शुक्रवार, 28 मई 2010

टाई लगा कर हिन्दी?


भाषा मुँह से निकली ध्वनियों से अलग भी कुछ होती है? क्या होती है? हमारी सोच का विस्तार और सीमा? हमारे चिन्तन का शिल्प? ज्ञानकोष का खाता? सामाजिक और नैतिक मूल्यों की परम्परा?

मेरी परिवार की एक बारह साल की बच्ची को ठीक से 'क ख ग घ' नहीं आता। तीस के आगे गिनती भी नहीं आती। मैं इस बात से अवसादग्रस्त हुआ हूँ। ये भाषा के अप्रसांगिक होने के संकेत हैं। हालांकि बातचीत वह हिन्दी में ही करती है मगर ज्ञानार्जन के लिए उसे हिन्दी वर्णमाला और अंकमाला की ज़रूरत नहीं। एक सफल जीवन जीने के लिए उसे जिस प्रकार की शिक्षा चाहिये वह अंग्रेज़ी में उपलब्ध है। हिन्दी वर्णमाला और अंकमाला के प्रति अपनी अज्ञानता के चलते वह किस चीज़ से वंचित हो रही है? कुछ भी तो नहीं! तो फिर मेरे इस अवसाद का मतलब क्या है?

क्या अपने पूर्वजो से, भाषा और साहित्य में संचित उनके विचारों और अनुभूतियों से कट जाने का दर्द है ये अवसाद? क्योंकि भाषा भी जाति और धर्म की ही तरह एक सामुदायिक प्रत्यय है? और अपनी जानी हुई भाषा पर इसरार करते जाना बस एक तरह की साम्प्रदायिक ज़िद है? क्योंकि समूह को छोड़ दें तो एक अकेला आज़ाद आदमी कभी भी महज़ अपनी उन्नति के प्रति भर चिंतित होता है। यही वह अकेला आदमी है जो धर्म परिवर्तन करता है, यही वो अकेला आदमी है जो अपने पराजित साथियों के बीच से निकल कर, अपनी परम्परा को विजेताओं की परम्परा से हीन और उनकी भाषा के अधीन मान लेता है।

क्या आप जानते हैं ऐसी किसी अकेले आदमी को जिसने अपनी परम्परा को इसी तरह अनुपयोगी मान कर त्यागा हो? भारतीय समाज पर क़ाबिज़ सत्तावर्ग उसी अकेले आदमी का प्रतिनिधि है। हमारे आज के भारतीय राज्य और व्यवस्था के ढांचे में हमारी परम्परा की क्या चीज़ है? शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापार; किस विभाग की स्मृति हमारी भाषा में मौजूद है? हमारे समाज की जितनी भी संस्थाएं जो हमारे जीवन को प्रचालित कर रही हैं उन सबा की स्मृति अंग्रेज़ी या दूसरी योरोपीय भाषाओं में मिलती है। हिन्दी में कुछ नहीं है, संस्कृत में भी कुछ नहीं है।

यानी अपनी उन्नति के प्रति चिंतित उस अकेले आदमी का अपनी परम्परा से हाथ धोने का निर्णय संगत है? क्योंकि हमारी परम्परा में शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापारादि क्षेत्रों में स्वतंत्र स्वरूप विकसित करने की क्षमता नहीं थी या थी तो ख़त्म हो चुकी थी? या बात कुछ ऐसी है कि इस अकेले आदमी की अवसरवादिता के चलते व्यापक समूह के बीच उन क्षमताओं के विकास की सम्भावनाएं कुन्द हो रही हैं?

जैसी स्थिति हिन्दी की भारत में है ठीक वैसी ही स्थिति उर्दू की पाकिस्तान में नहीं है। ये एक तथ्य है। अंग्रेज़ी की एक अन्तर्राष्ट्रीय उपयोगिता के बावजूद उर्दू शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापारादि की भाषा बनी हुई है। क्या पाकिस्तान के लोगों में उस अकेले आदमी की उपस्थिति नहीं है जो अपने धर्म, अपनी भाषा और परम्परा को लेकर शर्मिन्दा है? और जो विजेताओं की पाँत के पकवान खा लेने के लिए उसी तरह से आतुर है जिस तरह से भारतीय जन हैं?

क्या उर्दू का मामला इस्लाम, शरिया और अमरीका-विरोध से अभिन्न है? क्या हिन्दी की दुर्दशा इसलिए है कि हिन्दू जन या हिन्दी जन एक मज़बूत परम्परा पर एकजुट होने में नाकाम रहे हैं? या उस परम्परा को त्यागे बिना उसका संवर्धन और संस्कार करने के बजाय उन्होने अंग्रेजी का कोट और टाई पहनना उन्हे अधिक आसान मालूम हुआ है? फिर सवाल है कि क्या धोती और हिन्दी अलग-अलग नहीं हो सकते या टाई लगा कर हिन्दी भाषा में नए प्राणों का संचार किया जा सकेगा?

बुधवार, 26 मई 2010

जाति जन गण ना?


मैं इस बारे में उत्सुक हूँ कि भारतीय जनो में विभिन्न जातियों का क्या अनुपात है। लेकिन इस उत्सुकता के आधार पर ही क्या मैं जातिवादी हो जाता हूँ? मेरी उत्सुकता के बीज दूसरे हैं और मुलायमादि यादवों के कारण दूसरे। पर देखा ये जा रहा है कि आम प्रगतिशील व्यक्ति जाति आधारित जनगणना के ख़िलाफ़ मत प्रकट कर रहा है। रिजेक्ट माल पर निखिल आनन्द ने जाति और जनगणना के सम्बन्ध में कुछ मौज़ूं सवाल उठाए हैं और मैं काफ़ी कुछ उनसे सहमत हूँ।

मुम्बई में मेरी गणना हो चुकी है। बी एम सी के विद्यालय के एक शिक्षक जो छुट्टियां मनाने गाँव न जा सके इस कार्य को सम्पन्न करने आए थे। उन्होने बाक़ी सवाल तो किए मगर जाति के बारे में नहीं पूछा। जब मैंने सवाल किया तो उन्होने बताया कि सब कुछ (सारे सरनेम्स) कम्प्यूटर में फ़ीड हैं; यानी तिवारी डालते ही वह मुझे ब्राह्मण की श्रेणी में सरका देगा। वैसे यह प्रणाली ठीक भी है, आम लोग भी ऐसे ही औपरेट करते हैं। रही बात कुमारादि या अन्य 'भ्रामक' सरनेम की तो उन मौक़ो पर उन्हे सवाल पूछने का निर्देश है।

जब धर्म के आधार पर गणना हो सकती है तो जाति के आधार पर क्यों नहीं? ये सही है कि जाति और धर्म के समीकरण में कोई आपसी सम्बन्ध नहीं। इस देश के बहुतायत मुसलमान और ईसाई अधिकतर दलित समाज से धर्म परिवर्तन किए हुए लोग हैं या पूर्व-बौद्ध हैं। बौद्धों के बारे में अम्बेडकर ने स्वयं लिखा है हालांकि लोग उनकी प्रस्थापना को मानने में हिचकते हैं। मुझे उनकी बात तार्किक लगती है। इस नज़रिये से मुसलमान और वे ईसाई जिनके पूर्वज आदिवासी या दलित समाज से थे, आरक्षण के अधिकारी होने चाहिये, मगर राजनीति इस के आड़े आती है।

और ये बात भी सही है कि जाति जान लेने भर से कोई जातिवादी थोड़े हो जाता है। ये तो आँधी के डर से रेत में सर डाले रखने वाली बात है। मैं जाति आधारित जनगणना का समर्थन करता हूँ।

मंगलवार, 25 मई 2010

ऋषि मोनियर-विलियम्स


१९४८ में पुणे के डेक्कन कालेज के पोस्ट ग्रैजुएट रिसर्च सेन्टर ने एक महत्वाकांक्षी योजना अपने हाथ ली - एक वृहत संस्कृत से अंग्रेज़ी शब्दकोष तैयार करने की। मगर साठ साल बीत जाने के बाद भी वो पहले क़दम से आगे नहीं बढ़ सकी है और अभी तक 'अ' पर अटकी है; 'अ' में भी 'अप' पर हाँफ रही है। पहले अक्षर की इस यात्रा के आठ खण्ड प्रकाशित किए जा चुके हैं, इस बात से अन्दाज़ा लगाइये कि सम्पूर्ण किताब का क्या विस्तार होगा! इस कोष में संस्कृत के १५४० ग्रंथों के हवाले लिए जा रहे हैं।  वांछित स्तर के विद्वानों की कमी के चलते या अन्य कारणों से फ़िलहाल कुल दस जन इस योजना से संलग्न हैं मगर अभी न जाने कितना समय और लगेगा?

इसके मुक़ाबले में मोनियर-विलियम्स का ध्यान कीजिये जिन्होने औक्सफ़ोर्ड के संस्कृत प्रोफ़ेसर के पद पर बैठने के लिए मैक्समुलर के ऊपर तरजीह सिर्फ़ इसलिए दी गई कि कि भारत में ईसाईयत के प्रसार के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर विभाग के अनुदाताओं को कोई शुबहा नहीं था। मोनियर-विलियम्स ने घोषणा भी कि पूर्वी सभ्यताओं के अध्ययन का उद्देश्य उनका (भारत का) धर्म परिवर्तन होना चाहिये।

उनके इस कलुषित लक्ष्य के बावजूद उनके द्वारा संपादित संस्कृत से अंग्रेज़ी शब्दकोष, संस्कृत भाषा का सबसे प्रामाणिक शब्दकोष है। यहाँ तक कि वामन राव आप्टे का बहुप्रचलित संस्कृत से हिन्दी शब्दकोष भी पूरी तरह से उसी की बुनियाद पर खड़ा हुआ है। उनके पहले संस्कृत के अपने शब्दकोषों में अमरकोष और हलायुध कोष का शब्द-विस्तार सीमित रहा है। और सबसे प्राचीन 'निघण्टु' की सिर्फ़ चर्चा आती है -भौतिक रूप से वह लुप्त हो चुका है- हमें बस यास्क द्वारा की गई उसकी टीका 'निरुक्त' मिलती है।

इस आलोक में मोनियर-विलियम्स द्वारा किया गया काम बड़ा श्रद्धा का विषय है और विलियम जोन्स, मैक्समुलर के साथ-साथ वे भी, मेरी दृष्टि में, किसी ऋषि से कम नहीं हैं।

एडवर्ड सईद भले ही उनके तथा उनके जैसे तमाम दूसरे स्कालर्स के काम को सिरे से ख़ारिज करते रहें मैं उपनिवेशवाद के साथ हर चीज़ का राजनीतिक अर्थ ही लेकर उसे साम्राज्यवाद की एक बड़ी साज़िश का हिस्सा मानने के बजाय उसकी व्यापक उपयोगिता के नज़रिये से उसके महत्व का आकलन करना बेहतर समझता हूँ।


1872 में सर्वप्रथम प्रकाशित इस शब्दकोश को भारत में 'मोतीलाल बनारसीदास' ने बड़े आकार के १३३३ पृष्ठों में छापा है। आभासी जगत में इसे आप यहाँ से इस्तेमाल कर सकते हैं।


रविवार, 16 मई 2010

जुझारू जेसिका


सात मास समुद्र में अकेले! चालीस फ़ुट ऊँची लहरों के मुक़ाबिल एक ‘अबला’ षोडशी? जिसके लिए एक आम राय ये बन रही थी कि उसके माँ-बाप ने उसे एक आत्मघाती अभियान पर जाने की अनुमति दी है, वो लड़की लौट आई, न सिर्फ़ सही सलामत बल्कि एक ऐसे अनुभव की विजेता होकर जो जीवन भर उसके भीतर चट्टान जैसा हौसला भर देगा और उसकी संतति की कोशिकाओं में ‘जीन’ बनकर जिएगा। जेसिका वाटसन – ट्रूली अमेज़िंग!

इस पर भी कुछ लोग मानते जाते हैं कि मनुष्य जाति के संवर्धन और संस्कार की सारी ज़िम्मेदारी अकेले आदमी की है और औरत का कुल योगदान सिर्फ़ उस संवर्धन को (कुछ तो संवर्धन के विचार को ही नहीं बूझते) कोख उपलब्ध कराना है? जब दकियानूसी कट्टरपंथी औरत के कामुक प्रभाव से घबरा कर उसे परदे में करने की जुगतें करते हैं तो वे औरत के कामपक्ष ही नहीं पूरी मनुष्यता की आधी समभावनाओं पर पहले परदा और फिर बेड़ी डाल रहे होते हैं।

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नीचे एक दूसरी तस्वीर में विचारक एडवर्ड सईद २००० ई० के इज़्राईल-लेबनान युद्ध के तुरंत बाद लेबनान की सीमा से इज़्राईल की सीमा में पत्थर फेंकते हुए दिखाई दे रहे हैं। एडवर्ड सईद की किताब ‘ओरिएंटलिज़्म’ ने ' पूर्व' के प्रति ‘पश्चिम’ के गहरे पूर्वाग्रहों की नींव खोदने का काम किया था। एक ऐसे मूर्धन्य विद्वान का सीधी हिंसा (भले प्रतिरोध की हो) में लिप्त होना मुझे बड़ा दिलचस्प मालूम हुआ।  हमारी परम्परा में अहिंसा का बड़ी अहमियत है लेकिन उसमें भी रेणु जैसे दो-चार लोग निकल ही आते हैं जो अपने तमाम लेखन के बीच नेपाल के सशस्त्र क्रांति संघर्ष में शिरकत भी कर आते हैं।








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