गुरुवार, 29 मार्च 2012

प्रतिशोध




सुबह जब शांति पौधों को पानी देने के लिए बालकनी पर गई तो सूरज उग रहा था। पानी देते हुए उसने सूरज की तरफ़ एक अनुरागी दृष्टि डाली। सूरज सफ़ेद हो रहा था। ये नज़्ज़ारा शांति को बड़ा अजीब मालूम दिया। सूरज सफ़ेद ही होता है.. पर उगते हुए और डूबते हुए सूरज में लाली देखने की आदत पड़ी हुई है हमको। वैज्ञानिक बताते हैं यह एक दृष्टि भ्रम है जो प्रकाश के परावर्तन के चलते होता है। शांति ने सर उठा कर शेष आकाश की ओर देखा। पूरा आसमान एक अजब सलेटी रंग में पुता पड़ा था। आस-पास के पेड़ उगते सूरज की रौशनी में अच्छे चटख रंगो में खिले होने के बजाय एक धूसर उदासी से लिपटे खड़े थे। धूसर रंग उस धूल में था जो पेड़ और शांति की आँख के बीच ही नहीं, सारे आलम में तैर रही थी। अभी वसन्त में ही आए नए पत्तों और ताज़े खिले फूल के चटख रंगों के खुल कर पसरने की राह उसी धूल ने अवरुद्ध की हुई थी। वही धूल उगते सूरज की लाली को भी लील गई थी,  ऐसे कि सूरज नारंगी-लाल न होकर किसी अख़बारी काग़ज़ की तरफ़ निस्तेज और सफ़ेद नज़र आ रहा था। कभी-कभी ऐसा भी होता है, यह सोचकर शांति अपने में वापस लौट गई। बाहर धूल मचलती रही। 

तक़रीबन ढाई घंटे बाद जब शांति तैयार होकर दफ़्तर जाने के लिए निकली तो सूरज सर पर चढ़ आया था मगर धूप बहुत ही ख़स्ताहाल थी। धरती पर शांति की बौनी छाया थी ज़रूर पर बेहद क्षीण और महत्वहीन। शांति ने सर उठाकर ऊपर देखा। आकाश में कोई बादल न था पर सब तरफ़ बदली छाई हुई थी। जहाँ तक नज़र जाती थी धूल के नन्हे-नन्हे कण हवा में अठखेलियां करते नज़र आ रहे थे। पहले कभी नहीं देखी इस तरह की धूल? पहले जब कच्ची सड़कें होती थीं तो  गर्मी के प्रचण्ड प्रहार से धरती चटकने लगती थी और उसकी सतह के छोटे-छोटे टुकड़े हवा के साथ  पूरे वातावरण में उड़ने लगते थे। पर उस धूल की अपनी कोई गति नहीं थी वो हवा के कंधों पर सवार होकर यहाँ-वहाँ भटकती फिरती थी। पर उस दिन न तो प्रचण्ड गर्मी थी तो न ही हवा हुंकारे भर रही थी। ये वो धूल नहीं थी.. तो फिर ये कौन सी धूल थी? कहाँ से आई थी यह धूल?  शहर में न तो कच्ची सड़कें थीं, न नंगी पड़ी हुई ऊसर ज़मीन और न ही घास या बेघास के चटियल मैदान.. जिनसे छूटकर धूल इधर-उधर आवारा फिरती। 

शहर में भी धूल होती है। पर वो बिलकुल अलग क़िस्म की धूल है.. लम्बी-ऊंची इमारतों की तामीर में लगने वाली सीमेंट-मौरम के ज़र्रों की धूल। पर वो इस क़दर सरकश और आवारा नहीं होती। वो तो बहुत ही चुपचाप और रहस्यमय तरीक़े से रोज़ बरोज़ आसपास के घरों में जा टिकती है और हर सुबह घरों से बाहर बुहार फेंकी जाती है। जो कचरे के डब्बों से होते हुए शहर के बाहर बने कूड़े के टीलों में अपना अन्तिम स्थान पाती है। जहाँ उसके साथी होते हैं प्लास्टिक की थैलियां,  पन्नियां, कपड़ों के टैग, कच्ची-पक्की और सड़ी-गली सब्ज़ियां, टूटे हुए कांच के टुकड़े,  ठुकराए हुए खिलौने,  चिंदी करके फेंके हुए काग़ज़, कीलें, पतरे, लोहा-लंगड़ और कई तरह की धातुओं के टुकड़े। उसके ये सारे साथी उस धूल को इस क़दर जकड़ कर रखते हैं कि धूल वहाँ से कहीं जाने नहीं पाती। वहाँ से अगर कुछ उठता है तो उन सब की समवेत गंध, जिसका सामना करने की ताब किसी सामान्य मनुष्य में नहीं होती। फिर भी कुछ दिलेर नाक पर पट्टी बांधे, और कुछ तो बिना किसी पट्टी के भी उन ठुकराई हुई बेकार चीज़ों के ढेरों में अपने काम की चीज़ें खोजा करते हैं। 

फिर कौन सी धूल थी ये? इसी सोच को लिए-लिए शांति दफ़्तर पहुँची। जब उसने हेलमेट उतार कर हाथ में लिया तो देखा कि उस पर धूल की पतली सी परत आरामफ़र्मा है। शांति ने हौले से अपनी उंगली को हेलमेट पर फिराया तो उसकी इस हरकत के निशान को अंकित होते हुए देखा और फिर हेलमेट को स्कूटर पर ही टांगकर दफ़्तर में दाख़िल हो गई। दफ़्तर में एसी चल रहा था और सामान्य सरगर्मी थी। लोग दुनिया जहान की जो बातें कर रहे थे उनमें धूल भी एक चर्चा का मुद्दा थी। लेकिन जब दफ़्तर बंद हुआ तो हालात संगीन हो चले थे।  

शाम होते-होते तक धूल ने आदमी की बनाई दुनिया की ऊँचाई से दूर ऊपर कहीं तैरना छोड़कर वापस धरती की ओर धावा बोल दिया। हवाएं उसका साथ दे रही थीं। एक-दूसरे से सटकर चलने  वाली मछलियों और पंछियों के समूह की तरह धूल बड़े वेग से दिशाओं को झकझोरने लगीं। चलना तो दूर उस आँधी में खड़े रहना भी मुश्किल था, आँखें बंद हुई जाती थीं। सवारियों के लिए सड़कों पर चलना असम्भव हो गया। पहले रेंगने की गति पर आया ट्रैफ़िक एक पल में आकर एकदम ठप पड़ गया। पूरे शहर में समय जैसे ठहर गया। पर हवाओं पर सवार धूल अंधड़ बनकर चलती रही। 

एक बहुत लम्बे अंतराल के बाद शांति घर पहुँची। जैसे-जैसे शांति घर के भीतर क़दम रखती गई फ़र्श पर जमी धूल की परत पर अपने जूतों के निशान छोड़ती गई। सारा घर धूल से अटा पड़ा था। अजय, पाखी, अचरज डाइनिंग टेबल पर सन्न से बैठे थे। फोन सेवाएं ठप पड़ चुकी थी और पिछले कई घंटो से उनका शांति से सम्पर्क टूटा हुआ था। सासू माँ भी वहीं बैठी थीं- केबल भी बंद था। उस समय सफ़ाई करने का माद्दा नहीं था शांति में। वो सिर्फ़ नहाना चाहती थी। पर न जाने क्यों पानी नहीं आ रहा था। धूल से काली हो गई शांति का बदन एक उतनी ही किरकिरी चिड़चिड़ाहट से दरकने लगा। किसी तरह उसने अपने पर क़ाबू पाया और रखे हुए आधी बाल्टी पानी से अपने हाथ-पैर धो लिए। भूख मर चुकी थी पर पाखी और अजय के कहने पर उसने थोड़ा सा खाना अपनी प्लेट पर डाल लिया। निवाला मुँह में डालते ही उसे खाने का नहीं धूल का स्वाद आया। शांति ने वैसे ही प्लेट रख दी। और नहीं खाया फिर भी ज़बान पर धूल का स्वाद बैठा ही रहा। 

बाहर अंधड़ जारी था। घर में धूल बढ़ती ही जा रही थी। मेज़, कुर्सी, परदे, सब कुछ धूल से सन चुका था। शांति इतना थक चुकी थी कि बस बिस्तर पर गिर कर सो जाना चाहती थी पर बिस्तर, धूल के बिस्तर में बदल गया था। उस पर सोना नामुमकिन था। शांति ने चादर बदलने के लिए अलमारी खोली। तभी लाइट चली गई। अलमारी के भीतर शांति का हाथ जहाँ भी पड़ा वहाँ धूल मौजूद थी। किसी तरह शांति ने एक चादर बिस्तर पर डाल दी। और दूसरी दरवाज़े की झिरी पर तोप दी। उसके बाद भी धूल अदेखे-अनजाने छेदों से निकल-निकल कर शांति पर और कमरे की हर  चीज़ पर बैठती ही रही। जैसे धूल को कोई ईश्वरीय वरदान था और वो उसी वरदान का दीर्घप्रतीक्षित प्रतिशोध ले रही थी। 

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शनिवार, 24 मार्च 2012

नौनिहाल


सवा पाँच बज रहे थे। दफ़्तर लगभग ख़ाली हो चुका था। परम्परा के मुताबिक लोग अपना आज का काल कल पर टालकर जा चुके थे। आज का काम आज ही ख़तम कर डालने की ज़िद करने वाली शांति अपना काम समेट रही थी जब हवाओं पर चढ़कर रह-रहकर एक धमक सी आने लगी।  शांति तो अपने काम में व्यस्त थी। सबसे पहले उनकी पहचान दफ़्तर की पुरानी खिड़कियों में जड़े शीशों ने की। हर धमक के साथ उनका पूरा अस्तित्व कम्पन करने लगा। और सारे शीशों के समवेत कम्पन से पूरे दफ़्तर में एक अजब माहौल तारी हो गया। तब शांति ने भी उस धमक की लहरों को अपने शरीर से टकराते हुए महसूस किया जिससे उसके मन में एक विचित्र आकुलता का संचार होने लगा। उसने लैपटॉप बन्द कर दिया। उस आकुलता में काम करना मुमकिन नहीं था। और बाहर की ओर चल पड़ी। जैसे-जैसे वो बाहर की ओर चलती गई, हवाओं में धमक बढ़ती चली गई। और जब वो लिफ़्ट से बाहर आई तो एक कान चीर देने की नीयत रखने वाले संगीत से उसका सामना हुआ। वो धमक इसी संगीत की निचली तरंगे थी।

शांति स्कूटर पार्किंग से निकालकर सड़क पर आ गई। ये सड़क जिस पर शांति का दफ़्तर था, बहुत संकरी तो न थी। लेकिन कुछ हिस्से पर दुकान अपनी हदों से बाहर निकलकर पसर गई थीं और कुछ पर ठेलेवाले अपनी रोज़ी बिछाए हुए थे। शहर का प्रशासन  एक सहिष्णु आचार का परिचय देते हुए इस अतिक्रमण के प्रति पूरी तरह उदासीन बना हुआ था। और आम नागरिक की हालत किसी कोलस्ट्राल से भरी रकतवाहिनी में बहते पोषक तत्वों सी हो चली थी। लेकिन उस समय सड़क का आवागमन रुका हुआ था। क्योंकि शांति से लगभग पचास मीटर आगे एक ट्रक था जिस पर पांच छै भीमकाय स्पीकर रखे थे। ट्रक के ऊपर, आगे-पीछे और अगल-बगल नौजवान लड़कों की एक उछलती-कूदती टोली थी। साठ-सत्तर की संख्या वाले उस दल में शायद ही एक-दो ऐसे थे जिन्होने कमर के ऊपर कोई कपड़ा पहन रखा हो। जो शोर ट्रक के स्पीकरों से उपज रहा था न तो उसे संगीत कहा जा सकता था और न ही उनकी फूहड़ उछल-कूद को नृत्य। वे अपने भीतर की ही किसी विकृति से विवश होकर हवा में हाथ-पैर फेंकते दिख रहे थे। वे पास ही स्थित विश्वविद्यालय के छात्रावासों में रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर छात्र थे।

किसी लगातार हो रहे विस्फोट की तरह उस शोर की उत्तेजना शांति को परेशान करने लगी। वो शोर एक ऐसा आक्रमण था जिसका उसके पास कोई बचाव नहीं था। उसके आगे वाहनों की लम्बी क़तारें थी और वैसी ही धीरे-धीरे पीछे भी बनती जा रही थीं। न वो आगे निकल सकती थी और न लौट सकती थी। उस शोर की धमक में उसके ज़ेहन में उठने वाली हर सोच उठते ही दम तोड़ दे रही थी। जबकि उसकी देह के किसी निचले तल से उठता एक आदिम आवेग उस पर छाता जा रहा थी।  उसका मन कर रहा था कि सबको कुचलकर आगे बढ़ जाय। अगर वो कोई सिद्ध योगिनी होती तो अपने स्कूटर को टैंक में बदल डालती उसी पल। अचानक उसे लगा कि कोई कुछ कह रहा है उस से। उसने मुड़कर देखा- उसके बाज़ू में रुकी हुई कार से एक औरत उस से कुछ पूछ रही थी।  उसके मुँह से निकल ज़रूर होंगे कुछ शब्द मगर वो कहीं पहुँचने पहले से दबा कर मार डाले गए। उस आततायी शोर में किसी स्त्री के कोमल शब्द के लिए कोई जगह नहीं बची थी। शांति को कुछ समझ नहीं आया। ड्राइवर की सीट पर बैठा उस औरत का पति उसके कंधों को हिलाकर कुछ बोल रहा था। लेकिन वो अपने पति को अनदेखा कर के शांति से बार-बार कुछ पूछती ही रही। उसके लगातार हिलते हुए होंठ, सवालिया निगाहें और शांति तक पहुँचता सिर्फ़ शोर शांति से बरदाशत नहीं हो रहा था। उस पर से अपनी ध्यान हटाने के लिए शांति ने पिछली सीट पर देखा। पिछली सीट पर दो बच्चे आपस में लड़ रहे थे। एक छै-सात बरस का लड़का एक तीन-चार बरस की लड़की, जो शायद उसकी बहन थी, बुरी तरह पीट रहा था। बच्ची का मुँह खुला था, गले की नसें तनी हुई थीं, और आँखों से आँसू बह रहे थे। निश्चित ही वो गला फाड़ कर रो रही थी पर रोने की कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। अगली सीट पर बैठे उनके माँ-बाप को पता भी नहीं था कि पिछली सीट पर क्या चल रहा है।

होली के चार-पाँच रो़ज़ पहले ही होली मिलन का उत्सव मना रहे छात्रों का जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। और एक ख़ास घर के आगे जाकर रुक गया। शांति ने देखा उस घर पर दीपा गर्ल्स हॉस्टल की तख्ती लगी हुई थी। शायद वो विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए कोई निजी छात्रावास था। उस हॉस्टल में कोई चौकीदार नहीं था। और अगर था भी तो लड़कों के हिंसक नाच से भयभीत होकर कहीं अन्तर्धान हो गया था। अगल-बगल फलों और जूस के ठेले थे। मगर वो घबराकर अपने सामान को ढककर किनारे होने में लगे थे। उन्हे डर था कि अगर लड़कों की नज़र तिरछी हुई तो उनका माल लुटते देर नहीं लगेगी। ये उनका सौभाग्य था कि लड़कों की दिलचस्पी किसी और 'माल' में थी। जिस के चलते वो गर्ल्स हॉस्टल के बाहर खड़े होकर भीमकाय स्पीकरों से निकल रहे उन्मादक शोर पर देर तक अश्लील ढंग से उछलते-कूदते रहे। और गंदे इशारे करते रहे। जिस पर भी जब किसी भी लड़की ने उनको दर्शन की तवज्जो नहीं दी तो एक लड़के ने जूस के ठेले के साथ रखे टोकरी में से संतरे और मौसम्बी  छिलके और गाजर-चुकन्दर के सिरों को उठा-उठाकर हॉस्टल की बंद खिड़कियों पर फेंकना शुरु कर दिया। बाक़ी लड़कों ने अनुसरण किया और हॉस्टल पर अपने हथियारों की वर्षा कर दी। वो पल तमाम तरह की ख़तरनाक सम्भावनाओं से थरथराने लगे। इस दृश्य को देखते-देखते कुछ पल पहले क्रोध में उबल रही शांति, बिलकुल उलट भय की गर्त में गिर पड़ी।

घर पहुँचने के बहुत देर बाद तक भी शांति भीतर कहीं काँपती रही। क्योंकि वो एक स्त्री है, और किसी तल पर बेहद असुरक्षित है। और उसके भीतर इस आदिम असुरक्षा की भावना पैदा करने वाले कोई अनपढ़, जंगली और गँवार नहीं थे। विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा लेकर, आने वाले दिनों में आईएएस, पीसीएस आदि बनने वाले छात्र थे, नौनिहाल थे, देश का भविष्य थे। उच्च शिक्षा हासिल करके वे किस प्रकार के बेहतर मनुष्य और किस तरह के बेहतर समाज की रचना करेंगे ये कल्पना करना शांति को बहुत कठिन और कष्टकर मालूम दिया।

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(10 मार्च को दैनिक भास्कर में छपी) 


शुक्रवार, 23 मार्च 2012

ग़रीब की गरिमा



जब वे प्लैटफ़ार्म पर दाख़िल हुए गाड़ी छूटने में तब भी चालीस मिनट थे।। उनके हलके-फुलके सामान के लिए कुली लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। दो दिन का कार्यक्रम था- शादी में शामिल होके बस अगले दिन वापसी। ए-वन डब्बा सबसे आख़िर में था। जीवन में पहली बार वे पहले दर्ज़े में सफ़र करने का आनन्द लेने जा रहे थे। अजय अपना वर्ग और अपनी औक़ात जानता है। पर कुछ सौ रुपये के फ़र्क़ से अगर आपका वर्ग बदल सकता है तो अजय एक बारगी यह क़ीमत देने को तैयार हो गया। और वर्गों के पार यह छलांग मार दी। अजय और शांति आराम से अपनी ट्रालियां खींचते हुए गाड़ी के अन्त की ओर चल पड़े। दूर से उन्हे गाड़ी के आख़िर में एक लम्बी मानव श्रंखला दिखाई दी। एक-दूसरे की देह में चपक जाने तक की निकटता वाली श्रंखला, सबसे निचले दर्ज़े में बैठने की जगह पा जाने के लिए लगाई गई लाइन थी। हाथ में और कंधे पर कई आकार और प्रकार के बैग थामे और लटकाए अलग-अलग उम्र के मर्द, बच्चे और औरतें थे। बैठने की जगह या सिर्फ़ खड़े हो जाने की जगह पा जाने के संघर्ष से जिनके चेहरे तनाव से आड़े-तिरछे खिंचे हुए थे। आर पी एफ़ के कुछ सिपाही उनके उस संघर्ष के उग्र और हिंसक होड़ में बदल जाने से रोकने के लिए रह-रह कर अपने डंडे को और गले के सुर को उठा रहे थे। ऐसा नहीं था कि शांति ने पहले ऐसी क़तारें नहीं देखीं थीं। पर पहला दर्ज़ा और जनरल डब्बा इस तरह एक दूसरे से सटा होता है यह देखकर उसे एक अजब से हैरत हुई जिसमें कहीं कोई अपराध भावना भी छिपी हुई थी। कोई पहले दर्ज़े का यात्री सबसे निचले दर्ज़े की ठसाठस तक़लीफ़ों को नज़रअंदाज़ कर सकता था। और जनरल डब्बे में कशमकश करने वाला सवार भावनाओं की किन तंग गलियों से गुज़रता होगा- यह शांति सोचती ही रही। 

पहले दर्ज़े के कम्पार्टमेन्ट में साइड की बर्थ नहीं होतीं। उनकी जगह खिड़कियों से लगा हुआ एक गलियारा होता है और शेष जगह में चार-चार बर्थ के कूपे। कूपे के भीतर बैठने-लेटने के लिए जो बर्थ थीं वो थी टियर और टू टियर से कहीं ज़्यादा चौड़ी थीं। उनके ऊपर बढ़िया गहरे लाल रंग की टेपेस्ट्री लगी थी। बर्थ के तरफ़ तो खिड़की थी और दूसरी तरफ़ छोटा-मोटा सामान रखा जा सकने लायक़ एक फ़ुट चौड़ी साइडटेबल थी। इतना ही नहीं उन के ऊपर सूट टांगने के लिए एक आलमारी भी थी। शांति को उसे देखकर बार-बार किसी लाल मुँह वाले अंग्रेज़ की याद आती रही जिसका सूट टाँगने के लिए उस आलमारी का विधान बनाया गया होगा। कुल मिलाकर चार लोगों के रईस परिवार के सफ़र को सुकूनसाज़ बनाने का पूरा इंतज़ाम था। यहाँ तक कि कोच परिचालक को फ़ौरन तलब करने के लिए हर बर्थ के पास घंटी भी लगी हुई थी। हालांकि कुछ समय मे ही शांति ने समझ लिया कि वो भी अंग्रेज़ो के ज़माने का अवशेष है। तब गोरे साहब के लिए हिन्दुस्तानी अटेंडेंट दौड़ा चला आता होगा- अब वो नहीं आता। या शायद किसी एमपी-एमएलए या किसी बड़े अफ़सर के कोच में उपस्थित होने पर अब भी आता हो। वैसे भी पहले दर्ज़े की रेलयात्रा जिस तरह शांति और अजय के लिए अपवाद थी शायद वे भी पहले दर्ज़े के उस कोच के लिए अपवाद थे। 

रात भर का सफ़र था। अटेंडेंट कम्बल-चादर आके दे गया। बाहर हलकी ठण्ड थी। मगर डब्बे के भीतर उससे भी ज़्यादा ठण्ड थी। इसके बावजूद शांति के सहयात्री बार-बार शिकायत करते रहे- "ठण्डा नहीं हो रहा.. पसीना आ रहा है.. और बढ़ाओ.. !" शांति हैरत से उन्हे देखती ही रह गई। क्या रहस्य था उनकी गर्मी का? बुरी तरह कुड़कुड़ाए बिना क्या उनका पैसा वसूल नहीं होने वाला था? वो कुछ कहना चाहती थी पर अजय ने उसका हाथ दबा दिया। 

रात को शांति की जब नींद खुली तो गाड़ी खड़ी हुई थी। कोई स्टेशन आया था। पांच बज रहे थे। शांति चाय की तलाश में उठकर बाहर तक गई। दरवाज़ा खोलते-खोलते ही चायवालों की आवाज़ आनी शुरु हो गई। बाहर झांक कर देखा तो उसके डब्बे के सामने कोई नहीं था। सारे चायवाले जनरल डब्बे की खिड़कियों के आगे मंडला रहे थे। मगर वे सारे जनरल डब्बे के दरवाज़े पर लगी भीड़ से बुरी तरह आच्छादित थे। चढ़ने वालों के बीच गज़ब की जद्दोजहद चल रही थी। वहाँ कोई पुलिस वाला भी नहीं था। डब्बे में दाख़िल होने के लिए धक्कामुक्की ही एकमात्र योग्यता साबित हो रही थी। और अपनी योग्यता का परिचय देने में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था। गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। शांति को उस प्रभात वेला में चाय मिलने की उम्मीद ख़तम होती नज़र आनी चाहिये थी। पर उसे उस भीड़ में अधिकतर की अपने गंतव्य में पहुँच पाने की उम्मीद डूबती नज़र आई। भीड़ के एकदम अंत के एक अधेड़ दम्पति ऊहापोह में पहले दर्ज़े के दरवाज़े की ओर चले आए। मगर कोच के ज़ीने पर पैर रखने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। न जाने किस ख़्याल में शांति दरवाज़े से पीछे हट गई। शांति के इस मुद्रा को उन्होने एक इशारा समझा और चढ़ गए। और डब्बे  के एक कोने में अनाधिकार भाव से खड़े हो गए और किसी अनजान शिकायतकर्ता से बुदबुदाकर कहने लगे- आगे उतर जाएंगे। शांति वहाँ खड़े होने भर में असहज अनुभव करने लगी। वो अपनी बर्थ पर लौट गई और लेट गई। उसे नींद नहीं आई। थोड़ी देर में कुछ आवाज़े आईं। उठकर बाहर गई तो पता चला कि उस दमपति को अटेंडेंट ने लगभग धकेल कर गाड़ी के भीतर चलता कर दिया। किसी और कोच की तरफ़। 

 क़ानूनन ग़लती उस दम्पति की थी। वे पहले दर्ज़े में चढ़ने के अधिकारी नहीं थे। पर क्या इस ग़लती में सरकार की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं थी? आम आदमी न तो ऊँचे दर्ज़े का किराया वहन कर सकता है और न ही अपनी यात्राओं को पहले से योजनाबद्ध कर सकने का नियंत्रण अपने जीवन पर रखता है- तो क्या सरकार उसे जनरल दर्ज़े में मुर्ग़ियों की तरह भरने के लिए अभिशप्त बनाए रखेगी। अभी तो उनजानवरों के 'एनीमल राइट्स' की बातें उठने लगीं हैं। जनरल डब्बे में सफ़र करने वाले आदमी के 'ह्यूमन राइट्स' का कोई मसला बनता है क्या? या उसे अपनी गरिमा के साथ सफ़र करने का कोई हक़ नहीं? या तो वो एक लम्बी लड़ाई के बाद आलू-प्याज़ की तरह जनरल डब्बे की बोरी में बंद हो जाए- जहाँ पेशाब करने के बाथरूम तक सफ़र भी एक बड़ा संघर्ष है- और या फिर किसी ऊँचे दर्ज़े के अटेंडेंट के हाथों अपने सम्मान का सौदा करे। और न जाने क्यों शांति को यक़ीन है कि ये सिर्फ़ सरकार के पास पैसों की तंगी और रेलवे के ठसाठस भरे टाइमटेबल का मसला नहीं है। इस हालात के पीछे काली खाल में गोरी आत्मा वाले शासक वर्ग की आम आदमी के प्रति एक गहरी उदासीनता और उपेक्षा की भावना है।  

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(20 फ़रवरी को दैनिक भास्कर में छपी) 

सोमवार, 19 मार्च 2012

भूतपूर्व विद्रोही



बहुत सारे आंकड़ों के बीच सर खपाते हुए शांति ने बजते हुए फ़ोन को देखा। उस पर दस नम्बर का एक आंकड़ा था। एक अनजान आंकड़ा। उसे तवज्जो दे- न दे की दुविधा के बीच शांति ने फ़ोन ले ही लिया।  
हलो?
हलो शांति.. मैं रणवीर बोल रहा हूँ.. 
येस? 
अरे भई.. मैं रणवीर सिंह बोल रहा हूँ..
रणवीर सिंह? शांति के ज़ेहन में ये नाम कुलबुलाने लगा। वो तो रणवीर सिंह नाम के एक ही शख़्स को जानती थी। भारतीय क्रांतिकारी दल के नेता रणवीर सिंह! कॉलेज के ज़माने में जो चंद लोग उसके लिए आदर्श हुआ करते थे.. रणवीर भाई का स्थान उनमें कहीं शिखर के नज़दीक़ था। 
रणवीर भाई?! 
..हाँ.. कैसी हो! 
अच्छी हूँ.. आप कैसे हैं रणवीर भाई? 
ठीक हूँ.. तुम्हारे शहर में आया था.. सोचा मुलाक़ात करता चलूँ.. 
रणवीर भाई को उसी शाम लौट जाना था इसलिए शांति ने उन्हे दफ़्तर में ही बुला लिया। उनके आने तक शांति उन्ही के बारे में सोचती रही। उस दौर में समाज में बड़ी उथल-पुथल हो रही थी। रणवीर भाई का दल समाज के आमूल-चूल बदलाव चाहता था और इसके लिए समाज के हाशिए पर पड़े हुए वर्गों की गोलबंदी में यक़ीन रखता था। शहर के मध्यवर्ग में तो उनकी मौजूदगी नाममात्र की थी पर शहर के सारे कॉलेजों के विद्यार्थियों के बीच उनके दल की ज़बरदस्त लोकप्रियता थी। अधिकत कॉलेजों के चुनाव में भारतीय क्रांतिकारी दल के ही प्रत्याशी जीतते थे। और उसका प्रमुख कारण रणवीर भाई थे। उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि जो भी एक बार उनसे मिल लेता, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लम्बा क़द, साँवला रंग, तेजस्वी मुखमुद्रा और अंगारे की तरह चमकती हुई आँखें। उनसे नज़रें मिलाना सूरज से आँखे चार करने से कम नहीं था। और उनसे बात करना जैसे किसी लाइब्रेरी में दाख़िल होना था। सभी क़ायल थे उनकी मेधा के। उनके बारे में मशहूर था कि वे जब चाहें आई ए एस हो जाएं। पर उनकी नैतिक नज़र में उनका निजी हित विराट मानवता के हित के आगे कुछ भी नहीं था। शांति भी उनकी आदर्शवादी राजनीति और सम्मोहक शख़्सियत से बहुत मुतास्सिर रही। उनके दल की सदस्य कभी नहीं बनी पर एक सक्रिय हमदर्द के रूप में जब मौक़ा मिले उनकी गतिविधियों में शामिल होती रही। 

रणवीर भाई ने तीन बजे आने को कहा था। शांति कुछ काम पहले निबटाकर और कुछ काम उनसे मुलाक़ात के बाद के लिए छोड़कर तीन बजे से ही उनका इंतज़ार करने लगी। रणवीर भाई वक़्त के बेहद पाबन्द थे। पर जब चार बजे गए तो शांति को लगा कि शायद वे नहीं आएंगे। और शांति अपने आँकड़ों की दुनिया में लौट गई। 
हलो शांति! 
शांति ने सर उठाकर देखा। पहचान तो लिया कि रणवीर भाई ही थे.. पर काफ़ी बदले हुए से। पहले सी छरहरी काया नहीं थी, पेट निकल आया था। 
रणवीर भाई ..मुझे तो लगा आप अब नहीं आयेंगे.. 
माफ़ करना.. देर हो गई.. 
आइये! बैठिए!! 
गर्मी होने लगी.. थोड़ा पानी पिऊंगा.. 
जी.. ज़रूर!! 
रणवीर भाई की बाल-दाढ़ी भी काफ़ी पक गई थे। दाढ़ी उस दौर में भी होती थी पर कपड़ों की उन्होने कभी परवाह नहीं की। वे अक्सर एक ही जोड़ी पैंट-कमीज़ हफ़्तों डाँटे रहते- वैसी ही गुंजली और मैली। पर उससे उनकी कशिश पर कुछ फ़र्क़ न पड़ता। एक चमक थी तब जो हर देखने वाली को चौंधियाए रहती। शांति ने देखा कि उनके कपड़े धुले और इस्त्री किए हुए थे पर चेहरे की चमक लापता थी। शांति ने डरते-डरते उनकी आँखों की सिम्त नज़र फेरी - वहाँ एक अजब सी धुंधली हताशा और उदासी डेरा डाले थी। ये क्या हो गया रणवीर भाई को? वो आदमी कहाँ है जिसकी आँखों मे देखने से लोग झुलस जाते थे? शांति उनसे पूछना तो बहुत कुछ चाहती थी- आदर्श, व्यवस्था और विप्लव की बाबत -पर न जाने क्यों साहस न कर सकी। जैसे किसी के घाव की ओर देखने से झिझकते हैं लोग..  
कितने सालों बाद देख रही हूँ आप को.. 
एक ज़माना बीत गया.. 
आपने शादी नहीं की.. ?
की तो.. आठ साल हो गए..
अच्छा? किससे? मै जानती हूँ उन्हे?
नहीं आप नहीं जानती.. उनका नाम शैला है..
 क्या करती हैं शैला जी?
आजकल बहुत बीमार रहती हैं.. 
क्या हुआ उन्हे.. 
एक नहीं तमाम बीमारियां है.. पिछले आठ साल में कम से कम तीन साल तो उन्होने अस्पताल के बिस्तर पर बिताए हैं.. 
अरे!!  
.. क्या करें..!?  
तो कैसे मैनेज करते हैं आप.. 
आसान नहीं है.. कुछ दोस्त हैं जो मदद करते हैं.. आप तो जानती हैं बाज़ारीकरण के इस दौर में स्वास्थ्य में कमोडिटी बन चुका है.. और मुफ़लिस को सेहत भी नसीब नहीं..  
ये कहते हुए रणवीर भाई की आँखें और मुरझा गईं। उन्हे इस हालत में देखकर शांति के भीतर कुछ बिलखने सा लगा। देर तक मद्धम सुरों में बात करने और दफ़्तर बंद होने के बाद ही शांति और रणवीर भाई वहाँ से निकले। शांति उन्हे स्टेशन तक छोड़ने गई। और जाने से पहले उनके हाथ में एक चेक थमा दिया- शैला जी के इलाज के लिए। रणवीर भाई ने चेक पर एक निगाह डाली और एक खिसयायी मुस्कराहट के साथ उसे जेब में सरका लिया। लौटते हुए शांति ने सोचा कि जिस आसानी से उसने शैला जी के इलाज के लिए इम्दाद दे दी.. क्या उसी आसानी से रणवीर भाई का भी इलाज मुमकिन है? जिस रोग ने उनकी आँखों की चमक और चेहरे का तेज हर लिया, उसका क्या?  एक क्रांतिकारी का सबसे आकर्षक पहलू होता है जीवन के प्रति उसका सघन और उदात्त नज़रिया। उसके ढह जाने के बाद रणवीर भाई निहायत खोखले नज़र आए थे शांति को। 

घर लौटने के बाद भी रणवीर भाई उसके साथ ही बने रहे..  ढेरों तकलीफ़ देने वाल सवाल छटपटाते रहे उसके भीतर.. रणवीर भाई ऐसे क्यों हो गए? ये उनकी राजनीति का दोष था या उनकी कोई व्यक्तिगत कमज़ोरी थी? या हर आदर्शवादी विद्रोही की यही नियति होती है? क्यों हमारे समाज में आदर्शों पर चलने वाली डगर इतनी कांटो भरी और कठोर होती है..? क्या आम आदमी का जीवन जीते हुए गहरा सामाजिक बदलाव करना मुमकिन है ही नहीं?  क्यों यौवन के कुछ वर्षों के बाद  आदर्शों की डगर चलना नामुमकिन हो जाता है.. या फिर आदर्श सिर्फ़ यौवन का ही शग़ल है? 

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(इस  इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 
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