मंगलवार, 25 नवंबर 2008

पुलिस की धर्म-निरपेक्षता

पिछले दिनो टी वी पर अभिनव भारत के द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों का एक वीडियो चलाया जा रहा है। जिसमें अभियुक्त समीर कुलकर्णी अपने कार्यकर्ताओं के साथ दिखाई पड़ रहे हैं। मालेगाँव बम काण्ड में अभिनव भारत से जुड़े अभियुक्त दोषी हैं या नहीं, ये तो अदालत ही तय करेगी मगर वीडियो देखकर कोई भी ये समझ सकता है कि अभिनव भारत एक अतिवादी संगठन है जो देश के अल्पसंख्यक समुदायों को अपने घोर शत्रु के रूप में चिन्हित करता है। और इस तरह की हिंसक साम्प्रदायिकता अमानवीय है, अधार्मिक है और अक्षम्य है.. मेरे अपने नैतिक मापदण्ड से।

मगर ऐसी साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अभियुक्तों के प्रति भी देश की पुलिस का पाशविक व्यवहार किस क़ानून और नीति की दृष्टि से जाइज़ है, मैं नहीं समझ सकता। अभियुक्तों ने पुलिस पर यातना की कई आरोप लगाये हैं ।

#साध्वी प्रज्ञा सिंह ने उन्हे हिरासत में जबरन अश्लील सीडी दिखा कर पूछताछ करने, एटीएस पर गाली गलौज की भाषा में बात करने और रात में दो बजे नींद से उठाकर धमकियां देने (उनके कपड़े उतारने की भी) समेत कई सनसनीखेज आरोप लगाए हैं। इसके पहले वे अपने हलफ़नामें में पुलिस पर पहले ही आरोप लगा चुकी हैं कि पुलिस ने उन्हे उनके ही शिष्य के हाथों से पिटवाया।

#लेफ्टीनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित ने आरोप लगाया कि एटीएस अधिकारी उनके घर में आरडीएक्स रखकर उनके परिजनों को फंसाने और उनकी पत्नी को नंगा कर के घुमाने और फिर उसका बलात्कार करवाने की की धमकी देते हैं। अन्य आरोपियों ने भी शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं देने के आरोप लगाए।

#रिटायर्ड मेजर उपाध्याय ने आरोप लगाया कि डी आई जी सुखविन्दर सिंह ने उनसे कहा कि मेजर उपाध्याय की माँ गाँव के सारे मर्दों के साथ सोती थी और उन्हे धमकाया कि उनकी बेटी का बलात्कार कर दिया जाएगा और बेटे को नशीली दवाईयों के केस में फँसा दिया जाएगा।

भाजपा, विहिप समेत देश का तमाम हिन्दू जनमानस पुलिस के इस व्यवहार से अपार कष्ट में है। मैं भी इस से अछूता नहीं। पुलिस के ऐसे व्यवहार के क्या कारण है ठीक-ठीक कहना तो मुश्किल है पर मेरा अनुमान है कि अपनी असली धर्म—निरपेक्षता साबित करने का ये कांग्रेसी तरीक़ा है। बाटला हाउस इनकाउन्टर से पुलिस की विश्वसनीयता पर उठ खड़े सवालों को बराबर करने के लिए ‘हिन्दू आतंक’ को घेरा जा रहा है। ये काम बिना इस तरह की यातनाओं के भी सम्भव था लेकिन मुश्किल दूसरी है.. सिर्फ़ आतंक का ही संतुलन नहीं .. यातना का भी संतुलन होना चाहिये।

१९९३ के मुम्बई सीरियल बम धमाको के अभियुक्तों के पुलिस के साथ अनुभव कैसे रहे .. ज़रा मुलाहिज़ा फ़रमाइये.. .

#टौंक के नवाबी खानदान से ताल्लुक़ रखने वाले सलीम दुर्रानी के सर को टॉयलेट सीट में घुसा के उन्हे विष्ठा खाने के लिए मजबूर किया गया।

#अभियुक्त माजिद खान की बीवी नफ़ीसा को दो महीने तक कपड़े बदलने की इजाज़त नहीं दी गई और उसे मासिक धर्म से सने हुए खून के कपड़ों को पहने रखने के लिए मजबूर किया गया।

#अभियुक्तों के लिए पानी दुर्लभ था और कई स्त्रियों को प्यास से आक्रांत हो कर अपनी पेशाब पीनी पड़ी।

#अभियुक्तों के मुँह में चप्पल घुसेड़ना एक आम बात थी।

#अभियुक्त और उनके रिश्तेदारों के गुप्तांगों में लाल मिर्च लगाना पुलिस की यातना का एक सामान्य हिस्सा होता था। इस के चलते कई अभियुक्तों को जीवन भर के लिए बवासीर हो गई।

#यातना के तमाम तरीक़ो में अभियुक्तों के गुप्तांगो पर बिजली के झटके देना भी शामिल रहता।

#पुलिस, अभियुक्त के परिवार के सदस्यों को एक दूसरे को चप्पल और बेल्ट से पीटने के लिए मजबूर करती।

#गर्भवती शबाना को नंगा कर के अपने पिता को चप्पल से पीटने के लिए मजबूर किया गया।

# Young naked Manzoor Ahmad was told to insert his penis into the mouth of Zaibunnisa Kazi, a woman of his mother's age.

#Najma (the sister of Shahnawaz Querishi, an accused) was forced to fondle her father's penis and eat his shit too.
(इस व्यवहार को हिन्दी में लिखने में भी मुझे शर्म महसूस हो रही है)

#बान्द्रा के स्टमक रेस्तरां के मालिक राजकुमार खुराना को पुलिस ने सीरियल बम धमाकों के बारे में पूछताछ करने के लिए बुलाया और उसे ऐसी यातनाओं को दिखाया और धमकाया कि ये उसके साथ भी हो सकता है। खुराना इतना डर गए कि घर जा कर उसने अपने बीबी-बच्चों को मार कर, खुद को भी गोली मार ली।

ये वो चन्द घटनाएं है जो इस तरह की यन्त्रणाओं की एक लम्बी सूची से ली गई हैं जिसे इतिहासकार अमरेश मिश्र ने अपने एक शोधपत्र में तैयार किया है। खेद की बात ये है कि इस शोध पर आधारित लेखों को उन्होने कई पत्र-पत्रिकाओं में भेजा मगर कोई छापने के लिए तैयार नहीं हुआ।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

ओबामा की प्रतिज्ञाएं

राष्ट्रपति ओबामा और उनकी जीत ने अमरीका और दुनिया में एक परिवर्तनकारी उत्साह पैदा किया है। मैं जल्दी किसी की छवि, छटा, और अदा के झांसे में नहीं आता.. ऐसा मुझे लगता है। मगर अमरीकी चुनावों में जीत के बाद राष्ट्रपति की गद्दी सुनिश्चित हो जाने के बाद भी ओबामा जिस तरह की क्रांतिकारी बातें कर रहे हैं, उसे सुनकर मेरी भीतर भी झुरझुरी हो रही है।

क्या ओबामा सचमुच दुनिया बदल देंगे? क्या वे सचमुच विश्व राजनीति में अमरीका की भूमिका को उलट देंगे? पर्यावरण और पूंजी के सम्बन्ध को पलट देंगे? मेरी इच्छा है कि यह सच होता हुआ देखें हम लोग.. फ़िलहाल तो देखें ओबामा की लच्छेदार वाणी में उनकी प्रतिज्ञाएं..

शनिवार, 15 नवंबर 2008

न्याय का आतंक

पिछले दो हफ़्तो में जिस तरह से हिन्दू साधु और साध्वी आतंकवाद के सिलसिले में पकड़े गए हैं उसे लेकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मैं जानता हूँ कि मेरी ही तरह तमाम अन्य मित्र भी ऐसा महसूस कर रहे हैं। ये ऐसा मामला है कि बुरा लगना स्वाभाविक है.. आप की आस्थाएं जहाँ से जुड़ती हों उस इमारत के कुछ लोग यदि गम्भीर आरोपों के घेरे में आ जायं तो धक्का तो लगता है। खासकर और, जब वही आरोप हम दूसरे समुदाय के लोगों पर लगाते रहे हों।

अपने हिन्दू समुदाय के लोगों को मेरा मशवरा हैं कि वे बौखलाए नहीं, संयम से काम लें। यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा।

लेकिन अगर आप मानते हैं कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय सरकार, और पुलिस के साथ-साथ न्याय-प्रणाली भी शामिल है तो इस पर गु़स्सा नहीं अफ़सोस करने की ज़रूरत है कि हमारे देश के बहु-संख्यक हिन्दू जन अपने ही धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में खुशी-खुशी सहयोग कर रहे हैं? और जिस समाज के इतने सारे पहलू इस हद तक सड़-गल गए हों उसके साधु-संत और महन्त बन कर घूमने वाले लोग क्या निष्पाप होंगे?

आम तौर पर माना जाता है कि धर्म की भूमिका मनुष्य और ईश्वर के बीच एक स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित करने की है। पर यह सच नहीं है.. असल में दुनिया के अधिकतर धर्म अपने स्वभाव में आध्यात्मिक से अधिक सामाजिक हैं। इस भूमिका के सन्दर्भ में एक छोर पर इस्लाम जैसा धर्म है जो सामाजिक जीवन के बारे में सब कुछ परिभाषित करने का प्रयास करता है तो दूसरे छोर पर बौद्धों और जैनों की श्रमण परम्परा जो समाज को त्याग देने में ही धर्म का मूल समझते थे।

इन दो छोरों के बीच हिन्दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय जो अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग भूमिका निभाते रहे हैं। आप को हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले साधकों की परम्परा भी मिलेगी, शुद्ध पारिवारिक जीवन जीने और तिथि-वार के अनुष्ठानों से दैनिक जीवन को अर्थवान करने वाली वैष्णव परम्परा भी है, घोर अनैतिक समझे जाने वाले वामाचारी तांत्रिक भी हैं, और अपने सम्प्रदाय के हितों के लिए हथियार ले कर युद्ध करने वाले अखाड़ों के सन्यासी भी हैं।

अपने धर्म के सामाजिक पहलू के पोषण के लिए इस्लाम में एक लम्बी परम्परा रही है जिसे लोकप्रिय रूप से जेहाद का नाम दिया जाता रहा है। ईसाईयत ने भी अपनी धर्म-स्थानों पर क़ब्ज़े के लिए चार-पाँच सौ साल तक क्रूसेड्स का सिलसिला जारी रखा। इसके अलावा ईसाईयों में पेगन्स के खिलाफ़ हिंसक गतिविधियों में भी उनके भीतर वैसा ही उत्साह जगाया जाता रहा जैसे कि इस्लाम में समय-समय पर क़ाफ़िरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम होता रहा है।

सनातन धर्म भी इस तरह की सामाजिक हिंसा से अछूता नहीं रहा है। शैव-वैष्णव संघर्ष, बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष का स्वरूप भी बेहद क्रूर और हिंसक रहा है। पुष्यमित्र का अपने ही राजा बृहद्रथ की हत्या कर राज्य हथियाने के पीछे एकमात्र कारण बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष ही था। फिर गुरु नानक जैसे परम ज्ञानी की सिख परम्परा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य रूप लेना पड़ा (हालांकि विडम्बना ये है सैन्य रूप लेते ही नानक की परम्परा का अस्तित्व गहरे तौर पर बदल गया)।

धर्म के नाम पर होने वाली इस तरह की सारी सामाजिक हिंसा को करने वाले लोग किसी प्रकार के नैतिक दुविधा का सामना नहीं करते क्योंकि वे इस हिंसा का हेतु सीधे अपनी आस्था और नैतिकता के स्रोत अपने धर्म से ग्रहण करते हैं। वे राज्य की न्याय-व्यवस्था से इतर और उससे स्वतंत्र एक न्याय-प्रणाली में विश्वास करते हैं।

किसी ने अपराध किया या नहीं इसका फ़ैसला वो किसी नौकरीपेशा न्यायाधीश पर नहीं छोड़ते, खुद करते हैं। और उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ये भी स्वयं ही तय करते हैं और स्वयं ही निष्पन्न भी कर डालते हैं। उनकी अपनी नज़र में वे अपराधी नहीं होते बल्कि उस न्याय—व्यवस्था के रखवाले होते हैं जिस पर उनका पक्का यक़ीन है।

तमिलो के हितों की लड़ाई लड़ने वाला प्रभाकरन भी अपनी नज़र में न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। भूमिहीन किसानों के हितों के लिए हथियार बन्द संघर्ष करने वाले नक्सली भी न्याय के पक्ष में खड़े हैं। ओसामा बिन लादेन और अफ़ज़ल गुरु भी इंसाफ़ के सिपाही हैं। और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे पर भी यही आरोप है कि उन्होने क़ानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है।

राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक वो अपने द्वारा परिभाषित क़ानून को लागू करा सके। इसके लिए ऐसे सभी लोग जो न्यायप्रणाली में दखल देने की कोशिश करते हैं उन्हे राज्य, अपराधी की श्रेणी में रखता है। मगर राज्य चाह कर भी अपनी न्याय की परिभाषा को हर व्यक्ति के भीतर के न्याय बोध पर लागू नहीं कर पाता।

अब जैसे साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे के मामले में ही लोगों ने अपने-अपने न्याय-बोध से फ़ैसले कर लिए हैं। कुछ लोग तो अवधेशानन्द तक को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं। और कुछ लोग आरोपियों के अपराधी साबित हो जाने पर भी उन्हे अपराधी नहीं स्वीकार करेंगे.. क्योंकि उनके न्यायबोध से उन्होने किसी को मार कर कोई अपराध नहीं किया। ऐसे न्याय-बोध के प्रति क्या कहा जाय?

फ़िलहाल मामला अदालत में है और अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है। वैसे तो आधुनिक क़ानून यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है तब तक उसका जुर्म साबित नहीं हो जाता। मगर आजकल इसका उलट पाया जाता है। जैसे परसों ही मैंने कांगेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन को टीवी पर बोलते सुना कि let them prove their innocence.. । मेरा ख्याल था कि आप अदालत में जुर्म साबित करने की कोशिश करते हैं.. मासूमियत नहीं।

मज़े की बात ये है कि उस पैनल डिसकशन में मौजूद विहिप के लोगों ने भी इस बयान पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। क्योंकि इस बात पर तो वे खुद भी आज तक विश्वास करते आए हैं और इस समझ की पैरवी करते आए हैं। तभी तो एक बड़ा तबक़ा आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने वाले हर मुस्लिम युवक को अपराधी ही समझता रहा है। यहाँ तक कि कुछ शहरों का अधिवक्ता समुदाय एक स्वर से आरोपी की पैरवी तक करने से इंकार करते रहे हैं और उस मुस्लिम युवक के वक़ील बनने वाले के साथ मारपीट तक करते पाए गए हैं। ये है हमारे समाज का न्यायबोध?

आखिर में साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को आतंकवादी मानने वालों से मैं गुज़ारिश करूँगा कि वे याद कर लें कि आतंकवादे के मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों के विषय में उनकी क्या राय होती थी? जो लोग मालेगाँव जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बम विस्फोट करना न्यायसंगत समझते हैं उनसे कोई क्या कह सकता है? मगर साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को निर्दोष क़रार देने वालें मत भूलें कि गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बनी-बनाई कविता

उदय प्रकाश ने चमत्कारिक कहानियाँ लिखी हैं.. और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। मैं खुद उनकी कहानी-कला का प्रशंसक रहा हूँ, हूँ। मगर उदय जी कवि भी हैं और मैंने अपने छात्र जीवन में उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ा और महसूस करने की भी कोशिश की थी।

उनकी एक कविता-एक शहर को छोड़ते हुए आठ कविताएं- एक अन्तराल तक मेरे मानस पर क़ायम रही थी। उस कविता में वैयक्तिक प्रेम और सामाजिक स्वीकृति के बीच के तनाव के ताने-बाने को उन्होने अपनी भाषाई चमत्कार से अच्छे से गढ़ा था। पर उनकी कई अन्य कविताओं में मुझे कभी कोई खास तत्व नहीं नज़र आया। मुझे उन में अनुभूति से अधिक अतिश्योक्ति और एक नाटकीयता ही समझ आई।

आज अचानक अफ़लातून भाई के ब्लॉग पर उदय जी की एक कविता दिखी। जो अफ़लातून भाई ने छापी तो जनवरी २००७ में थी मगर मैं आज ही देख सका। समाजवादी जनपरिषद पर एक नया लेख पढ़ते हुए संयोगवश साइडबार में मैंने उदय जी का नाम देखा .. जिज्ञासा हुई.. क्लिक किया तो पहले कमेंट पढ़ने को मिले।

सभी पाठक कविता से अभिभूत थे.. उदय जी का भी कमेंट था. वे इस इतने आत्मीय और प्रेरणास्पद स्वीकार से गदगद थे। प्रतिक्रियाओं को पढ़ने के बाद कविता पढ़ी..। वैसे तो मैं कविताएं अब नहीं पढ़ता हूँ लेकिन युवावस्था में उदय जी के लिए जो श्रद्धाभाव बना था उसके दबाव में एक बहुत लम्बे समय के बाद कोई कविता पढ़ी.. कविता शुरु होती है ऐसे..

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ ‘आँसू’ से मिलता-जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

पहली ही पंक्ति ग़ालिब के मिसरे- 'जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है'- का कठिन रूपान्तर है.. ऐतराज़ रूपान्तर से नहीं है.. अगर कोई छवि, रूपक आप के भाव के सादृश्य हो तो पाठक गप्प से निगल लेने को तैयार रहता है मगर मुझ से गप्प हुआ नहीं क्योंकि यहाँ कोशिश वही चमत्कार खड़ा करने की है। खैर.. आगे पढ़ा..


वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ

तो क्या जो पागल नहीं हुए वे ईमानदार नहीं है..? जिस जमात में स्वयं उदय प्रकाश भी शामिल हैं? और यहाँ पर यह भी याद कर लिया जाय कि ये वही उदय प्रकाश हैं जिन्होने प्रेम और क्रांति के जज़्बों के बीच झूलने वाले और अपनी इसी ईमानदारी के चलते विक्षिप्त हो जाने वाले कवि गोरख पाण्डेय का विद्रूप करते हुए एक कहानी भी रची थी-राम सजीवन की प्रेम कथा। जिसमें गोरख जी कभी कभी सहानूभूति के पात्र मगर अधिकतर हास्यास्पद चित्रित किए गए थे।

ईश्वर ‘ कहते आने लगती है अकसर बारूद की गंध..

इस तरह की पंक्तियाँ बेहद असरदार हैं और उदय जी की उसी चमत्कारिक भाषा का प्रदर्शन है..जो उनकी पहचान है। पाठक इनको पढ़ कर कवि की प्रतिभा के आगे ढेर हो सकता है.. हो जाता है.. मगर क्या यही कविता है? ज़रा इन जुमलों पर भी गौर किया जाय..

सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक

सबसे ज्यादा लोकप्रिय


सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर

सबसे गरीब और सबसे खूंख्वार

सबसे काहिल और सबसे थके - लुटे

सबसे उत्पीड़ित और विकल

ये जुमले अतिश्योक्ति के एक ऐसे संसार की ओर इशारा करते हैं जिसमें अपना दुख ही सबसे बड़ा है.. और दुख देने वाला सबसे खतरनाक। ऐसी मोटी समझ से किसी महीन अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है क्या? मगर हम करते हैं.. क्योंकि उदय जी हिन्दी साहित्य के आकाश के प्रतिभावान सितारे हैं।

भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ
वर्जित है विचार

उदय जी के दिमाग में एक कल्पित तानाशाह है और है एक कल्पित विद्रोही। उस के अन्तरविरोध की तनी हुई रस्सी पर ही उदय जी अपनी सीली हुई कविता की भाषा सुखा रहे हैं। मेरा कहना है कि भई रस्सी है कि नहीं है.. है तो किस हाल में है.. ज़रा बीच-बीच में जाँच लिया जाय। कम से कम इस तरह की पंक्ति लिखने के पहले तो ज़रूर ही..

वह भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है इस दुनिया का
समूचा सूचना संजाल

हो सकता है कि ये वाक्य उन्होने नेट पर लिपियों के इस स्वातंत्र्य के पहले लिखें हों.. तो भी ये वाक्य कवि की 'दृष्टा' और 'जहाँ न रवि पहुँचे' वाली उक्तियों को पछाड़ कर उदय जी की वास्तविकता के आकलन क्षमता के प्रति कोई अनुकूल मत नहीं बनाती।

बहुत काल से हम हिन्दी वाले सत्ता की मुखालफ़त करते हुए अपने समाज की सारी कमियों का ठीकरा सत्ता पर फोड़ते जाते हैं। हम विज्ञान और संज्ञान में पिछड़े हैं क्योंकि हमारे भीतर न तो वैज्ञानिक सोच है और न ही औरतों की छातियों और कूल्हों को देखने से फ़ुरसत। इसका दोष सत्ता को देने से क्या सबब?

ये बात ही हास्यास्पद है कि सत्ता लोगों को औरतों के कूल्हे देखने के लिए मजबूर कर रही है। हिन्दी की तमाम छोटी-छोटी पत्रिकाओं में असहमति के आलेख छापे जाते हैं.. लेकिन लोग उन्हे न खरीद के ‘आज तक’ पर ‘सैफ़ ने करीना की चुम्मी क्यों ली’ देखना ही पसन्द करते हैं। क्या इसमें लोगों का कोई क़सूर नहीं? आगे लिखते हैं..

अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और
पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ

इन वाक्यों में ईमानदारी भी है और अनुभूति भी.. पर इस पर वे ज़्यादा देर टिकते नहीं, वे वापस अपनी हिन्दी कवियों की चिर-परिचित नाटकीयता के रथ पर सवार हो कर किसी दायोनीसियस को फटकारने लगते हैं..

सुनो दायोनीसियस , कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल,एक अपराजेय हत्यारे
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के ,

एक दायोनीसियस प्राचीन काल में यूनान का तानाशाह था। जो खा-खा कर इतना मोटा हो गया था कि बाद में उसे खाना खिलाने के लिए अप्राकृतिक तरीक़े इस्लेमाल किए गए.. आखिरकार वो अपने ही मोटापे में घुट कर मर गया। एक दूसरा दायोसीनियस अशोक के दरबार में यूनानी राजदूत था जिसने बहुत शक्ति और सम्पदा जुटा ली थी। तमाम और दायोनीसियस भी हैं.. ऐसी ही एक मिलते जुलते नाम का मिथकीय चरित्र दायनाइसस (बैकस) भी है जो मद, मदिरा और मस्ती का ग्रीक देवता है। उदय जी किस दायोनीसियस की बात कर रहे हैं? क्या इशारा है ये? किन बाहर से आए लोगों ने भाषा की दुर्गत कर दी है?

हिन्दी भाषा की दुर्गति और इस दायोनीसियस का क्या गूढ़ सम्बन्ध है यह मुझे समझ में नहीं आया। हो सकता है सामान्य समझ के परे होना ही दायोनीसियस जैसे नाम की विशेषता हो। आप को नहीं पता-उदय जी को पता है- वे आप से विद्वान हैं-सीधा निष्कर्ष निकलता है। तमाम विषेषणों से दायोसीनियस का चेहरा भली भाँति लाल कर चुकने के बाद उदय जी आशा के लाल सूरज पर ला कर कविता का अंत कर देते हैं।

लेकिन देखो
हर पाँचवे सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी

और
कहता है - ‘ माँ ! ‘

नया बच्चा पैदा हो रहा है.. और मातृभाषा में बोल रहा है.. उद्धार की उम्मीद बनी हुई है। ये कविता का वैसे ही अंत है जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में एक चेज़ के साथ फ़िल्म का क्लाईमेक्स होता था या तमाम प्रेम कथाओं का अंत हॉलीवुड की प्रेरणा से, आजकल एअरपोर्ट पर होने लगा है।

कविता, कहानी, तमाम कला और कलाकारों को तय करने का मेरा पैमाना उसकी सच्चाई ही रहा है.. बहुत साथियों को उदय जी की कविता सच का आईना लग सकती है मुझे वह अपनी तमाम भाषाई चमचमाहटों के बावजूद अतिश्योक्ति, और थके हुए-घिसे हुए शिल्प का एक प्रपंच लगती है।

एक पहले से तय ढांचा, पहले से तय मुहावरे, पहले से तय निशानों पर वार, पहले से तय बातों के प्रति उत्साह.. लगता नहीं कि कुछ नया लिखा जा रहा है.. नया रचा जा रहा है.. कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि कुछ भी नया पढ़ रहा हूँ। ऐसा लगता है कि बने-बनाए खांचों में फ़िट हुआ जा रहा है। विद्रोह का भी एक बना-बनाया स्पेस है हिन्दी और हिन्दी कविता में। जिसे ओढ़कर आप बड़े कवि बन सकते हैं और पुरुस्कार, सम्मान आदि पा सकते हैं।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

मैं हिन्दू क्यों नहीं: कांचा ऐलय्या

कांचा ऐलय्या की किताब 'मैं हिन्दू क्यों नहीं' का उप शीर्षक हिन्दुत्व दर्शन, संस्कृति और राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक शूद्रवादी विश्लेषण ज़रूर है मगर किताब अपने विश्लेषण पक्ष में कुछ दुर्बल रह जाती है और अपनी पहले से तय की हुई प्रस्थापनाओं को सिद्ध करने की आतुरता में अधकचरे निर्णय सुनाने लगती है।

किताब के आखिरी अध्याय में ऐलय्या दलित चिंतन की परम्परा में बुद्ध, फुले और आम्बेडकर के बाद अपना ज़िक्र भी करते हैं। एक महान परम्परा में उचित स्थान पाने की उनकी ये महत्वाकांक्षा सफल हो गई होती यदि उन्होने आम्बेडकर जैसी शोध के अनुशासन, और वैश्लैषिक पद्धति पर निर्भरता दिखाई होती। अफ़सोस है कि एक लम्बे समय तक आम्बेडकर जैसे विद्वानों को अपना सही स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे दलित थे और फिर अफ़सोस है आज कांचा ऐलय्या जैसे विद्वानों को उनकी प्रतिभा से अधिक महत्व दिया जा रहा है क्योंकि वे दलित हैं।

ऐलय्या हिन्दू देवताओं और मिथकों का विश्लेषण करते हुए एक बेहद सहूलियतपरस्त रवैया अख्तियार करते हैं। वे जब चाहते हैं उसे इतिहास बताते हैं और जब चाहते हैं ब्राह्मणों की गढ़ी हुई कहानी क़रार दे देते हैं। रावण एक महान दलित बहुजन राजा था और उसके ब्राह्मण होने की बातें बकवास हैं- ये कहते हुए वे जानते हैं कि कि रावण का होना और उसका ब्राह्मण होना एक ही प्रकार के स्रोतों से मालूम होता है फिर भी वे हंस की भाँति अपने मनमाफ़िक मोती चुनते रहते हैं।

ऐसा नहीं है कि किताब पूरी तरह से खोखली है और उसमें कोई आकर्षक निष्कर्ष नहीं हैं। अब जैसे ऐलय्या जी बताते हैं कि विद्या की देवी सरस्वती स्त्री होते हुए भी हिन्दुत्व में स्त्रियों के विद्यार्जन पर पाबन्दियाँ बनी रहीं। और धन की देवी लक्ष्मी होने के बावजूद स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्से का अधिकार नहीं मिलता रहा। हिन्दू धर्म की ऐसी अन्तर्निहित विसंगतियों के विपरीत वे अपनी दलित बहुजन संस्कृति की देवियों-पोचम्मा और कैटसम्मा के गुण और उदारता का वर्णन करते हैं जो अपने भक्तों पर किसी प्रकार का दबाव नहीं करतीं।

ऐलय्या बताते हैं कि बचपन से ही सिखाई जानी वाली जातीय भेदभाव के अलावा किस तरह बचपन से ही उनका जातीय प्रशिक्षण शुरु हो जाता है जिसमें वे पेड़-पौधों और जानवरों के साथ रिश्तो के बारे में तमाम बाते सीखते हैं जबकि स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और भाषा उनके जीवन के परिवेष से पूरी तरह विलगित बनी रहती हैं। यहाँ तक कि उनके लिए वेद-पुराण और ओथेलो एक बराबर से अजूबे होते हैं।

वे ये भी बताते हैं कि हिन्दू मानस किस तरह से एक तरफ़ तो अनेको कामुक देवताओं और काम कला की रचना करता है और दूसरी ओर अपने समाज पर तमाम वर्जनाओं की गाँठें भी मारे रखता है जबकि इन कामुक कल्पनाओं और वर्जनाओं दोनों से मुक्त दलित बहुजन समाज में यौनिक चेतना एक स्वतः स्फूर्त ढंग से विकसित हो जाती है।

एक लम्बे समय तक भारतीय राजनीति में में दलित बहुजन की भूमिका और रामराज्य में हनुमान की भूमिका का उनका समांतर बेहद सटीक है। मगर आने वाले दिनों में जिस दलितीकरण की प्रक्रिया की बात वो कर रहे हैं वो फ़िलहाल की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कैसे सम्भव होगा इस विस्तार में वे नहीं जाते, जबकि दलित बहुजन भी अपनी सामुदायिकता को छोड़-छाड़ निजी सम्पत्ति की होड़ में कूद पड़े हैं।

अपनी भावना और राजनीति में सही होते हुए भी मुझे लगता है कि ऐलय्या जी का विश्लेषण, ऐतिहासिक उत्पीड़न और आज भी चल रहे भेदभाव से उपजे अपने क्षोभ और आक्रोश के चलते बीच-बीच में विक्षेप का शिकार होता रहता है।

ऐलय्या किताब में जब-जब एक निजी नज़रिये से चीज़ों को विश्लेषित करते हैं तो उनकी बात तीर की तरह पैनी होती है और अचूक होती है। जैसे कि उन्हे स्कूल में कभी फुले और आम्बेडकर के बारे में नहीं पढ़ाया गया.. लेकिन ऐसी घटनाओं से वे अपने हड़बड़ाए निष्कर्ष निकालने में सरलीकरण और सामान्यीकरण के शिकार हो जाते हैं।

कांचा ऐलय्या की ये भी प्रस्थापना है कि ब्राह्मण जाति गैर उत्पादक और निष्क्रिय शक्ति है। मुझे यह एक झाड़ूमार बयान लगता है क्योंकि यदि वेद-पुराण, पठन-पाठन, अध्यात्म और दर्शन सब गैर-उत्पादक क्रियाएं हैं तो फिर वे आधुनिक विश्वविद्यालयों में कार्यरत उनके अपने जैसे प्राध्यापकों के काम और अपनी इस किताब की भी उपयोगिता को कैसे सही ठहरा पाएंगे?

वे भी तो न तो खेत में हल चला रहे हैं और न पत्थर ढो रहे हैं.. बन्द कमरे में बैठ कर अपने वर्ग/जाति के हितों के लिए तर्कों का एक तानबाना बुन रहे हैं। आम जनता द्वारा एकत्रित कर से अपना वेतन पाने वाले ऐलय्या जी ब्राह्मणों पर भी तो यही करने का तो आरोप लगा रहे हैं। मगर इस विरोधाभास को वो चिह्नित नहीं करते उलटे वे मानते हैं कि हज़ारों सालों से उत्पादन से दूर रहने के कारण ब्राह्मण-बनिया एक ठस, तर्कहीन, अविवेकी और हिंसक मानस में कै़द हो गया है।

ऐलय्या मानते हैं कि पिछड़ी जाति से आने वाले नवक्षत्रिय हाल में सत्ता में भागीदारी पा गए हैं मगर सत्ता मिलते ही वे भी ब्राह्मणवादी रंग में ढल गए हैं। दक्षिण की पिछड़ी जातियों के उभार और उत्तर में भी उसकी अनुगूँज को रेखांकित करते हुए ऐलय्या जी भूल जाते हैं कि बुद्ध कालीन नन्द वंश, मौर्य वंश, और आल्हा ऊदल जैसे अनेको मध्यकालीन योद्धा भी उच्च जातियों के न होते हुए भी सत्तावान थे और ब्राह्मण उनकी सेवा में थे।

शिवाजी के राज्याभिषेक करने से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने इनकार ज़रूर कर दिया था मगर काशी के ब्राह्मणों ने ये सम्मान हाथ से जाने नहीं दिया। बाद के वर्षों में पेशवा के सेनापतियों में भोंसले, होलकर और शिन्दे भी उच्च जातियों से नहीं थे। एक तरफ़ वो एक ब्राह्मण पेशवा के सेवक थे और दूसरी ओर तमाम ब्राह्मण उनके आश्रित थे। इतिहास में ब्राह्मणों और पिछड़ी जातियों,शूद्रों और दलितों का सम्बन्ध इतना सरल एकांगी नहीं रहा है जितना अक्सर विद्वजन पेश करते रहे हैं।

ऐलय्या इच्छा ज़ाहिर करते हैं कि दलित बहुजन, पिछड़ी, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों का मिलाजुला मंच तैयार हो मगर किताब लिखने के दस साल भीतर ही मायावती ने उनकी इच्छाओं को नज़रअंदाज़ कर के ब्राह्मणों के साथ साझीदारी कर ली है।

एक तरफ़ तो ऐलय्या नेहरू, गाँधी आदि तथाकथित बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ो द्वारा ढाला गया बताते हैं दूसरी तरफ़ आम्बेडकर और फुले के उभार को स्वीकार करना अंग्रेज़ो की मजबूरी बता कर फिर एक बार सुविधाजनक तर्क इस्तेमाल करते हैं। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद ने भी ब्राह्मणवाद की ही मदद की.. पर ऐसा करते हुए वे आम्बेडकर को मिले ज़बरदस्त ब्रिटिश सहयोग को झुठला देते हैं।

ऐलय्या बराबर परिवर्तन में भौतिक स्थितियों की भूमिका को नकारते हुए किसी वर्ग या जाति की सनक और दुराग्रहों को ही ज़िम्मेदार ठहराते जाते हैं। ऐलय्या कहते हैं कि तीन हज़ार साल में अकेले आम्बेडकर ऐसे थे जिन्होने महार घर में जन्म लेकर दलितबहुजन चेतना को जन्म दिया। ऐसा कहते हुए वे रैदास, दादू और कबीर को भूल जाते हैं क्या उनकी आध्यात्मिक चेतना भी सिर्फ़ ब्राह्मणवादी चेतना थी या समाज भौतिक रूप से उस परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुआ था जो फुले और आम्बेडकर अपने समय में अंजाम दे सके?

ऐलय्या जी की शिकायत है कि भारत में ब्राह्मणों ने दलितबहुजन के प्रति एक साज़िश के तहत चुप रखकर उन्ह बहिष्कृत किया गया है जबकि योरोप में परस्पर विरोधी संस्कृतियों को भी अपने इतिहास में जगह दी गई है। एक तो वैसे ही भारतीय स्रोतों को ऐतिहासिक स्रोत नहीं गिना जाता यदि ऐलय्या जी उन्हे यह दरजा दे रहे हैं तो पूछा जा सकता है कि पौराणिक आख्यानों में असुर कौन हैं, राक्षस कौन हैं, नाग कौन हैं, दैत्य कौन हैं.. क्या वे विरोधी संस्कृतियों की उपस्थिति नहीं हैं बावजूद इसके कि इस उपस्थिति में एक संस्कृति के गुण और दूसरी के दोष बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए हैं?

ऐलय्या जी अपने किताब में बार-बार बताते हैं कि हिन्दू धर्म संसार का सबसे उत्पीड़क धर्म है और इस्लाम और ईसाईयत आध्यात्मिक लोकतांत्रिक धर्म हैं। वे विभिन्न धर्मों के प्रति कैसी भी राय बनाने और रखने के लिए स्वतंत्र हैं मगर जातीय विभाजन के चारित्रिक दोष के आधार पर हिन्दू धर्म के बारे में यह निर्णय अतिरंजित है।

क्या हिन्दू धर्म इसलिए अलोकतांत्रिक है कि वे उसके भीतर रहते हुए आप किसी भी पूजा-पद्धति और आध्यात्मिक परम्परा को अपनाने और अपनी नई चलाने के लिए भी स्वतंत्र है? तथाकथित लोकतांत्रिक धर्म इस्लाम और ईसाईयत भी आप को यह विकल्प नहीं देते।

दूसरी तरफ़ हिन्दू धर्म छोड़ने पर भी गोवा में कथोलिक ब्राह्मण और मछुआरों के बीच का जातीय विभाजन कम नहीं हो जाता यहाँ तक कि उनके चर्च भी अलग-अलग होते हैं। अमरीका जैसी महान लोकतांत्रिक संस्कृति में भी काले और गोरे चर्चों का भेद आज भी बना हुआ है।

मोहम्मद साहब ने इस्लाम में सबकी बराबरी की बात ज़रूर की है मगर अरब में सिर्फ़ मुसलमान ही रहेंगे और खलीफ़ा सिर्फ़ क़ुरैश से ही होगा क्या यह आग्रह किसी जातीय र्रंगत से मुक्त है? भारत में अंसारी और सैय्यद क्या एक बराबर हैं? इस्लाम के भीतर स्थानीय संस्कृति के आयामों के लिए कितना स्थान है? क्या वो बहुत हद तक अरब संस्कृति में ही केन्दित नहीं है?

दोष-दर्शन करना हो तो इस्लाम और ईसाईयत में भी हज़ारों दोष गिनाए जा सकते हैं। ईसा की करूणा से द्रवित होने वाले यूरोपी लुटेरे लैटिन अमरीका की मूल अमेरी जनजाति का संहार पादरियों के आशीर्वाद के साथ करते थे क्योंकि उनके अनुसार जो ईसाई नहीं वे जीने योग्य नहीं थे। उत्तरी अमरीका में वहाँ आज की मूल रेड इंडियन की जनसंख्या क्या है? क्या वे सब ज़हर खा के मर गए या एक गहरी नफ़रत की नीति के तहत उनका क़त्ले आम किया गया?

ऐलय्या साहब मानते हैं (बिना किसी प्रमाण के) कि आर्य ब्राह्मण बाहर से आए और उन्होने यहाँ के मूल दलितबहुजन को अपदस्थ कर दिया। । यदि एक पल के इसी कहानी को ऐतिहासिक सच्चाई मान भी लिया जाय तो क्या वे प्राचीन आर्य ब्राह्मण आधुनिक आतताईयों से भी गए गुज़रे इसलिए हुए क्योंकि उन्होने बजाय दलित बहुजन का सफ़ाया करने के बजाय उनके साथ एक सामाजिक संयोजन बनाया और एक ही सामाजिक व्यवस्था में रहने का विधान बनाया?

कांचा ऐलय्या की यह किताब हिन्दुत्व दर्शन और संस्कृति की कोई विवेकपूर्ण जाँच नहीं करती बल्कि पूर्व नियोजित निष्कर्ष अपने पाठक पर थोपती है और बताती है कि हिन्दू धर्म का हर एक आयाम सिर्फ़ दलित बहुजन का उत्पीड़न करने के लिए ही है। बड़े दुःख की बात है कि अपनी इस अतिवादी सोच का विस्तार करते हुए वे अपनी चिन्तन शैली में उन्ही हिन्दुत्व वादियों के साथ जा कर खड़े हो जाते हैं वे जिनका इतना भीषण विरोध कर रहे हैं।

हिन्दुत्ववादी मानते हैं कि देश की हर समस्या का कारण मुसलमान और इस्लाम हैं और ऐलय्या घोषणा करते हैं कि सब मुसीबत ब्राह्मणों की खड़ी की हुई है। इस तरह के ब्लैक एंड व्हाईट नज़र से सच्चाई को पकड़ने की उम्मीद बेमानी है। और अन्ततः कांचा ऐलय्या साहब भी निराश ही करते हैं।

कांचा ऐलय्या साहब का सोचना है कि भारत में हिन्दूकरण का जवाब दलितीकरण होना होगा- मतलब ये कि हिन्दुओं को दलित संस्कृति और मूल्यों से सीखना होगा। मुझे उनके इस विचार से कोई दिक़्क़त नहीं.. मेरा स्वयं का भी मानना है कि हिन्दू (भारतीय) संस्कृति ऐसी सड़ाँध भरी अवस्था में पहुँचती जा रही है कि जिसमें उसे बहुत कुछ भूलने और बहुत कुछ फिर से सीखने की ज़रूरत है।

और अपने उन बन्धुओं से तो ज़रूर जिनके ऊपर हज़ारों साल तक उच्च जातियाँ अत्याचार करती रहीं। पर मेरा ऐतराज़ इस दलितीकरण शब्द है। ये ठीक है कि गाँधी जी के हरिजन के जवाब में तत्कालीन राजनीति के परिदृश्य में दलित शब्द उपयुक्त था जो ऐतिहासिक उत्पीड़न की स्मृति अपने कलेजे में छुपाए था। मगर आज जब समाज के दलितीकरण की बात होने लगी है तो अच्छा हो कि हम एक नया शब्द ईजाद करें जो एक सकारात्मक भाव जगाता हो।

मित्रगण मुझे माफ़ करेंगे कि मैं ऐलय्या जी की किताब के नकारात्मक पहलुओं की ही चर्चा कर रहा हूँ जबकि किताब पढ़ते हुए तमाम मौकों पर मैं अपने पुरखों पर शर्मसार भी होता रहा और अपनी संस्कृति के उन पहलुओं पर विक्षुब्ध भी होता रहा जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती रही। इस विषय में रुचि रखने वाले मित्रो से निवेदन है कि वे किताब हासिल कर के खुद पाठ करें.. और अपनी राय क़ायम करें। किताब कलकत्ता के साम्य प्रकाशन (१६ सदर्न एवेन्यू, कोलकाता) ने छापी है और मूल्य है मात्र १२० रुपये, हिन्दी अनुवाद किया है ओमप्रकाश वाल्मीकि ने।
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