शनिवार, 27 नवंबर 2010

अकथ कहानी प्रेम की


क्या इस देश में प्रगति अंग्रेज़ों के साथ आई? क्या अंग्रेज़ों के आने से पहले इस देश में फ़ारसी व संस्कृत का ही वर्चस्व था? क्या देशभाषाओं को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में स्वीकारा जा सकता है? कबीर और तुकाराम अपने परिवेश की उपज थे या समय से पहले पैदा हो गए अनोखे प्राणी? और अगर वे उस रूढ़िबद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था में जकड़े समाज में इतने ही अनोखे थे तो एक बड़ी जनसंख्या के लिए पूज्य कैसे बन गए? क्या सारी की सारी देशज परम्परा एक साज़िश है? भारतीय समाज में सामाजिक वर्चस्व का स्रोत क्या रहा है, तलवार व पैसा या कर्मकाण्ड व रक्तशुद्धि?

मानवाधिकारों की कल्पना क्या इमैन्वल कांट के ही दिमाग़ की उपज थी और कबीर जो बोल-गा रहे थे, वो कोई और ही प्रलाप था? इस देश के आमजन इतने मिट्टी के माधो रहे हैं जो चतुर ब्राह्मणों की साज़िश का लगातार शिकार होते ही जाते हैं?

अपनी परम्परा और विरासत के प्रति थोड़े से भी सजग व्यक्ति को बेचैन कर देने वाले ये सवाल पूछते हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में। कबीर और उनके समय के सहारे इन सारे कठिन सवालों के जवाब तलाशते हुए पुरुषोत्तम जी की किताब महत्वपूर्ण हो जाती है न सिर्फ़ इसलिए कि उन्होने कबीर और उनके समय की एक नई विवेचना की है बल्कि और अधिक इसलिए कि उन्होने तत्कालीन और (समकालीन समाज भी) को देखने-समझने के लिए एक नई नज़र की प्रस्तावना की है।

और जो जवाब विकसित होते हैं वो बने-बनाए निष्कर्षों पर ‘आस्था’ रखने वाले, पोलिटिकली करेक्ट समझ का ही दामन पकड़ कर चलने वाले विद्वानों को बड़े दुष्कर मालूम दे सकते हैं क्योंकि किताब के निष्कर्ष माँग करते हैं कि आँखों पर चढ़े पूर्वाग्रहों और इतिहास की मोटी समझ के चश्मे को निकाल फेंका जाय और एक अधिक परिपक्व और महीन समझ विकसित की जाय।

‘अकथ कहानी प्रेम की’ में कबीर के जीवन, चिंतन, उनकी साधना, और उनके काल से संबधित सभी पहलुओं पर विशद चर्चाएं हैं। किताब में इस बात की भी विवेचना है कि कबीर के नाम से प्रचलित रचनाएं उन्ही की हैं या ब्राह्मणवादी एप्रोप्रिएशन की नीयत से उन पर आरोपित कर दी गई हैं? इस तरह के चिंतन की ख़बर ली गई है जो एक औफ़ीशियल पाठ अपना कर शेष प्रतिकूल पाठों को ख़ारिज़ करने की उस रोमन वृत्ति से चलता है जिसके तहत ईसा के शिष्यों के चालीस संस्मरणों में से चार को छोड़ बाक़ी को दबा दिया गया। इसी वृत्ति की अनुकृति वाली अपनी समझ से इतिहास की चयनित व्याख्या की बीमारी आज भी काफ़ी विद्वानों को अपनी चपेट में लिए हुए है।

फिर पुरुषोत्तम जी कबीर, रैदास, सेन नाई, धन्ना जाट, और पीपा के गुरु माने जाने वाले रामानन्द की ऐतिहासिक गुत्थी को भी सुलझाने में भी वे कुछ दिलचस्प बातें सामने लाते हैं। ‘जात पाँत पूछे नहिं की, हरि को भजे सो हरि को होई’ की घोषणा करने वाले रामानन्द वाक़ई कबीर के गुरु थे भी या उन्हे सिर्फ़ ब्राह्मणवादियों ने कबीर और उनकी मेधावी परम्परा पर अधिकार करने की नीयत से रामानन्द का आविष्कार कर लिया? इस मामले में जो पारम्परिक मान्यता को आधुनिक और आधुनिक निर्मिति को पारम्परिक मानने की उलटबाँसी चली है उसको पुरुषोत्तम जी रामानन्दी और रामानुजी सम्प्रदाय की जातीय सरंचना और उनके आपसी रिश्तों के इतिहास के ज़रिये सीधा और अर्थवान करते हैं।

कबीर की साधना किस तरह से धर्मसत्ता की सुरक्षा के बदले विवेक की सौदेबाज़ी को सीधे चुनौती दे रही थी, और किसी नए धर्म की स्थापना नहीं बल्कि धर्म मात्र की आलोचना कर रही थी, ‘अकथ कहानी प्रेम की’ इस का भी तार्किक उद्‌घाटन करते हैं। बहुत आगे जाकर मार्क्स श्रम की जिस आध्यात्मिक एकता के ज़रिये मनुष्य की मुक्ति की चर्चा करते हैं, उसी श्रम और अध्यात्म के परस्पर संबंध से मुक्ति की सहज साधना कबीर कैसे कर रहे थे, और उसे गाकर बता भी रहे थे, यह भी स्थापित करते हैं।

मगर मुझे अपने सरोकारों की नज़र से, सबसे महत्वपूर्ण उनका दूसरा अध्याय मालूम दिया जिसमें वे देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त की चर्चा करते हैं। आज तक आम धारणा यह है कि आधुनिकता के नाम से जिस व्यक्तिसत्ता की मान्यता, विवेकपूर्णता, और सहिष्णुता के मूल्यबोध की पहचान की जाती है, उसका जन्म योरोप में हुआ और भारत समेत सम्पूर्ण विश्व को वो योरोप की ही देन है। लेकिन इस बात को कम ग़ौर किया गया है कि भारतभूमि मे पन्द्रहवीं सदी में कबीर अपने कविता और साधना के ज़रिये व्यक्ति, समाज, और ब्रह्माण्ड के परस्पर संबन्धों की नई समझ विकसित कर रहे थे और बड़ी संख्या में शिष्य और अनुयायी उनकी चेतना का अनुसरण कर रहे थे; सभी जाति के लोग जाति के पार जाकर साधु और भगत के रूप में पहचाने जा रहे थे; न सिर्फ़ कबीर, नामदेव और रैदास अपनी आधुनिकता को अभिव्यक्ति दे रहे थे बल्कि समाज में उन्हे माना-पूजा जा रहे थे। तो इन्ही के बुनियाद पर पुरुषोत्तम जी सवाल करते हैं कबीर का काल आधुनिक क्यों नहीं था?

१५ वीं सदी में व्यापार के विस्तार, मानवकेन्द्रित चिन्ता, और चर्च के प्रति असंतोष के उदय के आधार पर ही योरोप आधुनिक होने का दावा करता है, हालांकि योरोपीय आधुनिकता के सबसे पहले पैरोकार मार्टिन लूथर, यहूदियों को नदी में डुबा देने की भी बात भी अपने आधुनिक सुर में करते जाते हैं। तो उस से कहीं अधिक विकसित चेतना और मूल्य बोध के होने के बावजूद कबीर और उनका काल माध्यकालिक क्यों कहलाता है?

इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ है जाति का प्रश्न। कबीर के समय को मध्यकाल में गिनते हुए हम मानते रहे हैं कि भारतीय समाज ब्राह्मणों के द्वारा वर्णाश्रम की बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक स्थिर और रूढ़िबद्ध समाज रहता आया है जिसमें ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर बैठकर समाज के हर नियम को बनाता और लागू करता आया है। पुरुषोत्तम जी ऐसी किसी भी धारणा को ब्राह्मणों की फ़ैन्टेसी को सच्चाई मान लेने की भूल बताते हैं। क्योंकि व्यापार का विस्तार होने से दस्तकारी से जुड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ रहा था और वर्णाश्रम व्यवस्था अप्रासंगिक हो रही थी।

मनुस्मृति को मध्यकालीन समाज का अन्तिम विधान मानने वाले विवाद रत्नाकर जैसे ग्रंथ को भूल जाते हैं जिसमें ब्राह्मण की अवध्यता पर इतनी शर्तें लगाई गई हैं कि किसी अपराधी ब्राह्मण का अवध्य होना असंभव हो जाय। मनुमहिमा का तो पुनरोदय हुआ वारेन हेस्टिंगज़ की कृपा से बने ग्यारह ब्राह्मणों की कमेटी के ज़रिये जब उन्होने हिन्दू ला के लिए बीस स्मृतियों में से बस एक मनुस्मृति को छाँटकर बस उसीका खूंटा पकड़ लिया। जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता बहुत पहले पीछे छोड़ आई थी उसे वापस हिन्दुओं की ‘दि बुक’ बना दिया गया और हमारे समाज की बहुवचनात्मकता को केन्द्रीकृत शास्त्रीयता में बदलने का उपक्रम किया गया।

और यह उपक्रम काफ़ी सफल भी रहा है, आज की तारीख़ में मनुस्मृति ही भारतीय परम्परा का पारिभाषिक ग्रंथ बन चुका है। जबकि अत्रिस्मृति जैसे ग्रंथ की कहीं चर्चा भी नहीं है जिसमें ब्राह्मणों की द्स कोटियों में शूद्र ब्राह्मण, म्लेच्छ ब्राह्मण, चांडाल और निषाद ब्राह्मण भी शामिल हैं, और आदिवासी पुरोहितों को भी ब्राह्मण जाति की निचली पायदान में जगह मिल चुकी थी। यह बताता है कि जाति व्यवस्था में ‘नीचे’ से ‘ऊपर’ जाने की सम्भावना बनी रहती आई है और ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ की भी क्योंकि पुरुषोत्तम जी बताते हैं कि तमाम जुलाहों के गोत्रों से पता चलता है कि उनमें वैश्य, तोमर, भट और गौड़ मूल के लोग भी थे/हैं।

‘मध्यकाल’ की जातीय जड़ता में विश्वास करने वाले ऐसे तथ्यों को अनदेखा कर जाते हैं जो बताते हैं कि उज्जयिनी का महान शासक हर्षवर्धन बनिया था, अकबर को चुनौती देने वाला राजा हेमू बक्काल था। उसी रुढ़िबद्ध मध्यकाल में व्यापारजनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, और मज़दूर भी और आदिवासी गोंडो के स्तुति गायक भी जबकि तेलीवंश में जनमे मंत्री बन रहे थे, नाई घर के जनमे सेनापति, वर्णसंकर महामंत्री, वेश्यापुत्र राजा, हीनकुलोत्पन्न राजगुरु, जुलाहे राजकवि, और मल्लाह महामण्डलीक हो रहे थे। सन्यासी और व्यापारी भी महाजनी गतिविधियां चला रहे थे और आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रहे थे। अठाहरवीं सदी के आते-आते ब्राह्मण जाति के लोग सूरत जैसे शहरों की फ़ैक्ट्रियों में मज़दूर, और ईस्ट इंडिया कम्पनी की फ़ौज में सिपाही हो रहे थे।

(असल में तो ब्राह्मणों के इस काल्पनिक वर्चस्व को प्राचीन भारत में भी जगह नहीं थी। महाभारत में अष्टावक्र की प्रसिद्ध कथा आती है जो अपने पिता का बदला लेने जनक के दरबार में जाते हैं जहाँ बन्दी नामक एक विद्वान ने शास्त्रार्थ में उनके पिता और दूसरे कई ब्राह्मणों को हराकर ताल में डुबवा दिया था। यह महाविद्वान बन्दी, एक सूत है, यानी उसी जाति का, जिस जाति से आने वाले अधिरथ ने महारथी कर्ण का पालन-पोषण किया था। ब्राह्मणी वर्चस्व की प्राचीन सच्चाई का एक पहलू यह भी है।)

समझा जाय कि भारतीय समाज कोई गतिहीन, जड़ समाज नहीं था वह एक गतिशील, प्रगतिशील समाज था। भक्ति के लोकवृत्त से ब्राह्मण वर्चस्व को मिली चुनौती के चलते तत्कालीन भारत में वह परिघटना हुई जिसे कुछ विद्वान नौन कास्ट हिन्दूइज़्म कहते हैं। इस लोकवृत्त में कोरी व ब्राह्मण एक ही भगत रूप में पहचाने जाते थे। आप स्वयं सोचें कि रज्जब ,दादू, पीपा, रैदास, कबीर को आप जाति से पहचानते हैं या उनकी भगत वृत्ति से? पुरुषोत्तम जी चेताते हैं कि उस समय के समाज को समझने के लिए पेण्डुलम धर्म से निजात पानी होगी- या तो जाति पर ध्यान ही न देना या सिर्फ़ जाति पर ही ध्यान देना।

तथाकथित मध्यकाल में सामाजिक गतिशीलता की पड़ताल करते हुए वे पाते हैं कि जिस रूप में हम जानते हैं, उस रूप में जाति एक आधुनिक परिघटना है। इसका जन्म भारत और पश्चिमी औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक सम्पर्क के कारण हुआ। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारतीय जाति व्यवस्था का कोई नस्ली पहलू नहीं है। जातीय सवाल में अंग्रेज़ो ने अपनी नस्लवादी समझ जाति व्यवस्था पर थोप दी, उन्हे इसे दूसरी तौर से समझना न आया।

इस सवाल पर मैं शेल्डन पौलाक के एक लम्बे लेख पर इसी ब्लौग पर मैं लिख भी चुका हूँ। जाति व्यवस्था में नस्ल के आधार को सिद्ध करने के लिए २० वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण हुए और जिन के नतीजो ने सिरे से नस्ल की परिकल्पना को पूरी तरह से नकार दिया। जो चीज़ कभी थी ही नहीं पहले उसे आरोपित किया गया, फिर स्थापित किया गया, जिसके फलस्वरूप कुछ लोग मिथ्याभिमान और कुछ मिथ्याग्लानि के शिकार हुए। अम्बेडकर जैसे विद्वान की भी काफ़ी ऊर्जा, जातिवाद के नस्ली पहलू के इस मिथ को ध्वस्त करने में ज़ाया हुई।

अकथ प्रेम की कहानी कबीर के बहाने भारतीय समाज और परम्परा का पुनर्मूल्याकंन है। ऐसी मान्यताओं और विश्वासों पर पुनर्विचार करने के लिए आमंत्रण जिसे हम सच मानकर उस पर अपने सिद्धान्तों की इमारतें खड़ी कर चुके हैं। और उन सारे राजनीतिबाज़ों को चुनौती है जो इन खोखली मान्यताओं की नींव पर अपने निहित स्वार्थों की राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी की रोटी गरम कर रहे हैं।

इन तमाम सारे मुद्दे, जिन पर मैं ख़ुद भी व्यथित होता रहा हूँ, पुरुषोत्तम जी ने विस्तार से चर्चा की है और ठोस साक्ष्यों की मदद से अपनी बात को पुख़्ता तरह से रखा है। देसी परम्परा के स्रोत, संस्कृत साहित्य, हिन्दू धर्म के भीतर की साम्प्रदायिक परम्पराओं की गहरी छानबीन करके अपने पैने तर्कों, मेहनत से जुटाये गए साक्ष्यों और विभिन्न विद्वत परम्पराओं से लाए गए उद्धरणों, लोकगाथाओं और किंवदन्तियों के ज़रिये अपने निष्कर्षों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हैं। निश्चित ही इस किताब को लिखने में उनकी मेधा के साथ-साथ, पूरे जीवन भर की मेहनत लगी हुई है। उनको इस काम के लिए मैं बहुत बधाई देता हूँ।

स्वतंत्र रूप से हिन्दी में चिन्तन की विरल परम्परा है और इस तरह के काम का हिन्दी में बहुधा अकाल रहता है। मेरी उम्मीद है कि हिन्दी में स्वतंत्र चिंतन की परम्परा की उस विरल धारा को जिसे पुरुषोत्तम जी ने आगे बढ़ाया है, अब सघन होकर विकराल रूप धारण करे और पुरुषोत्तम जी के जो वैचारिक विरोधी हैं वो भी इतनी ही मूर्धन्यता और अनुशीलन के सहारे अपने समाज को समझने की तरफ़ आगे ठोस क़दम बढ़ाएं।

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रविवार, 21 नवंबर 2010

गीत का सिमसिमी जादू


पिछले दिनों गीत चतुर्वेदी का दूसरा कहानी संग्रह ‘पिंक स्लिप डैडी’ प्रकाशित हुआ। संग्रह में तीन लम्बी कहानियां हैं और तीनों ही महानगरीय जीवन के संकटों के आख्यान हैं। पहली कहानी गोमूत्र एक निम्नमध्यमवर्गीय दृष्टिकोण से कर्ज़ आधारित अर्थव्यवस्था में वैयक्तिक व्यथाओं की कथा है। किताब की आख़िरी कहानी ‘पिंक स्लिप डैडी’ मंदी के दौर में एक कौरपोरेट संरचना के भीतर से उसकी जटिलताओं का अक्स मानवीय आईने में दिखलाती कहानी है। हालांकि २००९ में लिखी इस कहानी का मूलाधार २००९ में ही प्रदर्शित अमरीकी फ़िल्म ‘अप इन दि एअर’ से कुछ मिलता है मगर गीत की कहानी में अपनी क़िस्म की परते हैं।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘सिमसिम’, ज़िन्दगी की शुरुआत करते एक नौजवान और ज़िन्दगी की अंत पर खड़े मगर अपनी ज़िन्दगी की शुरुआती स्मृतियों में उलझे और तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी सम्बन्ध की कहानी होने से अधिक उस छवि की कहानी है जो इन दोनों चरित्रों को एक साथ रखने से बनती है। इस कहानी में किसी फ़िल्म की पटकथा जैसी बुनावट और गति है। वैसा ही कहानी के वातावरण का स्पन्दन पाठक अपने रोमों, पोरों में महसूस कर सकता है, जैसा अनुभव फ़िल्म देखते हुए होता है। और आधुनिक सार्थक फ़िल्मों ने जिस तरह की पुरातन क़िस्सागोई से दुश्मनी ले रखी है, वो यहाँ भी मौजूद है।

मेरी समझ में शिल्प की दृष्टि से गीत की यह कहानी बड़ी अनोखी और बेजोड़ है। गीत की काव्य प्रतिभा भी इस कहानी में सबसे अधिक उभर कर आती है। ऐसा लगता है कि गीत भी मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की तरह कविता और उपन्यास (या लम्बी कहानी) में कोई मौलिक फ़र्क़ नहीं मानते। विनोद जी ने एक जगह कहा है, “उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है।”

गीत की कहानियों में विचारों की, अनुभवों की ख़ूब चहलक़दमियाँ हैं। उनके पास कहने को बहुत कुछ है। किसी सामान्य सी रोज़मर्रा की भी घटना में वे बहुत कुछ देख लेते हैं। गीत अपने चरित्रों को बख़ूबी जानते हैं, उनके अनुभवों को बारी़कियों से पहचानते हैं। उनके परिवेश और सामाजिक दबावों को समझते हैं और देश-दुनिया की राजनैतिक-आर्थिक सच्चाईयों से उनके तार कैसे जुड़ते हैं, इसकी समझदारी भी रखते हैं गीत। और अपनी बेहद समृद्ध भाषा के मार्फ़त उनके अनुभवों और उनके मनोजगत के मर्म को व्यक्त करने में वे माहिर हैं।

किताब का कहीं से भी खोलकर पढ़ना शुरु कर दीजिये, आप को ख़ुले हुए दो पन्नों के बीच ही ऐसा कोई टुकड़ा मिल जाएगा जो आपके द्वार जिये हुए यथार्थ को ही, पहचाने हुए अनुभव को एक नई नज़र से दिखाता हो। कोई चकित करने वाली बात ज़रूर मिल जाएगी उन दो पन्नों के बीच। यह गीत की ताक़त है। गीत की एक और ताक़त किसी भी सामान्य घटना को उसकी सम्भावना की भौतिक सीमाओं के पार खींच ले जाकर उसके अन्तरविरोध को उभारने में भी है, जिसे आम तौर पर जादुई यथार्थवाद के नाम से बताया जाता है।

गीत वैचारिक रूप से बहुत सचेत हैं। जिस दुनिया में वे रह रहे हैं, जिस की कहानियाँ वे रच रहे हैं उसकी तमाम जानकारियाँ उनके पास है। और उस दुनिया के प्रति उनके सरोकार भी बहुत विकसित हैं, साथ ही उनके कलात्मक सरोकार भी। अपने शिल्प के प्रति भी वे बेहद सचेत हैं, ऐसा मालूम देता है। उनकी कहानियों में कोई तत्व यूँ ही ऊँघता हुआ, किसी बेहोशी में चला आया है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उनकी कहानी में सब कुछ सायास है, सोचा-समझा है।

लेकिन उनमें अजीब तरह का कुछ अनगढ़पन भी है। एक पाठक की तरह उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे लगा कि कुछ बातों का अनावश्यक विस्तार है और कुछ चीज़ें जिन पर मैं और व़क्त गुज़ारने को तैयार था वो सूत्र गीत ने जल्दबाज़ी में निपटा दिये। लेकिन यह तो लेखक स्वयं ही तय करेगा कि किस तत्व को विस्तार कितना विस्तार देगा, और उसके पास तर्क भी होंगे इस चुनाव के पीछे। फिर भी पाठक शिकायत करने का तो हक़ रखता है।

मैं जानता हूँ कि उनकी कहानी की आलोचना करते हुए मैं साहित्य व कला के तमाम नए-पुराने आन्दोलनों से अपरिचित हूँ, सम्भवतः उनसे भी जिनको ध्यान में रखते हुए उन्होने अपने शिल्पगत चुनाव किए हैं, फिर भी एक पाठक के तौर पर मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कहने का अवसर ले रहा हूँ कि उनकी कहानी में अगर कोई कमज़ोरी है तो वह ये कि उसमें क़िस्सागोई का अभाव है।

गीत की कहानी कोई संस्पेंस कथाएं नहीं है। और सच बात तो ये है कि संस्पेंस कथा कभी सस्पेंस कथा नहीं होती। उसकी कहानी का ढांचा पहले से तय होता है। सिर्फ़ एक तत्व, एक तथ्य पाठक से छिपा लिया जाता है। और पाठक इस ढांचे में बड़े सुकून से बेचैन रहता है। जबकि जिस तरह की कहानियाँ गीत लिख रहे हैं वो पाठकों को वाक़ई में बेचैन कर सकती हैं क्योंकि वे न तो अपनी कहानी की दिशा की कोई पूर्वसूचना पाठक को देते हैं या कहानी को रोचक बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश करते हैं जैसे कि पुराने क़िस्सागो करते रहे हैं। और शायद इसी कारण से या किसी और कारण से पढ़ने वालों को लग सकता है कि वे चरित्रों से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रहे या रस की सृष्टि में कुछ कमी रह गई।

इन के बावजूद गीत एक बहुत प्रतिभासम्पन्न लेखक हैं। वे युवा हैं और अभी तो यह शुरुआत है, आगे वे क्या और कैसे गुल खिलायेंगे इसे देखने की प्रतीक्षा है मुझे। और सच बात तो यह है कि उनकी प्रतिभा और महत्व का असली आकलन तो उनके बाद वाली पीढ़ी ही करेगी, जैसा कि हमेशा होता आया है।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

सोशल नेटवर्क

नया करने वाला हर व्यक्ति किसी आदर्श व्यक्तित्व का स्वामी, किसी उच्च चेतना और नैतिकता का वाहक नहीं होता। वे तो बस अपने ज़रिये अपने समय को बेलाग-बेलौस अभिव्यक्त कर रहे होते हैं। पुराने ढाँचे में नए की अभिव्यक्ति सहज सरल रूप से ही हो जाय यह हमेशा सम्भव नहीं होता। नया अक्सर वह पुराने ढाँचे को ढहा कर, उस की बाँस-बल्लियां हिला कर ही पैदा होता है। और इसीलिए वह अवैध और अनैतिक बताया जाता है। सोशल नेटवर्क में भी मूल सवाल यही है- मार्क ज़करबर्ग क्या एक अपराधी है? क्या उसने झूठ बोला है, चोरी की है, धोखा दिया है?

हाँ यह ठीक है कि मार्क 'दिए गए' मानकों पर अपराधी नज़र आता है लेकिन अगर वह समाज की स्थापित नैतिकता के अनुसार ही चलने लगता तो शायद कभी भी फ़ेसबुक को वो शकल नहीं दे पाता जो आज है। उसने व्यक्तियों और दिये गए विधान के बदले, अपने और अपने आविष्कार के प्रति निष्ठावान होने का चुनाव किया; जो अमानवीय नज़र आता है पर हर आविष्कारी की मौलिक पहचान होता है।आविष्कार मानवता के हित में, प्रगति के हित में होते हैं जबकि नैतिकता सिर्फ़ व्यवस्था को बनाए रखने के हित में।

समाज में तमाम ज़रूरते, पहले से तैयार तंत्रों की सीमाओं से परे होती हैं। व्यवस्था के पहले से तैयार ढाँचा उस ज़रूरत को पूरा कर पाने में असमर्थ होता है। और व्यवस्था ने उस ज़रूरत का इष्टतम इस्तेमाल करने के लिए और अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसे क़ानून बना लिए होते हैं कि किसी भी और तरीक़े से उसकी पूर्ति अवैध कहलाई जाये। जैसे क़ानूनी तौर पर किसी भी किताब को फोटोकौपी करना अपराध है, किसी भी डीवीडी को क़िराये पर देना अपराध है। इन्टरनेट से संगीत डाउनलोड करना अपराध है, फ़िल्में शेअर करना अपराध है।

लेकिन चौतरफ़ा हो रहे बदलावों की समसामयिकता या कहें कि ऐतिहासिक परिस्थितियां ऐसी पकती हैं कि ई-मेल, नैपस्टर, बिट-टौरेन्ट, यू-ट्यूब, और फ़ेसबुक जैसे आविष्कार होते हैं। इन्हे आविष्कार करने वाले सामान्य व्यक्ति नहीं थे लेकिन उन्हे किसी महान मेधा के मालिक समझना भी भूल होगी। उन्होने बस समय की गति को पहचाना और अपने आप को उसमें बहने दिया। अगर वो उन आविष्कार को अंजाम नहीं देते तो छह-आठ महीनों में ही कोई और नौजवान वैसे या उस जैसे किसी और आविष्कार को पेश कर देता।

सोशल नेटवर्क की सबसे सफल बात यही है कि वह तमाम गहरी बातों को बिना बहुत गम्भीर हुए, एक ज़बरदस्त गति और दिलचस्पी बनाए रखते हुए कह ले जाती है। फ़िल्म का आख़िरी दृश्य मार्क ज़करबर्ग की विडम्बना को एक छवि में समेट लेता है- अपने ही द्वारा आविष्कृत फ़ेसबुक में मार्क अपनी भूतपूर्व प्रेमिका से दोस्ती की स्वीकृति का इन्तज़ार करता हुआ उतना ही निरीह है जितना कि कोई भी दूसरा टीनेजर होगा।

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

वामपंथी सच्चाई - मरोड़ी हुई


मैं एक लम्बे समय तक वामपंथी विचारधारा से प्रभावित रहा हूँ। आज भी मेरे मूल आग्रह वामपंथ से बहुत अलग नहीं है। लेकिन पिछले कुछ सालों से मैं धीरे-धीरे वामपंथ के तौर-तरीक़ों को लेकर बहुत पकता रहता हूँ। और मैंने पाया है कि विचारधारा के नाम पर ये आग्रह अपने विरोधियों के चोले में ढलते जा रहे हैं। जैसे अभी हाल की अरुंधती वाले मसले की मिसाल लीजिये- जिसमें अरुंधती के कश्मीर पर उनके कुख्यात बयान के बाद भाजपा के एक दल ने अरुंधती के घर पर ‘हमला’ किया।

मैंने इसकी रपट टीवी पर देखी थी। बाद में मेरे मित्रों ने फ़ेसबुक और ब्लौग्स पर इस घटना को दक्षिणपंथी गुण्डों द्वारा किए हमले की संज्ञा देते हुए इस लोकतंत्र पर हमला, फ़ासीवाद, और न जाने क्या-क्या बताया। फिर अरुंधती की चिठ्ठी देखी जिसमें उन्होने भी घर का गेट तोड़कर तोड़फोड़ की बात कही, हालांकि उन्होने ख़ुद स्वीकारा कि वे उस वक़्त घर पर नहीं थी। अभी देखता हूँ कि अरुंधती ने न्यूयौर्क टाइम्स में एक लेख में इस घटना का उल्लेख किया है और उन्होने वहाँ इसे हमले की नहीं, एक प्रदर्शन की संज्ञा दी है।

भाजपा का एक दंगाई इतिहास है (है तो वैसे कांग्रेस का भी, और तमाम दूसरी पार्टियों का भी) और जिसके लिए मैं उनका कड़ा विरोधी भी हूँ। लेकिन उनके विरोधी होने भर से मैं उनकी अभिव्यक्ति का भी विरोध करना उचित नहीं समझता। अगर हम अरुंधती और दूसरे वामपंथियों की अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए उत्सुक होते हैं तो अपने विरोधियों की अभिव्यक्ति को सहन करने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिये। न कि उनके बोलने के पहले ही –इसने मुझे गाली दी, मुझे मारा- का आरोप लगाने चाहिये। जैसा कि इस मामले में हुआ।

संयोग से चाणक्यपुरी स्थित अरुंधती के पति प्रदीप क्रिशन के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे द्वारा इस प्रदर्शन के इस तथाकथित हमले से आभासी जगत पर मची हलचल से पहले मैंने इसकी रपट टीवी पर देखी थी। मैंने देखा कि तक़रीबन सौ औरतें एक बड़े से घर के बड़े से गेट के आगे नारे लगा रही हैं। उनमें से एक औरत एक गमले को उठाकर उसे पटकने का उपक्रम करती है, एक दूसरी औरत उसे रोकती है, पहली उस गमले को वापस जा कर रख देती है। फिर भी कुछ गमले ज़रूर टूटे लेकिन न तो उन्होने किसी पर हमला किया न कोई मारपीट। यहाँ पर दिये वीडियो से साफ़ पता चलता है कि विरोध करने वाली महिलाएं दक्षिणपंथी विचारधारा की ज़रूर थीं मगर हूलिगन या गुण्डी नहीं थीं। उनका विरोध भी टीवी कैमरों के लाभार्थ अधिक है, ऐसा भी साफ़ दिख रहा है।

लेकिन मेरे वामपंथी उदारवादी मित्रों ने इस दक्षिणपंथी गुण्डों का हमला बताया? उनसे ये चूक कैसे हुई? क्या वे वास्तविकता का सही आकलन करने में असमर्थ हैं? ये कैसी असमर्थता है जिसमें पत्थर फेंकने वाली भीड़ अहिंसक कहलाती है और नारे लगाकर प्रदर्शन करने वाली भीड़ हमलावर?

या वे जानबूझ कर अपने पक्ष को मज़बूत करने के लिए अपने विरोधियों की हर हरकत को एक आपराधिक रंगत देने की नीति में यक़ीन रखते हैं? क्या यही मानसिकता दो विरोधी पक्षों के बीच साम्प्रदायिक दंगे जैसी तनाव की स्थिति में भारी जानमाल की क्षति का कारण नहीं बनती है? साम्प्रदायिकता का प्राणपन से विरोध करने वाले मेरे वामपंथी मित्र सच्चाई को अपनी सहूलियत के अनुसार मरोड़ने, और उस मरोड़ी हुई सच्चाई का ऊँचे स्वर से प्रचार करने की दंगाई मानसिकता से कैसे ग्रस्त हो रहे हैं, यह मेरे लिए गम्भीर चिंता का विषय है।


बुधवार, 10 नवंबर 2010

गांधीदर्शन

गांधी जी राष्ट्रपिता हैं। हमें बताया जाता है कि वे सत्य, अहिंसा और नैतिकता की प्रतिमूर्ति थे और उन्होने आज़ादी का आन्दोलन का नेतृत्व कर देशवासियों को आज़ादी दिलवाई।

मैं उपरोक्त बातों को हलवा समझ कर हज़म नहीं कर पाता। गांधीजी असफल रहे- इस बात को स्वीकार करने में किसी को क्या परेशानी हो सकती है? आज़ादी मिलते ही उनके पट्टशिष्य़ नेहरू जी तक ने उनके बताये रास्ते ग्रामस्वराज का रास्ता छोड़कर अपने 'सपनों के भारत' को लागू करना शुरु कर दिया। चंद मुट्ठी भर आदर्शवादियों के अलावा लगभग सभी ने सत्य, अहिंसा और खादी का आश्रय छोड़कर भ्रष्ट भौतिक जीवन के पीछे भागना शुरु कर दिया। क्या इस से पता नहीं चलता है कि गांधीजी की वास्तविक अपील कितनी सीमित थी।

गांधीजी सत्यवादी और अहिंसक थे लेकिन उदार नहीं थे। हठी थे। अपनी बात मनवाने और के लिए किसी भी हद तक जाते थे। सुभाषचन्द्र बोस वाला प्रकरण सभी को मालूम ही है जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष की तरह उनके कार्यकाल को गांधीजी ने इतना मुश्किल बना दिया कि सुभाषचन्द्र बोस को इस्तीफ़ा देना पड़ा। और उनका आमरण अनशन भी एक तरह का हठ तो है ही साथ ही एक नज़रिये से हिंसा भी है। हिंसक आदमी अपनी बात मनवाने के लिए दूसरे के गले पे चाकू रखता है- मेरी बात मानो वरना मार दूँगा। गांधीजी पलटकर चाकू अपने गले पर रख लेते थे- मेरी बात मानो वरना मर जाऊँगा; बेचारे भले लोग हारकर मान जाते थे।

उनके आन्दोलन में अहिंसा के महत्व को मैं नकार नहीं रहा हूँ। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के अनशन करके नैतिक दबाव बनाने वाले वो कोई अकेले ऐतिहासिक व्यक्ति थे। इतिहास पढ़ने वाले जानते हैं कि मुग़ल शासन के अवनति के वर्षों में जब उनके पास सिपाहियों को उनका वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं होते थे तो ऐसे एक मौक़े पर मुग़ल बादशाह आलमगीर दोयम ने भी भूख हड़ताल की थी ताकि इमादुलमुल्क द्वारा  जनता पर लगाये गए मनमाने कर को वापस लिया जाय। मेरा गांधीजी के अहिंसक हठ से कोई ऐतराज़ न होता अगर वे इसके ज़रिये कोई वास्तविक सामाजिक बदलाव ले आते- लेकिन क्या वे कुछ भी बदल सके लोगों में? 

उनके त्यागपूर्ण जीवन की हमारे आज के जीवन में कितनी उपयोगिता है? जबकि अब गांधीदर्शन का मतलब करेन्सी नोटों पर छपे उनके हँसते हुए मुखड़े का दर्शन ही बनता है? हमारा राष्ट्रीय ध्वज भी, जिसे पहले खादी का ही होने की बात थी, खादी का छोड़ अन्य सभी तरह के कपड़ों का होता है?

गांधीजी का ग्रामस्वराज क्या अम्बेडकर को स्वीकार था या आज के दलितों को स्वीकार होगा जिसमें जातीय रिश्तों में बदलाव के लिए कोई जगह नहीं बनती है?

क्या आज़ादी वास्तव में गांधीजी के नेतृत्व का परिणाम थी? या विश्वयुद्ध से पस्त हो चुके साम्राज्यवादियों के द्वारा हड़बड़ी में सौंपी गई ज़िम्मेदारी?

गांधीजी एक प्रेरक पुरुष थे, महात्मा थे- इस से कोई इन्कार नहीं कर सकता।  ओबामा और उनसे पहले मार्टिनलूथर किंग भी उनसे प्रेरणा लेते रहे हैं। लेकिन अफ़्रीकी-अमरीकी नागरिकों की आज़ादी में उनकी इससे अधिक कोई भूमिका नहीं देखी जा सकती। उसके केन्द्र में ऐतिहासिक कारण थे।

राजनीति में नैतिकता की एक जगह होनी चाहिये, लेकिन वो भी 'चाहिये' के दायरे में ही है। रियलपौलिटिक में चीज़े नैतिकता से तय नहीं होती। नैतिक दबाव हो या न हो, चीज़ों को बदलने वाली शक्तियाँ उन्हे एक निश्चित दिशा में लेके जाती हैं।

गांधीजी गाली के योग्य क़तई नहीं है लेकिन उन्हे भगवान भी न बनाया जाय!


(फ़ेसबुक पर एक बहस के दौरान उपजे विचार)
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