गुरुवार, 7 नवंबर 2013

मैं वायु स्वरूप हूँ

मैं वायु स्वरूप हूँ। 
सब कुछ छूते हुए चलता हूँ। 

मैं जल स्वरूप हूँ। 
टूटता जाता हूँ, बहता जाता हूँ, जुड़ता जाता हूँ। 

मैं पृथ्वी स्वरूप हूँ। 
सब कुछ वहन करता हूँ, सहन करता हूँ। 

मैं अग्नि स्वरूप हूँ। 
जल सकता हूँ, सब कुछ जला सकता हूँ। 

मैं आकाश स्वरूप हूँ। 
सब कुछ मेरे भीतर घटित होता है, और मेरे ही भीतर लीन हो जाता है। 

मैं ब्रह्म स्वरूप हूँ। 
मेरे चाहने भर से सब कुछ हो जाता है, और चाहने ही से खो भी जाता है। 

मैं आनन्द स्वरूप हूँ।
किसी वस्तु में कोई आनन्द नहीं, सारा आनन्द मुझ से ही आता है। 


मैं सब कुछ हूँ पर कुछ नहीं हूँ। 
वो कुछ नहीं है पर वही सब कुछ है। 

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