गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

स्मृति




पहचाना? शांति ने पूछा।
शांति साफ़ देख पा रही थी कि शब्बो देर तक उस मुस्कराते चेहरे से मिलती-जुलती कोई शकल अपनी स्मृतियों की गठरी में टटोलती रही। कुछ बहुत भारी पल गुज़रे। शब्बो के लिए समय जैसे लिथड़ने लगा। वो चेहरा किसी ख़ुशनुमा जवाब के इन्तज़ार में मुसकराता ही रहा। हर एक गुज़रते पल के साथ शब्बो के चेहरे पर एक अपराधबोध सा उभरता आ रहा था। न पहचानना सरासर बदतमीज़ी और बेअदबी है। अपनी शर्म में शब्बो ने चेहरे पर एक झूठी मुस्कराहट ओढ़ ली.. और तुक्के फेंकने लगी..
स्कूल में थे न..?
'थे तो.. पर नाम याद नहीं आ रहा न? 
'त्च्च..!! ..सचमुच याद नहीं आ रहा..!'  
'मैं जानती थी.. तू भूल जाएगी मुझे..!' अनजान चेहरे पर थोड़ी उदासी फैल गई। 
इसके पहले कि उदासी और पैर फैलाये शांति ने मामले को अपनी गिरफ़्त में ले लिया।  
'सुमन है रे शब्बो!' शांति ने शब्बो को याद दिलाने की कोशिश की..'याद नहीं है टेन्थ सी..हम तीनों साथ थे..मेरे बगल के घर में रहती थी.. कितनी बार साथ चाट खाई है हमने.. कितनी एम्बीज़ बॉरो की थी उससे.. सब भूल गई?'
'और दीदी की शादी में जीजा जी के जूते छिपाने की लीडरशिप भी तूने ही की थी..' सुमन ने याद दिलाया। 
'और फिर 'मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां' पर नाचकर सबके होश भी उड़ा दिए थे', शांति ने जोड़ा। 
इतना बताने के बाद भी शब्बो के ज़ेहन में कोई कुलबुलाहट नहीं हुई। उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी और के बारे में चर्चा हो रही हो या फिर उसके किसी ऐसे पूर्वजन्म की बातें जिनकी उसे कोई याद नहीं है। मगर ये सारे भाव दबा देने की पूरी कोशिश की झलक भी उसके चेहरे से हल्की-हल्की ज़ाहिर हो ही जा रही थी। 
'अब आया याद?, शांति ने उसका हाथ पकड़ कर झकझोरा। 
'ह..हाँ..' शब्बो अपने झूठ पर जारी रही, 'याद है.. याद है.. पर आजकल न जाने मेरी याददाश्त को क्या हो गया है.. आजकल तो कुछ भी भूल जाती हूँ.. दूधवाले और वाचमैन का नाम तो सभी भूलते होंगे पर मैं तो हीरो-हीरोइन का नाम भी भूलने लगी हूँ.. मरियम नकल करती है मेरी- अरे वो कौन सी फ़िल्म थी.. जिसमें वो गाना था.. अरे वो जो हसीन सा हीरो है उस की तो फ़िल्म थी.. अरे वही जो अपनी ज़ुल्फ़ें अदा से झटकता रहता है..' 
'अच्छा.. ये हाल हो गया तुम्हारा!?' सुमन ने हमदर्दी से पूछा? 

शांति जानती थी कि शब्बो अपनी झेंप मिटाने के लिए बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर बता रही थी। पर शब्बो झूठ भी नहीं बोल रही थी। शांति और शब्बो बचपन की दोस्त हैं। स्कूल से एक दूसरे के साथ हैं। स्कूल- कालेज की तमाम बातें और क़िस्से जो शांति को चमकीले उजाले की स्पष्टता के साथ याद हैं, शब्बो के ज़ेहन से परमानेंटली डिलीट हो चुके हैं। बेचारी शब्बो! ऐसी स्मृति है उसकी कि बार-बार दोस्तों के बीच शर्मिन्दा होना पड़ता है उसे। सुमन के सामने वाली यह हालत पहली बार नहीं हुई है। जब भी कभी पुराने दोस्त मिलते हैं तो ऐसी ही हालत बार-बार पैदा होती है। जो असहजता सुमन को भूल जाने से शब्बो में जनमी थी - शब्बो को उसे भी भूलते देर नहीं लगी। दो-चार बातों के बाद शब्बो अपने रंग में वापस लौट आई। शांति को शब्बो के इस गुण पर बड़ी हैरानी होती और कभी-कभी रश्क भी होता! शांति कभी कुछ नहीं भूलती। उसे सब कुछ सब समय याद रहता है। 

सुमन चली गई, शब्बो भी। खाना-पीना करके, सबकुछ समेट कर शांति सो गई। देर रात अचानक उसकी नींद खुल गई। अजीब एहसास था एक तरफ़ गला कुछ सा सूख रहा था और वहीं पैर गल से रहे थे। गला तर करने के लिए रजाई से निकलने का यकायक मन नहीं किया शांति का। चुपचाप वहीं पड़ी रही। पूरे आलम में सन्नाटा था। बस बग़ल में अजय की सांस की आवाज़ और एक कुत्ता कहीं दूर भौंक रहा था लगातार। और कहीं कोई और आवाज़ नहीं थी। बस एक नियमित अन्तराल के बाद उस कुत्ते की भौंकने की आवाज़ आती जा रही थी-  भौं-भौं.. भौं-भौं.. भौं-भौं। 

शांति ने चाहा फिर सो जाए पर एक बात जो वो कभी भूली नहीं, उसके ज़ेहन में घूमती जा रही थी- गर्मी थी.. छुट्टियां थीं.. दोपहर थी.. माँ को हलका सा बुख़ार था। चिपचिपाते लम्बे उबाऊ दिनों के बहुत इन्तज़ार के बाद बादल घुमड़े और फिर गड़गड़ाकर मेह बरसने लगा। नन्ही शांति उत्साह से झूम उठी और चीख़ी- माँ देखो बारिश हो रही है! माँ ने कराह कर उसे बरज दिया- अच्छा है पर तू बाहर मत जाना! शांति के सारे उत्साह पर पानी फिर गया- क्यों माँ? माँ को बोलने में कष्ट हो रहा था। वो कहना चाहती थी कि पहली बारिश में भीगने से त्वचा के रोग हो सकते हैं, पर नहीं कहा। बस डाँटकर चुप करा दिया। शांति चुप तो हो गई पर मानी नहीं। हौले से दरवाज़ा खोलकर बारिश में देर तक नहाती रही। और जब बदन में शिअरन होने लगी तो उसी तरह हौले घर में दाखिल हुई। देखा माँ कहाँ है- माँ वहीं अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी। नन्ही शांति बाथरूम में जाकर कपड़े बदलने लगी। दो मिनट बाद किसी के रपटकर गिरने का शब्द हुआ। जब शांति बाहर आई तो देखा कि माँ अपने कमरे के बाहर फ़र्श पर गिरी पड़ी है। जहाँ शांति ने रुककर माँ को चुपके से देखा था, वहीं पर शांति के बदन से गिरकर जमा हुए पानी पर माँ फ़िसल गई थी। और तब से अक्सर शांति की स्मृति में रात-बिरात फ़िसलती रहती है।   

ऐसी ही कितनी दुख, क्षोभ, पश्चाताप और अपमान की बातें हैं जो उसे रातों में सोने नहीं देतीं। ऐसे ही देर रात में कूदकर उसकी नींद की राह अवरुद्ध कर देती हैं। शांति ने बहुत चाहा कि फिर सो जाए पर माँ के चेहरे का वो कष्ट और अवसाद उसकी आत्मा में और बिछौने में काँटे की तरह गड़ता रहा। कुत्ता अभी भी भौंक रहा था, उसी नियमितता से- भौं-भौं.. भौं-भौं.. भौं-भौं। न जाने वो कोई बात भूल गया था या उसे कोई बात याद आ रही थी। 

*** 

(१५ जनवरी को दैनिक भास्कर में छपी) 
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