मंगलवार, 31 मई 2011

पहले कैमरा नहीं था

पहले कैमरा नहीं था। निरन्तरता की नदी से फांक काट लेने का एकमात्र औज़ार स्मृति ही था। स्मृति का निवास आत्मा की खोह में था। शरीर मर जाता पर आत्मा न मरती। आत्मा के साथ-साथ स्मृतियां भी जन्म के चक्र में घूमती रहतीं। सम्बन्धों की स्मृति से कर्मों की स्मृति अधिक प्रगाढ़ कही गई है।

आत्मा के शुद्धि और संवर्द्धन के लिए लोग तरह-तरह से तप करते, व्रत, उपवास और प्रायश्चित करते। सम्बन्ध और कर्म दोनों ही आत्मा के प्रदूषक समझे जाते। शुद्धता सबसे बड़ा मूल्य और सबसे ऊँचा लक्ष्य बन गया। हर व्यक्ति अपनी आत्मा को बचाकर चलता- किसी से मैल न लग जाय, कोई छींट न पड़ जाय।

तांत्रिक और जादूगर जिसे वश में करना चाहते उसके शरीर के किसी भी भाग को हस्तगत करके उसे प्रदूषित कर देते। बालों के कुछ रेशे भी काफ़ी होते। तस्वीर या पुतले के सहारे भी वे अपने उद्देश्य को सिद्ध कर लेते। नाम और जन्मांक के सहारे भी कुचक्र कर लेते। प्रतीक में सकारात्मक या नकारात्मक, कैसी भी ऊर्जा आविष्ट हो सकती है, ऐसा माना जाता रहा।

समाज में सदा इन तांत्रिको का भय व आतंक व्याप्त रहता। किसी अनजान को लोग अपना नाम भी न बताते। जन्मांक और जन्मचक्र तो बहुत विश्वास के बाद ही देते। किसी भी सूचना, किसी भी बात से वैरी व्यक्ति को नियंत्रित कर सकता था, हानि कर सकता था, विनाश कर सकता था।

फिर जब कैमरा आया तो एक नया आतंक छा गया। लोगों ने माना कि कैमरा व्यक्ति की आत्मा को खींचकर डब्बे में बंद कर लेता है। कोई भी फोटो नहीं खिंचवाना चाहता। सब कैमरा देखते ही भाग खड़े होते। लोगों को समझाने में पीढ़ियां लगीं। अब लोग सरलता से चित्र और दूसरी सूचनाएं देते हैं। ये जानते हुए भी कि चित्र और सूचनाओं का उपयोग अभी भी नियंत्रण के लिए हो रहा है।

हर आदमी के पास आज एक या एक से भी अधिक कैमरा है। शुद्धि, संयम, व्रत और प्रायश्चित लोगों ने भुला दिया। कुछ लोग कभी-कभी दबे स्वर में आत्मा की बात भी करते हैं। पर बड़े-बड़े कैमरे वाले जब स्वयं कैमरे के सामने आते हैं तो अपने अस्तित्व को लेकर घबरा जाते हैं, मैंने देखा है।

***

रविवार, 29 मई 2011

वादा


शांति की जब आँख खुली तो उसकी आँखों के आगे उसका जाना-पहचाना कमरा ही था। मगर उसके हृदय में एक अनजाना आतंक सा व्यापा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि उसकी मृत्यु होने वाली है और जीवन का सारा ठोसपन उसके हाथों से पिघल कर फ़िसलता जा रहा है। उसे मालूम था यह वास्तविक न था, यह सब उठने के ठीक पहले देखा हुआ सपना था। सपने में एक दृश्य भी था और ध्वनि भी। लेकिन उठने के बाद शांति के भीतर सिर्फ़ एक एहसास शेष था- आने वाली मृत्यु के भय का एहसास। फिर भी सपने का वो आकारहीन एहसास जीते-जागते जगत के साकार और ठोस अनुभव पर भारी था।

मृत्यु के एहसास को मन से गिरा देने के लिए शांति अपनी देह को रोज़ाना की गतिविधि में डुलाने लगी। मगर वो एहसास नल की टोंटी से भी गिरता रहा। चाय के भगोने में भी उबलता रहा। गूलर के पेड़ पर बैठे काले कौवे में भी काँव-काँव करता रहा। पौधों को पानी देने जब बालकनी में गई तो सूरज उगने ही लगा था। ऊँची इमारतों की आड़ से लाल सूरज की आभा ने आते ही उस एहसास का बल हर लिया। और वो मन के किसी कोने में दुबक गया। शांति ने सूरज भगवान को नमस्कार किया और जीवन के उस शाश्वत स्वरूप को अपने हृदय में सुबह की ताज़ा हवा की तरह गहरे तक पी लिया।

सूरज के साथ आए उजाले में उसे दिन का पूरा आकार दिखने लगा। और तभी उसे अपने डर का का उद्‌गम समझ आया। घर और दफ़्तर के कामों के बीच आज उसे लैब से अपनी मेडिकल रिपोर्ट भी उठानी थी। कुछ रोज़ से उसे जो चक्कर आते रहे हैं उनके राज पर से आज पर्दा उठ जाना है। ये याद आते ही उसके भीतर कोने में दुबका हुआ डर फिर से विस्तार पाने लगा। सुबह के सपने के आतंक का फिर से सामना करने की हिम्मत नहीं हुई तो उसे भटकाने के लिए शांति ज़ोर-ज़ोर से किसी गाने को गुनगुनाने लगी। फिर भी असर न हुआ तो गरदन पर रखे सर को किसी बरतन की तरह खंगालने सी लगी मानो उन झटकों से डर छिटक कर बाहर जा गिरेगा। तभी अचरज की प्यारी पुकार आई मम्मी! और उसी पुकार में अपना बचाव पाकर वो जल्दी से अन्दर भाग गई।

पूरी सुबह घर में शांति ने एक पल भी अपने को अकेला नहीं छोड़ा। आने वाली रिपोर्ट में न जाने क्या होगा? न जाने कौन सी जानलेवा बीमारी का ऐलान होने वाला उसमें? इस बात को सोचना भी नहीं चाहती शांति। मगर शांति के मन में क्या चल रहा है अजय को कुछ नहीं पता। और उसने अपनी चिंता से प्रेरित हो कर पूछ ही लिया- आज तो रिपोर्ट आनी ही न तुम्हारी?
शांति की सांस रुक गई।
दो बजे बोला था न..? अजय ने फिर से पूछा।
शायद..
मैं लंच के बाद चला जाऊँगा..
नहीं-नहीं.. तुम रहने दो.. मैं ले आऊँगी..
वो अपने भय को अजय के आगे ज़ाहिर करते हुए भी डर रही थी।

घर से निकलते हुए सासू माँ के मन्दिर के आगे से गुज़री तो मन न जाने क्यों ठिठक सा गया। शांति पूजा नहीं करती। भगवान से कभी कुछ माँगती भी नहीं। लेकिन आज भगवान के आगे हाथ जोड़कर उसने अपनी परेशानी में भगवान का हस्तक्षेप माँग ही लिया। मन से मदद की गुहार लगाने के बाद एक भिखारी की सी भावना मन में पैर फैलाने लगी। उसे लगा कि बदले में उसे भी भगवान को कुछ देना चाहिये। तो मानो जैसे सौदा पक्का करते हुए शांति ने मन में अपने आप से वादा किया कि अगर भगवान उसे किसी भयंकर बीमारी से बचा लें तो वो अपनी एक प्यारी चीज़ का त्याग कर देगी।
**

लंच के पहले तक दफ़्तर में बहुत काम था। शांति को अपनी चिंता की बहुत याद नहीं आई। और जब आई भी तो साथ में भगवान से किए हुए सौदे की भी याद आई। लंच के बाद शांति का दिल धड़कने लगा। खाना खाते-खाते डेढ़ बज गया। और लैब जब पहुँची तो दो बजने में बारह मिनट बाक़ी थे। मगर आश्चर्यजनक रूप से शांति की रिपोर्ट पहले से ही रिसेप्शनिस्ट के पास आ चुकी थी। शांति ने काँपते हाथों और धड़कते दिल से खोलकर देखा। तमाम वैज्ञानिक नामों के आगे दशमलव वाले आँकड़े अंकित थे। जैसे कभी बिरजू ने सुक्खी लाला के हाथ से छीनकर अपनी ज़मीन के कागज़ों को उलट-पलट कर देखा था मगर कुछ भी न समझा था वैसे ही अवस्था शांति की भी हो रही थी। फ़ैसले का फ़रमान उसके हाथ में था फिर भी कुछ भी राहत की राह न मिलती थी। अपनी बेचैनी को वो भगवान से किए हुए लेन-देन की याद से मिटाने की कोशिश करती रही। आतंक और ईश्वर के बीच एक असमंजस की डोरी पर संतुलन करते हुए शांति ने सवा सात बजे तक इंतज़ार किया। ठीक सात बजे उसके आगे-आगे सीढ़ियां चढ़कर अजय ने तीसरे माले पर रहने वाले डाक्टर मण्डल की घंटी बजाई थी। दस मिनट तक डाकटर मण्डल एक दूसरे मरीज़ की दुविधा का हल बताते रहे और पाँच मिनट तक किसी तीसरे से फोन पर बतियाते रहे। और जब शांति की तरफ़ एक उदार मुस्कुराहट फेंकने के बाद जब उन्होने रिपोर्ट को लिफ़ाफ़े से निकालकर अपने उंगलियों से पलटना शुरु किया तो शांति के लिए जगत की सारी ध्वनियां सो गईं और हरकतें थम गईं। डाकटर मण्डल के मुखमण्डल के हावभाव पर ही उसका पूरा अस्तित्व केन्द्रित रहा। मगर उस में कोई बदलाव नहीं आया। डाकटर मण्डल ने रिपोर्ट को वापस लिफ़ाफ़े में डालते हुए बताया. आपको बेनाइन पराक्सीस्मल पोज़ीशनल वर्टिगो है..
मतलब?
मतलब.. इनर इअर का छोटा सा प्राबलम है.. बौडी का बैलेन्स बिगड़ जाता है। घबराने की कोई बात नहीं.. कुछ एक्सरसाइज़ेज़ बता देता हूँ वो कीजिये और टैबलेट्स लिख दे रहा हूँ वो खाईये..  
ठीक हो जाएगा?
बिलकुल..
यह बोलते हुए जब डाक्टर मण्डल की उदार मुस्कुराहट फिर से उनके चेहरे पर आई तो शांति को विश्वास हो गया कि उसे कोई जानलेवा बीमारी नहीं है। वो असमंजस, वो आतंक और दुविधा सब हो गई हवा। बालसुलभ उत्साह से डाक्टर से सर की कसरतें सीखीं, बिल्ली की चपलता से दो माले उतर आई, घर आकर जी भर कर खाया, बच्चों और पति से प्यार से बतियाया, चैन से सोई और भगवान से किए सौदे को मज़े से भूल गई।  

अगली सुबह जब उठी तो न तो स्मृति पर किसी डरावने सपने की आहट नहीं थी। एक उन्मुक्तता, एक निश्चिन्तता थी। पीने का पानी भरा। चाय बनाई। गूलर पर कौए समेत चहकती सभी चिड़ियों को सुना। सब में जीवन का स्पन्दन था। पौधों को पानी देते हुए उनके पत्तों को सहलाया और पाया कि जैसे उन्हे भी उगते सूरज की आभा का एहसास है। डाक्टर की बताई हुई कसरत की। और नाश्ते में खट्टे, मीठे, नमकीन, औरे तीखे हर स्वाद में उतरी और उन्ही के बीच टैबलेट्स भी गटक ली। शांति की सारी दुनिया प्यारी चीज़ों से भरी और पूरी थी। और भगवान से हुई सौदेबाज़ी की बात जैसे ही सर उठाती, हर प्यारी चीज़ छोड़ने के ख़्याल से ही और उस से चिपट कर कचोटने लगती। हारकर शांति ने अपने भीतर के भगवान को उमर के अगले पड़ाव तक मुल्तवी कर दिया। क्योंकि एक दिन तो सब कुछ छोड़ ही देना है!  
*** 

(इसी इतवार को दैनिक भास्कर में छपी)

सोमवार, 23 मई 2011

एक पुरानी गाँठ


चलते-चलते पैर पत्थर से हो गए। फिर सर में एक सुन्नता छा गई। आँखों के आगे से उजाला अंधेरे में घुलने लगा। और शांति दरवाज़े के बाहर निकलने के पहले ही लहरा के गिर पड़ी। जब आँख खुली तो वो बिस्तर पर थी। और सासू माँ उसके सामने खड़ी उसे घूर रही थीं। शांति को एक पल को समझ नहीं आया कि हुआ क्या है। फिर अचानक समय का ख़्याल आया तो झपट कर घड़ी देखी। साढ़े दस बज रहे थे। दस बजे तो उसे दफ़्तर में होना था। वो अभी तक बिस्तर पर क्या कर रही है? शांति फ़ुर्ती से बिस्तर से उठ कर खड़ी हो गई और दरवाज़े की तरफ़ लपकी। सासू माँ ने उसका हाथ पकड़ कर रोकना चाहा। मगर शांति उनके रोके से नहीं रुकी। तभी रुकी जब एक बार फिर सर में एक विचित्र सा हलकापन छा गया और सभी दायित्वों के दबाव और तनाव एकाएक ढीले पड़ गए। शांति एक बार फिर से वहीं ढेर हो जाती। मगर उसी क्षण अजय ने आकर उसे संभाल लिया। और वापस बिस्तर की निष्क्रियता में सहेज दिया।
**

बिस्तर पर पड़े-पड़े सवा घंटे बीत चुके हैं। अजय दफ़्तर जा चुका है। और सासू माँ भी अपने कमरे में लौट गई हैं। बच्चे तो अचानक आई इस विपदा के पहले ही स्कूल रवाना हो गए थे। उन्हे तो पता भी नहीं कि सुबह तक उनकी भली-चंगी माँ बिस्तर के हवाले हो गई है। तीसरे माले पर रहने वाले डाक्टर मण्डल आकर ब्लडप्रेशर नाप गए हैं। और तमाम दूसरे टैस्ट कराने का मशविरा भी दे गए हैं। दफ़्तर में अजय ने फोन करके उसका हाल बयान कर दिया है और बोल दिया है कि वो नहीं आ सकेगी। शांति के पास  कुछ करने को नहीं है। दफ़्तर में होती तो इस वक़्त कई दिशाओं में उसकी ऊर्जाओं का विसर्जन हो रहा होता। पर इस तरह दिन में बिस्तर पर पड़े रहने की आदत नहीं है शांति को। लेटे-लेटे जी घबराने लगा। तीन बार सिरहाने रखी अधूरी किताब के आधे-आधे पन्ने पढ़कर परे हटा चुकी है। घबराहट के मारे किताब में भी मन नहीं लग रहा। क्या करे? बच्चे भी तीन बजे से पहले नहीं आने वाले। सोचा कि डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी है तो सोकर ही गुज़ार दे यह पहाड़ सा कठिन दिन। तो आँख बंद की और लेटी रही।

मगर आँखों में नींद कहाँ। तरह-तरह के विचार और आशंकाएं सर में घुमड़ने लगीं। क्या हुआ है उसे। अभी उमर ही क्या है उसकी? अगर हृदय रोग हुआ तो? दिल की बीमारी दुनिया के सबसे जानलेवा रोगों में से है। तो क्या वो मरने वाली है? तीस-चालीस साल बाद तो वैसे भी मर जाना है। लेकिन उस मृत्यु की आहट इतनी जल्दी आ जायेगी ये शांति ने सोचा न था। मृत्यु के इस विचार के साथ जैसे एक धूमिल कुँए में गिरती चली गई और बहुत नीचे जाकर बीते हुए जीवन से कुछ चेहरे झलकने लगे। चेहरे जिनसे तमाम तरह के खट्टे-मीठे और चटपटे रिश्ते रहे। उन्ही में से एक चेहरा गीतू का भी नज़र आया। गीतू पूरे ग्यारह साल जो उसके साथ रोज़ स्कूल जाती रही और स्कूल से साथ आती रही। न जाने किस मोड़ पर और किस बात पर गीतू और उसमें ऐसी कट्टी हुई कि न वो गीतू की शादी में गई और न गीतू उसके ब्याह में आई। शांति ने बहुत याद करने की कोशिश की मगर ठीक-ठीक कुछ भी याद न आया। गीतू से मनमुटाव से अधिक पीर देने वाली बात ये थी कि वो बात जिसने दो पक्की सहेलियों के बीच फाड़ कर दी.. वो बात अब उसे याद तक नहीं। क्या बात रही होगी वो? शांति ने दिल में कसकने लगी बरसों पुरानी गीतू की दोस्ती और दुश्मनी को फिर से भुला देने की बहुत कोशिश की। मगर वो किसी ज़िद्दी भुनगे की तरह बार-बार उसके ज़ेहन में मंडलाती रही। हारकर शांति ने शब्बो को फोन लगाया बस यही पूछने के लिए- क्या उसे याद है कि गीतू और उसका किस बात को लेकर झगड़ा हुआ था? शब्बो को भी याद कुछ नहीं था। अलबत्ता उसे हैरत हुई कि अचानक गीतू की याद कैसे हो आई उसे?
तेरी बात होती है उससे?, शांति ने पूछा।
साल-दो साल में कभी हो जाती है.., शब्बो बोली।
कहाँ है आजकल?
मेरठ में। पढ़ा रही है।
अच्छा!
नम्बर दूँ उसका?
नम्बर लेके क्या करूंगी..
बात कर ले! जब इतनी याद आ रही है उसकी?
मुझे नहीं करनी बात..

इतना कहकर शांति ने बात पलट दी। शब्बो से बात करने के बाद शांति फिर से कमरे के सन्नाटे में पंखे की फरफर के बीच अपनी सांसो की आवाज़ सुनने लगी। बच्चों के आने में अभी भी पौना घंटा था। सासू माँ का समय कैसे कटता है अकेले घर में। शायद इसीलिए वो दिन भर बैठकर टीवी देखती हैं। यह सोचते हुए ही फोन पर एसएमएस आने की घंटी बजी। देखा तो शब्बो ने मना करने पर भी गीतू का नम्बर भेज दिया था।
**

घंटी जा रही थी। शांति का मन किया कि फोन काट दे। लेकिन इसके पहले कि वो मन की आवाज़ पर पहल करती, उधर से गीतू की पहचानी हुई आवाज़ की मिठास उसके कानों में घुल गई।
हलो..!? शांति को अपनी ही आवाज़ अनजानी सी लगी।
मगर गीतू उसकी आवाज़ पहचान गई, शैन?!
शांति की सारी हिचक अगले तीस सेकेण्ड में हवा हो गई। फिर तो दोनों ने जी भर कर पुराने दिनों को याद किया। और ख़ूब हँसी। वही लड़कियों वाली अर्थहीन ही-ही ठी-ठी जिसे सुनकर माँएं चिड़चिड़ाने लगती हैं। ऐसा लग रहा था कि शांति अपने उस कमरे में लेटे-लेटे समय में पीछे लौट गई हो। आम तौर पर ऐसी हँसी हँसते हुए उन दिनों शर्म भी बहुत आया करती थी। मगर उस अकेले कमरे की दोपहर में किसी से शर्माने की कोई वजह नहीं थी शांति को। तब तक तो बिलकुल ही नहीं जब तक पाखी और अचरज दरवाजे पर खड़े होकर उसे हैरत से घूरने नहीं लगे। उन्हे देखते ही शांति को फिर वही बचपन वाली शर्म का सा एहसास होने लगा। लगा जैसे बर्नी में से अचार चुराते हुए पकड़ ली गई हो। अपनी अपराधभावना पर क़ाबू पाने के साथ ही शांति ने गीतू से विदा ली और फोन रख दिया।

पाखी के चेहरे पर अजीब मिला-जुला भाव था। थोड़ी चिंता और थोड़ी हैरानी।
दादी कह रही थीं कि तुम्हारी तबियत बहुत ख़राब है.. तुम दफ़्तर नहीं गईं आज?  
हाँ ख़राब है.. डाक्टर ने आराम करने को कहा है..
पाखी और अचरज ने उसे ऐसे देखा जैसे उन्हे बिलकुल भी भरोसा न हो उसकी बात पर।
चलो खाना खाते है..मुझे भी भूख लगी है.. कहकर शांति बिस्तर से उठ गई।
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बच्चों के लौट आने के बाद शांति को समय के उस आतंक से छुटकारा मिल गया जो सुबह से त्रास रहा था। शाम को अजय के साथ जाकर सारे टैस्ट भी करवा आई। लौट कर आई तो अजय कहने लगा, अभी तो लग ही नहीं रहा कि सुबह बेहोश होकर गिर पड़ी थीं.. लगता है दिन भर आराम से काफ़ी असर पड़ा है
अच्छा!? उस आराम को किस तरह झेला है, मैं ही जानती हूँ.. पूरा दिन घर साँय-साँय करता है.. बुरी तरह बोर हो गई..
बस गीतू से बात हो गई यही अच्छा रहा, शांति ने मन में सोचा। मगर ये नहीं सोचा कि ज़िम्मेदारियों के शोर के नीचे दबी एक गाँठ को उसी सन्नाटे ने खोला जिस से वो इतना पीड़ित रही। चेहरे पर क्रीम लगाकर शांति जब लेटी तो अचानक उसे याद आया कि गीतू से वो बात तो पूछनी रह ही गई जिस पर उनकी कट्टी हो गई थी।
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(२२ मई को दैनिक भास्कर में छपी) 




शनिवार, 21 मई 2011

कैन्न में कट्टरता

मेरी समझ में नहीं आता कि ये किस तरह का उदारवाद है? जब तक फ़्रांस का निज़ाम एक समुदाय द्वारा उसकी औरतों पर धर्म की आड़ से उसकी आज़ादी में लगाई गई बन्दिश पर बन्दिश लगा रहा था, तो वे फ़्रांस के निज़ाम का विरोध कर रहे थे। लेकिन अब जबकि एक व्यक्ति ने अपनी निजी भावनाओं को एक सार्वजनिक मंच से व्यक्त करने की कोशिश की, और उसे निकाल बाहर किया गया, तो वे इस दमन की हिमायत कर रहे हैं? क्या अर्थ है इसका - धर्म की दमनकारी व्यवहार के लिए सारी आज़ादी और व्यक्ति की अभिव्यक्ति के लिए ज़रा नहीं?

हो सकता है बहुत सारे दोस्त इस मामले से परिचित न हों। लार्स वैन ट्रायर नाम का एक डैनिश निर्देशक है जो अपनी फ़िल्मों के कथ्य और शिल्प को लेकर लगातार चर्चा और विवादों के केन्द्र में बने रहते हैं। इस बार भी कैन्न फ़िल्मोत्सव में उनकी फ़िल्म मेलनकोलिया ईनामों की होड़ में है। हुआ यह कि उन्होने फ़िल्म के प्रचार के लिए बुलाए एक संवाददाता सम्मेलन में अचानक कहा-

What can I say? I understand Hitler, but I think he did some wrong things, yes, absolutely. ... He's not what you would call a good guy, but I understand much about him, and I sympathize with him a little bit. But come on, I'm not for the Second World War, and I'm not against Jews.
   
इस 'मज़ाक़' की बुनियाद में एक बात और भी है - लार्स वौन ट्रायर ३४ बरस की उमर तक यह विश्वास करते रहे कि उनका जन्म एक यहूदी परम्परा में हुआ है। मगर मरने से पहले उनकी माँ ने उन्हे बताया कि असल में उनका बाप एक रोमन कैथोलिक जर्मन था और उस परिवार की जड़े नाज़ी विचारधारा में धंसी थी। इस बात ने वौन ट्रायर को काफ़ी हिला दिया और इसका असर उनकी बाद की फ़िल्मों में ज़बरदस्त तरह से हुआ है। और शायद अपने जीवन की इसी निजी त्रासदी को वो एक अस्फुट हास्य के आकार में व्यक्त करने की कोशिश कर रहे थे।

हिटलर बुरा था, उसने बुरा किया- यह तो कह ही रहे हैं वौन ट्रायर। लेकिन उसको समझने या उसके साथ हमदर्दी रखने की बात करना भी अपराध है? हमदर्दी का दायरा बेहद विस्तृत हो सकता है। और वो उसकी किस बात से हमदर्दी ज़ाहिर कर रहा है या सिर्फ़ मज़ाक़ कर रहा है, इसको पहले से कैसे तय किया जा सकता है? ये कैसी विचित्र बात है? आप कला और अभिव्यक्ति को नैतिकता के दायरे में कैसे क़ैद कर सकते हैं? इतने सालों के उदारवाद की यात्रा सब बेकार है तब तो! आप क्या उम्मीद करते हैं कलाकार से? वो वही बोले और दिखाए जो राजनैतिक शुचिता पर खरा उतरता हो? यह दमनकारी समाजों से किस तरह से भिन्न है? मैं इसे कट्टरता ही कहूँगा- उदारता की कट्टरता। और ये बुरक़े वाले प्रकरण से अलग नहीं है। बुरक़े वाले सवाल पर फिर भी मैं धर्म की कट्टरता के बदले 'उदारता की कट्टरता' के पक्ष में खड़ा होने का तैयार हूँ। मगर इस मामले में तो  नहीं। 

हिटलर ने राजनीति की धुरी यह थी कि उसने जर्मनों का आह्वान किया कि अपने भीतर की सारी नफ़रत यहूदियो पर आरोपित कर दो- समाज में, दुनिया में जो कुछ बुरा है उसके लिए यहूदी ज़िम्मेदार हैं। यहूदी मायने बुराईयों का जीवंत पुतला। हिटलर के मरने के बाद पश्चिमी समाज ने वही काम हिटलर के साथ कर दिया। हिटलर माने- बुराईयों का पुतला। आज की तारीख़ में उसके भीतर मानवता के किसी अंश की भी कल्पना करना धर्मद्रोह है, उसको समझने की कोशिश पाप है, उसके साथ हमदर्दी हराम है। इसीलिए लार्स वौन ट्रायर के छोटे से मज़ाक़ (असल में उसकी निजी त्रासदी) को बरदाशत ही नहीं कर सके वे लोग। दुखद है कि उसकी माफ़ी के बाद भी उसे माफ़ नहीं कर सके।

अफ़सोस है कि मेरे कई निहायत उदारवादी मित्र भी लार्स की इस अभिव्यक्ति पर उसे गरिया रहे हैं। शायद आदमी कभी नहीं बदलेगा। कितनी भी उच्च नैतिकता के कपड़े पहन ले। अपनी आंतरिक जड़ वृत्तियों से इतनी आसानी से छुटकारा नहीं मिलने वाला उसे। 

गुरुवार, 19 मई 2011

आशिक़ का ख़त



आशिक़ का ख़त

अपने आशिक़ को माशूक़ ने बुलाया सामने
ख़त निकाला और पढ़ने लगा उसकी शान में

तारीफ़ दर तारीफ़ की ख़त में थी शायरी
बस गिड़गिड़ाना-रोना और मिन्नत-लाचारी

माशूक़ बोली अगर ये तू मेरे लिए लाया
विसाल के वक़्त उमर कर रहा है ज़ाया

मैं हाज़िर हूँ और तुम कर रहे ख़त बख़ानी
क्या यही है सच्चे आशिक़ों की निशानी?

बोला वो आशिक़ कि तुम हाज़िर तो यहाँ पर
मुझे अपना वो लुत्फ़२ नहीं मिल रहा मगर

वो जो मुझे तुम से मिला था पार साल
इस दम नहीं हैं जबकि हो रहा विसाल

मैं ने इस फ़व्वारे से पानी पहले पिया है
आँखों व दिल को इस से ताज़ा किया है

फ़व्वारा तो देख रहा हूँ लेकिन पानी नहीं
उस की राह किसी रहज़न ने काट दी कहीं

तो बोली कि मैं नहीं हूँ माशूक़ तुम्हारी
मैं बुल्ग़ार में और चीन में मुराद तुम्हारी

आशिक़ तुम मुझ पर और एक हाल३ पर
हाल जो नहीं है तुम्हारे बस के अन्दर

तो मैं वो कुल नहीं हूँ जो है तेरी चाह
टुकड़ा हूँ बस उसका तू है जिसकी राह४

माशूक़ का घर हूँ मैं, पर हूँ नहीं माशूक़
नक़द होता है इश्क़, होता नहीं सन्दूक़

माशूक़ वो है जो अकेला निराला होता है
तुम्हारी इब्तिदा५ व इन्तिहा६ वही होता है

जब उसे पा जाओ, रहे न कोई इन्तज़ार
वो जो कि है राज़ भी और है नमूदार

***

. मसनवी मानवी, ज़िल्द तीसरी, १४०६-१९.
. आनन्द
. अवस्था
. यहाँ पर इशारा इश्क़े हक़ीक़ी यानी कुल और इश्क़े मजाज़ी यानी टुकड़े से है।
. आरम्भ
. अन्त

(कलामे रूमी से)

(आज गीत ने जो पोस्ट चढ़ाई है उस से इस टुकड़े की याद हो आई)

रविवार, 15 मई 2011

पार्क में प्यार



शांति की शादी को पन्द्रह बरस हो गए । एक ज़माना था जब वो रोज़ घूमने जाते थे। फिर जैसे-जैसे गृहस्थी का पसारा फैलता गया, घूमना घटता गया। और फ़ुरसत का अधिक से अधिक समय घर में ही कटने लगा। अब तो ऐसा हाल है कि शांति और अजय दिल से दिल जोड़कर कुछ समय बैठना भी मुहाल है। ऐसी सूरत में जब इतवार की तीसरी पहर को अचानक अजय ने आकर घूमने चलने के लिए कहा तो शांति अचकचा सी गई। बीस चीज़ें हैं जिन्हे देखना है, करना है। मगर अजय ने उसके हाथ को अपने दोनों हथेलियों के बीच क़ैद करके धीरे से कहा- थोड़ी देर सब कुछ को यहीं छोड़ दो और चलो मेरे साथ।
 कहाँ?
कहीं दूर नहीं.. सामने पार्क में थोड़ी देर हवाख़ोरी करके आते हैं
अच्छा रुको कपड़े मशीन में डाल देती हूँ फिर चलते हैं..
छोड़ दो थोड़ी देर.. चलो.. लौट के करेंगे
“बच्चे?”
“बच्चे नहीं.. बस मैं और तुम..”
शांति ने एक पल इधर-उधर देखा और फिर हाथ के कपड़े वहीं बिछौने पर ही छोड़ दिए और अजय के साथ बाहर आ गई। हालांकि पुराने दिनों जैसी मन में कोई गुदगुदी नहीं थी मगर उसकी स्मृति की आहट ज़रूर थी।   

शांति के घर के पास जो पार्क है। वो कई सालों तक उजाड़ पड़ा रहा। फिर सरकार ने न जाने किस रहम के असर में उसका पुनरुद्धार करवा दिया। जब से पार्क को नया चेहरा मिला है। इलाक़े में नई रौनक़ आ गई है। आस-पड़ोस के बच्चे जो पहले तारकोल की सड़क पर क्रिकेटबाल और फ़ुटबाल के पीछे इधर-उधर दौड़ा करते, वो अभी भी सड़क पर ही खेल रहे हैं। क्योंकि पार्क खेलने के लिए नहीं है। शहर के ईंट-पत्थर से जब आप घबरा जायें तो पार्क की सजाई हुई हरियाली से दो घड़ी जी बहलायें-इसी सोच पर पार्क की तामीर हुई है। और जो रौनक़ बरास्ते पार्क के मुहल्ले में आई है वो मुहल्ले के नहीं बल्कि पूरे शहर के नौजवानों ने लाई है। वो सारे प्रेमी जो अपने समाज और परिवार की तंगदिली से बचने के लिए एक ख़ुलापन खोजते हैं। और फिर उसे खुलेपन में आकर एक कोना एकान्त का टटोलते हैं, वो सब इस पार्क में आसरा पाते हैं।

जब शांति और अजय पहुँचे तो पार्क के तमाम कोनों में प्रेमी युगलों का क़ब्ज़ा था। बैठने की सारी अच्छी जगहें पहले ही ली जा चुकी थीं। बीच में बिना किसी छाँह के घास के जो टुकड़े शेष थे उन्ही में से एक पर बैठ गए पुराने प्रेमी और प्रकृति में एक दूसरे की उपस्थिति का एहसास करने लगे। एक-दूसरे की शरीर के प्रति उत्सुकता और उसके रहस्य को जान लेने की अधीरता जो नौजवान जोड़ों में होती है, उस से दूर निकल आए शर्मा दम्पत्ति हवा-आसमान और फूल-पत्तो का जायज़ा लेने लगे। मगर जिधर भी निगाह जाती किसी आशिक़ और माशूक़ की चेष्टाओं से टकराती। थोड़ी ही देर में उन्हे शरम सी आने लगी जैसे वो किसी के प्रणयलीला में अपनी नज़रों की बाधा डाल रहे हों। दोनों ने एक दूसरे को देखा मानो पूछ रहे हों कि घर चलें या कहीं और चल के बैठें?

वो उठने ही लगे थे कि तभी किसी एक दूसरी ओर से कुछ गहमा-गहमी के सुर आने लगे। अजय तो बच निकलने की नीयत रखता था मगर शांति के कारण ऐसा हो न सका। शांति ने सोचा कि प्रेमियों का रमणस्थल है कहीं कोई उन्हे सता न रहा हो। और मामला कुछ-कुछ वैसा ही निकला मगर एकदम वैसा नहीं।

देखा तो चार लड़के-लड़कियां एक पचपन-साठ के बुज़ुर्ग को घेरे खड़े हैं। और ऊँची आवाज़ में उसे कुछ धमका रहे हैं। शांति ने पूछा कि बात क्या है? पता चला कि वो जनाब रोज़ाना वहाँ अकेले बैठकर जवान जोड़ों को ताड़ते हैं। और उनकी इस बेशर्म हरकत पर प्रेमी युगलों को सख़्त एतराज़ है। उनका आरोप है कि बुड्ढा एक विकृत मानसिकता का आदमी है जो अपने मैली निगाहों से पार्क का माहौल मैला कर रहा है। शांति ने उस बुज़ुर्ग से कड़क पर पूछा कि क्या वो वाक़ई ऐसा करता है। पहले तो जोड़ों के हमले और फिर शांति के आक्रामक तेवर से वो आदमी पूरी तरह मुरझा सा गया और हकलाने लगा। और बार-बार माफ़ी माँगने लगा। कहने लगा कि उसका कोई गन्दा इरादा नहीं है और वो कितने दिनों से उस पार्क में आता है, कभी उसने कुछ भी नहीं किया, किसी से कुछ भी बोला भी नहीं।

तो आते क्यों हो यहाँ?”, एक लड़के ने हड़का के पूछा।
क्या तुम सिर्फ़ जवान जोड़ों को देखने यहाँ नहीं आते हो?”, उसकी साथ की लड़की तड़प कर बोली।
इस तरह के चुभते हुए सवाल और पूछने वाली की आवाज़ की धमक के असर में उस आदमी ने सर झुका लिया और मान लिया कि वो उस पार्क में जवान जोड़ों को देखने ही आता है।

बस उसका ये स्वीकार करना था कि जोड़ों और उनमें भी विशेषकर लड़कों ने उसे दो चार धक्के दिए। एक ने तो लगभग हाथ भी छोड़ दिया था मगर अजय ने बुज़ुर्ग की उमर का लिहाज़ करते हुए बीच-बचाव किया। लड़कों ने उसे बार-बार चेताया कि फिर कभी उस पार्क में दिखाई दिया तो उसकी हड्डी पसली बराबर कर दी जाएगी। शांति को कुछ अपनी तरफ़ से पहल करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। वो नौजवानों के तेवर देखती रही बस। और उस बेशर्म बुज़ुर्ग को भी जो अब बुरी तरह जलील होने के बाद पार्क से रुख़सत होने लगा था। अपनी पानी की बोतल, कैप और झोले को लेकर जलालत भरे क़दमों से वो पार्क के गेट की तरफ़ बढ़ने लगा। अजय और शांति को भी अब वहाँ बने रहने का औचित्य समझ न आया वो भी वापस अपने घास के टुकड़े की तरफ़ लौटने लगे। यूँ लौटते हुए उन्होने न चाहते हुए भी कुछ क़दम उस बेशर्म बुज़ुर्ग के साथ चले। नौजवानों के उस सहज आक्रोश के बीच अकेली निरपेक्ष आवाज़ उसे अजय की ही समझ आई होगी, इसीलिए उससे मुख़ातिब होकर अपने दिल के दर्द का बयान करने लगा।

मैं सच कह रहा हूँ भाईसाब.. मैंने कुछ नहीं किया.. कोई ग़लत काम नहीं किया..
तो भैया काहे ताड़ते हो लड़कियों को.., अजय ने कहा।
लड़कियों को नहीं ताड़ता..
लो अभी तो कहा तुमने कि इसीलिए आते हो यहाँ..
एक पल को चुप रहा वो बेशर्म बुज़ुर्ग फिर कहने लगा, मैं कोई लुच्चा लफ़ंगा नहीं हूँ, भाईसाब.. मैं भी शरीफ़ आदमी हूँ.. मेरे भी बीवी-बच्चे हैं.. मैंने भी प्यार किया है.. मैं जानता हूँ प्यार क्या होता है.. बहुत ख़ूबसूरत चीज़ है प्यार.. फूलों की तरह.. ये जो प्यार है न.. फूलों की तरह ये भी हमेशा नहीं रहता.. फिर चेहरे न जाने कैसे हो जाते हैं..

इतना कह कर उस आदमी ने अपनी कैप पहनी और अपमान से बोझिल वही चाल चलता हुआ पार्क के गेट से बाहर निकल गया। शांति और अजय देर तक उसे देखते रहे जब तक वो अपने स्कूटर पर बैठकर चला नहीं गया। बाद में वे दोनों भी धीरे-धीरे चलकर अपने घर चले गए। और इस पूरे दौरान पार्क में प्यार करने वाले अपने उस प्यार में खो रहे जो बाद में जीवन की आपाधापी में उनसे खो जाने वाला है।   

***

(इसी इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)  




शुक्रवार, 13 मई 2011

आई पी एल का निर्मल आनन्द

क्रिस गेल ने जब तीसरा विकेट लेने के बाद अनायास जो नाच किया उस से उसके विशाल शरीर के भीतर जो एक ख़ूबसूरत दिमा़ग़ है उसका पता मिला। कितना आह्लादाकरी कितना मुक्तिकारी पल था वह। जिन्होने वह नहीं देखा वह कुदरत की एक निहायत अनुपम चीज़ देखने से वंचित रह गए। कुछ लोग इसे पढ़कर हो सकता है यू-ट्यूब पर उस पल की क्लिपिंग खोजना शुरु कर दें। और कुछ लोग हो सकता है मुँह बिचका कर कहें- क्रिकेट तो एक ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी-बाज़ारी संस्कृतिबिद्ध-अंधराष्ट्रवादी- फ़ासीवादी-जनविरोधी वृत्तियों का ज़हरीला मेल है। आप हैरत करेंगे कि कोई ऐसा कैसे कह सकता है? मगर एक मूर्धन्य विद्वान हैं अभय कुमार दुबे जिन्होने कुछ ऐसे ही निष्कर्ष निकाले हैं।  और वो कोई अकेले नहीं हैं चन्द लोग ऐसे और मिल जायेंगे जो ऐसा ही कुछ, या इससे भी आगे बढ़कर कुछ प्रस्तावित करने को तैय्यार बैठे हैं।

जब आई पी एल शुरु हो रहा था तो मैंने आशंका व्यक्त की थी कि कोई भला क्यों देखेगा इस तमाशे को? शहरों के आधार पर बनाई गई टीमों की प्रतिस्पर्धा- वो भी ऐसी टीमें जो ठीक-ठीक अपने शहर का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती हों- को देखने में किसी की कोई रुचि क्यों होने लगी? मेरा अन्देशा था कि अयोजन बुरी तरह फ़्लाप होगा। लेकिन मेरा अन्देशा फ़्लाप निकला और आई पी एल सुपरहिट रहा। यहाँ तक कि अब मैं भी उसके दर्शकों में से हूँ। मैंने अपने आप से ही पूछा कि आख़िर क्यों देखता हूँ मैं? तो जवाब यही मिला कि खेलने और खेल देखने से मिलने वाले निर्मल आनन्द के लिए देखता हूँ। जब क्रिस गेल बेलौस छक्के मारता है या मलिंगा की तिरछी गेंद बरछी की तरह आकर बल्लेबाज़ की विकेट की बुनियाद में धंस जाती है तो वो दृश्य अद्‌भुत विस्मयकारी होता है। और सभी जानत्ते हैं कि सभी रसों में अद्‌भुत का विशेष स्थान है। अपने मन में इस आनन्द का लेपन करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। एक बहुत बड़ी जनसंख्या है जो इस सुख का पान कर रही है। पूछा जाना चाहिये कि क्या उन सब का मलिंगा या गेल के कौशल को देखकर आनन्द लेना एक जनविरोधी-अंधराष्टवादी-ब्राह्मणवादी-हिन्दूवादी-पूँजीवादी-फ़ासीवादी गतिविधि हैं?

क्रिकेट पर इस तरह के आरोप लगाने के आधार ये हैं कि भारत-पाक मैच होने दौरान ऐसे मौक़े आते हैं कि साम्प्रदायिक या राष्टवादी भावनाएं जाग उठती हैं और कुछ मीडियाकर्मी उसे सायास या अनायास भड़काते हैं। बड़े-बड़े सिद्धान्त चबाने वाले ये विद्वान ये भूल जाते हैं कि समाज में जो भी रोग होंगे वो सब समाज की सब चीज़ों में बिम्बित होंगे -उसके लिए क्रिकेट को अकेले दोषी ठहराने का अर्थ है? बुराई समाज से उपज रही है क्रिकेट से नहीं। साम्प्रदायिकता और राष्टवाद की जड़ें क्या क्रिकेट के खेल की संरचना में हैं? अगर कोई ऐसा समझता है तो आई पी एल की सफलता उसके लिए सबसे बड़ा जवाब है। क्रिकेट के आनन्द पर राष्ट्रीयताओं के जो दबाव अब तक बने हुए थे और बने हुए हैं भी, उनसे मुक्त एक क्रिकेट हाज़िर किया गया है हमारे सामने। और यह ‘निन्दनीय’ कारनामा किसने किया है उसी ‘गलीज़’ बाज़ार ने जिसे जनवादी और प्रगतिशील सोच बेहद ‘प्रतिगामी’ मानती है। [क्या बाज़ार की इस वास्तविक प्रगतिशीलता पर कुछ ग़ौर करने की कोई ज़रूरत नहीं? जिस जातिवाद को ख़त्म करने के लिए सारे जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर संघर्षरत है, उसे बाज़ार अपनी स्वाभाविकता में पहले ही निर्मूल कर चुका है।]

क्रिकेट हमारे औपनिवेशिक आक़ाओं का खेल था। तब यह सिद्ध किया जा सकता था कि यह गुलामी की मानसिकता को और पुख़्ता करने का औज़ार है। मगर आज हम जानते हैं कि ऐसी सोच कितनी हास्यास्पद होती। ये वैसे ही है जैसे कोई कहे कलशनिकोव साम्यवाद फैलाने का हथियार है। या कोई दूसरा कहे कि नहीं कलशनिकोव तो इस्लामी आतंकवाद फैलाने का माध्यम है। अरे भाई कब तक चांद के बदले उंगली को देखते रहोगे? कभी तो चांद को देखो! क्रिकेट एक खेल है और सभी खेलों की तरह मानवीय वृत्तियों का सहज विस्थापन हैं। इसीलिए उनको अंग्रेज़ी में रिक्रिएशन या पुनर्रचना की कोटि में रखा जाता है।

मुश्किल क्या है हमारे समाज में एक तबक़ा है जो अपने आप को अतिक्रांतिकारी सिद्ध कर देने की बेचैनी से ग्रस्त है। यह तबक़ा हर जाति में है पर ब्राह्मण जाति में इसकी बहुतायत है। इनकी चेष्टाओं को देखकर मुझे प्राचीन भारत के अपने वो पूर्वज याद आ जाते हैं जो बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को गिरफ़्तार करने के लिए अपने आप को बौद्धों से भी बढ़कर अहिंसक और करुण सिद्ध करने को आतुर थे। जिस आतुरता में उन्होने यज्ञों में पशुबलि की प्राचीन वैदिक परम्परा को छोड़ दिया। और गो-माता की पवित्र कल्पना पर खड़े होकर अपने धर्म की पुनर्व्याख्या कर डाली। आज के इस दौर में पूरे ब्राह्मण समाज पर दबाव है कि वह स्वयं को प्रगतिशील और जनतांत्रिक साबित करे या लगातार हो रहे हमलों की मार झेले। तो हमारे चतुर बन्धु अपने चतुर पूर्वजों की तरह पाला बदल कर ब्राह्मणवाद पर हमला करने वालों में शामिल हो गए हैं। और वो बाक़ियों से बढ़-चढ़ कर हमले करते हैं ताकि अपनी ईमानदारी सिद्ध कर सकें। अपनी अतिक्रांतिकारिता के इस अभ्यास में वो अपने आप को जितना तोड़ते-मरोड़ते हैं उससे कहीं अधिक वो सच्चाई को तोड़ते-मरोड़ते हैं। इसलिए ऐसे विद्वानों की प्रस्थापनाओं से थोड़ा सावधान रहने की ज़रूरत है।

मित्रों की सुविधा के लिए क्रिस गेल की क्लिपिंग यह रही!


मंगलवार, 10 मई 2011

अरेन्ज्ड मैरिज

उसके बाप ने माँ का साथ नहीं निभाया। गाने बहुत गाए, इधर-उधर साथ उड़ते फिरे, और वादे भी बहुत किए मगर जब निभाने की बारी आई तो नदारद। बाप का साया नहीं तो कम से कम माँ की ममता तो मिल जाती। मगर कमबख़्त को वो भी न मिली। किसी दूसरे के घोंसले में रख आई अपने अण्डे को। वो पालने वाले माँ-बाप आवारा संस्कारों के न थे। बहुत सामाजिकता रही है उनमें। जो करते हैं कुल और कुटुम्ब के साथ और उसकी मर्यादाओं में करते हैं। और वो ऐसे भोले और सहज विश्वासी स्वभाव के जीव हैं कि वे जान भी ना सके कि वो जिसके मुँह में रोज़ दाना डाल रहे हैं, वो उनका अपना ख़ून नहीं किसी और का पाप है। 

जैसे-जैसे दिन बीतने लगे और पंखों का रंग और गले का सुर बदलने लगा तो खुली असलियत। और जैसे ही उन्हे समझ आया कि जिस अण्डे को उन्होने अपने पेट की गर्मी से सेया और पाल-पोस कर उड़ने लायक़ बना दिया वो तो कोई कौआ नहीं बल्कि कोयल है। बस उसी वक़्त लात मार घोंसले से गिरा दिया।

ये हादसा हर कोयल की ज़िन्दगी में होता है। किसी की ज़िन्दगी में जल्दी, किसी की ज़िन्दगी में देर से। कोई घोंसले से गिर कर भी बाद में कुहकुहाने के लिए बच जाता है किसी की जीवनरेखा ज़रा छोटी होती है। गिरने के बाद, बिना किसी माँ-बाप, भाई-बहन, और दूसरे सामाजिक सम्बन्धों के कोयल अकेले इस बेरहम दुनिया में अपना आबोदाना खोजती है। और जब जान का आसरा हो जाता है तो भीतर की कुदरत बहार आते ही जाग जाती है। और नर कोयल खोजने लगती है मादा कोयल को। हर जगह पुकारती फिरती है। और नर के इसरार का क्या करे, और कब करे, मादा कोयल तौलती है। फिर किसी मौक़े पर दिल के द्वार खोलती है। मगर एक घनचक्कर में फंसे ये पखेरू फिर उसी इतिहास को दोहराते हैं। और अपना एक घोंसला बनाने से मुकर जाते हैं। इस तरह हादसों का सिलसिला चलता रहता है।

मैं अक्सर सोचता था कि क्यों कोयल ही प्रेम के गीत गाती है। और कौवों के प्रेम की हवा किसी को नहीं मिल पाती है। शायद कह सकते हैं कि कोयल का तो शादी में यक़ीन ही नहीं और कौओं के समाज में अरेन्ज्ड मैरिज की परिपाटी है।



(यग्नेश की तस्वीर में कोयल के बच्चे को ख़ुराक़ देता कौआ)

सोमवार, 9 मई 2011

अहमक़ से भाग


















अहमक़ से भाग १

हज़रते ईसा भाग रहे थे एक पहाड़ को यूँ
बहाना चाहता हो शेर गोया२ उनका खूँ

आया तभी दौड़ता कोई और पूछा क्या है वजह?
नहीं कोई पीछे, भागते फिर भी परिन्दे की तरह?

लेकिन हड़बड़ी में कुलांचे मारते ही रहे आप
जल्दी इतनी कि दिया नहीं उसे कोई जवाब

बड़ी दूर तक वो शख़्स पीछे रहा ईसा से
बड़ी कोशिशों के बाद फिर बोला ईसा से

खुदा के वास्ते रुक जाइये अय इब्ने मरियम३
ज़रा मेरी इस उलझन के कीजिये पेंच कम

क्यों भागते हैं अय करीम४ इस तरफ़ इस तरह
न कोई शेर है न दुश्मन, न खौफ़ न खतरा

बोले ईसा कि मैं अहमक़ो से भाग रहा हूँ
जाने दो रोको मत मुझे खुद को बचा रहा हूँ

बोला वो कि क्या  नहीं आप वो मसीह
जिसने अंधे व बहरे कर दिये सहीह५

बोले हाँ, फिर पूछा तो क्या वो नहीं मगर
जिसमें ग़ैब६ के जादू बनाते हैं अपने घर?

वो जिनके फूंक मारने से मुर्दा जी उठता ऐसे
एक शेर को शिकार अपना मिल गया हो जैसे

बोले हाँ मैं वही हूँ तो पूछा फिर से उस ने
नहीं वो आप मिट्टी से बना दिए पंछी जिसने?

बोले हाँ, तो फिर कहा कि अय पाक चेहरे वाले
आप कर सकते हैं जो चाहें तो डर काहे का पाले?

इन दलील के बाद होगा कौन जहान में
जो करेगा ना बन्दगी आप की शान में

बोले ईसा कि क़सम उस सच्चे मालिक की
बनाने वाले तन के और रूह के खालिक़७ की

उस की हुरमत८ की क़सम जो है नूरे पाक
जिस की ख़ातिर आसमां करते ग़रेबां चाक

वो जादू और वो अज़ीम९ नाम मैंने जो लिया
अंधो-बहरों जिस पर पढ़ा, वो अच्छा हो गया

भारी पहाड़ों से कहा, पड़ गई उनमें दरार
गहरे तक खुद का लबादा बस लिया फाड़

मुर्दा तन पर पढ़ा तो वो ज़िन्दा हो उठा
जब पढ़ा नाचीज़ पर तो वो चीज़ हो उठा

प्यार से फिर पढ़ा मैं ने अहमक़ के दिल पर
पढ़ा सौ हज़ार बार मगर हुआ कुछ न असर

और पत्थर बन गया बदला कुछ भी नहीं
रेत है वो जिस पर उगता कुछ भी नहीं

पूछने लगा क्या है राज़ कि नामे खुदा
इधर कुछ नहीं और उधर देता है फ़ाएदा

वो हैं मरीज़ और ये भी एक मर्ज़ ही हुआ
इधर क्यूं कुछ नहीं उधर बन गया जो दवा

बोले ईसा कि अहमक़ी खुदा का अज़ाब१० है
तन के मर्ज़ हैं आज़माईश, ये लाइलाज है 

आज़माईश के मर्ज़ पर मिल जाता है रहम
अहमक़ी है मर्ज़ वो कि मिलता सिर्फ़ ज़ख्म

ये दाग़ है वो जिस पर मुहर उस ने लगाई है
उसके लिए मरहम कोई, न कोई दवा बनाई है

भागों अहमकों से जैसे ईसा ने दिखाया है
अहमकों की सुहबत ने सिर्फ़ खूं बहाया है


. मसनवी मानवी, तीसरी ज़िल्द, २५७०-९९.
. मानो
. मेहरबान
. मरियम का बेटा यानी ईसा
. सही, उचित
. अदृश्य (शक्ति)
. बनाने वाला, रचयिता
. सम्मान
. महान
१०. दोज़ख़ में मिलने वाला पापों का दण्ड
११. मूर्ख, बेवक़ूफ़

 (कलामे रूमी से) 
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