कांचा ऐलय्या की किताब '
मैं हिन्दू क्यों नहीं' का उप शीर्षक
हिन्दुत्व दर्शन, संस्कृति और राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक शूद्रवादी विश्लेषण ज़रूर है मगर किताब अपने विश्लेषण पक्ष में कुछ दुर्बल रह जाती है और अपनी पहले से तय की हुई प्रस्थापनाओं को सिद्ध करने की आतुरता में अधकचरे निर्णय सुनाने लगती है।
किताब के आखिरी अध्याय में ऐलय्या दलित चिंतन की परम्परा में बुद्ध, फुले और आम्बेडकर के बाद अपना ज़िक्र भी करते हैं। एक महान परम्परा में उचित स्थान पाने की उनकी ये महत्वाकांक्षा सफल हो गई होती यदि उन्होने आम्बेडकर जैसी शोध के अनुशासन, और वैश्लैषिक पद्धति पर निर्भरता दिखाई होती। अफ़सोस है कि एक लम्बे समय तक आम्बेडकर जैसे विद्वानों को अपना सही स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे दलित थे और फिर अफ़सोस है आज कांचा ऐलय्या जैसे विद्वानों को उनकी प्रतिभा से अधिक महत्व दिया जा रहा है क्योंकि वे दलित हैं।
ऐलय्या हिन्दू देवताओं और मिथकों का विश्लेषण करते हुए एक बेहद सहूलियतपरस्त रवैया अख्तियार करते हैं। वे जब चाहते हैं उसे इतिहास बताते हैं और जब चाहते हैं ब्राह्मणों की गढ़ी हुई कहानी क़रार दे देते हैं।
रावण एक महान दलित बहुजन राजा था और उसके ब्राह्मण होने की बातें बकवास हैं- ये कहते हुए वे जानते हैं कि कि रावण का होना और उसका ब्राह्मण होना एक ही प्रकार के स्रोतों से मालूम होता है फिर भी वे हंस की भाँति अपने मनमाफ़िक मोती चुनते रहते हैं।
ऐसा नहीं है कि किताब पूरी तरह से खोखली है और उसमें कोई आकर्षक निष्कर्ष नहीं हैं। अब जैसे ऐलय्या जी बताते हैं कि विद्या की देवी सरस्वती स्त्री होते हुए भी हिन्दुत्व में स्त्रियों के विद्यार्जन पर पाबन्दियाँ बनी रहीं। और धन की देवी लक्ष्मी होने के बावजूद स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्से का अधिकार नहीं मिलता रहा। हिन्दू धर्म की ऐसी अन्तर्निहित विसंगतियों के विपरीत वे अपनी दलित बहुजन संस्कृति की देवियों-पोचम्मा और कैटसम्मा के गुण और उदारता का वर्णन करते हैं जो अपने भक्तों पर किसी प्रकार का दबाव नहीं करतीं।
ऐलय्या बताते हैं कि बचपन से ही सिखाई जानी वाली जातीय भेदभाव के अलावा किस तरह बचपन से ही उनका जातीय प्रशिक्षण शुरु हो जाता है जिसमें वे पेड़-पौधों और जानवरों के साथ रिश्तो के बारे में तमाम बाते सीखते हैं जबकि स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और भाषा उनके जीवन के परिवेष से पूरी तरह विलगित बनी रहती हैं। यहाँ तक कि उनके लिए वेद-पुराण और ओथेलो एक बराबर से अजूबे होते हैं।
वे ये भी बताते हैं कि हिन्दू मानस किस तरह से एक तरफ़ तो अनेको कामुक देवताओं और काम कला की रचना करता है और दूसरी ओर अपने समाज पर तमाम वर्जनाओं की गाँठें भी मारे रखता है जबकि इन कामुक कल्पनाओं और वर्जनाओं दोनों से मुक्त दलित बहुजन समाज में यौनिक चेतना एक स्वतः स्फूर्त ढंग से विकसित हो जाती है।
एक लम्बे समय तक भारतीय राजनीति में में दलित बहुजन की भूमिका और रामराज्य में हनुमान की भूमिका का उनका समांतर बेहद सटीक है। मगर आने वाले दिनों में जिस दलितीकरण की प्रक्रिया की बात वो कर रहे हैं वो फ़िलहाल की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कैसे सम्भव होगा इस विस्तार में वे नहीं जाते, जबकि दलित बहुजन भी अपनी सामुदायिकता को छोड़-छाड़ निजी सम्पत्ति की होड़ में कूद पड़े हैं।
अपनी भावना और राजनीति में सही होते हुए भी मुझे लगता है कि ऐलय्या जी का विश्लेषण, ऐतिहासिक उत्पीड़न और आज भी चल रहे भेदभाव से उपजे अपने क्षोभ और आक्रोश के चलते बीच-बीच में विक्षेप का शिकार होता रहता है।
ऐलय्या किताब में जब-जब एक निजी नज़रिये से चीज़ों को विश्लेषित करते हैं तो उनकी बात तीर की तरह पैनी होती है और अचूक होती है। जैसे कि उन्हे स्कूल में कभी फुले और आम्बेडकर के बारे में नहीं पढ़ाया गया.. लेकिन ऐसी घटनाओं से वे अपने हड़बड़ाए निष्कर्ष निकालने में सरलीकरण और सामान्यीकरण के शिकार हो जाते हैं।
कांचा ऐलय्या की ये भी प्रस्थापना है कि ब्राह्मण जाति गैर उत्पादक और निष्क्रिय शक्ति है। मुझे यह एक झाड़ूमार बयान लगता है क्योंकि यदि वेद-पुराण, पठन-पाठन, अध्यात्म और दर्शन सब गैर-उत्पादक क्रियाएं हैं तो फिर वे आधुनिक विश्वविद्यालयों में कार्यरत उनके अपने जैसे प्राध्यापकों के काम और अपनी इस किताब की भी उपयोगिता को कैसे सही ठहरा पाएंगे?
वे भी तो न तो खेत में हल चला रहे हैं और न पत्थर ढो रहे हैं.. बन्द कमरे में बैठ कर अपने वर्ग/जाति के हितों के लिए तर्कों का एक तानबाना बुन रहे हैं। आम जनता द्वारा एकत्रित कर से अपना वेतन पाने वाले ऐलय्या जी ब्राह्मणों पर भी तो यही करने का तो आरोप लगा रहे हैं। मगर इस विरोधाभास को वो चिह्नित नहीं करते उलटे वे मानते हैं कि हज़ारों सालों से उत्पादन से दूर रहने के कारण ब्राह्मण-बनिया एक ठस, तर्कहीन, अविवेकी और हिंसक मानस में कै़द हो गया है।
ऐलय्या मानते हैं कि पिछड़ी जाति से आने वाले नवक्षत्रिय हाल में सत्ता में भागीदारी पा गए हैं मगर सत्ता मिलते ही वे भी ब्राह्मणवादी रंग में ढल गए हैं। दक्षिण की पिछड़ी जातियों के उभार और उत्तर में भी उसकी अनुगूँज को रेखांकित करते हुए ऐलय्या जी भूल जाते हैं कि बुद्ध कालीन नन्द वंश, मौर्य वंश, और आल्हा ऊदल जैसे अनेको मध्यकालीन योद्धा भी उच्च जातियों के न होते हुए भी सत्तावान थे और ब्राह्मण उनकी सेवा में थे।
शिवाजी के राज्याभिषेक करने से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने इनकार ज़रूर कर दिया था मगर काशी के ब्राह्मणों ने ये सम्मान हाथ से जाने नहीं दिया। बाद के वर्षों में पेशवा के सेनापतियों में भोंसले, होलकर और शिन्दे भी उच्च जातियों से नहीं थे। एक तरफ़ वो एक ब्राह्मण पेशवा के सेवक थे और दूसरी ओर तमाम ब्राह्मण उनके आश्रित थे। इतिहास में ब्राह्मणों और पिछड़ी जातियों,शूद्रों और दलितों का सम्बन्ध इतना सरल एकांगी नहीं रहा है जितना अक्सर विद्वजन पेश करते रहे हैं।
ऐलय्या इच्छा ज़ाहिर करते हैं कि दलित बहुजन, पिछड़ी, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों का मिलाजुला मंच तैयार हो मगर किताब लिखने के दस साल भीतर ही मायावती ने उनकी इच्छाओं को नज़रअंदाज़ कर के ब्राह्मणों के साथ साझीदारी कर ली है।
एक तरफ़ तो ऐलय्या नेहरू, गाँधी आदि तथाकथित बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ो द्वारा ढाला गया बताते हैं दूसरी तरफ़ आम्बेडकर और फुले के उभार को स्वीकार करना अंग्रेज़ो की मजबूरी बता कर फिर एक बार सुविधाजनक तर्क इस्तेमाल करते हैं। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद ने भी ब्राह्मणवाद की ही मदद की.. पर ऐसा करते हुए वे आम्बेडकर को मिले ज़बरदस्त ब्रिटिश सहयोग को झुठला देते हैं।
ऐलय्या बराबर परिवर्तन में भौतिक स्थितियों की भूमिका को नकारते हुए किसी वर्ग या जाति की सनक और दुराग्रहों को ही ज़िम्मेदार ठहराते जाते हैं। ऐलय्या कहते हैं कि तीन हज़ार साल में अकेले आम्बेडकर ऐसे थे जिन्होने महार घर में जन्म लेकर दलितबहुजन चेतना को जन्म दिया। ऐसा कहते हुए वे रैदास, दादू और कबीर को भूल जाते हैं क्या उनकी आध्यात्मिक चेतना भी सिर्फ़ ब्राह्मणवादी चेतना थी या समाज भौतिक रूप से उस परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुआ था जो फुले और आम्बेडकर अपने समय में अंजाम दे सके?
ऐलय्या जी की शिकायत है कि भारत में ब्राह्मणों ने दलितबहुजन के प्रति एक साज़िश के तहत चुप रखकर उन्ह बहिष्कृत किया गया है जबकि योरोप में परस्पर विरोधी संस्कृतियों को भी अपने इतिहास में जगह दी गई है। एक तो वैसे ही भारतीय स्रोतों को ऐतिहासिक स्रोत नहीं गिना जाता यदि ऐलय्या जी उन्हे यह दरजा दे रहे हैं तो पूछा जा सकता है कि पौराणिक आख्यानों में असुर कौन हैं, राक्षस कौन हैं, नाग कौन हैं, दैत्य कौन हैं.. क्या वे विरोधी संस्कृतियों की उपस्थिति नहीं हैं बावजूद इसके कि इस उपस्थिति में एक संस्कृति के गुण और दूसरी के दोष बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए हैं?
ऐलय्या जी अपने किताब में बार-बार बताते हैं कि हिन्दू धर्म संसार का सबसे उत्पीड़क धर्म है और इस्लाम और ईसाईयत आध्यात्मिक लोकतांत्रिक धर्म हैं। वे विभिन्न धर्मों के प्रति कैसी भी राय बनाने और रखने के लिए स्वतंत्र हैं मगर जातीय विभाजन के चारित्रिक दोष के आधार पर हिन्दू धर्म के बारे में यह निर्णय अतिरंजित है।
क्या हिन्दू धर्म इसलिए अलोकतांत्रिक है कि वे उसके भीतर रहते हुए आप किसी भी पूजा-पद्धति और आध्यात्मिक परम्परा को अपनाने और अपनी नई चलाने के लिए भी स्वतंत्र है? तथाकथित लोकतांत्रिक धर्म इस्लाम और ईसाईयत भी आप को यह विकल्प नहीं देते।
दूसरी तरफ़ हिन्दू धर्म छोड़ने पर भी गोवा में कथोलिक ब्राह्मण और मछुआरों के बीच का जातीय विभाजन कम नहीं हो जाता यहाँ तक कि उनके चर्च भी अलग-अलग होते हैं। अमरीका जैसी महान लोकतांत्रिक संस्कृति में भी काले और गोरे चर्चों का भेद आज भी बना हुआ है।
मोहम्मद साहब ने इस्लाम में सबकी बराबरी की बात ज़रूर की है मगर अरब में सिर्फ़ मुसलमान ही रहेंगे और खलीफ़ा सिर्फ़ क़ुरैश से ही होगा क्या यह आग्रह किसी जातीय र्रंगत से मुक्त है? भारत में अंसारी और सैय्यद क्या एक बराबर हैं? इस्लाम के भीतर स्थानीय संस्कृति के आयामों के लिए कितना स्थान है? क्या वो बहुत हद तक अरब संस्कृति में ही केन्दित नहीं है?
दोष-दर्शन करना हो तो इस्लाम और ईसाईयत में भी हज़ारों दोष गिनाए जा सकते हैं। ईसा की करूणा से द्रवित होने वाले यूरोपी लुटेरे लैटिन अमरीका की मूल अमेरी जनजाति का संहार पादरियों के आशीर्वाद के साथ करते थे क्योंकि उनके अनुसार जो ईसाई नहीं वे जीने योग्य नहीं थे। उत्तरी अमरीका में वहाँ आज की मूल रेड इंडियन की जनसंख्या क्या है? क्या वे सब ज़हर खा के मर गए या एक गहरी नफ़रत की नीति के तहत उनका क़त्ले आम किया गया?
ऐलय्या साहब मानते हैं (बिना किसी प्रमाण के) कि आर्य ब्राह्मण बाहर से आए और उन्होने यहाँ के मूल दलितबहुजन को अपदस्थ कर दिया। । यदि एक पल के इसी कहानी को ऐतिहासिक सच्चाई मान भी लिया जाय तो क्या वे प्राचीन आर्य ब्राह्मण आधुनिक आतताईयों से भी गए गुज़रे इसलिए हुए क्योंकि उन्होने बजाय दलित बहुजन का सफ़ाया करने के बजाय उनके साथ एक सामाजिक संयोजन बनाया और एक ही सामाजिक व्यवस्था में रहने का विधान बनाया?
कांचा ऐलय्या की यह किताब हिन्दुत्व दर्शन और संस्कृति की कोई विवेकपूर्ण जाँच नहीं करती बल्कि पूर्व नियोजित निष्कर्ष अपने पाठक पर थोपती है और बताती है कि हिन्दू धर्म का हर एक आयाम सिर्फ़ दलित बहुजन का उत्पीड़न करने के लिए ही है। बड़े दुःख की बात है कि अपनी इस अतिवादी सोच का विस्तार करते हुए वे अपनी चिन्तन शैली में उन्ही हिन्दुत्व वादियों के साथ जा कर खड़े हो जाते हैं वे जिनका इतना भीषण विरोध कर रहे हैं।
हिन्दुत्ववादी मानते हैं कि देश की हर समस्या का कारण मुसलमान और इस्लाम हैं और ऐलय्या घोषणा करते हैं कि सब मुसीबत ब्राह्मणों की खड़ी की हुई है। इस तरह के ब्लैक एंड व्हाईट नज़र से सच्चाई को पकड़ने की उम्मीद बेमानी है। और अन्ततः कांचा ऐलय्या साहब भी निराश ही करते हैं।
कांचा ऐलय्या साहब का सोचना है कि भारत में हिन्दूकरण का जवाब दलितीकरण होना होगा- मतलब ये कि हिन्दुओं को दलित संस्कृति और मूल्यों से सीखना होगा। मुझे उनके इस विचार से कोई दिक़्क़त नहीं.. मेरा स्वयं का भी मानना है कि हिन्दू (भारतीय) संस्कृति ऐसी सड़ाँध भरी अवस्था में पहुँचती जा रही है कि जिसमें उसे बहुत कुछ भूलने और बहुत कुछ फिर से सीखने की ज़रूरत है।
और अपने उन बन्धुओं से तो ज़रूर जिनके ऊपर हज़ारों साल तक उच्च जातियाँ अत्याचार करती रहीं। पर मेरा ऐतराज़ इस
दलितीकरण शब्द है। ये ठीक है कि गाँधी जी के
हरिजन के जवाब में तत्कालीन राजनीति के परिदृश्य में
दलित शब्द उपयुक्त था जो ऐतिहासिक उत्पीड़न की स्मृति अपने कलेजे में छुपाए था। मगर आज जब समाज के
दलितीकरण की बात होने लगी है तो अच्छा हो कि हम एक नया शब्द ईजाद करें जो एक सकारात्मक भाव जगाता हो।
मित्रगण मुझे माफ़ करेंगे कि मैं ऐलय्या जी की किताब के नकारात्मक पहलुओं की ही चर्चा कर रहा हूँ जबकि किताब पढ़ते हुए तमाम मौकों पर मैं अपने पुरखों पर शर्मसार भी होता रहा और अपनी संस्कृति के उन पहलुओं पर विक्षुब्ध भी होता रहा जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती रही। इस विषय में रुचि रखने वाले मित्रो से निवेदन है कि वे किताब हासिल कर के खुद पाठ करें.. और अपनी राय क़ायम करें। किताब कलकत्ता के
साम्य प्रकाशन (१६ सदर्न एवेन्यू, कोलकाता) ने छापी है और मूल्य है मात्र १२० रुपये, हिन्दी अनुवाद किया है
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने।