उसे विकल्प देता है कि क़स्बे के लोगों के साथ क्या न्याय करना चाहिये. कुछ सोचने के बाद ग्रॆस फ़ैसला करती है कि वे सब मौत की सज़ा के अधिकारी हैं, बच्चे व औरतें भीं. और ऐसा ही होता है.
वॉन ट्रिअर ने अपनी कहानियों को फ़िल्माने के लिए जिस तरह चरित्र को वातावरण से अलगाते रहे हैं, उसी विचार को वो अपनी इस फ़िल्म में एक अलग स्तर पर ले गए. डॉगविल में बजाय कैमरे और सम्पादन के ज़रिये परिवेश को महत्वहीन करने के उन्होने एक नई तरक़ीब ईजाद की. जिसके तहत उन्होने पूरी कहानी को एक स्टूडियो में शूट किया. कहानी को फ़िल्माने के लिए स्टूडियो में सेट लगाने की परम्परा मेलियस के ज़माने से चली आ रही है. लार्स वॉन ट्रिअर ने उसे एक नया मरोड़ दिया. उन्होने सेट तो लगाया मगर एकदम नए ख़याल का. जिसमें कुछ भी प्राकृतिक नहीं है जो भी है सब कुछ कृत्रिम है. जैसे किसी प्रायोगिक नाटक का मंच होता है जिसमें घरो व मकानों की सीमाओं के लिए एक तख़्ती या पट्टी टांग कर या खड़िया से अंकित कर के बता दिया जाता है कि ये फलां का घर है और वो ढिकां का. कोई दीवारें नहीं और कोई दरवाज़े नहीं मगर अभिनेता उनकी अदृश्य उपस्थिति दर्ज करते हैं जैसे कि थियेटर में होता है. सम्भव है ऐसा करके वॉन ट्रिअर का इरादा बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तर्ज़ पर ‘एलीनियेशन ईफ़ेक्ट’ पैदा करने का रहा हो. मगर ठीक-ठीक ऐसा होता नहीं कथावस्तु की प्रगाढ़ता के चलते दर्शक इन कमियों की और ध्यान न देकर अपने विश्वास को कहानी की पेंग पर झूलने देता है. मेरे समेत बहुत से दूसरे लोगों का भी यही अनुभव रहा है. फ़िल्म के शुरुआती बीस-पचीस मिनट कष्टसाध्य रहे मगर बाद की फ़िल्म मक्खन की तरह निकलती है. अब विकट प्रश्न यह है कि इसे वॉन ट्रिअर की सफलता माना जाय या असफलता?
लार्स वॉन ट्रिअर इसे अपनी अमेरिकन त्रयी की पहली फ़िल्म बताते हैं. फ़िल्म के अन्त में डेविड बोई के गीत ‘यंग अमेरिकन’ के बरक्स अमेरिकी समाज में हाशिये पर रहने वाले समुदायों की असहायता के चित्रों को संजोया गया है. वे चित्र अमेरिकी लोगों के जीवन के अलग-अलग प्रसंग की परेशानियों की तस्वीरें है. तीन घण्टे तक फ़िल्म में स्थान और वातावरण के सभी तत्वों को नगण्य बना कर वॉन ट्रिअर ने एक तरह से अपनी कहानी की सार्वभौमिकता पर ज़ोर दिया था. और फिर फ़िल्म के अन्त में इन चित्रों और गाने को डाल कर वॉन ट्रिअर ने फ़िल्म के पाठ को सिर्फ़ अमेरिकी सन्दर्भ में ही सीमित कर दिया. और अमेरिकी राज्य की इस तरह सीधी आलोचना करके उन्होने अपने दर्शक से मुख्य फ़िल्म को किसी भी अन्य सन्दर्भ में देखने की आज़ादी छीन ली. साथ ही साथ उन चित्रों को किसी भी अन्य सन्दर्भ में देखने की आज़ादी भी. वॉन ट्रिअर हमेशा की ही तरह फिर से एक बार अपने दर्शक को आज़ादी देते नहीं उस से आज़ादी छीन लेते हैं.
इस फ़िल्म में उनके एक और पुराने औज़ार आकाशवाणी यानी कि नैरेशन की वापसी होती है. आकाशवाणी के ज़रिये फ़िल्मकार अपने सारे चरित्रों के प्रति दर्शक का रवैया तय करता चलता है. आकाशवाणी प्राचीन साहित्य और मिथकों में ईश्वर के हस्तक्षेप के तौर पर इस्तेमाल होती रही है. जब सिनेमा वेरिते तथा अन्य क़िस्म की डाक्यूमेण्टरीज़ में नैरेशन का इस्तेमाल होता था तो उसे भी एक तरह के ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह देखा जाता था और आज भी उसे निर्देशक के रूप में ईश्वर का हस्तक्षेप मानना अनुचित नहीं होगा. पर उनके ऐसा करने के पीछे उनकी तकनीकि सीमाएं थीं जबकि वॉन ट्रिअर इस ईश्वरीय हस्तक्षेप का सजग चुनाव करते हैं. इसके अलावा इस फ़िल्म में तो ईश्वर की बहुत प्रबल उपस्थिति भी है. फ़िल्म शुरु होती है और ख़त्म भी होती है ईश्वर के टौप एंगल व्यू से. फ़िल्म के दौरान भी बीच-बीच में यह नज़रिया लौटता रहता है. और इसके अलावा अदृश्य सूत्रधार की आकाशवाणी के ज़रिये भी ईश्वर की उपस्थिति पूरी फ़िल्म में बनी रहती है. या कहें कि वॉन ट्रिअर की उपस्थिति बनी रहती है क्योंकि परोक्ष रूप से ये निर्देशक ही तो है जो अपने ही बनाए चरित्रों पर लगातार फ़ैसले सुनाता रहता है. इस इब्राहिमी ईश्वर का सबसे बड़ा प्रमाण तो फ़िल्म के क्लाईमैक्स में दिखता है जब ग्रॆस का गैंगस्टर पिता उसे डॉगविल के निवासियों को मार देने या माफ़ कर देने का विकल्प देता है. और ग्रॆस अचानक ईसा मसीह से ईर्ष्यालु ईश्वर में तब्दील हो जाती है. और पूरे क़स्बे के लोगों को, बच्चों और औरतों को भी उनके गुनाहों के एवज़ में बेरहमी से मरवा देती है. ये फ़ैसला ग्रॆस के चरित्र ने दूसरे चरित्रों के प्रति लिया या निर्देशक ने अपने चरित्रों के प्रति लिया? यह सवाल बेहद मौज़ूं है कि असली ईश्वर की भूमिका इस फ़िल्म में किसने अदा की? मेरी समझ में यह फ़िल्म अमेरिकी समाज विशेष के बारे में तो उतना कुछ नहीं कहती मगर लार्स वॉन ट्रिअर व्यक्ति विशेष के बारे में बहुत कुछ कहती है. यहाँ पर यह भी याद कर लें कि ब्रेकिंग द वेव्स का अंत भी ईश्वरीय टॉप एंगल शॉट से होता है. जिसमें स्वर्ग में बजते हुए घंटे बैस की चारित्रिक उच्चता और उसके स्वर्ग में प्रवेश की घोषणा कर रहे होते हैं.
एक बार इस पर विचार कर लेना भी अप्रसांगिक नहीं होगा कि लार्स वॉन ट्रिअर अपनी नायिकाओं के लिए ऐसे कठिन जीवन का चुनाव क्यों करते हैं? माना डॉगविल अमरीकी सच्चाई की उनकी व्याख्या है. मगर इसके पहले ब्रेकिंग द वेव्स में भी बैस के साथ जो क्रूर व्यवहार होता है, वो तो किसी अमेरिकी समाज में नहीं होता? और न ही वो कोई शरणार्थी है? न ही डांसर इन द डार्क की कथा को अमेरिका में स्थापित करने का कारण उनकी ओर से अमेरिकी समाज की असहिष्णुता प्रचारित किया गया था, जैसे कि इस मामले में उन्होने किया है. मगर फिर भी सेलमा को जिस क्रूरताओं का सामना करना पड़ा, वो किस उपलक्ष्य में? क्या उसे भी किसी राजनीति से प्रेरित माना जाय? या वॉन ट्रिअर की इस तथाकथित राजनीति को किसी और प्रवृत्ति से प्रेरित माना जाय?
पूरी फ़िल्म में अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को ईसा मसीह की करुणा व क्षमा के साथ समझने वाली ग्रॆस भी दूसरे चरित्रों की ही तरह अपनी शक्ति का अवसरवादी इस्तेमाल करती है. उसकी करूणा तभी तक कारगर थी जब तक वह अशक्त थी जैसे ही उसके पास लोगो को जीवन देने या लेने की ताक़त आती है वह अचानक महाक्रूर बन जाती है. हालांकि तमाम लोग इस फ़िल्म के तमाम निष्कर्ष निकालते हैं मगर मानवता का इससे निराशाजनक चित्रण मैंने बहुत कम देखा है. यदि मानवता सचमुच वॉन ट्रिअर की समझ के अनुसार होती तो कब की विनष्ट हो गई होती. ये माना कि अधिकतर समाज निर्बल के साथ ऐसा दमनकारी सुलुक़ करते हैं मगर क्या निर्बल भी ऐसे ही अहिंसक और करुणासम्पन्न होते हैं जैसे कि ग्रॆस दिखाई गई है? ये क्या यथार्थ का मैनिपुलेशन नहीं है? और इसीलिए फ़िल्म की तमाम सूक्ष्मताओं के बावजूद कुछ आलोचक इस फ़िल्म की कहानी में ‘बलात्कार का बदला’ जैसा सस्ता पाठ कर पाते हैं. क्योंकि एक स्तर पर यह वह है भी- एक तरह की नैतिक या धार्मिक फ़न्तासी.
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 विचित्र बात है कि लार्स वॉन ट्रिअर की सारी विलागववादी तकनीकें भी फ़िल्म का भावनात्मक तत्व धूमिल नहीं कर पातीं और फ़िल्म के अन्त आने-आने तक दर्शक रोने-रोने हो आता है? ये कोई चक्र है, कोई कौशल है, या कोई वृत्ति है? वहीं दूसरी तरफ़ एक अंधी लड़की को फांसी पर चढ़ाने की कहानी दुनिया के हर कोने में आँख में से आंसू निकाल देती है? ये क्या मामला है?
ये सवाल पूरी तरह से तार्किक है कि आख़िर कोई भी फ़िल्मकार अपने दर्शक के फ़िल्म देखने के अनुभव में भटकाव क्यों पैदा करना चाहेगा? सहज बात यह होगी कि वह अपने दर्शको कों अपनी कहानी के प्रति एकाग्रता के लिए प्रेरित करे? मगर वॉन ट्रिअर ऐसा नहीं करते, तिस पर भी उनके दर्शक कहानी में मन रमा लेते हैं? अचरज की बात है कि यह कैसे मुमकिन होता है? क्या इसलिए कि जिस तरह शब्द घिस-घिस कर अपना अर्थ खो बैठते हैं, उसी तरह तकनीक भी असर खो बैठती है? किसी समय में गुण्डा बड़ी गाली रही होगी, किसी को कमीना कहना उसके चरित्र की हत्या करना जैसा रहा होगा. मगर अजीब बात है कि आज लोग अपने बच्चे को या बच्ची को भी गुण्डा कहकर प्रसन्न होते हैं; दोस्त आपस में मिलते हैं तो एक-दूसरे को कमीना कहकर गले लगा लेते हैं? ऐसी स्थिति में किसी को गुण्डा या कमीना कहने से उसका अपमान न होगा. किसी का वास्तव में अपमान करने के लिए आपको कोई ऐसा शब्द पकड़ना होगा जो तत्कालीन भाषा में अपमान का अर्थ वहन कर रहा हो. तो क्या यह माना जाय कि वॉन ट्रिअर भी इसी कारण से अपने दर्शक को डिसओरिएण्ट कर रहे हैं? क्योंकि एमटीवी के बाद की पीढ़ी किसी भी चीज़ को एकाग्रता से देखने की ताब खो चुकी है? ध्वनियों और दृश्यों में लगातार व्यवधान और भटकाव की तो उन्हे आदत जैसी पड़ गई है? तो क्या छद्म डाक्यूमेण्टरी की यह तकनीक उनके मानस में प्रवेश करने का पासपोर्ट बनी? क्योंकि ये बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि ब्रेकिंग द वेव्स और डांसर इन द डार्क जैसी फ़िल्मों के प्रचण्ड अनुभव के बाद आख़िर में दर्शक के पास कहानी के ही तत्व बचे रहे जाते हैं तकनीक के नहीं. और किसी भी श्रेष्ठ फ़िल्म में यही वांछनीय भी है.
ये तो हम जानते हैं कि मानव शिशु तीन साल की उमर से ही विस्थापन का जो हुनर जो सीखता है तो फिर उसके ज़रिये अनेक करामात करता चलता है. सिर्फ़ शब्दों के सहारे चित्रों की कल्पना कर लेता है. चित्र भर के सहारे आवाज़ें सुन लेता है. चार रेखा खींच दो तो मान लेता है कि ये घर है. इतना सब होने पर भी मनुष्य का मन बेहद प्रभावशील है. और उसकी भेदबुद्धि हर छोटे से छोटे अन्तर को भी को पहचानने में सक्षम है. हर रंग, रूप, क्रम और आकार एक विशेष प्रभाव पैदा करता है. इसी वजह से कलाकार अपने शिल्प में निरन्तर प्रयोग करते रहते हैं. मगर वो कौन सी मानव वृत्ति है जिसके चलते एक समय का फ़िल्म शिल्प का क्रांतिकारी औज़ार जम्पकट, पाला बदलकर पेशेवर विज्ञापन की दुनिया का कारगर हथियार बन जाता है? नुसरत की रूहानी तान पश्चिम में पहुँचकर कैबरे संगीत बन जाती है? रूप के भीतर एक प्राकृतिक कथ्य मौजूद होता है या नहीं? जब गोदार ने कहा था कि मेरी फ़िल्मों में शिल्प कथ्य का आवरण है और कथ्य शिल्प का अन्तस, तो क्या वह सिर्फ़ एक ख़ूबसूरत बयान था जो अगर लागू होता था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी फ़िल्मों पर? यह बड़ा प्रश्न है कि क्या रूप और रूह में कोई एकता नहीं? हसीन सूरत वाले असली में हसीन सीरत नहीं रखते?
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००५ में आई अमेरिकन त्रयी की दूसरी कड़ी माण्डरले में न तो तकनीक के स्तर कोई नयापन था और न ही असर में कामयाबी. उसके बाद २००७ में वॉन ट्रिअर ने पहली बार एक कॉमेडी पर अपना हाथ आज़माया और कामयाबी भी हासिल की. उस फ़िल्म के बारे में साक्षात्कार देते हुए उन्होने कहा कि वो एक सरल फ़िल्म बनाना चाहते थे. मगर वॉन ट्रिअर किसी भी कहानी को सरल कैसे बना सकते हैं? फ़िल्म की कहानी में जाए बग़ैर ये बताना चाहता हूँ कि ‘द बॉस ऑफ़ इट ऑल’ में वॉन ट्रिअर एक नई तकनीक इस्तेमाल करते हैं जिसका नाम उन्होने दिया है ऑटोमाविज़न. उनका कहना है कि अभी तक कैमरे या तो स्थिर होते आए हैं या फिर गतिमान जिसका सबसे नया स्वरूप है स्टेडीकैम. वॉन ट्रिअर ने अपनी कई फ़िल्म स्टेडीकैम पर ही शूट की हैं. दोनों में स्पष्ट अन्तर होते हुए भी एक समानता है- वो ये कि दोनों ही ये तय करते हैं कि वे फ़्रेम क्या रखेंगे और उसके भीतर क्या-क्या रखेंगे. ये एक सीधा-सीधा फ़िल्मकार का तर्क है- वो अपनी समझ और मंशा से तय करता है कि फ़्रेम के भीतर क्या आएगा और क्या उसके बाहर रखा जाएगा. इस तरह से दर्शक किस चीज़ को कितना महत्व देगा इस बात पर फ़िल्मकार नियंत्रण रख सकता है. वॉन ट्रिअर के अनुसार उन्होने इस फ़िल्म में वो नियंत्रण छोड़ दिया और ऑटोमाविज़न की तकनीक के ज़रिये एक कम्प्यूटर को रैण्डम आधार पर यह तय करने दिया कि उपलब्ध सेट पर वो क्या फ़्रेम बनाएगा. वॉन ट्रिअर के मुताबिक़ यह नियंत्रण छोड़ना है मगर मेरी समझ में यह तो और भी कस कर लगाम पकड़ना है. ऑटोमाविज़न उनके लिए क्या करने वाला है यह सोचसमझ कर उन्होने उस तकनीक का प्रयोग किया. ऑटोमाविज़न ज़रूर रैण्डम आधार पर फ़्रेम का चुनाव कर रहा है लेकिन वॉन ट्रिअर अनियमित आधार पर ऑटोमाविज़न का चुनाव नहीं कर रहे हैं, जानबूझकर कर रहे हैं. ये फिर आज़ादी का ही मामला है ऊपर से ऐसा लग सकता है कि वे दर्शक पर से अपना नियन्त्रण हटा रहे हैं मगर वॉन ट्रिअर हमेशा की ही तरह फिर से एक बार अपने दर्शक को आज़ादी देते नहीं, उस से आज़ादी छीन लेते हैं.
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