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शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

आरे पर गिद्ध-दृष्टि

मुम्बई में साँस लेने के लिए वैसे ही हवा कम पड़ती है और अब शरद पवार साहब के बयान से ऐसा मालूम देता है कि मु्म्बई के फेफड़ों में जो बची-खुची हवा है वो भी निकल जाएगी। पिछले महीने महानन्दा डेअरी के एक समारोह में बोलते हुए पवार साहब ने इशारा किया कि यदि आरे डेअरी मुनाफ़ा नहीं बना पा रही है तो क्यों न महानन्दा ही उसे सम्हाल ले।

उनके इस बयान में निहित खतरों को भाँप कर आरे मिल्क कॉलोनी में काम करने वाले और रहने वाले लोगों ने भारिप बहुजन महासंघ के अन्तर्गत २३ अक्तूबर को एक विरोध प्रदर्शन किया। इस मोर्चे का नेतृत्व डॉ आम्बेडकर के नाती आनन्दराज आम्बेडकर ने किया और आरे के प्रबन्धन को अपनी माँगो का एक ज्ञापन भी दिया। उनकी मुख्य माँग डेअरी के किसी भी प्रकार के निजीकरण पर रोक लगाना है। भारिप बहुजन महासंघ के नेताओं ने अपने-अपने भाषणों में शरद पवार पर ये आरोप लगाया कि वे डेअरी के निजीकरण की आड़ में आरे मिल्क कॉलोनी के विशाल भू-भाग को लैंड माफ़िया के हवाले कर देना चाहते हैं।

आरे मिल्क कॉलोनी के स्थापना आज़ादी के ठीक बाद १९४९ में हुई थी और आज भी इसे देश की सबसे अत्याधुनिक डेअरी में गिना जाता है। लगभग ४००० एकड़ की ज़मीन में फैली इस डेअरी के अन्दर बत्तीस तबेले हैं। डेअरी से जुड़े इन तबेलों के अलावा आरे मिल्क कॉलोनी के प्रांगण में डेअरी, एनीमल हज़बैण्डरी, पोल्ट्री और कृषि से जुड़े तमाम शोध और शिक्षण संस्थान भी मौजूद हैं। यानी ये समझा जा सकता है कि इस संस्था की स्थापना आज़ादी के समय मौजूद राष्ट्र-निर्माण के आदर्श दृष्टिकोण से की गई थी। मगर धीरे-धीरे एक अपराधिक उदासीनता, आलस्य और भ्रष्टाचार के एक दौर ने डेअरी को एक बीमारु अवस्था में धकेल दिया और अब उसे शुद्ध मुनाफ़ाखोरों के हवाले कर देने की बात की जा रही है।

आरे डेअरी को पहले सम्भवतः किसी ऐसी व्यवस्था के तहत चलाया जाता था जिसमें कॉलोनी के भीतर दुहा गया सारा दूध डेअरी को देने की बाध्यता थी। मगर बसन्तदादा पाटिल के मुख्यमंत्रित्व काल में तबेले के प्रबन्धकों को ये छूट दे दी गई कि वे अपने दूध को बाहर भी बेच सकें। जिसके कारण डेअरी घाटे के दलदल में धँसते हुए तबेलों से किराया वसूल करने वाली एक संस्था भर बन कर रह गई है। ये छूट मुक्त बाज़ार के दौर के पहले किस नैतिकता के तहत दी गई, इसके लिए बहुत सोचने की ज़रूरत नहीं है। हमारे देश में चीज़ें भ्रष्टता के जिस तरल रसायन से चलायमान होती हैं वो किसी से छिपा नहीं है।

इस देश में कम ही संस्थाएं ऐसी हैं जो अंग्रेज़ो की बनाई हुई नहीं है, आरे मिल्क कॉलोनी उन में से एक है। लेकिन शरद पवार जैसे लोग पर उसकी जड़ों में माठा डाल चुकने के बाद अब निजीकरण के नाम पर उसे उखाड़ फेंकने का काम कर रहे हैं। किस लिए? ताकि ज़मीन की खरीद-फ़रोख्त के ज़रिये कुछ नोट पैदा किए जा सकें? पर ये धन-पशु सम्पत्ति के लोभ में ऐसे अंधे हुए हैं कि सामने दिख रहे माल के ज़रा आगे गहरी खाई भी उन्हे नहीं दिखती। मीठी नदी का प्रकोप और २००५ की मुम्बई की बाढ़ के बावजूद ये लोग बिना किसी योजना के अन्धाधुन्ध निर्माण को ही विकास का पर्याय मान कर चल रहे हैं और देश को भी ऐसा ही मनवाने पर तुले हुए हैं।

समय-समय पर आरे मिल्क कॉलेनी की ज़मीन को देश के दूसरे ‘विकास-कार्यों’ के लिए दिया जाता रहा है जैसे कि कमालिस्तान फ़िल्म स्टूडियो, फ़ैन्टेसीलैण्ड एन्टरटेनमेंट पार्क, मरोल इन्डस्ट्रियल डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन (एम आई डी सी) और हाल के वर्षों में रॉयल पाल्म्स (गोल्फ़ क्लब, होटॅल और रिहाईशी बिल्डिंग्स)। रॉयल पाल्म्स के बारे में उल्लेखनीय यह है कि पहले शिव सेना ने इस का प्रचण्ड विरोध किया और फिर बाद में स्वयं बाल ठाकरे ने इस का अपने करकमलों से उदघाटन किया।

इन सब के अलावा आरे के केन्द्रीय डेअरी से सटा हुआ एक आरे गार्डेन रेस्टॉरन्ट भी इस कृपा का भागीदार हुआ है जहाँ आठ सौ ‘पार्टी-पशु’ एक साथ आनन्द ले सकते हैं। क्या ये विडम्बनापूर्ण नहीं है कि एक मिल्क डेअरी पहले तो अपने ही तबेलों को दूध बाहर बेचने की आज़ादी देकर घाटा सहन करती है और फिर घाटे को पूरा करने के लिए अपने केन्द्रीय दफ़्तर की नाक के नीचे से शराब बेचने का व्यापार शुरु कर देती है?

आरे मिल्क कॉलोनी के भीतर लगभग आठ-नौ हज़ार परिवारों की रिहाईश है। जिस में से कुछ तो प्राचीनकाल से रहने वाले आदिवासी हैं जिनका अधिकार क्षेत्र उत्तरोत्तर सिमटता ही जा रहा है। उन के अलावा आरे में काम करने वाले कर्मचारियों के परिवार तथा अन्य दूसरे लोग जो अलग-अलग समय पर झोपड़ पट्टियों में बस गए, आरे के अन्दर रहते हैं।

अब इसे चाहे हमारे देश का सह-अस्तित्व का गहरा बोध कह लीजिये या विशेष चारित्रिक भ्रष्ट उदासीनता कि जब तक पानी सर के ऊपर न हो जाय हम एडज़स्ट करते रहते हैं। इसी मानसिकता के तहत हर जगह अवैध रूप से झोपड़े बनाने वालों के प्रति एक उदासीन उपेक्षा का भाव साधा जाता है। और जब वे बरसों की मेहनत के बाद अपने घर और रोज़गार में सहूलियत की स्थिति में आने लगते हैं, उन्हे उखाड़ फेंकने के निहित स्वार्थ उठ खड़े होते हैं।

विदर्भ के हज़ारों किसानों की आत्महत्या की उपेक्षा कर के देश में आई पी एल के उत्सव में अपनी ऊर्जा देने वाले कृषि मंत्री शरद पवार का आरे सम्बन्धित बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिये जिसके जवाब में भारिप बहुजन महासंघ ने विरोध प्रदर्शन करके अपने अस्तित्व के रक्षा करने की अग्रिम कार्रवाई की है।

इस देश के विकास पुरुषों की अपनी जनता के विकास की कितनी चिन्ता है वो आप इस बात से समझिये कि आरे की इन झोपड़पट्टियों में १९९३ तक पानी की व्यवस्था और १९९८ तक बिजली की व्यवस्था नहीं थी। और ये सुविधा भी तभी सम्भव हो सकी जब शहर पर बढ़ता हुआ आबादी का दबाव के चलते गोरेगाँव में अचानक त्वरित निर्माण में फलीभूत हुआ।

इसके लिए कुछ लोग बाज़ार के शुक्रगुज़ार होंगे और गलत भी नहीं होंगे मगर ऐसे लोग स्वतंत्र बाज़ार के दूसरे पक्ष पर नज़र डालना या तो भूल जाते हैं या उसे जानबूझ कर अनदेखा कर जाते हैं। गोरेगाँव के इस भयानक विकास का नतीजा ये हुआ कि १९९३ के पहले बस्ती वाले पानी की अपनी ज़रूरत के लिए जिस पहाड़ी नदी का इस्तेमाल करते थे वो आज भी गोरेगाँव और आरे के भीतर से होकर समुद्र की ओर बहती है मगर एक बेहद दुर्गन्धपूर्ण गन्दे नाले के रूप में। और मुम्बई की सबसे ऊँची ‘पहाड़ी’ नाम की पहाड़ी धीरे-धीरे काट-काट कर खतम की जा रही है।

भारिप बहुजन महासंघ की एक माँग ये भी है कि उनके पुनर्वास की किसी सूरत में उन्हे आरे के भीतर ही बसाया जाय। जो लोग पिछले पचास बरस से इस जगह के आस-पास से ही अपना रोज़गार करते हों, उनकी तरफ़ से ये माँग बहुत जायज़ है। और बहुत सम्भव है कि डेअरी का निजीकरण हो जाय और धीरे-धीरे आरे कॉलोनी की ज़मीन स्क्वायर मीटर की दर से बिकने के लिए उपलब्ध भी हो जाय। ऐसी सूरत में आरे के निवासियों को भीतर के किसी एक कोने में बसा देना घाटे का सौदा नहीं होगा।


मगर आरे सिर्फ़ एक मानवीय मामला नहीं है। एक बार अगर आप मुम्बई के नक्शे पर नज़र डालें तो आप को आरे का महत्व अपने आप समझ आ जाएगा। सजंय गाँधी नेशनल पार्क, फ़िल्म सिटी और आरे मिलकर एक ग्रीन ज़ोन का निर्माण करते हैं। वैसे ये अलग-अलग नाम भले हों पर ये उस विशाल जंगल के विभाजित क्षेत्र हैं जिसके भीतर मुम्बई को जल आपूर्ति करने वाली तीन झीलें-तुलसी,विहार और पवई- भी आती हैं। ये विभाजन आदमी ने किए हैं और इनके बीच कोई वास्तविक विभाजन नहीं है।

मनुष्य की आर्थिक गतिविधि से अलग आरे के इस विशाल कॉलोनी के प्रांगण में हज़ारों वृक्ष, बरसाती पौधे, जंगली पेड़ और लताएं भी आश्रय पाती हैं और एक ऐसे आकर्षक पर्यावरण का निर्माण करते हैं जिसमें तमाम अनोखे पंछी पूर्णकालिक या शीतकालिक निवास पाते हैं। इन पंछियों में से कुछ पीलक (गोल्डेन ओरियल) और दूधराज (एशियन पैराडाइज़ बर्ड, देखें चित्र) जैसे बेहद अद्भुत और अनूठे भी हैं। जिन्हे हाल के दिनों में अपने इतने पास पाकर चकित सा होता रहा हूँ।


मगर विकास के अंधाधुंध कंक्रीटीकरण के खतरे की ज़द में सिर्फ़ पंछी नहीं आएंगे, मानव समाज भी उसकी चपेट में आएगा। प्रकृति के नियम माफ़िया संसार से कुछ अलग नहीं होते। सत्या का एक डायलाग याद कीजिये.. एक गया तो सब जाएंगे। पर्यावरण में सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है.. एक पत्थर हटायेंगे तो पूरी इमारत धराशायी हो जाएगी... हो रही है।


वैसे आरे मिल्क कॉलोनी को लेकर पिछले दिनों एक और योजना की चर्चा उठी थी- आरे के भीतर एक ज़ूलॉजिकल पार्क(ज़ू) बनाने की योजना। आरे को लैण्ड माफ़िया के हवाले करने से निश्चित ही ये एक बेहतर योजना है मगर मेरा डर है कि ये योजना सिर्फ़ पर्यावरण लॉबी का मुँह बन्द करने के लिए लटकाई जा रही है। क्योंकि इसका प्रस्तावित क्षेत्र सिर्फ़ ४०० एकड़ है.. यानी कि बाकी का ३६०० एकड़ नोचने के लिए मुक्त रहेगा। वैसे आप ही बताइये कि आप पंछियों को पिंजड़े में बन्द देखना पसन्द करते हैं या मुक्त फुदकते हुए?

मेरे लेखन में निराशा का खेदपूर्ण पुट है.. फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आरे का भविष्य मेरे डरों से बेहतर होगा। तथास्तु!

सोमवार, 30 जून 2008

अगली बार कहीं और मिला जाय!

आजकल के शहरी बच्चे मैक्डोनाल्ड्स के बर्गर के प्रति इस तरह समर्पित होते हैं जैसे हमारे समय के बच्चे कैथे और चूरन के प्रति लालायित रहते थे। निश्चित ही चूरन और कैथा उन बच्चो के लिए कोई बाल जीवन घुट्टी नहीं था और मैक्डोनाल्ड्स के बर्गर्स और फ़्रेन्च फ़्राईस भी आज के बच्चे के लिए वाईटेमिन्स की गोलियाँ नहीं हैं। फ़्री मार्केट की पक्षधर हमारी सरकार इस ‘स्वादिष्ट’ सत्य के प्रति आँख मूँदे पड़ी है जो हमारे लोगों के स्वास्थ्य में लगातार सेंध लगा रहा है।

इसी मसले पर एक अमरीकी नागरिक ने एक फ़िल्म का निर्माण किया- सुपरसाइज़ मी! यह नाम मैक्डोनाल्ड्स के सुपरसाइज़ बरगर्स से प्रेरित है जिसे पहली बार खाकर फ़िल्म के नायक और निर्माता-निर्देशक मॉर्गन स्परलॉक उलटी कर देते हैं। वो बात अलग है कि शीघ्र ही उनका शरीर इस मात्रा के लिए लचीला रुख अख्तियार कर लेता है। और फिर उन तीस दिनों में उनके शरीर की क्या दुर्दशा होती है जिस दौरान वे सिर्फ़ और सिर्फ़ मैक्डोनाल्ड्स के आउटलेट्स से मिलने वाली सामग्री से ही अपनी शरीर की खाद्य आपूर्ति कर रहे थे इसे आप फ़िल्म देखकर यहाँ से जानिये। यहाँ पर आप कई दूसरी डॉक्यूमेन्टरीज़ भी देख सकते हैं।

इस फ़िल्म की खबर मुझे भाई अफ़लातून से हुई जब वे अपनी पत्नी स्वाति जी समेत मुम्बई पधारे। वे दोनों गुजरात के एक प्राकृतिक स्पा से स्वास्थ्यलाभ कर के लौट रहे थे। आठ दिन की उस अवधि में उन दोनों का वजन साढ़े पाँच किलो कम हो गया। इसी सन्दर्भ में इस फ़िल्म का भी ज़िक्र आया। मित्रों को याद होगा कि पिछले दिनों अफ़लातून भाई की तबियत कुछ नासाज़ थी।

अफ़लातून जी के साक्षात दर्शन हम सब ने पहले दफ़े गोरेगाँव पूर्व के जावा ग्राइण्ड कैफ़े में तारीख २२ जून को किये। इस अवसर पर अनिल रघुराज, प्रमोद सिंह, विमल वर्मा, बोधिसत्व, शशि सिंह, हर्षवर्धन, और विकास मौजूद थे। और मैं तो था ही। लगभग चार घण्टे तक चली इस मुलाक़ात में तमाम आर्थिक, राजनैतिक और ब्लॉगिक मुद्दो पर खूब विचार-विमर्श हुआ। अफ़लातून भाई तो अपने फ़ितरत के अनुसार मजमा लगाने लग पड़े ही थे मगर स्वाति जी उन्हे खींच के ले गईं।

स्वाति जी जिन से हमारा अन्तजालीय परिचय भी नहीं था.. उनसे मिलना भी हमारे लिए एक ‘स्टिमुलेटिंग एक्सपीरिंयस’ रहा और वे भी हमसे मिलकर ‘बोर’ नहीं हुई जैसा कि उन्हे अन्देशा था। तस्वीरें शशि सिंह ने खींची और पी गई कॉफ़ियों का आधा बिल विकास ने भरा जिनकी जेब नई नौकरी की पगार से गर्म थी।




अफ़लातून भाई के सम्मान में हम इकट्ठा हुए और इसी बहाने हम सब की बड़े दिनों बाद एक दूसरे से भी मुलाक़ात हुई, वरना कहाँ मिलना हो पाता है। इस मुलाक़ात का ढीला पहलू सिर्फ़ मिलन-स्थल जावा ग्राइण्ड ही रहा जो अपने संगीत से हमें थकाता रहा और उसी माहौल से हमें दबाता रहा जिसकी चर्चा हम सारे समय करते रहे! तय हुआ कि अगली दफ़े कहीं और मिला जाय।

परेशानी की बात यही है कि बाज़ार ने सारी सार्वजनिक जगहों पर क़ब्ज़ा कर लिया है (यहाँ तक कि बचे-खुचे सार्वजनिक पार्कों को भी निजी हाथों में धकेला जा रहा है) और उन्हे ऐसी जगहों मे तब्दील कर दिया है जो आप के मन-मानस को सिर्फ़ एक उपभोक्ता के बौने स्वरूप में सीमित कर देते हैं।

मैक्डोनाल्ड्स की बड़ी सफ़लता के पीछे एक राज़ यह भी है बच्चों के खेलने के मैदान शहरों में से बिला गए हैं और मैक्डोनाल्ड्स के प्रांगण में फ़्री प्ले-स्टेशन्स उग आए हैं। ये हाल अमरीका का है जहाँ की आधी से ज़्यादा आबादी इन्ही प्लेस्टेशन्स की छाया में ओवरवेट या ओबीस हो चुकी है और हमारे दलाल नेता और मक्कार अफ़रशाहों की बेईमानी के चलते यही हाल हिन्दुस्तान का भी होने जा रहा है।

अच्छा नज़ारा होगा.. एक तरफ़ गाँवों में किसान अपने गले में रस्सी कस रहा होगा और शहरों का मध्यवर्ग कमर की पेटी ढीली पर ढीली कर रहा होगा!

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

शार्टकट है ना!

कहा जा रहा है कि क्रिकेट और बौलीवुडीय ग्लैमर का यह संगम सास-बहू को प्राइम टाइम पर कड़ी चुनौती देने को तैयार है। अगर यह सास-बहू को देश के मनोरंजन के आलू-प्याज़ के रूप में नहीं हटा पाया तो कुछ नहीं हटा पाएगा। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि इतने बड़े-बड़े धनपशुओं को हुआ क्या है? हमें तो इस में हिट होने लायक कोई मसाला नहीं दिख रहा- हो सकता है कुछ रोज़ लोग उसके नएपन को परखने के लिए बीबी के हाथ से रिमोट छीनकर क्रिकेट को वरीयता दे दें। मगर एक बार हेडेन और धोनी को एक ही टीम का हिस्सा होते हुए देख लेने के बाद कोई क्यों रोज़-रोज़ बीबी से झगड़ा मोल लेगा.. मेरी समझ में नहीं आता?

जबकि आइ सी एल के कुछ मैचों में देख चुका हूँ कि विदेशी खिलाड़ी और देशी खिलाड़ी के बीच सहजता का वह सम्बन्ध नहीं होता जो एक टीम के दो खिलाडि़यों के बीच होता है। वैसा शायद काउन्टी क्रिकेट में भी नहीं होता है जहाँ किसी टीम में कितने विदेशी खिलाड़ी होंगे इस पर पाबन्दी भी होती है।

लेकिन यह जो आई पी एल नाम का तमाशा होने जा रहा है यह काउन्टी क्रिकेट और दुनिया भर में फ़ुटबाल के क्ल्ब कल्चर से भिन्न तो है ही सत्तर के दशक के केरी पैकर के नाइट क्रिकेट से भी कई क़दम आगे बढ़ा हुआ है। उस वर्ल्ड सीरीज़ क्रिकेट की तीन टीमें थीं- आस्ट्रेलिया, वेस्ट इंडीज़ और रेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड और उनमें खिलाड़ी अपनी राष्ट्रीयता के आधार पर ही चुने गए थे। मगर आई पी एल तो शुद्ध सर्कस है। सर्कस कभी-कभी देखने के लिए बड़ा रोचक है पर आप रोज़-रोज़ उसे देख कर वही उत्तेजना नहीं महसूस कर सकते।

तो सवाल यह है कि वह क्या चीज़ है जो हिन्दुस्तानी जनता को गांगुली को टीम से निकाल दिये जाने पर सड़क पर दंगा करने पर मजबूर कर देती है.. कैफ़ के अच्छा न खेलने पर उसके घर में आग लगाने को आतुर हो जाती है.. और सचिन को एक जीवित भगवान का दरजा देती है। क्या यह वही जज़बा नहीं है जो इंग्लैंड के फ़ुटबाल फ़ैन्स को दंगाई मानसिकता में बनाए रखता है? और मेरा ख्याल है कि इसी दीवानेपन के जज़्बे को नोटों में भुनाने के लिए बी सी सी आई इस आई पी एल नाम के तमाशे को आयोजित कर रही है और देश के पहले ही धन में डूब-उतरा रहे सुधीजन खिलाड़ियों की बोलियाँ करोड़ों में लगा रहे हैं।

इतने सारे धन-सुधी लोगों को इस लालायित अवस्था में देख कर मुझे अपनी बुद्धि पर शंका होने लगती है। शंका इसलिए कि मुझे नहीं लगता कि यह कोई मुनाफ़े का सौदा हो रहा है- ये लोग जो बेचने वाले हैं मैं तो नहीं खरीदने वाला। जबकि मैं टेस्ट क्रिकेट और वन डे क्रिकेट का खरीदार हूँ। लेकिन आई पी एल की शहर आधारित टीम किस आधार पर लोगों के भीतर वफ़ादारी की उम्मीद करती है। जबकि आई पी एल की किसी भी पर टीम के अन्दर उस शहर के लोग इक्के दुक्के हैं?

अब मैं और मेरे कनपुरिया भाई किसे टीम का समर्थन करें समझ नहीं आ रहा? बंगलोर वाले बंगलोर का समर्थन करें या मुम्बई का जहाँ से रौबिन उत्थपा खेलेगा? और शायद ये सोचा जा रहा है कि राँची समेत सभी झारखण्डी चेन्नई के लिए अपने धड़कनें तेज़ करने कि लिए तैयार बैठेंगे? क्यों भाई?

और अगर इनमें से किसी टीम के साथ मेरे दिल की भावना नहीं जुड़ेगी तो मैं सब कुछ छोड़कर इन के मैच क्यों देखने लगा? आज भी मैं खेल भावना से इतना परिपूर्ण नहीं हो पाया हूँ कि भारतीय टीम को आसानी से हारता हुआ देख सकूँ- भई खेल है.. एक टीम जीतेगी.. एक हारेगी। लेकिन मुझसे नहीं देखा जाता.. मैं टीवी बंद कर देता हूँ। लेकिन आई पी एल की किसी भी टीम को हारते हुए देख कर मुझे कोई दुख नहीं होने वाला.. मैं जो एक आम दर्शक हूँ।

एक तरफ़ तो लोग भूमि पुत्र और स्थानीयता की राजनीति में अभी भी भविष्य देख रहे हैं और दूसरी तरफ़ हमारे धन-सुधीजन इतनी प्रगतिशील उम्मीदें भी रखते हैं कि दर्शकों द्वारा एक टीम की वफ़ादारी बजाने के लिए उस टीम में स्थानीय खिलाडि़यों की बहुतायत होना कोई ज़रूरी शर्त नहीं। इस वफ़ादारी का सम्बन्ध सीधा इस फ़ौर्मैट की सफलता से है.. तो क्या यह बात आई पी एल के आक़ा नहीं समझते..? समझते होंगे.. उनको मूर्ख समझना एक बड़ी मूर्खता होगी..

वे मूर्ख नहीं है पर इस देश में चीज़ों को नीचे से बदलने की कोई परम्परा नहीं है.. ऊपर-ऊपर से बदलाव कर के फटाफट खुद मलाई खाने की नीयत बनी रहती है सभी की। शरद पवार एंड पार्टी चाहते तो रणजी ट्रौफी को ही धीरे-धीरे एक तरह के क्लब कल्चर में विकसित कर सकते थे.. मगर वो लम्बा रास्ता है.. उस रास्ते में मलाई पैदा होने में शायद दस बारह साल लगने का डर होगा उन्हे.. तब तक का सब्र किसे है? शार्ट कट है ना?

रविवार, 20 जनवरी 2008

कल्लू की चाट मिलेगी?

ये तस्वीर है कानपुर के मशहूर कल्लू चाटवाले के बेटे कमलेश की। नवाबगंज की पतली सी सड़क के एक पुराने मकान के नीचे बरामदे में यह दुकान पिछले पैंतालिस पचास साल से चल रही है। इस दुकान के खुलने का समय शाम चार-पाँच बजे से लेकर चाट के खत्म हो जाने तक है।

और कल्लू की चाट खतम होने में देर नहीं लगती.. ऐसा अकसर होता है कि आप पाँच बजे पहुंचे और बैंगनी खत्म हो चुकी है। इसलिए नहीं कि एक-डेढ़ घंटे के भीतर भीड़ ने सारी बैंगनियाँ लूट लीं बल्कि इसलिए कि कल्लू और कमलेश सालों से उतनी ही चाट बनाते हैं गिन के। जिस दिन मैं गया तो बताशे और टिक्की नहीं थी; कल्लू की तबियत ठीक नहीं थी तो वे नहीं बैठे।

सोचिये.. ऐसा कहाँ होता है आजकल? कोई प्रतियोगिता की होड़ नहीं, आगे निकल कर महल खड़े करने की कोई धक्का-मुक्की नहीं.. कोई प्रचार नहीं.. यहाँ तक कि कोई बोर्ड भी नहीं। बस एक सरल सहज गति से जीवनयापन। जबकि उनको पता है कि लोग क्या सोचते हैं उनकी चाट के बारे में। लोग कल्लू की चाट खाने दूर-दूर से तो आते ही हैं और साथ ही उनके नाम की कसमें भी खाते हैं और कहते हैं कि कल्लू कानपुर की सबसे अच्छी चाट बनाने वाले हैं।

मैंने भी खाई कल्लू की कचौडि़याँ और शिमला(मिर्च) इस बार। बावजूद इसके कि मैं पिछले लगभग बरस भर से मिर्च-मसालों से दूर संयमित भोजन कर रहा हूँ.. मेरा मुँह नहीं जला और पेट भी पचा गया। ज़रूर अपने शेष चरित्र के अनुकूल कल्लू अपनी चाट में बेकार के हानिकारक पदार्थों का इस्तेमाल नहीं करते होंगे।

ऐसे सरल-सहज कारीगरों-कलाकारों का क्या होगा बाज़ार की इस मॉलीय संस्कृति के दौर में..? क्या इनका जीवन-दर्शन एक दम बिला जाएगा? क्या आने वाली पीढ़ियाँ कल्लू जैसों की चाट का स्वाद नहीं सिर्फ़ मैकडोनाल्ड के बर्गर और केन्टकी के फ़्राइड चिकेन ही जानेगी?

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

जहाँ पानी भी नहीं मिलेगा..

लीजिये पानी बोतल में तो बिक ही रहा था अब आप के घर में आने वाली पानी को भी निजी कम्पनियों के हाथों में सौंपने की योजनाओं पर अमल का काम शुरु हो चुका है। कोचाबाम्बा के अनुभव को दरकिनार कर के आम आदमी को ऐसी जगह ले जा कर मारा जा रहा है जहाँ पानी भी नहीं मिलेगा।

हिन्दुस्तान में इस की चर्चा मुम्बई और दिल्ली में होती रही है पर लागू हो रहा है सब से पहले कुन्दापुर कर्नाटक में। इस मूलभूत अधिकार- पानी- को मुनाफ़े का सौदा बनाने के लिए सबसे पहले नगर के सभी सार्वजनिक नलों का कनेक्शन काट दिया गया और अब हर नए कनेक्शन के लिए चार हजार रुपए का मूल्य रखा गया है। चार हजार!!?? ..सिर्फ़ पानी का कनेक्शन पाने के लिए.. और जो ये रक़म नहीं जुटा पाया उसका क्या होगा?

इस जन-विरोधी क़ीमत से अतनु डे भी खुश नहीं हैं जो खुद इस स्कीम की वकालत करते रहे हैं.. शायद वे निजी कम्पनियों से हमदर्दी की उम्मीद कर रहे थे। वैसे वो चिन्तित भी नहीं हैं; वे अभी भी अपने भोलेपन में इस क़ीमत को कम कर देने को बेहतर आर्थिक नीति बता रहे हैं। पर मैं पूछना चाहता हूँ कि अगर सर्वश्रेष्ठ आर्थिक नीति पानी के कनेक्शन की क़ीमत को लाख रुपये रखने की होगी तो क्या उसे ही लागू किया जाना चाहिये?

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

पूँजीवाद के पार जीवन

पूँजीवाद और उपभोक्तावाद के खिलाफ़ जनता की गोलबंदियों के एक नए मंच की जानकारी हुई आज.. फ़्रीगन्स। अंग्रेज़ी दैनिक डी एन ए में इस आन्दोलन के ऊपर एक लेख छपा है। मुख्यतः अमरीका के शहरों में मौजूद इन फ़्रीगन्स का नारा है ‘पूँजीवाद के पार जीवन’

बड़े-बड़े सुपर मार्केट और मॉल्स के कचरे में से काम की चीज़े निकाल लेने में विश्वास रखते हैं ये लोग। बाहर से देखने वालों को लग सकता है कि ये लोग कचरा बीनने वाली प्रजाति के नंगे-भूखे लोग हैं पर ऐसा है नहीं.. ये पढ़े-लिखे नई सोच से लैस नए ज़माने के लोग हैं.. आने वाला मानव इन से जीवन की सीख ले कर ही आगे बढ़ेगा.. ऐसा मेरा विश्वास है।

आप इस लिंक पर देख सकते हैं एक फ़्रीगन से साक्षात्कार..

गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

इन्टरनेट पर हक़ की लड़ाई

इन्टरनेट और वेब मानव इतिहास का सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक संवादसक्षम मंच है.. दुनिया भर में आम लोग और बड़े-बड़े कॉरपोरेशन्स इसकी शक्ति से आकर्षित हो कर इसकी और खिंच रहे हैं.. कुछ विद्वान लोगों ने अपनी काबलियत और हुनर के योगदान से इसे बनाया और सँवारा है.. हम आप जैसे लोग इसका उपयोग भर ही कर रहे हैं.. मगर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सिर्फ़ और सिर्फ़ इसका भोग करने की नीयत से तालों का और हथकड़ी-बेडि़यों का इस्तेमाल चाहते हैं.. और सरकारें भी उनके हित के अनुकूल क़ानून बनाकर लागू करने में प्रयासरत हैं.. अभी हिन्दुस्तान में चीज़ें उस मकाम तक नहीं पहुँची हैं पर अमरीका, कनाडा और यूरोप में एक संघर्ष शुरु हो चुका है..


देखिये यहाँ..

और यहाँ..

मुझे एक वीडियो भी मिला है जो अन्तरजाल पर होने वाले संघर्ष से सम्बन्धित एक कहानी कह रहा है.. देखिये.. और खुद फ़ैसला कीजिये कि आप की क्या राय इस विषय में..



गुरुवार, 15 नवंबर 2007

आप देखते क्या थे उस आदमी में?

आप लोगों ने कभी न कभी एम टी वी पर आने वाला एक छोटा सा फ़िलर देखा होगा –फ़ुल्ली फ़ालतू। फ़रहा खान और शाहरुख खान के इस ओम शांति ओम नाम के शाहकार का नाम इस से बेहतर और नहीं हो सकता था। क्योंकि कथ्य और शिल्प दोनों में ही यह फ़ुल्ली फ़ालतू से बुरी तरह प्रभावित है। ये आत्मिक रूप से फ़ुल्ली फ़ालतू है। पूरी फ़िल्म फ़ुसफ़ुसे मखौलों, और घटिया मज़ाकों की ऐसी लड़ी है जिसे आप सिर्फ़ इसलिए बरदाश्त करते रहते हैं क्योंकि आप ने उसके बारे में इतना सुना और देखा है और दोनों खान इतनी बेशर्मी से उसे अपनी श्रेष्ठता का नमूना बनाकर आप की आँख में उँगली डालकर दिखा रहे हैं।

फ़िल्म में कहानी बुरी है, उसका छायांकन बुरा है, गाने लिखे बुरे हैं, धुने बुरी हैं, नाच बुरे हैं.. जबकि फ़रहा मूलतः एक नृत्य निर्देशक हैं। शाहरुख तो घटिया अभिनय के बादशाह हैं ही पर इस फ़िल्म में उनसे भी घटिया अभिनय करने वाले अर्जुन रामपाल मौजूद हैं। श्रेयस तलपडे अच्छे हैं लेकिन शाहरुख इतने बुरे हैं कि मुझे बार-बार राजेन्द्र कुमार की याद आती रही जो अपने समय में जुबली कुमार कहे जाते थे मगर बाद के पीढ़ियाँ ६० की पीढ़ी से सवाल करती ही रहीं कि भैया आप लोग देखते क्या थे उस आदमी में। भाइयों आने वाली पीढ़ियाँ ये तोहमत हम पर भी लगाने वाली हैं.. तैयार रहें।

सावरिया से मुझे शिकायते हैं मगर ओम शांति ओम के आगे मैं सावरिया को सिंहासन पर बिठाता हूँ। मैं हूँ ना में फिर भी एक मासूमियत थी, एक हलकापन था.. लेकिन इसमें एक प्रकार का वैमनस्य है.. पूरी इन्डस्ट्री के खिलाफ़। वही वैमनस्य जो अमिताभ बच्चन से उनकी होड़ में झलकता है। शाहरुख और फ़रहा जैसे अपने अलावा सभी को मज़ाक बनाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहते हों। श्रेष्ठता सिद्ध करने के इस हथकण्डों में उन्होने पूरे मीडिया तंत्र को जोता हुआ है। सब जगह सावरिया को हारा हुआ बता कर ओम शांति ओम को विजेता घोषित किया जा रहा है। पहले तीन दिन में ओ शा ओ की कमाई ८४ करोड़ की है और सावरिया की ५८ करोड़ की। किस तर्क से सावारिया फ़्लॉप कही जा सकती है? मगर ये उन मूल्यों के अंतर्गत है जिन्हे शाहरुख खुद भी प्रचारित करते हैं- सबसे ज़रूरी है जीतना.. कैसे भी।

फ़िल्म में इतनी सब बुराइयों के बाद एक अच्छाई भी हैं – दीपिका पादुकोने। उनके अभिनय की परिपक्वता देखकर लगता ही नहीं कि उनकी पहली फ़िल्म है। वे बेहद खूबसूरत लगी हैं और इतनी सब बेहूदगी के बीच आप को उनके भीतर एक निर्दोषता की झलक देख कर आन्तरिक खुशी मिलती है। सिनेमा के दीवाने इसी निर्दोषता को देखने के लिए बार-बार थियेटर के अंधेरों में वापस लौट जाया करते थे.. मैं भी तो।

मध्य काल में स्त्रियों के चार प्रकारों की चर्चा आम थी; हस्तिनी, शंखिनी, चित्रिणी, और पद्मिनी। मलिक मुहम्म्द जायसी ने भी पद्मावत में इसका ज़िक्र किया है। दीपिका निश्चित ही पद्मिनी नारी हैं।

शनिवार, 3 नवंबर 2007

बंद करो बीकॉसूल-भक्षण!

देखिये कन्ज़्यूमर्स इन्टरनेशनल ने आज क्या उदघाटित किया है- दवा कम्पनियाँ डाक्टर्स को एयर कन्डीशनर्स, लैपटॉप्स, क्लब मेम्बरशिप, नई चमचमाती कारें, यहाँ तक कि बच्चों के स्कूल की फ़ीस की रिश्वत देकर अपनी बिक्री में इज़ाफ़ा कर रही हैं। ये सारी पोल पट्टी उनके द्वारा प्रकाशित एक रपट, ‘ड्रग्स, डॉक्टर्स और डिनर्स’ में खोली गई है।

इस चार्ट के अनुसार जो हर स्वस्थ-अस्वस्थ आदमी बीकोसूल, लिव-५२, डाइजीन, ग्लूकॉन डी और रिवायटल गटके जा रहा है, वह नितान्त ठगी है और कुछ नहीं। अरे भाई, अब तो बन्द करो बीकॉसूल खाना.. और ज़ोर से बोलो जय बाबा रामदेव!

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

मँहगा होता मुम्बई

एक सवाल इस वक्त गर्मागर्म है कि क्या कारण है कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश के शहरों में ज़मीन/रियल स्टेट की कीमतें विकसित देशों की तुलना में भी ज़्यादा बढ़ गई हैं? (सिवाय न्यूयॉर्क जैसे एकाध शहर को छोड़कर)

यहाँ पर यह भी न भूला जाय कि अभी हाल ही में मुकेश अम्बानी बिल गेट्स जैसे दिग्गजों को पछाड़ते हुए दुनिया के नम्बर एक के रईस बन गए हैं जबकि विदर्भ और आंध्र प्रदेश के किसानों की आत्महत्या का ज़िक्र न करते हुए सिर्फ़ यह याद कर लिया जाय कि मुकेश बाबू अपने घर से कहीं भी आते-जाते मुम्बई की झुग्गी-झोपडि़यों के दर्शन की बीहड़ मार से अपने को नहीं बचा सकते!

यह सवाल फ़ाइनैन्शियल टाइम्स में लिखने वाले टिम हारफ़ॉर्ड के किसी पाठक द्वारा पूछे जाने के बाद इंडियन इकॉनॉमी ब्लॉग के नीलकान्तन के ज़रिये आप तक पहुँचा है। इन बन्धुओं के पास कोई सन्तोषप्रद जवाब नै है? आप के पास है?

बुधवार, 31 अक्टूबर 2007

बैंगन के ज़हर बुझे बीज

बीटी कपास की खेती करने वाले ३०००० किसान घाटे में डूब कर कर्ज़ के जाल में फंसे। उन्हें आत्महत्या तक करना पड़ी। इसी फसल के पेड़ और कपास के फल खाकर १६०० भेड़ें मर गई। जैव परिवर्धित बीजों (बीटी बीज) के कितने खतरनाक प्रभाव पड़ते हैं इसके ये दो स्थूल उदाहरण हैं।

पटना से प्रमोद रंजन द्वारा संचालित जन विकल्प नाम के एक पत्रिका आधारित ब्लॉग में सचिन कुमार जैन बता रहे हैं..कि अंतत: भारत दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया जिसने जैव परिवर्धित खाद्यान्न उत्पादन के ज़मीनी परीक्षण की अनुमति दे दी। इसके अन्तर्गत अप्रैल २००८ तक ११ स्थानों पर चार किस्म के बीटी बैंगन के उत्पादन के परीक्षण किये जाएंगे। मानव सभ्यता के लिये यह एक खतरनाक कदम हो सकता है।

इस बेहद ज़रूरी लेख में पढ़िये कि कैसे एक तरफ तो भारतीय सरकार हेपेटाईटस-बी जैसी बीमारी से निपटने के लिये कार्यक्रम बना रही है तो वहीं दूसरी ओर इसी तरह की बीमारी फैलाने वाले कालीफ्लोवर मोसियेक वायरस को बीटी बैंगन के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कराने की अनुमति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दे रही है।

हिंदी में इस तरह की सूचनाएं आ रही हैं अच्छी बात है.. धन्यवाद है प्रमोद रंजन और सचिन कुमार जैन को.. यह रहा लिंक

शनिवार, 8 सितंबर 2007

आई वान्ट टु गेट सम एअर..

कल कहीं जाते हुए रास्ते में तमाम नई मॉल्स के दर्शन किए। और सोचा कि क्यों बना रहें है लोग इतनी नई-नई मॉल्स? क्या शहर चलाने वाले लोग(!) नहीं देख पाते कि बान्द्रा से लेकर बोरीवली तक एक बच्चों के खेलने का पार्क नहीं है, लाइब्रेरी नहीं है, म्यूज़ियम, ज़ू या ऐसी कोई भी सार्वजनिक जगह नहीं है, जहाँ आप अपने घर से निकल कर दो पल चैन से बैठ सकें। घर से निकलते ही सड़क है, सड़क पर गुर्राता-गरजता ट्रैफ़िक है। कारें हैं, बाइक्स हैं, बसे हैं, ट्रक हैं, ट्रेन हैं, स्टेशन्स हैं, गँजागज भरे लोग है.. पसीने, पेट्रोल और परफ़्यूम में गजबजाता मनुष्यता का समुद्र है। और बाज़ार है।

यूँ तो बाज़ार आपके बेडरूम तक बढ़ आया है। आप टीवी खोलते हैं, बाज़ार खुल जाता है। आप अखबार उठाते हैं ,बाज़ार हाथ आता है। आप खाने के लिए कुछ भी मुँह में डालते हैं, बाज़ार गले में अटक जाता है। आप अपने अस्तित्व की हदों को तोड़ कर कहीं खुले में साँस लेना चाहते हैं। मगर जगह कहाँ है? काफ़ी सारे लोग भूल भी जाते हैं ये साँस लेना, और अपने घर की बंद हवा में घुट-घुट कर मर जाते हैं।

अंग्रेज़ी फ़िल्मों में मैंने अक्सर देखा है, अचानक कोई चरित्र कहेगा कि, आई वान्ट टु गेट सम एअर!.. इतना कह कर वह बाहर किसी टेरेस या हवादार छत या खुली सड़क पर निकल कर खुले आकाश को ताकता है! दिल्ली वाले अंग्रेज़ी फ़िल्मों की इस अदा से कुछ सीख सकते हैं, मगर मैं असहाय हो जाता हूँ। दिन में कई दफ़े मैं कहना चाहता हूँ कि आई वान्ट टु गेट सम एअर.. लेकिन हवाखोरी की कोई खुली जगह इस शहर ने अपने शहरियों के लिए नहीं छोड़ी है।

कल तक जो स्थान मुम्बई के नक्शों पर दलदल(मार्श) के बतौर चिह्नित थे, आज वहाँ नए जगमगाते नगर उग आए हैं। इसे आप प्रगति नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? उन दलदलों में पल रहे पर्यावरण के लिए बेहद ज़रूरी मैन्ग्रोव नष्ट हो जाने के अलावा एक और पहलू है इस प्रगति का। दुर्भाग्य से शहर में आ चुकी और आने वाली बाढ़ में इस प्रगति की बड़ी भूमिका है।

करोडो़- करोड़ो गैलन पानी जो पहले के सालों में धरती पर गिर कर कुछ धरती के भीतर और बाकी नालियों-सड़कों आदि से होकर आस-पास के दलदल में चला जाता था। अब शहर की अधिकतर धरातल के सीमेंट से बंद हो जाने के कारण पानी के धरती के भीतर जाने का रास्ता बंद हो चुका है। दलदलों पर नए प्रगति नगर बसा दिए गए हैं। पानी के निकलने का एकमात्र रास्ता सौ-डेढ़ सौ बरस पुरानी नालियाँ हैं। जो इतना पानी वहन करने में समर्थ नहीं। आने वाले दिनों में यह हाल हर बड़े शहर का होने वाला है। पीने का पानी नहीं होगा, मगर शहरों में बाढ़ का गंदा पानी भरा करेगा हर बरसात। अगर प्रशासन ने दूरदर्शिता न दिखाई तो!

इन नए प्रगति नगरों में, पुराने मोहल्लों की संकरी गलियों में, पुरानी मिलों के नए प्राँगणो में.. हर कहीं-सब जगह मॉल्स बनते जा रहे हैं। सवाल है कि क्या ये सिर्फ़ किसी पूर्व-योजना के अभाव में हो रहा है? कुछ लोग सच में इतने भोले हो कर सोचते हैं..कि यदि प्रशासन को याद दिलाया जाय कि भई मॉल्स बहुत हो गए तो अब एक पार्क बना दो, तो प्रशासन चट से अपनी भूल स्वीकार कर लेगा। मेरा खयाल है कि ये हमारे शासक वर्ग के भीतर किसी भी तरह के सामाजिक दायित्व के अभाव में हो रहा है। और एक कुरूप लोलुपता की सर्वांगीण उपस्थिति के दानवीय दबाव में हो रहा है।

हमारा शासक वर्ग हमारी ही अभिव्यक्ति है। हम जो आम आदमी है, उसी की मुखरता दिखती है खास-खास लोगों में। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि जब शासक वर्ग को हवाखोरी करनी होती है तो वह ऑस्ट्रेलिया, आइसलैण्ड, अजरबैजान से लेकर गोवा, गंगटोक कहीं भी चला जाता है। मगर आम आदमी के पास साधन कहाँ, या तो वो प्रमोद भाई की तरह एक चीन यात्रा कर डालता है.. या फिर हार कर मॉल की दुनिया की चमक में अपनी धूसर धूमिलता को ढकने चला जाता है। और कुछ पल के लिए ही सही, अपनी टेढ़ी-मेढ़ी बेढंगी ज़िन्दगी को सार्थक समझता है, स्वयं को मॉल के उस हाहाकारी ऐश्वर्य को हिस्सा समझ कर।


चित्र:सबसे ऊपर दलदल को निगलता मुम्बई शहर, फिर न्यू यॉर्क का विस्तृत सेन्ट्रल पार्क, मुम्बई की बाढ़ और अन्त में शहरियों के जीवन को जगमगाता इन-ऑर्बिट मॉल


बुधवार, 22 अगस्त 2007

कब होगी क्रांति?

पिछले दिनों मैंने अपनी एक पोस्ट में बाबा मार्क्स की उस बात में आस्था व्यक्त की जिसमें उन्होने उम्मीद जताई थी कि सबसे पहले मज़दूर क्रांति इंग्लैंड/जर्मनी में आएगी क्योंकि वह (उस काल का) सबसे औद्योगिक रूप से विकसित देश है। तो अविकसित और विकासशील देशों के हाल-चाल और भूत काल में उनके भीतर हुए समाजवाद के प्रयोगों की असफलता को ध्यान में रखकर मैंने लेनिन को किनारे करते हुए मार्क्स की बात के मर्म को पहचाना। पर आज उसी मसले पर फ़रीद के साथ चर्चा करते हुए लगा कि सबसे विकसित देश में पहले क्रांति होने वाली यह बात अब शायद प्रासंगिक नहीं रह गई।

दुनिया डेढ़ सौ साल में बहुत बदल गई है। दुनिया का एक हिस्सा दूसरे हिस्से के बेहद करीब आ गया है। 'देश' के आयाम में कोई फ़र्क नहीं आया है मगर 'काल' का आयाम सिकुड़ गया है। एक हिस्से का दूसरे पर प्रभाव पहले भी पड़ता था। अब भी पड़ता है। मगर जो प्रभाव प्राचीन काल में हजार बरस में पड़ता, मध्यकाल में दस साल में पड़ता, आज के समय में वही प्रभाव दस दिन से भी कम समय में पड़ सकता है। कुछ प्रभाव तो साथ-साथ ही पड़ते हैं।
ऐसे में किसी एक विकसित व परिपक्व हो गए हिस्से में क्रांति हो भी गई, तो क्या? दूसरे अपरिपक्व हिस्से उस पर प्रतिक्रिया करेंगे। तत्काल प्रतिक्रिया। और क्रांति को विफल कर देंगे। एक देश के भीतर तो ऐसे प्रयास होते रहे हैं। और स्वतंत्र राज्यों की 'क्रांति' को विफल करने के भी प्रयास किए जाते रहे हैं, अमरीका द्वारा वियतनाम और निकारागुआ जैसे तमाम अन्य देशों में। या तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा प्रतिक्रांति(!) को विफल करने की चेकोस्लावाकिया और अफ़गानिस्तान में की कोशिशें भी ऐसी ही प्रतिक्रिया का उदाहरण रही हैं।

यानी जब तक यह समूचा विश्व एक साथ क्रांति के लिए परिपक्व नहीं हो जाता। तार्किक तौर पर क्रांति नहीं हो सकती। मतलब क्रांति तभी होगी जब पूरा विश्व एकरस हो जाएगा। और एकरस तो होना निश्चित है। पूँजीवादी बाज़ार का जो आक्रामक तेवर अभी दुनिया में चल रहा है, उसे देख कर दूर-दूर के इलाक़ो का भी आमूल-चूल परिवर्तन होना तय दिख रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरण, वन्य-जीवन, लोक-परम्परा और परिपाटियों के नाश का एक आसन्न खतरा भी साफ़ नज़र आता है। देखना होगा कि प्रतिरोधी शक्तियाँ कितना बदल पाती हैं बाज़ार के इस विनाशकारी मिज़ाज को।
इतना सब हो चुकने के बाद जो भी नुची-खुची या अतिसमृद्ध जो भी दुनिया होगी उसके भीतर साधनों और सम्पदा के साझे अधिकार की समझ को व्यवस्था में नीतिबद्ध कर देने की प्रक्रिया के लिए क्या किसी रक्तपात की आवश्यक्ता होगी? और उस सूरत में इस प्रकार के अवस्था-परिवर्तन को क्या क्रांति कहना उचित होगा?

मंगलवार, 22 मई 2007

घी खाओ सेहत बनाओ

१२ जून के नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण में सेहत सम्बन्धी एक खबर छपी थी.. "स्टॉकहोम स्थित कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के रिसर्च ग्रूप की मुखिया रिसर्चर डॉ. मैग्देलिना रॉसेल के मुताबिक वेट कन्ट्रोल करने में डेयरी प्रॉड्क्ट्स की अहम भूमिका है। इस स्टडी के अनुसार दूध और दूध से बने उत्पाद शरीर में चरबी को रेगुलेट करने में मददगार साबित होते हैं.. "

आप को यहाँ कुछ विसंगति नहीं दिख रही है..? पूरी मेडिकल साइंस.. और उसका प्रचार तंत्र.. सालों से ये बात हमें ठेल ठेल कर समझा रहा है.. कि घी दूध मक्खन खाने से कोल्स्ट्रॉल बढ़ता है.. जो दिल का दौरा पड़ने में मुख्य खलनायक की भूमिका निभाता है.. तो सभी समझदार भाई बंधुओ ने अपने पूर्वजों को गरियाते हुए.. उन्हे निरे मूढ, ढोर और गँवार के समकक्ष रखते हुए पश्चिम के इस आँखें खोल देने वाले ज्ञान को खुद भी आत्मसात किया और अपने नवजातों को भी पैदा होते ही बाँटना चालू कर दिया.. चार साल की बेटी को आम मध्यमवर्गीय परिवार में घी दूध से परहेज़ करते देख किसी को आश्चर्य नहीं होता.. सब उसकी समझदारी से खुद सीख लेने के लिए प्रेरित हो जाते हैं..

तो भाई साहब हमारी घी खा के सेहत बनाने की पुरानी बुद्धि किसी तरह से अभी इस ज्ञान को नन्हे मुन्नो को देने में सफल हुई ही थी कि हो गया एक नया धमाका..

(खबर पढ़ने के लिये चित्र पर क्लिक करें)

मैं दुखी हो गया हूँ.. इस एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से.. ये कोई अपवाद नहीं है.. रोज़ यही होता है.. रोज़ सत्य की एक नई परिभाषा जन्म लेती है.. बच्चे के लिए माँ के दूध के बारे में भी यही गोलमाल हुआ था.. नमक में आयोडीन के बारे में सच क्या है.. इस पर बहुत कुछ कहा जाना शेष है.. एन्टी बायोटिक्स का विषैला प्रभाव कितना गहरा और दूरगामी होता है.. इसके बारे में कितने लोग जानते हैं.. स्टेरॉयड क्या क्या साइड इफ़ेक्ट्स करने की छिपी शक्ति भी रखते हैं.. क्यों नहीं बताया जाता.. क्या इन 'सत्यों' और इनसे जुड़ी दवाइयों तथा अन्य उत्पादों को बाज़ार में उतार देने के पहले वे सचमुच उनके बारे में ठीक ठीक जानते होते हैं..? या जैसे जैसे समस्या होती है.. वे सीखते जाते हैं..?

जब इनके पास कोई निष्कर्ष हैं ही नहीं.. तो ये किस बिना पर पूरी दुनिया पर प्रयोग पर प्रयोग किए चले जा रहे हैं..और अपने अधकचरे ज्ञान को अन्तिम सत्य की तरह हमारे गले में ठेल रहे हैं.. उनकी बात तो एक बारगी फिर भी समझी जा सकती है.. वो व्यापारी है.. उन्हे अपनी दवाएं बेचनी है.. सफ़ोला जैसे दूसरे माल बेचने हैं.. पर हमें आपको किस कुत्ते ने काटा है जो इन नीम हकीमों के हवाले अपनी जान कर देते हैं.. क्या अब यह पूछा जाना ज़रूरी नहीं हो गया कि एलोपैथी किस आधार पर अपने को अन्य चिकित्सा पद्धतियों से श्रेष्ठ सिद्ध कर रही है.. ? और क्यों लोग उसके इस प्रचार पर भरोसा कर रहे हैं.. ?

रविवार, 6 मई 2007

बाज़ार बनाता है मीडिया को: रवीश कुमार

पिछले तकरीबन एक महीने से रवीश जी यू पी के चुनाव में व्यस्त हैं.. इस बीच बेनाम ने जो उनके नाम शिकायती अंदाज़ में चिट्ठी लिखते हुये अपनी चिंतायें ज़ाहिर की थी.. आज आखिरी दौर के मतों के बैलट बॉक्स में पहूँचने के साथ ही रवीश कुमार का खत भी हमारे मेल बॉक्स में पहूच गया .. वे बेनाम के नाम अपने इस खुले जवाब में.. उन्ही चिंताओं पर अपनी बेबाक राय ज़ाहिर कर रहे हैं..



प्रिय बेनाम,

आपका लेख पढ़ा। जो चिंता आपकी है वही हमारी है। चुप रहने का सवाल नहीं है। मगर बोलने वाले का ही इम्तहान लिया जाता है। कि आपने आगरा पर बोला और बक्सर पर चुप रहे। हम कुछ लोग जो बोलते हैं क्रांतिकारी नहीं है। बल्कि मामूली या भारी नुकसान का जोखिम उठाते हुए बोल रहे हैं। हमारे बोलने का कुछ भी असर नहीं हुआ है। जैसा कि स्टार न्यूज पर हमला करने वाले धनंजय का कुछ नहीं हुआ।

अब आप यह सवाल करें कि मीडिया अपने संपादकों के खिलाफ खबर क्यों नहीं दिखाता तो चुप रहना ही पड़ेगा। क्योंकि संपादक और मीडिया कार्पोरेट की देन हैं। उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। हां मीडिया से स्वतंत्रता की उम्मीद की जाती है। आप अपने मालिक या संपादक के खिलाफ ख़बर कैसे कर सकते हैं? और करेंगे तो दिखायेंगे कहां? इसके बाद भी मीडिया सापेक्षिक स्वतंत्रता की सांस लेते हुए कुछ करता रहता है। पर इस बड़े सवाल पर चुप्पी के अलावा मीडिया बोलता रहता है। अमर सिंह के खिलाफ कोई एक चैनल न बोल रहा हो तो उसी वक्त दूसरा बोल रहा होता है। ऐसा भी होता है कि सभी एक ही राग अलापने लगते हैं। ऐसा भी होता है कि विदर्भ की घटना एक चैनल पर न हो तो उसी वक्त दूसरे चैनल पर होती है। हम क्यों उम्मीद करें कि एक ही ख़बर एक ही समय में सभी चैनलों पर हो। जबकि ऐसा कई बार होता है। अमिताभ ऐश की शादी सब पर एक साथ दिखाई जा रही थी लेकिन विदर्भ के किसानों की आत्महत्या एक साथ नहीं। मीडिया को बाज़ार बनाता है। जब तक उसका अस्तित्व बाज़ार से स्वतंत्र नहीं होगा उसे उसकी शर्तों पर चलना ही होगा। अगर आप जनहित की खबरों को छाते हुए देखते हैं तो इसमें किसी ए बी सी डी ईमानदार पत्रकार के अलावा बाज़ार का भी सहयोग होता है। बाज़ार अपनी नैतिकता को बनाने के लिए कुछ ईमानदारी की खबरे दिखाता है। जिसकी बातें अविनाश अपने लेख में कर रहे हैं।

इसका अध्ययन किया जाना चाहिए कि आज़ादी की लड़ाई में जब टाटा बिड़ला सहित कई उद्योगपति गांधी जी का समर्थन कर रहे थे तो क्या उसी वक्त वो अपने काम काज में उदार थे। क्या वो सभी को काम के बराबर मेहनताना दे रहे थे? क्या वे अपने मज़दूरों का शोषण नहीं कर रहे थे? अगर ऐसा था तो उसी वक्त हमें मज़दूर आंदोलन का इतिहास देखने को क्यों मिलता है? क्यों मज़दूर मालिकों के खिलाफ लड़ रहे थे? फिर क्यों मालिक अंग्रेजों के ख़िलाफ गांधी जी का साथ दे रहे थे? मगर इसी स्पेस में बोलने की आज़ादी तो है। जिसका फायदा हम उठा रहे हैं।

नुकसान उठा कर।

मैं अपनी बात पर लौटता हूं। जिस वक्त एक चैनल शिल्पा को दिखाता है उसी वक्त कहीं न कहीं दूसरा चैनल या अखबार गरीबो की चर्चा करता है। शिखा त्रिवेदी,सुतपा देब बनारस के बुनकरों की दुर्दशा पर रोती हुई खबरें कर रही होती हैं। दफ्तर में बार बार मज़ाक उड़ाए जाने के बाद भी इनकी निष्ठा नहीं बदलती। लेकिन इनके बाद बनारस के बुनकरों का कोई हाल लेगा भी मुझे यकीन नहीं है। अनिरूद्ध बहल की चर्चा भी करनी होगी। उनके कोबरा पोस्ट ने बाबाओं की लंगोट उतार दी है। वो हर दिन बाज़ार के ही सहारे व्यवस्था से टकरा रहे हैं। बाज़ार के सहारे इसलिए क्योंकि उनकी खोजी रिपोर्ट का खरीदार बाज़ार ही है। हर चैनल खरीदना चाहता है। तो इससे एक रास्ता नज़र आता है। और इससे एक कमी भी। जब हम व्यवस्था के खिलाफ ऐसी ख़बरों की खरीद कर दिखाने का जोखिम उठा सकते हैं तो खुद क्यों नहीं करते? लगता है ईमानदारी अब आउटसोर्सिंग से हासिल की जा रही है। यह भी अच्छा है।

लेकिन बेनाम जी मैं यह नहीं मानता कि पत्रकारों का उदय किसी नेता के सहारे होता है। कुछ के साथ संयोगवश ऐसा हुआ हो मगर यह सच नहीं। बहुत से पत्रकार हैं जिनका नेताओं से कोई लेना देना नहीं और वो भी शिखर पर हैं। हम शिखर की धारणा भी बदल लें। शिखर किसी एक के खड़े होने की जगह नहीं रही। यहां पर कई लोग खड़े होते हैं। हिंदुस्तान में सिर्फ अपने अपने चैनलों और अखबारों के शिखर पर मौजूद संपादकों की संख्या हज़ारों में हो सकती है। इसलिए एक की नहीं उन हज़ारों की बात होनी चाहिए।

रही बात गिरावट की तो बोधिसत्व जी कह चुके हैं। हममें से ज़्यादातर लोग एक भ्रष्ट सामाजिक पारिवारिक और राजनीतिक माहौल से आते हैं। जिस समाज में दहेज की रकम घर के बड़ों के बीच तय की जाती है उसके दुल्हे समाज में ईमानदार हो सकते हैं। इसका यकीन आपको है तो मुझे कोई परेशानी नहीं। पर ये सवाल चैनलों और अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों से मत पूछियेगा। और इस्तीफे की मांग तो कतई भी नहीं कीजिएगा। पता चलेगा सब चले गए और एक दो लोग बच गए।
आपका
रवीश कुमार

पूछ रहे हैं नासिर.. सब धान बाइस पसेरी ?

अपनी प्रतिक्रिया में बेनाम ने रवीश, अविनाश और बोधिसत्व का नाम लिया था.. अविनाश और बोधिसत्व ने तो अपना जवाब दे दिया और रवीश जी यू पी चुनाव के बीच से भी इस बहस में अपनी शिरकत करने के लिये समय निकाल कर जवाब लिख रहे हैं.. आज शाम तक भेजने का वादा है..
इस बीच हमारे एक नये चिट्ठाकार साथी नासिरुद्दीन ने लखनऊ से इस मसले पर अपनी राय हमारे बीच भेजी है.. नासिर प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं.. और हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान के लिये नौकरी बजाने के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर विशेष अध्ययन भी कर रहे हैं.. पिछले दिनों मोहल्ला पर उनका तथ्यपरक और संतुलित लेख भी छपा था जो मोहल्ला के विवाद के बावजूद सब के द्वारा सराहा गया.. उस के बाद अविनाश की प्रेरणा से उन्होने एक निजी ब्लॉग भी खोला है - ढाई आखर.. हालांकि भगत सिंह के ऊपर शहीद-ए-आज़म नाम से एक ब्लॉग वे और उनके साथी काफ़ी पहले से चला रहे हैं.. आइये देखते हैं.. क्या कह रहे हैं नासिर.. मीडिया और उसकी सामाजिक भूमिका के बारे में..


भय जी के निर्मल-आनन्‍द पर पहले बेनाम फिर अविनाश और बोधिसत्‍व जी की टिप्पणियां पढ़ते हुए बार-बार लग रहा था कि यह सिर्फ इन चंद लोगों की बात नहीं है। यह हमारी बात हो रही है। हम यानी खबरनवीसी से जुड़े लोग। बेनाम साहब की बात में जितना सच है, उतनी ही हकीकत बयानी बाकियों के जवाब में भी है। इसीलिए जब‍ इन दोनों का जवाब आया तो लगा कि काफी हद तक इन्‍होंने हमारी ही बात की है। हमारे दिल को हल्‍का किया है।
वैसे ये लोग भले ही कुछ कहें, लेकिन मेरी समझ से आज भी ये ख़बरों के धंधे से इसलिए जुड़े हैं कि कहीं उन्‍हें कुछ कचोटता रहता है। इस‍ीलिए अविनाश ‘मोहल्‍ला’ बना रहे हैं तो रवीश ‘कस्‍बा’ तैयार करने में जुटे हैं। अगर महज नौकरी कर रहे होते तो उनके लिए इन मोहल्‍लों-क़स्बों में भटकने, बहस करने और अपने विचार रखने की जरूरत नहीं थी। यह सब, यानी इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम के अपने माहिर साथी, जितनी तनख्‍वाह पाते हैं, वे आराम से हर शाम सुखी परिवार की तस्‍वीर बन सकते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। इन्‍हें कुछ कचोटता है, इसलिए ये जूझते हैं। इसलिए यह महज इत्‍तेफाक नहीं है कि नौकरी के दौरान, नौकरी के साथ और नौकरी के इतर, यह लोग भीड़ से अलग दिखते हैं। यह अलग दिखना, मेरी समझ में इनकी शक्‍ल सूरत की वजह से नहीं है। तो हमें सोचना होगा कि फिर कौन सी वजह है जो हमें, ख़बरों की भीड़ में स्‍पेशल रिपोर्ट और बात पते की याद रखने पर बाध्‍य करता है। यह सिर्फ इन्‍हीं की बात नहीं है, ऐसे इस देश में कई खबरनवीस हैं। प्रिंट में भी इलेक्‍ट्रॉनिक में भी। कस्‍बों में भी और राजधानियों में भी।
इसलिए इन लोगों को भी तुरंत सुरक्षात्‍मक घेरा नहीं तैयार करना चाहिए। जो हम कर रहे हैं, वो भी बतायेंगे और जो नहीं कर पा रहे, उसकी सीमा समझने और समझाने की कोशिश करेंगे। पूरब की दो कहावत याद आर रही है- ‘सब धान बाईस पसेरी’ और सबको एक ही लग्‍घी से हॉंकना। यानी सबको एक तराजू पर तौलने की जरूरत नहीं है। फर्क करना जरूरी है।रही बात सामाजिक मुद्दों के उठाने और न उठाने की। मैं चंद घटनाएं सिर्फ याद दिलाना चाहता हूँ। गुजरात में नरसंहार के पहले दिन की बात है।
‘धर्मनिरपेक्ष दलों’ का एक दल विमान से अहमदाबाद पहुँचा लेकिन दंगे के बीच में वह शहर जाने की हिम्‍मत नहीं जुटा सका और गेस्‍ट हाउस से वापस लौट आया। ... फिर दुनिया ने गुजरात का सच कैसे जाना... दंगों के बीच पथराव और आग की लपटों से गुजरते यही खबरनवीस थे, जो जान की परवाह किये बगैर दुनिया को वह बता और दिखा रहे थे, जो इससे पहले इस देश ने देखा नहीं था। अगर वह न होते तो गर्भवती कौसर बानो के पेट फाड्कर उसके बच्‍चे को आग के हवाले किये जाने की बात हम सबको ‘कपोल कथा’ लगती।
पूरे देश में पिछले कुछ सालों में आतंकवादी होने के आरोप में कई (मुसलिम) नौजवान मुठभेड़ के नाम पर मारे डाले गये। लेकिन किसी दल या पार्टी ने कभी इन मुठभेड़ों की सच्‍चाई जानने की कोशिश नहीं की, उस पर सवाल उठाना तो दूर रहा। सोहराबुद्दीन का जो मामला अभी गर्म है, उसके पर्दाफाश का सेहरा भी इसी मीडिया के सर बँधता है।
या फिर तहलका का स्टिंग ऑपरेशन हो या आईबीएन-7 कोबरा पोस्‍ट का बाबाओं काले धन को सफेद करने का धंधा का ताजा स्टिंग ऑपरेशन। या फिर इंडियन ऑयल के अधिकारी मंजूनाथ की हत्‍या का मामला हो या फिर किसानों की आत्‍म हत्‍या का मुद्दा- इन सबके बारे में देश को किसने बताया। किसान सिर्फ महाराष्‍ट्र या आंध्र में ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड, अवध में भी जान दे रहे हैं, यह बातें भी खबरनवीसों ने बतायी। लखनऊ में एक गरीब किशोरी के साथ चंद दबंग-पैसे वाले लडके अपहरण कर सामूहिक दुराचार करते हैं। यह लड़के राजनीतिक रूप से भी काफी शक्तिशाली हैं। दो साल हो गये हैं, इस घटना को। वो लड़की न तो प्रियदर्शनी मट्टू है और न ही जेसिका लाल लेकिन लखनऊ शहर के अख़बारों ने इस मुद्दे को आज तक दबने नहीं दिया। कहीं न कहीं कुछ तो बचा है। ... इसलिए यह कहना कि सब कुछ काला है... मुझे लगता है, ज्‍यादती होगी।
मुझे यह भी लगता है कि समाज मीडिया से बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद करने लगा है। इसकी वजह भी है। राजनीतिक दलों या आंदोलनों को जो काम करना चाहिए, वह नहीं कर रहे। जो मुद्दे, सवाल उन्‍हें उठाने चाहिए वे नहीं उठा रहे। सामाजिक मुद्दों पर गोलबंदी का जो काम राजनीतिक पार्टियों को करना चाहिए, वे नहीं कर रहीं। आर्थिक उदारीकरण और वैश्‍वीकरण से उपजे सामाजिक सवालों से जूझने में राजनीति कहीं पीछे आँख चुराये खड़ी नजर आ रही है।
... आप अपने दिमाग पर जोर डालिये और याद कीजिये कि आखिरी बार राजनीतिक दलों ने कौन सा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा उठाया था, जिसने समाज को झकझोर दिया। ...और यह सारा काम जो वो नहीं कर पार रहे, उसे करने की अपेक्षा मीडिया से की जा रही है। वह खबर तलाश करे, सामाजिक आंदोलन करे, लोगों की गोलबंदी भी करे। भई, आम जन के साथ हम खबरनवीसों को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए, हम यह सारे काम नहीं कर सकते। हम सहयोगी की भूमिका ही अदा कर सकते हैं। हम कैटेलिस्‍ट (उत्‍प्रेरक) हो सकते हैं। बस...। इसलिए जो सवाल बेनाम ने उठाये वह सामाजिक आंदोलनों के न होने और राजनीतिक खालीपन से उपजे सवाल हैं। जब भी समाज या राजनीति के फलक पर कोई मजबूत गोलबंदी होगी या आंदोलन होगा तो बेनाम के सवालों के जवाब भी मिलेंगे... और असलियत में हमारा भी इम्‍तहान तभी होगा।

शुक्रवार, 4 मई 2007

बोधिस‌त्व क‌ा ज‌व‌ाब‌: बीस‌न ल‌प्प‌ड़ पउते ब‌ापू

बोधिस‌त्व‌ एक क‌वि के रूप में आप से तो पिछ्ले ह‌फ्ते मिल‌ ही लिये थे.. फिर बेन‌ाम के लेख ने एक प‌त्रक‌ार के रूप में उन‌की‌ स‌ाम‌ाजिक भूमिक‌ा प‌र प्रश्न चिह्न ख‌ड़‌ा ‌क‌र दिय‌ा.. तो उन‌से भी रह‌ा न ग‌य‌ा.. और अविनाश के ज‌व‌ाब के ब‌ाद व‌ह भी इस पूरे म‌ाम‌ले प‌र अप‌नी स‌म‌झ ह‌म‌ारे बीच रख रहे हैं.. एक मीडिय‌ाक‌र्मी के ब‌तौर..
भय भाई मैं चुप था,क्योंकि आपने एक दम चुप कर देनेवाला मुद्दा ही उठाया है। यहाँ जो कुछ लिख रहा हूँ आपद्-धर्म मान कर । मैं ना आप से असहमत हूँ, ना बेनाम प्रतिक्रिया देनेवाले से और ना ही अविनाश के उत्तर से । मैं उस तरह का पत्रकार नहीं हूँ । 1997 में कुछ महीने अमर उजाला के इलाहाबाद ब्यूरो में रिपोर्टर के रूप में काम करने के बाद 2006 में स्टार न्यूज से जुड़ा हूँ । यहाँ सलाहकार हूँ और चैनल में अपनी हैसियत को लेकर फिलहाल किसी तरह के मुगालते में नहीं हूँ ।

भाई मैं मानता हूँ कि आज कोई पत्रकार नहीं है बल्कि आज का पत्रकार खबर लानेवाला एजेंट है। शाम होते-होते एसाइनमेंट पर बैठा आदमी उस पत्रकार से पूछता है कल क्या खबर दे रहे हो । और पत्रकार मरते-जीते कुछ खबरनुमा बातें देने की बात कबूल कर खुश या परेशान हो उठता है। वह खबर देने को मजबूर है । कोई इन पत्रकारों या तमाम चैनलों से यह क्यों नहीं पूछता कि क्या जो वो दिखा रहे हैं वो वाकई खबर है। कुछ एक चैनलों को छोड़ दें तो महाराष्ट्र और बुंदेलखंड के किसानों की आत्महत्या की खबर कहीं भी जगह नहीं बना पाई। जबकि लालू या तमाम नाचने गाने वाले अभिनेताओं की चालीसा को कई चैनलों ने शान से चलाया। एक गड्ढे में गिरा प्रिंस देश के तमाम चैनलों पर जीवन और मौत का मंजर पेश करता रहा तो पटना का एक आशिक अध्यापक अपनी सुधड़ छात्रा के साथ अपना इश्किया आंदोलन चलाता रहा लेकिन इन दोनों खबरों या ऐसी तमाम खबरों के बीच तमाम आवाजे अनसुनी रह गईं या रह जाती हैं । मैं तमाम फालतू और रची-रचाई खबरों का क्या करूँ । क्योकि प्रिंस और प्राध्यापक की खबरों में ड्रामा था, इमोशन था, रूप-रस था या कहें कि मसाला था । इसलिए ये खबरे दनदनादन चलती रहीं । किसानों और कामगारों की नीरस खबरें कौन देखता-दिखाता है। आज अनशन और सविनय अवज्ञा आंदोलन का नहीं ड्रामा का युग है। अगर विदर्भ के खुदकुशी करने वाले वही किसान मुंबई में मंत्रालय के सामने ताम-झाम के साथ अपनी जान दें या बुंदेलखंड के किसान कसाई बन कर ददुआ बन जाएं तो तमाम चैनलों को खबर दिखेगी और सबकुछ गरमागरम रहेगा। लेकिन इसलिए सवाल यही है कि भाई खबर क्या है । और इसे तय करने का अधिकार फिलहाल चैनलों के संपादकों और कर्ता-धर्ताओं के विवेक पर है । और उनका विवेक जो कहेगा से बड़ा सवाल यह है कि उनके चैनल को धनबल देने वाले लोग कितना कुछ बिना ड्रामे का करने देते हैं ।

आप को जान कर हैरत होगी सदी के महानायक के नाम से प्रचारित अमिताभ बच्चन और लोकनायक जय प्रकाश जी का जन्म दिन एक ही तारीख यानि 11 अक्टूबर को पड़ता है। अगर 11 गलत हो तो जो भी तारीख हो एक ही है। सारे चैनलों ने अमिताभ की अखंड आरती उतारी लेकिन मैने कहीं भी लोकनायक से जुड़ी एक लाइन की खबर भी नहीं देखी । तर्क वही जेपी की खबर कौन देखता है भाई। यानि जो हिट है वो फिट है । चाहे वो राखी हो या शिल्पा ।

बेनाम ने सही ही कहा है कि पत्रकार और संपादक भी इसी भारतीय समाज की देन हैं । उनमें भी वो तमाम कमजोरियाँ हो सकती है जो आरटीओ ऑफिस के बाबुओं या पुलिस के दारोगा में होती हैं । आज मुन्नाभाई भले लगे रहें लेकिन यह बात माननी पड़ेगी कि वक्त गांधी-लेनिन नहीं गुंडों-लुच्चों का है और हम सब तमाशाई हैं । महाभारत के कुरुक्षेत्र के बाहर खड़े विदुर से अधिक हमारी कोई भूमिका फिलहाल मुझे नहीं दिखती।

चलते-चलते सुल्तान पुर के अवधी के एक कवि इंदु जी की एक कविता का अंश लिख रहा हूँ, अभी इतनी ही याद आ रही है-

एक बार जौ अउते बापू
नेक बात समझउते बापू
सत्य-अहिंसा कहतइ भर में
बीसन लप्पड़ पउते बापू।

भावार्थ यह है कि यदि बापू तुम एक बार फिर आ जाते और अपनी नेक बातें समझाते । तो सत्य-अंहिसा कहने की देर थी तुम्हे बीसियों थप्पड़ लग जाते ।भाई अगर कुछ ऊंच-नीच हो गया हो तो थप्पड़ से बचाना। मार खाने से बहुत डर लगता है । और मैं बेनाम से आग्रह करूँगा कि वो खुल कर अपनी बात कहे । नाम और पहचान क्यों छिपाते हो भाई। डरते क्यों हो, हम हैं ना ।

मीडिया की चरित्रहीनता पर अविनाश का जवाब

इस बात की तक्लीफ़ मुझे भी थी और बेनाम ने भी इसका ज़िक्र किया कि पत्रकार साथियों की प्रतिक्रिया नहीं आई.. उनकी कुछ तो मजबूरियां रही होंगी.. पर देर से ही सही .. अविनाश ने 'मीडिया चिंतन' पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी है, मीडिया के चरित्र की हीनता की चर्चा की है और कुछ हद तक पेशेगत मजबूरियों पर भी रौशनी डाली है.. और इस मशवरे के साथ (विनम्र आदमी हैं अविनाश, मेरी तरह अक्खड़ नहीं ) कि उनकी इस प्रतिक्रिया को एक प्रविष्टि के बतौर छापा जाय.. इस मशवरे को क़बूल करने में हमें कोई उज्र नहीं.. (हाँ ये कई लोगों को ज़रूर लग सकता है कि निर्मल आनन्द, दूसरा मोहल्ला बनता जा रहा है..और इसके पीछे भी कोई एजेण्डा है.. पर गलतफ़हमी का इलाज तो लुक़्मान हकीम के पास भी नहीं था.. हम आप तो साधारण मनुष्य हैं..)
ज़ाहिर है, आपने जो लिखा और उस पर बेनाम की जिस तरह से सुसज्जित प्रतिक्रिया आयी, उसे आमतौर पर मीडिया चिंतन कहा जाता है। चिंतन भी एक कारोबार है। कारोबार से मेरा मतलब पैसे की आवाजाही से नहीं है, बल्कि एक पूरे काम से है। तो ऐसे काम में कई लोग लगे हैं। ये अच्‍छा काम है और सब के बस का नहीं। जैसे यह कहना कि राहुल के बयान का ताप शिल्‍पा-गेर मामले की बदली में छिप गया, यह अनायास नहीं था। काश, हिंदुस्‍तानी मीडिया चतुराई की ऐसी चादर फैलाने में कामयाब होता!
दरअसल आज जो मीडिया हमारे सामने है, उसका कोई चरित्र नहीं है। शायद कभी नहीं रहा। लोग कहते हैं, कई उदाहरण देते हैं, आजादी के दिनों की बात करते हैं- लेकिन हमेशा से मीडिया मुनाफे बटोरने का साधन रहा है। और कई बार मुझे लगता है कि इस बटोरन को नैतिकता के पेंट से रंगने के लिए ऐसे पत्रकारों की ज़रूरत होती है, जो संस्‍कार और कुछ कुछ आत्‍मबोध के कारण ईमानदार रह जाते हैं। आपको हर जगह कुछ पत्रकार मिलेंगे, जो मुद्दों की बात करते नज़र आएंगे। वरना, ज्‍यादा ऐसे होंगे, जो बाज़ार के हिसाब से ख़बरों के निर्धारण-प्रसारण-प्रकाशन में जुटे नज़र आएंगे।
बेनाम ने बिल्‍कुल सही व्‍याख्‍या की है। लेकिन इस व्‍याख्‍या में हम जैसे पत्रकारों से जिस किस्‍म का आग्रह झलकता है, उससे यही साबित होता है कि वे चाहते हैं कि मीडिया में छाये अनैतिकता के इस घटाटोप को हटाने के लिए हम आंदोलन करें। जबकि हम नौकरी कर रहे हैं। हर पत्रकार जो समाज की नज़रों में ख़बरों की आपाधापी से जुड़ा है, नौकरी कर रहा है। जैसे हिंदी के कथाकार संजीव बहुत दिनों तक एक कंपनी की नौकरी करते रहे थे। जैसे मैथिली के लेखक स्‍वर्गीय प्रभास कुमार चौधरी जीवन बीमा निगम की नौकरी करते रहे थे। जैसे हिंदी के कवि लीलाधर जगूड़ी भारतीय प्रशासनिक सेवा मेंजुटे हुए हैं। इन लेखकों का उदाहरण इसलिए, क्‍योंकि ये नौकरी की नैतिकताओं का निर्वाह भी करते रहे और अपनी रचनात्‍मक बेचैनियों को कविता-कहानी के माध्‍यम से बाहर भी लाते रहे। जो पत्रकार आपको अलग से नज़र आते हैं, वो अपनी निजी बेचैनियों की वजह से। न कि ये उनकी पेशागत नैतिकता है।
पेशागत नैतिकता ये है कि अगर हम एक टीवी में काम कर रहे हैं, तो उसे नंबर वन तक पहुंचाना हमारी ज़ि‍म्‍मेदारी है। जबकि यह हकीकत है और हमारा देखा हुआ है कि उड़ीसा के किसी गरीब गांव की कहानी अगर एनडीटीवी दिखाता है, तो दशमलव कुछ कुछ में टीआरपी आती है, जबकि शिल्‍पा गेर मामले को दिखा कर दूसरे टेलीविज़न अप्रत्‍याशित टीआरपी का पुरस्‍कार पाते हैं। ऐसे में हमें क्‍या करना चाहिए? हम जैसों को क्‍या करना चाहिए? रवीश, अविनाश और बोधिसत्‍व को क्‍या करना चाहिए? खामोश ही रहना चाहिए दोस्‍त। चुपके से पतली गली पकड़ लेना चाहिए। जब दूसरा चैनल चुंबन से लहालोट हो, तो उसके तोड़ के लिए कुछ वैसा ही मसाला लाकर तत्‍काल टीवी पर चलाने से बेहतर यही रास्‍ता है।
इसका मतलब यह नहीं कि जो हो रहा है होने दें। जिसे हमारे मित्र यथास्थितिवादी होना कहते हैं। इसका मतलब यह है कि मीडिया जिस काम के लिए है और उसका जो चरित्र है, उसे ऐसा ही होना है। समाज के दुग्‍ध-धवल वर्ग का प्रचार और हित साधन। जैसा कि बेनाम महाशय ने लिखा है। तो हम सिर्फ यही कर सकते हैं कि इस अंधेरे में थोड़ी रोशनी, थोड़ा रास्‍ता बटोर लें.. अपनी बेचैनियों के लिए।

गुरुवार, 3 मई 2007

रवीश, अविनाश और बोधिसत्व की चुप्पी के जवाब में

शिल्पा शेट्टी और रिचर्ड गियर के चुम्बन-विवाद पर मीडिया की भूमिका पर मेरी प्रविष्टि पर ब्लॉग जगत के लगभग सभी पत्रकार कतरा कर निकल गये.. वो भी जिनके साथ मैं एक दल का सदस्य समझा जाता हूँ.. वह दल भी सन्नाटा साधे रहा .. खैर, आज एक बेनाम प्रतिक्रिया आई है.. जो इस लायक है कि उसे अलग से एक प्रविष्टि के तौर पर सम्मान दिया जाय और वो मैं दे रहा हूँ..



मैं कोई कुलवक्ती यानि होलटाइमर पत्रकार नहीं हूँ भाई इसीलिए आप द्वारा उठाए गए मुद्दे पर बोलने का अधिकारी मैं शायद नहीं हूँ । होना तो यह चाहिए था कि आप के मुद्दे पर रवीश, अविनाश, बोधिसत्व या खबरिया चैनलों में काम कर रहे अन्य पत्रकार मित्र करते पर लगता है कि इन लोगों ने न बोलने का मन बना लिया है इसलिए मैं अपनी जैसी भी समझ है कुछ कह रहा हूँ ।

खबरें किनके खिलाफ नहीं चलतीं

अ- वे लोग जिनकी पकड़ कॉरपोरेट वर्ल्ड पर हो अक्सर खबरिया चैनलों के मध्यवर्गीय संपादक ऐसे लोगों के खिलाफ खबरें नहीं चलाते ।अगर चलाते भी हैं तो ऐसी भाषा में जिनमें आक्रामकता का नामोनिशान भी न हो। खबर चलने के दौरान कोई ना कोई फोन उस समय के ऑउटपुट एडीटर को गालियाँ दे रहा होता हैऔर ऑउटपुट एडीटर माफी मांग रहा होता है ।और खबर थोड़ी ही देर में लुढ़क जाती है।

ब- बड़े औद्योगिक घरानों के खिलाफ कोई भी खबर कभी नहीं चलती। जो खबर चलेगी वो खुश करने के लिए । बड़े औद्योगिक घरानों के मुखिया की उड़ान और देवालयों की परिक्रमा का प्रसारण कभी भी छोड़ा नहीं जा सकता ।रतन टाटा और सिंहानिया की उड़ान और रिलायंस के अनिल भाई धीरूभाई अंबानी की तीर्थयात्रा हो या पारिवारिक तकरार दोनो खबरो में सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें की जाती हैं । तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालु भक्तों को दर्शन में हुई देरी के लिए सिर्फ अमिताभ बच्चन को ही निशाना बनाया जाता है । जबकि अनिल भाई भी उस मंदिर में दर्शन के लिए अमिताभ परिवार के साथ गए होते हैं । लेकिन किसी चैनल के संपादक के बस में नहीं कि वह अनिल भाई के खिलाफ कुछ भी बोल सके।

स-अक्सर शुरु के दिनों में हर पत्रकार किसी ना किसी नेता की लटकन हुआ करता है । आप चाहें तो पता कर सकते हैं कि किस पत्रकार को किस नेता ने प्रमोट किया है । बड़े पदों पर पहुंच जाने के बाद भी संपादक को अपने प्रमोटर नेता को याद रखना पड़ता है ।

द-जिन दलों के पास पाले हुए गुंडे कार्यकर्ता हों उनके खिलाफ कोई भी चैनल कोई भी खबर नहीं दिखाता । आप उदाहरण ले सकते हैं शिवसेना प्राइवेट लिमिटेड के मालिक बाल ठाकरे का । उनके खिलाफ खबर दिखाने की हिम्मत कोई भी चैनल नहीं दिखाता । अभी तो स्टार को तोड़ कर रख देनेवाले धनन्जय देशाई पर भी कोई खबर नहीं चलनी है ।आप बताए कि धनन्जय के खिलाफ क्या किया पुलिस या खबरिया चैनलों ने ।

य- सूचना और प्रसारण मंत्री भी इसी तरह का एक डरावन शब्द और पद है खबरिया चैनलों के लिए।इस मंत्री के खिलाफ तो छोड़ दीजिए उसके आस-फास मडराने वालों के भी खिलाफ कोई खबर नहीं चल सकती भाई ।

र-कुछ चैनलों के संपादकों का मानना है कि राजनीतिक खबरों को कौन देखता है। यानि खबर बड़ी हो या छोटी उसमें मनोरंजन का पुट होना ही चाहिए । तभी तो अमर सिंह की भड़ैती और लालू की लंठई हमेशा चलनेवाली खबरें होती है।ल-एक राजनैतिक बयान पर चुम्मा-चाटी की खबर कफन बन कर छाएगी ही और राहुल बाबा को नाराज करने की ताकत किस संपादक में है...कल का प्रधान मंत्री है राहुल ।

ल-बाबाओं और संतों के खिलाफ भी चैनल अक्सर मौन रहते हैं । बोलते हैं तो पक्ष में । आप चाहें तो बाबा रामदेव और बृंदा कारात की भिड़त में चैनलों का चरित्र आंक सकते हैं । आखिर बृंदा कहां गलत थीं और बाबा रामदेव कहां सही था । तय है कि बाबा से कुछ मिल सकता था बृंदा से नहीं इस लिये लाइन तो फायदेवाली ही लेनी होगी । इसी तरह परमपूज्य आशाराम बापू के जमीन संबंधी खबर से चैनलों के भक्त पत्रकार कब उतर गए समझ नही आया। आशा राम बापू ने आश्रम की जमीन किसानों को सौपी या नहीं कौन पूछे ।


तो भाई अभय पत्रकार भी इंसान है और वह लोभी भी हो सकता है ।उसकी की भी तो त्रृष्णा होगी , सपने होंगे। आपकी प्रतिबद्धता के फेर में वो अपने भविष्य पर लात नहीं मार सकते । एक बात और पर्दे पर दिख रहे पत्रकार की कोई हैसियत नहीं होती। उनके कान में एक वायर लगा होता है जिसपर अपने कमरे में बैठा संपादक या उस समय का इंचार्ज अपने हिसाब से दिशा निर्देश देता रहता है। यह सवाल प्रश्न के परे है कि चल रही बड़ी खबरे बनावटी होती हैं, उन्हे सजा सवांर कर पेश करने के लिए कुछ सुंदर चेहरे और कुछ सुंदर शब्द होते हैं बस..

बुधवार, 2 मई 2007

समाचार कौन बनाता है.. ?

आज मेरी बात अपने एक मित्र से हो रही थी.. रिचर्ड गियर और शिल्पा शेट्टी जुड़ी उस चुम्बन के बारे में .. जिसके बाद पूरे देश में ऐसा हंगामा हो गया.. कि आज तक लोग बाग़ गिरती हुई नैतिकता के स्तर से परेशान हैं.. और इस के लिये ज़िम्मेदार शिल्पा और गियर को क़ानून की ज़द में ले लेना चाहते हैं..

एक स्त्री जिसे चूमे जाने से कोई परेशानी नहीं.. एक पुरुष जो आसानी से दुनिया की किसी भी औरत को हम बिस्तर कर सकता है..(हर औरत को नहीं, मैं सामान्यीकरण कर रहा हूँ) .. उनका चुम्बन लोगों के नैतिक विवाद का विषय है.. जो लोग अपने ही घर में माँ, बाप, दादा, दादी, बेटे, बेटियों के साथ बैठ कर टी वी पर हिन्दी फ़िल्मो गानों और न्यूज़ चैनल्स पर दिन रात सचमुच अश्लील गाने और अश्लील विज्ञापन संदेश, और कहीं ज़्यादा अश्लील समाचार देखते थकते नहीं.. जिस देश की सड़कों पर सामान्य साज सज्जा में निकलने वाली लड़्कियां भी सुरक्षित नहीं.. वो लोग शिल्पा की आबरू के बारे में चिन्तित हैं..

जो लोग अपने सामान्य बातचीत के भाव बिना गालियों के अलंकार के प्रेषित नहीं कर पाते.. जो लोग अपने ही देश को सब मिल कर नोच रहे हैं.. जहाँ से जो पा रहे हैं खसोट रहे हैं.. उन्हे ये चुम्बन तो अश्लील लगता है पर बाकी कुछ अश्लील नहीं लगता.. और लगता होगा अगर किसी को तो कम से कम इतना तो नहीं कि उस के खिलाफ़ रोये गाये..

आप खुद सोचिये क्या अश्लील था उस चुम्बन में.. आपने पहले चुम्बन नहीं देखा.. सबने देखा है.. स्त्री पुरुष का अश्लील सहवास भी चोरी छिपकर अपनी मर्जी से देखा है.. और तो और आजकल अखबारों तक में नंगी तस्वीरें छ्पना आम बात है.. कोई आवाज़ नहीं उठाता.. तो किस बात के लिये हुआ इतना सब नाटक.. इतना सब पाखण्ड..

आपको शायद याद न हो तो याद दिला दूँ.. ये घटना है १६ अप्रैल २००७ की .. और उस से एक रोज़ पहले उत्तर प्रदेश के किसी दूर दराज़ के इलाक़े में हमारे सुन्दर राजकुमार राहुल बाबा ने अपने ओजस्वी वाणी में दो चार बातें उनके परिवार और पाकिस्तान के विभाजन के सम्बंध से कहीं थी.. जिसके चलते उनकी राजनैतिक समझदारी और वाकपटुता के संदर्भ की सारी पोल पट्टियां उजागर हो गईं ..

न सिर्फ़ देश के भीतर के गैर काँग्रेसी दल बल्कि पडो़सियों को भी सरकार और काँग्रेस को गरियाने का एक अच्छा मौका मुह्य्या हो गया था.. लगा कि न सिर्फ़ यू पी बल्कि देश की सत्ता पर से काँग्रेसी दावे का शेर लड़खड़ा कर ढेर हुआ जाता है.. पर इस शिल्पा शेट्टी और रिचर्ड गियर के चुम्बन ने उसे पूरी तरह आच्छादित कर दिया..

आप को लगता है कि ये सिर्फ़ एक संयोग था.. और इसके पीछे कोई मंच संचालन नहीं था.. मेरे मित्र इसे संयोग नहीं मानते.. उनका खयाल है कि आम जनता का ध्यान मुद्दो से हटाने के लिये उन्हे जान बूझ कर गैर राजनैतिक मुद्दो में फँसाया जा रहा है.. जैसे कि सरकार का मेहनत मशक्कत कर के सुनिश्चत करना कि दूरदर्शन पर क्रिकेट का सीधा प्रसारण हो.. ये सारा कुछ एक तयशुदा नीति के तहत किया जाता है .. और ये भी एक ऐसा ही मामला है..

आप इससे सहमत हों कोई ज़रूरी नहीं मगर एक बार फिर से सोचे.. और विशेषकर वे लोग जो नारद जैसे मंच में भी एक षडयंत्र खोज लेते हैं.. आप के लिये अच्छा मसाला है..
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