सोमवार, 31 जनवरी 2011

क्षणभंगुर प्रेम

दैनिक भास्कर के रविवारीय संस्करण में 'प्राइम टाइम' नाम के कालम के लिए शांति नाम के एक चरित्र की रचना की गई है। १४ जनवरी से ये कालम आ रहा है, और पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं। एक पाठक ने शांति से अपनी समस्या का समाधान चाहा तो उसी के जवाब में यह कहानी रची गई जो इस ३० जनवरी को शाया हुई।  

क्षणभंगुर प्रेम

गाजर का हलवा- शब्द और छवि के रूप में शांति के ज़ेहन में घूम रहा था। शांति ने करवट बदल कर रजाई सर के ऊपर खींच ली। लेकिन गाजर का हल्वा दूसरी दिशा से भी आकर उसकी चेतना में खटखटाने लगा। हफ़्ते में एक दिन ही तो मिलता है अलसाने के लिए। लेकिन इस इतवारी सुबह की गुदगुदी नींद को लात से परे कर जब शांति उठी तो बस गाजर का हलवा बनाने के लिए। हलवा तो बाज़ार में बहुत मिलता है। बाज़ार से तीन दफ़े लाया भी गया और खाया भी गया मगर अजय को शांति के हाथ का ही हलवा पसन्द है। तो इसके पहले कि गाजर का सीज़न ख़तम हो, शांति हल्वा बना लेना चाहती है, और हलवा खाकर अजय के चेहरे पर संतुष्टि का जो भाव आएगा, वो देख लेना चाहती है।

बाहर रौशनी बस हो ही रही थी। गाजर धोते हुए रसोई की खिड़की से उसने गूलर के पत्तो पर की ओस को ढलकते देखा, दहियल को तार पर बैठ कर गाते हुए सुना, और हलके कोहरे में से छन कर आती सूरज की पहली किरन को अपने चेहरे पर महसूस किया और उसका जी खिल उठा। अजय के लिए उसका प्रेम प्रकृति के लिए उसके प्रेम से मिलकर और गाढ़ा हो गया। शांति उत्साह से गाजर को कद्दूकस पर घिसने लगी।

जब अलका आई तो आधी गाजरें घिस चुकी थीं और दूध उबलने के लिए आतुर था। इतनी सुबह अलका का आना रहस्यमय था। लेकिन उसकी उदास बदहवासी बता रही थी कि मामला संजीदा है। अलका, उमर में अजय से पन्द्रह-सोलह बरस छोटी होगी मगर रिश्ते में वो उसकी दूर की बुआ लगती है।  कभी-कभी वो सासू माँ से मिलने आती है लेकिन इस बार वो शांति से मिलने आई है। थोड़ा कुरेदते ही अलका के आँसू टपाटप गिरने लगे। समस्या ये है कि अलका को जिस लड़के से प्यार है उसकी शादी हो रही है।

क्या वो तुझे प्यार नहीं करता?
वो भी करता है..
वो भी करता है तो शादी किसी और से कैसे कर रहा है..?

अपनी बेचारगी और सुधीर की मजबूरी को विस्तार से समझाने के लिए अलका ने सुधीर को फ़ोन लगाया और उसे मिलने के लिए बुलाया। सुधीर फिर से मजबूर हो गया उसके यहाँ मेहमान आ रहे थे- वो घर से नहीं निकल सकता। शांति अगले तीन घंटे तक कढ़ाई में कलछुल डुलाती रही और अलका के डोलते भावनात्मक जगत को भी संभालती रही। और फिर भावनात्मक आन्दोलन की चरम ऊँचाई पर पहुँच कर जब अलका ने घोषणा की मैं मर जाऊँगी दीदी, मैं उसके बिना नहीं जी सकती! तब तक हलवा भी अपने अंजाम तक पहुंच गया था। तो शांति ने अलका से पूछा कि क्या वे दोनों सुधीर के घर चलकर उससे बात करें। तो अलका ने धीरे से गरदन स्वीकार में हिला दी। अजय को हल्वा दिखाकर और चाय पिलाकर शांति ने इतवारी नाश्ते की ज़िम्मेदारी उसे सौंप दी। फिर स्कूटर पर अलका को बिठाला और चल पड़ी।  

सुधीर के घर के आगे काफ़ी चहल-पहल थी। घंटी बजाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। दरवाज़ा खुला था और कई लोग अन्दर-बाहर हो रहे थे। सुधीर की अम्मा अलका को देखकर चौंकी लेकिन मौन साधे रहीं। थोड़ी देर में सुधीर बाहर आ गया। उसके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं क्योंकि आने वाले मेहमान कोई और नहीं उसकी ससुराल वाले थे।

तुम को यहाँ नहीं आना चाहिये था..
मैं तुम्हारे बिना मर जाऊँगी..
प्लीज़ अलका.. मेरी सिचुएशन को समझो.. ये शादी करना मेरी मजबूरी है..
और तुम्हे प्यार करना मेरी मजबूरी है..
तो करो न प्यार.. मैंने कहाँ रोका है.. लेकिन अभी तुम जाओ यहाँ से.. प्लीज़.. 
तो वो प्यार की सब बाते झूठ थीं?
नहीं, सच थीं.. लेकिन ये जो हो रहा है ये भी सच है..

अलका फिर से टपाटप आँसू बहाने लगी। चुप खड़ी शांति से बोली दीदी आप समझाईये न इसे!
शांति ने सुधीर से पूछा- तुम अलका से शादी करना चाहते हो..


सुधीर ने एक पल अलका को देखा, फिर सर हिला दिया- नहीं।

शांति ने अलका की बाँह पकड़ी और उसे लगभग घसीटती हुई बाहर निकाल ले आई। शांति की लड़ाका और आक्रामक छवि के असर से ही अलका ने शांति से मदद माँगी थी इस उम्मीद से कि वो लड़-झगड़ कर सुधीर को मना लेगी। लेकिन शांति ने तो सुधीर पर कुछ भी दबाव नहीं बनाया। अलका शांति के इस निरपेक्ष व्यवहार से बहुत निराश और मायूस हुई।

शांति ने कहा- प्रेम में कोई ज़बरदस्ती नहीं हो सकती अलका। जैसे तुम्हे उस से प्रेम करने का अधिकार है वैसे ही उसे भी तुम से प्रेम ना करने का अधिकार है। अगर उसने तुम्हारा कोई ग़लत फ़ायदा उठाया हो, तो बात दूसरी है। हम पुलिस और क़ानून आदि की सहायता ले सकते हैं। हाँ अगर वो तुझ से प्रेम करता और शादी करना चाहता तो मैं दुनिया की हर ताक़त से लड़कर भी तुम दोनों की शादी करवा देती.. लेकिन वो तो किसी और से शादी कर रहा है अपने मर्ज़ी से..

तो अब मैं क्या करूं, दीदी? अलका शांति से चिपक कर फूट-फूट कर रो पड़ी। सबर कर.. सुधीर में ज़िन्दगी नहीं थी.. ज़िन्दगी में सुधीर था.. एक इन्सान की हाँ या ना से ज़िन्दगी बहुत बड़ी होती है.. अलका उसे डबडबाई आँखों से टपर-टपर देखती रही और कुछ ना बोली। ये भी नहीं कि कहना आसान है और करना मुश्किल। अलका की घायल और बेबस आँखों को देख शांति को बहुत तरस आया। आते-जाते लोगों की अजीब नज़रों की परवाह न करते हुए उसने फिर से अलका को चिपटाकर बहुत सहलाया। शांति जानती थी कि अलका का दिल टूट गया है। और यह भी कि प्रेम में टूटे हुए दिल का दुनिया में कोई इलाज नहीं।

हमारा सच्चा प्यार था दीदी.. पता नहीं उसे क्या हो गया? ये कहकर अलका फिर सुबकने लगी। शांति हौले-हौले उसका सर सहला कर दिलासा देती रही और फिर अंत में जब अलका के आँसू सूखने लगे तो शांति ने अलका को उसके घर छोड़ दिया- इस उम्मीद के साथ कि वो इस हादसे से उबर आयेगी। और घर लौटते हुए रास्ते भर प्रेम की क्षणभंगुरता पर सोचती रही।   

जब वो घर पहुँची तो अजय, सासू माँ, पाखी, अचरज सब नाश्ता करके टीवी के सामने जमे हुए थे और क्रिकेट का मज़ा ले रहे थे। रसोई में हलवे की कढ़ाई आधी खाली हो चुकी थी। गन्दी प्लेटें हौल से लेकर रसोई तक बिखरी पड़ी थीं। टीवी पर नज़रे गड़ाए अजय मैच में इस क़दर गुम था कि वो शांति के हलवे की तारीफ़ करना भी भूल गया। और शांति के बिगड़ते मूड को भाँपने में भी पूरी तरह चूक गया। अजय के लिए उसका प्रेम हलवे के रूप में जो अभिव्यक्त हुआ था उसकी अनदेखी से शांति का मन और डूब गया। शाम होते-होते तक प्रेम की क्षणभंगुरता के सवाल ने शांति के मन में अच्छी उथलपुथल मचाई। और जो पलकों पर रुके एक आँसू और एक सवाल की शक्ल में अजय के आगे बाहर आई पता नहीं तुम मुझे प्यार करते भी हो या नहीं..? अजय अचानक आई इस गुगली के आगे एकदम क्लीन बोल्ड हो गया। फिर पूरे तीन दिन और साढ़े सात घंटे बाद ही अजय शांति को वापस अपने प्रेम का भरोसा दिला सका।

***
 

बुधवार, 19 जनवरी 2011

कला की आहत आत्मा


जाहिल की हद तक अ-सुरुचिसम्पन्न साबित होने के जोखिम पर मैं यह कह रहा हूँ कि अनीश कपूर का काम मेरे भीतर किसी भी प्रकार का कोई कलात्मक अनुभव पैदा करने से नाकामयाब रहा। दुनिया भर में जिसके विरदगान गाए जाते हों ऐसे कलाकार के एहतराम का ख़याल करते हुए शायद इसे पलट कर कहना माक़ूल हो कि मैं अनीश कपूर के काम के आगे बेहिस बना रहा। एक तोप जो हर पांच-सात मिनट पर लाल रंग का मोम के गोले बरसाती है- एक उसे छोड़ बाक़ी का कुछ भी, कोई नाटकीय प्रभाव भी पैदा न कर सका मेरे लिए। हाय! मैं अभागा! मेरे हतभाग्य!!

ऐसे मौक़े पर आदमी अपने आप से बड़े मौलिक क़िस्म के वार्तालाप में मुब्तिला हो जाता है.. कला क्या है..? रंग क्या है..? आकार क्या है..? जीवन क्या है..? और कलाकार की कुशादा नज़रिये और उसको मुहय्या कर दिये गए कुशादा वसीलों से निखर कर आई कला का अपने लिए तरजुमा करने लगता है.. इस कला का रंग लाल है.. लाल रंग ख़ून है.. ख़ून हिंसा है..हिंसा की भर्त्सना कर रहा है कलाकार.. या कुछ यूं कि ..सच हमेशा सीधा होता है.. लेकिन आईना कभी सीधा, कभी टेढ़ा-मेढ़ा होता है.. ये कला आदमी का आईना है..

लेकिन उसी आदमी के भीतर एक बेहद अहमक़ कैफ़ियत का आम आदमी होता है जो ऐसे किसी भी तर्कश्रंखला पर ईमान लाने से इंकार कर के ख़ुदमुख़्तार होने का ऐलान करना चाहता है.. सुरुचिसम्पन्न बनने के जो हैं ख्वाहिशमंद, उन्हे चाहिये कि ऐसे आम आदमी की शोरिशी मन्सूबों को ज़ब्त कर के रखें और ताकि भद्रलोक में अपना सर उठा कर चल सकें..

नहीं तो वो आप से पूछने लगेगा कला की आत्मा को आहत करने वाले से कुछ बेहूदे सवाल जैसे कि पचास हज़ार रोज़ाना तक के किराये वाले महबूब स्टूडियो में लगभग पचास रोज़ तक, तक़रीबन पचास लोगों को नौकर रख कर जनता के आगे ऐसे कलात्मक अनुभव, इस बाज़ारूयुग में फ़्रीफ़ण्डिया हाज़िर करने के लिए कौन जेब ढीली कर रहा है? और क्यों?


शनिवार, 15 जनवरी 2011

कुछ नहीं खलता मुझे मैं कौन हूँ

कुछ नहीं खलता मुझे मैं कौन हूँ
सूरते हैरत हूँ या शक्ले जुनूँ

इश्क़ है सरमायाए दीवानगी
सिह्‌र कब पाता है उसको और फ़ुसूँ

आहो नाला ने मुझे रुस्वा किया
वरना पिन्हा था मेरा राज़े दरुँ

गर ना बहते लख़्ते दिल आँखों की राह
रंगे अश्क ऐसा न होता रश्के खूँ

हुस्ने जानां जलवागर हर शै में है
दीद में अपने नहीं कोई ज़बूँ

कौन पा सकता है मुझ गुमगश्तः को
दीन ढूंढे है आ के या दुनियाए दूँ

जिस ने पहचाना है अपने आप को
है नियाज़ अपने क़दम पर सर निगूँ


१. जादू
२. इन्द्रजाल
३. छिपा हुआ
४. दिल का राज़
५. दिल के टुकड़े
६. दूषित
७. खोया हुआ
८. अधम, नीच
९. सर झुकाए हुए



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