शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

गेम




देखो तो ये क्या हुआ है.. !
क्या.. ?
देखो तो..!
..एक मिनट..
इतना कहकर भी अजय अपने लैपटॉप में नज़रें गड़ाकर कुछ टाइप करता रहा। शांति ने उसकी नज़रें अपनी तरफ़ उठने का कुछ पल इन्तज़ार किया। पर अजय का एक मिनट शांति के एक मिनट से कहीं ज़्यादा लम्बा होता गया...
क्या कर रहे हो.. ?
शांति के सवाल के बदले अजय की तरफ़ से उसके गले से एक ऐसी आवाज़ निकली जिसका शांति के सवाल, उसकी उपस्थिति, समय, माहौल, मौसम, साल- किसी भी चीज़ से कोई सम्बंध नहीं था-
.. ह्म्म.. ?
हम्म की वह ध्वनि पूरी तरह स्वतंत्र थी। उसका कुछ भी अर्थ किया जा सकता था जबकि उसका कुछ भी अर्थ नहीं था। कई बार हम्म की यह ध्वनि रेलगाड़ी के इंजन की तरह होती है, इंजन निकल जाने के थोड़ी देर बाद पीछे के किसी डब्बे से एक जवाब उतरता है। शांति ने फिर से उस सम्भावी पुछल्ले जवाब के उतरने का इंतज़ार किया पर व्यर्थ.. उसे नहीं आना था.. नहीं आया। काम करते हुए अजय का ऐसा ही हाल रहता है।

दोपहर से शांति की गरदन में एक अजीब सी जलन सी हो रही थी। घर लौटने के बाद उसने आईने में देखने की कोशिश की, पर जलन की जगह गरदन में थोड़ी पीछे की तरफ़ थी, जिसे बहुत गरदन घुमाने पर भी शांति देख नहीं सकी। गरदन की वो ही जगह अजय को दिखाने के लिये उसकी तवज्जो चाह रही थी, जो मिली नहीं। एक बार फिर से आईने के आगे खड़े होकर एक कोशिश की। फिर नाकामी के बाद दराज़ में से एक छोटा हाथ का आरसी निकाल कर उसे गरदन के पीछे रख कर और अपने आप को दो आईनों के बीच में रखकर, एक मुश्किल कसरत के बाद उसे नज़र आया कि छोटे हलके लाल दानों का एक चकत्ता सा है जहाँ से बार-बार जलन और खुजलाने की अकुलाहट उठ रही है। शांति ने अकुलाहट को ज़ब्त किया और रात के खाने का इंतज़ाम करने रसोई में चली गई।

कुछ देर बाद जब शांति कमरे में लौटी तो अजय वहाँ नहीं था। लैपटॉप के मुखड़े पर स्क्रीनसेवर झलक रहा था। और बाहर के कमरे से टीवी की आवाज़ आ रही थी। अचरज, पाखी और अजय तीनों मैच देख रहे थे। अजय के सामने जाकर शांति ने अपने बालों को एक हाथ से गरदन से हटाकर गरदन दूसरी तरफ़ घुमा का अपना प्रस्ताव रखना ही चाहती थी कि उसके कुछ बोलने के पहले ही अजय और बच्चे चिल्लाने लगे- आउट- आउट!! पीटरसन आउट हो गया था। शांति भी एक पल के लिये अपनी उलझन भूलकर, भारत की सम्भावित विजय की कल्पना में सुख पाने लगी। मायूस पीटरसन ने पैविलयन की तरफ़ चलना शुरु किया और ब्रेक हो गया। साथ ही अचरज को मम्मी को देखकर अपनी भूख की याद आ गई। किसी भी माँ की तरह शांति के लिए भी बच्चे की भूख के आगे अपनी तकलीफ़ कोई मायने नहीं रखती थी। माता जी फ़ौरन रसोई में लौटकर अपने लाल के लिए पौष्टिक भोजन का इन्तज़ाम करने लगीं। गरदन की जलन का मसला एक बार फिर से टल गया।

देर रात खाने का सारा पसारा समेटने के बाद शांति जब कमरे में लौटी तो इण्डिया मैच जीत चुका था। बच्चे अपने कमरे में बचे हुए होमवर्क को निबटा रहे थे और अजय बिस्तर पर बैठकर अपने फोन के साथ मसरूफ़ था। अजय को अकेला पाकर शांति को फिर से अपनी गरदन की जलन की याद हो आई। उस का ध्यान बँटाने से पहले शांति ने एक बार पूछ ही लिया..
क्या कर रहे हो..?
अजय की तरफ़ से फिर वही अव्यक्त की अभिव्यक्ति हुई - हम्म..
बिज़ी हो.. ?
इसका जवाब फिर एक दूसरे ऐसे शब्द से हुआ जो देश-काल की परिधियों से पार अव्यक्त के संसार का वासी है - एक मिनट।
शांति को लगा कि अजय फिर से किसी दफ़्तरी मुश्किल में उलझा हुआ है और किसी मेसेज का जवाब देने में मसरूफ़ है। शांति ने झांक कर देखा- अजय अपने फ़ोन पर एक मोबाईल गेम खेल रहा था।
तुम गेम खेल रहे हो..? शांति के बदन का सारा ख़ून उसकी सर की तरफ़ दौड़ने लगा।
हाँ..
और इसीलिये तुम्हें मेरी तरफ़ देखने की फ़ुरसत नहीं है..?
शांति के गरम सुर ने अजय को अचानक सावधान कर दिया। वो अधलेटा से सीधा हो गया।
नहीं.. गेम तो मैं अभी..
कभी काम कर रहे हो.. कभी मैच देख रहे हो.. कभी गेम खेल रहे हो.. सब कर रहे हो .. बस एक मेरी तरफ़ ही नहीं देख रहे हो..?
देख तो रहा हूँ.. तुम्हारी तरफ़.. क्या बात है.. ?
नहीं! तुम नहीं देख रहे हो मेरी तरफ़.. !!
शांति.. बताओ तो बात क्या है..
कुछ बात नहीं है..!
जिस से सबसे अधिक अपेक्षा रहती है उसी से उपेक्षा मिलने से उसका जी एकदम खिन्न हो गया। एकाएक उसे अपना पति जिसे वो अपनी सबसे क़रीबी और प्रियतम दोस्त मानती रही है, किसी अजनबी सा लगने लगा। अजय ने मौक़े की नज़ाकत को भाँपते हुए फिर से पूछा- क्या हुआ बताओ न.. !?
शांति ने कोई जवाब नहीं दिया। बाथरूम में गई और भाड़ से दरवाज़ा बंद कर लिया। आईने में अपनी शकल देखी और न चाहते हुए और बहुत रोकते-रोकते भी गला रुंध गया और आँसू बह निकले।

अजय कुछ देर तक शांति का इंतज़ार करता रहा। जब बहुत देर के बाद भी शांति बाहर नहीं आई तो अजय का हाथ वापस अपने मोबाईल पर चला गया। शांति जब बाथरूम से बाहर निकली तो अजय सर झुकाए कीपैड पर उंगलियों की कसरत कर रहा था। आँसुओं के साथ जितना कोप बाहर निकला था, कुछ उतना ही सा कोप वापस उस के मन में जा बसा। उसे देखते ही अजय का चेहरा उस चोर जैसा हो गया जो चोरी करते पकड़ा गया हो।

तमककर शांति ने लैम्प बुझा दिया और दूसरी ओर मुँहकर के लेट गई। कुछ देर की चुप्पी के बाद अजय की आवाज़ आई- आई एम सॉरी शांति। पर इतना काफ़ी नहीं था। शांति के बदन में कोई हरकत नहीं हुई। बहुत देर तक शांति न जाने क्या-क्या सोचती रही और दूसरी ओर मुँह फेरकर बहुत देर तक अपनी उदासी में उतराती रही। फिर किसी एक पल में अजय का बायां हाथ शांति के बायें हाथ के ऊपर आ कर रख गया। शांति ने हाथ को झटक दिया। कुछ देर बाद बहुत हौले से उसकी आवाज़ आई- सॉरी। और कुछ क्षण बाद एक बार फिर आया उसका हाथ। इस बार शांति ने झटका नहीं। अजय का हाथ धीरे-धीरे अनायास ही उसकी गरदन तक पहुँचा। और फिर अजय ने पूछा.. ये तुम्हारी गरदन पर क्या हुआ है?


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

कथा अनन्ता


रावण मारा जा चुका है। युद्ध समाप्त हो चुका है। सीता ने अग्नि परीक्षा देकर अपनी पवित्रता सिद्ध कर दी है। युद्ध में खेत रहे वानरों को इन्द्र ने फिर से जिला दिया है। राम अब जल्दी से अयोध्या लौट जाने के लिए उद्यत हैं। उनकी आतुरता देख विभीषण उन्हे पुष्पक विमान सौंप देते हैं। राम जी, राह में सीता जी के आग्रह पर किष्किंधानगरी से तारा आदि वानर पत्नियों को भी साथ ले लेते हैं। और सीता को उनकी यात्रा के विभिन्न पड़ावों का दर्शन कराते हुए श्रीराम भरद्वाज मुनि के आश्रम पर उनका आशीर्वाद लेने रुकते हैं और हनुमान को उनके आगमन की सूचना देने आगे भेज देते हैं। निषादराज गुह से मिलते हुए हनुमान आश्रमवासी कृशकाय भरत को राम की कुशलता का समाचार देते हैं। भरत जी हर्ष से मूर्च्छित हो जाते हैं और दो घड़ी बाद जब उन्हे होश आता है तो भाव विह्वल होकर हनुमान जी को बाहों में भरकर और आँसुओं से नहलाते हुए यह कहते हैं:
देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् || ४०||
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् |
सकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश || ४१||
हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः |

सर्वाभरणसम्पन्ना सम्पन्नाः कुलजातिभिः || ४२||

ऊपर दिये गए श्लोकों का अर्थ है: "भैया, तुम कोई देवता हो या मनुष्य जो मुझ पर कृपा करके यहाँ पधारे हो। हे सौम्य, जितना प्रिय समाचार तुमने मुझे सुनाया है बदले में उतना प्रिय क्या तुम्हें दूँ? मैं तुम्हें एक लाख गायें, सौ उत्तम गाँव, और अच्छे कुण्डल पहनने वाली तथा शुभ आचार वाली सोलह कन्याएं पत्नी बनाने के लिए देता हूँ। सोने के रंग वाली, सुघड़ नाक वाली, मनोहर जंघाओं और चाँद जैसे मुखड़े वाली  उच्च कुल व जाति की वे कन्याएं सभी आभूषणों से भी सम्पन्न होंगी।"

जो लोग हनुमान के ब्रह्मचारी होने का दावा करते हैं या हनुमान के ब्रह्मचारी न होने के किसी भी उल्लेख पर भड़ककर लाल-पीले हो जाते हैं और वाल्मीकि रामायण को ही रामकथा का पहला और बीज स्रोत मानते हैं- तय बात है कि उन लोगों ने रामायण का यह अंश नहीं पढ़ा है और बिना पढ़े ही वे 'मूल' रामायण की मान्यताओं की रक्षा करने को उद्धत हो रहे हैं।

इसे पढ़ लेने के बाद भी कुछ स्वयंसिद्ध विद्वान यह कहने लगेंगे कि श्लोक में भरत के विवाह योग्य कन्याओं के देने भर का उल्लेख है पर हनुमान के स्वीकार करने की बात नहीं है!? पर उनको समझने की ज़रूरत है कि अगर स्वीकारने की बात नहीं है तो अस्वीकार करने की बात भी नहीं है। इन श्लोकों के बाद हनुमान जी प्रेम से भरत जी के साथ बैठकर राम की विजयगाथा की कथा कहने लगते हैं। अगर वे वाक़ई अविवाहित रहने वाले ब्रह्मचारी थे तो भरत भैया के आगे हाथ जोड़ लेते, पर उन्होने ऐसा कोई उपक्रम न किया। और हनुमान के ब्रह्मचर्य से वाल्मीकि जी की यही मुराद होती कि वे स्त्री तत्व से दूर रहेंगे तो वाल्मीकि महाराज भी वहीं पर सुनिश्चित कर देते कि इस मामले को लेकर कोई भ्रांति न पैदा होने पाये। 

मसला यह है कि अभी हाल में दिल्ली विवि के पाठ्यक्रम से ए के रामानुजन का लेख 'थ्री ह्ण्ड्रेड रामायनाज़ : फ़ाइव एक्ज़ाम्पल्स एण्ड थ्री थॉट्स ऑन ट्रान्सलेशन' इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसमें विभिन्न रामायणों की कथाओं के विविध पाठों का वर्णन हैं। और कुछ स्वघोषित संस्कृति के रक्षक (या राक्षस?) इस पर आपत्ति उठा रहे हैं। मुझे यह बात बेहद विचित्र मालूम देती है कि विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम तय करने में ऐसे अनपढ़ों की राय सुनी जा रही है जो न पढ़ते हैं और न पढ़ने देना चाहते हैं। और यह पहला मामला नहीं है जब ऐसा हुआ है इसके पहले मुम्बई विवि में भी ऐसी ही घटना हो चुकी है। आये दिन किसी किताब के किसी अंश को लेकर कोई न कोई बलवा करता रहता है। पर दिलचस्प बात यह है कि इनके बलवों का असर अक्सर उलटा होता है। भले ही मुम्बई विवि से रोहिन्टन मिस्त्री की किताब पाठ्यक्रम से हटा दी गई पर उनकी उठाई आपत्तियों से जनता में उस किताब में वापस दिलचस्पी पैदा हो गई। उसकी बिक्री में ज़बरदस्त उछाल आया। यही रामानुजन वाले मामले में भी हो रहा है। उनके लेख का अंश भले ही पाठ्यक्रम से निकाला गया हो पर इन्टरनेट पर उसे खोज निकाला गया है। और ख़ूब पढ़ा जा रहा है। इस इन्फ़र्मेशन ऎज में इस तरह की बकलोलियों का कोई अर्थ नहीं है। कुछ समय के लिए अपने पूर्वाग्रही समर्थकों के बीच सस्ती लोकप्रियता हासिल भले ही कर लें मगर किताबविरोधी और ज्ञानविरोधी इन कट्टरपंथियों का मक़सद आप विफल हो रहा है और होता रहेगा।

दुहाई रामकथा की दी जा रही है और हमारी परम्परा में रामकथा बेहद लोकप्रिय कहानी है और लगभग हर प्राचीन ग्रंथ में रामकथा का उल्लेख है। अकेले महाभारत में ही चार बार राम की कहानी सुनाई जाती है, जिनके भीतर भी छोटे-मोटे अन्तर मौजूद हैं। जब भी कोई कहानी बार-बार कही-सुनी जाएगी तो उसमें विविधिता आ जाना स्वाभाविक है। काल और देश का अन्तर जितना बढ़ता जाएगा, विविधिता की भी उसी अनुपात में बढ़ते जाने की सम्भावना बनती जाती है।

और विविधता के इसी पक्ष पर बल देता हुआ रामानुजन जी का यह तथाकथित विवादास्पद (सच तो यह है कि उनके लेख में सब कुछ तथ्य पर ही टिका हुआ है) लेख का आधार हिन्दी भाषा के विद्वान कामिल बुल्के का बहुमूल्य शोधग्रंथ 'रामकथा'ही है। रामानुजन अपने लेख की शुरुआत में उसका उल्लेख भी करते हैं। बुल्के जी अपने शोध में महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में वर्णित रामकथाओं के अलावा मगोलिया, तिब्बत, ख़ोतान और इण्डोनेशिया तक प्रचलित विविध रामकथाओं और उनकी विभिन्न पाठों का भी तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। मिसाल के लिए तमाम रामकथाओं में कहीं फल से, कईं फूल से, कहीं अग्नि से, कहीं भूमि से जन्म लेने वाली सीता को महाभागवतपुराण, उत्तरपुराण और काश्मीरी रामायण में रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, तो दशरथ जातक में दशरथ की पुत्री कहा गया है। पउमचरियं में (आम तौर पर अविवाहित समझे जाने वाले) हनुमान की एक हज़ार पत्नियों में से एक पत्नी सुग्रीव के परिवार की है और दूसरी पत्नी रावण के परिवार की। मलय द्वीप में प्रचलित 'हिकायत सेरी राम' में तो हनुमान राम और सीता के पुत्र हैं- और यही नहीं 'हिकायत सेरी राम' के प्रचलित दो पाठों में उनके इस पुत्र होने की दो अलग ही कहानियाँ है। इसी तरह के और भी विचित्र भेद पढ़ने वालों को मिल जाएंगे।

हम जिस रामायण को जानते हैं, उसकी कहानी वाल्मीकि की बनाई हुई नहीं है। उनके बहुत पहले से लोग रामकथा कहते-सुनते रहे थे। पूरी पृथ्वी पर भ्रमण करने वाले नारद ने उनको रामकथा सुनाई थी; जैसे बुद्ध ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त कहते हुए अपने शिष्यों को रामकथा सुनाई थी जो ई०पू० तीसरी शताब्दी से दशरथ जातक में सुरक्षित मिलती है; और जैसे बहुत काल बाद तुलसीदास को उनके गुरु ने सोरोंक्षेत्र में रामकथा सुनाई थी। ध्यान देने की बात यह है कि किसी ने भी रामकथा को पढ़ा नहीं है, सुना-सुनाया है। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस का जो अन्तर है वो इसलिए भी है कि तुलसी स्पष्ट कह रहे हैं कि उनकी कथा, रामायण पर आधारित है ही नहीं- वो तो गुरुमुख से सुनी कहानी पर आधारित है। और बहुत विद्वान ऐसे है जो वाल्मीकि की रामायण को नहीं बल्कि दशरथ जातक को उस कहानी को मूल रामकथा मानते हैं जिसमें न तो रावण है और न लंका, और जिसमें सीता और राम भाई-बहन होकर भी शादी करते हैं। निश्चित तौर पर कथा का यह रूप इसके एक ऐसे प्राचीन काल के होने का संकेत देता है जब राजपरिवारों की सन्तानें रक्तशुद्धि के विचार से आपस में ही विवाह कर लेते थे- जिसका एक और उदाहरण मिस्र के फ़िरौनों में मिलता है।

पर मुद्दा यह नहीं है कि कौन सी रामायण मूल कथा है। ग़ौर करने लायक बात यह है कि रामकथा की ग्रंथ परम्परा से पहले एक जीवंत श्रुति परम्परा भी रही है- जिसे गाथा के नाम से पुराणों आदि में भी पहचाना गया है। और इस श्रुति परम्परा के चलते यदि कोई मूल कथा रही भी होगी तो उसमें देश-काल--परिस्थिति के अनुसार बदलाव होते रहे हैं। अब जैसे जैन रामायण प‌उमचरियं में रावण का वध राम करते ही नहीं, लक्ष्मण करते हैं। क्योंकि जैन धर्म में हिंसा महापाप है और जिस पाप को करने के कारण ही लक्ष्मण नरक के भागी होते हैं।

इतिहास और मिथकों की इस गति को समझने के लिए एक के रामानुजन जैसे लेखों को 'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' का जाप करने वाले आस्थावान कट्टरपंथी न पढ़ना चाहें तो न पढ़ें मगर 'हरि कथा अनन्ता' का मर्म समझने की आंकाक्षा रखने वाले और सजग चेतना विकसित करने के इच्छुक छात्रों के लिए ऐसी पढ़ाई बेहद अनुकूल है।


***

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

नाक नज़र



चार दिन पहले.
शांति दफ़्तर से लौट रही थी। सड़क पर ट्रैफ़िक रोज़ की तुलना में वाक़ई ज़्यादा था या उसकी अपनी किसी उलझन के चलते शांति को ज़्यादा लग रहा था- ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। बात जो भी रही हो- शांति ने सड़कर वो सड़क छोड़ दी और नयागंज वाला रास्ता ले लिया। नयागंज में जाम तब होता है जब सड़क के दोनों तरफ़ हाथ ठेलेवाले रुककर माल उतारने लगते हैं। या फिर तब, जब गायों की एक गोष्ठी पूरी सड़क घेरकर पगुराने बैठ जाय और कितना भी हॉर्न बजाने पर न उठे। उस दिन भी हाथ ठेले वाले बोरियों में भरा अनाज और मसाले दुकानों के बाहर उतार रहे थे और सड़क पर विरक्त भाव से बैठे गाय और साँड भी पगुरा रहे थे मगर आम जनता पर इस तरह मेहरबान होकर कि गति भले धीमी हो जाय पर जाम न लगे। मन्थर गति के उस प्रवाह में अपनी तेज़ी का संचार करने के इरादे से शांति ने अपनी स्कूटी इधर-उधर लहराई और एक साँड से लगभग जा टकराई। साँड से बचने के चक्कर में स्कूटी का हैण्डल जिधर घुमाया, उधर लाल मिर्च पाउडर का एक थाल था। बचाते-बचाते भी टक्कर खा गया और शांति के आँखों के आगे पलटा गया।

तीन दिन पहले.
पन्द्रह-सोलह घंटे बीत चुके हैं। डॉक्टर ने इंजेक्शन दे दिया है, मलहम लगा दिया है, गोलियां खिला दी हैं और आँखों पर पट्टियां बांध दी है। फिर शांति की आँखें जल रही हैं और दिमाग़ उबल रहा है।शांति की आँखों के आगे से एक पनियाला अंधेरा रिसता रहा और उसके भीतर एक अजब बेचैनी मथता रहा। अजय काम पर चला गया, बच्चे स्कूल और सासू माँ अपने कमरे में। उनके टीवी की आवाज़ बाहर के शोर के साथ मिलकर शांति को और भड़काती रही। कोई राहत नहीं, कोई रस्ता नहीं। शांति को लगता रहा कि उसके भीतर लाल मिर्च का एक पहाड़ है। अन्दर जाने वाली हर सांस लाल मिर्च की गंध में धुलकर बाहर आती।

दो दिन पहले.
जलन कम है। मन पहले से बेचैन कम है। आँखों पर पट्टियां बनी हुई हैं। आंखों का काम कानों ने सम्हाल लिया और सूचनाएं मिलने लगीं। कानों के ज़रिये दीवारों, खिड़की, दरवाज़ों जैसी स्थायी चीज़ों का एक मानचित्र बन गया। उनके बीच में से कोनों और मोड़ों से भरा रस्ता बन गया। और शांति उस पर बच-बचकर चलने लगी है।

उस दिन.
घर में बैठे-बैठे ऊब गई शांति। तो बाहर का दरवाज़ा खोलकर खड़ी हो बाहर की आवाज़ें सुनने लगी। कोई नई आवाज़ नहीं थी- बस ज़रा तेज़ आवाज़ें थीं। हवा अच्छी चल रही थी और चेहरे पर लग रही थी। फिर वही हवा अपनी तरंगो पर एक गंध लेकर आई। मछली की गंध। साथ में कड़वे तेल और तड़कती हुई राई का भी कुछ पैग़ाम था। कहीं मछली तली जा रही थी। शांति ने पता लगाने की कोशिश की कि कहाँ से आ रही है गंध। सामने वाले घर के दरवाज़े की तरफ़ गई पर उस दिशा से एक अमानुषी गंध उठ रही थी- उनके कुत्ते पेप्सी की गंध। दरवाज़े का अधिक क़रीब जाने पर पेप्सी भौंकने लगा। शांति की गंध उस की सुरक्षा सीमा के अन्दर पहुँच गई थी शायद। शांति पीछे हट गई और नीचे उतर गई। नीचे के तल पर बाएं वाले घर से साबुन पाउडर के सिंथेटिक फूलों की महक आ रही थी। शांति ने थोड़ी मशक़्कत के बाद समझा कि गुप्ता जी की बाई कपड़े धो रही थी। और नीचे उतरी तो एक तेज़ परफ़्यूम का झोंका आया। फिर एक आवाज़ - हलो मिसेज़ शर्मा। ये पालीवाल जी थे- रिटायर हो चुके हैं और अपने बेटे-बहू के साथ रहते हैं। शांति पहले भी उनसे मिली है पर उनके पर्फ़्यूम से पहली बार मिली जो रिटायर नहीं हुआ था।

धरातल पर आ जाने के बाद शांति अपने को थोड़ा सा असुरक्षित महसूस करने लगी। न तो सीढ़ियों की तरह एकरैखीय रस्ता था और न ही सहारे के लिए कोई रेलिंग। मछली की गंध अभी भी आ रही थी लेकिन पहले जितनी तेज़ नहीं। फिर पैट्रोल की गंध आई और एक स्कूटर की गुरार्हट पास आकर बग़ल से निकल गई। उसके निकलने के बाद गीली मिट्टी की सौंधी महक उसके नासापुटों पर दस्तक देने लगी। और पानी गिरने के बहुत हलके सुर से उसे पता लग गया कि वो क्यारियों के किनारे खड़ी है और माली अपने काम पर लगा है। बेला, चमेली, गेंदे की कई क़िस्मों और गुलाब की अलग-अलग गंधों का आस्वादन करते हुए वो धीरे-धीरे, क्यारी-क्यारी चलती रही। शांति को पता था उन फूलों के बारे में- रोज़ आते-जाते वहीं से गुज़रती थी, नज़र उनको देखती भी थी पर देख नहीं पाती थी, उनकी महक सूंघ नहीं पाती थी।

तीसरी मोटरसायकिल के गुज़र जाने के बाद अचानक फिर से बहुत तेज़ मछली और सरसों के तेल की गन्ध आई। क्यारियों के पार, सड़क की तरफ़ से। अपने कानों और नाक पर आश्वस्त हो चली शांति ने बेझिझक सड़क पार की और सोसायटी की सलाखों वाली दीवार के पार, कढाई में मछलियों के टुकड़ों के तले जाने की हलकी छन-छन की आवाज़ को सुना। उसके पीछे सड़क के अविरल शोर के बीच कुछ लोगों के हलके-हलके बतियाने के स्वर भी सुने। यह एक एकदम नई खोज थी। सोसायटी की इमारत से बिलकुल लगा हुआ एक खोमचा जिसके बारे मे ना तो उसे कुछ पता था और ना ही अजय को। शांति के आँखों वाले संसार मे बड़े-बड़े छेद थे जिसमें ये खोमचा शायद छिप कर खड़ा हुआ था। जिसे आँखों से न देखा जा सका, कानों से ना पाया जा सका, उसे नाक ने सूँघ लिया था।

दो दिन बाद.
डॉक्टर घर पर आया और पट्टियां खोल गया। मगर उसके पहले शांति के आगे गन्धों और आवाज़ों की एक ऐसी दुनिया उजागर होती गई जो पहले उसके लिये सोयी पड़ी हुई थी। उसमें अपनी गन्ध से लोग पहचाने जाते। अजय, अचरज और पाखी, दीवार के पीछे से भी नज़र आ जाते और चुप रहकर भी पकड़े जाते। गन्धों के सोते थे, मंज़िलें और मक़ाम थे। पट्टियां खोलने के बाद उसे गंध नज़र आती रहीं।

दस दिन बाद.
आँखों की जलन पूरी तरह से जाती रही। शांति ने फिर से दफ़्तर आना जाना शुरु कर दिया। स्कूटर चलाते हुए सारे रास्ते जैसे रौशनी आती, जैसे हवा पर चलकर आवाज़ आती, वैसे ही गंधों के भी सन्देश आकर उसकी साँसों से टकराते रहे।

तीन मास बाद.
आँखों के रास्ते लगातार आ रहे संदेसों की चकाचौंध से दिमाग फिर से चकमा खाने लगा। गंधों का समांतर संसार शांति के लिये धीरे-धीरे धुंधला होकर फिर से पृष्ठभूमि में चला गया। कभी किसी तेज़ लाल मिरच की झार से या फिर सरसों के तेल वाली मछली की चरपरार आती तो शांति को फिर से नाक से नज़र आने लगता.. कुछ देर के लिये बस।

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

जुगराफ़िया


शांति शहर में नहीं पैदा हुई थी। गाँव में पैदा हुई थी। जन्म लेने के पाँच साल बाद तक भी उसने शहर नहीं देखा था। उसका गाँव ही उसकी सम्पूर्ण दुनिया था। जो चीज़ गाँव में थी वही उसकी दुनिया में थी और जो चीज़ गाँव में नहीं थी वो दुनिया में भी नहीं थी। गाँव में किसी के भी आँगन में गुलाब का फूल नहीं होता था इसलिए शांति के लिए दुनिया में गुलाब का फूल नहीं होता था। इसी तरह आईसक्रीम और टीवी जैसी चीज़े जो गाँव के दृश्य में कहीं उपस्थित नहीं थे, वो भी उसकी दुनिया का हिस्सा नहीं थे। इसलिए पूरे पाँच साल तक गुलाब, आईसक्रीम और टीवी से ख़ाली दुनिया मे रहने के बाद शांति जब शहर गई तो उसकी दुनिया बदल गई।

शहर में गुलाब, आईसक्रीम, और टीवी के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा था जो शांति ने कभी नहीं देखा था। शहर में नज़र के ठहरने का कोई ठिकाना ही नहीं था। इतनी चीज़े होती देखने को कि नज़र लगातार भटकती रहती। वो जितनी देर जागती रहती, हर नई चीज़ को फटी-फटी आँखों से ताकती रहती। सारी नई चीज़े उसकी आँखों के रास्ते अन्दर चली जातीं। और जब शांति सोती तो अन्दर आईं नई चीज़े उसकी दुनिया में रात भर खलबली मचाती रहतीं। कुछ तोड़-फोड़ भी करतीं पर बहुत ज़्यादा नहीं क्योंकि शांति की दुनिया में बहुत सारी ख़ाली जगह थी। उसकी दुनिया में बहुत सारी ख़ाली जगह थी क्येंकि गाँव में बहुत सारी ख़ाली जगह थी।

गाँव में जब शांति घर से बाहर निकलती और किसी भी एक दिशा में चलती तो बहुत देर तक उस दिशा में चलते रहने पर भी उस दिशा का अंत नहीं होता था। गाँव के बाहर में बहुत सारा बाहर था। और इसी तरह गाँव के अन्दर में भी बहुत सारा अन्दर था पर बाहर से कम। जब वो अन्दर आती तो अन्दर भी बाहर की तरह बहुत सारी ख़ाली जगह थी। बहुत सारे लोगों को अन्दर आ जाने का बाद भी घर भरता नहीं था। मुर्गी, कुत्ते, चूहे, बिल्ली और गाय के अन्दर आ जाने पर भी नहीं। घर का मतलब था मिट्टी की दीवारों के बीच की और खपरैल के छप्पर के नीचे की ख़ाली जगह। जिसमें खाट, बिछौना, बरतन, घड़ा, अनाज और तेल की ढिबरी जैसी चीज़ें रखी जा सकें।

गाँव में चीज़ें कम थीं। और उन पर भरोसा किया जा सकता था। पेड़ अपनी जगह रहता था, तालाब अपनी जगह, घूरा अपनी जगह और सबके घर अपनी जगह पर। सूप खूंटी पर ही होता, रस्सी कुँए की घिर्री पर ही रहती, और उपले दीवार पर ही। वो चलती और बदलती नहीं थी और और अगर वो चलती और बदलती भी तो भी तो इतना धीरे जैसे कि मौसम बदलता है। शांति ने पाया कि शहर में ऐसा नहीं था। शहर में कुछ तय नहीं था कि कौन सी चीज़ कब कहाँ चली जाएगी और कब क्या शकल ले लेगी। कल तक सड़क पर जहाँ पेड़ था, कल वहाँ खम्बा हो सकता है। जहाँ घर था, वहाँ मैदान हो सकता है। और जहाँ मैदान था, वहाँ ऊँची दीवार हो सकती है। किसी के घर के अन्दर जहाँ भगवान थे, वहाँ टीवी हो सकता है। जहाँ टीवी था, वहाँ बिस्तर हो सकता है और जहाँ बिस्तर था, वहाँ कल को बाथरूम हो सकता है।

एक बार तो ऐसा भी हुआ कि शांति के घर के सामने जो घर था वो घर तो रहा पर जिन लोगों का घर था वो लोग ही नहीं रहे। शांति के लिए वह बहुत ही सन्न कर देने वाली घटना रही। वो बार-बार उस घर के दरवाजे पर पड़े ताले को देखती और फिर भी मान नहीं पाती कि वो लोग सचमुच अपना घर छोड़कर चले गए। कुछ दिनों बाद जब उसने इस दरवाजे को खुला देखा तो वो बेहिचक उस घर में अन्दर तक दौड़ गई। पर अन्दर तो कोई और ही लोग थे। और अन्दर जो घर उसे दिखा वो घर भी कोई और ही घर था। दीवारें और छत वही थे पर सामान अलग था। वो लोग और सामान मिलकर उसके अन्दर फिर से एक खलबली पैदा कर रहे थे। शांति के भीतर की दुनिया में उस घर का जो जुगराफ़िया था, वो बाहर के जुगराफ़िये से टकरा कर बहुत दिनों तक अजीब उलझन पैदा करता रहा।

और बाद में जब ख़ुद शांति के पापा को अपना घर बदलना पड़ा तब तो हालत और भी विकट हो गई। यह बात उसे बड़ी कठिनाई से समझ आई कि घर भी किराए पर लिया और दिया जाता है। घर बदलने के बाद भी लम्बे समय तक वो पहले वाले एक कमरे के घर को ही घर कहती और वहीं चलने की ज़िद करती। शांति के मम्मी-पापा समझदार थे- उनको ऐसी कोई तक़लीफ़ नहीं थी। वो उसे कई तरह से लुभाते और समझाते कि देखो ये घर अधिक बड़ा है, रौशनीदार है।

धीरे-धीरे शांति भी समझदार हो गई। पुराने दोस्तों को आसानी से भूलना सीख गई। और जल्दी से नए दोस्त बनाना भी सीख गई। और जो चीज़ पहले उसके भीतर बहुत उलझन पैदा करती थी, उसी बात में उसे दिलचस्पी पैदा हो गई। वो जब भी किसी के घर जाती तो उस घर के रहने वालों से मिलने जाती और उस घर से भी मिलने जाती। एक जैसे मकान होने पर भी कोई दो घर एक जैसे नहीं होते। हर घर अलग होता। वैसे ही जैसे हर आदमी के नाक-कान-मुँह होता है फिर भी हर आदमी अलग होता है।

शांति को किसी के घर के भीतर जाना उस व्यक्ति के भीतर प्रवेश करने जैसा लगता। शांति को लगता जैसे घर के अन्दर कई लोग रहते हैं वैसे ही व्यक्ति के अन्दर भी कई लोग रहते हैं। शांति ने यह भी पाया कि हर बार हर घर कुछ बदल जाता है वैसे ही जैसे हर बार हर आदमी भी थोड़ा सा बदल जाता है। शांति के लिए किसी के घर जाना लगभग उससे हाथ मिलाने और दोस्ती करने जैसा था। रहस्यमय लोग अपने घर के दरवाजे हमेशा बंद रखते। शांति जिनसे दोस्ती करना चाहती, उन्हे घर बुलाती और उन्हे अपना कमरा ज़रूर दिखाती। सिर्फ़ उन्ही लोगों के लिए उसके दरवाजे बंद रहते जिन्हे वो पसन्द नहीं करती।

शांति की यह दिलचस्पी शादी के पहले तक क़ायम रही। पर अब वो दिन नहीं रहे। अब लोग एक-दूसरे के घर नहीं आते-जाते। जाते भी हैं तो शालीनता से लिविंग रूम में गुफ़्तगू करते हैं और लौट आते हैँ। लिविंग रूम की बनावट से आदमी की बनावट भर का ही पता चलता है और कुछ नहीं। अधिकतर लोग बाहर कहीं मिलने लगे हैं। और वो जगहें ऐसी हैं जिनमें उनकी कोई निजता नहीं झलकती। शांति के लिए यह एक नई उलझन बन गई है। शांति को लगने लगा है कि वो किसी को नहीं पहचानती। कौन कैसा है, कुछ भी नहीं जानती।

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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

हाशिये पर


शांति को वो रोज़ मिलती थी। कभी-कभी तो दिन में दो बार भी मिलती थी। दफ़्तर आते-जाते जब भी शांति का स्कूटर अम्बेडकर चौराहे पर रूकता तो शांति की निगाहें ख़ुदबख़ुद ही उसे ढूंढने लगती। और पचासों वाहनों के बीच भी उसकी लहकती हुई काया को अलग से पहचान लेने में शांति को कोई मुश्किल नहीं होती। शांति ने उसे जब भी देखा, हमेशा टिपटॉप देखा। हफ़्ते के हर दिन वो एक नए रंग में दिखाई पड़ती। जिस रंग की साड़ी उसी रंग का ब्लाउज़ और सैण्डल। यहाँ तक कि जुएलरी भी मैचिंग पहनती। वैसे तो वो इतनी सुन्दर थी कि वो कुछ भी मेकप न करती और कुछ भी पहन लेती तो भी उस पर से नज़रें हटाना मुश्किल होता। इतना सजने-धजने के बाद तो वो बिजलियां ही गिराने लगती। वो ठुमकते हुए शांति के पास चली आती और उसकी बलैयां लेने लगती। शांति पर्स खोलकर उसे कुछ न कुछ ज़रूर देती। कभी पाँच रूपये कभी दो रुपये। अगर कभी उसके आने से पहले ही सिगनल हरा हो जाता तो भी वो शांति को मुसकराकर बलैयां लेके ही विदा करती और बार-बार आशीर्वाद देती।

कुछ लोग कहते हैं कि इनके आशीर्वाद में बड़ी ताक़त होती है। पर वही लोग उसे देखकर बुरी तरह घबरा जाते। वो कुछ कहती तो आँखें तरेरने लगते। हाथ लगाती तो छिटकने लगते। और उनके लाख स्त्रीवेश रखने पर भी कुछ लोग उन्हे आता-जाता की क्रिया में पुरुष की तरह ही सम्बोधित करते। ये सही है कि इन हिजड़ों में से कई की मांसपेशियाँ पुरुषों की भांति ही उभरी हुई होती हैं और चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ के खूँटे भी झलकते रहते हैं। पर शांति ने पाया है कि उन हिंजड़ो का स्वभाव भी बहुत नाज़ुक और लचीला होता है जिनके शरीर में स्त्रियों जैसी कोई तरलता नहीं होती। उनका शरीर भले पुरुष का हो वे मन से नारी होते हैं और हर कोशिश कर के पूरी तरह वही हो भी जाना चाहते हैं। इन कोशिशों में हारमेन्स की गोलियों से लेकर विदेशों में किए जाने वाले मँहगे ऑपरेशन्स तक होते हैं।

शांति के लिए यह बात कभी मुद्दा ही नहीं रही कि उन्हे पुरुष माना जाय या स्त्री। जैसे किसी का नाम होता है या किसी का मज़हब होता है वैसे ही शांति इसे भी मानती रही है। अगर वे अपने को स्त्री मानते हैं तो उसमें किसी को क्या ऐतराज़ होना चाहिये। पर कुछ लोगों का नज़रिया इस मसले पर बेहद कट्टर और क्रूर पाया जाता है। और इस क्रूरता से शांति का परिचय बहुत बचपन में ही हो गया था। शांति के स्कूल में एक बार एक लड़का पढ़ने आया था नीरज- जो पहनता तो पैंट-शर्ट था लेकिन उसके हाव-भाव और अंदाज़ सब लड़कियों वाले थे- हर समय खिलखिलाना, कुछ लहराते हुए सा चलना, किसी पहाड़ी नदी की तरह धाराप्रवाह बोलना, थोड़ी सी भी चोट लग जाने पर आँखों में आँसू डबडबा जाना। हालांकि कम ही लड़कियां उससे बात करतीं पर वो लड़कियों के साथ घुलमिलकर के रहने की पूरी कोशिश करता। लड़कियो की ही तरह वो लड़को से कटता और लड़के भी उससे कटते। लड़के कभी उससे बात करते भी तो उसका मखौल बनाने के लिए।

नीरज पढ़ने में तेज़ था पर पढ़ाई से अधिक मन उसका सजने-धजने और फैशन में लगता था। वो बड़े बाल रखता और हर दिन एक अलग स्टाईल में बाल सजाकर आता। कभी-कभी नीरज अपनी छोटी उंगली में नेल पॉलिश लगा लेता था। एक दिन वो दसों उंगलियों में नेलपॉलिश लगाकर आ गया। लड़कियों ने झुण्ड बनाकर उस पर मीन-मेख निकाला, लड़कों ने छींटाकसी की, और टीचर ने देखा तो कसकर डाँटा। नीरज ने सर झुका के सुना तो पर उस पर कोई अधिक असर नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद वो स्कूल में लिपस्टिक और मस्कारा लेके आ गया और लंच में कुछ लड़कियों के साथ मिलकर उसने दोनों का इस्तेमाल अपने चेहरे पर कर डाला। शांति को याद है कि वो किसी हीरोईन की तरह सुन्दर लग रहा था। यह बात वो भी जानता था और उसीलिए ख़ुशी से इसके क़दम सीधे नहीं पड़ रहे थे। न जाने यह उसकी ख़ुशक़िस्मती थी या बदक़िस्मती, किसी टीचर की नज़र उस पर नहीं पड़ी। छुट्टी होने तक लड़कियों की खिलखिल और लड़कों की छींटाकसी ज़ारी रही। मगर छुट्टी के बाद जो हुआ उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। स्कूल से निकलने के बाद लड़कों ने उसे घेर लिया और उसके कपड़े फाड़ डाले। उस दिन जब नीरज घर पहुँचा तो उसके शरीर पर कपड़ों के निशान से बड़े ख़ून के निशान थे।

आख़िर उसका अपराध क्या था? क्या सिर्फ़ इतना कि वो औरतों की तरह सुन्दर दिखना चाहता था?

नीरज उस दिन के बाद स्कूल लौटकर नहीं आया। शांति को यह भी पता नहीं चला कि उसके बाद वो फिर किसी स्कूल गया कि नहीं। उस हादसे के बाद नीरज किसी भी सामाजिक समूह में सहज होकर रह पाया होगा, मुश्किल लगता है। यही सोचकर शांति जब भी हिंजड़ो के समूह को देखती है तो सोचने लगती है कि उसका सहपाठी नीरज भी शायद उनमें शामिल हो गया हो। उस हसीन हिंजड़े को देखकर तो शांति को हमेशा नीरज की याद आती है क्योंकि वो कोई बहुत ज़हीन और पढ़ा-लिखा इंसान मालूम देता था। जिसको देखकर किसी का भी मन में उसे जानने और दोस्ती करने की इच्छा पनप जाय। वैसे तो बिना किसी जान-पहचान के ही उनके बीच एक अजीब सी दोस्ती का रिश्ता क़ायम हो गया था पर शांति को उसका नाम भी नहीं मालूम था। शांति ने कई बार सोचा कि वो कभी रुककर उससे उसका नाम पूछे और उसकी कहानी भी। मगर वो मौक़ा कभी नहीं आया। एक रोज़ शांति को वो अम्बेडकर चौराहे पर नज़र नहीं आई। और उसके बाद फिर कभी नज़र नहीं आई। आते-जाते शांति की निगाहों उसे खोजती रहतीं। पर वो नहीं मिली। शांति के पास यह जानने का कोई ज़रिया नहीं था कि वो कहाँ चली गई और क्यों चली गई?

फिर एक दिन अख़बार में एक ख़बर देखी- पुलिस मे कुछ हिंजड़ो को भीख माँगने और वैश्यावृत्ति करने के इल्ज़ाम में हवालात में बंद कर दिया था। साथ में पुलिस अफ़सर का बयान भी था कि वो किसी को समाज में अनैतिकता नहीं फैलाने देगा। साथ में एक छोटी सी तस्वीर भी थी। उस तस्वीर में पुलिस अफ़सर के पीछे हवालात में बंद हिंजड़ो सें से एक का आधा मुँह साड़ी के आँचल से ढका हुआ था और दिखाई पड़ रहा आधा मुँह लाल टमाटर की तरह सूजा हुआ था। शायद उसे भी किसी ने सुन्दर लगने का ईनाम दिया था। शांति ने ग़ौर से देखने की कोशिश की कहीं वो चेहरा उसे मिलने वाली उसकी अनाम दोस्त का तो नहीं है? पर वो कुछ तय नहीं कर सकी- वो एक हिंजड़े का चेहरा भर था जिसके लिए समाज के भीतर या बाहर कोई जगह नहीं थी।

***

(पिछले इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

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