रविवार, 27 फ़रवरी 2011

ईश्वर की राह



सासू माँ की तबियत कई दिनों से ख़राब है। रात में उनकी सांस उखड़ने लगती है। उनकी तीमारदारी करते हुए शांति को कभी एक, तो कभी दो-तीन भी बज गया। मगर अलसुबह पौने छै बजे दूधवाले की घंटी से शांति का दिन उगता रहा। वो जो नींद शांति की आँखों में आने से रह गई वो धीरे-धीरे उसकी त्वचा के नीचे जमा होने लगी। जब सरला दो दिन देर से आने के बाद तीसरे दिन आई ही नहीं तो घर में झाड़ू-पोंछा नहीं हुआ। और बरतन घिसते हुए शांति की त्वचा में चिंगारियों के छोटे-छोटे विस्फोट होने लगे। शायद किसी नए पाए प्रेम के नशे से अलसाई सरला जब चौथे रोज़ शांति के द्वार पर प्रगट हुई तो वो सारी नींद छोटे-छोटे विस्फोटों से अचानक एक महाविस्फोट में बदली और ग़ुस्सा बनकर सरला पर फट पड़ी। काजल पुती आँखों से निकले आँसू गालो से गले तक अपने गुनाहों के सुबूत छोड़ते हुए गए। उन्हे देख शांति का दिल तो पसीजा। लेकिन उसकी ख़बर विस्फोट की उस गर्मी में कहीं भटक गई, और शांति तक बाद में पहुँची।

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पटेल चौक की रेडलाईट पर शांति खड़ी है। सबसे आगे। उसके रुकने के तीन सेकेण्ड बाद एक बाईकर पीछे से आया और उसके आगे खड़ा हो गया और उसके दो सेकेण्ड बाद दूसरा। बीस सेकेण्ड में पांच बाईकर उसके आगे खड़े हो गए। और सड़क का वह हिस्सा जिस पर से आड़ी तरफ़ के ट्रैफ़िक को जाना था वो आधा घेर लिया गया। इस बदतमीज़ी को ट्रैफ़िक पुलिस वाला देखकर भी अनदेखा करता रहा। शांति के भीतर एक दूसरा विस्फोट सुगबुगाने लगा। उसने स्कूटर बंद करके स्टैंड पर किया और सबसे आगे वाले बाईकर के सामने पहुँचने तक विस्फोट को किसी तरह सम्हाला, फिर फट जाने दिया। शांति के हस्तक्षेप से बेवजह हार्न मारने वालों को हार्न पर से हाथ न हटाने की वजह मिल गई। बत्ती हरी हो जाने से बदतमीज़ बाईकर्स शांति के हाथ तमाचा खाने से तो बच गए लेकिन ऐसे किसी तमाचे के भय से परिचित ज़रूर हो गए। बीचबचाव करने आए ट्रैफ़िक पुलिसवाले को अपने आक्रोश का स्वाद चखा देने के बाद शांति जब दफ़्तर पहुँची तो बीस मिनट लेट थी। रोज़ लेट आने वाले खण्डेलवाल साहब ने घड़ी की तरफ़ इशारा किया तो तीसरा विस्फोट हुआ। उस विस्फोट के बाद पूरे दिन किसी को गुटके वे अवशेष दिखाई नहीं दिये जो खण्डेलवाल साहब के दांतो में सदा शोभायमान रहते हैं।
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दोपहर बाद जब सूरज ढलने लगा और विस्फोटो की आग ठण्डी पड़ गई तो शांति के मन की राख में से कुछ चेहरे झांकने लगे। पहला चेहरा सरला का था। उसके गालों पर पड़ी सलेटी रेखा में शांति को अब अपना गुनाह दिखने लगा। औफ़िस जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी में बाईकर्स के हेलमेट के पीछे उसे अजय का चेहरा नज़र आने लगा। खण्डेलवाल के रंगे हुए चियारे दांतो में उसे एक निर्मलता झलकने लगी। और अपने आक्रोश में एक शैतानी छाया नज़र आने लगी। और दूसरों पर मारी उसकी ख़राशें उसे ख़ुद को चुभने लगीं। अपना ख़ुद का बरताव उसके नेक पहलू को खोटा लगने लगा। बचपन से ही शांति इतनी बेहतर होने की कल्पना करती आई है जितना नेक होना ईश्वर हो जाना होता होगा। आज फिर उसने सोचा कि अगर उसकी जगह ईश्वर होता तो क्या वह भी ऐसे ही पेश आता जैसे वह पेश आई है? और उसका अफ़सोस गहरा गया। उसने सोचा कि अब वो कितनी भी मुश्किल हालात में क्यों न हो, ईश्वर की तरह व्यवहार करेगी।
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पटेल चौक के पहले मदर मेरी हस्पताल के सामने फिर से जाम लगा हुआ है। ट्रैफ़िक कछुए की रफ़्तार से रेंग रहा है। धूल, धुँए और शोर के मिले-जुले असर में शांति ने महसूस किया कि हेलमेट के अन्दर पसीने की कुछ बूँदें छलछलाने लगी हैं। और अभी फ़रवरी गया भी नहीं है। इसके पहले कि शांति इस चिंता को अपने ज़ेहन में और पकाती पीछे से एक बाईकर ने हौर्न बजाना शुरु किया। पहले दो बार, दो-दो सेकेण्ड का अन्तराल देकर। फिर बिना रुके लगातार। शांति के कान में झुनझुनी होने लगी। शांति ने हस्पताल के सामने लगे नो-हौर्न के बोर्ड को देखा और अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को व्यक्त करने के लिए हेलमेट उतारा। तभी उसे अपने संकल्प की याद आई और उसने सोचा कि इस मौक़े पर ईश्वर क्या करता। शांति ने पीछे मुड़कर बाईकर की अधीर चेष्टाओं पर निगाह डाली और जितनी उदारता से मुस्करा सकती थी, मुसकराई।
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अजय टीवी पर मैच देख रहा है- म्यूट। क्योंकि अचरज वहीं बैठकर अपने गणित के इम्तिहान की तैयारी कर रहा है। शांति ने पूरा खाना अकेले ही टेबिल पर लगाया। अजय ने कई बार उसकी तरफ़ देखा और एक बार भी मदद की बात नहीं चलाई। जितनी बार उनकी आँखें मिली, शांति ने ईश्वर को याद किया और ईश्वर की तरह मुस्कराई। गणित के अमूर्तन में डूबे अचरज ने इस दौरान गिन कर पाँच बार अपनी नाक में उंगली घुसाई और हर बार नाक से निकली अवांछित वस्तु को सोफ़े के ग़िलाफ़ पर उंगली से छुड़ाई। शांति ने उसे डाँट ही दिया होता मगर उसे ईश्वर की याद आई और वो फिर से मुसकराई।
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बिस्तर की शरण में आए शांति को पन्द्रह मिनट हो गए हैं। नींद से बोझिल आँखों में सपने आने ही लगे हैं जब रसोई की दिशा से एक खटका हुआ। सासू माँ? क्या फिर उन्ह अस्थमा का दौरा पड़ा है? इस आशंका और नींद के बीच संघर्ष को ईश्वर के हस्तक्षेप ने पूरी तरह से इकतरफ़ा बना दिया था। रज़ाई पैरों से फेंक शांति ने चप्पल भी ठीक से नहीं पहनी और रसोई की ओर दौड़ गई। पूरा घर अंधेरे में डूबा था और रसोई की लाईट भी बंद थी। मगर फ़्रिज के भीतर से निकलती रौशनी में सासू माँ का झुका हुआ शरीर पहचाना जा रहा था। शांति ने देखा कि सासू माँ ने फ़्रिज में से खीर का कटोरा निकाला और चम्मच से आचमन करने लगीं। इस दृश्य को देख शांति के दिल में कई तरह के भावों की ज्वालाएं प्रज्वलित हो उठीं। फिर ईश्वर का विचार आकर के उन ज्वालाओं के शमन की वक़ालत करने लगा। शांति ने मुस्कराने की कोशिश की। पर नहीं मुसकरा सकी। खीर, वो भी ठंडी, सासू माँ के लिए ज़हर है। इस आत्महत्या पर शांति का ईश्वर कैसे मुसकराये, इस की परिकल्पना उसके ज़ेहन के बाहर है। जब तक सासू माँ तीसरी चम्मच खीर को उदरस्थ करती शांति ने तय किया कि उसकी ईश्वर की कल्पना को परिष्कार की ज़रूरत है। उसी पल शांति ने अपने ईश्वर में दुर्गा की छवि को घुलते देखा। उसके बाद किसी तरह के संशय की गुंज़ाईश नहीं रही। सासू माँ छै साल की बच्ची की तरह डाँट खाती रहीं और पछताती रहीं।
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उस रात शांति को ऐसी मीठी नींद आई कि त्वचा के नीचे उसकी कोई खुरचन न जमने पाई।
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आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

कछुआ



बहुत दिनों की बदली के बाद दिन खुला है। गूलर के पत्तो पर चमकती धूप शांति का मन चमका रही है। अचरज ने ब्रश करते हुए बहुत सारा फेन और पानी इधर-उधर गिरा दिया है। पाखी ने अपने नाश्ते में से हमेशा की तरह ब्रैड के कठोर किनारे प्लेट में, और प्लेट टेबिल पर ही छोड़ दी है। ये चमकते मन की ही माया थी कि दोनों फटकार से बच गए। बच्चों को स्कूल भेजकर और अजय की पतलून में इस्त्री करने के बाद शांति ने बचे हुए पाँच मिनट बालकनी में चाय पीते हुए बिताए। मुंडेर पर रखे अपने फ़ेवरिट पीले कप से चाय सुड़कते हुए और अपने गीले बालों से पानी झटकते हुए उसने पाया कि ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है। इस निष्कर्ष के साथ उसे फ़ैज़ की नज़्में याद आईं और फिर ये याद आया कि साल भर से अंकिता की किताब उसके पास है। दिन की चमक वाक़ई गहरी है।
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घड़ी में एक बज के दस मिनट हो रहा है। दफ़्तर में लोग टिफ़िन से निकल रही परांठो की बासी बू में सांस लेकर सुखी हो रहे हैं। शांति दफ़्तर में नहीं है। अंकिता की गली में लाइन से कुसुम के चार पेड़ लगे हैं। नए पत्तो की आमद से पूरा पेड़ लाल हो रहा है। फ़रवरी की धूप में कुसुम की इस लालिमा को देखने में बहुत सुख पा रही है शांति। पेड़ की डाल पर गिलहरियां लपक-झपक कर रही हैं। उन्हे देखने में भी सुख है। दो मकान छोड़कर एक पंजाबी औरत ठेले वाले से अमरूद खरीद रही है। अमरूद की तेज़ गंध शांति को नहला रही है। शांति को उसमें भी सुख है। हलकी-हलकी हवा में कबूतरों के पंख सूखी पत्तियों के साथ सड़क की सतह से ऊपर उड़ रहे हैं। उन्हे देखना भी सुख है। शांति ने पाया कि उस पल में खड़े रहना, एक ठण्डी गहरी साँस लेना, गेट खोलकर सीढ़ी चढ़ना; सब सुख है। जीवित रहना ही सुख है। शांति उस सुख को पकड़ कर वहीं खड़ी रहना चाहती है मगर समय उसके साथ नहीं है। घड़ी की सुई सरक कर आगे चली गई है।
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अंकिता काम नहीं करती है। घर पर रहती है। शांति ने फ़ोन करके उसे आने की ख़बर दे दी थी। शांति को अपनी बाहों में भींच कर अपने दिल की तसल्ली की और फिर उसके हाथों से टिफ़िन छीन लिया। दोपहर में अकेले अपने लिए वो कुछ ख़ास नहीं बनाती। लेकिन आज शांति के लिए उसने निमोना बना लिया था। शांति मज़े से निमोना चावल का सुख ले रही है और अंकिता को किसी और के हाथ के परांठे स्वाद लग रहे हैं। शांति एक साल बाद अंकिता से मिल रही है। कहने-सुनने को बहुत कुछ है। नाटकीय कुछ भी नहीं घटा है फिर भी मन को क्या-क्या चुभता रहता है। अंकिता के पास अधिक कांटे निकले। शांति ने चाहा कि अपने सुख का स्वाद उसे भी चखाए पर अंकिता तक पहुँचने से पहले ही वो कहीं गिर गया। शांति ने देखा कि घर में बहुत कुछ बदला हुआ है। कहीं पर कोई क्रिस्टल रखा है। कहीं विन्ड चाइम, तो कहीं चाइनीज़ ड्रैगन। अंकिता ने बताया कि ये सब दुख भगाने के उपाय हैं। फिर शांति ने मुड़कर देखा। खिड़की के पास एक कोने में एक छोटे फ़िश टैंक में एक कछुआ भी है।
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फ़िश टैंक की लम्बाई होगी डेढ़ फ़ुट और चौड़ाई एक फ़ुट से कम ही होगी। पानी से आधे भरे टैंक में कछुआ दस इंच लम्बा और पांच-छै इंच चौड़ा है। अंकिता ने बताया कि जब वो कछुआ लाई थी तो वह काफ़ी छोटा था और तब टैंक उसके लिए ठीक बैठता था। कछुआ अपनी क़ैद में इस क़दर बेचैन है कि वह लगातार इधर से उधर मचल रहा है। वह एक किनारे से शुरु करता दो-चार इंच आगे बढ़ता और उसकी हद आ जाती। वो पलटी मारता, लेकिन ठीक से पलटी भी नहीं मार पाता। किसी तरह मुँह घुमा कर दूसरी तरफ़ करता, आगे बढ़ता और दो-चार इंच में फिर उसकी हद आ जाती। फिर किसी तरह पलटता और फिर वही क्रम। अपनी ही मल-मूत्र से भरे उस पात्र में इसी क्रिया को कछुआ बार-बार, बार-बार दोहरा रहा है। उसे देख शांति का कलेजा फटने लगा। उसने कहा कि कछुआ मर जाएगा, अगर उसे रहने के बड़ा टैंक नहीं मिलेगा। अंकिता का कहना है कि कमरे के उस कोने में ही टैंक रखा जा सकता है। और उस कोने में बस उतने ही बड़े टैंक को रखने की जगह है।

‘तो आज़ाद कर दो उसे.. देखती नहीं कैसे घुट रहा है वो?”
‘वो मैं नहीं कर सकती”
‘क्यों?’
‘जब से ये कछुआ आया है.. मनोज का काम बहुत अच्छा चल रहा है..’
‘तू विश्वास करती है इन सब बातों पर..’
‘मैं तो कम करती हूँ.. मनोज ज़्यादा करते हैं। वो तो उसकी जगह तक नहीं बदलने देते..’

शांति ने उस मानवता का वास्ता दिया। मगर अंकिता ने कछुए को आज़ाद करने से साफ़ मना कर दिया। शांति ने अपने क्रोध को ज़ब्त किया, फ़ैज़ की किताब उसके हाथ में थमाई और लौट आई।
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दिन जितना चमकदार और सुखी था, रात उतनी सलोनी नहीं थी। शांति ने देखा कि वह एक कमरे में बंद है जिसकी दीवारें पास आती जा रही हैं इतनी कि वह हिल-डुल तक नहीं सकती। उस छोटे होते कमरे में एक घड़ी है जिसकी सुईयां एक ही जगह अटकी हुई हैं। और दरवाज़े के ठीक सामने एक फ़िश टैंक रखा है जिसमें एक कछुआ है। जो लगातार बड़ा होता जा रहा है। शांति यह देखकर डर गई कि कछुए का मुँह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शक्ल का है। फ़ैज़ साहब ने टैंक के अन्दर ही से ग़ुस्से में कह रहे हैं, ‘हमारा कुल्लियात तुमने अंकिता को लौटाया क्यों.. उस टैंक में हमारे सारे सुखन सड़ जाएंगे..’
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अजय ने जब किचेन से लाकर पानी का गिलास थमाया तब तक शांति के माथे से पसीना की बूंदे सूखी नहीं थी।
‘तुमने ऐसा क्या देख लिया सपने में?’ अजय ने पूछा।
‘नरक देखा मैंने..’
कुछ देर तक अपनी सांसो पर काबू पाने के बाद शांति ने अजय से पूछा, ‘कछुआ रखना तो क़ानूनन अपराध है ना?
‘है तो!’
‘मेरी एक सहेली ये अपराध कर रही है.. पता करो, इस अपराध की रपट कहाँ करनी होगी?’
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(आज के भास्कर में छपी है)

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

एक दिन मौल


उन्होने फ़ैसला किया था कि कुछ नहीं ख़रीदेंगे। पर्स में पैसे भी नहीं रखे थे उन्होने। पुरानी सहेलियां थी, कट्टी-मिट्ठी-कट्टी का एक धड़कता सा रिश्ता है दोनों के बीच। कौलेज के भारहीन दिनों की खाल में फिर से उतर लेने की उमंग में भर कर, शांति और शबनम चल पड़ी शहर की सड़कों पर। जिन पर एक कड़वाहट पलती है। जो आते-जाते किसी को भी कमज़ोर देख झट से डस लेती है। शैन और शब्बो की लहकती हुई आत्मा के चहकते संचारी भाव को दूर से ही सूंघ कड़वी नागिन कोलतार में घुलकर छिप गई। घर को लौटते मोबाईल फोन कान से सटाये हर किसी की उड़ती नज़र ने उन्हे देखा। और जिस-जिसने देखकर उनकी उमंग के घेरे को छुआ, और मुस्कराया तो सड़कों पर पनप रही  कड़वाहट के दंश से उस दिन के लिए ख़ुद को आज़ाद हुआ पाया।

शांति ने जब मौल के ऊँचे प्रवेश द्वार की देहलीज़ पर सुरक्षा जांच की चौकी पर खड़े होकर अपनी बाँहे पसारी तो उसे त्वरित बोध हुआ कि शहर की तंग और बंद दुनिया का फ़लक कभी तो नज़र भी नहीं आता है और कभी सर चढ़ा आता है। और उस से एकदम विपरीत, मौल का फ़लक ऊँचा और खुला लगता है। सितारे जो बाहर के फ़लक से धुंधला कर छिप गए थे, मौल के नज़्ज़ारे में वो सब चमचमा रहे थे। शांति ने गरदन घुमा कर देखा और पाया कि चहकते-लहकते संचारी भाव को छलकाती हुई वही दो अनोखी नहीं है। मौल की ठण्डी हवा में तैरते अधिकतर चेहरे ख़ुशनुमा और ख़ुशगवार है। एक अलग ही दुनिया वहाँ आबाद है। चौकीदार से लेकर सफ़ाई कर्मचारी तक सबके चेहरे पर ज़िन्दगी की नेमत होने का सुबूत एक शाश्वत मुसकान के रूप में चस्पां है। गुडीवनिंग, वेलकम और थैंक्यू की शिष्टताओं से इन्सानी गुफ़्तगू का आग़ाज़ और अंजाम तय कर दिया गया है। एस्केलटर पर पाँव रखकर हर आदमी की प्रगति का ग्राफ़ सचमुच ऊपर की ओर जाता दिख रहा है। सब कुछ एक हसीन समाज की हसीन शाम का एक हसीन हिस्सा है। और अगर नहीं था तो इस कोशिश में लगा हुआ था कि उस हुस्न का जादू बिखरने-टूटने न पाए। शब्बो ने शैन का हाथ पकड़ लिया। पाया जो उसने कि उसकी उमंग की ख़ुशबू से अधिक प्रभावी मौल के माहौल में तैर रही ख़ुशबूएं थी। लिहाज़ा असर ये रहा कि जहाँ सड़क पर जनता उनकी ख़ुशबू के असर में थी, वहाँ मौल के अन्दर ये दोनों मौल की ख़ुशबू के असर में आ गई बहुत जल्दी।  

हर दुकान लालसाओं का एक पसारा है। जिसका फ़लक दुकान की भीतर किसी गहराई से उगता है और सामने से होकर गुज़रने वाली हाड़-माँस के हर पुतले के कलेजे में कई खालीपन छेदता हुआ चला जाता है। ठोस भौतिक अभाव के ऐसे छेद जिन्हे सिर्फ़ दुकान के माल को हासिल कर के ही पूरा और पाटा जा सकता है। शांति शर्मा और शबनम आलम, शैन और शब्बो के चोले में आकर दुनिया की रफ़्तार को अपनी गिरफ़्त में सिमटता हुआ पाती हैं। मगर जैसे-जैसे वे दुकानों के डिस्प्ले विन्डोज़ के आगे से गुज़रती जाती वैसे-वैसे वही दुनिया उन्हे अपने पैरों के नीचे से फ़िसलती समझ आती। और ये बोध भी आता कि उस रफ़्तार मे पिछड़ने से बचने, और उसे पकड़ने के औज़ार वही थे जो सामने चौंधियाती रौशनी में चमक रहे थे।

रफ़्ता-रफ़्ता पूरा माल उनकी आत्मा की झील में इस क़दर आच्छादित हो गया कि उनकी सहज उमंग उन गड्ढो में कहीं बिला गई जो मौल की छाया में पनप रहे थे। लालसाओं की लिस्ट में तमाम चीज़ें अपने आप जुड़ती जा रही थीं। पतली चमकीली पट्टी वाली आसमानी सैण्डल थी, चौड़े पायचों का धानी शलवार था, बुल्गारी का पर्फ़्यूम था, बैगिट का भूराअ बैग था, अकल्पनीय शेड्स की लिपस्टिक्स थीं। तमाम सारे मशहूर ब्राण्ड थे जो अविश्वसनीय कटौतियों के साथ ग्राहकों पर लुटाये जा रहे थे। रंगो, ख़ुशबुओं, धागों, धातुओं, आकृतियों और रौशनियों की विविध अभिव्यक्तियों के सम्मिलन में से अजब मादक और मोहक रसायन तैयार हो रहा था। इतना प्रबल कि जो शैन और शब्बो की जेब से उन पैसों का भी उच्चाटन कर लेना चाह रहा था जो वो जेब में ले के आए ही नहीं थे और जो बैंक की किताबों में दर्ज़ होने भी अभी बाक़ी थे

जो उमंग कड़वाहट के दंश को परास्त कर के उन्हे मौल ले के आई थी, वही लालसा के आगे नाकाम थी।  शब्बो ने शैन की ओर रहम की भीख माँगती निगाहों से ताका। 
और रिरियाया- 'कितने महीनों से खोज रही थे ये शेड.. फिर पता नहीं मिलेगी भी या नहीं..?'
पर शैन ने उसकी अरज़ी को पैर भी रखने की जगह नहीं दी, गिरते ही उड़ा दिया।
'हम क्या तय करके आए थे?.. कि कुछ भी नहीं ख़रीदेंगे।
हाँ..
तो फिर..
मगर..
कुछ मगर-वगर नहीं..चल पीपल के पेड़ के नीचे जैसवाल के गोलगप्पे खाते हैं और घर चलते हैं.. चल!

दोनों की कामना को गोलगप्पों का पानी में डुबकी दिलाने के खयाल के सहारे शैन अपनी पक्की सहेली का हाथ थामे-थामे मौल की रंगीनियों से बाहर निकल आईं। लेकिन इतनी पुरानी और गहरी दोस्ती है दोनों में कि सहज ही भाँप लेती है एक दूसरे का दिल। अपूर्णता के भाव ने शब्बो की आत्मा को कुछ इस तरह दबाया कि पार्किंग तक के सफ़र में एक बार भी शब्बो से चेहरा उठाते न बना। शांति शर्मा बहुत कड़क औरत है मगर इतनी भी नहीं कि अपनी बैस्ट फ़्रैण्ड की ख़ुशी के लिए अपने संकल्पों में ढील न कर सके।


अब इस तरह से मुँह बना कर रहने से तो अच्छा है कि तू कर ही ले अपने मन की..'
'नहीं रहने दे..
अब चल भी..
नहीं बरबादी है पैसों की..
‘सो तो है.. पर तू चलेगी तो कुछ पैसे मैं भी बरबाद कर लूंगी..

ये सुनते ही शब्बो के चेहरे पर एक चमक आ गई। कामनाओं के गढ़े भरने के पाप में एक साथी जो मिल गई रही थी उसे। कड़े अनुशासन के बाद मिली इस ढील में वैसा ही सुख था जो बड़ी लम्बी देर तक जूते बाँधे रखने के बाद, पैरों को उनसे आज़ाद कर देने में होता है। जब वो दुबारा स्कूटी के पास लौटे तो उनके बैंक एकाउण्ट थोड़ा हलक़ा हो गया था और दोनों हाथों में वज़न काफ़ी भारी हो गया था।

रात को सोते समय जब शांति शर्मा ने अपनी आँखें बन्द कर पूरे दिन को ख़ुशियों की तुलना की तो अपने आप को असमंजस में पाया। वो तय नहीं कर पा रही थी कि असली ख़ुशी का लमहा कौन सा था? जब दो सहेलियाँ अपने यौवन के उमंग पर सवार मौल के रास्ते में थीं? या जब वो मौल के माल को अपनी आत्मा में छेद करने का मौक़ा दे रही थीं? या जब उन्होने कुछ न खरीदने के अपने संकल्प में ढील देकर चीज़ें खरीदने का फ़ैसला किया? या फिर जब चीज़े हासिल कर के अपनी अलमारी में रख लीं? असली सुख कौन सा था? फिर नींद की नदी में डूबते हुए उसे याद आया कि पीपल के पेड़ के नीचे जैसवाल के गोलगप्पे खाना तो रह ही गया। और सब कुछ भूल कर वह सारी रात उस धमाके के सुख के सपने देखती रही जो उन गोलगप्पों को मुँह में रखकर फोड़ने से होता है।   

***

(पिछले इतवार भास्कर में छपी) 

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मिस्र की ‘आज़ादी’



मिस्र ‘आज़ाद’ हो गया। यह एक ऐतिहासिक लम्हा है। अरब देशों के इतिहास में यह पहला मौक़ा है जब जनता के दबाव में शासक को झुकना पड़ा हो। बहुत सारे लोग इस क्षण में क्रांति की अनन्त सम्भावनाएं देख सकते हैं। पर मेरा नज़रिया हमेशा की तरह थोड़ा संशयपूर्ण है। ये कोई समाजवादी क्रांति नहीं है। ये सर्वहारा का जयघोष भी नहीं है। ये व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की लड़ाई भी नहीं है। इस आन्दोलन में पहले से बने-बनाए समीकरण आरोपित करने के बजाए इसको इसकी सीमाओं में पहचानने की ज़रूरत है। ये कैसी आज़ादी है? किस से आज़ादी है? होस्नी मुबारक ने गद्दी छोड़ दी है लेकिन सत्ता अभी भी सेना के हाथ में है। अब ये सेना की सदाशयता होगी कि वह मिस्र में निष्पक्ष चुनाव कराये और जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने का अवसर दे। ये मान लीजिये कि चुनाव करवा भी दिये तो उसके बाद क्या सेना अपनी अपरिमित ताक़त को अपने हाथों से दूसरे हाथों में सौंप देगी?

ये भी याद रखने की ज़रूरत है कि मिस्र की सेना पूरी तरह से अमरीका की साझीदार है। मुबारक को सत्ता से बाहर कर के ‘जनता की आंकाक्षाओं’ के एहतराम करने का जो सराहनीय काम सेना ने किया है वह भी अमरीकी सलाह या दबाव पर किया गया है। तो उस सेना से अमरीकी हितों के विरुद्ध कोई क्रांतिकारी सूरत उभरने में सहयोग की उम्मीद रखना भूल होगी। फिर भी यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता के अरमानों और सेना की विधानों का अन्तरविरोध मिस्र में किस शकल में विकसित होता है। और यह भी कि इस पूरी परिघटना का असर बाक़ी अरब देशों में क्या होता है?

मिस्र और दूसरे अरब देशों की जनता का एक बड़ा तबक़ा इख़्वानुल मुस्लमीन में आस्था रखता है और देश में शरिया लागू करने का पक्षधर है। इस सन्दर्भ में यह बात भी उल्लेखनीय है कि अरब देशों के शासकों की अलोकप्रियता का एक कारण उनकी तानाशाही तो है ही मगर अधिक बड़ी वजह उनकी अमरीकापरस्ती है। जनान्दोलन की इस लहर से मिस्र में आम आदमी के जीवन में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा, मुझे नहीं लगता मगर इस लहर से पश्चिम एशिया के मौजूदा राजनैतिक समीकरण बुनियादी तौर पर बदलने वाले हैं, ये तय है। उम्मीद ये की जाय कि एक बेहतर सूरत पेश आएगी क्योंकि अभी जो गतिरोध है वह सिर्फ़ असंतोष और हिंसा को ही पोसता रहा है।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

एक बसन्त यह भी












ख़्वाजा मुईनुद्दीन के घर, आज धाती है बसन्त
क्या बन-बना और सज-सजा, मुजरे को आती है बसन्त

फूलों के गुड़वे हाथ ले, गाना बजाना साथ ले
जोबन की मिदह१ में मस्त हो-हो, राग गाती है बसन्त

छतियां उमंग से भर रहीं, नैना से नैना लड़ रहे
किस तर्ज़े माशूक़ाना, जल्वा दिखाती है बसन्त

ले संग सखियां गुल बदन, रंगे बसन्ती का बरन
क्या ही ख़ुश और ऐश का सामान लाती है बसन्त

नाज़ो अदा से झूमना ख़्वाजा की चौखट चूमना
देखो ‘नियाज़’ इस रंग में कैसी सुहाती है बसन्त

शाह नियाज़ अहमद बरेलवी


१. स्तुति

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

ये साली..



ओय लकी ओय और देव डी से दिल्ली का जो पुनरन्वेषण हुआ है सुधीर मिश्रा की फ़िल्म भी उसी आधार पर बहुत कस कर अपने आप को टिकाए हुए है। स्थानीयता में धंसे हुए लोकेशन्स, चरित्र और संवाद ही फ़िल्म का बलवान पहलू है। इरफ़ान, सौरभ शुक्ला, यशपाल, सुशान्त, अरुणोदय, प्रशान्त, विपिन सब ने अपना किरदार बख़ूबी निभाया है। चित्रांगदा के बारे में क्या कहा जाय? इतने सारे प्रतिभावान अभिनेताओं के बीच उन्होने इतना तो सीख लिया होता कि अगर सीन में गिटार बजाना हो तो कम से कम कुछ कौर्ड्स की ग्रिप ही सीख लें!


सुधीर मिश्रा ने प्रेम की मजबूरियों को दिखाने के लिए की है सारी मशक्कत। सीन छोटे-छोटे और तीखे हैं। संवाद चुलबुले हैं। सीधे आख्यान को तोड़कर वे काल में आगे-पीछे भी सैर कराते हैं दर्शक को। भरपूर कोशिश की है उन्होने कि एक रफ़्तार बनी रहे फ़िल्म में। एक हद तक बनी भी रहती है। लेकिन एक घण्टे के बाद मुझे बेचैनी होने लगी। कहानी में कोई ग्राफ़ ही नहीं है। सब कुछ एक ही ऊँचाई पर बना रहता है शुरु से लेकर आख़िर तक। अंत तो इतना अधिक खिंचा हुआ और बोझिल है कि कई लोग उठ कर चले गए। शायद एक दर्जन क्लाइमेक्सेज़ और आधा दरजन एपीलौग्स हैं। और उसके बाद फ़िल्म आईरौनिक टेल से सुखान्त हो जाती है। आम तौर फ़िल्मी अश्लीलताओं को लेकर मैं काफ़ी सहिष्णु हूँ, पर इस फ़िल्म का आख़िरी दृश्य मेरे लिए असह हो गया।

पूरी फ़िल्म में कोई दृश्य, कोई चरित्र, कोई बात ऐसी नहीं जो मेरे दिल में गहरे उतर सकी। प्रेम की तथाकथित मजबूरियों की कहानी में एक बार भी प्रेम की भावना पर्दे से उतरकर मेरे दिल की दिशा में नहीं आई। चित्रांगदा तो काठ हैं मगर इरफ़ान तो क़ाबिल एक्टर हैं। मगर नहीं, कोई एहसास, कोई सुरसुरी, कोई भावना, कोई जज़्बात, दुनिया की किसी भी भाषा में अनूदित होकर कोई फ़ीलिंग.. नहीं, कुछ नहीं। अगर थोड़ी बहुत कोमलता नज़र आती है तो अरुणोदय और अदिति (शायद यही नाम है) की प्रेमप्रकरण में। बस! अफ़सोस है, सुधीर मिश्रा के पके हुए बालों को देखकर मैं उनसे उतनी ही पकी हुई फ़िल्म की उम्मीद कर रहा था! मेरे अफ़सोस पर एक मित्र का कहना है कि अफ़सोस काहे का.. पकाया न उन्होने! :)


शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

शब्दों के रहस्यों का पर्दाफ़ाश



लगभग चार सालों से ब्लाग जगत के बाशिन्दे अजित वडनेरकर की रहबरी में शब्दों का सफ़र कर रहे हैं। हर्ष की बात है राजकमल प्रकाशन ने इस सफ़र को एक ग्रंथ के रूप में स्थायी मक़ाम की शकल दे दी है जिसे 'शब्दों का सफ़र' का 'पहला पड़ाव' कहा गया है। हालाकि मेरी जानकारी में इस का श्रेय पाने के लिए दूसरे प्रकाशन भी लालायित थे। वैसे तो ये सफ़र हम ब्लागरों के लिए आभासी जगत में सर्वदा उपलब्ध है। कभी भी अजित भाई के ब्लाग पर जाकर किसी भी शब्द की कुण्डली बांची जा सकती है, लेकिन लगभग साढ़े चार सौ पन्नो के रूप के पहले पड़ाव को अपने हाथों में लेने पर अजित भाई के काम के गुरुत्व का जो एहसास होता है वह ब्लाग पर घूमते-टहलते नहीं हो पाता। अजित भाई का यह ठोस काम काल के झोंको में उड़ जाने वाला नहीं, रह जाने वाला है।

एक शब्द को दूसरे शब्द से जोड़ने की जो अजित भाई की चिर-परिचित सरल-तरल शैली है, वहीं शैली यहाँ भी मौजूद है। अजित वडनेरकर का अन्दाज़ इतना सरस है कि पाठक एक शब्द से दूसरे शब्द में विस्मय व आनन्द से रससिक्त होकर फ़िसलता चलता है। और शब्दों की विवेचना के अलावा उन शब्दों से जुड़े हुए दूसरे सामाजिक-ऐतिहासिक तथ्यों से रूबरू होता चलता है। इस लिहाज़ से इस किताब में एक बैस्टसैलर जैसा वो गुण है जो किताब को बेहद पठनीय बनाये रखता है और पाठक से पन्ने पलटवाता रहता है।

असल में ब्लाग के लिए लिखी गई तमाम कड़ियों को ही अजित भाई ने एक संयोजन दे दिया है। पूरी किताब को पद-उपाधि, आश्रय-स्थान, खानपान-रहनसहन, धर्म-दर्शन, जैसे दस अध्यायों में बाँटा गया है। ये अध्याय लगभग तीन -साढ़े तीन सौ उपशीर्षकों में विभाजित हैं जिन में मेरे आकलन के अनुसार संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, और तुर्की से हिन्दी में आए दो हज़ार से भी अधिक शब्दों की विवेचना की गई है। दो हज़ार एक बड़ी संख्या है, बहुत बड़ी.. जबकि तमाम लोगों की कुल शब्द-संख्या ही चार-पाँच हज़ार होती है। और अभी तो इसके और कड़ियाँ आनी हैं.. शायद तीन और.. तो अगर गणित की जाय तो इस खण्ड और आगामी तीन खण्ड को मिलाकर चारों खण्डों की शब्द संख्या आठ से दस हज़ार की बीच बैठेगी। वाह!

मुझे शिकायत है तो सिर्फ़ उस बात से जिस के लिए अजित भाई किताब के आमुख में ही क्षमा माँग लेते हैं – ‘मेरे इस समूचे प्रयास को भाषाविज्ञान और व्युत्पत्तिशास्त्र के नियमों में बाँधकर न देखा जाय।.यह मूलतः शब्दविलास है। विभिन्न भाषाओं से हिन्दी में आए शब्दों के अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल और उनकी विवेचना करना ही मेरा लक्ष्य था न कि शब्दों की भाषावैज्ञानिक पड़ताल। न तो वह मेरा उद्देश्य था और न हीं मुझमें इसकी योग्यता है ।"

मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। अगर अजित वडनेरकर में योग्यता नहीं है तो किसी में नहीं है। और अगर किसी कारण से भी वे अपने को अयोग्य मानते भी हों तो भी उनको सामाजिक दायित्व समझकर इस काम को अपने हाथ में लेना चाहिये। दो-चार भूलें हो भी गईं तो क्या? आने वाली पीढ़ियाँ उसे सुधारेंगी। अभी महत्वपूर्ण बात ये है कि इस काम का एक आधार तैयार हो जाय। किस काम का? एक वैज्ञानिक अकादमिक हिन्दी व्युत्पत्ति कोष बनाने का। जो स्वप्न आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने देखा था और जिसे वे कभी पूरा न कर सके। अजित वडनेरकर उस मक़ाम के किनारे पर खड़े होकर ये घोषणा कर रहे हैं कि वे उस शिखर को नहीं छू सकते.. मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

हो सकता है उन्हे अपने पूरे काम को पुनर्संयोजित करना पड़े.. बनी-बनाई संरचना को छिन्न-भिन्न करके नए सिरे एक-एक शब्द को क्रमवार जमाना पड़े। मगर उन्हे इतना ही करना है। जो बड़ा काम था - शब्दों की व्युत्पत्ति करना- वो वे पहले ही कर चुके हैं। अब उन्हे सिर्फ़ शब्दकोष की शकल में क्रमवार सजाना है.. वे क्यों नहीं कर सकते हैं? ज़रूर कर सकते हैं! 

ये तो थी मेरी अपनी शिकवा-शिकायत। फ़िलहाल ‘शब्दों का सफ़र’ बेहद पठनीय और संग्रहणीय किताब है, इस को ख़रीदकर आप कभी पछतायेंगे नहीं। कोई भी पन्ना खोलकर पढ़िये एक रहस्य आप के सामने उद्‌घाटित होने की प्रतीक्षा कर रहा है।


नाम: शब्दों का सफ़र (पहला पड़ाव)
लेखक: अजित वडनेरकर
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
वर्ष: २०११
पृष्ठ: ४६०
मूल्य: ६००रू





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