रविवार, 29 सितंबर 2013

संगीत विचारशील नहीं होता

संगीत भावशील होता है। 

संगीत बुद्धि का निषेध करता है। जब तक संगीत चलता है। और आप बह गए तो बुद्धि के हाथ-पैर नहीं चलते। संगीत बांध देता है। रोक देता है। बुद्धि की कैंची की दोनों धारें जुड़ जाती हैं। एक हो जाती है। 


संगीत से एका क़ायम हो जाता है। सांस और धड़कन का। लय और ताल का। मन और तन का। जीव और ईश्वर का। 

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शनिवार, 28 सितंबर 2013

दबने वाला हीन नहीं

दबने वाला हीन मनुष्य हो चाहे न हो, दबाने वाला ही हमेशा कमतर मनुष्य होता है। 

दबाने वाले की हिंसा से प्रभावित होकर जब भी दबने वाला प्रतिहिंसा करता है, वो भी अपनी उच्चता खो बैठता है। 

जिसने हिंसा के जवाब में पलटकर वार नहीं किया, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। जिसमें सबर है, धीरज है, करुणा है।

वो भय ही है जो हमें हिंसा के लिए दूसरों को दबाने पर मजबूर करता है। जो अपने भय से संचालित नहीं, जो निर्भय है वही बेहतर मनुष्य है। 

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गुरुवार, 26 सितंबर 2013

अहंकारहीन क्षणों में ही वो मिलता है


अंधकार में मिलता है। अकेले मिलता है। 

कोई साथ जा ही नहीं सकता। आप ख़ुद भी नहीं जा सकते।
ख़ुदी छोड़कर जाना पड़ता है। बेख़ुदी में मिलता है।

वहाँ बस वही मिलता है।


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मंगलवार, 24 सितंबर 2013

हमें पता ही नहीं हम किस आयतन में है!

हमें पता ही नहीं हम किस आयतन में है! 

हमारा शरीर स्वयं एक आयतन है। अद्भुत संरचना है शरीर। अन्य जानवरों और पेड़-पौधों की भी संरचना हमसे मिलती जुलती है। पर हमारी संरचना जटिलतम है। हमसे मिलते जुलते प्राइमेट्स भी हमारी बराबरी नहीं कर सकते। अनोखा आयतन है हमारा। पर हमसे बाहर जो आयतन है- ये वातावरण। ये हवा, मिट्टी, पानी, आग। ये सब कुछ हमारे आगे कुछ नहीं। जड़ है। हमारे हाथ के खिलौने हैं ये। हम जैसे मनचाहे इसका इस्तेमाल करते हैं। हमारी बुद्धि और चेतना का कोई जवाब ही नहीं। 

बाहर के आयतन को अभी बुद्धि कुछ समझने लगी है। दूरबीन लगाकर हमने देखा है कि बाहर का जगत भी एक जटिल संरचना है। पर हमारा विश्वास है कि वो एक जड़ संरचना है। जीवनहीन संरचना। उसमें न तो बुद्धि है और न चेतना। और न ही कोई अहंकार। हम जानते हैं कि पृथ्वी का कोई अहम नहीं। सौर मण्डल का कोई अहम नहीं। नक्षत्रों का कोई अहम नहीं। उनके अहम को नकारना हमारा वहम भी हो सकता है।

हमारे शरीर के भीतर करोड़ों कीड़े रहते हैं। सबसे अधिक आंत में। वे आंत में ही पैदा होते हैं। आंत में ही मर जाते हैं। उनके लिए पेट ही सारा संसार है। जो खाना हम पेट में डालते हैं, वही उन तक पहुँचता है। पर उनका भी एक अहम होता है। एक भीतर-बाहर की दुनिया होती है। जिसमें एक उनका शरीर होता है। उनके जैसे कुछ और शरीर। और कुछ पदार्थ जो भोजन है। और आंत को वो आयतन जिसमें ये सब कुछ उपस्थित है। 

उस कीड़े को नहीं मालूम कि आंत एक बड़े आयतन का अंग है। एक बड़े अहम का अंग है। जिसे हम अपना शरीर कहते हैं।  उस कीड़े का ज़रा भी नहीं मालूम कि बाहर एकदम अलग दुनिया है। एकदम अलग आयतन। पर हमारा ये आयतन उतना अलग भी नहीं। कीड़े की तरह हम भी जिस आयतन में रहते हैं उसके बारे में सीमित ज्ञान रखते हैं। हम नहीं जानते कि अनन्त तक फैला ब्रह्माण्ड क्या आयतन है? 


कीड़े का आयतन भी पांच तत्वों से बना है। हमारे शरीर का आयतन भी पांच तत्वों से बना है। और हमारे शरीर के बाहर का जो जगत है वो भी पांच तत्वों से बना है। मूल तत्व एक ही हैं। फिर भी अलग-अलग अहम हैं। अहम के भीतर अहम हैं। ब्रह्माण्ड के भीतर ब्रह्माण्ड हैं। 

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रविवार, 22 सितंबर 2013

rules for the future



People just do not trust any individual or his moral principles, or wisdom, or sense of balance. In plain simple words- people don't trust people. 

We doubt that if we leave it to the individual wisdom, he'll make a mess of it. We make a rule for every situation. Otherwise he'll not do it right. 

In tribal society elders did it. In Kingdom, king's word was the rule. In Brahmin society Manu's word was taken as the rule. In democracy we give that power to the people. Or to the representatives of the people- the people we trust will not harm us. But the whole idea of the rule is not to trust the individual. He'll not act rightly. And that is exactly what happens. The representatives never act rightly. The power to represent should never have been given. You started with mistrust and mistrust was confirmed. 

Nevertheless rules are made. But all rules are for future. That from now on when a situation arises- which everyone is quite sure that it'll arise- the individual, the person in question will be bound by this rule. That'll be the path that he'll have to tread. The steps to follow. The consequences to take. 

But all this is controlling the future. In a sense it is kind of writing the future. As if it was history! Future is all imagination. It is not there. Even if it is there it is something we know nothing about. Its all veiled. Unintelligible. 

So why decide for something that you know nothing about? And make an un-informed decision? That's what foolish people do. One must wait for the right moment. And when the moment comes a decision will be made. And it will be made right in that moment of situation to which the rule applies to. Like in case of a crime, say murder, someone kills the other. So for this situation a law was enacted in advance. But the justice is done retrospectively for the crimes committed in past.. Either future or past? Either memory or imagination. Nothing is real. What about present? In the situation? What of that? 

Rules have no meanings. 'No rules' means total freedom. If you can't have 'no rules' then have as less rules as possible. And let people be freer. It is not the right or wrong law that oppresses us, it is the law. Law is the bondage. Law does not empower people. It takes the power away from the people and invests in itself. There should be no laws. No rules. 

You say that if there were no rules. Strong will oppress the weak. But that is the law of the nature. It is destiny of the weak to perish. And do not assume that democracy protects the weak. It does not. It again oppresses the weak. Democracy is the game of numbers. Whoever has large number turns strong. Laws are made to protect the larger group not out of some compassion but because of the nature of democracy. Dalits are protected by law because they have certain numerical strength. Had democracy not been there, do you think any lawmaker would care for the plight of Dalits? Ruling class will protect its own interest. Mind the words- ruling class! 


Nature has a law. It is relatively benign. It is relatively peaceful. Why burden ourselves with more laws? We are injured enough, why have self-inflicted injuries? 

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

बार-बार कहना पड़ता है..


जो बात झूठ है वो बार-बार कहनी पड़ती है। दोहरानी पड़ती है। क्योंकि किसी को यक़ीन नहीं होता। हत्यारा बार-बार कहता है- मैंने ख़ून नहीं किया। प्रेमी बार-बार कहता है- आई लव यू! झूठ है। इसीलिए बार-बार कहना पड़ता है। प्रेमिका को भरोसा दिलाना पड़ता है -सच में करता हूँ प्यार! 

सोचिए अगर आप रोज़ सुबह-शाम सड़कों पर खड़े होकर चिल्लाएं कि सूरज गरम है। लोग पागल समझेंगे। जो बात सत्य उसे किसी प्रमाण किसी गवाही की ज़रूरत नहीं। वो सूर्य के समान सबके सामने स्पष्ट है। 

ईश्वर के साथ भी यही है। बार-बार कहना पड़ता है। ईश्वर है! और एक ही ईश्वर है। फिर भी कोई नहीं मानता। सर सब हिलाते हैं कि एक ही है। पर भीतर संशय-शंका से भरा पड़ा है। क्योंकि कभी देखा नहीं, कभी मिले नहीं, कोई पहचान नहीं। किसी महात्मा ने कहा- हमने मान लिया। पर जाना नहीं। 


ईश्वर को जानने का समय किसके पास है? संसार और शरीर हमें इतना उलझाए रखता है कि भीतर झांकने की फ़ुर्सत ही नहीं। 

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बुधवार, 18 सितंबर 2013

एक से शून्य


मूल संख्याएं सिर्फ तीन हैं। एक दो और तीन। बाकी सारी संख्याएं इनका विस्तार हैं। पहले कुछ नहीं था। केवल शून्य। ख़ालीपन। ख़ला। फिर उस ख़ला में अपने होने का एहसास जागा। आस्तित्व का बोध हुआ। इस बोध के आते ही वो एक हो गया। 

पर एक अकेला था। उसे अपनी पहचान न थी। वो स्वयं को जानना चाहता था। मैं कौन हूँ? मगर बिना विलोम की उपस्थिति के किसी शै को जाना नहीं जा सकता। मीठे को समझने के लिए कड़वे को जानना ज़रुरी है। सारा ज्ञान द्वैतात्मक है। 

इस कारण वो एक फटकर दो हो गया। वो एक ही थे, पर दो हो गए। एक दूसरे का विलोम। विलोम होने से उनमें संघर्ष हुआ। टकराहट हुई। जिससे तीसरे का जनम हुआ। पर ये कोई एक तीसरा न था। यह कई तीसरे थे। अनगिनत। असंख्य। अनन्त। तीसरा अंक बहुलता का सूचक है। वन इज़ अलोन, टू इज़ कम्पनी, थ्री इज़ अ क्राउड। एकवचन, द्विवचन, और बहुवचन। बस यही तीन संख्याएं हैं जगत में। 

ये क्रम उलटा भी चलता है- बताया गया है। इसके लिए असंख्य तीसरे को समेट कर दो में केन्द्रित किया जाता है। और वे दो, इस ज्ञान के साथ कि वे दरअसल उस मौलिक एक की उपज हैं, एक दूजे में समाहित हो जाना चाहते हैं। इसे इश्क़ कहा गया है। 

जैसे ही इश्क़ को ये वस्ल हासिल होता है। दुई फ़ना हो जाती है। एक की मौलिक सत्ता स्थापित हो जाती है। 

एक होते ही ज्ञान शून्य हो जाता है। और एक होते ही वापस लौट आता है- वही अकेलापन! और फिर लौटती है अपने होने के एहसास के प्रति शंका। मैं हूँ अथवा नहीं हूँ? इस तरह वो एक, 'मैं अकेला हूँ' के अस्तित्व भाव से जब 'मैं कुछ भी नहीं हूँ' के अनस्तित्व भाव में चला जाता है। तो वो एक से शून्य हो जाता है। 

इस तरह से चार संख्याएं हो जाती हैं- एक, दो, तीन और शून्य। पर वास्तव में तीन ही हैं। क्योंकि एक और शून्य में कोई अन्तर नहीं। वो कभी एक है और कभी एक भी नहीं है।


मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अपने पूर्वजों का भक्षण



कहते हैं कि देने वाला बड़ा होता है और लेने वाला छोटा। पर क्या सचमुच ऐसा है? मिसाल के लिए पशु- विकसित मनुष्य के मुक़ाबले में बहुत हीन हैं। पेड़-पौधों में तो हम चेतना का भी अस्तित्व नहीं मानते। मगर हमारे उनके रिश्ते में वो ही देने वाले हैं और हम लेने वाले। फिर भी हम अपने को बड़ा मानते हैं? 

हम कुछ भी नहीं देते जानवरों को। वो अपना जीवन देते हैं हमें। ताकि हमें पोषण मिल सके। पेड़-पौधे भी यही करते हैं। ऐसा बलिदान तो केवल माँ-बाप ही कर सकते हैं। तो क्या पेड़-पौधे औऱ जानवर हमारे माई-बाप हैं? शायद हैं। वो हमारे पूर्वज हैं। और हमारी धृष्टता देखिये कि हमने अपने पूर्वजों को अपना गुलाम, अपना नौकर बनाकर रखा हुआ है। और शोषण कर रहे हैं उनका। भक्षण कर रहे हैं उनका सुबह-शाम!  

जब अबोध बालक का पैर माँ के मुँह से लगता है तो माँ मुस्कराती है। पर पूर्ण वयस्क चेतन पुत्र की लात माँ के सर पर लगे तो माँ को कैसा लगेगा? होना तो ये चाहिये कि हम जब भी उनसे कुछ लें बीस बार सीस नवाएं। पर हम तो उनकी तरफ देखते भी नहीं। वो हमसे कहीं बहुत दूर कटते-मरते रहते हैं। और पैकेट में बंद होकर हमारे पास पहुँचते हैं। क्या हम अपने आपको चेतन कह सकते हैं? हम जो रोज़ अपने पूर्वजों का भक्षण करते हैं बिना किसी शुकराने के? 

और ये अन्याय आदमी के समाज में भी वैसे ही है। जो वर्ग हमें पालता-पोसता है, जिसके श्रम के बग़ैर हम एक अपना एक काम भी नहीं कर सकते, उसी वर्ग को हमने जूतों के नीचे कुचला हुआ है। कैसे? क्योंकि वो दलित-शोषित-श्रमिक-सर्वहारा सबसे सहनशील, सबसे विनम्र, सबसे संतोषी, सबसे उदार और सबसे परोपकारी स्वभाव का है।  और ईश्वर के सबसे पास भी वही है। 


ईश्वर के राज्य में वही सबसे आगे होगा- ईसा ने कहा था।  गांधी ने भी कहा-अंत्यज का सोचो! और मार्क्स ने भी कुछ इतर नहीं कहा। जो सबसे पीछे खड़ा है, सबसे अंत में, वही सबसे ऊँचे मूल्य का निर्धारक है। 

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बुधवार, 11 सितंबर 2013

नरक की फांस

निर्धन होना दुर्भाग्य है। मूर्खता और अज्ञानता दुर्भाग्य है। अकेला पड़ जाना भी दुर्भाग्य है। हम जिनके बीच, जिनके साथ रहते हैं, उनका प्रेम न मिल पाना बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। 

मगर सबसे बड़ा दुर्भाग्य है- हम जिनके साथ रहते हैं उनके लिए हमारे मन में प्रेम का न होना। प्रेम के बदले क्लेश, क्रोध, और हिंसा का होना। 

प्रेम के बिना जीवन एक जीवित नरक है। और ये नरक किसी और का बनाया हुआ नहीं, हमारी अपनी रचना है। स्वयं गढ़ते हैं हम अपना नरक! 

इस नरक से निकलने का एक ही उपाय है- अपने ह्रदय में लोगों के लिए प्रेम पैदा करना। और फिर लोगों के ह्रदय में अपने लिए। जब तक हमारे ह्रदय में प्रेम की जोत न जलेगी, हमें कोई प्रेम न करेगा। और हम नरक में जीते रहेंगे। 


नरक की फांस केवल प्रेम से कटती है। 

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

हथेली खींचती है दांत को


मेरे हाथ में मेरा ही एक टुकड़ा है। मेरा विज़डम टूथ। कुछ दिनों पहले निकलवा दिया था। सड़ने लगा था। डॉक्टर ने निकाल दिया। मैंने ले लिया। एक प्लास्टिक की डिब्बी में बंदकर घर के एक कोने में रख दिया। 

मुँह में उस दांत की जगह ख़ाली है। दांत निकाले हुए कुछ महीने हो गए पर मुँह में एक ख़ालीपन बार-बार अपनी याद दिलाता है। आज जब अपने उस दांत को हाथ में लेता हूँ तो अजीब सा लगता है। जैसे दांत हथेली में वापस मिल जाना चाहता है। हथेली खींचती है दांत को अपनी तरफ। अपने में मिला लेना चाहती है। 

पर नहीं मिल सकता। मुमकिन नहीं। मुँह से निकलकर दांत, बाक़ी संसार में अपनी अलग एक छोटी सी सत्ता बन गया। वो और मैं अब एक नहीं। वो एक है, मैं एक दूसरा एक हूँ। मैं जीवित हूँ। वो भी अपनी तरह से जीवित है। पहले वो मेरी चेतना का हिस्सा था। अब वो मेरी चेतना से बाहर है। उसकी चेतना का राज़ मुझ पर नहीं खुलता। 


मेरा मैं सीमित है। भंगुर है। 

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सोमवार, 9 सितंबर 2013

दंगा

अगर लोग केवल अपने समुदाय की लड़कियों को ही छेड़ते तो दंगा न होता। पर नौजवान दिल धर्म- समुदाय किसी बंधन को मानता ही नहीं।

ये बात धर्म-सम्प्रदाय को मानने वालों को बहुत बुरी लगती है। वे आदमी को नहीं देखते। उसके कपड़े देखते हैं। उसका दिल नहीं देखते। उसने किस भुलावे को अपना यक़ीन, अपना अक़ीदा बना रखा है, वो देखते हैं। 

जब तक लोग समूह में अपना अस्तित्व खोजते रहेंगे। दंगे होते रहेंगे। 

प्यार करने के लिए समूह नहीं चाहिए। प्यार अकेले करने वाली शै है। दंगा करने के लिए समूह चाहिए।

शनिवार, 7 सितंबर 2013

पानी जब पानी से मिलता होगा

पानी जब पानी से मिलता होगा तो  उसे कैसा लगता होगा? आटे की एक लोई जब दूसरी लोई मिलती होगी तो उसे कैसा लगता होगा? पानी, पानी से मिलना चाहता है। इसीलिए वो नीचे, भीतर की तरफ जाता है। नीचे, भीतर जाकर हम सब एक हो जाते हैं। 

मिल जाने में ही आनन्द है। एक-दूसरे में मिलकर एक हो जाना ही इश्क़ है। सारा जड़ चेतन यह आनन्द ले रहा है। अलग होते ही दुख है, पीड़ा है, कष्ट है। वही पल ऐश के हैं जो ईश के हैं। जिनमें हम दूसरे के साथ एक होते हैं। 

धरती इसीलिए हमें अपनी ओर खींचती है क्योंकि हम धरती से ही बने हैं। उसका हिस्सा हैं। वो सीने से लगाकर रखती है हमें। दूर जाने नहीं देती। दूर जाने के लिए हमें ताक़त लगानी पड़ती है। श्रम करना पड़ता है। 

पास रहकर एक बने रहने में कोई श्रम नहीं करना पड़ता। एकता स्वाभाविक है। पड़े रहना स्वाभाविक है। चलना श्रम है। कुछ भी करना श्रम है। करना हमारा मूल स्वभाव है ही नहीं। कुछ न करना हमारा मौलिक भाव है। प्रेम, शांति, एकता, स्थिरता- ये हमारे मौलिक भाव हैं। 

ये संसार एक ही है। सब एक दूसरे से बंधे हैं। और एक दूसरे में गिरते जा रहे हैं। जैसे ही यह घूमने का चक्र थमेगा। सब कुछ अपने ही भीतर गिरकर एक पिंड हो जाएगा। 


एक पिंड। एक बिंदु। एक। और फिर शून्य! 


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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

Evolution



The Greatest logic against God, these days, is Evolution. It is Evolution vs. God. The key to evolution is mutation. And mutation is random. 

It follows no logic, no laws of the physical world. There is no science in mutation. It is an error in genetic replication. 

It has a mind of its own. And it keeps changing. No patterns. 

Patterns is what make this world logical. Anything that has no patterns is illogical. 


Mutation has no logic, no patterns. Thus unscientific. Therefore Divine. 


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गुरुवार, 5 सितंबर 2013

मैं वो नहीं हूँ!


आईने में अक्सर दूसरा आदमी मिलता है। भीतर से देखते हुए जो अपनी छवि बनती है, ठीक-ठीक उससे मिलता नहीं ये आदमी। बाहर से देखकर भीतर की छाया मिलानी पड़ती है। कभी भीतर वाला अधिक सुदर्शन होता और बाहर वाला तिरछा-बांका, टेढ़ा-मेढ़ा, बेडौल। कभी उसके उलट भी होता है। 

भीतर हमने अपनी जो छाया, इमेज बना रखी है, वो थिर नहीं है। बदलती रहती है। ठोकर लगने से टूट जाती है, कभी अहम भाव से भर उठती है। चंचल है। अस्थायी है। 

पर आइने में मिलने वाला आदमी भी हमेशा स्थायी नहीं रहता। दस बरस पहले जो आदमी आइने में दिखता था, आजकल वो नहीं मिलता। चालीस साल पहले की एक तस्वीर जो मुझे दिखाई जाती है, उसके जैसा बिलकुल नहीं है आज आईने में मिलने वाला आदमी। 

वो आदमी मैं नहीं हूँ। मैं कुछ और हूँ। भीतर मेरे में की जो छाया बनी है, जिसे हम अहम कहते हैं। वो भी मैं नहीं हूँ। मैं कुछ और हूँ। 




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अंधकार



ईश्वर अंधकार में है या प्रकाश में। हम नहीं जानते। महात्माओं ने बताया है, ईश्वर ज्योतिर्मय है। नूर है। पर प्रकाश चले जाने के बाद जो बचे, वो क्या है? जहाँ प्रकाश न हो, वहां भी अंधकार बना रहता है। और जहाँ प्रकाश हो वहाँ भी होता है अंधकार। 

एक कमरे में बहुत सारा प्रकाश भरने के बाद भी बहुत सारा प्रकाश और भरने की जगह बनी रहती है। ऐसा लिखते हैं विनोद कुमार शुक्ल। 

वो खाली जगह अंधकार की है। आदि भी अंधकार है। अंत भी अंधकार है।

प्रकाश के कारण हम अंधकार को देख नहीं सकते। वो परदा है। प्रकाश परदा है। प्रकाश में समझने लायक़ कुछ भी नहीं। इसीलिए प्रकाश के आगे आदमी बिलकुल बेबस होता है। अधिक उसकी ओर देखे तो अंधा हो जाता है। आदमी अंधा होकर ही कुछ समझ सकता है। 


प्रकाश से कोई ज्ञान नहीं आता। सारा ज्ञान अंधकार में है।  

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बुधवार, 4 सितंबर 2013

साहस


मय हमको बहुत सताता है। क्या करें। अनन्त तक फैले इस समय का? अनन्त समय छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ हमें नज़र आता है। पर वो होता नहीं। साल महीने, दिन-रात के विभाजन हमें पहले से हुए नज़र आते हैं। मगर हैं नहीं। 

रात-दिन, महीना, साल बाहरी लक्षणों की गणनाएं हैं। क्योंकि जगत लगातार बदल रहा है। पर समय नहीं बदल रहा। वो स्थिर है। अटल। वो जाता ही नहीं। वर्तमान का जो पल है, केवल उसी में समय को अनुभव किया जा सकता है। भूत स्मृति है। और भविष्य कल्पना है। 

समय केवल इस पल में जीवित है। और कभी मरता नहीं। हमेशा जीवित रहता है। क्योंकि वर्तमान कभी जाता ही नहीं। उसकी इस विराटता से घबराकर हम समय को भुलाने, इस पल से निकल जाने की कोशिशें करने लगते हैं। कल्पना में। स्मृति में। सुबह-शाम के बीच का समय भी काटना मुश्किल होता है हमारे लिए। तो हम समय को जागने, नहाने, नाश्ता करने, दोपहर का खाना बनाने के अन्तरालों में तोड़ने लगते हैं।  

अनन्तता की आज़ादी से से छूटकर, अवधि में बंधा समय हमें इतना सता नहीं पाता। फिर भी हम उसे पूरी तरह भुला देना चाहते है। तमाम बातों में अपने को मगन रखते हैं। उनसे बंधे रहते हैं। बंधे रहने में सुरक्षा है। जैसे छोटा बच्चा माँ के तन से बंदकर राहत महसूस करता है। अलग होते ही रोने लगता है। समय से आज़ाद होते ही हमारे भी भय का पारावार नहीं रहता। 


पर सारे शग़ल भुलावा हैं। समय कहीं नहीं गया। वो वहीं खड़ा है। स्थिर, एकाकी, अनन्त, विराट समय।  यूं कहें, हम खड़े हैं। अनन्त समय के आगे। और उससे नज़रे मिलाने का हमारे भीतर साहस नहीं है। 

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