बुधवार, 30 अप्रैल 2008

सेक्स और वायलेन्स

कभी सोचा आप ने क्यों इन दो शब्दों का साथ में इस्तेमाल होता है हमेशा? मनोवैज्ञानिक, फ़िल्ममेकर्स और रॉकस्टार्स हों या कोई और इन दो वृत्तियों के इर्द—गिर्द ही घूमते हैं। जहाँ सेक्स आता है वहाँ वायलेंस भी घुसा चाहता है और वायलेंस को तो सेक्स चाहिये ही। ऐसा लगता है कि ये दोनों जोड़ीदार हों जैसे। जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। वायलेंस जहाँ मृत्युकामी है वहाँ सेक्स जीवनोन्मुखी है (असल में मृत्युकामी कहना विरोधाभास है.. क्योंकि काम का एक अर्थ स्वयं सेक्स है। काम का मूल अर्थ इच्छा है) तो कहना चाहिये कि वायलेंस मृत्योन्मुखी है और सेक्स जीवनोन्मुखी।

अब ये बात अलग है कि हमारे समाज में सेक्स को इतना लतिया दिया गया है कि उसके स्मरण मात्र से किसी भी नैतिक मनुष्य के मन में ग्लानिभाव पसीज जाता है। पर सेक्स या कामभाव जीवन की रचना का पूर्वगामी है। इसी बात को अलग तरह से कहें कि जीवन के प्रति मनुष्य (या फिर किसी भी जीव) की आस्था सेक्स के ज़रिये भी अभिव्यक्त होती है।

मगर फिर भी ये सेक्स वायलेंस के साथ वैसे ही जुड़े रहता है जैसे प्रकाश के साथ अँधेरा जुड़ा रहता है। मैंने अक्सर पाया है कि मृत्यु से बेहद घबराए लोग सेक्स की गोद में जा गिरते हैं। गाँधीजी ने जो अपनी आत्म कथा में लिखा है वो कोई अपवाद नहीं है – वे अपनी पिता के मृत्यु के ठीक पहले अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहे थे। मैं नहीं जानता कि गाँधी जी ने ‘शुद्ध वासना’ में ऐसा किया या मृत्यीले अँधेरे से घबरा कर? पर मैं कई दूसरे ऐसे लोगों को जानता हूँ जिन्होने ऐसा सिर्फ़ जीवन को कस कर पकड़ने की चेष्टा में किया होगा। वैसे ‘शुद्ध वासना’ भी जीवन के प्रति एक लोभ से अधिक और क्या है?

सेक्स और वायलेंस का सबसे भयंकर रूप हमें युद्ध में सुनने को मिलता है। मनुष्य जाति का इतिहास जीतती हुई सेना के हिंसा के ताण्डव के बाद हारे हुए लोगों की स्त्रियों के साथ बलात्कार का इतिहास है। मृत्योत्सव में लिप्त सिपाही भी जीवन को पकड़े रखना चाहता है.. और अपनी इस पकड़ को वो मारे गए सिपाहियों की स्त्रियों पर आरोपित करता है। बिना यह विचारे कि वह स्त्री भी क्या जीवन की रचना में उसका सहयोग करना चाहती है या नहीं? वह सिर्फ़ पशुवृत्ति से संचालित होता है।

विडम्बना यह है कि प्रकृति भी उन स्त्रियों की असहमति की पूरी तरह से अनदेखी करती है और जीवन रचने को तैयार रहती है। क्योंकि अधिकतर स्तनपायी पशुओं में तो अक्सर इस तरह की हिंसा के बाद ही सहवास सम्भव होता है।

अगर इस दृष्टि से देखें तो हिंसा भी जीवन की कामना के सहयोगी-वृत्ति के रूप में काम कर रही है.. और महज़ प्रतिद्वन्द्वी को हटाने के लिए ही मूलरूप से अभिव्यक्त हो रही है।

तो फिर क्या हिंसा को मृत्युकामी कहना ठीक ही है?

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

असली अश्लील कौन है?


आई पी एल चीयरलीडर्स मामले से ये एक बार फिर से सिद्ध हो गया है कि समरथ को नहि दोस गुसाईं.. आप के पास पैसा हो ताक़त हो, सत्ता हो तो आप कुछ भी कर सकते हैं। ये वही आर.आर पाटिल हैं जो बार बालाओं के विरुद्ध तब तक अभियान चलाते रहे जब तक कि उनकी रोजी-रोटी का एकमात्र ज़रिया शुद्ध वेश्यावृत्ति नहीं रह गया। बार में काम करते हुए कम से कम उनके पास अपनी मोटी कमाई के चलते ये विकल्प था कि वे अपने धंधे की सीमाओं को खुद तय कर सकें। अब उनको अपने आप को बेचने के लिए दल्लों को सहारा लेना पड़ रहा होगा और वह भी छिप-छिपा के। पर पाटिल साब के लिए समाज अब बार-बालाओं के आक्रमण से सुरक्षित है और प्रदेश की जनता स्टेडियम में नैनसुख लेने की लिए आज़ाद!

खबर है कि कल पाटिल साब, जो शरद पवार की पार्टी के ही एक सिपाही हैं, ने चीयरलीडर्स का मुआइना किया और उस में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया और कहा कि उन्होने प्रदेश में बार में नाच पर रोक लगाई है नाच पर नहीं। पाटिल साब की मुख्य चिंता शराब और शबाब के मिलन के है.. उनका मानना है कि शराब पियो.. क़ानूनी है.. शबाब का सेवन अलग से करो.. कहीं न मिले तो टी.वी खोल के आई.पी.एल. देखो.. सब क़ानूनी है.. पर एक साथ.. नो सन नो.. दैट्स इल्लीगल.. !

आगे कहते हैं कि बार में नाच के दौरान मनोरंजन के नाम पर आपराधिक गतिविधियों चल रही थीं.. अरे तो भाई अपराधियों को सजा देते..उन पर रोक लगाते मगर आप ने तो बेचारी लड़कियों की नौकरी ले ली! ये तो वही बात हुई कि बलात्कार के बाद आप सारा दोष लड़की के सर डाल दें कि उसी ने उकसाया होगा। और वैसे सबसे ज़्यादा आपराधिक गतिविधियाँ तो राजनेताओं के आस-पास चलती हैं.. उनके बारे में क्या ख्याल है? हैं?

साथ ही साथ इन चीयरलीडर्स की वार्डरोब और डान्स स्टेप की भी जाँच की गई और उस में कुछ भी अश्लील नहीं पाया गया। लेकिन ये पुछ्ल्ला भी जोड़ा गया कि अगर कभी वार्डरोब मैलफ़ंक्शन हुआ तो खैर नहीं। वार्डरोब..? अजी साहब.. उन नन्ही-नन्ही पट्टियों में मैलफ़ंक्शन के लिए बचा ही क्या है?

पर निजी तौर पर मुझे न तो बार-बालाओं से कोई तक़लीफ़ थी और न इन चीयरलीडर्स से कोई परेशानी है.. जिसे देखना हो देखे.. न देखना हो न देखे..। मुझे चीयरलीडर्स के आई पी एल में काम करने से भी कोई परहेज़ नहीं.. पर बार बालाओं के रोज़गार छिन जाने का दुख है। मुझे एक बार बार-बालाओं का नाच देखने का अवसर मिला है.. उसमें मुझे कुछ ऐसा विशेष अश्लील नज़र नहीं आया जो हिन्दी फ़िल्मों और टीवी पर नज़र नहीं आता।

इसी तरह से मुझे चीयरलीडर्स में भी अपने आप में कुछ विशेष अश्लील नहीं दिखता.. लेकिन जब मैं शरद पवार को देखता हूँ और मुझे याद आता है कि ये आदमी इस देश का कृषि मंत्री है.. तो मुझे वो सारे किसान याद आ जाते हैं जो देश की पूरी कृषि नीति बड़े कॉरपोरेशन्स को बेच देने के चलते इतने बेउम्मीद हो चुके हैं कि बीस-पचीस हज़ार की मामूली रक़मों के लिए अपनी जान दे रहे हैं।

क्योंकि जो बीज पहले सात रुपये किलो बिकते थे वो अब सात सौ रुपये किलो में भी नहीं मिलते और इसके अलावा पेस्टीसाइड और फ़र्टीलाइज़र का खरच अलग से। ये सब कॉरपोरेशन्स की मेहरबानी से! इस देश के निवासियों का पेट पालने वाला किसान अब अनाज का उत्पादक नहीं रहा वो बीज, खाद, कीटनाशक का उपभोक्ता बन गया है। और अभी तो षडयंत्र जारी है कि उसे उसकी ज़मीन से पूरी तरह बेदखल कर के शहर का विस्थापित मज़दूर बना दिया जाय।


ये सब याद आने पर मुझे शरद पवार समेत आई पी एल का ये पूरा आयोजन बेहद अश्लील लगने लगता है।




शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

क्या भांग ही सोमरस है?

कल भाई विजयशंकर ने भांग पर एक रोचक पोस्ट दर्ज की.. उस से मुझे सोमरस की याद हो आई। वेदों में सोमरस यज्ञ के विशेष आकर्षण के बतौर आता है। इन्द्र को बुलाया जाता है कि आएं और सोमरस पान करें। ज़ाहिरन सोमरस वैदिक जनों के पास एक ऐसा माल था जो उनके लिए सबसे अधिक लुभावना था। उसकी बड़ी महिमा है.. पर अफ़सोस की बात यह है कि कालान्तर में सोमरस का अर्थ लोग भूल गए।

हाल के प्रगतिशील इतिहासकारों ने सोमरस का अर्थ भांग बताया है। इन इतिहासकारों के अलावा ओशो ने इसे भंग जैसा ही कुछ और मूर्धन्य कवि-कथाकार उदय प्रकाश तो भांग ही बताया है। ओशो के विचार तो यहाँ उपलब्ध हैं और उदय जी ने कृषि के इतिहास पर एक टी.वी. सीरीज़ की थी उस में यह निष्कर्ष उन्होने पेश किया था।

मेरी दुविधा यह है कि यदि भांग ही वह सोमरस है तो भांग के इतने पर्यायवाचियों में सोमरस का नाम क्यों नहीं? क्यों भांग पीने वाले कभी उसे कई नामों से बुलाने के बावजूद उसे सोमरस नहीं पुकारते.. वो भी तब जबकि उसे साफ़-साफ़ शिवजी की बूटी कहा जाता है। और सोमरस और शिवजी की बूटी में कितना अन्तर है भला? शिवजी का दिन सोमवार ही है.. और चन्द्रमा भी उनके सर पर विराजमान है.. फिर भी कोई भंगेड़ी हमें नहीं बताता कि सोमरस असल में भांग है। कौन बताता है- पश्चिमी विद्वान, प्रगतिशील इतिहासकार और धर्मनिरपेक्ष कवि और चिन्तक?

क्यों भाई.. भांग पीना यदि वैदिक काल से चला आ रहा है तो परम्परा में ऐसा कौन सा अवरोध आ गया कि लोग भूल ही गए कि सोमरस ही भांग है? भांग पीना चालू है.. वेदों का पढ़ना चालू है.. शिव की भक्ति चालू है.. शब्दों की व्युत्पत्ति का शग़ल चालू है.. फिर भी सोमरस का अर्थ बिला जाता है.. जबकि भंग के अनेकों पर्यायवाची बने रहते हैं.. विजय जी ने अपनी पोस्ट में भंग के ये पर्याय बताए हैं-

अजया, विजया, त्रिलोक्य, मातुलि, मोहिनी, शिवप्रिया, उन्मत्तिनी, कामाग्नि, शिवा आदि। बांग्ला में इसे सिद्धि कहते हैं. अरबी में किन्नव, तमिल में भंगी, तेलुलू में वांगे याकू गंज केटू और लैटिन में इसको कैनाबिस सबोपा कहते हैं.

मेरे तर्क से सोमरस भंग नहीं हो सकता। अब सवाल यह उठता है कि यदि भंग सोमरस नहीं है तो फिर सोमरस क्या था? देखते हैं.. यहाँ दो शब्द हैं.. सोम और रस.. रस का अर्थ है सार, तरल द्रव या दूध.. यानी किसी वस्तु का निचोड़ या उसका सारतत्व.. जैसे हम घर में जो तरकारी पकाते हैं उसके रस को रसा कहते हैं.. वैसे रस का एक अर्थ स्वाद भी है.. जिस से जीभ को उसका एक पर्याय मिलता है रसना। अब दूसरे शब्द सोम का विचार किया जाय.. सोम का अर्थ क्या है?

हलायुध कोष में सोम के अर्थ दिये हैं – चन्द्र, कर्पूर, वानर, कुबेर, यम वायु, जल और सोमलतौषिधि..। मोनियर विलियम्स मे सोम के अर्थ के सामने लिखा है- juice, extract, juice of soma plant, the soma plant itself (said to be the climbing plant of sarcostema viminalis or asclepias acida)

इसके आगे सोमरस बनाने की जो विधि वेदों में मिलती है उसे भी उद्धृत किया गया है – the stalks of which were pressed between stones by the priests then sprinkled with water and purified in a strainer, whence the acidic juice trinkled into jars or large vessels after which it was mixed with clarified butter, flour etc., made to derment and offered in libitious to the gods.. or drunk by the brahamanas..

इस के और आगे सोम के दूसरे अर्थ भी दिए हैं जिस में अन्य अर्थों के अलावा चावल का पानी भी दिया है। आप्टे जी के कोष में भी लगभग यही अर्थ हैं बस फ़र्क इतना है कि सोम को पौधा बताया गया है.. जबकि हलायुध कोष में चरक के हवाले से उसे लता बताया है..। आप्टे का कोष बहुत हद तक अर्थों के लिए मोनियर विलियम्स पर ही निर्भर रहता है.. और मोनियर विलियम्स ने बिना किसी हवाले के उसे प्लान्ट कहा है. फिर बाद में climbing plant..कहा है। निश्चित तौर पर हलायुध कोष ही अधिक प्राचीन और प्रामाणिक अर्थ बता रहा है।

जिन लोगों ने भांग का पौधा देखा है उन्हे बताने की ज़रूरत नहीं पर जिन्होने नहीं देखा वे ये जान लें कि भांग का पौधा कोई लता नहीं होता.. वो एक स्वतंत्र जंगली पौधा है जो अपने उगने के लिए किसी का भी सहारा नहीं लेता। अच्छे हवा-पानी मिलने पर आठ-दस फ़ीट तक भी हो जाता है.. मैंने खुद देखा है इतना बड़ा भांग का पेड़। अब ये मान लेना कि वैदिक लोग लता और पौधे में अन्तर नहीं जानते थे.. और कभी-कभी लता का अर्थ पौधे से भी करते थे.. निहायत बेवकूफ़ी होगी।

चलते-चलते यह भी विचारणीय है कि वैदिक लोग अग्निपूजक थे। आग की खोज के साथ ही मनुष्य ने खाने को पका कर खाने की तरक़ीब भी निकाली। उसके पहले मांस और फल- सब्ज़ियाँ कच्चे ही खाए जाते रहे होंगे। वैदिक यज्ञ में न सिर्फ़ पशुओं की बलि दी जाती थी बल्कि अनाज भी अर्पित किया जाता था। और ये यज्ञ आग के सामने होता था.. क्या ये यज्ञ एक खाना पकाने का वृहद अनुष्ठान ही तो नहीं है जिसमें सब्ज़ियों का रस ही सोम रस है? उल्लेखनीय है कि ज्योतिष में सब्ज़ियों पर सोम यानी चन्द्रमा का अधिकार है।

रही बात उसके मादक प्रभाव की.. तो क्या खाने का नशा नहीं होता..? जो लोग सोचते हैं कि सिर्फ़ भांग और शराब में नशा होता है तो उन्हे कभी तगड़ी भूख का एहसास नहीं हुआ है। फिर भी मैं इस सम्भावना से बिलकुल इन्कार नहीं करता कि सोम कोई ऐसी लता थी जिसका एक ओजस्वी और मादक प्रभाव होता था.. पर वो भांग ही है यह स्वीकारने में मुझे परहेज़ है क्योंकि ऐसा निष्कर्ष मुझे बचकाना लगता है।

एक और बात जो पूरी तरह सम्बन्धित नहीं तो विषयान्तर भी नहीं है- शरदपूर्णिमा को खीर को चाँदनीरात में रख कर अगले रोज़ खाने का रिवाज़ आज भी जारी है क्योंकि माना जाता है उस रात अमृत बरसता है (सोम का एक अर्थ अमृत भी है)।

और ये भी याद कर लिया जाय कि इसी शरदपूर्णिमा की रात को कृष्ण ने ब्रज में महारास रचाया था। कृष्ण जो सोलह कलाओं के स्वामी थे। सोलह कलाएं.. कौन सी सोलह कलाएं? राम तो सिर्फ़ बारह कलाओं के स्वामी थे.. पर कृष्ण सोलह के कैसे हो गए? राम सूर्यप्रधान थे और सूर्य की बारह कलाएं ही होती हैं.. आकाश में बारह राशियों में उसके भ्रमण से बने बारह मास। और कृष्ण चन्द्रमाप्रधान थे.. इसलिए उनकी चन्द्रमा की सोलह कलाएं.. प्रथमा से पूर्णमासी तक पन्द्रह और एक अमावस्या।

सोम के इतने विविध अर्थों के बीच आपको एक भांग का ही अर्थ मिला.. वो भी थोपा हुआ। पर मज़े की बात यह है कि किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति से पूछिये वो सोमरस का अर्थ आपको भांग ही बताएगा। क्यों? जैसे किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति से पूछिये वो आर्य सत्य की तरह बताएगा कि सिन्धु घाटी सभ्यता को आर्य आक्रमणकारियों(!?) ने नष्ट किया। कहाँ से आ रहे हैं ये सत्य.. बिना आधार.. बिना प्रमाण के सत्य? रैशनैल्टी की क़समें खाने वाले कैसे इन झूठों पर आँख मूँद कर भरोसा करते जाते हैं?

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

ओशो इन्टरनेशनल मेडीटेशन रिसार्ट

रजनीश मुझे काफ़ी पहले से अच्छे लगते रहे हैं. उनके गुरुआई का मैं क़ायल रहा हूँ। नाक सीधे पकड़नी हो या घुमा के.. वो दोनों तरह से पकड़ने की महिमा गा कर आप को चकाचौंध कर सकने की प्रतिभा रखने वाले गुरु थे। कबीर को कबीर बन कर और नानक को नानक बनकर समझा सकने वाले गुरु रहे वो। बहुत ही पहुंचे हुए आदमी थे।

ये गोरी चमड़ी वाले लोग, जिन्होने डेढ़ सौ बरस राज किया हमारे ऊपर, को ओशो, अंग्रेज़ी के अपने निहायत देसी उच्चारण के बावजूद कुत्ता बनाकर रखते थे। इसे गाली न समझा जाय! कुत्ता जैसे स्वामी के आगे पीछे भक्ति भाव से डोलता है.. वैसे ही ये गोरे भी डोलते रहे।

अमरीका जा के भी डंका बजा आये थे.. पर जाने क्या साउंड बैरियर तोड़ दिया कि अमरीका वालो ने इनको टिकने ही नहीं दिया। कुछ लोगों का आरोप है कि वहाँ कि क्रिश्चियन लॉबी को इनका ‘नैतिक भ्रंश’ रास नहीं आया। कुछ लोगों का कहना है कि अमरीका से उनके निकाले जाने के पीछे अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और उनके पीछे पोप का दुराग्रह था। और वो सिर्फ़ अमरीका ही से नहीं निकाले गए.. पूरी दुनिया में वो जहाँ-जहाँ गए उन्हे विरोध का सामना करना पड़ा।

अमरीका से निकलने के बाद ओशो ने दुनिया की सैर करने का मन बनाया पर ग्रीस, स्वीडन, इंगलैंड, आयरलैंड, स्पेन, स्विटज़रलैंड, सेनेगल, उरुग्वे कहीं भी उन्हे जमने नहीं दिया गया। कुल मिलाकर सत्रह देशों से खदेड़े गए और कई जगह तो एयरपोर्ट से ही वापस लौटा दिया गया.. जैसे वो कोई प्लेग की बीमारी हों! ध्यान दिया जाय इन देशों में से कोई भी ‘मुस्लिम’ देश नहीं था.. लगभग सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश थे।

पहले तो ओरेगॉन की बिग मडी रान्च में बसे रजनीशपुरम को अवैध घोषित किया गया क्योंकि वहाँ धर्म को राज्य के साथ मिलाया जा रहा है.. ये वो देश कह रहा था जिसकी करेन्सी - हर डॉलर पर छपा रहता है – इन गॉड वी ट्रस्ट! हद है!

इस घटना के बाद जब ओशो की सचिव माँ आनन्द शीला के खिलाफ़ एक हत्या का मामला सामने आया तो पुलिस ने जाँच के बहाने ओशो को गिरफ़्तार करके बारह दिन तक अमरीका की छै जेलों की सैर कराई। उनके ऊपर तमाम क़ानूनों के अन्तर्गत चौंतीस केस बनाए गए.. और ये सब अवैध तरीके से। ओशो ने बिना प्रतिवाद किए अमरीका छोड़ देने का फ़ैसला किया। अमरीकी लोकतंत्र से उनकी आस्था उठ चुकी थी। उन्हे विश्वास हो चला था कि अमरीका ऐसे अपराधियों का देश है जो आज़ादी का मन्त्र का जाप करते हैं।

अमरीका जाने से पहले ओशो ने अपनी बेबाक ज़बान में भारत तथा उसकी संस्कृति को काफ़ी गरियाया था। क्योंकि पुणे में उनके आश्रम के खुले वातावरण और रजनीश के उकसाने वाले वक्तव्यों के चलते धार्मिक कट्टरपंथी उनसे खासे खफ़ा थे। पुणे में एक सभा के दौरान उन पर एक व्यक्ति ने चाकू से हमला भी किया। सरकार ने उनके आश्रम में आने वाले विदेशी भक्तों के ऊपर रोक-टोक लगाना शुरु कर दिया और आश्रम के ऊपर भी कुछ क़ानूनी दाँव-पेंच निकाले।
जिस से खफ़ा होकर ओशो ने दुनिया के ‘सबसे सुनहरे’ देश अमरीका की ओर रुख किया। पर वहाँ जो हाल हुआ उसने उनका दिल ही नहीं तोड़ दिया- बाद में उनके डॉक्टर ने भी ये भी आशंका व्यक्त की वहाँ पर दिए गए ज़हर ने ही उनकी जान ले ली। पर विडम्बना यह है कि आखिरकार ओशो को पुणे की धार्मिक संकीर्णता ने ही शरण दी। जिस को गरिया कर भागकर वो पश्चिम के खुलेपन में अपना आश्रम बनाने गए थे.. पर नहीं बना सके।

बताइये! ओशो की ही तरह हमारा पढ़ा-लिखा अंग्रेजी तबका अपने ऐसे देसी देशवासियों को दकियानूसी, पोंगापंथी और न जाने क्या-क्या बताता है.. और अमरीकी संस्कारों में नित नए रूपों में ढला जाता है। पर वो दकियानूसी-पोंगापंथी रजनीश को पचा जाता है.. पर अमरीकी लिबरलिज़्म अपने समाज की सहज नैतिकता का एक धार्मिक आवरण नहीं स्वीकार पाता। क्या पाखण्ड है भाई अमरीकी समाज का!

यहाँ यह याद दिला देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि रामकथा बखानने वाले मुरारी बापू भी ओशो का श्रद्धा के साथ स्मरण करते हैं और उन्हे महात्मा मानते हैं। साथ ही साथ यहाँ यह भी याद करा दूँ कि इस बात को किन्ही रामभक्तों की शुद्ध आपराधिक साम्प्रदायिकता का अनुमोदन न समझा जाय! वो हमारे समाज का एक अपना फोड़ा है।

खैर.. रजनीश उर्फ़ ओशो तो निकल लिए.. पर चेले छोड़ गए पुणे में। चेलों में काफ़ी उठापटक भी चलती रही काफ़ी बाद तक। पर यहाँ का जो आश्रम है.. वो अब आश्रम नहीं रिसार्ट है- ओशो इन्टरनेशनल मेडीटेशन रिसार्ट। पहले तो इतना नहीं खटका पर जब साइलेंट टुअर के हिस्से के बतौर हमें जो आधे घंटे की वीडियो फ़िल्म दिखाई गई, उसे देखकर हमें समझ आ गया कि जन्नत की हक़ीक़त क्या है।

यह फ़िल्म एक ऐसे दर्शक को सम्बोधित थी जो इंडिया के बारे में कुछ नहीं जानता। उसका जहाज मुम्बई पर लैंड करता है वहाँ से डेकन एक्सप्रेस पकड़कर वो लोनवला की मिस्टीरियस पहाड़ियों को देखता हुआ पूना आ जाता है, जहाँ पर ऒशो रिसार्ट है। फ़िल्म आगे बताती है इस दर्शकों को कि इस रिसार्ट में क्या क्या गतिविधियां होती हैं और कुछ ऐसे लोगों के अनुभव बाते जाते हैं जो इस सुविधा का लाभ ले चुके हैं। फ़िल्म में दिखाई देने वाले ये चार-पाँच चेहरे सभी गोरी चमड़ी वाले हैं जो दिन में तो भूरे रंग की आध्यात्मिकता के लबादे पहन कर इधर-उधर डोलते रहते हैं पर रात में शराब और शबाब की रंगीनियों में खो जाते हैं।

दिन में समाधि और रात में सम्भोग। समझ नहीं आता कि ये लोग सम्भोग से समाधि की ओर जा रहे हैं या समाधि से सम्भोग की ओर। या फिर सम्भोग और समाधि के सतत चक्र में हैं.. भैया जहाँ तक हम जानते हैं.. जब भगवान श्री रजनीश ने ‘स से स की ओ’ लिखी थी तो उनका मतलब था कि स से चल कर स तक पहुँचना है.. ये थोड़ी कहा था कि वापस स पर लौट आना है। एक ही न ऊर्जा है! उसे आप स में खर्च कर देंगे तो स के लिए क्या बचेगा? और ये बात कोई रजनीश कोई ओशो अपने मूलाधार से निकाल के थोड़ी लाए थे? पूरी भारतीय धर्म की परम्परा इसी तथ्य पर आधारित है।

खैर छोड़िये इस बात को… हमें बस ओशो रिसार्ट जा कर एक बात का एहसास हुआ कि गोरा आदमी भले ही व्यक्तिगत तौर पर काले और भूरे आदमी को अपने से हीन न समझता हो या व्यक्तिगत तौर पर ज़ाहिर न होने देता हो पर तमाम ऐसे छोटे-छोटे रूप हैं जिनसे उनका ये रंगाग्रह ज़ाहिर हो जाता है। पर वे ये नहीं समझते कि जिस छोटे से आश्रम की चहारदीवारी में बंद हो कर वे अपने को धन्य-धन्य समझ रहे हैं.. उस के बाहर तमाम ऐसे भूरी चमड़ी वाले ठलुए, थोक के भाव, घूम रहे हैं जो उन्हे अपनी जटाओं में बाँधकर सहस्रार की सैर करवा सकते हैं।

इसके अलावा मैंने ऐसे सभी आश्रमों में देखा है कि इस की दीवारों के भीतर जाने वाले लोग मुक्ति की तड़प ले के जाते हैं और आश्रम की उन दीवारों के बन्दी होकर रह जाते हैं..क्यों? मेरे मित्र कमल भाई बताते हैं कि असल में आश्रम एक तरह का कॉरपोरेशन है.. वो तो यहाँ तक कहते हैं कि कॉरपोरेशन की अवधारणा का विकास आश्रम/मठ की अवधारणा से हुआ है। तो किसी भी अन्य कॉरपोरेशन की तरह हर आश्रम शुरु तो होता है सामाजिक हित के लिए पर जल्दी ही अपने हित साधने लगता है।

बुधवार, 23 अप्रैल 2008

जूजू..

बचपन में आप ने भी कभी जूजू का पीछा किया होगा शायद.. जो कभी हाथ नहीं आता है। जितना आप उसके पीछे भागिए वो उतना ही फ़िसलता जाता है। लगभग असम्भव सा होता है इस जूजू को पकड़ना। क्योंकि उसे पकड़ने के लिए जैसे आप हवा को चीरते हुए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं और वैसे ही हवा में पैदा हुआ यह संवेग जूजू को और आगे फेंक देता है। सच में हवा से भी हलके होते हैं ये जूजू..!

बचपन में कभी नहीं समझा कि होते क्या हैं जूजू.. ? हाँ ये पता था कि मदार/आक की झाड़ी के सुन्दर सफ़ेद फूल पककर बड़ी सी हरी गुझिया जैसे फल में बदलकर एक दिन फूट जाते हैं तो उस में से ये रूई के फाहे सब ओर उड़ने लगते हैं। तब मन को बड़ा लुभाते तो थे ये यहाँ-वहाँ उड़ते हुए जूजू मगर एक पेड़ के बतौर मदार का कोई औचित्य समझ नहीं आता था। बताइये बाकी सभी पेड़ ऐसे फल देते हैं जिनको आदमी खा-पी सकता है मगर ये कैसा फल है जिसके बारे में उलटा कहा जाता है कि ज़हरीला है.. !

पर कुछ और पढ़ने लिखने और डेविड एटनबरो की कुछ डॉक्यूमेन्टरी देखने के बाद समझ आया कि प्रकृति में मदार का भी उतना ही महत्व है जितना किसी दूसरे पेड़-पौधे का। आखिर सभी अपने बीज का प्रसार ही तो कर रहे हैं। मामला बस इतना है कि एक जगह पर जड़ जमाए बैठे खुद चलकर दूर-दूर तक अपने बीज नहीं फेंक नहीं सकते तो तरह तरह की तरक़ीबें निकालते हैं।

अपने बीज के साथे कुछ ऐसी लुभावना माल लपेट देते हैं जो जानवरों (आदमी समेत) के लिए आकर्षक हो। वे बीज को तोड़ें, आकर्षक लुभावने गूदे को खाएं, और चलते-चलते कहीं दूर निकल जाकर बची हुए बेकार चीज़ यानी बीज को यहाँ-वहाँ की ज़मीन पर फेंक दे या बीज को भी अगर खा गए तो पेट के रास्ते होते हे मल रूपी खाद समेत भूमि पर पहुँच जाए। ऐसा आम तौर पर उन बीजो के साथ होता है जो एक फल के भीतर सैकड़ों की संख्या में होते हैं। यदि एक फल में एक बीज होता है तो अक्सर वो अखाद्य होता है।

पर मदार ने यह तरक़ीब नहीं अपनाई। उसने अपने पुनुरुत्पादन के लिए/ प्रसार के लिए जानवरों का सहारा नहीं लिया। उसने अपने बीजों को पंख दे दिये। बीज बनाने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर फल फट जाता है सारे बीज हवा के साथ उड़ चलते हैं.. जहाँ अनुकूल वातावरण मिल जाएगा.. जड़ जमा लेगा ।
इस उड़ते हुए बीज का कितना गहरा मक़सद है.. मैं सोच कर हैरान हूँ। पर अकसर मैं एक आदमी की तरह अपने मक़सद को लेकर भी गहरी तौर पर उलझा रहता हूँ.. कि इस दुनिया में मेरा क्या मक़सद है। आप ने भी ज़रूर कभी सोचा होगा इस बारे में?


नीचे की तस्वीर में पुणे की व्यस्त सड़क के किनारे सुस्ताता मदार के बीजों का एक दल।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

बेईमान रिक्षेवाले

आज से मुम्बई में तीन दिन की ऑटो-रिक्षावालों की हड़ताल चालू हो गई है। आम लोगों को इस हड़ताल से काफ़ी तक्लीफ़ है.. हर हड़ताल में होती ही है। मामला नए इलेक्ट्रानिक मीटर लगाने का है.. सरकार उन्हे ठेल रही है पर रिक्षेवाले तैयार नहीं हैं। सीधे-सीधे कुछ हज़ार का ज़बरदस्ती का खरचा है- कोई क्यों उठाना चाहेगा- बात समझ में आती है। आप ही को अगर सरकार बोले कि सब लोग अपनी कार-मोबाइक के अच्छे-खासे टायर बदलो तो आप भी शायद हड़ताल कर बैठें।

मगर यहाँ एक दूसरी दलील भी प्रच्छन्न है- वो ये कि मेकेनिकल मीटर के साथ खेल किया जा सकता है पर इलेक्ट्रानिक मीटर के साथ नहीं। ह्म्म.. जनता इस तर्क को निगलने को तैयार है क्योंकि सब लोग जानते हैं कि ये रिक्षेवाले साले बड़े लूटते हैं।

इसमें दो बाते हैं। एक तो यह कि ये सोच लेना कि इलेक्ट्रानिक मीटर के साथ छेड़छाड़ नहीं हो सकेगी थोड़ा बचकाना है और दूसरी यह कि इसमें सारे रिक्षेवालों को बेईमान और चोर कहा जा रहा है। आप कहेंगे कि वो तो साले हैं ही। चलिए मान लिया कि सब रिक्षे वाले बेईमान हैं। देश के बहुत सारे निम्न-मध्यम-वर्गीय लोगों की तरह उनकी भी आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया है। और आमदनी क्या.. महीने कुल मिलाकर छै-सात हजार रुपैया.. चोरी-बेईमानी करके आम आदमी को लूटने के बाद?

क्या कहना! अब इस तस्वीर के एक और पहलू पर भी विचार तो कीजिए। आप को क्या लगता है कि सरकार आम आदमी की इस रोज़-रोज़ की लूट को रोकने के लिए ये प्रगतिशील क़दम उठा रही है। क्या आप के देश की सत्ता पर आसीन लोग क्या सचमुच ऐसे नेक मक़सदों से प्रेरित होते हैं? वो किस तरह से काम करते हैं क्या आप नहीं जानते?

अच्छा आप बताइये कि ये जो इलेक्ट्रानिक मीटर लगाए जा रहे हैं वो बाज़ार में कहीं से भी तमाम मॉडलों में से चुनकर कोई भी के लगाया जा सकेगा? या कोई एक खास कम्पनी का खास मॉडल ही इस सम्मान का अधिकारी होगा? आप जानते हैं ऐसे में एक खास स्टैन्डर्ड मॉडल ही होता है। और अगर ये नया मीटर लागू हो गया तो इस खास कम्पनी की तो लॉटरी निकल आएगी.. नहीं?

और इसमें कम्पनी के मालिकों, ट्रान्सपोर्ट मंत्री, आर.टी.ओ. के अधिकारियों के बीच किसी साँठ-गाँठ होने की या कम्पनी का फ़ायदा कराने के लिए इस नीति को लागू करने के किसी षड्यंत्र होने का तो दूर-दूर तक कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि चोर और बेईमान तो सिर्फ़ रिक्षेवाले, रेलवे टी.टी. और ट्रैफ़िक हवलदार होते हैं। इसलिए इसमें फ़ायदा अगर किसी का है तो सिर्फ़ आम जनता का.. !!??

.. मैं सोचने लगता हूँ कि दिल्ली में भी तो इलेक्ट्रानिक मीटर लगाया गया पर सुनते हैं वहाँ अब रिक्षेवालों ने मीटर से जाना ही बंद कर दिया। और अगर मान लीजिये कि नए मीटर लागू हो गए और उस से रिक्षेवालों की बेईमानी के चलते तीस-चालीस प्रतिशत किराए सीधे कम हो गए.. तो क्या उसके बाद रिक्षेवाले किराए में वृद्धि के लिए हड़ताल नहीं करेंगे? या आप ये सोचते हैं कि बैठते हैं तो बैठें.. पर उनकी सुनी नहीं जानी चाहिये क्योंकि उन्होने बेईमानी की और उन्हे अपने इस पाप का फल ऐसे ही मिलना चाहिए?

क्या हमें ऐसा सोचने का हक़ है? खास तौर पर उस देश में जहाँ लोग बैठे-बैठे चार-पाँच सौ करोड़ निगल जाते हैं और न डकार लेते हैं न पादते हैं। उसी देश में जहाँ किसान दस-बीस हज़ार के कर्ज़ का बोझ सहन नहीं कर पाते और पेड़ से लटक जाते हैं।

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

पुणे में परदा!

पुणे में लड़कियों का मैंने एक खास रवैया देखा है। वे अपने दुपट्टे को अपने सीने पर ओढ़ने के बजाय अपने चेहरे पर कुछ इस तरह से बाँध लेती हैं कि सिर्फ़ आँख ही नज़र आती है.. यानी दुनिया को देखने के लिए आँखे खुली छोड़कर सब कुछ ढक लेती हैं। अकसर ऐसा स्कूटर की सवारी करने वाली लड़कियों ऐसा करती हैं.. पर पैदल जाने वाली महिलाओं को भी मैंने इस स्वरूप में देखा है। इतना ही नहीं कुछ को तो मैंने एक कपड़े की जैकेट और दस्ताने पहने भी पाया.. भरी गर्मी में।

मुझे बताया गया कि ये लड़कियों मुस्लिम हों ऐसा नहीं है.. वे किसी भी धार्मिक आग्रह के चलते ऐसा नहीं करतीं। बस अपने चेहरे को गर्मी, धूल-धक्कड़ और प्रदूषण से बचाने के लिए ऐसा करती हैं। बात समझ आती है.. स्त्रियाँ स्वभावतः इन विषयों और अपने रूप को लेकर अधिक सचेत होती हैं.. वैसे कुछ पुरुष भी होते हैं।

अनोखी परिपाटी चल निकली है पुणे शहर में.. सोचता हूँ शायद अरब और उत्तरी अफ़्रीका के तमाम उन देशों में जहाँ हिजाब का चलन है, ऐसे ही कुछ प्राकृतिक कारण रहें होंगे जो स्त्रियों में और पुरुषों में भी परदे की परम्परा चल निकली और बाद में सामाजिक तौर पर ऐसी रूढ़ हो गई कि मर्द तो अपनी मर्जी का मालिक रहा मगर औरत की आज़ादी में बन्धन और बेड़ी हो गई।

कैसे—कैसे बदल जाती हैं चीज़ें- अच्छी बातें बुरी बातों में पतित हो जाती हैं। कुछ भी तो एक जैसा नहीं रहता कभी.. हमेशा रूप बदलता रहता है। पतंजलि के योगसूत्र में भी यही बात पढ़ी थी कभी।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

सो भी एक उम्र में हुआ मालूम

आज कल शाम होते ही दिल बड़ा उदास हो जाता है जिधर देखता हूँ उस सिम्त से एक बेमानीपन दिल में घर करने लगता है.. किसी चीज़ का कोई मक़्सद समझ नहीं आता.. जबकि लाखों लोग अपने मक़्सद लिए कीड़ों-मकोड़ों की तरह हर तरफ़ रेंग रहे हैं.. एक अजीब सी चीखोपुकार है.. खुद को बहुत समझाने की कोशिश करता हूँ कि हर ज़र्रा जीवन से लबालब भरा हुआ है.. बाहर से जो बेजान पत्थर समझ आता है वो भी चेतना के एक स्तर पर खड़ा हुआ है.. फिर अपनी ही आवाज़ इस नक़्क़ारखाने में दबती जाती है.. ये जो हस्ती है मेरी मानो किसी क़ैद में छटपटाती है..

इसी बीच पढ़े मीर के कुछ शेर थोड़ी राहत का सबब बनते हैं..

है तह-ए-दिल बुतों का क्या मालूम
निकले पर्दे से क्या, खुदा मालूम

यही जाना कि कुछ न जाना, हाय
सो भी एक उम्र में हुआ मालूम

इल्म सब को है यह, कि सब तू है
फिर है अल्लाह कैसा नामालूम

गर्चे तू ही है सब जगह, लेकिन
हम को तेरी नहीं है जा मालूम

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

खुदा के लिए!

पाकिस्तानी फ़िल्म खुदा के लिए एक आम मुसलमान की ज़ेहनियत को समझने के लिए बड़ी मौज़ूँ फ़िल्म है। असल में खुदा के लिए ९/११ के साथ/बाद खड़ी हुई परेशानियों की एक बेबाक तस्वीर होने के अलावा इस्लाम के प्रति उन कई भ्रांतियों के खिलाफ़ दलील भी है जिनसे ग़ैर-मुसलमान ही नहीं खुद मुसलमान भी ग्रस्त हैं।

जैसे कि एक आम मान्यता है कि इस्लाम में मौसिकी हराम है। माना जाता है कि अच्छे मुसलमान का एक खास हुलिया है और इसी तरह इस्लाम में मौजूद औरतों के हक़ को लेकर तमाम तरह की ग़लतफ़हमियाँ हैं। 'खुदा के लिए' में एक शेख़ साहब पूरी फ़िल्म भर ऐसे बयान बखारते रहते हैं मगर आखिर में इन शेख़ साहिब की सारी दलाइल को एक ज़हीन आलिम (नसीर भाई) धराशायी कर देते हैं और यह स्थापित करते हैं कि न तो इस्लाम में मौसिकी हराम है, न मुसलमान का एक खास हुलिया है और न ही इस्लाम औरतों को दबाने की वक़ालत करता है।

हर लिहाज़ से 'खुदा के लिए' अपने कथ्य में एक बहुत मजबूत फ़िल्म है जो लगभग ढाई घंटे तक अपने दर्शक को बाँधे रखती है, खराब पिक्चर क्वालिटी (सम्भवत: डीवीडी या १६एम एम का ब्लोअप किया बुरा प्रिंट), घटिया साउण्डट्रैक और ऊटपटांग एडीटिंग के बावजूद। गाने अलबत्ता बुरे नहीं है पर ज़्यादातर अभिनेताओं का अभिनय काफ़ी बचकाना है।

एक गौर करने लायक बात ये भी है कि फ़िल्म के दो नायकों के नाम मंसूर और सरमद हैं (जो कि कट्टरपंथियों के हाथों शहीद हो जाने वाले दो नामचीं सूफ़ी थे)। साफ़ तौर पर 'खुदा के लिए' भी कट्टरपंथी सोच के खिलाफ़ एक चुनौती है। मगर अपनी सारी खूबियों के बावजूद इस फ़िल्म की एक सीमा भी है जिन्हे मैं इस की कमी के तौर पर हरगिज़ नहीं लिख रहा सिर्फ़ सीमा- वो ये कि फ़िल्म का सारा ताना-बाना इस्लाम की व्याख्या के भीतर ही है। ग़लत व्याख्या के बरक्स सही व्याख्या।


यही बात फ़िल्म के अंत में भी मुखर हो कर निकल आती है जब फ़िल्म का नायक सरमद जींस और बेसबॉल कैप पहन कर मस्जिद में जाकर अज़ान देता है, यानी एक तरह से अपने दीन पर अपनी व्याख्या के साथ दावा पेश करता है। मतलब ये है कि मज़हबी चिंतन का सारा ज़िम्मा कट्टरपंथियो के लिए छोड़ना मुसीबत से हाथ धोना नहीं उसे और उलझाना है। और शायद यह ग़लत भी नहीं है।

हमारे देश में प्रगतिशील चिंतको ने धार्मिक व्याख्याओं का सारा दायित्व ‘साधु-संतो’ पर छोड़कर ऐसी ही ग़लती की है। रामचरितमानस और श्रीमदभागवत पढ़ने वालों को बजरंगी और साम्प्रदायिक घोषित कर देने वाले एक हैं? ढेर के ढेर हैं। जो लोग अपनी परम्परा से परिचित नहीं वो अपने समाज का क्या भला कर सकेंगे मेरी समझ से परे है?

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

पश्चिम से उगता सूरज



मैं आज कल एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूँ उस में एक संवाद कुछ ऐसा है.. "मैं जब यहाँ आया तो सूरज उसी जगह से निकल रहा था जहाँ अभी डूब रहा है.. मैं कुछ अजीब जगह में फँस गया था…"

और अजब संयोग देखिये मेरे घर की हालत भी आजकल कुछ ऐसी ही हो गई है.. शाम को सूरज को जिस दिशा में डूबते हुए देख कर विदा किया था .. सुबह उसी दिशा से वो उगता चला आता है..

पहले ऐसा नहीं होता था.. जब से मेरे खिड़कियाँ के सामने वाली दिशा यानी पश्चिम में तीन-तीन तीस-मंज़िली ओबेरॉय टॉवर्स की तामीर अपने अंजाम तक आ पहुँची है, तभी से उनकी खिड़कियों में जड़े शीशों में उगते हुए सूरज का अक्स पलट कर मेरे कमरों को चमका जाता है..

पहले मैं इन टॉवर्स पर बड़ा तमका रहता था कि इसने मेरे हिस्से के आसमान को ढाँप लिया.. पर अब समझ नहीं आता कि इस नई परिघटना पर बिहँसू कि इसके चलते मेरा घर सुबह की रौशनी में भी जगमगाने लगा है या बौखलाऊँ कि सूरज पश्चिम से उगता नज़र आने लगा है..
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