सोमवार, 30 जून 2008
अगली बार कहीं और मिला जाय!
इसी मसले पर एक अमरीकी नागरिक ने एक फ़िल्म का निर्माण किया- सुपरसाइज़ मी! यह नाम मैक्डोनाल्ड्स के सुपरसाइज़ बरगर्स से प्रेरित है जिसे पहली बार खाकर फ़िल्म के नायक और निर्माता-निर्देशक मॉर्गन स्परलॉक उलटी कर देते हैं। वो बात अलग है कि शीघ्र ही उनका शरीर इस मात्रा के लिए लचीला रुख अख्तियार कर लेता है। और फिर उन तीस दिनों में उनके शरीर की क्या दुर्दशा होती है जिस दौरान वे सिर्फ़ और सिर्फ़ मैक्डोनाल्ड्स के आउटलेट्स से मिलने वाली सामग्री से ही अपनी शरीर की खाद्य आपूर्ति कर रहे थे इसे आप फ़िल्म देखकर यहाँ से जानिये। यहाँ पर आप कई दूसरी डॉक्यूमेन्टरीज़ भी देख सकते हैं।
इस फ़िल्म की खबर मुझे भाई अफ़लातून से हुई जब वे अपनी पत्नी स्वाति जी समेत मुम्बई पधारे। वे दोनों गुजरात के एक प्राकृतिक स्पा से स्वास्थ्यलाभ कर के लौट रहे थे। आठ दिन की उस अवधि में उन दोनों का वजन साढ़े पाँच किलो कम हो गया। इसी सन्दर्भ में इस फ़िल्म का भी ज़िक्र आया। मित्रों को याद होगा कि पिछले दिनों अफ़लातून भाई की तबियत कुछ नासाज़ थी।
अफ़लातून जी के साक्षात दर्शन हम सब ने पहले दफ़े गोरेगाँव पूर्व के जावा ग्राइण्ड कैफ़े में तारीख २२ जून को किये। इस अवसर पर अनिल रघुराज, प्रमोद सिंह, विमल वर्मा, बोधिसत्व, शशि सिंह, हर्षवर्धन, और विकास मौजूद थे। और मैं तो था ही। लगभग चार घण्टे तक चली इस मुलाक़ात में तमाम आर्थिक, राजनैतिक और ब्लॉगिक मुद्दो पर खूब विचार-विमर्श हुआ। अफ़लातून भाई तो अपने फ़ितरत के अनुसार मजमा लगाने लग पड़े ही थे मगर स्वाति जी उन्हे खींच के ले गईं।
स्वाति जी जिन से हमारा अन्तजालीय परिचय भी नहीं था.. उनसे मिलना भी हमारे लिए एक ‘स्टिमुलेटिंग एक्सपीरिंयस’ रहा और वे भी हमसे मिलकर ‘बोर’ नहीं हुई जैसा कि उन्हे अन्देशा था। तस्वीरें शशि सिंह ने खींची और पी गई कॉफ़ियों का आधा बिल विकास ने भरा जिनकी जेब नई नौकरी की पगार से गर्म थी।
अफ़लातून भाई के सम्मान में हम इकट्ठा हुए और इसी बहाने हम सब की बड़े दिनों बाद एक दूसरे से भी मुलाक़ात हुई, वरना कहाँ मिलना हो पाता है। इस मुलाक़ात का ढीला पहलू सिर्फ़ मिलन-स्थल जावा ग्राइण्ड ही रहा जो अपने संगीत से हमें थकाता रहा और उसी माहौल से हमें दबाता रहा जिसकी चर्चा हम सारे समय करते रहे! तय हुआ कि अगली दफ़े कहीं और मिला जाय।
परेशानी की बात यही है कि बाज़ार ने सारी सार्वजनिक जगहों पर क़ब्ज़ा कर लिया है (यहाँ तक कि बचे-खुचे सार्वजनिक पार्कों को भी निजी हाथों में धकेला जा रहा है) और उन्हे ऐसी जगहों मे तब्दील कर दिया है जो आप के मन-मानस को सिर्फ़ एक उपभोक्ता के बौने स्वरूप में सीमित कर देते हैं।
मैक्डोनाल्ड्स की बड़ी सफ़लता के पीछे एक राज़ यह भी है बच्चों के खेलने के मैदान शहरों में से बिला गए हैं और मैक्डोनाल्ड्स के प्रांगण में फ़्री प्ले-स्टेशन्स उग आए हैं। ये हाल अमरीका का है जहाँ की आधी से ज़्यादा आबादी इन्ही प्लेस्टेशन्स की छाया में ओवरवेट या ओबीस हो चुकी है और हमारे दलाल नेता और मक्कार अफ़रशाहों की बेईमानी के चलते यही हाल हिन्दुस्तान का भी होने जा रहा है।
अच्छा नज़ारा होगा.. एक तरफ़ गाँवों में किसान अपने गले में रस्सी कस रहा होगा और शहरों का मध्यवर्ग कमर की पेटी ढीली पर ढीली कर रहा होगा!
रविवार, 29 जून 2008
कश्मीरी घड़ी की अटकी सुईयाँ
कश्मीर में पीडीपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वैसे तो तीन महीने बाद यूँ भी चुनाव होने ही थे मगर जिन हालात में ये कदम उठाया गया है वह बेहद शर्मनाक है। कहा जा रहा है कि नब्बे के उबलते हुए दिनो के बाद से कश्मीर घाटी की ये सबसे बुरी दशा है।
सारा मामला तब शुरु हुआ जब सरकार ने वन-विभाग की भूमि को अमरनाथ धाम के बढ़ते तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए आवंटित कर दिया ताकि उनके रहने आदि का अस्थायी इंतज़ाम हो सके। भयानक विस्मृति के इस दौर में भी मुझे याद है कि अभी कुछ रोज़ पहले ही अमरनाथ यात्रियों की अप्रत्याशित भीड़ में दुर्घटनाओं के चलते यात्रा में बाधाएं उपस्थित हो गई थी और अव्यवस्था फैल गई थी। शायद ऐसी ही किसी अव्यवस्था से निजात पाने के लिए कश्मीर की राज्य सरकार ने ये फ़ैसला किया होगा।
शीघ्र ही पर्यावरण के सजग प्रहरियों ने इस फ़ैसले का विरोध किया जिस से ये मामला आम रौशनी में आ गया और पलक झपकते ही कश्मीर के नौजवान सड़को पर उतर आए और इस फ़ैसले को वापस लेने की माँग करने लगे। उनका आरोप है कि ये असल में एक साज़िश है कश्मीर में हिन्दुओं को बसा कर मुसलमानों को अल्पसंख्यक तबक़े में बदल देने की।
जब मैंने पहले ये खबर सुनी तो मैं इस आरोप की मूर्खता से सन्न रह गया। और कश्मीर के नौजवानों के मानसिक क्षमता का सोचकर एक बार फिर सन्न रह गया। आज भी कश्मीरियों की आय का मुख्य स्रोत पर्यटन ही है और वे उसी स्रोत की जड़ में माठा डाल रहे हैं।
मैं नहीं जानता कि हुर्रियत का इस बेसिरपैर के चिंतन में कितना योगदान है पर वो इस मामले को पूरी तरह से भुनाने में लगी हुई है। परिपक्व राजनेता की छवि रखने वाले मीरवाइज़ उमर फ़ारुख कल टीवी पर इस फ़ैसले की वापसी की माँग करते दिखे.. पर एक लफ़्ज़ भी अपनी जनता की मूर्खतापूर्ण सोच का धुआँ छाँटने में ज़ाया उन्होने नहीं किया।
पीडीपी के राजनैतिक अवसरवादिता पर मुझे कोई शक़ नहीं था। कश्मीर मंत्रिमण्डल के भूमि-आवंटन के इस फ़ैसले पर पीडीपी के भी मंत्रियों के दस्तखत थे और अब उन्होने ही सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। एक ऐसे आदमी की पार्टी से आप उम्मीद ही क्या कर सकते थे जो सक्रिय राजनीति से लगभग सन्यास ले चुकने के बाद अचानक सत्तालोभ में अपनी बेटी को पीछे धकेल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चढ़ जाता है।
आज जबकि बाक़ी दुनिया पर्यावरण के गहराते संकट के प्रति जाग रही है कश्मीर की अवाम एक वन-संरक्षण के मुद्दे को भी साम्प्रदायिक रंग में रंग कर अपनी हुर्रियत उसमें खंगाल रही है। कश्मीर का अध्याय एक के बाद एक न जाने कितनी ही भयानक भूलों के दुखद पन्नो से भरा हुआ है।
मेरे कश्मीरी पंडित मित्र बताते हैं कि नवासी-नब्बे के सालों में घाटी में पन्डितों को मार देने की और उनकी औरतों को रख लेने की धमकियों का बाज़ार गर्म था। पण्डित वहाँ से अपना घर छोड़कर तभी भागे जब वाक़ई हत्याओं का सिलसिला चल पड़ा।
तब कश्मीर को हिन्दुओं से खाली कर देने का उत्साह था और आज कश्मीर में हिन्दुओं के भर जाने का भय। दोनों ही भाव शुद्ध साम्प्रदायिक हैं.. मानो उन्हे आज़ादी हिन्दुस्तान से नहीं हिन्दुओं से चाहिये हो! इसी साम्प्रदायिकता के चलते कश्मीर के हुर्रियत आन्दोलन को भारतीय मुसलमान से कभी रत्ती भर भी समर्थन नहीं मिला और न मिलने की उम्मीद है।
ऐसा लगता है जैसे कश्मीर सन ४७ के भयानक साम्प्रदायिक हादसों से कभी उबरा ही नहीं। पूरी दुनिया कहाँ से कहाँ जाती जा रही है.. पर कश्मीर उसी बँटवारे के उलझाव में फँसा पड़ा है। जैसे कश्मीर में घड़ियों को लकवा मार गया हो।
आज फिर कश्मीर की सड़कों पर पाकिस्तान-पाकिस्तान के नारे लग रहे हैं और हम उन्हे टीवी पर देखकर कुढ़ रहे हैं। वे लोग जो हमारे साथ हमारे देश का हिस्सा होना ही नहीं चाहते उन्हे ज़बरदस्ती अपने साथ घसीटने का ‘सुख’ झेल रहे हैं।
मैं तो कहता हूँ दे दो इन लोगों को पाकिस्तान.. ऐसे लोगों को अपने साथ रखने का लाभ ही क्या। मगर मैं कौन हूँ और मेरी कौन सुनता है। ये राज्यसत्ता का अधिकारक्षेत्र है- और राज्यसत्ता के लिए लोग नहीं राज्य और सत्ता महत्वपूर्ण होते हैं।
गुरुवार, 19 जून 2008
कुलीनता का भौकाल
नादिर शाह खानदाने तैमूरी के इतने भौकाल में था कि दिल्ली में क़त्ले आम करने के बावजूद उसे मुहम्मद शाह जैसे अय्याश को हाथ लगाने की हिम्मत तक नहीं हुई। नादिर ने कोहिनूर लिया.. तख्ते ताऊस लिया.. दिल्ली के अमीरो-उमरा की खूबसरत लड़कियाँ लीं.. दिल्ली के शहरियों के तन से कपड़े तक उतार लिए .. पर मुहम्मद शाह को गद्दी को हाथ तक नहीं लगाया.. उलटे उस के साथ पगड़ी बदल कर उसे अपनी बराबरी का दरजा दिया।
अहमद शाह अब्दाली ने भी आलमगीर द्वितीय के साथ ऐसा ही व्यवहार किया.. जबकि मुल्क के अमीरों ने आलमगीर द्वितीय के लाल क़िले में रहते-रहते अब्दाली के नाम खुत्बा पढ़वा दिया था.. और मुल्लाओं तक ने चूँ नहीं की.. फिर भी उदार-हृदय अब्दाली ने आलमगीर को उनका मुल्क वापस कर दिया.. आखिर वे अकबर और औरंगज़ेब के फ़रज़ंद थे। दो महीने तक दिल्ली से मथुरा तक सरकटी लाशें सड़कों पर सड़ती रहीं.. आबरुएं लुटती रहीं.. पर खानदाने मुग़लिया की शान में गुस्ताखी की एक आँख तक नहीं उठी।
ईरानी और अफ़्गानी तो छोड़िये अपने रैशनल अंग्रेज़ भी इस राजसी पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं थे। बक्सर की लड़ाई के बाद और उसके पहले भी जब शाह आलम शिकस्तज़दा हो गए तो उनके सरदारों का तो वही हाल हुआ जो पराजितों का होता आया है मगर ज़िलावतन बादशाह को पूरी इज़्ज़त और बादशाही शान-बान से ले जाके इलाहाबाद में स्थापित किया गया।
यहाँ तक मराठे भी बादशाह को बराबर इज़्ज़त बख्शते आए। १७६० में दिल्ली जब भाऊ के क़ब्ज़े में थी और भाऊ की जेब बिलकुल खाली। उन्होने लुटी-पिटी दिल्ली को बहुत निचोड़ा और फिर भी जब कुछ हाथ नहीं आया तो भी उन्होने दबी हुई दौलत की तलाश में लाल क़िले के ज़नानखाने की तरह एक क़दम तक नहीं रखा.. हाँ दीवानेखास की छत से चाँदी ज़रूर उतार ली। बाद में जब ग़ुलाम क़ादिर खान ने शाह आलम को अंधा कर दिया तो इस अक्षम्य अपराध का बदला भी मराठों ने ही लिया।
इन सब मामलों में सियासत का भी एक पहलू है मगर इस सोच की जड़े सियासत के अलावा कहीं और भी हैं। खानदान के ऊँचे गुणों की ‘खून’ के ज़रिये निरन्तरता या आनुवंशिकी पर एक अंधविश्वास इस पूर्वाग्रह की ज़मीन है। इसी सोच से सवर्ण और सय्यद पूज्य हो जाते हैं और राजे-महाराजे ईश्वर का अवतार।
कृष्ण क्या ऐसे ही विष्णु के अवतार बने और पाँच पाण्डव देवपुत्र? शम्बूक इसीलिए तो मारा गया क्यों कि उसका पिता शूद्र था और उसका खून तपस्या के योग्य नहीं था। इस देश में गाँधी-परिवार में श्रद्धा क्या उसी पूर्वाग्रह का परिणाम नहीं है जो एक को पूज्य और दूसरे को दलित बनाता है।
सारे कांग्रेसी चरम अवसरवादिता में आम जनों की इस सोच का ही चुनावी लाभ उठाना चाहते हैं और साथ में मुलम्मा दलित-उत्थान का पहनाना चाहते हैं। अंग्रेज़ी में इस ऑक्सीमोरॉन कहते हैं। इसीलिए हम एक तरफ़ तो सोनिया जी के चरणों में बिछे रहते हैं और दूसरी तरफ़ एक काले झण्डे वाले को भी टीप मार-मार कर मिटा देना चाहते हैं- जैसे कभी चार्वाक को ब्राह्मणों ने अपनी हुंकार से दमित कर दिया था।
शनिवार, 14 जून 2008
अधिक से अधिक एक भावुक छाप!
आमिर य़ूटीवी और अनुराग कश्यप के साझे निर्माण से उपजी फ़िल्म है। फ़िल्म में अनुराग का क्रेडिट भी क्रिएटिव प्रोड्यूसर है। अगर वो क्रेडिट न भी होता तो भी आमिर के फ़िल्मांकन में मुम्बई की गन्द भरी गलियों की वो जीवन्त छाप मौजूद है जिसे ब्लैक फ़्राईडे और नो स्मोकिंग के बाद शायद अनुराग कश्यप का खास फ़न समझा जा सकता है।
फ़िल्म का कथानक पूरा-पूरा फ़िलीपीनो फ़िल्म कैविते से उधार लिया गया है.. बिना आभार। आमिर के परिवार को बंधक बनाकर एक मुस्लिम आतंकवादी दल उसे अपने इशारों पर नचा रहा है- एक आतंकी कार्रवाई के लिए। इस बहाने से आप आमिर का तनाव झेलते हुए मुम्बई की गंद के दर्शन करते हैं और मुस्लिम समाज की मुश्किलों को भी याद कर लेते हैं।
एक थ्रिलर के बतौर फ़िल्म कामयाब है ऐसा कहना कठिन है। बमुश्किल ९० मिनट की होने के बावजूद अंत तक आते-आते फ़िल्म थकाने लगती है। कुछ भी नया कहने को नहीं है और बात वही है कि एक मामूली सी बात का बहुत प्रचार किया जा रहा है। सारे चरित्र एकाश्मी हैं और एक ही सुर में बतियाते नज़र आते हैं। ये तरक़ीब फ़िल्म को एक मूड ज़रूर प्रदान करती है मगर फ़िल्म के कथ्य को गाढ़ा करने में जो मदद भरे-पूरे चरित्रों से मिल सकती थी वो मौका खो देती है।
आलोचकगण इस फ़िल्म की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर रहे हैं पर मुझे लगता है कि भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के नज़रिये से ये कहानी पूरी तरह उपयुक्त नहीं है। फ़िल्म एक स्टाइलिश फ़्लिक के बतौर बस ठीक-ठाक है और प्रगतिशील संदेश तो आधा-अधूरा और कमज़ोर है।
फ़िल्म बनाने के इस तरीक़े के उलट खड़ी है समर २००७- निर्देशक सुहैल तातारी की पहली फ़िल्म। जिसमें किसी फ़िल्म से कोई प्रेरणा नहीं ली गई है.. फ़िल्म हमारे देश की उस सच्चाई को सामने लाने की कोशिश है जिसके चलते शहर और गाँव का सम्पर्क, संवाद और नाता सब टूट चुका है।
किसानों द्वारा की जा रही लगातार आत्म-हत्याएं, हमारी लड़खड़ाती कृषि व्यवस्था (जिसमें सिर्फ़ अर्थ ही नहीं समाज भी शामिल होता है) और इस तरह से पैदा होने वाले महासंकट से शहरी जनता को आगाह करने के लिए फ़िल्म के निर्देशक और लेखक ने एक सम्पन्न शहरी युवा मित्र मण्डली के ज़रिये गाँव की दुनिया में उतरने की हिम्मत दिखाई है। यह कोशिश इतने साहस और निष्ठा से उपजी है कि इसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है।
दिक़्क़्त की बात यह है कि फ़िल्म अकेले साहस और निष्ठा के सहारे नहीं बनती और नहीं चलती। फ़िल्म अन्ततः एक मनोरंजन का ज़रिया है.. दर्शक के दिल को अरझाये बिना आप कुछ हासिल नहीं कर सकते भले ही आप की नीयत कितनी भी नेक क्यों न हो। ऐसा ही कुछ हादसा समर २००७ के साथ हुआ है।
मुझे फ़िल्म दोनों मोर्चों पर कमज़ोर पड़ती नज़र आई- न तो वो शहरी युवाओं की स्टाइलिश बेफ़िक्री को ढंग से पकड़ पाई और न ही गाँव की बेडौल चिन्ताओं को। स्टाइल का तो फ़िल्म में अभाव है ही.. फिर कहीं स्क्रिप्ट कमज़ोर पड़ती है तो कहीं निर्देशन।
बजट की सीमाओं समझी जा सकती हैं पर फ़िल्म की अवधि को भी हदों में रखा गया होता तो बेहतर होता। उत्तरार्ध में तो फ़िल्म दर्दनाक तरह से धीमी और लम्बी हो जाती है। दर्शक के पौने तीन घण्टे लेने के बावजूद फ़िल्म उसे एक भी किसान से परिचित कराने में चूक जाती है और न जाने क्यों अपने सरोकार को शहरी युवा के भीतरी बदलाव तक ही महदूद रखती है। और अंत तक पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह विश्वसनीयता भी खो देती है।
शायद समर २००७ वास्तविकता के अधिक क़रीब है फिर भी आमिर जैसी फ़िल्म दर्शक पर अपना प्रभाव छोड़ने में कहीं अधिक सफल हैं। कोई भी फ़िल्म भौतिक वास्तविकताओं को बदल नहीं सकती.. अधिक से अधिक उस के प्रति एक भावुक छाप छोड़ सकती है। असली बदलाव सत्ता के अधिग्रहण से ही आता है। बाक़ी सब उसकी तैयारी है।
शुक्रवार, 13 जून 2008
ट्रुथ सीरम का ट्रुथ
ये अलग बात है कि कृष्णा के घरवाले हाय-तोबा मचा रहे हैं कि न जाने कितने रोज़ से कृष्णा घर नहीं लौटा है। वैसे एक सच्चा देशभक्त होने के नाते मैं उनकी इन बातों पर कान नहीं देता.. आखिर सी बी आई एक सम्मानित केन्द्रीय संस्था है वो कोई अवैध काम करेगी ये कोई सोच भी कैसे सकता है.. उसका तो काम ही अवैध अपराधिक गतिविधियों की जाँच करना है।
इसी जाँच के सिलसिले में कृष्णा के तीन लाई-डिटेक्टर टेस्ट हुए और फिर बेंगालूरू में नार्को टेस्ट। अभी-अभी खबर आई है कि कृष्णा के दूसरे नार्को टेस्ट की भी सम्भावना है? अब वो होगा या नहीं वो तो भविष्य में देखेंगे मगर मुझे जिज्ञासा हुई कि होती क्या है यह बला?
अन्तरजाल से ही पता चला कि ट्रुथ सीरम या सोडियम पेन्टाथॉल नाम की ये दवा गन्धहीन स्वादहीन और लगभग प्रभावहीन है.. इसका एक मात्र प्रभाव फ़िसलती हुई ज़ुबान ही है। ये एक तरह का अनेस्थेटिक है जिसे सर्जरी के वक़्त इस्तेमाल किया जाता है। जंगली जानवरों को क़ाबू में करने के लिए भी ये दवा ट्रान्क्वेलाइज़र के बतौर प्रयोग की जाती है।
आदमी के ऊपर नार्को टेस्ट की दवा का असर खत्म होने के बाद व्यक्ति को जिह्वा-स्वातंत्र्य के इस अनुभव की कोई स्मृति नहीं रहती। लोगों की ज़ुबान खुलवाने का यह तरीक़ा रूसी गुप्तचर संस्था केजीबी ने ईजाद किया था जिसका लाभ आगे चलकर सीआईए ने भी उठाया। फ़िलहाल ये अन्तराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार प्रतिबंधित है। अमरीका ने ग्वान्टानामो बे में क़ैद लोगों का अपराध सिद्ध करने के लिए भी इसके इस्तेमाल नहीं किया है.. कम से कम ऐसा घोषित तो नहीं किया है।
फिर इस सीरम की उपयोगिता पर भी बड़ा प्रश्न चिह्न है क्योंकि ये सीरम सिर्फ़ हिचक तोड़कर ज़ुबान को खोलता है पर उस ज़ुबान से सत्य ही निकलेगा इसे पक्का नहीं करता। दवा के प्रभाव में आदमी ज़ुबान पर से अपने बन्धन उठा लेता है मगर नियंत्रण नहीं खोता और भड़भड़ा कर सब कुछ नहीं बकने लगता। अगर वो सच को छिपाना चाहेगा तो छिपा ले जाएगा। मुझे याद है कि तेलगी के नार्को टेस्ट में उसने कोई ऐसी बात नहीं बोली जिस से वो या कोई दूसरा बड़ा आदमी फँस सकता था।
मंगलवार, 3 जून 2008
सीधी हो रही हैं सेज़ की सलवटें!
यह क़ानून १८९४ के भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन कर के बनाया जाएगा। फ़िलहाल ये बिल की अवस्था में है पर इतना तय है कि जब इसे संसद में सर्वसम्मति से पारित किया जाएगा तो किसी को इसकी हवा भी नहीं लगेगी। मीडिया वही ग्लमैर और सनसनी परोस रहा होगा, ब्लौग पर बन्धुगण खास ब्लौगीय क़िस्म की सरगर्मियों में तप रहे होंगे और संसद में..? वहाँ कोई नारेबाज़ी नहीं होगी, कोई वौक आउट नहीं होगा.. एक क़लम भी अध्यक्ष या किसी दूसरे सांसद की तरफ़ नहीं फेंकी जाएगी। क्यों? इस से किस पार्टी का क्या बिगड़ता है..? कांग्रेस और भाजपा से लेकर माकपा तक सेज़ के समर्थन में हैं और ये बिल तो सिर्फ़ सेज़ की सलवटों को निकालने के लिए भर है। (तृणमूल कांग्रेस ज़रूर अपनी फ़ौरी ज़रूरतों के लिहाज़ से कुछ विरोध का ड्रामा कर सकती है)
बिल के विवरण में जाने से पहले ज़रा इस पर ग़ौर कीजिये कि १८९४ का क़ानून २००८ में बदला जा रहा है.. वो भी तब जबकि देश के धनिक वर्ग को तक़लीफ़ आन पड़ी है.. जब तक आदिवासी और अन्य ग्रामीण जन बार-बार इधर से उधर धकेले जा रहे थे तब तक किसी को क़ानून बदलने की याद नहीं आई? आज़ादी के रणबांकुरों ने देश की बागडोर अपने हाथ में लेने के बाद अंग्रेज़ों के दमनकारी क़ानूनों को जस का तस क्यों छोड़ दिया? किसी क़ानून में बदलाव लाना तो दूर उन्होने तो क़ानून के सिपाहियों को उनके हास्यास्पद काले कोट और सफ़ेद टाई से मुक्ति दिलाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई? क्यों? क्या इस से हमारे शासकों के चरित्र पर क्या कोई रौशनी पड़ती है?
इस बिल का मसविदा तैयार करने के पहले सेज़ के लिए बनाई स्टैंडिंग कमेटी ने कुछ सिफ़ारिशें की थीं.. उन सिफ़ारिशों के रू-ब-रू देखने पर ही इस बिल की क़लई खुल जाती है कि किस तरह से सारे पहलू अमीर आदमी को सहूलियत और फ़ायदा पहुँचाने के लिए हैं और एकाध नियम अगर ऐसा लगे कि जो ग़रीब आदमी की सहूलियत के लिए है वो व्यावहारिक स्तर पर जा कर ऐसी शक़ल अख्तियार कर लेगा कि अन्ततः उसे कोई लाभ नहीं पहुँच सकेगा।
सिफ़ारिश थी कि राज्य सरकार और ग्राम पंचायत मिल कर फ़ैसला करें कि कौन सी ज़मीन इस योग्य है और फिर एक जन विज्ञप्ति जारी करें ताकि ज़मीन के रिकॉर्ड्स में किसी भी तरह के कपट से बचा जा सके.. मगर बिल में इसके विपरीत ज़मीन के रिकॉर्ड्स को दुरुस्त करने, ज़मीन सम्बन्धी सभी निर्णय लेने के लिए सारे अधिकार कलेक्टर साहब के सुपुर्द कर दिए गए हैं।
ज़मीन की क़िस्म
कमेटी की सिफ़ारिश थी कि केवल बंजर और बेकार ज़मीन का ही उपयोग सेज़ के लिए किया जाय और बिलकुल ही अनिवार्य होने पर वर्षा पर आश्रित एक फ़सल वाली ज़मीन और कई फ़सल वाली सिंचित ज़मीन के अधिग्रहण पर पाबन्दी लगाई जाय .. मगर बिल इस मामले में चुप्पी साधे है।
ज़मीन खरीदने की सीमा
सिफ़ारिश थी कि हर तरह के सेज़ के लिए ज़रूरत से ज़्यादा ज़मीन खरीदने पर रोक लगाई जाय, अधिकतम सीमा निर्धारित की जाय और अधिग्रहीत ज़मीन का कम से कम ५०% हिस्सा प्रोसेसिंग एरिया की तरह इस्तेमाल किया जाय। मगर बिल कोई सीमा नहीं बताता।
ज़मीन के मालिकों की अनुमति
सिफ़ारिश थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले को छोड़कर ज़मीन के मूल स्वामियों/निवासियों की अनुमति आवश्यक हो.. मगर बिल कहता है कि प्रभावित लोग अधिसूचना के तीस दिन के भीतर अपनी आपत्ति कलेक्टर के पास दायर कर सकते हैं। सम्बन्धित सरकार इन आपत्तियों पर विचार करेगी और पुनर्वास का मामला ग्रामसभा में विचारा जाएगा।
प्रभावित लोगों को सूचना
सिफ़ारिश की गई थी कि प्रभावित लोगों को ज़मीन के अधिग्रहण के उद्देश्य, असर और पुनर्वास सम्बन्धी व्यवस्था के बारे में सूचित किया जाय। मगर बिल कहता है कि ये सारी सूचनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई जाएंगी और पुनर्वास की योजना उन लोगों से मशविरा कर के सार्वजनिक कर दी जाएगी।
ज़रा सोचिये! कल को आप के घर पर क़ब्ज़े का नोटिस कलेक्टर के दफ़तर के बाहर चिपका हो या अखबार के एक कोने में भी छ्पा हो और आप शेन वार्न, शाहरुख खान और तुलसी विरानी के बीच झूलते हुए उसे पढ़ने से चूक गए तो आप सर पटक के मार जाइये आप का वैधानिक अधिकार आप के हाथ से निकल गया।
ज़मीन अगर इस्तेमाल नहीं हुई
सिफ़ारिश थी कि ज़मीन खरीदने के बजाय लीज़ पर लेने का प्रावधान रखा जाय जिसमें ज़मीन के मालिक को एकमुश्त रक़म के अलावा लगातार किराया भी मिले और यदि सेज़ न चले या खत्म हो जाय तो ज़मीन को उसके मूल मालिक के पास वापस लौटा दिया जाय। मगर बिल एक बार फिर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं करता और पांच साल तक इस्तेमाल न होने की सूरत में ज़मीन को उलटे सरकार के क़ब्ज़े में जाने की बात करता है।
मुआवज़े का गणित
सिफ़ारिश थी कि मुआवज़ा उस समय के बाज़ार भाव के अनुसार दिया जाय मगर बिल इसकी भी ऐसी खिचड़ी बनाता है कि अमीर आदमी को और फ़ायदा पहुँचे.. कहता है कि मुआवज़े का आकलन बाज़ार भाव, ज़मीन का क्या इस्तेमाल होना है, ज़मीन पर खड़ी फ़सल, अन्य अधिग्रहीत ज़मीनों के ऊपरी ५०% भावों का ‘औसत’ के आधार पर किया जाय।
ज़मीन का मालिकाना
सिफ़ारिश थी कि भले ही सरकार खुद भी अधिग्रहण कर रही हो तो भी ज़मीन खरीदने के बजाय लीज़ पर ली जाय मगर बिल इस को तो अनदेखा करता ही है साथ एक और अनोखी बात करता है कि अगर अधिग्रहण की जा रही ज़मीन का ७०% हथियाया जा चुका है तो फिर कम्पनी को शेष ज़मीन को ‘पब्लिक परपज़’ के आधार पर लेने का अधिकार स्वतः मिल जाता है।
बहुत सोचने पर भी मुझे सिफ़ारिशों के उलट जा कर बिल का ऐसा स्वरूप तैयार करने के पीछे मुझे कोई और मक़्सद समझ नहीं आया सिवाय इसके कि ये राज्यसत्ता, सरकार और इसके चुने हुए प्रतिनिधि विकास के नाम पर, लुटे-पिटे ग़रीब आदमी को जितना हक़ बनता है उसे उतना भी नहीं देना चाहते। और वित्त मंत्री महाशय जो विकास के इस मॉडल के ज़रिये ही सबसे बड़े प्रदूषक- ग़रीबी को दूर करने की बात करते हैं.. क्या इतने भोले हैं कि इन बदलावों का अर्थ नहीं समझते और इसी नासमझी के चलते वे इस बिल की सहमति में हाथ खड़ा कर देंगे?
मुझे इस बिल की जानकारी इंडिया टुगेदर नाम की सचेत साइट पर प्रिया पारकर और सरिता वनका के लेख न्यू रूल्स फ़ॉर सीज़िंग लैण्ड से से हासिल हुई।