रविवार, 24 फ़रवरी 2008

एक असहिष्णु नैतिकता

शाहरुख मेरे दोस्त नहीं हैं उलटे उनकी फ़िल्मों और उनमें उनके अभिनय से मैं काफ़ी पका रहता हूँ लेकिन उनकी इस बात में मैं उनके साथ हूँ कि उन्हे सिगरेट पीने से रोकने के लिए रामदौस को सिगरेट पीने मात्र को क़ानूनी तौर पर अवैध घोषित करना होगा। और वे स्कीन पर सिगरेट पियेंगे या नहीं पियेंगे, इसका फ़ैसला वे अपनी रचनात्मक आज़ादी के दायरे में खड़े होकर करेंगे।

मगर रामदौस को यह बात पसन्द नहीं आई.. उनका कहना है कि शाहरुख को रचनात्मक आज़ादी के बारे में आमिर खान से सीखना चाहिये कि किस तरह से 'तारे ज़मीन पर' उन्होने डाइसलेक्सिया से पीड़ित बच्चों के प्रति लोगों की मानसिकता को बदलने का काम किया है.. रचनात्मक आज़ादी ऐसी होनी चाहिये!

'ये होना चाहिये' वाली भाषा कुछ जानी पहचानी नहीं लग रही आप को..? मुझे तो इसी लाइन ने यह पोस्ट लिखने को प्रेरित किया है। एक तरफ़ हम लोग रचनात्मक आज़ादी और लोकतांत्रिक अधिकार जैसे शब्दों के इस्तेमाल से एक प्रगतिशीलता का आवरण बनाए रखते हैं मगर उसके भीतर-भीतर ही एक असहिष्णु नैतिकता के डण्डे से दूसरों की पिटाई करते रहते हैं।

दूसरों की.. क्योंकि दूसरा नरक होता है.. मगर दूसरे (अपने से भिन्न मत, धर्म, सेक्स, विचार, जाति वाले और शुद्ध दूसरा व्यक्ति भी) के साथ आप का बरताव कैसा है यही लोकतंत्र की असली कसौटी है। चुनाव में बहुमत जीतने वाली पार्टी की सरकार बन जाना नहीं.. बल्कि अल्पमत वाली पार्टी की असहमति का अधिकार सुरक्षित रहना।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

शार्टकट है ना!

कहा जा रहा है कि क्रिकेट और बौलीवुडीय ग्लैमर का यह संगम सास-बहू को प्राइम टाइम पर कड़ी चुनौती देने को तैयार है। अगर यह सास-बहू को देश के मनोरंजन के आलू-प्याज़ के रूप में नहीं हटा पाया तो कुछ नहीं हटा पाएगा। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि इतने बड़े-बड़े धनपशुओं को हुआ क्या है? हमें तो इस में हिट होने लायक कोई मसाला नहीं दिख रहा- हो सकता है कुछ रोज़ लोग उसके नएपन को परखने के लिए बीबी के हाथ से रिमोट छीनकर क्रिकेट को वरीयता दे दें। मगर एक बार हेडेन और धोनी को एक ही टीम का हिस्सा होते हुए देख लेने के बाद कोई क्यों रोज़-रोज़ बीबी से झगड़ा मोल लेगा.. मेरी समझ में नहीं आता?

जबकि आइ सी एल के कुछ मैचों में देख चुका हूँ कि विदेशी खिलाड़ी और देशी खिलाड़ी के बीच सहजता का वह सम्बन्ध नहीं होता जो एक टीम के दो खिलाडि़यों के बीच होता है। वैसा शायद काउन्टी क्रिकेट में भी नहीं होता है जहाँ किसी टीम में कितने विदेशी खिलाड़ी होंगे इस पर पाबन्दी भी होती है।

लेकिन यह जो आई पी एल नाम का तमाशा होने जा रहा है यह काउन्टी क्रिकेट और दुनिया भर में फ़ुटबाल के क्ल्ब कल्चर से भिन्न तो है ही सत्तर के दशक के केरी पैकर के नाइट क्रिकेट से भी कई क़दम आगे बढ़ा हुआ है। उस वर्ल्ड सीरीज़ क्रिकेट की तीन टीमें थीं- आस्ट्रेलिया, वेस्ट इंडीज़ और रेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड और उनमें खिलाड़ी अपनी राष्ट्रीयता के आधार पर ही चुने गए थे। मगर आई पी एल तो शुद्ध सर्कस है। सर्कस कभी-कभी देखने के लिए बड़ा रोचक है पर आप रोज़-रोज़ उसे देख कर वही उत्तेजना नहीं महसूस कर सकते।

तो सवाल यह है कि वह क्या चीज़ है जो हिन्दुस्तानी जनता को गांगुली को टीम से निकाल दिये जाने पर सड़क पर दंगा करने पर मजबूर कर देती है.. कैफ़ के अच्छा न खेलने पर उसके घर में आग लगाने को आतुर हो जाती है.. और सचिन को एक जीवित भगवान का दरजा देती है। क्या यह वही जज़बा नहीं है जो इंग्लैंड के फ़ुटबाल फ़ैन्स को दंगाई मानसिकता में बनाए रखता है? और मेरा ख्याल है कि इसी दीवानेपन के जज़्बे को नोटों में भुनाने के लिए बी सी सी आई इस आई पी एल नाम के तमाशे को आयोजित कर रही है और देश के पहले ही धन में डूब-उतरा रहे सुधीजन खिलाड़ियों की बोलियाँ करोड़ों में लगा रहे हैं।

इतने सारे धन-सुधी लोगों को इस लालायित अवस्था में देख कर मुझे अपनी बुद्धि पर शंका होने लगती है। शंका इसलिए कि मुझे नहीं लगता कि यह कोई मुनाफ़े का सौदा हो रहा है- ये लोग जो बेचने वाले हैं मैं तो नहीं खरीदने वाला। जबकि मैं टेस्ट क्रिकेट और वन डे क्रिकेट का खरीदार हूँ। लेकिन आई पी एल की शहर आधारित टीम किस आधार पर लोगों के भीतर वफ़ादारी की उम्मीद करती है। जबकि आई पी एल की किसी भी पर टीम के अन्दर उस शहर के लोग इक्के दुक्के हैं?

अब मैं और मेरे कनपुरिया भाई किसे टीम का समर्थन करें समझ नहीं आ रहा? बंगलोर वाले बंगलोर का समर्थन करें या मुम्बई का जहाँ से रौबिन उत्थपा खेलेगा? और शायद ये सोचा जा रहा है कि राँची समेत सभी झारखण्डी चेन्नई के लिए अपने धड़कनें तेज़ करने कि लिए तैयार बैठेंगे? क्यों भाई?

और अगर इनमें से किसी टीम के साथ मेरे दिल की भावना नहीं जुड़ेगी तो मैं सब कुछ छोड़कर इन के मैच क्यों देखने लगा? आज भी मैं खेल भावना से इतना परिपूर्ण नहीं हो पाया हूँ कि भारतीय टीम को आसानी से हारता हुआ देख सकूँ- भई खेल है.. एक टीम जीतेगी.. एक हारेगी। लेकिन मुझसे नहीं देखा जाता.. मैं टीवी बंद कर देता हूँ। लेकिन आई पी एल की किसी भी टीम को हारते हुए देख कर मुझे कोई दुख नहीं होने वाला.. मैं जो एक आम दर्शक हूँ।

एक तरफ़ तो लोग भूमि पुत्र और स्थानीयता की राजनीति में अभी भी भविष्य देख रहे हैं और दूसरी तरफ़ हमारे धन-सुधीजन इतनी प्रगतिशील उम्मीदें भी रखते हैं कि दर्शकों द्वारा एक टीम की वफ़ादारी बजाने के लिए उस टीम में स्थानीय खिलाडि़यों की बहुतायत होना कोई ज़रूरी शर्त नहीं। इस वफ़ादारी का सम्बन्ध सीधा इस फ़ौर्मैट की सफलता से है.. तो क्या यह बात आई पी एल के आक़ा नहीं समझते..? समझते होंगे.. उनको मूर्ख समझना एक बड़ी मूर्खता होगी..

वे मूर्ख नहीं है पर इस देश में चीज़ों को नीचे से बदलने की कोई परम्परा नहीं है.. ऊपर-ऊपर से बदलाव कर के फटाफट खुद मलाई खाने की नीयत बनी रहती है सभी की। शरद पवार एंड पार्टी चाहते तो रणजी ट्रौफी को ही धीरे-धीरे एक तरह के क्लब कल्चर में विकसित कर सकते थे.. मगर वो लम्बा रास्ता है.. उस रास्ते में मलाई पैदा होने में शायद दस बारह साल लगने का डर होगा उन्हे.. तब तक का सब्र किसे है? शार्ट कट है ना?

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

मीर क्या सादे हैं

इधर कुछ रोज़ से पतनशीलता को लेकर बहुत लड़िया रहे हैं सभी.. सालों तक लात भी बहुत लगाई गई है उसे। हमारे वही शायर जिन्हे हम सर-आँखों पर बिठाते हैं उनको काँट-छाँट कर मनमाफ़िक शरीफ़ (पढ़िये प्रगतिशील) बनाने का काम किया गया है।

मीर साहब की सादगी और सोज़ मशहूर है पर वे घोषित तौर पर अम्रदपरस्त (लौंडेबाज़) भी थे, ये बात बाद के विक्टोरियन नैतिकता से प्रगतिशील हो गए लोग खा गए, पचा गए और पादा तक नहीं।

सरदार जाफ़री खुद बताते हैं कि कैसे उन्होने मीर के दीवान (राजकमल से प्रकाशित) का संपादन करते हुए वासनामय और यौन सम्बन्धी अश्लीलता भरे सभी शेर खारिज़ कर दिए। अब किसे फ़ुर्सत कि बैठ कर मीर के कुल्लियात में से सारे पतनशील शेर छाँटे..? मुझ जैसे कुछ लोगों को है वैसे!

कुल्लियात तो हाथ नहीं लगा अभी मगर कहीं और से मीर के ये दो शेर बरामद हुए हैं.. मुलाहिज़ा फ़रमाएं..

कैफ़ियत अत्तार के लौंडे में बहुत हैं
इस नुस्खे की कोई न रही हमको दवा याद

मीर क्या सादे हैं बीमार हुए जिसके सबब
उसी अत्तार के लड़के से दवा लेते हैं

(अत्तार: हकीम)

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

किताबें किताबें किताबें

पिछले दिनों भाई बोधिसत्व दिल्ली के पुस्तक मेले से लौटे तो मेरे लिए भी कुछ लाए और कुछ तमाम कोशिशों के बावजूद नहीं ला पाए। जो नहीं ला पाए वो थीं उर्दू के जादुई अफ़सानानिगार नैय्यर मसूद की कहानियाँ। मैंने उनको अंग्रेज़ी में पढ़ा है पर मूल उर्दू में पढ़ना चाहता था। मगर इतने बड़े पुस्तक मेले में उन नैय्यर मसूद के लिए जगह नहीं थी, जो मेरी समझ से विनोद कुमार शुक्ल के साथ हिन्दुस्तान के सबसे बड़े साहित्यकार हैं। उर्दू की इस देश में क्या दशा है इस बात से साफ़ ज़ाहिर हो जाती है।

खैर.. सान्त्वना के तौर पर बोधि मेरे लिए दो किताबें ले कर आए..

Rubaiyat of Umar khayyam a facsimile of the manuscript (इस में उमर खय्याम के अपनी हस्तलिपि में लिखी पूरी किताब के चित्र दिये हैं.. अमूल्य पुस्तक है, बोधि को बहुत धन्यवाद) और फ़्योदोर दोस्तोयेवेस्की कृत दरिद्र नारायण / रजत रातें

पिछले दिनों जब रवीश कुमार और काकेश पुस्तक मेले से अपनी खरीदारी की सूची अपने ब्लॉग पर डाल रहे थे तो मैं भी मुम्बई की दुकानों में कुछ पैसे लुटा रहा था.. देखिये मैंने क्या-क्या खरीदा..

(डच लेखक )सेस नोटेबोम लिखित दो प्रेमियों का अजीब क़िस्सा (अनुवादक विष्णु खरे)
महान गुरु कन्फ़्यूशियस (एक परिचय)
प्लेटो की संवाद (सिर्फ़ तीन संवादों का अनुवाद)
फ़िरदौसी का शाहनामा (संक्षिप्त गद्य अनुवाद)
जेम्स डी वॉटसन कृत डबल हेलिक्स (डी एन ए संरचना की खोज का व्यक्तिगत वृत्तांत)
The Red Queen by Matt Ridley ( बेहद चर्चित पुस्तक ‘जेनोम’ के लेखक की पहली किताब)
The Immortal Cell by Michael D. West (on the mystery of human ageing)
Dubliners by James Joyce
The Mahabharata by Jean Claude Carriere (प्रसिद्ध स्क्रीनराइटर का किया हुआ महाभारत का स्क्रीन एडैप्टेशन)
The Geneaogy of Morals by Friedrich Nietzsche


इन के अलावा और जो किताबें जिनमें झाँक-झाँक के देख/पढ़ रहा हूँ वो ये हैं-

The Story of Philosophy by Will Durant
राहुल सांकृत्यायन लिखित दर्शन दिग्दर्शन
The Analects by Confucius
My Name Is Red by Orhan Pamuk
On the Suffering of the World by Arthur Schopenhauer
ज़िक्रे मीर
रति पुराण (पुराणों से उठाये गए रति प्रसंगो का एक संकलन)


मैं बिलकुल भी इन किताबों को पढ़ना नहीं चाहता पर क्या मजबूरी है.. पढ़ना पड़ रहा है क्योंकि इन सारे लेखकों को एक साथ भृत्य रखना सम्भव नहीं। रख सकता तो भरतलाल की तरह उनसे जीवन का ज्ञान-अनुभव लहाता रहता। पर क्या करें.. मुझे मालूम है वे राजी नहीं होंगे.. हो भी गए तो इतनी पगार माँग लेंगे कि मेरी हवा निकल जाएगी। और कुछ तो वैसे भी स्वर्ग/ नरक सिधार गए हैं। तो बस स्थानापन्न में अमूल्य जीवंत मनुष्य छोड़कर सौ-दो सौ रुपल्लियों की चीज़ों से काम चलाना पड़ रहा है।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

मुंबई के झगड़े के पीछे क्या है?

आज के नवभारत टाइम्स में इतिहासकार अमरेश मिश्र का एक लेख आया है जिसमें मुंबई में उत्तर भारतीयों के खिलाफ़ जो माहौल बनाया जा रहा है उसके पीछे की एक लम्बी राजनीति पर से पर्दा उठाया गया है.. उनकी सहमति से यह लेख यहाँ छाप रहा हूँ..

मुंबई के झगड़े के पीछे क्या है?

अमरेश मिश्र

हाल के दिनों में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने मुंबई में बसे उत्तर भारतीयों को लेकर नाराजगी दिखानी शुरू कर दी है। इस मुद्दे पर छिटपुट हमले हुए हैं और फिलहाल सियासत गर्म है। मुंबई की दो करोड़ आबादी में करीब साठ-सत्तर लाख उत्तर भारतीय हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर को अब भी अहसास नहीं कि मामला क्या है। इन घटनाओं का एक छुपा पहलू यह है कि मराठीवादी सियासत के नाम पर सवर्ण और अवर्ण यानी अगड़े और पिछड़े की राजनीति चल रही है।

शिव सेना की मराठीवादी राजनीति एक खास सवर्ण वर्ग के पूर्वाग्रहों से संचालित रही है। पिछले कुछ अरसे में मराठियों के भीतर अगड़े और पिछड़े का संघर्ष तेज हुआ है। मराठी ओबीसी सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग रहे हैं। इसी के जवाब में, यानी पिछड़ों की दावेदारी को ध्वस्त करने के लिए इस वक्त मराठी माणूस की एकता का यह नारा लगाया गया है। उत्तर भारतीय तो इस सियासी खेल में सिर्फ एक मोहरा हैं।

लेकिन सवर्ण और अवर्ण के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों का इतिहास आज का नहीं है। इसे देश और मुंबई के इतिहास के संदर्भ में देखना होगा, जहां समाज, सियासत और पैसे का भी रोल है। इसी में उत्तर भारतीयों और मराठियों के आपसी रिश्ते की कहानी भी मौजूद है।

इतिहास में मुंबई कोई खालिस सवर्ण शहर नहीं रहा है। मुंबई पहले बंबई था और इसे अंग्रेजों ने बनाया था, यानी इतिहास में इसकी दखल बाद में शुरू हुई। शिवाजी महाराज के जिस आंदोलन से मराठियों को पहचान और सम्मान मिले थे, उसका केन्द्र रायगढ़ था। पेशवाओं की राजधानी पुणे थी। बंबई महज कुछ टापुओं के रूप में मौजूद थी। पहले इन टापुओं पर पुर्तगालियों का कब्जा था। सत्रहवीं सदी में ये अंग्रेजों के हाथ आए। यहां जो कोली समाज बसता था, वह अवर्ण था। उसे न तब और न अब सत्ता का सुख हासिल हुआ।

औरंगजेब के समय पुर्तगालियों को बंबई से खदेड़ने की कोशिश हुई। मराठों से भी पुर्तगालियों और अंग्रेजों की जंग हुई। लेकिन पश्चिम भारत में सक्रिय भारतीय ताकतों ने बंबई को कभी अपना सियासी या व्यापारिक केन्द्र नहीं बनाया। मुगल और मराठा काल में भी गुजरात के सूरत जैसे शहरों को यह दर्जा हासिल रहा। बंबई एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र बन कर उभरा उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में। अंग्रेजों को एक नए पूंजीवादी सेंटर की तलाश थी, जिसे उन्होंने बंबई में आकार दिया। अंग्रेज उस समय भारत के उद्योगों का नाश कर रहे थे। उनकी मुख्य गतिविधि थी भारत से कच्चा माल एक्सपोर्ट करना और इंग्लैंड से तैयार माल इम्पोर्ट करना। गुजरात के पोर्ट अपनी मराठा-मुगल संस्कृति के चलते इस मकसद में पूरी तरह सहायक नहीं हो सकते थे।

मुंबई का इस्तेमाल उस अफीम व्यापार के लिए भी हो रहा था, जिसके तहत चीनियों से माल लेकर उन्हें अफीम दी जाती थी। इस व्यापार में अंग्रेजों के मददगार थे मुंबई के पारसी और दूसरे धनी लोग। मुगलकाल में पारसी पूंजीपतियों का नाम कम सुनाई पड़ता था। उस वक्त गुजराती पूंजीपति ही हावी थे। लेकिन अफीम व्यापार में पारसियों के रोल ने 1857 के आसपास उन्हें बंबई में सबसे ताकतवर बना दिया। जगन्नाथ शंकरसेठ को छोड़ कर कोई भी मराठी इन पारसियों की बराबरी नहीं कर सकता था। पारसियों के बाद गुजरातियों के पास ही दौलत थी।

मुंबई में उत्तर भारतीयों का आना 1857 के आसपास ही शुरू हुआ। सन सत्तावन की क्रांति के दौरान जहां शंकर सेठ जैसे लोगों को गिरफ्तार कर यातनाएं दी गईं, वहीं पारसियों को वफादारी का इनाम मिला। पूरे महाराष्ट्र में सत्तावन की जंग जोरदार तरीके से चली, लेकिन इसमें ज्यादातर हिस्सेदारी ओबीसी कोली, महार और भील समुदायों ने ही की। कुछ जगह चितपावन ब्राह्माण भी लड़े, लेकिन बाल ठाकरे जिस जाति से आते हैं, वह इस जंग से अलग ही रही। कुल मिलाकर पिछड़ी जातियों ने ही अंग्रेजों से लोहा लिया। यह बात बाबासाहेब आंबेडकर ने 21 अक्टूबर 1951 को लुधियाना में दिए गए अपने भाषण में मानी थी।

सन सत्तावन की क्रांति में बंगाल आर्मी की रीढ़ थे उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदू और मुस्लिम पूरबिए। वही कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और मणिपुर से महाराष्ट्र तक राष्ट्रीयता की भावना से लड़े। पूरे महाराष्ट्र में पिछड़ी जातियों ने उत्तर भारतीयों के साथ मिलकर मोर्चा खोला था।

जब 1857 के बाद बंबई में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई, तो उत्तर भारतीय कामगार उसकी वर्क फोर्स का हिस्सा बन गए। लेकिन बहुमत अवर्ण मराठियों का ही रहा। इनमें से ज्यादातर मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र से आए थे। बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में जब आजादी का आंदोलन नया मोड़ ले रहा था, उसी समय से ओबीसी मराठी और उत्तर भारतीय कामगार एक साझा ताकत बनकर उभरने लगे थे। बालगंगाधर तिलक की गिरफ्तारी के बाद जब बंबई में हड़ताल हुई, तो एक नई ताकत का जन्म हुआ। इस ताकत ने आजादी की लड़ाई में कांग्रेस और कम्युनिस्टों का साथ दिया। आजादी के बाद यह कम्युनिस्टों की रीढ़ बनी रही। यही अवर्ण समुदाय था, जिसने बंबई को मुंबई बनाया। इससे भी पहले गिरगांव जैसे इलाकों में एक साझा मराठी-उत्तर भारतीय संस्कृति परवान चढ़ी।

1960 में कांग्रेस की मदद से शिवसेना का उभार होने लगा। उस वक्त कांग्रेस सवर्ण मराठी लीडरशिप के हाथों में थी। अवर्ण मराठियों को कम्युनिस्टों से अलग करने के लिए शिवसेना को आगे बढ़ाया गया। दत्ता सामंत की हड़ताल शायद अवर्ण मराठियों के लिए सबसे गौरवशाली दौर था। लेकिन इसी हड़ताल के दौरान पारसी पूंजीपतियों और सवर्ण मराठियों के बीच वह गठजोड़ उभरा, जिसने बंबई का चरित्र बदल कर रख दिया। बंबई मैन्युफैक्चरिंग के सेंटर से बदलकर फाइनैंस और जायदाद के कारोबार का सेंटर बन गई। सवर्ण मराठी सामंतशाही ने धीरे-धीरे सवर्ण मध्यवर्ग को भी खुद से अलग कर दिया।

मराठीवाद का नारा देने वाले लोग इसी सामंतशाही का हिस्सा हैं। बंबई के मुंबई बनने के बाद नब्बे के दशक में उसके चरित्र में और भी बड़े बदलाव आने लगे। अवर्ण मराठियों की ताकत टूट चुकी थी। उसी वक्त नए पेशों में (जिसे सर्विस सेक्टर कहा जा सकता है) उत्तर भारतीयों का दबदबा बढ़ने लगा। इसमें उत्तर भारत की कमजोर इकॉनमी का रोल उतना बड़ा नहीं था, जितना कि मुंबई में पैदा हो रही नई डिमांड का। सर्विस सेक्टर को ऐसे लोग चाहिए थे, जो महज कामगार न हों, थोड़ा पढ़े-लिखे भी हों।

पारसी पूंजीपतियों से मिलकर सवर्ण मराठियों ने पहले अवर्ण मराठियों की ताकत तोड़ी, फिर जब उत्तर भारतीय खुद को साबित करने लगे, तो यह नया मराठीवाद खड़ा कर दिया गया। आज के दौर में यह पिछड़ा सोच है। इस झगड़े से बहुसंख्य पिछड़े मराठियों को कोई लेना-देना भी नहीं है। इसलिए आज एक बार फिर उत्तर भारतीयों, पिछड़े मराठियों और दलितों के साझा मोर्चे की मुंबई को जरूरत है।

अमरेश मिश्र इतिहासकार हैं जो लम्बे समय तक सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं.. उनकी नई किताब War of Civilisations: India AD 1857 बाज़ार में उपलब्ध है.. जिसे रूपा एंड कम्पनी ने छापा है..

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

घर लौट जायँ भैये?

राज ठाकरे अपने एक बयान से राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर छा गए हैं। उनकी गिरफ़्तारी की उलटी गिनती की जा रही है। मीडिया को तो परोसने के लिए कुछ गरम मसाला चाहिये, समझ में आता है। पर राज्य सरकार की भूमिका इस में इतनी मासूम नहीं है जितनी किसी को शायद लग सकती है।

पहले ही कुछ लोग यह आशंका व्यक्त कर चुके हैं कि राज ठाकरे को भाव देने में कांग्रेस की सोची-समझी नीति है। पिछले नौ बरसों से सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस और एन.सी.पी. को तिबारा बहुमत पा जाने का विश्वास नहीं है, खासकर तब जबकि प्रदेश में किसान लगातार आत्म-हत्याएं करते रहे हों और उद्धव अपने परम्परागत वोटबैंक से बढ़कर किसानों और उत्तर भारतीयों को जोड़ने के प्रयास कर रहे हों।

ऐसी आशंकाओं के बीच शिव सेना के खिलाफ़ राज ठाकरे को असली सेनापति के रूप में खड़ा कर देने में असली हित तो कांग्रेस का ही है। और राज ठाकरे की विद्रोही छवि को एक नाटकीय रूप देने में जो कुछ बन सकता है, सरकार लगातार कर रही है।

अब उन पर यह रोक लगाई गई है कि वे रैली या प्रेस कान्फ़्रेन्स न करें। नाटकीयता की माँग होगी कि उनकी गिरफ़्तारी ऐसी एक रैली/ प्रेस मीट के बीच हो जिस में राज कुछ सनसनी पूर्ण बयानबाजी कर रहे हों। मेरा डर है कि सरकार राज ठाकरे को ऐसी स्क्रिप्ट लिखने में पूरा सहयोग करेगी। देखें क्या होता है!

अपने राजनैतिक हितों को बचाये रखने के लिए ऐसे खेल राजनीति में किये जाते रहे हैं और कभी-कभी इन खेलों में हज़ारों-लाखों लोग मौत के घाट उतर जाते हैं और भिन्डरांवाले और ओसामा जैसे महापुरुषों के जन्म भी हो जाते है। इस खेल में सीधे-सादे मराठियों को निरीह भैयों से भिड़ाया जा रहा है ताकि शिवसेना-भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सके।

क्या करें बेचारे भैये? मुम्बई छोड़ दें? मेरे विस्फोटक मित्र संजय तिवारी का मानना है कि हाँ छोड़ दे! (कल मेरी उनसे फोन पर बात हो रही थी) .. वे मुम्बई छोड़ेंगे तो ही उत्तरांचल की मनीआर्डर अर्थव्यवस्था के स्थान पर एक असली और स्वस्थ अर्थव्यवस्था कायम होगी। क्योंकि उनका मानना है कि व्यक्ति ही पूँजी है.. वे जहाँ जमा हो जायेंगे विकास और सम्पत्ति पैदा हो जायेगी। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर मुम्बई की सम्पन्नता का असली रहस्य हैं। इन सस्ते मज़दूरों के बाज़ार से हट जाने से मुम्बई का सारी हेकड़ी निकल जाएगी।

मैं अर्थशास्त्र में बहुत मज़बूत नहीं हूँ.. पर संजय की बात मुझे तार्किक लगती है। मार्क्सवादी भी जानते हैं कि पूँजी के उत्पादन का श्रम से सीधा सम्बन्ध है। मज़दूर के उचित श्रम मूल्य और दिये गए श्रम मूल्य के अन्तर से ही पूँजी का निर्माण होता है। विस्थापित मज़दूर कम से कम मूल्य पर काम कर के इस अन्तर को बढ़ाकर अधिक पूँजी उत्पादित करने में सहायक होता है।

फिर भी मैं संजय की इस बात के साथ सहज नहीं हूँ कि भैये मुम्बई छोड़ दें। अभी तक का आदमी का इतिहास कई अर्थों में आदमी के विस्थापन का इतिहास भी है। विस्थापन में कई त्रासदियाँ भी होती हैं पर प्रगति के नए दरवाज़े भी बाहर जाने वालों रास्तों पर ही खुलते हैं। देखा गया है कि विस्थापित लोग ही विकास की मशाल के वाहक होते हैं। अपने जड़ों को पकड़ कर जमे लोग वहीं बने रहते हैं और नई ज़मीन खोजने वाले आगे बढ़ जाते हैं।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

शी वान्ट्स अ वीनी

मेरा अपना आकलन है कि हिन्दी की दुनिया में ऐसी बहुत सी बातें बहुत से विषय जो अंग्रेज़ी की दुनिया में इसी देश-काल में ‘पासे’ हो चले हैं, उनको लेकर हिन्दी का संसार बेहद संवेदनशील बना रहता है। जैसे उदाहरण के लिए मैं इस वीडियो का लिंक यहाँ दे ज़रूर रहा हूँ लेकिन शंकाओं से घिरकर.. पता नहीं लोग क्या कहेंगे..!

वीनी मायने कैसे कहूँ क्या.. आप समझ जाइये न.. वीनी के बारे में फ़्रायड महाराज का सिद्धान्त है कि स्त्रियाँ वीनी-ईर्ष्या से न केवल ग्रस्त होती है वरन संचालित भी होती हैं।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

चला गया आखिरी गाँधीवादी

बाबा आम्टे नहीं रहे। और उनके साथ गाँधीवादी विचारधारा की शायद वह आखिरी शख्सियत नहीं रही, जिन्होने जीवन की गुणवत्ता को कभी भौतिक पैमानों से नहीं तौला।
बाबा आम्टे गाँधी जी के अनुगामी थे और आज़ादी के आन्दोलन में गिरफ़्तार होने वाले नेताओं की तरफ़ से वकील की भूमिका भी उन्होने अदा की थी। पर जिस काम के लिए उन्हे हमेशा याद किया जाता रहेगा वह उनका आनन्दवन है।

वो कुष्ठ रोगी जो इस आश्रम के बाहर एक आम घृणा का शिकार होते हैं, बाबा आम्टे के इस आश्रम में बिना किसी दुत्कार और धिक्कार की नज़र की एक सम्मान का जीवन बिता सकते हैं। इस आश्रम का सारा कामकाज ये रोगी स्वयं सम्हालते हैं। आनन्दवन एक ऐसा आत्मनिर्भर गाँव है जिसकी कल्पना गाँधी जी ने अपने भारत के हर गाँव के लिए की थी पर उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी पण्डित नेहरू ने उसे औद्यौगिक मन्दिरों की राह पर धकेल दिया।

बाबा आम्टे की तस्वीर को जब भी मैं देखता तो उनके कानों को देखता रह जाता; हाथी के जैसे बड़े-बड़े भारी और लम्बे थे उनके कान। पारम्परिक ज्ञान कहता है कि लम्बे और बड़े कान लम्बी उमर और ज्ञान का प्रतीक होते हैं। बाबा आम्टे इस बात को पूरी तरह से सत्यापित करते हैं।

बस यही कामना करता हूँ अपने छुद्र स्वार्थों के स्तर से ऊपर उठकर कभी उनकी तरह विराट पुरुष की संवेदना से प्रेरित होकर जीवन का संचालन कर सकूँ। बाबा को मेरा शत-शत प्रणाम।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

पूर्वग्रह की राजनीति

मेरी माँ और दूसरे शहरों में बैठे मित्र परेशान हैं कि मुम्बई में क्या हो रहा है? पहली बात तो यह कि यह पूरा मामला जितना बड़ा है उस से कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर इसे पेश किया जा रहा है। और इसमें मीडिया की खबरखोरी का लोभ एक बड़ा कारण है। मगर ज़्यादा दुःखद इसमें राज्य सरकार की भूमिका है.. जो अराजक तत्वों को बेक़सूर लोगों को सताने दे रही हैं?

अब वो दिन नहीं रहे जब जनता नेता के पीछे चलती थी.. अब नेता जनता के पीछे चलता है। कोई भी बात कहने से पहले वो देख लेता है कि हवा का रुख क्या है। ऐसे में राजनीति का सबसे आसान रास्ता आम जन में व्याप्त पूर्वग्रहों की गली से होकर जाता है.. क्योंकि वहाँ असंतोष भी होता है और एक बना-बनाया दुश्मन भी।

अधिकाधिक पार्टी इस क़िस्म की राजनीति कर रही हैं.. अकेले मुम्बई ही नहीं, दुनिया के हर कोने में आप को इस तरह के पूर्वग्रह मिल जाएंगे.. जर्मनी में तुर्कों के खिलाफ़, फ़्रांस में नार्थ अफ़्रीकी मुस्लिम विस्थापितों के खिलाफ़, इंगलैण्ड में इण्डियन्स और पाकीज़ के खिलाफ़ और पिछले कुछ सालों में पूरी दुनिया में और खासकर अमरीका में, मुसलमानों के खिलाफ़ एक बनी बनाई सोच मौजूद होती है।

आदमी को जानने के पहले ही उसकी भाषा और चेहरे-मोहरे से उसके बारे में एक राय क़ायम कर ली जाती है। आम तौर पर इन पूर्वग्रह का एक भौतिक आधार भी होता है। मुस्लिमों के बारे में पूर्वग्रह की जड़ आतंकवाद से जुड़ा हुआ है मगर अन्य मामलों में यह विस्थापित मज़दूर के कम दामों में बिकने को तैयार हो जाने की वजह से स्थानीय मजदूर में पैदा हुए क्षोभ के चलते होता है। और भूमण्डलीकरण के इस दौर में इस तरह की राजनीति का भविष्य अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा काफ़ी कुछ।

मुम्बई के इस मामले में विडम्बना की बात यह है कि यहाँ पर जिन विस्थापितों के खिलाफ़ मुहिम चलाया जा रहा है वो किसी दूसरे देश में नहीं अपने ही देश में नफ़रत का निशाना बन रहे हैं। मुम्बई में एक निम्न वर्गीय और निम्न मध्यम वर्गीय मराठी के मन में यह क्षोभ है कि यूपी बिहार के मज़दूरों के रेट गिरा कर उनके रोज़गार के अवसरों में सेंध लगाते हैं। राज ठाकरे इसी सोच का राजनैतिक फ़ायदा उठाना चाहते हैं। इस तरह की राजनीति बेहद खतरनाक है और चिंता का विषय है।

और चिंता का विषय यह भी है कि एक के बाद एक हर राज्य में यह तस्वीर उभर कर आ रही है कि क़ानून लागू किया जाएगा या नहीं इसका फ़ैसला इस बात को ध्यान में रख कर किया जा रहा है कि बहुसंख्यक राय क्या है? अगर बहुसंख्यक राह यह कि मुसलमानों को पिटना चाहिये तो हत्यारों को गिरफ़्तार करने से बचती रहेगी पुलिस। अगर सिवान की जनता भारी वोटों से शहाबुद्दीन को जिताती है तो वे बीसियों क़त्ल और कई नॉन बेलेबल वारन्ट के बावजूद पूरे भारत को अपना अभयारण्य समझ सकते हैं और केन्द्रीय मंत्रियों के गले में हाथ डाल कर संसद में घूम सकते हैं ।

अगर बहुसंख्यक राय यह है कि आधी रात को शराब पी कर होटल से बाहर निकलने वाली औरत परोक्ष रूप से बलात्कार आमंत्रित कर रही है तो उस पर हमला करने वालों को पुलिस सहानुभूति की दृष्टि से देखेगी। मेरा ख्याल है कि वही मानसिकता विलासराव देशमुख को राज ठाकरे को गिरफ़्तार करने से रोके हुए है। वे अभी तौल रहे हैं कि आम राय कितनी राज ठाकरे के साथ है?

राज ठाकरे साहब अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते शिवसेना से अलग हो गए। शिवसेना की सीमाओं को समझते हुए उन्होने एक धर्म निरपेक्ष छवि बनाने की कोशिश में अपने झण्डे में एक हरी पट्टी भी डाली पर चुनाव में उनको दो-ढाई प्रतिशत वोट भी नहीं मिला। बजाय एक लम्बी राजनैतिक पारी के लिए धीरज पैदा करने के वे हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में अपने चाचा के पुराने हथकण्डों को दोहरा रहे हैं। ये हथकण्डे उस समय थोड़े चल भी गए थे अब अपने दुहराव में चलेंगे, इसमें मुझे शक़ है।

मैं मुम्बई में पन्द्रह साल से हूँ और मैंने मराठियों को बहुत सरल, शांतिप्रिय और अपने काम से काम रखने वाले समुदाय के रूप में जाना है। आम मराठी शिवसैनिक नहीं है। शिव सेना बनने के चालीस साल के इतिहास में शिवसेना को अभी तक सिर्फ़ एक बार ही राज्य में सरकार बनाने का मौका़ मिला है- १९९२-९३ के साम्प्रदायिक दंगो के बाद वाले चुनाव में.. वो भी भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर ही।

टीवी क्लिप्स में ठेले का सामान गिराने वाले युवकों की चेष्टा में मुझे जज़बात की गर्मी नहीं एक सोची समझी ठण्डे दिमाग की कार्रवाई दिखी। पहले से तय कर के आए थे कि दो चार टैक्सी वालों को पीटेंगे और दो चार ठेले उलटा देंगे। ज़ाहिर है कि इसमें कोई ऐसी भावना नहीं है जो जुनून बन के कोई हंगामा बरपा कर सके। मेरी समझ में यह मामला अपनी राजनैतिक ज़मीन बनाने की या शिवसेना की राजनैतिक ज़मीन हथियाने की एक ऐसी चाल है.. जिसके जाल में मीडिया तो फँस गया पर मराठी माणूस फँसेगा या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।
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