क्या इस देश में प्रगति अंग्रेज़ों के साथ आई? क्या अंग्रेज़ों के आने से पहले इस देश में फ़ारसी व संस्कृत का ही वर्चस्व था? क्या देशभाषाओं को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में स्वीकारा जा सकता है? कबीर और तुकाराम अपने परिवेश की उपज थे या समय से पहले पैदा हो गए अनोखे प्राणी? और अगर वे उस रूढ़िबद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था में जकड़े समाज में इतने ही अनोखे थे तो एक बड़ी जनसंख्या के लिए पूज्य कैसे बन गए? क्या सारी की सारी देशज परम्परा एक साज़िश है? भारतीय समाज में सामाजिक वर्चस्व का स्रोत क्या रहा है, तलवार व पैसा या कर्मकाण्ड व रक्तशुद्धि?
मानवाधिकारों की कल्पना क्या इमैन्वल कांट के ही दिमाग़ की उपज थी और कबीर जो बोल-गा रहे थे, वो कोई और ही प्रलाप था? इस देश के आमजन इतने मिट्टी के माधो रहे हैं जो चतुर ब्राह्मणों की साज़िश का लगातार शिकार होते ही जाते हैं?
अपनी परम्परा और विरासत के प्रति थोड़े से भी सजग व्यक्ति को बेचैन कर देने वाले ये सवाल पूछते हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में। कबीर और उनके समय के सहारे इन सारे कठिन सवालों के जवाब तलाशते हुए पुरुषोत्तम जी की किताब महत्वपूर्ण हो जाती है न सिर्फ़ इसलिए कि उन्होने कबीर और उनके समय की एक नई विवेचना की है बल्कि और अधिक इसलिए कि उन्होने तत्कालीन और (समकालीन समाज भी) को देखने-समझने के लिए एक नई नज़र की प्रस्तावना की है।
और जो जवाब विकसित होते हैं वो बने-बनाए निष्कर्षों पर ‘आस्था’ रखने वाले, पोलिटिकली करेक्ट समझ का ही दामन पकड़ कर चलने वाले विद्वानों को बड़े दुष्कर मालूम दे सकते हैं क्योंकि किताब के निष्कर्ष माँग करते हैं कि आँखों पर चढ़े पूर्वाग्रहों और इतिहास की मोटी समझ के चश्मे को निकाल फेंका जाय और एक अधिक परिपक्व और महीन समझ विकसित की जाय।
‘अकथ कहानी प्रेम की’ में कबीर के जीवन, चिंतन, उनकी साधना, और उनके काल से संबधित सभी पहलुओं पर विशद चर्चाएं हैं। किताब में इस बात की भी विवेचना है कि कबीर के नाम से प्रचलित रचनाएं उन्ही की हैं या ब्राह्मणवादी एप्रोप्रिएशन की नीयत से उन पर आरोपित कर दी गई हैं? इस तरह के चिंतन की ख़बर ली गई है जो एक औफ़ीशियल पाठ अपना कर शेष प्रतिकूल पाठों को ख़ारिज़ करने की उस रोमन वृत्ति से चलता है जिसके तहत ईसा के शिष्यों के चालीस संस्मरणों में से चार को छोड़ बाक़ी को दबा दिया गया। इसी वृत्ति की अनुकृति वाली अपनी समझ से इतिहास की चयनित व्याख्या की बीमारी आज भी काफ़ी विद्वानों को अपनी चपेट में लिए हुए है।
फिर पुरुषोत्तम जी कबीर, रैदास, सेन नाई, धन्ना जाट, और पीपा के गुरु माने जाने वाले रामानन्द की ऐतिहासिक गुत्थी को भी सुलझाने में भी वे कुछ दिलचस्प बातें सामने लाते हैं। ‘जात पाँत पूछे नहिं की, हरि को भजे सो हरि को होई’ की घोषणा करने वाले रामानन्द वाक़ई कबीर के गुरु थे भी या उन्हे सिर्फ़ ब्राह्मणवादियों ने कबीर और उनकी मेधावी परम्परा पर अधिकार करने की नीयत से रामानन्द का आविष्कार कर लिया? इस मामले में जो पारम्परिक मान्यता को आधुनिक और आधुनिक निर्मिति को पारम्परिक मानने की उलटबाँसी चली है उसको पुरुषोत्तम जी रामानन्दी और रामानुजी सम्प्रदाय की जातीय सरंचना और उनके आपसी रिश्तों के इतिहास के ज़रिये सीधा और अर्थवान करते हैं।
कबीर की साधना किस तरह से धर्मसत्ता की सुरक्षा के बदले विवेक की सौदेबाज़ी को सीधे चुनौती दे रही थी, और किसी नए धर्म की स्थापना नहीं बल्कि धर्म मात्र की आलोचना कर रही थी, ‘अकथ कहानी प्रेम की’ इस का भी तार्किक उद्घाटन करते हैं। बहुत आगे जाकर मार्क्स श्रम की जिस आध्यात्मिक एकता के ज़रिये मनुष्य की मुक्ति की चर्चा करते हैं, उसी श्रम और अध्यात्म के परस्पर संबंध से मुक्ति की सहज साधना कबीर कैसे कर रहे थे, और उसे गाकर बता भी रहे थे, यह भी स्थापित करते हैं।
मगर मुझे अपने सरोकारों की नज़र से, सबसे महत्वपूर्ण उनका दूसरा अध्याय मालूम दिया जिसमें वे देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त की चर्चा करते हैं। आज तक आम धारणा यह है कि आधुनिकता के नाम से जिस व्यक्तिसत्ता की मान्यता, विवेकपूर्णता, और सहिष्णुता के मूल्यबोध की पहचान की जाती है, उसका जन्म योरोप में हुआ और भारत समेत सम्पूर्ण विश्व को वो योरोप की ही देन है। लेकिन इस बात को कम ग़ौर किया गया है कि भारतभूमि मे पन्द्रहवीं सदी में कबीर अपने कविता और साधना के ज़रिये व्यक्ति, समाज, और ब्रह्माण्ड के परस्पर संबन्धों की नई समझ विकसित कर रहे थे और बड़ी संख्या में शिष्य और अनुयायी उनकी चेतना का अनुसरण कर रहे थे; सभी जाति के लोग जाति के पार जाकर साधु और भगत के रूप में पहचाने जा रहे थे; न सिर्फ़ कबीर, नामदेव और रैदास अपनी आधुनिकता को अभिव्यक्ति दे रहे थे बल्कि समाज में उन्हे माना-पूजा जा रहे थे। तो इन्ही के बुनियाद पर पुरुषोत्तम जी सवाल करते हैं कबीर का काल आधुनिक क्यों नहीं था?
१५ वीं सदी में व्यापार के विस्तार, मानवकेन्द्रित चिन्ता, और चर्च के प्रति असंतोष के उदय के आधार पर ही योरोप आधुनिक होने का दावा करता है, हालांकि योरोपीय आधुनिकता के सबसे पहले पैरोकार मार्टिन लूथर, यहूदियों को नदी में डुबा देने की भी बात भी अपने आधुनिक सुर में करते जाते हैं। तो उस से कहीं अधिक विकसित चेतना और मूल्य बोध के होने के बावजूद कबीर और उनका काल माध्यकालिक क्यों कहलाता है?
इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ है जाति का प्रश्न। कबीर के समय को मध्यकाल में गिनते हुए हम मानते रहे हैं कि भारतीय समाज ब्राह्मणों के द्वारा वर्णाश्रम की बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक स्थिर और रूढ़िबद्ध समाज रहता आया है जिसमें ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर बैठकर समाज के हर नियम को बनाता और लागू करता आया है। पुरुषोत्तम जी ऐसी किसी भी धारणा को ब्राह्मणों की फ़ैन्टेसी को सच्चाई मान लेने की भूल बताते हैं। क्योंकि व्यापार का विस्तार होने से दस्तकारी से जुड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ रहा था और वर्णाश्रम व्यवस्था अप्रासंगिक हो रही थी।
मनुस्मृति को मध्यकालीन समाज का अन्तिम विधान मानने वाले विवाद रत्नाकर जैसे ग्रंथ को भूल जाते हैं जिसमें ब्राह्मण की अवध्यता पर इतनी शर्तें लगाई गई हैं कि किसी अपराधी ब्राह्मण का अवध्य होना असंभव हो जाय। मनुमहिमा का तो पुनरोदय हुआ वारेन हेस्टिंगज़ की कृपा से बने ग्यारह ब्राह्मणों की कमेटी के ज़रिये जब उन्होने हिन्दू ला के लिए बीस स्मृतियों में से बस एक मनुस्मृति को छाँटकर बस उसीका खूंटा पकड़ लिया। जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता बहुत पहले पीछे छोड़ आई थी उसे वापस हिन्दुओं की ‘दि बुक’ बना दिया गया और हमारे समाज की बहुवचनात्मकता को केन्द्रीकृत शास्त्रीयता में बदलने का उपक्रम किया गया।
और यह उपक्रम काफ़ी सफल भी रहा है, आज की तारीख़ में मनुस्मृति ही भारतीय परम्परा का पारिभाषिक ग्रंथ बन चुका है। जबकि अत्रिस्मृति जैसे ग्रंथ की कहीं चर्चा भी नहीं है जिसमें ब्राह्मणों की द्स कोटियों में शूद्र ब्राह्मण, म्लेच्छ ब्राह्मण, चांडाल और निषाद ब्राह्मण भी शामिल हैं, और आदिवासी पुरोहितों को भी ब्राह्मण जाति की निचली पायदान में जगह मिल चुकी थी। यह बताता है कि जाति व्यवस्था में ‘नीचे’ से ‘ऊपर’ जाने की सम्भावना बनी रहती आई है और ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ की भी क्योंकि पुरुषोत्तम जी बताते हैं कि तमाम जुलाहों के गोत्रों से पता चलता है कि उनमें वैश्य, तोमर, भट और गौड़ मूल के लोग भी थे/हैं।
‘मध्यकाल’ की जातीय जड़ता में विश्वास करने वाले ऐसे तथ्यों को अनदेखा कर जाते हैं जो बताते हैं कि उज्जयिनी का महान शासक हर्षवर्धन बनिया था, अकबर को चुनौती देने वाला राजा हेमू बक्काल था। उसी रुढ़िबद्ध मध्यकाल में व्यापारजनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, और मज़दूर भी और आदिवासी गोंडो के स्तुति गायक भी जबकि तेलीवंश में जनमे मंत्री बन रहे थे, नाई घर के जनमे सेनापति, वर्णसंकर महामंत्री, वेश्यापुत्र राजा, हीनकुलोत्पन्न राजगुरु, जुलाहे राजकवि, और मल्लाह महामण्डलीक हो रहे थे। सन्यासी और व्यापारी भी महाजनी गतिविधियां चला रहे थे और आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रहे थे। अठाहरवीं सदी के आते-आते ब्राह्मण जाति के लोग सूरत जैसे शहरों की फ़ैक्ट्रियों में मज़दूर, और ईस्ट इंडिया कम्पनी की फ़ौज में सिपाही हो रहे थे।
(असल में तो ब्राह्मणों के इस काल्पनिक वर्चस्व को प्राचीन भारत में भी जगह नहीं थी। महाभारत में अष्टावक्र की प्रसिद्ध कथा आती है जो अपने पिता का बदला लेने जनक के दरबार में जाते हैं जहाँ बन्दी नामक एक विद्वान ने शास्त्रार्थ में उनके पिता और दूसरे कई ब्राह्मणों को हराकर ताल में डुबवा दिया था। यह महाविद्वान बन्दी, एक सूत है, यानी उसी जाति का, जिस जाति से आने वाले अधिरथ ने महारथी कर्ण का पालन-पोषण किया था। ब्राह्मणी वर्चस्व की प्राचीन सच्चाई का एक पहलू यह भी है।)
समझा जाय कि भारतीय समाज कोई गतिहीन, जड़ समाज नहीं था वह एक गतिशील, प्रगतिशील समाज था। भक्ति के लोकवृत्त से ब्राह्मण वर्चस्व को मिली चुनौती के चलते तत्कालीन भारत में वह परिघटना हुई जिसे कुछ विद्वान नौन कास्ट हिन्दूइज़्म कहते हैं। इस लोकवृत्त में कोरी व ब्राह्मण एक ही भगत रूप में पहचाने जाते थे। आप स्वयं सोचें कि रज्जब ,दादू, पीपा, रैदास, कबीर को आप जाति से पहचानते हैं या उनकी भगत वृत्ति से? पुरुषोत्तम जी चेताते हैं कि उस समय के समाज को समझने के लिए पेण्डुलम धर्म से निजात पानी होगी- या तो जाति पर ध्यान ही न देना या सिर्फ़ जाति पर ही ध्यान देना।
तथाकथित मध्यकाल में सामाजिक गतिशीलता की पड़ताल करते हुए वे पाते हैं कि जिस रूप में हम जानते हैं, उस रूप में जाति एक आधुनिक परिघटना है। इसका जन्म भारत और पश्चिमी औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक सम्पर्क के कारण हुआ। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारतीय जाति व्यवस्था का कोई नस्ली पहलू नहीं है। जातीय सवाल में अंग्रेज़ो ने अपनी नस्लवादी समझ जाति व्यवस्था पर थोप दी, उन्हे इसे दूसरी तौर से समझना न आया।
इस सवाल पर मैं शेल्डन पौलाक के एक लम्बे लेख पर इसी ब्लौग पर मैं लिख भी चुका हूँ। जाति व्यवस्था में नस्ल के आधार को सिद्ध करने के लिए २० वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण हुए और जिन के नतीजो ने सिरे से नस्ल की परिकल्पना को पूरी तरह से नकार दिया। जो चीज़ कभी थी ही नहीं पहले उसे आरोपित किया गया, फिर स्थापित किया गया, जिसके फलस्वरूप कुछ लोग मिथ्याभिमान और कुछ मिथ्याग्लानि के शिकार हुए। अम्बेडकर जैसे विद्वान की भी काफ़ी ऊर्जा, जातिवाद के नस्ली पहलू के इस मिथ को ध्वस्त करने में ज़ाया हुई।
अकथ प्रेम की कहानी कबीर के बहाने भारतीय समाज और परम्परा का पुनर्मूल्याकंन है। ऐसी मान्यताओं और विश्वासों पर पुनर्विचार करने के लिए आमंत्रण जिसे हम सच मानकर उस पर अपने सिद्धान्तों की इमारतें खड़ी कर चुके हैं। और उन सारे राजनीतिबाज़ों को चुनौती है जो इन खोखली मान्यताओं की नींव पर अपने निहित स्वार्थों की राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी की रोटी गरम कर रहे हैं।
इन तमाम सारे मुद्दे, जिन पर मैं ख़ुद भी व्यथित होता रहा हूँ, पुरुषोत्तम जी ने विस्तार से चर्चा की है और ठोस साक्ष्यों की मदद से अपनी बात को पुख़्ता तरह से रखा है। देसी परम्परा के स्रोत, संस्कृत साहित्य, हिन्दू धर्म के भीतर की साम्प्रदायिक परम्पराओं की गहरी छानबीन करके अपने पैने तर्कों, मेहनत से जुटाये गए साक्ष्यों और विभिन्न विद्वत परम्पराओं से लाए गए उद्धरणों, लोकगाथाओं और किंवदन्तियों के ज़रिये अपने निष्कर्षों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हैं। निश्चित ही इस किताब को लिखने में उनकी मेधा के साथ-साथ, पूरे जीवन भर की मेहनत लगी हुई है। उनको इस काम के लिए मैं बहुत बधाई देता हूँ।
स्वतंत्र रूप से हिन्दी में चिन्तन की विरल परम्परा है और इस तरह के काम का हिन्दी में बहुधा अकाल रहता है। मेरी उम्मीद है कि हिन्दी में स्वतंत्र चिंतन की परम्परा की उस विरल धारा को जिसे पुरुषोत्तम जी ने आगे बढ़ाया है, अब सघन होकर विकराल रूप धारण करे और पुरुषोत्तम जी के जो वैचारिक विरोधी हैं वो भी इतनी ही मूर्धन्यता और अनुशीलन के सहारे अपने समाज को समझने की तरफ़ आगे ठोस क़दम बढ़ाएं।
***