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मंगलवार, 15 नवंबर 2011

दबे पाँव



शेरजंग की शानदार किताब 'मैं घुमक्कड़ वनों का' पढ़ने के बाद उनकी दूसरी किताबों को पढ़ने की भूख लिए-लिए जब मैं मित्र बोधि के घर पहुँचा तो मेरी नज़र उनके ख़ज़ाने के एक कोने में दबी और दूसरी किताबों के बोझ से कराह रही 'दबे पाँव' पर पड़ी। ये ऐतिहासिक लेखक वृन्दावनलाल वर्मा के शिकार संस्मरणों को मुअज्जमा है। बोधि ने उदारता से किताब कवर चढ़ाकर मेरे हवाले कर दी और मैंने तो किताब पाई गाँठ गठियाई। 

किताब में वर्मा जी ने बुन्देलखण्ड के झांसी, ग्वालियर, ओर्छा आदि इलाक़ों के जंगलों में उनके शिकार के शग़ल की टीपें लिखी हैं। इन टीपों में स्यार, खरहे-खरगोश, मोर, नीलकंठ, तीतर, भटतीतर, वनमुर्गी, हरियल, चण्डूल, लालमुनियाँ, सारस, पनडुब्बियाँ, पतोखियां, टिटहरी, मगर, और जलकुत्ता जैसे जीवों के बारे में तो बात होती ही चलती है। लेकिन मुख्य तौर पर इस किताब में जंगल के बड़े जानवर चिंकारा, हिरन, चीतल, तेंदुआ, काला तेंदुआ, चीता, लकड़भग्गा, खीसदार सुअर, रीछ, साँभर, नीलगाय, नाहर या बाघ या शेर, सिंह, जंगली कुत्ते(सुना कुत्ते) और भेड़िये के व्यक्तित्व, आपसी अन्तर और व्यवहार की तमाम अनमोल जानकारियां हैं- जैसे भालू निरा बहरा होता है और नज़र का कमज़ोर होता है उसका एकमात्र सहारा उसकी नाक होती है। जब कभी किसी आदमी रूपी ख़तरे को अचानक वो अपने पास पा जाता है तो घबराकर उस पर हमला कर बैठता है। स्वभाव से वो बन्दरों की ही तरह मूलतः शाकाहारी है। या फिर लकड़भग्गा मौक़ा मिलने पर अपने ही भाई-बन्धुओं का भक्षण कर डालते हैं। हिंस्र पशुओं में तेंदुआ सबसे अधिक ढीठ होता है जबकि संसार का सबसे रफ़्तार वाला प्राणी चीता, बिल्ली की तरह पालतू बनाया जा सकता है। हालांकि चीता अब हमारे देश से लुप्त हो चुका है। इस तरह की जानकारियों के अलावा किताब में वर्मा जी के शिकार के दिलचस्प अनुभव हैं।

इस किताब को पढ़ने से जो तस्वीर ज़ेहन में खिंचती है उससे समझ आता है कि आज की तारीख़ में वन्यजीवन की हानि की इस भायनक त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार दो बाते हैं

) मनुष्य की बढ़ती आबादी के कारण कृषि भूमि का होने वाला लगातार विस्तार। जिसके चलते जंगल के जानवर और मनुष्य सीधे संघर्ष में फंस गए। किताब में बार-बार यह बात आती है कि चीतल, चिंकारा, सुअर, हिरन जैसे जानवर किसानों खेत में घुसकर फ़सल का सम्पूर्ण विनाश कर देते हैं। जिसके चलते किसान या तो स्वयं मौक़ा मिलने पर इन जीवों की लाठी-डण्डों से पीट-पीटकर हत्या कर डालते हैं या फिर किसी बन्दूकधारी शिकारी के शिकार यज्ञ में भरपूर सहायता करके इन जानवरों के समूल नाश में अपनी योगदान करते हैं। और दूसरी वजह है.. 

) बन्दूक के रूप में एक ऐसा भयानक आविष्कार जिसने आदमी और शेष प्राणियों के बीच के समीकरण को पूरी तरह से एकतरफ़ा बना दिया है। तीर की मार और गति से जानवर फिर भी मुक़ाबला कर सकता था पर गोली की मार और गति के आगे जंगल का हर पशु निरीह और बेबस है। परिणाम आप देख ही रहे हैं- नंगे व सपाट मैदान जिसमें आदमी के सिवा दूसरा जानवर खोजना मुश्किल।

किताब का एक और दिलचस्प पहलू है: क्योंकि किताब ६४ साल पहले १९५७ में छपी और उसके भी काफ़ी पहले टुकड़ों-टुकड़ों में लिखी हुई है, इसलिए उसकी भाषा थोड़ी अलग है और उसमें कुछ ऐसे शब्द और प्रयोग मिलते हैं जो आजकल पूरी तरह से चलन से बाहर हो गए हैं। मसलन-
कलोल (किलोल)
परहा (पगहा?)
लगान (लगाम?)
टेहुनी (केहुनी)
परमा (प्रथमा तिथि)
ठिया
खीस (दांत)
ढी (ढीह)
/आगोट (आगे की ओट)
भरका (गड्ढा)
डाँग (पहाड़ का किनारा)
झोर( झौंर, झाड़ी)
बगर (पशु समूह)
ढुंकाई / ढूँका (छिपकर घात लगाना)
ठपदार (ठप की आवाज़ करने वाला)
मुरकना (लचक कर मुड़ जाना)
ढबुआ (खेतों के ऊपर मचान का छप्पर)
दह( नदी का सबसे गहरा बिन्दु)
टौरिया (छोटा टीला)
फुरेरू (शरीर को थरथराना, कंपकंपी लेना)

और कई शब्द ऐसे भी मिलते हैं जो शब्दकोषों में भी नहीं मिलते- इनके एक सूची मैं यहाँ दे रहा हूँ-:

तिफंसा/तिफंसी (घड़ा रखने की तिपाई)
झिद्दे (झटके, धक्के)
खुरखुन्द
छरेरी
गायरा (शेर आदि का किसी जानवर को मारकर बाद में खाने के लिए छोड़ कर चले जाना)
टोहटाप
छौंह (खरी छौहों वाला शेर)
रांझ (एक नाले में राँझ के नीचे)
झांस (झांस के नीचे छोटे नाले में)
टकारे (एड़ी से घुटने तक पहनने का जूता)
चुल (वहाँ तेंदुए की चुल थी)
बिरोरी (शिकार का एक प्रकार, जब बेर फलते हों)


***

[किताब में एक और बड़ा दिलचस्प वाक़्या है जब वर्मा जी अपने साथियों के साथ जंगल में दाल-चावल की खिचड़ी बनाते हैं और जला बैठते हैं। जो आदिवासी इन शहरी शिकारियों की सहायता के लिए उनके साथ मौजूद था वो अपनी खिचड़ी अलग बना कर मजे से खाता है क्योंकि वो आदिवासियों में पुरोहित (बेगा कहलाने वाला) का काम करने वाला है और किसी का छुआ नहीं खाता। :) ]


* एक तीसरी किताब 'नेगल' भी पढ़ रहा हूँ। बाबा आम्टे के पुत्र प्रकाश आम्टे द्वारा अनाथ हो गए जंगली जानवरों के पालने के अनुभव पर आधारित ये भी बड़ी प्यारी और न्यारी किताब है। उनके सहयोगी विलास मनोहर ने लिखी है और नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी है। 

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

शब्दों के रहस्यों का पर्दाफ़ाश



लगभग चार सालों से ब्लाग जगत के बाशिन्दे अजित वडनेरकर की रहबरी में शब्दों का सफ़र कर रहे हैं। हर्ष की बात है राजकमल प्रकाशन ने इस सफ़र को एक ग्रंथ के रूप में स्थायी मक़ाम की शकल दे दी है जिसे 'शब्दों का सफ़र' का 'पहला पड़ाव' कहा गया है। हालाकि मेरी जानकारी में इस का श्रेय पाने के लिए दूसरे प्रकाशन भी लालायित थे। वैसे तो ये सफ़र हम ब्लागरों के लिए आभासी जगत में सर्वदा उपलब्ध है। कभी भी अजित भाई के ब्लाग पर जाकर किसी भी शब्द की कुण्डली बांची जा सकती है, लेकिन लगभग साढ़े चार सौ पन्नो के रूप के पहले पड़ाव को अपने हाथों में लेने पर अजित भाई के काम के गुरुत्व का जो एहसास होता है वह ब्लाग पर घूमते-टहलते नहीं हो पाता। अजित भाई का यह ठोस काम काल के झोंको में उड़ जाने वाला नहीं, रह जाने वाला है।

एक शब्द को दूसरे शब्द से जोड़ने की जो अजित भाई की चिर-परिचित सरल-तरल शैली है, वहीं शैली यहाँ भी मौजूद है। अजित वडनेरकर का अन्दाज़ इतना सरस है कि पाठक एक शब्द से दूसरे शब्द में विस्मय व आनन्द से रससिक्त होकर फ़िसलता चलता है। और शब्दों की विवेचना के अलावा उन शब्दों से जुड़े हुए दूसरे सामाजिक-ऐतिहासिक तथ्यों से रूबरू होता चलता है। इस लिहाज़ से इस किताब में एक बैस्टसैलर जैसा वो गुण है जो किताब को बेहद पठनीय बनाये रखता है और पाठक से पन्ने पलटवाता रहता है।

असल में ब्लाग के लिए लिखी गई तमाम कड़ियों को ही अजित भाई ने एक संयोजन दे दिया है। पूरी किताब को पद-उपाधि, आश्रय-स्थान, खानपान-रहनसहन, धर्म-दर्शन, जैसे दस अध्यायों में बाँटा गया है। ये अध्याय लगभग तीन -साढ़े तीन सौ उपशीर्षकों में विभाजित हैं जिन में मेरे आकलन के अनुसार संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, और तुर्की से हिन्दी में आए दो हज़ार से भी अधिक शब्दों की विवेचना की गई है। दो हज़ार एक बड़ी संख्या है, बहुत बड़ी.. जबकि तमाम लोगों की कुल शब्द-संख्या ही चार-पाँच हज़ार होती है। और अभी तो इसके और कड़ियाँ आनी हैं.. शायद तीन और.. तो अगर गणित की जाय तो इस खण्ड और आगामी तीन खण्ड को मिलाकर चारों खण्डों की शब्द संख्या आठ से दस हज़ार की बीच बैठेगी। वाह!

मुझे शिकायत है तो सिर्फ़ उस बात से जिस के लिए अजित भाई किताब के आमुख में ही क्षमा माँग लेते हैं – ‘मेरे इस समूचे प्रयास को भाषाविज्ञान और व्युत्पत्तिशास्त्र के नियमों में बाँधकर न देखा जाय।.यह मूलतः शब्दविलास है। विभिन्न भाषाओं से हिन्दी में आए शब्दों के अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल और उनकी विवेचना करना ही मेरा लक्ष्य था न कि शब्दों की भाषावैज्ञानिक पड़ताल। न तो वह मेरा उद्देश्य था और न हीं मुझमें इसकी योग्यता है ।"

मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। अगर अजित वडनेरकर में योग्यता नहीं है तो किसी में नहीं है। और अगर किसी कारण से भी वे अपने को अयोग्य मानते भी हों तो भी उनको सामाजिक दायित्व समझकर इस काम को अपने हाथ में लेना चाहिये। दो-चार भूलें हो भी गईं तो क्या? आने वाली पीढ़ियाँ उसे सुधारेंगी। अभी महत्वपूर्ण बात ये है कि इस काम का एक आधार तैयार हो जाय। किस काम का? एक वैज्ञानिक अकादमिक हिन्दी व्युत्पत्ति कोष बनाने का। जो स्वप्न आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने देखा था और जिसे वे कभी पूरा न कर सके। अजित वडनेरकर उस मक़ाम के किनारे पर खड़े होकर ये घोषणा कर रहे हैं कि वे उस शिखर को नहीं छू सकते.. मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

हो सकता है उन्हे अपने पूरे काम को पुनर्संयोजित करना पड़े.. बनी-बनाई संरचना को छिन्न-भिन्न करके नए सिरे एक-एक शब्द को क्रमवार जमाना पड़े। मगर उन्हे इतना ही करना है। जो बड़ा काम था - शब्दों की व्युत्पत्ति करना- वो वे पहले ही कर चुके हैं। अब उन्हे सिर्फ़ शब्दकोष की शकल में क्रमवार सजाना है.. वे क्यों नहीं कर सकते हैं? ज़रूर कर सकते हैं! 

ये तो थी मेरी अपनी शिकवा-शिकायत। फ़िलहाल ‘शब्दों का सफ़र’ बेहद पठनीय और संग्रहणीय किताब है, इस को ख़रीदकर आप कभी पछतायेंगे नहीं। कोई भी पन्ना खोलकर पढ़िये एक रहस्य आप के सामने उद्‌घाटित होने की प्रतीक्षा कर रहा है।


नाम: शब्दों का सफ़र (पहला पड़ाव)
लेखक: अजित वडनेरकर
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
वर्ष: २०११
पृष्ठ: ४६०
मूल्य: ६००रू





शनिवार, 27 नवंबर 2010

अकथ कहानी प्रेम की


क्या इस देश में प्रगति अंग्रेज़ों के साथ आई? क्या अंग्रेज़ों के आने से पहले इस देश में फ़ारसी व संस्कृत का ही वर्चस्व था? क्या देशभाषाओं को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में स्वीकारा जा सकता है? कबीर और तुकाराम अपने परिवेश की उपज थे या समय से पहले पैदा हो गए अनोखे प्राणी? और अगर वे उस रूढ़िबद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था में जकड़े समाज में इतने ही अनोखे थे तो एक बड़ी जनसंख्या के लिए पूज्य कैसे बन गए? क्या सारी की सारी देशज परम्परा एक साज़िश है? भारतीय समाज में सामाजिक वर्चस्व का स्रोत क्या रहा है, तलवार व पैसा या कर्मकाण्ड व रक्तशुद्धि?

मानवाधिकारों की कल्पना क्या इमैन्वल कांट के ही दिमाग़ की उपज थी और कबीर जो बोल-गा रहे थे, वो कोई और ही प्रलाप था? इस देश के आमजन इतने मिट्टी के माधो रहे हैं जो चतुर ब्राह्मणों की साज़िश का लगातार शिकार होते ही जाते हैं?

अपनी परम्परा और विरासत के प्रति थोड़े से भी सजग व्यक्ति को बेचैन कर देने वाले ये सवाल पूछते हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में। कबीर और उनके समय के सहारे इन सारे कठिन सवालों के जवाब तलाशते हुए पुरुषोत्तम जी की किताब महत्वपूर्ण हो जाती है न सिर्फ़ इसलिए कि उन्होने कबीर और उनके समय की एक नई विवेचना की है बल्कि और अधिक इसलिए कि उन्होने तत्कालीन और (समकालीन समाज भी) को देखने-समझने के लिए एक नई नज़र की प्रस्तावना की है।

और जो जवाब विकसित होते हैं वो बने-बनाए निष्कर्षों पर ‘आस्था’ रखने वाले, पोलिटिकली करेक्ट समझ का ही दामन पकड़ कर चलने वाले विद्वानों को बड़े दुष्कर मालूम दे सकते हैं क्योंकि किताब के निष्कर्ष माँग करते हैं कि आँखों पर चढ़े पूर्वाग्रहों और इतिहास की मोटी समझ के चश्मे को निकाल फेंका जाय और एक अधिक परिपक्व और महीन समझ विकसित की जाय।

‘अकथ कहानी प्रेम की’ में कबीर के जीवन, चिंतन, उनकी साधना, और उनके काल से संबधित सभी पहलुओं पर विशद चर्चाएं हैं। किताब में इस बात की भी विवेचना है कि कबीर के नाम से प्रचलित रचनाएं उन्ही की हैं या ब्राह्मणवादी एप्रोप्रिएशन की नीयत से उन पर आरोपित कर दी गई हैं? इस तरह के चिंतन की ख़बर ली गई है जो एक औफ़ीशियल पाठ अपना कर शेष प्रतिकूल पाठों को ख़ारिज़ करने की उस रोमन वृत्ति से चलता है जिसके तहत ईसा के शिष्यों के चालीस संस्मरणों में से चार को छोड़ बाक़ी को दबा दिया गया। इसी वृत्ति की अनुकृति वाली अपनी समझ से इतिहास की चयनित व्याख्या की बीमारी आज भी काफ़ी विद्वानों को अपनी चपेट में लिए हुए है।

फिर पुरुषोत्तम जी कबीर, रैदास, सेन नाई, धन्ना जाट, और पीपा के गुरु माने जाने वाले रामानन्द की ऐतिहासिक गुत्थी को भी सुलझाने में भी वे कुछ दिलचस्प बातें सामने लाते हैं। ‘जात पाँत पूछे नहिं की, हरि को भजे सो हरि को होई’ की घोषणा करने वाले रामानन्द वाक़ई कबीर के गुरु थे भी या उन्हे सिर्फ़ ब्राह्मणवादियों ने कबीर और उनकी मेधावी परम्परा पर अधिकार करने की नीयत से रामानन्द का आविष्कार कर लिया? इस मामले में जो पारम्परिक मान्यता को आधुनिक और आधुनिक निर्मिति को पारम्परिक मानने की उलटबाँसी चली है उसको पुरुषोत्तम जी रामानन्दी और रामानुजी सम्प्रदाय की जातीय सरंचना और उनके आपसी रिश्तों के इतिहास के ज़रिये सीधा और अर्थवान करते हैं।

कबीर की साधना किस तरह से धर्मसत्ता की सुरक्षा के बदले विवेक की सौदेबाज़ी को सीधे चुनौती दे रही थी, और किसी नए धर्म की स्थापना नहीं बल्कि धर्म मात्र की आलोचना कर रही थी, ‘अकथ कहानी प्रेम की’ इस का भी तार्किक उद्‌घाटन करते हैं। बहुत आगे जाकर मार्क्स श्रम की जिस आध्यात्मिक एकता के ज़रिये मनुष्य की मुक्ति की चर्चा करते हैं, उसी श्रम और अध्यात्म के परस्पर संबंध से मुक्ति की सहज साधना कबीर कैसे कर रहे थे, और उसे गाकर बता भी रहे थे, यह भी स्थापित करते हैं।

मगर मुझे अपने सरोकारों की नज़र से, सबसे महत्वपूर्ण उनका दूसरा अध्याय मालूम दिया जिसमें वे देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त की चर्चा करते हैं। आज तक आम धारणा यह है कि आधुनिकता के नाम से जिस व्यक्तिसत्ता की मान्यता, विवेकपूर्णता, और सहिष्णुता के मूल्यबोध की पहचान की जाती है, उसका जन्म योरोप में हुआ और भारत समेत सम्पूर्ण विश्व को वो योरोप की ही देन है। लेकिन इस बात को कम ग़ौर किया गया है कि भारतभूमि मे पन्द्रहवीं सदी में कबीर अपने कविता और साधना के ज़रिये व्यक्ति, समाज, और ब्रह्माण्ड के परस्पर संबन्धों की नई समझ विकसित कर रहे थे और बड़ी संख्या में शिष्य और अनुयायी उनकी चेतना का अनुसरण कर रहे थे; सभी जाति के लोग जाति के पार जाकर साधु और भगत के रूप में पहचाने जा रहे थे; न सिर्फ़ कबीर, नामदेव और रैदास अपनी आधुनिकता को अभिव्यक्ति दे रहे थे बल्कि समाज में उन्हे माना-पूजा जा रहे थे। तो इन्ही के बुनियाद पर पुरुषोत्तम जी सवाल करते हैं कबीर का काल आधुनिक क्यों नहीं था?

१५ वीं सदी में व्यापार के विस्तार, मानवकेन्द्रित चिन्ता, और चर्च के प्रति असंतोष के उदय के आधार पर ही योरोप आधुनिक होने का दावा करता है, हालांकि योरोपीय आधुनिकता के सबसे पहले पैरोकार मार्टिन लूथर, यहूदियों को नदी में डुबा देने की भी बात भी अपने आधुनिक सुर में करते जाते हैं। तो उस से कहीं अधिक विकसित चेतना और मूल्य बोध के होने के बावजूद कबीर और उनका काल माध्यकालिक क्यों कहलाता है?

इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ है जाति का प्रश्न। कबीर के समय को मध्यकाल में गिनते हुए हम मानते रहे हैं कि भारतीय समाज ब्राह्मणों के द्वारा वर्णाश्रम की बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक स्थिर और रूढ़िबद्ध समाज रहता आया है जिसमें ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर बैठकर समाज के हर नियम को बनाता और लागू करता आया है। पुरुषोत्तम जी ऐसी किसी भी धारणा को ब्राह्मणों की फ़ैन्टेसी को सच्चाई मान लेने की भूल बताते हैं। क्योंकि व्यापार का विस्तार होने से दस्तकारी से जुड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ रहा था और वर्णाश्रम व्यवस्था अप्रासंगिक हो रही थी।

मनुस्मृति को मध्यकालीन समाज का अन्तिम विधान मानने वाले विवाद रत्नाकर जैसे ग्रंथ को भूल जाते हैं जिसमें ब्राह्मण की अवध्यता पर इतनी शर्तें लगाई गई हैं कि किसी अपराधी ब्राह्मण का अवध्य होना असंभव हो जाय। मनुमहिमा का तो पुनरोदय हुआ वारेन हेस्टिंगज़ की कृपा से बने ग्यारह ब्राह्मणों की कमेटी के ज़रिये जब उन्होने हिन्दू ला के लिए बीस स्मृतियों में से बस एक मनुस्मृति को छाँटकर बस उसीका खूंटा पकड़ लिया। जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता बहुत पहले पीछे छोड़ आई थी उसे वापस हिन्दुओं की ‘दि बुक’ बना दिया गया और हमारे समाज की बहुवचनात्मकता को केन्द्रीकृत शास्त्रीयता में बदलने का उपक्रम किया गया।

और यह उपक्रम काफ़ी सफल भी रहा है, आज की तारीख़ में मनुस्मृति ही भारतीय परम्परा का पारिभाषिक ग्रंथ बन चुका है। जबकि अत्रिस्मृति जैसे ग्रंथ की कहीं चर्चा भी नहीं है जिसमें ब्राह्मणों की द्स कोटियों में शूद्र ब्राह्मण, म्लेच्छ ब्राह्मण, चांडाल और निषाद ब्राह्मण भी शामिल हैं, और आदिवासी पुरोहितों को भी ब्राह्मण जाति की निचली पायदान में जगह मिल चुकी थी। यह बताता है कि जाति व्यवस्था में ‘नीचे’ से ‘ऊपर’ जाने की सम्भावना बनी रहती आई है और ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ की भी क्योंकि पुरुषोत्तम जी बताते हैं कि तमाम जुलाहों के गोत्रों से पता चलता है कि उनमें वैश्य, तोमर, भट और गौड़ मूल के लोग भी थे/हैं।

‘मध्यकाल’ की जातीय जड़ता में विश्वास करने वाले ऐसे तथ्यों को अनदेखा कर जाते हैं जो बताते हैं कि उज्जयिनी का महान शासक हर्षवर्धन बनिया था, अकबर को चुनौती देने वाला राजा हेमू बक्काल था। उसी रुढ़िबद्ध मध्यकाल में व्यापारजनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, और मज़दूर भी और आदिवासी गोंडो के स्तुति गायक भी जबकि तेलीवंश में जनमे मंत्री बन रहे थे, नाई घर के जनमे सेनापति, वर्णसंकर महामंत्री, वेश्यापुत्र राजा, हीनकुलोत्पन्न राजगुरु, जुलाहे राजकवि, और मल्लाह महामण्डलीक हो रहे थे। सन्यासी और व्यापारी भी महाजनी गतिविधियां चला रहे थे और आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रहे थे। अठाहरवीं सदी के आते-आते ब्राह्मण जाति के लोग सूरत जैसे शहरों की फ़ैक्ट्रियों में मज़दूर, और ईस्ट इंडिया कम्पनी की फ़ौज में सिपाही हो रहे थे।

(असल में तो ब्राह्मणों के इस काल्पनिक वर्चस्व को प्राचीन भारत में भी जगह नहीं थी। महाभारत में अष्टावक्र की प्रसिद्ध कथा आती है जो अपने पिता का बदला लेने जनक के दरबार में जाते हैं जहाँ बन्दी नामक एक विद्वान ने शास्त्रार्थ में उनके पिता और दूसरे कई ब्राह्मणों को हराकर ताल में डुबवा दिया था। यह महाविद्वान बन्दी, एक सूत है, यानी उसी जाति का, जिस जाति से आने वाले अधिरथ ने महारथी कर्ण का पालन-पोषण किया था। ब्राह्मणी वर्चस्व की प्राचीन सच्चाई का एक पहलू यह भी है।)

समझा जाय कि भारतीय समाज कोई गतिहीन, जड़ समाज नहीं था वह एक गतिशील, प्रगतिशील समाज था। भक्ति के लोकवृत्त से ब्राह्मण वर्चस्व को मिली चुनौती के चलते तत्कालीन भारत में वह परिघटना हुई जिसे कुछ विद्वान नौन कास्ट हिन्दूइज़्म कहते हैं। इस लोकवृत्त में कोरी व ब्राह्मण एक ही भगत रूप में पहचाने जाते थे। आप स्वयं सोचें कि रज्जब ,दादू, पीपा, रैदास, कबीर को आप जाति से पहचानते हैं या उनकी भगत वृत्ति से? पुरुषोत्तम जी चेताते हैं कि उस समय के समाज को समझने के लिए पेण्डुलम धर्म से निजात पानी होगी- या तो जाति पर ध्यान ही न देना या सिर्फ़ जाति पर ही ध्यान देना।

तथाकथित मध्यकाल में सामाजिक गतिशीलता की पड़ताल करते हुए वे पाते हैं कि जिस रूप में हम जानते हैं, उस रूप में जाति एक आधुनिक परिघटना है। इसका जन्म भारत और पश्चिमी औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक सम्पर्क के कारण हुआ। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारतीय जाति व्यवस्था का कोई नस्ली पहलू नहीं है। जातीय सवाल में अंग्रेज़ो ने अपनी नस्लवादी समझ जाति व्यवस्था पर थोप दी, उन्हे इसे दूसरी तौर से समझना न आया।

इस सवाल पर मैं शेल्डन पौलाक के एक लम्बे लेख पर इसी ब्लौग पर मैं लिख भी चुका हूँ। जाति व्यवस्था में नस्ल के आधार को सिद्ध करने के लिए २० वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण हुए और जिन के नतीजो ने सिरे से नस्ल की परिकल्पना को पूरी तरह से नकार दिया। जो चीज़ कभी थी ही नहीं पहले उसे आरोपित किया गया, फिर स्थापित किया गया, जिसके फलस्वरूप कुछ लोग मिथ्याभिमान और कुछ मिथ्याग्लानि के शिकार हुए। अम्बेडकर जैसे विद्वान की भी काफ़ी ऊर्जा, जातिवाद के नस्ली पहलू के इस मिथ को ध्वस्त करने में ज़ाया हुई।

अकथ प्रेम की कहानी कबीर के बहाने भारतीय समाज और परम्परा का पुनर्मूल्याकंन है। ऐसी मान्यताओं और विश्वासों पर पुनर्विचार करने के लिए आमंत्रण जिसे हम सच मानकर उस पर अपने सिद्धान्तों की इमारतें खड़ी कर चुके हैं। और उन सारे राजनीतिबाज़ों को चुनौती है जो इन खोखली मान्यताओं की नींव पर अपने निहित स्वार्थों की राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी की रोटी गरम कर रहे हैं।

इन तमाम सारे मुद्दे, जिन पर मैं ख़ुद भी व्यथित होता रहा हूँ, पुरुषोत्तम जी ने विस्तार से चर्चा की है और ठोस साक्ष्यों की मदद से अपनी बात को पुख़्ता तरह से रखा है। देसी परम्परा के स्रोत, संस्कृत साहित्य, हिन्दू धर्म के भीतर की साम्प्रदायिक परम्पराओं की गहरी छानबीन करके अपने पैने तर्कों, मेहनत से जुटाये गए साक्ष्यों और विभिन्न विद्वत परम्पराओं से लाए गए उद्धरणों, लोकगाथाओं और किंवदन्तियों के ज़रिये अपने निष्कर्षों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हैं। निश्चित ही इस किताब को लिखने में उनकी मेधा के साथ-साथ, पूरे जीवन भर की मेहनत लगी हुई है। उनको इस काम के लिए मैं बहुत बधाई देता हूँ।

स्वतंत्र रूप से हिन्दी में चिन्तन की विरल परम्परा है और इस तरह के काम का हिन्दी में बहुधा अकाल रहता है। मेरी उम्मीद है कि हिन्दी में स्वतंत्र चिंतन की परम्परा की उस विरल धारा को जिसे पुरुषोत्तम जी ने आगे बढ़ाया है, अब सघन होकर विकराल रूप धारण करे और पुरुषोत्तम जी के जो वैचारिक विरोधी हैं वो भी इतनी ही मूर्धन्यता और अनुशीलन के सहारे अपने समाज को समझने की तरफ़ आगे ठोस क़दम बढ़ाएं।

***

रविवार, 21 नवंबर 2010

गीत का सिमसिमी जादू


पिछले दिनों गीत चतुर्वेदी का दूसरा कहानी संग्रह ‘पिंक स्लिप डैडी’ प्रकाशित हुआ। संग्रह में तीन लम्बी कहानियां हैं और तीनों ही महानगरीय जीवन के संकटों के आख्यान हैं। पहली कहानी गोमूत्र एक निम्नमध्यमवर्गीय दृष्टिकोण से कर्ज़ आधारित अर्थव्यवस्था में वैयक्तिक व्यथाओं की कथा है। किताब की आख़िरी कहानी ‘पिंक स्लिप डैडी’ मंदी के दौर में एक कौरपोरेट संरचना के भीतर से उसकी जटिलताओं का अक्स मानवीय आईने में दिखलाती कहानी है। हालांकि २००९ में लिखी इस कहानी का मूलाधार २००९ में ही प्रदर्शित अमरीकी फ़िल्म ‘अप इन दि एअर’ से कुछ मिलता है मगर गीत की कहानी में अपनी क़िस्म की परते हैं।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘सिमसिम’, ज़िन्दगी की शुरुआत करते एक नौजवान और ज़िन्दगी की अंत पर खड़े मगर अपनी ज़िन्दगी की शुरुआती स्मृतियों में उलझे और तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी सम्बन्ध की कहानी होने से अधिक उस छवि की कहानी है जो इन दोनों चरित्रों को एक साथ रखने से बनती है। इस कहानी में किसी फ़िल्म की पटकथा जैसी बुनावट और गति है। वैसा ही कहानी के वातावरण का स्पन्दन पाठक अपने रोमों, पोरों में महसूस कर सकता है, जैसा अनुभव फ़िल्म देखते हुए होता है। और आधुनिक सार्थक फ़िल्मों ने जिस तरह की पुरातन क़िस्सागोई से दुश्मनी ले रखी है, वो यहाँ भी मौजूद है।

मेरी समझ में शिल्प की दृष्टि से गीत की यह कहानी बड़ी अनोखी और बेजोड़ है। गीत की काव्य प्रतिभा भी इस कहानी में सबसे अधिक उभर कर आती है। ऐसा लगता है कि गीत भी मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की तरह कविता और उपन्यास (या लम्बी कहानी) में कोई मौलिक फ़र्क़ नहीं मानते। विनोद जी ने एक जगह कहा है, “उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है।”

गीत की कहानियों में विचारों की, अनुभवों की ख़ूब चहलक़दमियाँ हैं। उनके पास कहने को बहुत कुछ है। किसी सामान्य सी रोज़मर्रा की भी घटना में वे बहुत कुछ देख लेते हैं। गीत अपने चरित्रों को बख़ूबी जानते हैं, उनके अनुभवों को बारी़कियों से पहचानते हैं। उनके परिवेश और सामाजिक दबावों को समझते हैं और देश-दुनिया की राजनैतिक-आर्थिक सच्चाईयों से उनके तार कैसे जुड़ते हैं, इसकी समझदारी भी रखते हैं गीत। और अपनी बेहद समृद्ध भाषा के मार्फ़त उनके अनुभवों और उनके मनोजगत के मर्म को व्यक्त करने में वे माहिर हैं।

किताब का कहीं से भी खोलकर पढ़ना शुरु कर दीजिये, आप को ख़ुले हुए दो पन्नों के बीच ही ऐसा कोई टुकड़ा मिल जाएगा जो आपके द्वार जिये हुए यथार्थ को ही, पहचाने हुए अनुभव को एक नई नज़र से दिखाता हो। कोई चकित करने वाली बात ज़रूर मिल जाएगी उन दो पन्नों के बीच। यह गीत की ताक़त है। गीत की एक और ताक़त किसी भी सामान्य घटना को उसकी सम्भावना की भौतिक सीमाओं के पार खींच ले जाकर उसके अन्तरविरोध को उभारने में भी है, जिसे आम तौर पर जादुई यथार्थवाद के नाम से बताया जाता है।

गीत वैचारिक रूप से बहुत सचेत हैं। जिस दुनिया में वे रह रहे हैं, जिस की कहानियाँ वे रच रहे हैं उसकी तमाम जानकारियाँ उनके पास है। और उस दुनिया के प्रति उनके सरोकार भी बहुत विकसित हैं, साथ ही उनके कलात्मक सरोकार भी। अपने शिल्प के प्रति भी वे बेहद सचेत हैं, ऐसा मालूम देता है। उनकी कहानियों में कोई तत्व यूँ ही ऊँघता हुआ, किसी बेहोशी में चला आया है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उनकी कहानी में सब कुछ सायास है, सोचा-समझा है।

लेकिन उनमें अजीब तरह का कुछ अनगढ़पन भी है। एक पाठक की तरह उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे लगा कि कुछ बातों का अनावश्यक विस्तार है और कुछ चीज़ें जिन पर मैं और व़क्त गुज़ारने को तैयार था वो सूत्र गीत ने जल्दबाज़ी में निपटा दिये। लेकिन यह तो लेखक स्वयं ही तय करेगा कि किस तत्व को विस्तार कितना विस्तार देगा, और उसके पास तर्क भी होंगे इस चुनाव के पीछे। फिर भी पाठक शिकायत करने का तो हक़ रखता है।

मैं जानता हूँ कि उनकी कहानी की आलोचना करते हुए मैं साहित्य व कला के तमाम नए-पुराने आन्दोलनों से अपरिचित हूँ, सम्भवतः उनसे भी जिनको ध्यान में रखते हुए उन्होने अपने शिल्पगत चुनाव किए हैं, फिर भी एक पाठक के तौर पर मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कहने का अवसर ले रहा हूँ कि उनकी कहानी में अगर कोई कमज़ोरी है तो वह ये कि उसमें क़िस्सागोई का अभाव है।

गीत की कहानी कोई संस्पेंस कथाएं नहीं है। और सच बात तो ये है कि संस्पेंस कथा कभी सस्पेंस कथा नहीं होती। उसकी कहानी का ढांचा पहले से तय होता है। सिर्फ़ एक तत्व, एक तथ्य पाठक से छिपा लिया जाता है। और पाठक इस ढांचे में बड़े सुकून से बेचैन रहता है। जबकि जिस तरह की कहानियाँ गीत लिख रहे हैं वो पाठकों को वाक़ई में बेचैन कर सकती हैं क्योंकि वे न तो अपनी कहानी की दिशा की कोई पूर्वसूचना पाठक को देते हैं या कहानी को रोचक बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश करते हैं जैसे कि पुराने क़िस्सागो करते रहे हैं। और शायद इसी कारण से या किसी और कारण से पढ़ने वालों को लग सकता है कि वे चरित्रों से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रहे या रस की सृष्टि में कुछ कमी रह गई।

इन के बावजूद गीत एक बहुत प्रतिभासम्पन्न लेखक हैं। वे युवा हैं और अभी तो यह शुरुआत है, आगे वे क्या और कैसे गुल खिलायेंगे इसे देखने की प्रतीक्षा है मुझे। और सच बात तो यह है कि उनकी प्रतिभा और महत्व का असली आकलन तो उनके बाद वाली पीढ़ी ही करेगी, जैसा कि हमेशा होता आया है।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

छोटा आदमी

पिछले दिनों बोधिसत्व का नया संग्रह 'ख़त्म नहीं होती बात' प्रकाशित हुआ, उस में से एक कविता छोटा आदमी-

मंगलवार, 22 जून 2010

विभाजन के पहले विविधता


लगभग सभी प्रगतिशील चिन्तक और विचारक यह मानते आए हैं कि फ़ोर्ट विलियम वाले गिलक्रिस्ट साहब ने हिन्दी/उर्दू ज़ुबान का साहित्य नागरी लिपि में लिखवा कर एक साम्प्रदायिक दीवार की नींव रखी। धारणा यह रही है कि लल्लू लाल जी और सदल मिश्र के पहले नागरी लिपि में खड़ी बोली का कोई साहित्य नहीं रचा गया था। इसी बात को आगे खींचते हुए 'हिन्दी' भाषा के बाद के साहित्यकारों पर आरोप लगाया जाता रहा है कि उन्होने आमफ़हम उर्दू के भीतर संस्कृत के शब्द भर कर एक विकृत भाषा को जन्म दिया और समाज को साम्प्रदयिक चेतना से दूषित किया।

असल में इन अवधारणाओं के मूल में वही वृत्ति है जिस से लगभग हर पश्चिमी परिपाटी बीमार रहती है- प्रमाण की अनुपस्थिति को, अनुपस्थिति का प्रमाण मान लिया जाता है।


हिन्दी-उर्दू मसले पर फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित किताब 'बिफ़ोर द डिवाइड' इन सवालों की पड़ताल करने के लिए गिलक्रिस्ट के फ़ोर्ट विलियम के पहले रचे साहित्य को खंगाल कर नए तथ्य सामने लाती है और हमें उन की रौशनी में इस पूरे मामले को नए नज़रिये से देखने के लिए मजबूर करती है।

ओर्सिनी अपनी भूमिका में कहती हैं कि हिन्दी-उर्दू बहस में एक बड़ी समस्या यह भी रही है कि साहित्यिक कृतियों की भाषा को लोगों की आम ज़बान के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। (आज भी हमारी बोलने वाली और लिखने वाली भाषा में लहज़े और वाक्य संऱचना के अलावा शब्द-सम्पदा का बड़ा फ़र्क़ रहता है)

हिन्दी और उर्दू के बीच झगड़े का मुख्य आधार उनकी ऐतिहासिकता रही है। उर्दू वालों, और समझदार विद्वानों के एक बड़े तबक़े का मानना रहा है कि तथाकथित खड़ी बोली को साहित्य के रूप में व्यवहार करने का काम नस्तालिक़ लिपि में होता रहा है और इसलिए मोटे तौर पर दिल्ली और दकन के मुस्लिम अशराफ़ द्वारा विकसित भाषा (खड़ी बोली के साहित्य) को नागरी लिपि में लिखना एक किसी अन्य (औपनिवेशिक व साम्प्रदायिक) मक़सद से प्रेरित हरकत हैं। और हिन्दुओं द्वारा १९वीं सदी में अपनाई गई हिन्दी थोपी हुई, बनाई हुई, गढ़ी हुई भाषा है जिसके अन्दर संस्कृत की शब्दावली घुसा दी गई।

हालांकि हिन्दी-उर्दू के बीच साहित्य का बँटवारा अकेले लिपि के आधार पर तो नहीं होता रहा है। रसखान, रहीम, कबीर और जायसी हिन्दी साहित्य की परम्परा में गिने जाते रहे हैं और तमाम ग़ैर-मुस्लिम शाएर नस्तालिक़ में लिखने के बावजूद मुहम्मद हुसैन आज़ाद के उर्दू साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित किताब आबेहयात में जगह नहीं पा सके। हिन्दी साहित्य का नाम जपने वाले मीर और नज़ीर को गुनते तो रहे मगर इतिहास लिखते समय संकोच वृत्ति/स्मृति लोप/भेद दृष्टि का शिकार हो गए।

उर्दू वालों ने अपने इतिहास को महज़ मुस्लिमों द्वार रचित खड़ी बोली के साहित्य (और उसमें भी मोटे तौर पर गज़ल) तक सीमित रखा था, हालांकि विगत कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आए हैं। लेकिन इमरै बंघा के शोध से पता चलता है कि खड़ी बोली का साहित्य फ़ारसी लिपि के अलावा देवनागरी और गुरमुखी में भी लिखा गया है।फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित ‘बिफ़ोर द डिवाइड’ में पूर्व औपनिवेशिक उत्तर भारत के भाषाई परिदृश्य पर केन्द्रित नौ लेख हैं। सभी लेख पढ़ने योग्य और गुनने योग्य हैं मगर विस्तार और विषयान्तरके भय से मैं यहाँ पर तीन लेखों की ही चर्चा कर रहा हूँ; १) इमरै बंघा का “रेख़्ता: पोएट्री इन मिक्स्ड लैंग्वेज” (द इमर्जेन्स औफ़ खड़ी बोली लिट्रेचर इन नोर्थ इंडिया), २) एलीसन बुश का “रीति एण्ड रेजिस्टर” (लेक्सिकल वैरिएशन इन कोर्टली ब्रज भाषा टेक्स्ट), और ३) फ़्रंचेस्का ओर्सिनी का “बारहमासा इन हिन्दी एण्ड उर्दू”।


मंगलवार, 16 मार्च 2010

लैण्डमार्क में हिन्दी वाले

परसों के रोज़ लैंडमार्क बुक स्टोर जाना हुआ। मेरी हमसर तनु पामुक की नई किताब 'म्यूज़ियम ऑफ़ इन्नोसेन्स' पढ़ना चाह रही थीं। पहले उसे हाथ में ले लिया और फिर इधर-उधर किताबों पर नज़र फेंकता रहा। एक अरसे से अलबर्तो मोराविया की किताबें खोज रहा हूँ, मिलती नहीं। फ़िक्शन सेक्शन में एल्फ़ाबेटिकल सिलसिले से किताबें रखीं हुई हैं –तक़रीबन दस-बारह रैकों पर। एम वाली किताबें दो रैकों पर हैं; मुराकामी, मार्केज़ आदि के बीच मोराविया कहीं नहीं थे।


याद आया कि पवन कुमार वर्मा की हिन्दी प्रदेश की संस्कृति और पहचान पर केन्दित पुस्तक ‘बिकमिंग इन्डियन’ बिक रही है, लगे हाथ वो भी ले ली। पिछले कुछ महीनों से लैंडमार्क में एक हिन्दी विभाग भी बनाया था। उस ओर पैर बढ़ाया तो देखा कि हिन्दी का साम्राज्य पाँच रैकों में फैल गया है; पहले दो पर था। यह प्रगति अच्छी लगी।

मुख़्तलिफ़ प्रकाशकों की मुख़्तलिफ़ विषयों पर किताबें वहाँ मौजूद देखकर ही खुशी हो रही थी कि मुख्यधारा में हिन्दी की जगह बन रही है। लेकिन ये देख कर अजीब लगा कि किताबें निहायत बेतरतीबी से रखी हुई हैं; न तो कोई सिलसिला है और न कोई विभाजन। मन बना लिया कि शिकायत करूँगा।

हेल्प डेस्क पर बैठी लड़की ने मुँह लटका कर बताया कि उन्हे हिन्दी किताबों की रोज़ाना रैकिंग* करनी पड़ती है। उस सेक्शन में सबसे ज़्यादा ब्राउज़िंग** होती है मगर सेल्स सब कम।

क्या मतलब है आख़िर इस बात का?

हिन्दी किताबों में दिलचस्पी लेने वाले किताब को अलटते-पलटते हैं और वापस कहीं भी रख देते हैं?

हिन्दी किताबें देखने वाले और अंग्रेज़ी किताबे देखने वाले अलग-अलग लोग हैं और उनका व्यवहार भी अलग है?

इस व्यवहार से जुड़ा क्या एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि भाषा आदमी का व्यवहार तय करने, उसे निखारने में मददगार होती है? भाषा सिर्फ़ भाषा नहीं संस्कारों का भी मसला है?

हिन्दी वाले (संज्ञा को छोटा कर दिया है) और अंग्रेज़ी वाले अलहदा वर्ग नहीं बल्कि एक ही हैं, बस दो भाषाओं और उनकी किताबों को लेकर उनका रवैया जुदा-जुदा है?

हिन्दी वाले किताब में रुचि तो रखते हैं लेकिन उसे ख़रीदने के लिए पैसे खर्च करने के फ़ैसले तक पहुँच नहीं पाते?

हिन्दी वालों की किताब को ख़रीद सकने की सामर्थ्य और किताबों की क़ीमतों में साम्य नहीं है?

जो भी मामला है, सुखद नहीं है, अफ़सोसनाक है!

*किताबों को विषयानुसार नियत रैक के ख़ानों में सजाना
**पन्ने पलटना



गुरुवार, 14 जनवरी 2010

घर बैठे किताबें

कवि कवितायें पढ़ते हैं। पत्रकार अख़बार पढ़ते हैं। ब्लॉग वाले ब्लॉग पढ़ते हैं। कुछ लोग कथा-कहानी भी पढ़ते हैं। कहानी- कविता–अख़बार से बा़की दुनिया में इल्म की जो किताबें हैं वो कौन पढ़ता है?

अगर कोई है तो उन से गुज़ारिश है कि किताब की दुकान में जाने की ज़हमत न उठायें। घर बैठे फ़्लिपकार्ट से किताब मँगायें और डिस्काउन्ट भी पायें। किताबों से यहाँ मेरा मतलब अंग्रेज़ी की किताबों से ही है। हिन्दी की किताबों की दुकाने हैं ही कहाँ? ऐसा माना जाता है कि हिन्दी किताबों के पाठक ही नहीं हैं और अगर हैं भी तो प्रकाशकों को उनकी फ़िक्र नहीं उनके लिए तो सरकारी अधिकारियों की सिफ़ारिश ही काफ़ी है किताब के धंधे में बने रहने के लिए और मोटा मुनाफ़ा बनाते रहने के लिए। सुना तो ये भी जाता है कि हिन्दी के प्रकाशक लेखकों को पैसे देते नहीं बल्कि लेते हैं: किताब छापने का एहसान करने के लिए। ख़ैर।

मैंने पिछले दिनों कुछ किताबों की ज़रूरत पड़ने पर उनको बुकशॉप्स में खोजा; कहीं न पाया तो फिर नेट पर खोजा। अमेज़न में थी लेकिन डॉलर्स में और किताब की क़ीमत से ज़्यादा उनके शिपिंग चारजेज़। उसी खोज में फ़्लिपकार्ट भी नज़र आया। जो किताब चाहिये थी वो थी, उसके अलावा दूसरी कई किताबें और भी दिखीं जो दिलचस्प थीं और मेरी जानकारी में नहीं थीं। किताब का मूल्य रुपये में, कोई शिपिंग शुल्क नहीं क्योंकि इसका संचालन बेंगालूरु से ही होता है, और उलटे डिसकाउंट!! चार-पाँच किताबे मँगवाई। तीन तो तीसरे दिन आ गई। और शेष भी जल्दी। पेमेन्ट बस आप को नेटबैंकिंग से या क्रेडिटकार्ड से या डेबिट कार्ड से करना होगा। सुरक्षित है।

फ़्लिपकार्ट चलाने वाले हैं सचिन बंसल और बिन्नी बंसल जो २००५ बैच के आई आई टी दिल्ली के कम्प्यूटर साइंस के स्नातक हैं। अमेज़न इंडिया में आठ मास नौकरी करने के बाद उन्होने अक्तूबर २००७ में यह काम वेबसाइट शुरु की। होनहार बच्चे आगे बढ़ेंगे ऐसी उम्मीद है!

देसी-विदेसी सभी तरह की किताबें उनके पास उपलब्ध हैं। कुछ हिन्दी के भी टाइटिल्स हैं मगर उस प्रकार के नहीं जो आम तौर पर हिन्दी साहित्य के नाम से जाने जाते हैं। देखिये दूसरे प्रकार की हिन्दी किताबों तक वो पहुँच गए लेकिन हिन्दी साहित्य (कविता-कहानी जी, और क्या?) को न जाने कौन सा संक्रामक रोग है, कोई छूना ही नहीं चाहता। आह.. रोगी चंगा हो जाय ऐसी कामना है।

पश्चलेख: बेंगालूरु से पूजा उपाध्याय ने बताया है कि फ़्लिपकार्ट पर हिन्दी की किताबें भी उपलब्ध हैं। मैं ने फिर से खोज के देखा; पहले देवनागरी में, तो कोई परिणाम नहीं आए, लेकिन रोमन में खोज करने से सुखद नतीजे दिख रहे हैं। हिन्दी किताबें भी उपलब्ध है। शायद मैंने पहले भी रोमन में कोशिश नहीं की होगी। ख़ैर, इस मसले में लिपि महत्वपूर्ण नहीं है, महत्व इस बात का है कि हिन्दी किताबें भी घर बैठे मँगाई जा सकती हैं। पूजा जी को धन्यवाद!

और रोगी का हाल इतना भी बुरा नहीं है। शायद बुरा लगता इसलिए है कि लेखक को किताब लिखने के लिए पैसे मिलते नहीं देने पड़ते हैं।

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

एक अद्भुत लेखक से परिचय

ऑरहे लुइस बोर्ग़्हेस* का रचना संसार एक ऐसा विद्वतापूर्ण जटिल और सघन दलदल है जिसमें आप उतरने से क़तरा सकते हैं। पहले वाक्य से ही वो आप को डरा सकता हैं आतंकित कर सकता है अनजाने नामों, सन्दर्भों और लोकों से। लेकिन उस साहसी पाठक के लिए जो न घबराया- न डरा, ये कहानियां बौद्धिक आनन्द का उम्दा ईनाम है।

बोर्ग़्हेस की रचनाओं के बारे में यह तय काना मुश्किल होता है कि वे दार्शनिक संवाद है जिनके भीतर कहानी के अद्भुत तत्व विद्यमान हैं या फिर वे कमाल की कहानियां हैं जो गहरे दार्शनिक अर्थों से लबरेज़ हैं।

आम तौर पर कहानियां ऐसी होती हैं कि आप एक पंक्ति का एक शब्द पढ़कर नीचे उतरते चले जाइये, सुपरमैन की तरह सुपरस्पीड से पढ़ते हुए। लेकिन बोर्ग़्हेस की कहानी में कोई वाक्य कूद कर आगे नहीं जा सकते। हर वाक्य एक नया आयाम उद्घाटित करता है। एक नयी परत खोलता है। पुराना अर्थ तोड़ता है, एक नया अर्थ जोड़ता है।

बौद्धिक तेज से चमचमाती ये कहानियां पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि बीस वर्ष पहले के दौर में लौट गया हूँ जब पहली बार मिलान कुन्देरा पढ़कर या बुनुएल की फैन्टम ऑफ़ लिबर्टी और ओब्सक्योर ऑबजेक्ट ऑफ़ डिज़ायर देखकर एक बौद्धिक सनसनी हुई थी। शायद काफ़्का के बाद बोर्ग़्हेस दुनिया के अकेले ऐसे लेखक होंगे जिन्होने अपने समय को सबसे अधिक प्रभावित किया।

बोर्ग़्हेस पोस्ट-मार्डनिस्म के अस्तित्व में आने से पहले ही वे एक पोस्ट-मार्डनिस्ट थे। वे यथार्थवादी नहीं बल्कि अल्ट्राइस्ट थे। उनका यथार्थ जैसा यथार्थ नहीं है, और स्वप्न ठीक ठीक स्वप्न ही है यह नहीं माना जा सकता है। दोनों एक दूसरे में घुलते हुए से हैं। कब स्वप्न की तरलता यथार्थ की तरह ठोस हो जाए और यथार्थ का घनत्व पिघल कर कैसा अचरजी रंग बदल ले आप तय नहीं कर सकते। उनकी हर कहानी कुछ विशेष विषय के गिर्द ही चलती है - अनन्त, असीम, भ्रम, माया, स्वप्न, परतदार सत्य, लैबीरेन्थ (जटिल भूलभुलैया या सघन गोरखी दुनिया), समय; वर्तुलाकार या चक्राकार समय।


उनकी एक मशहूर कहानी है -पियर मेनार, ऑथर ऑफ़ द ‘कीहोटि’। लेखकीय मौलिकता के ऊपर ऐसी मौलिक कहानी पहले नहीं पढ़ी थी। यह एक ऐसे लेखक की कथा जो सरवान्तीज़ के डॉन कीहोटि की पुनर्रचना में कुछ इस तरह जुटता है कि उसका एक एक लफ़्ज़ सरवान्तीज़ के साथ मेल खाता है मगर विश्लेषक या पाठक के लिए उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं क्योंकि उनकी देश काल परिस्थिति भिन्न है।

मिसाल के तौर पर एक और कहानी है ‘लाइब्रेरी ऑफ़ बेबेल’, जिसमें लाइब्रेरी ब्रह्माण्ड का एक रूपक है- ये अनन्त लाइब्रेरी एक विशाल खगोल है जो अनगिनत षटभुजों से मिलकर बनी है, जिसका केद्र तो हर एक षटभुज है पर परिधि कहीं नहीं। लाइब्रेरी सम्पूर्ण है, जिस में एक जैसी कोई भी दो किताबें नहीं हैं। और उसकी आलमारियों में २२ लेखन चिह्नों के सभी समुच्च्य मौजूद हैं। चूंकि लाइब्रेरी में सभी सम्भव लेखन उपस्थित है इसलिए दुनिया की हर समस्या, निजी और सामाजिक का हल लाइब्रेरी के किसी न किसी कोने में रखी किसी किताब के भीतर लिखा हुआ है। और इन्ही किताबों के बीच एक ऐसी किताब भी है जो कि है सम्पूर्ण किताब, जो कि बाक़ी सभी किताबों की कुंजी- सभी किताबों के रहस्य अपने भीतर छिपाये हुए है। बावजूद इस सब के लाइब्रेरी में अशांति है, अराजकता है, हताशा है..कुछ लोग किताबें जला रहे हैं, कुछ उस दिव्य किताब की खोज में विचित्र प्रयोग कर रहे हैं।

बोर्ग़्हेस की कहानियों के भीतर के कल्पनालोक में काल्पनिक लेखकों की काल्पनिक किताबें होती हैं एक नहीं तमाम। ऐसा माना जा सकता है कि ये सारी किताबें वो किताबें है जो बोर्ग़हेस स्वयं लिखना चाहते थे चूंकि उनका मानना है कि पांच सौ पन्नो की किताबें लिखने की मशक्कत एक ऐसा व्यर्थ का पागलपन जो आप के बहुमूल्य समय पर डाका डालता है, जबकि वही बात आप पांच मिनट में मुँहज़बानी सुना सकते हैं। बेहतर ये है कि मान लिया जाय कि वो किताबें पहले ही लिखीं जा चुकी हैं और सिर्फ़ उन पर टिप्पणी लिखी जाय।

पेंग्विन ने उनकी कहानियों के सारे संग्रह छापे हैं। लेकिन सबसे बेहतरीन कहानियां ‘फ़िक्शन्स’ नाम के संग्रह में संकलित है। अगर आप कहानियों के घिसे-पिटे सुर से ऊब चुके हैं तो ज़रूर आज़माईये बोर्ग़्हेस को- नाउम्मीद नहीं होंगे।




*Borges के उच्चारण को लेकर भी एक विविधता है- जो उन पर जंचती है। हिन्दी भाषी लोग इसे आम तौर पर बोर्जेस पढ़ेंगे मगर अगर आप Borges के हिन्दी अनुवाद देखेंगे तो आप को वहाँ बोर्ख़ेस लिखा मिलेगा-हिन्दी के विद्वजन भी यही उचारते मिलेंगे। G किस नियम के अनुसार ख़ में बदल जाएगा, को लेकर मेरे भीतर एक हलचल मची रही। मैंने डिक्शनरी डॉट कॉम पर देखा तो वहाँ उचारण मिला- ऑरहे लुइस बोर्हेस। यह सही भी है क्योंकि स्पेनी फ़िल्मों में Jorge (George) को ऑरहे ही बोला जाता है। लेकिन जब मैं इसे बातचीत में बोरहेस-बोरहेस बोलने लगा तो उलझन सी होने लगी। G की छवि को ह की तरह बोलने में तक़लीफ़ हो रही है बावजूद इसके कि प्रसिद्ध चित्रकार Modigliani को हम मोदिहलियानी ही कह कर बुलाते सुन सकते हैं। फिर मेरी पत्नी तनु ने मुझ से कहा कि बोरहेस का जो ह है वह हलक़ से निकलना चाहिये, अरबी के हलक़ वाले हे की तरह। मैंने बोलकर देखा- बेहतर लगा। फिर भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ। फिर ख्याल आया कि G को ग भी तो बोला जा सकता है और उसे अगर ग़ैन वाले ग़ की तरह बोला जाय तो कैसा रहे? तो हुआ बोरग़ेस मगर डिक्शनरी डॉट कॉम का उच्चारण इससे मेल नहीं खाता। लिहाज़ा मैंने दोनों को मिला दिया और पाया – बोर्ग़्हेस। ये काफ़ी कुछ असली उच्चारण के क़रीब है।

शनिवार, 31 जनवरी 2009

रिलायंस दि रियल नटवर

आजकल विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के नाम की बड़ी धूम है। दो साल पहले उनकी कुर्सी पर नटवर सिंह विराजमान थे। वे किस अपराध के चलते गद्दी से उतारे गए, ये जनता भुला चुकी है। कुछ तेल का मामला था.. इराक़.. सद्दाम हुसेन..नटवर ने उसमें घूस खाई थी.. जाँच हुई.. उनको निकाला गया.. । मगर उस सारे प्रकरण से रिलायंस का लेना देना? रिलायंस .. रियल नटवर.. इसका क्या मतलब है..?

बताता हूँ क्या मतलब है.. पहले याद दिलाता हूँ कि इराक़ में क्या हुआ था..
१९९१ में सद्दाम हुसेन ने तेल के लालच में कुवैत पर हमला किया। जवाब में अमरीका ने उसे बुरी तरह मसल डाला और उस पर सयुंक्त राष्ट्र के ज़रिये तमाम पाबन्दियाँ भी थोप डाली.. सब से खास ये कि कोई इराक़ के साथ व्यापार नहीं करेगा। नतीतजतन इराक़ में एक मानवीय संकट पैदा हो गया। रहम खाकर (या तेल की भूख से प्रेरित हो कर, भगवान जाने) १९९६ में सं. रा. ने ऑइल फ़ॉर फ़ूड नाम का एक कार्यक्रम ईजाद किया जिसमें इराक़ अपना तेल सं. रा. को देगा। वो तेल सं. रा. अपने पास लिस्टेड कम्पनियों को बेचेगा और उस से हुई आमदनी का एक हिस्सा अमरीका को (युद्द क्षति पूर्ति), दूसरा हिस्सा कुवैत को (हरजाना), और बची हुई ३०% धनराशि से अनाज और दवाईयाँ खरीद के इराक़ की जनता के लिए इराक़ भेज दी जायेंगी।

मरता क्या न करता.. इराक़ ने ये प्रस्ताव मंज़ूर किया। चार साल तक यह कार्यक्रम ईमानदारी से चला। मगर सन २००० में सद्दाम, सं. रा. के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और बिचौलियों ने मिलकर एक ऐसी योजना तैयार की जिस के ज़रिये सब लूट-खसोट और बन्दरबाँट कर सकें। सद्दाम ने शर्त रखी कि कि इराक़ तय करेगा कि तेल किसे दिया जाय और हर बैरल तेल पर सरचार्ज की छोटी धनराशि की अदायगी करनी होगी.. सद्दाम की ये मासूम सी शर्त सं. रा. ने मान ली।

सद्दाम तय करता कि तेल किसे देगा.. वो नटवर सिंह भी हो सकते थे.. स्पेन की एक राजनीतिक पार्टी भी और कोफ़ी अन्नान के सुपुत्र भी। तेल का ईनाम पाने वाले ये लोग किसी तेल कम्पनी को ये तेल बेच देने के लिए स्वतंत्र थे। मतलब कि जो रिश्वत या सरचार्ज, नटवर ने सद्दाम को दी वो तेल कम्पनी से वसूल ली। इस पूरे खेल में निश्चित ही सं.रा. के अधिकारी भी बराबर कुछ प्रसाद पाते रहे। रिश्वतखोरी का ये सिलसिला लगभग साढ़े तीन साल तक चलता रहा.. जो सद्दाम के अपदस्थ होने के साथ ही थमा जब ऐसी किसी पाबन्दी और कार्यक्रम और सरचार्ज के और औचित्यों को पछाड़ते हुए इराक़ के तेल के कुँओ में ही जार्ज बुश ने अपना सर डाल दिया। और इस पूरे मामले पर वोलकर रपट सामने आई।

नटवर सिंह पर वापस लौटते हुए पूछा जाय कि आखिर उनका अपराध क्या था? उनका अपराध ये था कि उन्होने (या उनके बेटे जगत और अन्दलीब सहगल ने) सरचार्ज नाम की रिश्वत दी और ईनाम में मिले लगभग तीन मिलियन बैरल तेल को तेल कम्पनियों को बेच कर एक मोटी रक़म कमाई। (ये बात अलग है कि दीग़र हालात में ये व्यवहार सामान्य व्यापार का हिस्सा माना जायेगा.. मगर चूँकि अमरीका के दबाव में सं.रा. ने जो पाबन्दियाँ लगाईं थी.. उसका उल्लंघन हुआ था इसलिए ये निश्चित अपराध था)। नटवर सिंह, उनके बेटे जगत सिंह, और उसके दोस्त अन्दलीब सहगल पर तीन मिलियन बैरल तेल के आपत्तिजनक रिश्वतखोरी में मुलव्वस होने का आरोप लगा।

संसद में कांग्रेस, बीजेपी और वाम दलों ने नटवर को खूब धिक्कार, नैतिकता के दुहाई दी गई, भ्रष्टाचार को क़तई सहन न करने की क़समें खाईं गईं। जस्टिस पाठक की अध्यक्षता में एक जाँच कमेटी बैठाई गई। मीडिया में महीनों तक ब्रेकिंग न्यूज़ का बाज़ार गर्म रहा। और सब ने नटवर जैसे भ्रष्ट, अनैतिक मंत्री को सत्ता से धकेल कर ही दम लिया जब देश में वापस शुचिता की बयार मंद-मंद बहने लगी।

लेकिन इसी मामले में रिलायंस पन्द्रह मिलियन बैरल तेल को खरीदने और उस से लाभान्वित होने का अपराधी था मगर उस बारे में किसी ने कोई बात नहीं की। न सोनिया ने, न चिदम्बरम ने, न कपिल सिब्बल ने, न प्रणव मुखर्जी, न ईमानदारी की प्रतिमूर्ति मनमोहन सिंह ने, न लाल कृष्ण अडवाणी ने, न मुलायम और अमर सिंह ने। वाम दलों ने एक प्रेस कान्फ़्रेस में रिलायंस की जांच करने की माँग ज़रूर की मगर संसद का सत्र शुरु होने के पहले मुकेश अम्बानी साक्षात सीपीएम मुख्यालय में जाकर सीताराम येचुरी से मिल कर आ गए और येचुरी संसद में रिलायंस का नाम लेने से क़तरा कर निकल गए।

भारतीय मीडिया के पुरोधा प्रणव राय, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, और अरणव गोस्वामी (सम्भव है ये सभी उस समय अपनी वर्तमान स्थिति में न रहे हों) एक ने भी रिलायंस का नाम एक दफ़े भी उच्चारित होने देने का महापाप होने नहीं दिया। एकाध अपवाद को छोड़कर अधिकतर प्रिंट मीडिया ने भी मौन की साधना की।

ये सच है कि रिलायंस ने सद्दाम की सत्ता से सीधे तेल नहीं खरीदा। बल्कि एलकॉन नाम की एक कम्पनी की आड़ से तेल खरीदा.. जबकि एलकॉन की तरह वो भी सं.रा. में रजिस्टर्ड कम्पनी के बतौर लिस्टेड है और सरचार्ज के पहले लगातार सीधे तेल खरीदता रहा था। वो चाहता तो सरचार्ज की शर्त के बाद भी ये सौदा सीधे कर सकता था।

मगर निश्चित ही वो इन खेलों का पुराना माहिर है और अवैध रस्तों के उसे सारे पैंतरे और भविष्य में आने वाले फन्दों की अच्छी जानकारी है। और उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये खेल ग़ैर-क़ानूनी है इसीलिए उसने ये सावधानी बरती। मगर इस से उसका अपराध कम नहीं हो जाता.. और वोल्कर रपट पर पाठक कमेटी और ससद में बहस का मुद्दा फ़ूड फ़ॉर आइल कार्यक्रम में मुलव्वस सभी भारतीय व्यक्तियों और संस्थाओं का पर्दाफ़ाश करना था.. और नटवर सिंह की तरह रिलायंस भी एक नान कान्ट्रैक्क्चुल बेनेफ़िशियरी था। इसलिए जितना अपराध नटवर का था उतना रिलायंस का भी।

तो किस रिश्तेदारी के चलते लोकतंत्र के तीनों-चारों खम्बे रिलायंस और मुकेश भैया के प्रति धृतराष्ट्र की वात्सल्य दृष्टि अपनाए रहे? किस रिश्तेदारी के चलते..? क्या ये तथाकथित जनता के प्रतिनिधि.. जनता के प्रतिनिधि हैं या नहीं? नहीं हैं तो किस के प्रतिनिधि हैं.. विचार करें.. लोकतंत्र में लोक का असली अर्थ कुछ अन्य है.. या लोक और तंत्र के बीच कोई अन्य शब्द प्रच्छन्न है?


और जानकारी के लिए पढ़िये अरुण के अग्रवाल द्वारा लिखित किताब रिलायंस दि रियल नटवर



इस किताब के बारे में मुझे मेरे विस्फोटक मित्र संजय तिवारी ने बताया था.. उन्हे धन्यवाद!

इसी किताब का एक और रिव्यू

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

मैं हिन्दू क्यों नहीं: कांचा ऐलय्या

कांचा ऐलय्या की किताब 'मैं हिन्दू क्यों नहीं' का उप शीर्षक हिन्दुत्व दर्शन, संस्कृति और राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक शूद्रवादी विश्लेषण ज़रूर है मगर किताब अपने विश्लेषण पक्ष में कुछ दुर्बल रह जाती है और अपनी पहले से तय की हुई प्रस्थापनाओं को सिद्ध करने की आतुरता में अधकचरे निर्णय सुनाने लगती है।

किताब के आखिरी अध्याय में ऐलय्या दलित चिंतन की परम्परा में बुद्ध, फुले और आम्बेडकर के बाद अपना ज़िक्र भी करते हैं। एक महान परम्परा में उचित स्थान पाने की उनकी ये महत्वाकांक्षा सफल हो गई होती यदि उन्होने आम्बेडकर जैसी शोध के अनुशासन, और वैश्लैषिक पद्धति पर निर्भरता दिखाई होती। अफ़सोस है कि एक लम्बे समय तक आम्बेडकर जैसे विद्वानों को अपना सही स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे दलित थे और फिर अफ़सोस है आज कांचा ऐलय्या जैसे विद्वानों को उनकी प्रतिभा से अधिक महत्व दिया जा रहा है क्योंकि वे दलित हैं।

ऐलय्या हिन्दू देवताओं और मिथकों का विश्लेषण करते हुए एक बेहद सहूलियतपरस्त रवैया अख्तियार करते हैं। वे जब चाहते हैं उसे इतिहास बताते हैं और जब चाहते हैं ब्राह्मणों की गढ़ी हुई कहानी क़रार दे देते हैं। रावण एक महान दलित बहुजन राजा था और उसके ब्राह्मण होने की बातें बकवास हैं- ये कहते हुए वे जानते हैं कि कि रावण का होना और उसका ब्राह्मण होना एक ही प्रकार के स्रोतों से मालूम होता है फिर भी वे हंस की भाँति अपने मनमाफ़िक मोती चुनते रहते हैं।

ऐसा नहीं है कि किताब पूरी तरह से खोखली है और उसमें कोई आकर्षक निष्कर्ष नहीं हैं। अब जैसे ऐलय्या जी बताते हैं कि विद्या की देवी सरस्वती स्त्री होते हुए भी हिन्दुत्व में स्त्रियों के विद्यार्जन पर पाबन्दियाँ बनी रहीं। और धन की देवी लक्ष्मी होने के बावजूद स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्से का अधिकार नहीं मिलता रहा। हिन्दू धर्म की ऐसी अन्तर्निहित विसंगतियों के विपरीत वे अपनी दलित बहुजन संस्कृति की देवियों-पोचम्मा और कैटसम्मा के गुण और उदारता का वर्णन करते हैं जो अपने भक्तों पर किसी प्रकार का दबाव नहीं करतीं।

ऐलय्या बताते हैं कि बचपन से ही सिखाई जानी वाली जातीय भेदभाव के अलावा किस तरह बचपन से ही उनका जातीय प्रशिक्षण शुरु हो जाता है जिसमें वे पेड़-पौधों और जानवरों के साथ रिश्तो के बारे में तमाम बाते सीखते हैं जबकि स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और भाषा उनके जीवन के परिवेष से पूरी तरह विलगित बनी रहती हैं। यहाँ तक कि उनके लिए वेद-पुराण और ओथेलो एक बराबर से अजूबे होते हैं।

वे ये भी बताते हैं कि हिन्दू मानस किस तरह से एक तरफ़ तो अनेको कामुक देवताओं और काम कला की रचना करता है और दूसरी ओर अपने समाज पर तमाम वर्जनाओं की गाँठें भी मारे रखता है जबकि इन कामुक कल्पनाओं और वर्जनाओं दोनों से मुक्त दलित बहुजन समाज में यौनिक चेतना एक स्वतः स्फूर्त ढंग से विकसित हो जाती है।

एक लम्बे समय तक भारतीय राजनीति में में दलित बहुजन की भूमिका और रामराज्य में हनुमान की भूमिका का उनका समांतर बेहद सटीक है। मगर आने वाले दिनों में जिस दलितीकरण की प्रक्रिया की बात वो कर रहे हैं वो फ़िलहाल की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कैसे सम्भव होगा इस विस्तार में वे नहीं जाते, जबकि दलित बहुजन भी अपनी सामुदायिकता को छोड़-छाड़ निजी सम्पत्ति की होड़ में कूद पड़े हैं।

अपनी भावना और राजनीति में सही होते हुए भी मुझे लगता है कि ऐलय्या जी का विश्लेषण, ऐतिहासिक उत्पीड़न और आज भी चल रहे भेदभाव से उपजे अपने क्षोभ और आक्रोश के चलते बीच-बीच में विक्षेप का शिकार होता रहता है।

ऐलय्या किताब में जब-जब एक निजी नज़रिये से चीज़ों को विश्लेषित करते हैं तो उनकी बात तीर की तरह पैनी होती है और अचूक होती है। जैसे कि उन्हे स्कूल में कभी फुले और आम्बेडकर के बारे में नहीं पढ़ाया गया.. लेकिन ऐसी घटनाओं से वे अपने हड़बड़ाए निष्कर्ष निकालने में सरलीकरण और सामान्यीकरण के शिकार हो जाते हैं।

कांचा ऐलय्या की ये भी प्रस्थापना है कि ब्राह्मण जाति गैर उत्पादक और निष्क्रिय शक्ति है। मुझे यह एक झाड़ूमार बयान लगता है क्योंकि यदि वेद-पुराण, पठन-पाठन, अध्यात्म और दर्शन सब गैर-उत्पादक क्रियाएं हैं तो फिर वे आधुनिक विश्वविद्यालयों में कार्यरत उनके अपने जैसे प्राध्यापकों के काम और अपनी इस किताब की भी उपयोगिता को कैसे सही ठहरा पाएंगे?

वे भी तो न तो खेत में हल चला रहे हैं और न पत्थर ढो रहे हैं.. बन्द कमरे में बैठ कर अपने वर्ग/जाति के हितों के लिए तर्कों का एक तानबाना बुन रहे हैं। आम जनता द्वारा एकत्रित कर से अपना वेतन पाने वाले ऐलय्या जी ब्राह्मणों पर भी तो यही करने का तो आरोप लगा रहे हैं। मगर इस विरोधाभास को वो चिह्नित नहीं करते उलटे वे मानते हैं कि हज़ारों सालों से उत्पादन से दूर रहने के कारण ब्राह्मण-बनिया एक ठस, तर्कहीन, अविवेकी और हिंसक मानस में कै़द हो गया है।

ऐलय्या मानते हैं कि पिछड़ी जाति से आने वाले नवक्षत्रिय हाल में सत्ता में भागीदारी पा गए हैं मगर सत्ता मिलते ही वे भी ब्राह्मणवादी रंग में ढल गए हैं। दक्षिण की पिछड़ी जातियों के उभार और उत्तर में भी उसकी अनुगूँज को रेखांकित करते हुए ऐलय्या जी भूल जाते हैं कि बुद्ध कालीन नन्द वंश, मौर्य वंश, और आल्हा ऊदल जैसे अनेको मध्यकालीन योद्धा भी उच्च जातियों के न होते हुए भी सत्तावान थे और ब्राह्मण उनकी सेवा में थे।

शिवाजी के राज्याभिषेक करने से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने इनकार ज़रूर कर दिया था मगर काशी के ब्राह्मणों ने ये सम्मान हाथ से जाने नहीं दिया। बाद के वर्षों में पेशवा के सेनापतियों में भोंसले, होलकर और शिन्दे भी उच्च जातियों से नहीं थे। एक तरफ़ वो एक ब्राह्मण पेशवा के सेवक थे और दूसरी ओर तमाम ब्राह्मण उनके आश्रित थे। इतिहास में ब्राह्मणों और पिछड़ी जातियों,शूद्रों और दलितों का सम्बन्ध इतना सरल एकांगी नहीं रहा है जितना अक्सर विद्वजन पेश करते रहे हैं।

ऐलय्या इच्छा ज़ाहिर करते हैं कि दलित बहुजन, पिछड़ी, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों का मिलाजुला मंच तैयार हो मगर किताब लिखने के दस साल भीतर ही मायावती ने उनकी इच्छाओं को नज़रअंदाज़ कर के ब्राह्मणों के साथ साझीदारी कर ली है।

एक तरफ़ तो ऐलय्या नेहरू, गाँधी आदि तथाकथित बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ो द्वारा ढाला गया बताते हैं दूसरी तरफ़ आम्बेडकर और फुले के उभार को स्वीकार करना अंग्रेज़ो की मजबूरी बता कर फिर एक बार सुविधाजनक तर्क इस्तेमाल करते हैं। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद ने भी ब्राह्मणवाद की ही मदद की.. पर ऐसा करते हुए वे आम्बेडकर को मिले ज़बरदस्त ब्रिटिश सहयोग को झुठला देते हैं।

ऐलय्या बराबर परिवर्तन में भौतिक स्थितियों की भूमिका को नकारते हुए किसी वर्ग या जाति की सनक और दुराग्रहों को ही ज़िम्मेदार ठहराते जाते हैं। ऐलय्या कहते हैं कि तीन हज़ार साल में अकेले आम्बेडकर ऐसे थे जिन्होने महार घर में जन्म लेकर दलितबहुजन चेतना को जन्म दिया। ऐसा कहते हुए वे रैदास, दादू और कबीर को भूल जाते हैं क्या उनकी आध्यात्मिक चेतना भी सिर्फ़ ब्राह्मणवादी चेतना थी या समाज भौतिक रूप से उस परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुआ था जो फुले और आम्बेडकर अपने समय में अंजाम दे सके?

ऐलय्या जी की शिकायत है कि भारत में ब्राह्मणों ने दलितबहुजन के प्रति एक साज़िश के तहत चुप रखकर उन्ह बहिष्कृत किया गया है जबकि योरोप में परस्पर विरोधी संस्कृतियों को भी अपने इतिहास में जगह दी गई है। एक तो वैसे ही भारतीय स्रोतों को ऐतिहासिक स्रोत नहीं गिना जाता यदि ऐलय्या जी उन्हे यह दरजा दे रहे हैं तो पूछा जा सकता है कि पौराणिक आख्यानों में असुर कौन हैं, राक्षस कौन हैं, नाग कौन हैं, दैत्य कौन हैं.. क्या वे विरोधी संस्कृतियों की उपस्थिति नहीं हैं बावजूद इसके कि इस उपस्थिति में एक संस्कृति के गुण और दूसरी के दोष बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए हैं?

ऐलय्या जी अपने किताब में बार-बार बताते हैं कि हिन्दू धर्म संसार का सबसे उत्पीड़क धर्म है और इस्लाम और ईसाईयत आध्यात्मिक लोकतांत्रिक धर्म हैं। वे विभिन्न धर्मों के प्रति कैसी भी राय बनाने और रखने के लिए स्वतंत्र हैं मगर जातीय विभाजन के चारित्रिक दोष के आधार पर हिन्दू धर्म के बारे में यह निर्णय अतिरंजित है।

क्या हिन्दू धर्म इसलिए अलोकतांत्रिक है कि वे उसके भीतर रहते हुए आप किसी भी पूजा-पद्धति और आध्यात्मिक परम्परा को अपनाने और अपनी नई चलाने के लिए भी स्वतंत्र है? तथाकथित लोकतांत्रिक धर्म इस्लाम और ईसाईयत भी आप को यह विकल्प नहीं देते।

दूसरी तरफ़ हिन्दू धर्म छोड़ने पर भी गोवा में कथोलिक ब्राह्मण और मछुआरों के बीच का जातीय विभाजन कम नहीं हो जाता यहाँ तक कि उनके चर्च भी अलग-अलग होते हैं। अमरीका जैसी महान लोकतांत्रिक संस्कृति में भी काले और गोरे चर्चों का भेद आज भी बना हुआ है।

मोहम्मद साहब ने इस्लाम में सबकी बराबरी की बात ज़रूर की है मगर अरब में सिर्फ़ मुसलमान ही रहेंगे और खलीफ़ा सिर्फ़ क़ुरैश से ही होगा क्या यह आग्रह किसी जातीय र्रंगत से मुक्त है? भारत में अंसारी और सैय्यद क्या एक बराबर हैं? इस्लाम के भीतर स्थानीय संस्कृति के आयामों के लिए कितना स्थान है? क्या वो बहुत हद तक अरब संस्कृति में ही केन्दित नहीं है?

दोष-दर्शन करना हो तो इस्लाम और ईसाईयत में भी हज़ारों दोष गिनाए जा सकते हैं। ईसा की करूणा से द्रवित होने वाले यूरोपी लुटेरे लैटिन अमरीका की मूल अमेरी जनजाति का संहार पादरियों के आशीर्वाद के साथ करते थे क्योंकि उनके अनुसार जो ईसाई नहीं वे जीने योग्य नहीं थे। उत्तरी अमरीका में वहाँ आज की मूल रेड इंडियन की जनसंख्या क्या है? क्या वे सब ज़हर खा के मर गए या एक गहरी नफ़रत की नीति के तहत उनका क़त्ले आम किया गया?

ऐलय्या साहब मानते हैं (बिना किसी प्रमाण के) कि आर्य ब्राह्मण बाहर से आए और उन्होने यहाँ के मूल दलितबहुजन को अपदस्थ कर दिया। । यदि एक पल के इसी कहानी को ऐतिहासिक सच्चाई मान भी लिया जाय तो क्या वे प्राचीन आर्य ब्राह्मण आधुनिक आतताईयों से भी गए गुज़रे इसलिए हुए क्योंकि उन्होने बजाय दलित बहुजन का सफ़ाया करने के बजाय उनके साथ एक सामाजिक संयोजन बनाया और एक ही सामाजिक व्यवस्था में रहने का विधान बनाया?

कांचा ऐलय्या की यह किताब हिन्दुत्व दर्शन और संस्कृति की कोई विवेकपूर्ण जाँच नहीं करती बल्कि पूर्व नियोजित निष्कर्ष अपने पाठक पर थोपती है और बताती है कि हिन्दू धर्म का हर एक आयाम सिर्फ़ दलित बहुजन का उत्पीड़न करने के लिए ही है। बड़े दुःख की बात है कि अपनी इस अतिवादी सोच का विस्तार करते हुए वे अपनी चिन्तन शैली में उन्ही हिन्दुत्व वादियों के साथ जा कर खड़े हो जाते हैं वे जिनका इतना भीषण विरोध कर रहे हैं।

हिन्दुत्ववादी मानते हैं कि देश की हर समस्या का कारण मुसलमान और इस्लाम हैं और ऐलय्या घोषणा करते हैं कि सब मुसीबत ब्राह्मणों की खड़ी की हुई है। इस तरह के ब्लैक एंड व्हाईट नज़र से सच्चाई को पकड़ने की उम्मीद बेमानी है। और अन्ततः कांचा ऐलय्या साहब भी निराश ही करते हैं।

कांचा ऐलय्या साहब का सोचना है कि भारत में हिन्दूकरण का जवाब दलितीकरण होना होगा- मतलब ये कि हिन्दुओं को दलित संस्कृति और मूल्यों से सीखना होगा। मुझे उनके इस विचार से कोई दिक़्क़त नहीं.. मेरा स्वयं का भी मानना है कि हिन्दू (भारतीय) संस्कृति ऐसी सड़ाँध भरी अवस्था में पहुँचती जा रही है कि जिसमें उसे बहुत कुछ भूलने और बहुत कुछ फिर से सीखने की ज़रूरत है।

और अपने उन बन्धुओं से तो ज़रूर जिनके ऊपर हज़ारों साल तक उच्च जातियाँ अत्याचार करती रहीं। पर मेरा ऐतराज़ इस दलितीकरण शब्द है। ये ठीक है कि गाँधी जी के हरिजन के जवाब में तत्कालीन राजनीति के परिदृश्य में दलित शब्द उपयुक्त था जो ऐतिहासिक उत्पीड़न की स्मृति अपने कलेजे में छुपाए था। मगर आज जब समाज के दलितीकरण की बात होने लगी है तो अच्छा हो कि हम एक नया शब्द ईजाद करें जो एक सकारात्मक भाव जगाता हो।

मित्रगण मुझे माफ़ करेंगे कि मैं ऐलय्या जी की किताब के नकारात्मक पहलुओं की ही चर्चा कर रहा हूँ जबकि किताब पढ़ते हुए तमाम मौकों पर मैं अपने पुरखों पर शर्मसार भी होता रहा और अपनी संस्कृति के उन पहलुओं पर विक्षुब्ध भी होता रहा जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती रही। इस विषय में रुचि रखने वाले मित्रो से निवेदन है कि वे किताब हासिल कर के खुद पाठ करें.. और अपनी राय क़ायम करें। किताब कलकत्ता के साम्य प्रकाशन (१६ सदर्न एवेन्यू, कोलकाता) ने छापी है और मूल्य है मात्र १२० रुपये, हिन्दी अनुवाद किया है ओमप्रकाश वाल्मीकि ने।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

किताबें किताबें किताबें

पिछले दिनों भाई बोधिसत्व दिल्ली के पुस्तक मेले से लौटे तो मेरे लिए भी कुछ लाए और कुछ तमाम कोशिशों के बावजूद नहीं ला पाए। जो नहीं ला पाए वो थीं उर्दू के जादुई अफ़सानानिगार नैय्यर मसूद की कहानियाँ। मैंने उनको अंग्रेज़ी में पढ़ा है पर मूल उर्दू में पढ़ना चाहता था। मगर इतने बड़े पुस्तक मेले में उन नैय्यर मसूद के लिए जगह नहीं थी, जो मेरी समझ से विनोद कुमार शुक्ल के साथ हिन्दुस्तान के सबसे बड़े साहित्यकार हैं। उर्दू की इस देश में क्या दशा है इस बात से साफ़ ज़ाहिर हो जाती है।

खैर.. सान्त्वना के तौर पर बोधि मेरे लिए दो किताबें ले कर आए..

Rubaiyat of Umar khayyam a facsimile of the manuscript (इस में उमर खय्याम के अपनी हस्तलिपि में लिखी पूरी किताब के चित्र दिये हैं.. अमूल्य पुस्तक है, बोधि को बहुत धन्यवाद) और फ़्योदोर दोस्तोयेवेस्की कृत दरिद्र नारायण / रजत रातें

पिछले दिनों जब रवीश कुमार और काकेश पुस्तक मेले से अपनी खरीदारी की सूची अपने ब्लॉग पर डाल रहे थे तो मैं भी मुम्बई की दुकानों में कुछ पैसे लुटा रहा था.. देखिये मैंने क्या-क्या खरीदा..

(डच लेखक )सेस नोटेबोम लिखित दो प्रेमियों का अजीब क़िस्सा (अनुवादक विष्णु खरे)
महान गुरु कन्फ़्यूशियस (एक परिचय)
प्लेटो की संवाद (सिर्फ़ तीन संवादों का अनुवाद)
फ़िरदौसी का शाहनामा (संक्षिप्त गद्य अनुवाद)
जेम्स डी वॉटसन कृत डबल हेलिक्स (डी एन ए संरचना की खोज का व्यक्तिगत वृत्तांत)
The Red Queen by Matt Ridley ( बेहद चर्चित पुस्तक ‘जेनोम’ के लेखक की पहली किताब)
The Immortal Cell by Michael D. West (on the mystery of human ageing)
Dubliners by James Joyce
The Mahabharata by Jean Claude Carriere (प्रसिद्ध स्क्रीनराइटर का किया हुआ महाभारत का स्क्रीन एडैप्टेशन)
The Geneaogy of Morals by Friedrich Nietzsche


इन के अलावा और जो किताबें जिनमें झाँक-झाँक के देख/पढ़ रहा हूँ वो ये हैं-

The Story of Philosophy by Will Durant
राहुल सांकृत्यायन लिखित दर्शन दिग्दर्शन
The Analects by Confucius
My Name Is Red by Orhan Pamuk
On the Suffering of the World by Arthur Schopenhauer
ज़िक्रे मीर
रति पुराण (पुराणों से उठाये गए रति प्रसंगो का एक संकलन)


मैं बिलकुल भी इन किताबों को पढ़ना नहीं चाहता पर क्या मजबूरी है.. पढ़ना पड़ रहा है क्योंकि इन सारे लेखकों को एक साथ भृत्य रखना सम्भव नहीं। रख सकता तो भरतलाल की तरह उनसे जीवन का ज्ञान-अनुभव लहाता रहता। पर क्या करें.. मुझे मालूम है वे राजी नहीं होंगे.. हो भी गए तो इतनी पगार माँग लेंगे कि मेरी हवा निकल जाएगी। और कुछ तो वैसे भी स्वर्ग/ नरक सिधार गए हैं। तो बस स्थानापन्न में अमूल्य जीवंत मनुष्य छोड़कर सौ-दो सौ रुपल्लियों की चीज़ों से काम चलाना पड़ रहा है।

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

दि काइट रनर

लड़कपन की मासूम दुनिया के बेहद भावुक चित्रण की सफल किताब है दि काइट रनर। किताब में कई जगह घटनाए, भाव बनकर सीधे आप के भीतर उतर जाती हैं। किताब पढ़ते हुए आप बच्चे के अनुराग, उत्साह, ईर्ष्या और ग्लानि के साथ-साथ डूबते-उतराते रहते हैं। यहाँ तक मैं अपनी शरीके हयात की राय से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ पर किताब का एक राजनैतिक पहलू भी है। और अफ़ग़ानिस्तान की उबलती हुई राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई यह किताब एक बार भी राजनीति की चर्चा नहीं करती- बस एक नायक के पिता का बयान है जो बार-बार दोहराया जाता है कि वो मुल्लाओं की दाढ़ी पर पेशाब करना चाहते हैं। बुरा आइडिया नहीं है पर मुझे ये अधकचरी समझ नहीं शातिर सोच लगती है।

राजनीति की बात न करना भी एक तरह की राजनीति होती है। दि काइट रनर पढ़ने वाला कोई भी पाठक तालिबानी मुल्लाओं की दाढ़ियों के प्रति वही नज़रिया रखेगा जो नायक के अब्बाजान रखते हैं; बिलकुल बुरा आइडिया नहीं है। मगर मेरा सवाल यह है कि क्या तालिबान और रूसी फ़ौजे ही अफ़ग़ानिस्तान का पूरा सच है.. अमरीका और आई एस आई की भूमिका शून्य रही है। और अगर कुछ रही है तो लेखक इस बारे में क्या छाप छोड़ता है?

उपन्यास के पहले हिस्से में बचपन के वो जादुई साल १९७३ के पहले के शाह ज़हीर शाह के काल में पैबस्त है। और जब रूसी सेनाएं काबुल में घुस आती हैं और उथल-पुथल शुरु होती है तब नायक और उसका परिवार अमरीका रवाना हो जाते हैं और इस दौरान कहानी कई छलांग लेती है। फिर एक नाटकीय मोड़ के बाद कहानी वापस २००१ के जून में खुलती है जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में क़ाबिज़ हैं।

९/११ के बाद अमरीका के हमले की चर्चा किताब के आखिरी अध्याय में सरसरी तौर पर की गई है बहुत सम्हाल के इस तरह से की गई है कि अमरीका उसमें निर्दोष ही दिखता रहे। नायक के जीवन के उस दौर में जब वो और उसके पिता अफ़ग़ानिस्तान से पलायन कर के अमरीका प्रवास कर रहे थे, तब अमरीका उनके देश में कैसी भूमिका निभा रहा था उसकी कोई चर्चा नहीं की गई है। और इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास का अधिकारी नियमों की दुहाई देने के बावजूद जिस परोक्ष रूप से नायक की मदद करता है वो भी अमरीका की सकारात्मक छवि बनाने में योगदान करता है।


तो भाई साहब बचपन की निर्दोष मानसिक पटल के दोषों की दुनिया उकेरने वाले खालिद होसेनी की राजनीति उतनी मासूम नहीं है जितनी नज़र आती है। और यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि अमरीकी प्रकाशन उद्योग और फ़िल्म उद्योग ने इस कहानी को हाथोहाथ लिया है। मुझे अफ़सोस है कि जिस पतंग को लेकर खालेद होसेनी साहब दौड़ रहे हैं वो पतंग नहीं परचम है.. अमरीकी परचम।

बेदर्द दुनिया टीवी की

काफ़ी सालों से मेरी बीबी तनु मुझसे ज़्यादा किताबें पढ़ती रही है। ब्लॉग खोलने के बाद से जैसे मेरा एक नया जन्म हुआ और मैंने लिखने के साथ-साथ फिर से पढ़ना भी शुरु कर दिया और उपन्यास जिनको मैं बहुत पहले अलविदा कह चुका था.. उन्होने वापस मेरी मेज़ पर अपनी जगह पा ली! आप को यह बात थोड़ी खटक सकती है कि यह आदमी जो टीवी सीरियल लिखकर अपना पेट पालता है और उपन्यास के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ रहा है.. हद है!

पर क़सम से इसमें हिक़ारत/हिमाक़त जैसी कोई बात नहीं बल्कि हिकायत (कहानियाँ) गढ़ने के जिस बेदर्द टीवी की दुनिया में हूँ उसमें मेरे जैसे दूसरे लेखकों को फ़िक्शन पढ़ने के नाम पर उबकाई नहीं आती; मुझे इस बात की हैरानी होती है। साहित्य की दुनिया में लोग कहानी के साथ सुई-धागे से कढ़ाई जैसा व्यवहार करते होंगे शायद (मै नहीं जानता.. मैं साहित्यकार नहीं हूँ)। फ़िल्म वाले कढ़ाई नहीं करते कढ़ाई में सब्ज़ी-मसाले छौंकते जैसे कहानी बनाते हैं (इसका अनुभव है मुझे)। पर टीवी में हम लेखक (साथ में क्रिएटिव डाइरेक्टर और चैनल) कहानियों को कभी लकड़बग्घों की टोली की तरह नोचते-खसोटते हैं कभी क़साई की तरह काटते-छाँटते हैं।

रोज़ ब रोज़ अपने चरित्रों के एक्सीडेंट/ बीमारी/ हत्या/ कलह/ क्लेश/ तलाक़ हँसते-खेलते कर जाते हैं। इसलिए खुद शातिरपना करते हुए किसी और का शातिरपना देखना मनोरंजक अनुभव नहीं रहा। तो उपन्यास पढ़ना छूटा, टीवी सीरियल देखना भी छूटा (अपना लिखा भी नहीं देखता था.. आज भी नहीं देखता), हिन्दी फ़िल्में जो कभी रोज़ एक दो देखता था.. वो भी छूटा.. बस विदेशी फ़िल्में देखता रहा और दूसरी क़िस्म की किताबें पढ़ता रहा।

मैं कहानियों से कितना पका हुआ था/हूँ कि दुनिया-जहान की बात की मगर पिछले एक साल में मैंने शायद ही किसी कहानी के बारे में चर्चा कभी ब्लॉग पर की। पर ब्लॉग लिखते हुए और एक लम्बी (ओढ़ी हुई) बेरोज़गारी के चलते कुछ भीतर बदल गया और फिर से सहज होने लगा हूँ कहानियों के प्रति।

और इस बदलाव का नतीजा ये हुआ कि मैं पढ़ने भी लगा और उन उपन्यासों की चर्चा करने लगा जो तनु ने नहीं पढ़े थे। तो तंग आकर जवाबी कार्रवाई में उसने भी अपने व्यस्त शेड्यूल के बीच आते-जाते कार में एक ऐसा उपन्यास पढ़ डाला जो मैंने नहीं पढ़ा था- दि काइट रनर। और उसकी खुले दिल से तारीफ़ भी कर डाली.. तो भई मैंने भी हाथ में ले लिया दि काइट रनर। मुझे पढ़ कर कैसा लगा.. यह पढ़िये यहाँ..

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

हाँ से बेहतर जवाब नहीं है..

..अपनी जवानी में मैं कभी खुश नहीं रहा.. हमेशा लड़कपन की लतों और आदतों में फँसकर बरबाद रहा.. उमर बढ़ने पर मुझे अपनी गलतियों का एहसास हुआ और दिखने लगा कि मेरा क्या अंत होगा अगर मैंने अपने आप को नहीं सुधारा.. तो मैंने दुनिया से अपने को काट लिया और सोचने लगा कि आदमी के शरीर पर उमर चढ़ने के साथ बेस्वाद क्यों होती जाती है ज़िन्दगी...

क्या आप बता सकते हैं कि इतना सब सोचने के बाद मुझे क्या पता चला? ..यही कि ‘हाँ’ से बेहतर जवाब ‘नहीं’ है..

उस वक्त जब मैं इस संजीदा सवालों से जूझ रहा था तो मैंने अपने सारे पाप निकाल कर मेज़ पर रख दिये..अपने पापों को रखने के लिए मुझे एक काफ़ी बड़ी मेज़ की ज़रूरत पड़ी थी.. मैंने उन सब को ग़ौर से जाँचा, उन्हे तौला, ऊपर नीचे सब कोनों से देखा. फिर अपने आप से पूछा कि कैसे मैंने उन पापों को किया.. मैं कहाँ था, किसके साथ था, जब मैं उन्हे कर रहा था..

मैंने देखा कि जो भी हम करते हैं वो अन्दर या बाहर की किसी आवाज़ के उकसावे पर होता है.. कभी कभी ये आवाज़ अच्छी भी होती हैं मगर ज़्यादातर बुरी, बिल्कुल बुरी.. पाप की आवाज़े होती हैं.. आप समझ रहे हैं न?

अच्छी और बुरी आवाज़ों का अनुपात मेरे ख्याल से.. तीन बुरी पर एक अच्छी.. नहीं और भी कम.. छै बुरी पर एक अच्छी.. और इसीलिए मैंने हर आवाज़ पर ‘हाँ’ कहने के बजाय ‘नहीं’ कहना बेहतर समझा.. मुश्किल था.. कलेजा चाहिये था.. पर किसी तरह कर लिया मैंने.. अब हर सवाल के जवाब में मेरे मुँह से ‘नहीं’ ही निकलता है.. ‘हाँ’ बोले कई साल हो गए..

-फ़्लैन ओ'ब्रायन की किताब थर्ड पुलिसमैन पर आधारित एक टुकड़ा-

मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

निरन्तरता एक भ्रांति है..

स्वामी जी ने अनेको अद्भुत बाते कही हैं मगर सफ़र को नज़र का धोखा कहने की जो चुनौती उन्होने ली है वह सबसे शानदार है..

आदमी के जीवन को स्वामी जी ने बेहद नन्हे-नन्हे ठहरे हुए अनुभवों के एक सिलसिले के बतौर परिभाषित किया है. बताया जाता है कि इस खयाल पर पहुँचने के पहले वे एक पुरानी सिनेमेटोग्राफ़ी रील का मुआइना कर रहे थे. इस प्रस्थान बिंदु से वे जीवन में किसी भी तरह के निरन्तरता या प्रगति की सच्चाई को नकारते हैं. वे ये मानने से इंकार करते हैं कि समय वैसे ही चलता है जैसे कि आम राय है.. और एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की यात्रा में या आम जीवन में भी जो प्रगति या निरन्तरता का रोज़मर्रा का अनुभव होता है वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक भ्रम है और कुछ नहीं..

अगर कोई व्यक्ति किसी एक बिन्दु ‘क’ पर विश्राम में है और वह किसी दूसरे बिन्दु ‘ख’ पर जा कर विश्राम में होना चाहता है तो ऐसा करने का एक ही तरीका है.. क और ख के बीच के अनगिनत स्थानों पर अनगिनत अन्तरालों पर विश्राम करते हुए ही वह ऐसा कर सकता है..

निरन्तरता के धोखे की जड़ वह मानव मस्तिष्क की अक्षमता में मानते हैं..जो इन अनगिनत विश्रामों के सत्य को देख नहीं पाता.. और उन सबको संगठित रूप में गति का नाम दे देता है.. गति नज़र का एक धोखा है.. और यह बात किसी भी फोटो से सिद्ध की जा सकती है..

-फ़्लैन ओ'ब्रायन की किताब थर्ड पुलिसमैन का एक टुकड़ा-

रविवार, 9 दिसंबर 2007

अन्दर का अर्थशास्त्र

मुझे अर्थशास्त्र ज़रा कम समझ में आता है ये हालत तब है जबकि अर्थशास्त्र स्नातक स्तर पर मेरा विषय रह चुका है। पर ये बयान इस विषय पर मेरे अध्ययन के बारे में कुछ नहीं कहता क्योंकि स्नातक की अन्तिम परीक्षा आते-आते शिक्षा व्यवस्था से मेरा विश्वास इतना उठ चुका था कि मैं अपनी उत्तर पत्रिका में पाँच में से साढे तीन सवालों के उत्तर लिख कर आता था। मेरा आकलन था कि वे मुझे पास करने के लिए पर्याप्त होंगे।

मुझे पढ़ाई से कोई चिढ़ नहीं थी.. होती तो मैं आज भी विद्यार्थी न बना रहता। मगर शिक्षा व्यवस्था ने ऐसा विकराल व्यापार फैलाया हुआ था और हुआ है कि मुझे अंक प्राप्त करने के लिए पढ़ने से मुखालफ़त हो गई। मगर अपने निर्मल आनन्द के लिए दुरूह और जटिल विषयों पर मोटी-मोटी पुस्तकें आज भी पढ़ने को तैयार रहता हूँ।

पूँजीवाद की मूल प्रस्थापना है कि आदमी अपने लाभ के लिए काम करता है.. और इसी लाभ का लोभ देकर उसे बढ़िया से बढ़िया काम करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। आज अन्तरजाल पर फ़्री मार्केट के घोर समर्थक ब्लॉगर अमित वर्मा के ब्लॉग के ज़रिये इस पन्ने पर पहुँचा जहाँ एक अर्थशास्त्री टाइलर कोवेन अपनी एक नई पुस्तक के संदर्भ से बेहद दिलचस्प बातें कर रहे है..

प्रश्न: तो क्या ये सच है कि हम ‘बेहद कुशल’ श्रेणी का बहुत सारा कार्य करने के लिए प्रेरित किए जा सकते हैं सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह कार्य मज़ेदार है?

कोवेन: बिलकुल। काफ़ी कुछ विज्ञान का कार्य इसी आधार पर होता है। हाँ ये सच है कि वैज्ञानिको को तनख्वाह मिलती है, मगर वो तनख्वाह उनके आविष्कारों के लिहाज़ से कभी पर्याप्त नहीं होती, जिसके लिए वे मशहूर हो जाते हैं। वे आविष्कार करते हैं क्योंकि उन्हे विज्ञान से प्यार है, या वे मशहूर होना चाहते हैं.. या फिर ये गलती से उनसे हो जाता है। आइनस्टीन कभी कोई रईस आदमी नहीं रहा मगर वो बहुत मेहनत करता था। इसी तरह ब्लॉगिंग भी इसी पुरानी भावना का नया रूप है, लोग बड़े महत्व की चीज़े मुफ़्त में करते हैं..

प्रश्न: तो क्या ज़्यादातर मालिक अपने कर्मचारियों की मेहनत करने की प्राकृतिक प्रेरणा को कुचल देते हैं? और कई दफ़े प्रेरणा के तौर पर वेतन को ज़्यादा ही महत्व देने में कुछ गलती है?

कोवेन: अधिकतर मालिक प्रेरणा के तौर पर पैसे पर कुछ ज़्यादा ही महत्व रखते हैं और आनन्द पर कम। वे ये नहीं सोचते कि कर्मचारीगण अपनी ज़िन्दगी के मालिक स्वयं होने की बात को कितनी शिद्दत से महसूस करते हैं। लेकिन यह एक आम गलती है, और ये इसलिए होती है क्योंकि खुद मालिक नियंत्रक महसूस करने की ज़रूरत से ग्रस्त होता है। मगर यह उल्टा नतीजा देती है और लोग इसके खिलाफ़ विद्रोह कर देते हैं।

अगर आप को यह बातें दिलचस्प लगी हैं तो पूरा साक्षात्कार ज़रूर पढ़े.. यकी़न करें आप का समय खराब नहीं होगा..

किताब के बारे में जानने के लिए चित्र पर क्लिक करें..

टाइलर कोवेन का ब्लॉग देखने के लिए यहाँ जायँ..

रविवार, 18 नवंबर 2007

बस जिये जाना!

कई बार मैंने दूसरे लोगों के दुख-दर्द और रहने की अमानवीय स्थिति को देखकर अपनी नितान्त मूर्खता में ऐसा सोचा है कि वे आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते? अपने भविष्य में होने वाले रोगों के सम्बन्ध में सोचते हुए भी आत्महत्या के बेहूदे संकल्प के विषय में भी विचार किया है। पर आधा जीवन जी लेने और रोगों से भी कुछ सामना कर लेने के बाद ऐसे विचारों की खोखलेपन को समझ लिया.. जिन्हे दोस्तोयेवस्की ने अपराध और दण्ड में ऐसे लिखा है..

"जब किसी को मौत की सज़ा सुना दे जाती है तो वह अपनी मौत से घंटे भर पहले कहता है या सोचता है कि अगर किसी ऐसी ऊँची चट्टान पर, किसी ऐसी पतली सी कगर पर भी रहना पड़े, जहाँ सिर्फ़ खड़े होने की जगह हो, और उसके चारों ओर अथाह सागर हो, अनंत अंधकार हो, अनंत एकांत हो, अनंत तूफ़ान हो, अगर उसे गज भर चौकोर जगह में सारे जीवन, हजार साल तक, अनंत काल तक खड़े रहना पड़े, तब भी फ़ौरन मर जाने से इस तरह जिये जाना कहीं अच्छा है! बस जिये जाना, जिये जाना और जिये जाना! ज़िंदगी वह कैसी भी हो!.. कितनी सच बात है! क़सम से, कितना सच कहा है! आदमी भी कैसा बदज़ात है!.. बदज़ात है वो जो उसे इस बात पर बदज़ात कहता है,"

मनुष्य के भीतर ऐसी जीवन-वृत्ति के बावजूद कुछ ऐसे ज़िन्दादिल लोगों से भी मेरा परिचय रहा जिन्होने स्वयं आत्मघात कर लिया.. कैसा विचित्र बल है आदमी की (आत्मघाती!) विचार शक्ति में जो जीवन-वृत्ति को भी परास्त कर देती है।
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