गुरुवार, 7 जून 2012

रुपया



शांति नहा रही थी। बाहर से अजय की आवाज़ आई- ये क्या है शांति? आवाज़ में बेसब्री थी और हैरानी भी और शायद थोड़ा ग़ुस्सा भी। अन्दर से शांति ने जानना चाहा कि अजय किस चीज़ की बात कर रहा है। मगर उसका जवाब कुछ ऐसा लम्बा, उलझा और चिड़चिड़ाहट से भरा हुआ था कि शांति को कुछ समझ नहीं आया। उसने बाथरूम से बाहर आने तक उस संवाद को मुल्तवी कर दिया। 

अजय बेड पर बैठा बाथरूम के दरवाज़े की ओर देख रहा था जब शांति उस दरवाज़े में आई। अजय ने अपनी नज़रें गद्दे की ओर उचकाई और पूछा- ये क्या है? बेड पर पाँच सौ और हज़ार के नोटों की कुछ गड्डियाँ पड़ी थीं। साथ में एक काग़ज़ का मुचड़ा हुआ लिफ़ाफ़ा भी सुस्ता रहा था। शांति उन गड्डियों को और उस लिफ़ाफ़े को पहचानती थी। वो ठीक-ठीक कितने रुपये थे, शांति नहीं जानती थी। सबसे पहले शांति ने उन्हे अपनी डेस्क पर पड़े देखा था। बाद में वो कुछ देर उसके पर्स में रहे और एक लम्बे समय तक उसके लॉकर में। और इन सन जगहों के अलावा वो शांति के ज़ेहन में भी बने रहे, लगातार। कभी जागते में उनका ख़याल आया और कभी सपनों में विचित्र स्थितियों में वो शांति के सामने उपस्थित होते रहे। 

'कहाँ से आए ये पैसे?' अजय पूछ रहा था। सवाल पाँच शब्दों का ही था मगर उन पाँच शब्दों के वाक्य में और भी दूसरे सवाल छिपे थे जो अजय ने नहीं पूछे; मसलन- क्या ये पैसे हमारे हैं, जो तुमने घर के तमाम खर्चों में से पाई-पाई जोड़कर बचा के रखे और मुझे बताया तक नहीं? या फिर तुम्हारे पास इतने पैसे पड़े हैं और तुमने परसों दस हज़ार के लिए मुझे डेढ़ मील एटीएम तक दौड़ाया क्योंकि अगली सुबह आने वाले मकानमालिक की बात न सुननी पड़े? या फिर कहाँ से आए ये पैसे?  अपना एक घर होने की जो बरसों की तुम्हारी अभिलाषा है, उसे पूरी करने के लिए किससे उधार लिए हैं तुमने ये पैसे? और अगर उधार लिए हैं तो मुझे बताया क्यों नहीं?  

और क्यों न होते इतने सारे सवाल? रुपया चीज़ ही ऐसी है। जितना सरल और समतल दिखता है वैसा है नहीं। रुपया एक ऐसी आभासी शै है जिस के ज़रिये आदमी अपने भौतिक अरमानों का संसार गढ़ता है। रुपये को न खाया जा सकता है, न पहना जा सकता है, न ओढ़ा और बिछाया जा सकता है मगर खाने, पहनने, ओढ़ने, बिछाने से लेकर आकांक्षाओं की सारी सम्भावनाओं अपने भीतर समाए रहता है। 

अपने मूल चरित्र में अरूप होते हुए भी रुपया त्रिआयामी जगत के सारे रूप और गति प्राप्त कर सकता है और यही नहीं काल नामक चौथे आयाम में यात्रा का सामर्थ्य भी रखता है। भूत और वर्तमान के अलावा भविष्यकाल में हाज़िर होने वाला रुपया भी आदमी के भौतिक और आध्यात्मिक तल में गुणात्मक परिवर्तन करने में सक्षम होता है। रुपया रूप बदलता है, और आदमी को भी बदलता है। चाहे जेब में हो चाहे बैंक के खाते में, रुपये की उपस्थिति आदमी का किरदार बदल देती है, चेहरे की चमक बदल देती है।अजय के पूछे और अनपूछे सवाल उन सारे सम्भावित बदलावों की बेचैनी से आक्रान्त थे। लेकिन शांति ने अजय के उन सारे अनपूछे सवालों को किनारे कर दिया- 'असीम के हैं..'  
असीम शांति का चचेरा भाई है जो रहता तो शाहाबाद में है लेकिन अपने काम के सिलसिले में साल छै महीने में उसका एकाध चक्कर इधर लग जाता है। 
असीम के..? अजय का स्वर पहले से बदल गया था। उनमें मौजूद सम्भावनाएं इस बार कहीं दूर पीछे चली गई थीं। 
दो लाख रुपये.. असीम के.. तुम्हारे पास क्या कर रहे हैं? 
दो लाख हैं? शांति ने हैरत व्यक्त की।
क्यों.. तुम्हें नहीं मालूम? 
'मैंने कभी गिने नहीं..!' 

तक़रीबन दो महीने पहले अचानक एक रोज़ असीम शांति के दफ़्तर आ गया। इधर-उधर की बातों के बीच शांति अपना काम भी करती रही। फिर उसका एक फ़ोन आया। और फ़ोन पर बात करते-करते वो कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया और दफ़्तर की तमाम कुर्सियों के बीच इधर से उधर टहलने भी लगा। शांति ने बहुत ध्यान नहीं दिया, वो अपने काम में लौट गई.. दो-तीन मिनट भी ज़ाया करने से क्या फ़ायदा। पर जब वो फ़ोन पर बात ख़त्म करके कुर्सी पर वापस बैठा तो वो कुछ बेचैन और परेशान नज़र आया। शांति ने चाय मँगाई थी, वो आ गई। मगर असीम ने चाय की तरफ़ देखा तक नहीं। वो उठकर खड़ा हो गया और कहा कि कुछ प्राबलम हो गई है उसे जाना होगा। और इतना कहकर उसने शांति के कुछ कहने का इंतज़ार भी नहीं किया और लगभग दौड़ता हुआ सा वहाँ सा चला गया। उसके जाने के काफ़ी बाद शांति जब मेज़ का सामान समेट रही थी, तब उसने देखा उस प्लास्टिक की थैली को। वो शांति की नहीं थी, किसी और की भी नहीं थी।  शांति ने ज़ोर देकर सोचा तो उसे याद आया कि जब असीम आया था तो उसके हाथ में वो थैली थी और उसने वो मेज़ पर रख दी थी। शांति ने खोलकर देखा तो थैली के अन्दर एक काग़ज़ का लिफ़ाफ़ा था और उसके अन्दर से नोटों की कई गड्डियां बेशर्मी से बाहर झांक रही थी। शांति ने तुरंत असीम को फ़ोन किया। कई बार घंटी जाती रही पर असीम ने फ़ोन नहीं लिया। पहले शांति ने सोचा कि दफ़्तर की दराज़ में ही छोड़ दे। उन रुपयों के असली हक़दार के ग़ैर-हाज़िरी में उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी न चाहते हुए भी शांति पर आ पड़ी थी। और इसलिए उस भार को दराज़ में असुरक्षित छोड़ने का विकल्प ठुकरा कर अपने पर्स में डालकर घर तक ले आई। घर आकर भी शांति ने कई बार असीम को फ़ोन मिलाया पर बात नहीं हुई। और जब बात हुई उसके पहले शांति  को उस दिन अचानक असीम के परेशान हो जाने की वजह मालूम चल चुकी थी। असीम के शाहाबाद वाले घर पर सी बी आई वालों ने छापा मारा था। और एक मामूली सरकारी कर्मचारी के घर से करोड़ों की रक़म, ज़ेवर और अचल सम्पत्ति के ब्योरे बरामद किए थे। जब असीम शांति के पास था, छापा ठीक उसी वक़्त मारा गया था। ये जानकारी मिलने के बाद वो रुपये शांति के ज़ेहन में और खलबली मचाने लगे जैसे किसी अपराध में वो भागीदार बन गई हो।  

किसी तरह जब शांति से असीम की बात हुई, तो वो अपने वक़ील के साथ था। और उसने उन रुपयों से बिलकुल कन्नी काटते हुए कहा कि शांति रख ले, और खर्च करना चाहे तो खर्च कर दे। शायद वो सीबीआई द्वारा और माल की बरामदगी से डरा हुआ था। जब शांति उसके प्रस्ताव पर राजी नहीं हुई तो उसने कहा कि वो बाद में कभी ले लेगा। शांति उन रुपयों को अपने पास रखने को क़तई तैयार नहीं थी मगर दे तो किसको दे। असीम की पत्नी दो साल से बच्चों को लेकर अलग रह रही है, वो लेगी भी या नहीं, और उसे देना ठीक होगा कि नहीं- यह सब सोचकर उसने असीम के पिताजी को फ़ोन किया और खुद शाहाबाद आकर रुपये देने की पेशकश की। लेकिन चाचा जी ने असीम की काली कमाई को अपने लिए गुनाह बताया और लेने से इंकार कर दिया। तब से असीम के वो अनगिने रुपये जिन्हे अजय ने गिनकर दो लाख बताया, शांति के लॉकर में उसे मुचड़े लिफ़ाफ़े में पड़े रहे, अचल। हालांकि शांति के मन को वो लगातार विचलित करते रहे। 
तुमने मुझे क्यों नहीं बताया- शांति के पूरे बयान को सुनने के बाद अजय ने पूछा। 
'देखो अजय.. ये रुपये हैं.. और बहुत सारे रुपये हैं.. एक तरह के लावारिस रुपये.. मैं इन्हे वापस लौटाने के लिए बेचैन हूँ.. क्योंकि कहीं न कहीं मेरे भीतर एक लोभ है.. मैं तो उस से लड़ ही रही थी.. नहीं चाहती थी कि तुम भी.. '  

अजय ने कुछ नहीं कहा। उसने नज़र घुमा के देखा, दो लाख रुपये अपनी पूरी बेशर्मी के साथ बिस्तर पर पड़े हुए थे। अजय और उनके बीच एक अदृश्य डोरी थी जिसके एक सिरे पर ईमान था तो दूसरे पर लोभ। 

*** 

(दैनिक भास्कर में छपी.. शायद पिछले हफ़्ते)

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