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सोमवार, 24 अगस्त 2009

कूद जाऊँ क्या?

मैं बनारस की ट्रेन बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस में सवार था। खिड़की के बगल वाली सीट थी। ट्रेन लगभग खाली थी। आराम से सामने की सीट पर पैर टिकाकर अधलेटे होने में मन अवचेतन में विचरने लगा। बाहर के खेत-मेंड़, पेड़-पंछी देखते-देखते अचानक मन में विचार आया कि चश्मा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। फिर सोचा कि बैग से कैमरा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। जेब से मोबाइल निकाल कर उसे भी खिड़की के बाहर उछाल दूँ।

ऐसे विचारों के पीछे मेरे पास कोई कारण कोई तर्क नहीं था। मैं न तो क्षुब्ध, न क्रुद्ध और न अवसादग्रस्त। न किसी से झगड़ा न कोई मेरे ऊपर कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती। फिर भी मन अजीब दिशा में ठेल रहा था। मैं मनमानी करने वाला आदमी नहीं हूँ। इच्छाओं का दास तो बिलकुल नहीं। मन पर, विचारों पर तक कठोर नियंत्रण रखने वाला आदमी हूँ। मगर मन अभी स्वतन्त्र था। मेरी उस पर कोई रोक न थी। वो कह रहा था- चश्मा, मोबाइल, और कैमरा खिड़की के बाहर फेंक दूँ। न जाने क्यों?

कुछ दिन बाद बनारस में दरभंगा घाट के एक ऊँचे चबूतरे पर बैठ कर मन में आने लगा कि वहाँ से सीधे नीचे गंगा में कूद जाऊँ। बनारस आकर मैं आनन्द में हूँ। जीवन का अन्त करने का मेरा कोई विचार नहीं है। ऐसी प्रेरणा मुझे पहले भी हुई है। गंगटोक में एक बार सीधी घाटी में झाँकते एक मकान के छोर पर खड़े होकर जब मैंने अपने तलवों से लेकर घुटनों तक एक भयावह झुरझुरी और मस्तक तक दौड़ते खून को महसूस किया तो मैंने जाना कि मेरा शरीर ऊपर से नीचे तक अज्ञात में कूदने की भौतिक तैयारी कर चुका है।

इस अन्तः प्रेरणा के सम्बन्ध में मेरा एक विचार है। मेरा सोचना है कि यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हर किसी को ऊँचाई पर जाकर डर लगता है। क्योंकि हर एक के भीतर ऊँचाई पर जाकर नीचे छलांग लगाने की प्रेरणा जागती है। सिर्फ़ उसे डर नहीं लगता जो या तो छलांग लगा-लगा कर अज्ञात के डर के पार हो गया है या फिर उसे जो अपनी प्रवृत्तियों के पार हो गया है।

मल्लाहों के बच्चे इस प्रेरणा को सुनते हैं और छलांग लगा कर नदी को अपना दोस्त बना लेते हैं। हम जो छलांग नहीं लगाते, सारी उमर किनारे बैठकर इस अन्तः प्रेरणा को सुनते हैं और सुन-सुन कर डरते हैं। डर कर किनारे से थोड़ा और दूर हो जाते हैं।

अज्ञात में छलांग की प्रेरणा उठना हमारी स्वाभाविक वृत्ति है- यह सोचकर मैं घाट के चबूतरे से उठ गया। पास ही एक कुत्ता सो रहा था। मन में आया कि उसे एक लात लगाऊँ। पर मैंने अपने को रोक लिया। क्या आप जानते हैं कि मेरे भीतर कुत्तों का कितना डर है?

शनिवार, 8 अगस्त 2009

हमरे ऊ पी के बासी

कानपुर की गाड़ी में बैठते ही कानपुर का स्वाद मिल गया। दूसरे दर्जे के कूपे में चार के बजाय पाँच सहयात्री दिखाई दिये। मैं और तनु साईड की बर्थ पर थे। पाँचवे शख्स के पास आरक्षण नहीं था। वे इस विश्वास से चढ़ बैठे कि टी टी के साथ जुगाड़ बैठा लेंगे। जुगाड़ यह इस प्रदेश के मानस का बेहद प्रिय शब्द है। तमाम जुगाड़ कथाओं के बीच दल के नेता ने अपने मित्रो को यह भी एक कथा-मर्म समझाया कि सरकारी हस्पताल प्रायवेट नर्सिंग होम से कहीं अधिक बेहतर पड़ता है। जितना खर्चा प्रायवेट में करोगे उसका चार आने का भोग सिस्टर आदि को चढ़ा दो फिर देखो कैसी सेवा होती है। दिन में चार बार चादर बदलेगी, सब तरह की दवा मिल जाएगी। भोग और प्रसाद का यह चलन जुगाड़ की परिभाषा के भीतर ही समाहित है।

टी टी ने एक बार घुड़की ज़रूर दी मगर फिर चार्ज वगैरा लगा के मान गया और एक बर्थ एलॉट भी कर दी। सारे रास्ते ठेकेदारों की यह टोली अपने हमसफ़रों की अमनपसन्दगी, और सामान्य शालीनता के प्रति एक बेलौस बेपरवाही बरतते हुए मादरचो बहन्चो करते आए। ये इस प्रदेश की ही विशेषता हो ऐसा नहीं है। क्योंकि पढ़े लिखे सभ्य लोगों को को वेल एडुकेटेड सोसायटी में फ़क्देम-फ़क्यू इत्यादि का जाप करते सुना जा सकता है। इस अर्थ में हम्रे ऊपी के बासियों में एक प्रकार की सार्वभौमिकता भी है।

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कानपुर में गाड़ी चलाना एक अनुभव है। यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है कि जिसने कानपुर में गाड़ी चला ली, वो दुनिया के किसी भी इलाक़े में गाड़ी चला सकता है- लाइसेन्स हो या न हो। मेरा तजुरबा ये है कि लोग इस शहर में गाड़ी चलाते कम हैं सड़क पर मौजूद तमाम गाड़ियों के बीच खाली जगहों में अपना वाहन पेलते अधिक हैं।

लेकिन अगर आप को सचमुच कानपुर में गाड़ी चलाने का अनुभव प्राप्त करना है तो कभी सूरज ढलने के बाद चक्का घुमाइय़े। रात में कई सूरज आप को अंधा बनाने के लिए तैयार नज़र आयेंगे। या तो कानपुर में कोई नहीं जानता कि कार में हेड लाईट की एक सेटिंग का नाम लो बीम भी होता है या वो गहरे तौर पर विश्वास करते हैं कि ड्राईविंग एक युद्ध है और सड़क उनकी रणभूमि। सामने वाले को किसी तरह भी मात करना उनकी युद्ध-नीति का अंग है। जिसकी गाड़ी में जितनी तेज़ लाईट होगी वो सामने वाले को अंधा करके गाड़ी धीमी करने पर मजबूर कर सकेगा और बची हुई जगह में अपनी गाड़ी पेलने में सफल हो सकेगा।

आप सोचेंगे कि ये जुझारू चालक रात में तो हेडलाईट के हथियार से युद्ध करते हैं मगर दिन में? दिन में तो उनका यह अस्त्र बेकार सिद्ध हो जाएगा। बात माकूल है। मगर दिन में वे आँखों की जगह कानों पर हमला करते हैं। दूर से ही कानफोड़ू क़िस्म के भोंपू बजाते हुए वाहन दौड़ाते आते हैं। अपने शहर की रवायतों से अजनबी हो चुका मेरे जैसा आदमी घबरा के किनारे हो जाता है। मगर घिसा हुआ कनपुरिया अंगद की तरह डटा रहता है। इंच भर भी जगह नहीं छोड़ता। जनता का यह उदासीन व्यवहार और चिकना घड़त्व चालक को हतोत्साहित नहीं करता। वह लगा रहता है। उसे आदत पड़ चुकी है। उसे डर है कि हॉर्न न बजाने पर लोग उसे रास्ते का पत्थर मानकर सड़क के परे न धकेल दें। वो अपनी अंगुली हॉर्न से हटाता ही नहीं है।

आम नागरिक इस व्यवहार का वह इतना अभ्यस्त हो चुका है कि सुबह छै बजे चन्दशेखर आज़ाद विश्वविद्यालय में सुबह की टहल का आचमन करके स्वास्थ्य वृद्धि के उद्देश्य से आए मगर गलचौरे में व्यस्त निरीह, निरस्त्र लोगों पर भी वह इस हथियार का अबाध इस्तेमाल करने से बाज नहीं आता। और जड़ानुभूति हो चुके पक्के कानपुरिया कभी उस का कॉलर पकड़ कर सवाल करने का सोचते भी नहीं कि अबे भूतनी के! सुबह-सुबह खाली सड़्क पर काहे कान फोड़ रहा हैं.. हैं?

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एक अन्य अनुभव में यह पाया गया कि बड़े चौराहे पर नवनिर्मित पैदल पार पथ का इस्तेमाल करने में किसी पथिक की श्रद्धा नहीं है। परेड, शिवाले और मेस्टन रोड के आने जाने वाले बड़े चौराहे के हरे लाल सिगनल और चौराहे के केन्द्र में स्थापित ट्रैफ़िक हवलदार की किसी भी चेष्टा को पूरी तरह नगण्य़ मानते हुए इधर से उधर, और उधर से इधर होते रहते हैं। अनुभूति जड़ हो चुके पक्के कानपुरिया जानते हैं कि अगर वे अपने वाहन पर आसीन नहीं होते तो वे स्वयं भी अपने इस गऊवत व्यवहार के सामने बाक़ी दुनिया को झुकाए रखते। और गऊ हमारा श्रद्धेय प्राणी है जिसे क़तई भी कोई पुरातन कालीन न समझे.. आज कल गऊ पट्टी के ह्र्दय प्रदेस ऊपी में गऊ प्लास्टिक खाती है, इस से अधिक आधुनिकता का प्रमाण आप को और क्या चाहिये?

***

यहाँ नवाबगंज में तमाम तरह के पेड़ लगे हैं नए-पुराने। बरगद, पीपल, आम, इमली, पकड़िया, और नीम जैसे सर्वव्याप्त वृक्षों के अलावा सहजन, अमलतास, गुलमोहर, गूलर, जंगलजलेबी, बालमखीरा, सुबबूल आदि भी लगे हैं। नए रोपे गए वृक्षों में कदम्ब कई जगह लगा है चूंकि वह जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। कदम्ब से पुराने वृक्षों में कसोड नाम का एक वृक्ष भी बहुतायत में लगा हुआ है। कई गलियों के तो पूरे के पूरे किनारे इसी कसोड के द्वारा आच्छादित हैं।

मुझे जिज्ञासा हुई कि कसोड नाम तो प्रदीप क्रिशन ने अपनी किताब ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही में दिया है। न जाने किस इलाक़े में यह नाम चलता हो। अपने कानपुर का क्या नाम है यह सोचते हुए मैं एक प्लास्टिक के पैकेट में आठ रुपये का पचास ग्राम धनिया झुलाते हुए चला जा रहा था। एक बंगले के सामने लगे कसोड के नीचे एक प्रौढ़ सज्जन एक ऐसी बेपरवाही और सहजता से पूरे चित्र में मौजूद थे जैसे कि कोई सिर्फ़ अपने घर के आगे ही हो सकता है। यह जानकर कि महाशय और इस पेड़ का साथ कई बरसों का लगता है, मैंने उन से पूछ डाला तपाक से – इस पेड़ का नाम क्या है। वो पहले तो अचकचाए फिर पेड़ की तरफ़ एक औचक दृष्टि उछाली और सर हिला दिया। इस का नाम तो नहीं मालूम। अपनी अज्ञानता में वो असहज न हो जायं मैंने कहा कि पीले फूल आते हैं न इसमें?

हाँ- पीले। बहुत पुराना पेड़ है। यहाँ जगह-जगह लगा है। तमाम लोगों ने कटवा दिया है। हमारा वैसेई बना है।

मैंने सर हिलाया कि जी यहाँ बहुत लगा है। और चलने लगा।

सड़क के पार उनके पड़ोसी बाहर खाट डाले पड़े थे। मेरे वाले महाशय ने उनसे पूछा कि नाम क्या है इस का। अधलेटे पड़ोसी ने सर प्रश्नवाचक मुद्रा में सर उचकाया।

रुकिये उनको पता है शायद।

मैं उनके पीछे-पीछे सड़क के पार गया। सवाल के जवाब में उन्होने सर नकारात्मक हिला दिया। और मेरी तरफ़ एक निगाह फेंकी जिस से मुझे समझ आया कि वो मेरे सवाल से ज़्यादा इस बात से दिलचस्पी रखते थे कि मैं कौन चीज़ हूँ जो ऐसे सड़क चलते पेड़ो का नाम-धाम पूछ रहा हूँ? इस के पहले कि वो मेरी कोई इन्क्वारी करते मैंने खिसक लेने में अपनी भलाई समझी क्योंकि उन्हे ये समझाना कि मैं इतना खलिहर हूँ कि मेरी दिलचस्पी काम धन्धे की दुनियादारी में नहीं.. बेफ़ालतू की ऐसी जानकारी इकट्ठी करने में है जो उन निम्न वर्ग के लोगों के पास ही बची है जो प्रकृति के साथ रहने के लिए अभी भी मजबूर हैं। बंगले में बन्द लोगों को अपने सामने खड़े पेड़ का नाम भी नहीं मालूम रहता और न वे मालूम करने की कोई कोशिश करते हैं। वैसे मेरे वाले महाशय ने ये ज़रूर वादा किया कि वन विभाग के लोग आते-जाते रहते हैं उन से पूछ कर वो हमें बतायेंगे। अब वो हमें कैसे बतायेंगे इस सवाल में आप अपनी मूँड़ी मत घुसाइये। हम ऊ पी के बासियों की ये एक और निर्मल निराली अदा है। कहीं तो मिलोगे कभी तो मिलोगे तो बता देंगे नाम।

आगे मेरी थेरम को इति सिद्धम करते हुए सासेज ट्री के नीचे मौसम्मी का ठेला लगाए बालक ने दूसरी ओर देखते हुए कहा- बालम खीरा। मेरा सवाल वही था कि इस पेड़ का नाम क्या है। मैं उस के ज़रिये एक पीछे की दुनिया में झांकना चाह रहा था और वो मुझ से पार एक आगे की दुनिया में कुछ तलाश रहा था।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

कबूतर जैसा मशहूर नहीं!

वैसे तो मैं नाटक देखता नहीं लेकिन कल एक देखना पड़ा। पृथ्वी पर। वहीं मेरे एक दोस्त सलीम शेख मिल गए। मिज़ाजपुर्सी हुई। मोहब्बत के दो बोल उन ने बोले। एकाधी अदा हम ने भी दिखाई। फिर कहने लगे कि क्या कर रहे हो आजकल। हमारा हाल किस से पोशीदा है। सब जानते हैं कि ज़माने से बेरोज़गार हूँ। वो बात अलग है कि किसी मजबूरी में नहीं अपनी मर्ज़ी से हूँ।

कभी-कभी डर भी लगता है कि कहीं एक दिन ऐसा न आए कि लोग काम के लिए पूछना भी छोड़ दें। लोग पुर्सिश करते रहें और आप कहें कि अमां जाओ यार कहाँ फंसा रहे हो, हमें अपनी आज़ादी कहीं प्यारी है। मन-माफ़िक काम न मिले तो दो-चार पैंटो और नए-ताज़े असबाब की हवस के लिए रुपये के लिए गधा मजूरी करने से तो इन्कार की यह लज़्ज़त भली। नए कपड़े नहीं खरीदता हूँ, जहाँ तक हो सके बस और ट्रेन से चलता हूँ, सिगरेट छोड़ ही चुका हूँ। जब तक सर पर ना आ पड़े ग़ुलामी नहीं करेंगे ऐसा सोचा है।

दुनिया में लोगों की तमाम ज़िम्मेदारियां होती हैं। माँ-बाप, बीबी-बच्चे, भाई-बहन। नसीब ने हमें ऐसी किसी भी ज़िम्मेदारी से आज़ाद रखा है। अगर उसके बावजूद मैं मौक़े का फ़ाएदा न उठाऊँ, और वो न करूँ जो वाक़ई दिल की तमन्ना है तो निहायत अहमक़ होऊँगा। और अपना तो उलटे ऐसा ख्याल है कि हम काफ़ी ज़हीन हैं।

तो सलीम साहब कहने लगे कि यार हमारे एक दोस्त हैं। थियेटर की बड़ी हस्ती हैं। अगले माह एक बड़े फ़ेस्टिवल के लिए हम से इंडिया टुडे पर दस मिनट का पीस लिखवना चाहते हैं। पर हमें ससुरा वक़्त ही नहीं मिल रहा, तुम लिखोगे क्या?

अब इंडिया टुडे पर दस मिनट का पीस लिखना कौन बड़ी बात है। मैं क्या कोई भी सेल्फ़ रेस्पेक्टिंग ब्लॉगिया लिख देगा। आज कल तो वैसे भी साहित्य-ब्लॉगित्य की बड़ी धूम है। मैंने बोला कि बेफ़िकर रहिये लिख दूंगा। तो कहने लगे कि मगर उन की थियेटर पर्सनैल्टी ने उनसे लिखने को कहा है। और जब वो कहेंगे कि फ़लां साहब लिख रहे हैं तो वो कहेंगे कि कौन फ़लां साहब? क्या जवाब देंगे? यानी सलीम शेख की तो एक शुहरत है, आप कौन? मैंने कहा कि अगर ऐसा है तो जाने दीजिये।

बोले नहीं कि कर लो, लूप में आ जाओगे!

लूप में?

हम बमुश्किल टीवी के लूप से बाहर निकले हैं। मसाला फ़िल्म के लूप के जबड़ों में जाते-जाते खुद को किसी तरह बचाया है। और अब आप थियेटर के लूप का झुनझुना हमें झलका रहे हैं। हद है। हम ने कहा कि नहीं भाई हमें माफ़ करें हम अब थियेटर के लूप में आने के लिए स्ट्र्गल नहीं करेंगे। सलीम मियां चुप हो गए।

फिर मैंने उन से पूछा कि उन्होने कभी कबूतर देखा है। ज़ाहिर सी बात है सब ने देखा है उन्होने भी देखा होगा। कबूतर को कौन नहीं पहचानता। बोले हाँ। फिर मैंने पूछा कि फिर तो आप ने हरेवा भी देखा होगा?

हरेवा?

वो क्या होता है?

एक पंछी होता है हरे रंग की देह, सर लाल, चोंच और गला काला और सर से लेकर गरदन तक एक सुनहरी पट्टी। निहायत दिलकश पंछी है।

तोता है क्या किसी तरह का?

नहीं साहब तोते से इसका कोई रिश्ता नहीं। बुलबुल के क़द का होता है और घने जंगल में बसर करता है। मगर क़िस्मत अच्छी हो तो हो सकता है आबादी के आस-पास के दरख्तों में भी छिपा दिख जाय। अंग्रेज़ी में गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस कहते हैं।

क्लोप्सिस..?

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस!?

करेक्ट! इसमें बस एक ही नुक़्स है।

क्या?

कबूतर जैसा मशहूर नहीं है।

बुधवार, 28 जनवरी 2009

अस्तित्व के भीतर एक गड्ढा है!

पिछले कुछ महीनों से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो गई थी.. और हाल में तो एकदम ही सन्नाटा रहा। एक दो दोस्तों ने शिकायत भी की मगर दो साल के ब्लॉग के रियाज़ ने मेरे ब्लॉग लेखन का एक ढाँचा बना लिया था और हाल के दिनों में मन जिन बातों में रमा हुआ था वो उस ढाँचे के अनुकूल नहीं थी। इस लिए ब्लॉग नहीं लिखा गया।

वैसे तो ब्लॉग भी मेरा, ढाँचा भी मेरा रचा हुआ और मन भी मेरा.. फिर दिक़्क़त क्या..? यही तो टेढ़ा सवाल है जिसके आगे बड़े-बड़े शूरमा चित हो जाते हैं। और मानव मन, मानव जीवन और समाज एक अजब पेचीदा गुत्थियों का शिकार हो जाते हैं। जिसमें सब कुछ मानव रचा हुआ ही है मगर अभिव्यक्ति को किनारा नहीं मिलता।

फ़िलहाल यह सोचा गया है कि लम्बी-लम्बी ब्लॉग पोस्टों के ढाँचे को नज़रअन्दाज़ करते हुए छोटी-मोटी जो भी बातें मन में कुलबुलायेंगी.. दर्ज करता चलूँगा।

सत्यम के निदेशक रामलिंग राजू के बारे में एक छोटी सी बात मेरी पत्नी तनु ने बड़ी मारक कह डाली एक रोज़.. बक़ौल उसके राजू के शुद्ध आर्थिक अपराध के पीछे एक भयानक आध्यात्मिक पोल है। उसने इतनी बड़ी संस्था को खड़ा किया.. दुनिया भर में अपनी एक साख बना ली और तब पर भी अपनी उपलब्धियों से उसे संतुष्टि नहीं हुई.. और अस्तित्व में एक गड्ढा बना रहा जिसे उसने इस तरह के आर्थिक गोलमाल के तुच्छ हथकण्डों के ज़रिये भरना चाहा।

ग़ौर करने लायक़ बात ये है कि राजू अपने भीतर के जिस के गढ़े को धन-लोलुपता के भाव से भरने की कोशिश में असफल रहा है.. वह कहीं न कहीं हम सब के भीतर है और हम सब अपनी-अपनी समझ से अपनी चुनी हुई चीज़ उसमें उड़ेलते रहते हैं।

शुक्रवार, 23 मई 2008

मेरे मित्र बोधिसत्त्व

बोधि को कोई ब्लॉगर कह रहा है कोई साहित्यकार। मैं बोधि को तब से जानता हूँ जब वे साहित्यकार नहीं थे और ब्लॉगर तो नहीं ही थे.. वे थे सिर्फ़ एक छात्र.. मेरी तरह। हम दोनों इलाहाबाद में पढ़ते थे.. और कुछ-कुछ सामाजिक सरोकार भी रखते थे। मैं पी एस ओ का सदस्य था और वे एस एफ़ आई के। ये दोनों संगठन बहुधा मुद्दों पर एक साथ खड़े होते थे और चुनाव में एक दूसरे के विरूद्ध प्रत्याशी खड़ा करते थे और लड़ते थे.. मगर मेरे और बोधि के बीच में कोई संघर्ष नहीं था.. हाँ बहसें होती थीं.. और जैसी कि मेरी आदत थी मैं सामने वाले को ध्वस्त करने की कोशिश में रहता भले ही वो मित्र बोधि ही क्यों न हों। पर मेरी इस मरकही फ़ित्रत के बावजूद बोधि और मेरे बीच कभी कोई कड़वी घटना नहीं घटी। हम मित्र ही बने रहे..

बरसों बाद हम मुम्बई में मिले और मित्रता वहीं से शुरु हो गई। संयोग से आज हम दोनों एक ही पेशे में हैं; दोनों ही शब्द बेच कर पैसे कमाते हैं। आजकल बोधि भाई एकता कपूर के लिए महाभारत सीरियल के लेखन की ज़िम्मेवारी संभाले हुए हैं। ऐसा मौका मुझे मिलता तो मैं भी लोक लेता.. पर ये सौभाग्य बोधि भाई को मिला है। वैसे ये महज़ भाग्य की ही बात नहीं है.. उनकी व्यवहार-कुशलता का भी योगदान है। मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूँ.. कई दूसरे लोग भी नहीं है.. पर इससे क्या बोधि की व्यवहार-कुशलता एक दुर्गुण में बदल जाती है?

मगर ये काम उन्हे मिलने के पीछे सब से महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह इस काम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिना किताब का सहारा लिए वे घंटो महाभारत पर व्याख्यान कर सकते हैं.. रामचरित मानस की सैकड़ों चौपाइयाँ उन्हे मुँहज़बानी याद हैं। उनकी जैसी स्मृति का स्वामी मैंने दूसरा नहीं देखा। बोधि में अनेकों गुण हैं पर वो मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं.. हम-आप सब की तरह मनुष्य हैं। जहाँ गुण हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। ज़रूर हैं—सबकी होती हैं।

मेरे मित्र हैं .. गुणों को सोहराता हूँ और अवगुणों को हतोत्साहित करता हूँ। और ऐसा भी नहीं कि मेरे उनके बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं.. दो अलग मस्तक हैं मतभेद तो स्वाभाविक है। पर मित्रता मस्तक का नहीं हृदय का विभाग है। ज्योतिष जानने वाले बन्धु जानते होंगे कि कुण्डली में मित्र का स्थान चौथा घर है.. हृदय का स्थान। वैसे ग्यारहवां घर भी मित्रों का बताया जाता है पर वो लाभ का स्थान है.. और उस स्थान से संचालित मित्रता भी नफ़ा-नुक़सान वाली होती है। असली मित्रता तो चौथे स्थान की ही है।

इसीलिए मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं जो भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कुछ शिव सेना के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यानी कि जिनसे वैचारिक रूप से छत्तीस का आँकड़ा है। पर मित्रता तो व्यक्ति से होती है उसके विचारों से नहीं.. विचार तो व्यक्ति की संरचना का बहुत छोटा हिस्सा है। विचार बदलने में देर नहीं लगती .. तर्क की बात है .. एक पल में विचार इधर के उधर हो जाते हैं। और अगर तर्क से नहीं हुए तो मतलब साफ़ है कि विचार की जड़ में कोई आवेग कुण्डली मार के पड़ा है.. विचार की प्रधानता की बात ही खत्म हो गई।

फिर भी अगर किसी को लगता है कि मित्रता विचार के आधार पर होती है तो बचपन के मित्रों का क्या करेंगे? वो तो मित्र कहलाने के क़ाबिल ही नहीं रहेंगे! जबकि सच्चाई ये है कि जब कॉलेज से निकल कर नौजवान कुछ विचार करने लायक होता है तो मित्र बनाने की कला न जाने कहाँ हेरा आता है?

लुब्बे-लुबाब ये है कि बोधि भाई साहित्यकार हैं, ब्लॉगर हैं, और भी बहुत कुछ हैं.. पर वे उस वजह से तो मेरे मित्र नहीं हैं? मित्र तो सिर्फ़ एक मनुष्य, एक व्यक्ति होने के नाते हैं और रहेंगे।

भाई बोधि को कुछ लोग देख कर पुलिसवाला और पहलवान भी समझ लेते हैं पर अपने डील-डौल के बावजूद वे इतने विनम्र हैं कि मेरी ज़रूरत की चार किलो की पुस्तक को खरीद कर बलार्ड पिअर से ढो के मेरे घर तक छोड़ जाते हैं, अपनी एकता कपूर के साथ अपनी मसरूफ़ियत के बीच। फिर खुद पेचिश से कमज़ोर हो जाने के बावजूद अपने घर के मेहमानों के आग्रह पर उन को टाँड़ से किताबें निकाल-निकाल कर भी दिखाते हैं.. भले ही वो मेहमान उनके मित्र हों चाहे न हों!

प्रमोद भाई, अब तो ज़ाहिर हो गया, बोधि को अपना मित्र नहीं मानते.. और वे जो कुछ कहें- वो उनका मामला है- वो कह सकते हैं। वे भी मेरे मित्र है.. और मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। बोधि के बचाव की मुद्रा में मैं उन पर पलटवार नहीं कर सकता.. पर बोधि अकेले खड़े पिटते रहें ये भी मैं नहीं देख सकता। ग़लतियाँ सबसे होती हैं.. बोधि से भी हो सकता है हुई हो.. पर वे खलनायक हैं ऐसा मानना मेरे लिए अस्वीकार्य है।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

सो भी एक उम्र में हुआ मालूम

आज कल शाम होते ही दिल बड़ा उदास हो जाता है जिधर देखता हूँ उस सिम्त से एक बेमानीपन दिल में घर करने लगता है.. किसी चीज़ का कोई मक़्सद समझ नहीं आता.. जबकि लाखों लोग अपने मक़्सद लिए कीड़ों-मकोड़ों की तरह हर तरफ़ रेंग रहे हैं.. एक अजीब सी चीखोपुकार है.. खुद को बहुत समझाने की कोशिश करता हूँ कि हर ज़र्रा जीवन से लबालब भरा हुआ है.. बाहर से जो बेजान पत्थर समझ आता है वो भी चेतना के एक स्तर पर खड़ा हुआ है.. फिर अपनी ही आवाज़ इस नक़्क़ारखाने में दबती जाती है.. ये जो हस्ती है मेरी मानो किसी क़ैद में छटपटाती है..

इसी बीच पढ़े मीर के कुछ शेर थोड़ी राहत का सबब बनते हैं..

है तह-ए-दिल बुतों का क्या मालूम
निकले पर्दे से क्या, खुदा मालूम

यही जाना कि कुछ न जाना, हाय
सो भी एक उम्र में हुआ मालूम

इल्म सब को है यह, कि सब तू है
फिर है अल्लाह कैसा नामालूम

गर्चे तू ही है सब जगह, लेकिन
हम को तेरी नहीं है जा मालूम

सोमवार, 31 मार्च 2008

फ़ैमीन ऑर फ़ीस्ट

ब्लॉग के सभी दोस्तों से माफ़ी.. पिछले कई दिनों से न तो ब्लॉग लिख रहा हूँ और न पढ़ पा रहा हूँ.. टिप्पणी तो ज़ाहिर है कहीं नहीं कर रहा.. हाँ इस बीच दिल्ली से यशवंत और उनके पनवेल के भड़ासी साथी डॉ० रूपेश से ज़रूर मुलाक़ात हुई.. ये ब्लॉगर मीट (कुछ लोग इसे मिलन कहते हैं और कुछ इसे संगत के नाम से नोश फ़रमाते हैं) मेरे घर पर ही सम्पन्न हुआ.. जिसमें मैंने यशवंत पर थोड़ी भड़ास निकाली और उसने निर्मलता से मुझे सुना.. प्रमोद भाई, अनिल भाई और बोधि के अलावा उदय भाई से भी इसी बहाने काम की अफ़रातफ़री के बीच, मिलना हो गया..

कुछ दोस्तों की चिट्ठियाँ आईं थीं.. उनका जवाब भी नहीं दे सका.. पर क्या है कि मैं एक स्टीरियोटिपिकल मेल हूँ विद वनट्रैकमाइन्ड.. सोचा कि अब जवाब लिख दूँगा कि तब.. मगर काम में मुब्तिला रहा और कई रोज़ निकल गए..इन दिनों कुछ ग़मेरोज़गार परवान चढ़ा हुआ है.. बीबी के ही भरोसे दालरोटी खाने लगूँगा तो स्टीरियोटिपिक्ल मेल की ईगो बड़ी गहरी डैन्ट हो जाएगी.. अभी भी कुछ प्रोजेक्ट्स निबटाने शेष हैं.. फिर फ़ुर्सत से लौटूँगा ब्लॉगिंग की दुनिया में..

मेरे एक लेखकीय गुरु रहे हैं मुम्बई में - सुजीत सेन.. उन्होने अर्थ और सारांश जैसी फ़िल्में लिखी थीं.. बाद में बहुत कुछ बाज़ारू भी लिखा... पर जो भी लिखा क़लम को दिल के क़रीब रखकर लिखा.. सब बनाने वाले तो महेश भट्ट नहीं होते न.. जो मर्म की बात का मर्म समझ सकें.. उनका ज़िक्र वी एस नईपाल ने भी अपनी किताब इन्डिया अ मिलियन म्यूटिनीज़ में भी एक छद्म नाम से किया है*.. सुजीत दा की एक बात हमारी फ़िल्म और टीवी इन्डस्ट्री के बारे में बड़ी सटीक थी.. वे कहते थे.. इन दिस इन्डस्ट्री.. इट्स आइदर फ़ैमीन ओर फ़ीस्ट.. नथिंग इन बिटवीन..

यही सूरतेहाल है.. बस यहाँ फ़ीस्ट और फ़ैमीन का अर्थ समय के सन्दर्भ में समझा जाय.. और फ़ीस्ट का अर्थ काम की बहुतायत निकाला जाय या रचनात्मक आराम की बहुतायत.. यह निर्णय आप खुद करें..




*ढाई बरस पहले पाँच दिल के दौरे झेलने के बाद सुजीत दा चल बसे..

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

बेदर्द दुनिया टीवी की

काफ़ी सालों से मेरी बीबी तनु मुझसे ज़्यादा किताबें पढ़ती रही है। ब्लॉग खोलने के बाद से जैसे मेरा एक नया जन्म हुआ और मैंने लिखने के साथ-साथ फिर से पढ़ना भी शुरु कर दिया और उपन्यास जिनको मैं बहुत पहले अलविदा कह चुका था.. उन्होने वापस मेरी मेज़ पर अपनी जगह पा ली! आप को यह बात थोड़ी खटक सकती है कि यह आदमी जो टीवी सीरियल लिखकर अपना पेट पालता है और उपन्यास के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ रहा है.. हद है!

पर क़सम से इसमें हिक़ारत/हिमाक़त जैसी कोई बात नहीं बल्कि हिकायत (कहानियाँ) गढ़ने के जिस बेदर्द टीवी की दुनिया में हूँ उसमें मेरे जैसे दूसरे लेखकों को फ़िक्शन पढ़ने के नाम पर उबकाई नहीं आती; मुझे इस बात की हैरानी होती है। साहित्य की दुनिया में लोग कहानी के साथ सुई-धागे से कढ़ाई जैसा व्यवहार करते होंगे शायद (मै नहीं जानता.. मैं साहित्यकार नहीं हूँ)। फ़िल्म वाले कढ़ाई नहीं करते कढ़ाई में सब्ज़ी-मसाले छौंकते जैसे कहानी बनाते हैं (इसका अनुभव है मुझे)। पर टीवी में हम लेखक (साथ में क्रिएटिव डाइरेक्टर और चैनल) कहानियों को कभी लकड़बग्घों की टोली की तरह नोचते-खसोटते हैं कभी क़साई की तरह काटते-छाँटते हैं।

रोज़ ब रोज़ अपने चरित्रों के एक्सीडेंट/ बीमारी/ हत्या/ कलह/ क्लेश/ तलाक़ हँसते-खेलते कर जाते हैं। इसलिए खुद शातिरपना करते हुए किसी और का शातिरपना देखना मनोरंजक अनुभव नहीं रहा। तो उपन्यास पढ़ना छूटा, टीवी सीरियल देखना भी छूटा (अपना लिखा भी नहीं देखता था.. आज भी नहीं देखता), हिन्दी फ़िल्में जो कभी रोज़ एक दो देखता था.. वो भी छूटा.. बस विदेशी फ़िल्में देखता रहा और दूसरी क़िस्म की किताबें पढ़ता रहा।

मैं कहानियों से कितना पका हुआ था/हूँ कि दुनिया-जहान की बात की मगर पिछले एक साल में मैंने शायद ही किसी कहानी के बारे में चर्चा कभी ब्लॉग पर की। पर ब्लॉग लिखते हुए और एक लम्बी (ओढ़ी हुई) बेरोज़गारी के चलते कुछ भीतर बदल गया और फिर से सहज होने लगा हूँ कहानियों के प्रति।

और इस बदलाव का नतीजा ये हुआ कि मैं पढ़ने भी लगा और उन उपन्यासों की चर्चा करने लगा जो तनु ने नहीं पढ़े थे। तो तंग आकर जवाबी कार्रवाई में उसने भी अपने व्यस्त शेड्यूल के बीच आते-जाते कार में एक ऐसा उपन्यास पढ़ डाला जो मैंने नहीं पढ़ा था- दि काइट रनर। और उसकी खुले दिल से तारीफ़ भी कर डाली.. तो भई मैंने भी हाथ में ले लिया दि काइट रनर। मुझे पढ़ कर कैसा लगा.. यह पढ़िये यहाँ..

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

कमज़ोर शरीर में क़ैद इच्छाएं

बचपन में चालीस की उमर वाले लोग किसी और ही दुनिया के प्राणी लगते थे। अब चालीस पर खड़े होकर मैं अपने को उसी दुनिया में पाता हूँ जिस में पन्द्रह, बीस और पचीस में था। जवानी और बुढ़ापे के बीच खड़े होकर एक बात मैंने ग़ौर की है कि जवान आदमी ज़्यादा कोमल, आदर्शवादी और श्रेष्ठता-बोध से ओतप्रोत होता है। जबकि बूढ़ा आदमी कहीं कठोर, उपयोगितावादी और स्वार्थ-बोध में लिप्त होता है।

जवानी में आदमी शक्ति से, ओज से भरा होता है और बुढ़ापे में कमज़ोर। कुछ लोगों को यह बात अनैतिक लग सकती है मगर मुझे आज यह ठीक लगती है कि शक्ति से शुभता और कमज़ोरी से पाप उपजता है। इस समीकरण को 'कमज़ोर को प्यार करने' की ईसा की शिक्षा के विरुद्ध न समझा जाय। बल्कि सच तो यह है कि ईसा की शिक्षा में भी कमज़ोर और पाप के रिश्ते का स्वीकार है।

यहाँ पर मैं शक्ति को सत्ता के पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर रहा। बल्कि अक्सर सत्ता में बैठा व्यक्ति बेहद कमज़ोर होता है। और कोई भी व्यक्ति हमेशा शक्तिशाली और कोई दूसरा हमेशा कमज़ोर नहीं रहता। ज्योतिष में भी मानवीय गुणों के बल और शुभता के इस सम्बन्ध को ग्रहों के उच्च और नीच के विशेषणों से परिभाषित किया है।

आम तौर बूढ़े आदमी को बाबा मानकर आदर और सम्मान का पात्र समझा जाता है.. यह मान लिया जाता है कि उम्र बढ़ने के साथ उसके अनुभव में भी वृद्धि हो गई होगी। पर हमेशा ऐसा होता नहीं। शनि जो स्वयं बुढ़ापे का प्रतीक है दुःख का कारक है ज्ञान का नहीं। ज्ञान का कारक राहु है जो आदमी को अपने शासन काल में दर-दर भटका देता है। तो शायद चरैवेति चरैवेति का ही एक दूसरा रूप राहु में देखा जा सकता है। शंकराचार्य अगर परम ज्ञानी थे तो वे परम घुमक्कड़ होकर दर-दर भटके भी थे; और ये भटकना कुछ लोग मानसिक धरातल पर कर लेते हैं।

अनुभवजन्य ज्ञान और वय का सम्बन्ध है पर सीधा बिलकुल नहीं। और आम तौर पर होता है ये कि लोग बस बूढ़े हो जाते हैं.. इच्छाएं, अरमान, समझ और अनुभव जहाँ के तहाँ पड़े रहते हैं और सिर्फ़ शरीर बुढ़ा जाता है। असल में बूढ़े लोग एक शिथिल और कमज़ोर शरीर में क़ैद अतृप्त इच्छाएं हैं। झुर्रियों वाली खाल के भीतर वह किसी भी अन्य आदमी जैसे ही होते है। ऐसे बूढ़ों को ज्ञानी बाबा समझने की ग़लती कर के मैं बहुत झेला हूँ और उनके हाथों क्लेश पाकर ही इस समझ पर पहुँचा हूँ।

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

व्यसन का विरोध?

सिगरेट छोड़े हुए लगभग एक साल हुआ जा रहा है और आजकल बरसो की पुरानी सहेली की याद बहुत सता रही है। पुरानी लत है शायद अभी भी उसके अवशेष अवचेतन में कहीं दबे पड़े हैं। कितना नसेड़ी होता है आदमी क्या-क्या नशे पाले रहता है.. चाय कॉफ़ी, पान, तम्बाकू, सुपाड़ी, सिगरेट, शराब, भांग, चरस, गांजा, अफ़ीम, कोकेन। एक बार पिया इनको और गए.. शरीर फिर-फिर माँगता है इनका सेवन। सब के साथ एक ही बार में ही बेड़ी पड़ जाती हो ऐसा नहीं है- कुछ थोड़ा ज़्यादा समय लेते हैं।

होता क्या है एडिक्शन..? किसी पदार्थ के सेवन की बार-बार तलब, चाहत, हुड़क ही तो लत पड़ जाना है। एक अनुभव के अनन्त काल तक पुनरुत्पादन की इच्छा। आप को कुछ जानी-पहचानी बात नहीं लग रही ये..? जीवित जगत का हर जीव-जन्तु अपने पुनरुत्पादन के ही काम में तो निरन्तर लगा हुआ है। कुछ जड़ पदार्थ मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर इस स्वभाव की अभिव्यक्ति करें तो यह चकित करने वाली बात ज़रूर है लेकिन प्रकृति के स्वभाव के अनुकूल ही है।

अस्तित्वात्मक दुविधा यह है कि आदमी इन पदार्थों के सेवन का प्रतिरोध कर के जीवन का समर्थन कर रहा है या प्राकृतिक स्वभाव का विरोध?

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

काम चलाने की मानसिकता

छोटे शहरों में सार्वजनिक आयामों का ऐसा हाल क्यों है जैसा कि है? सड़कों की, नालियों की, खेल के मैदानों की यहाँ तक कि अपने रहने के मकानों तक की कोई चिंता नहीं करता.. सब लोग किसी तरह काम चला लेते हैं। घर के ठीक सामने नालियाँ कीच से बजबजाती रहती हैं और लोग उन्हे साफ़ करने-कराने का कोई यत्न नहीं करते! क्यों? इस काम-चलाऊ मानसिकता का कारण क्या है? क्या इसलिए कि यह किसी और का काम है? और वे किसी और के काम में दखल न देने वाली नागरिक-नैतिकता रखते हैं? क्या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के पुराने इलाक़ों में भी यही तस्वीर है? नहीं..!

शायद आप ने पिछले दिनों पढ़ा हो कि बान्द्रा ईस्ट के एम आई जी मैदान को लेकर क्लब की अधिकारियों और नागरिकों के बीच एक झगड़ा चल रहा है.. अभी हाल यह है कि मैदान को कुछ निश्चित घंटों के लिए ही आम नागरिकों के लिए खोला जाता है। बाकी समय मैदान को रणजी ट्रॉफ़ी के मैचेस, कुछ सांस्कृतिक आयोजन वगैरह के लिए किराये पर दे दिया जाता है जो क्लब की आय का एक मात्र स्रोत है।

पर नागरिकों का मानना है कि इसके चलते इलाक़े के बच्चे अपने खेलने के मैदान से वंचित हो रहे हैं। और वे खेल के मैदान को क्लब के अधिकार से निकाल कर सार्वजनिक दायरे में लाना चाहते हैं। क्लब वाले कह रहे हैं कि उन्होने मैदान को महाडा से खरीद लिया है और नागरिक सकते में हैं कि ये कब हुआ कैसे हुआ? और उनके बीच लड़ाई जारी है!

मेरा सवाल है कि क्या ऐसी लड़ाई किसी छोटे शहर या क़स्बे में मुमकिन है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? अभी पिछले दिनों मैं कानपुर गया हुआ था जहाँ मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा है। बचपन में मैं साकेत नगर के जिस मकान में रहा करता था उसे फिर से देखने जा पहुँचा। उस मकान में कोई बदलाव नहीं आया यह देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई मगर ज़्यादा हैरानी इस बात से हुई कि सामने की सड़क और मैदान में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

वो आज भी वैसे ही ऊबड़-खाबड़ और उजाड़ पड़ा हुआ है झाड़ियों और पत्थरों से भरा हुआ कि जिसे देखकर आप के भीतर खेलने की कोई उमंग नहीं जागेगी। क्या यहाँ रहने वाले बच्चों को खेलने की कोई ज़रूरत नहीं? या उनके माँ-बाप इस बारे में सचेत नहीं? और अगर सचेत हैं तो कुछ करते क्यों नहीं? क्या उनके पास समय नहीं है? ऊर्जा नहीं है? क्या बात है?

मेरा अपना ख्याल यह है कि मुम्बई और कानपुर में फ़र्क गाँव से जुड़ाव का है। लोग छोटे शहरों में रहते हुए भी कभी पूरी तरह से मान नहीं पाते कि उन्हे स्थायी तौर पर यहीं रहना है। वे लगातार एक विस्थापित मानसिकता में ही बने रहते हैं। वे महज आर्थिक कारणों से गाँव छोड़कर शहर आए होते हैं और अपने शहरी-निवास को एक प्रवास मानकर बने रहते हैं एक अस्थायी मानसिकता में।

दूसरी बात जो मुझे लगती है कि चूँकि ज़्यादातर शहर मूलतः अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए-बसाए गए हैं तो शहर में रहने वाले हिन्दुस्तानी एक पराये आयाम में परदेसी मानसिकता से रहते हैं। दूसरे की बनाई संरचना में अपने योगदान की बात, अपनी रचनात्मकता की बात वे नहीं सोचते। मुम्बई जैसे महानगर के इन इलाक़ों में लोगों के भीतर एक स्थायित्व आया है.. अब यहीं रहना है, कहीं और नहीं जाना, न आगे न पीछे। तो अपने आस-पास पर अपने अधिकार का दावा पेश करते हैं.. और अपने योगदान के प्रति सजग होते हैं।

आप का क्या खयाल है?

बुधवार, 21 नवंबर 2007

वह हमें प्यार नहीं करता..

हमारी हिन्दी भाषा में प्यार करने वालों के लिए अच्छा शब्द नहीं है। सम्बन्ध से स्वतंत्र, प्रेम करने वालों को हिन्दी में प्रेमी और प्रेमिका कहते हैं। इन दोनों शब्दों में लिंग भेद स्पष्ट है। पुरुष कभी भी प्रेमिका नहीं हो सकता। फ़ारसी-उर्दू में प्रेमी-प्रेमिका का समानंतर शब्द आशिक़-माशूक़ है। परिपाटी है कि स्त्री जाति हुस्न का स्वरूप हैं और पुरुष जीता-जागता इश्क़ है। लिहाज़ा, परम्परा से, आशिक़ कहने से मर्द का ही बोध होगा फिर भी आप इस सीमा को तोड़ने की मिसालें पा सकते हैं। अंग्रेज़ी में ये शब्द किसी भी प्रकार के लिंग-बोध से मुक्त हैं- लवर और बिलवेड। प्यार करने वाला लवर है और जिसे प्यार किया जाय वो बिलवेड है।

मुश्किल यह है कि यह समस्या का अंत नहीं बल्कि उस की शुरुआत है। हम जिसे प्यार करते हैं अकसर वह हमें प्यार नहीं करता.. यह शिकायत आम है! जिन्हे यह शिकायत नहीं है उनमें भी दो तरह के लोग हैं एक वो जो सिर्फ़ इसी में संतुष्ट रहते हैं कि उनका प्रेम स्वीकार कर लिया गया- इसे लोकाचार में सम्बन्ध स्थापित हो जाना कहते हैं। और दूसरी तरह के लोग वो जिन्हे अपने प्यार करने वालों से वापस प्यार मिलता तो है मगर उसी मात्रा में नहीं। या तो ज़्यादा देते हैं और कम पाते हैं और या वे कम देते हैं और बहुत ज़्यादा मिलता है।

जीवन के और किसी क्षेत्र में इंसान संतुलन को लेकर इतना व्यथित नहीं होता जितना स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में। कभी किसी बाप ने शिकायत नहीं की कि मेरी बेटी मुझ से उतना प्यार नहीं करती जितना मैं उसे चाहता हूँ। ज्योतिष में स्त्री-पुरुष का यह विभाग तुला राशि के पास है- समझ रहे हैं तुला.. तराज़ू! आदिकाल से प्यार में इस कमीबेशी को लेकर लोग व्यथित रहे हैं। लोग अपनी तरफ़ से जितना दें उतना अलग-अलग स्रोतों से मिलने से भी संतुष्ट नहीं होते; उन्हे उसी व्यक्ति से ही वापस उतना प्यार चाहिये जितना दिया गया। सोचिये क्या मुश्किल है। कुछ लोग तो इस समीकरण को उस स्थिति तक खींच कर ले जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति सिर्फ़ प्यार देता है और दूसरा व्यक्ति सिर्फ़ प्यार पाता है।

राजा भृर्तहरि का क़िस्सा मशहूर है। उन्हे एक साधु ने अमरत्व पाने के लिए एक अमरफल दिया। राजा ने प्रेम से अभिभूत होकर अपनी रानी को दे दिया। रानी को भी अगर राजा से उतना ही प्यार होता तो वो उनसे खाने की ज़िद करती। हार कर दोनों आधा-आधा खा लेते, क़िस्सा खत्म हो जाता। मगर रानी तो सेनापति पर मरती थी, उसे दे दिया, सेनापति नगरवधू का दीवाना था, उसके दरबार में जा उस के चरणों में अर्पित कर आया। नगरवधू ने अमरफल एक मूर्तिकार को सौंप दिया जो उस की आँखों में बसा हुआ था। मूर्तिकार ने सोचा कि मेरा जीवन तो व्यर्थ है, राष्ट्र का हित इसी में है कि राजा भृर्तहरि सदा बने रहें। जब अमरफल लौट कर वापस राजा के पास आया तो उन्हे अपने प्रेम की विफलता का एहसास हुआ।

क्रोध में वे रानी को मृत्युदण्ड दे सकते थे, उसे बन्धनों में रख कर प्रताड़ित-अपमानित कर सकते थे, उसे डरा-धमका कर चरणों पर गिर कर क्षमा याचना करने पर मजबूर कर सकते थे.. मगर सब व्यर्थ था.. ये सब कुछ करके भी वे रानी का प्यार नहीं पा सकते थे। इस विषम दुष्चक्र के आगे उन्हे अपनी असहायता का बोध हुआ और उन्हे वैराग्य हो गया, राज-पाट विक्रम को सौंप वे वन को पलायन कर गए।

कुछ लोग इस कहानी में व्यभिचार देख सकते हैं कि रानी व्यभिचारी थी, सेनापति व्यभिचारी था आदि आदि.. मगर भृर्तहरि ने भी इसे व्यभिचार की तरह देखा होगा, मुझे शक़ है। क्योंकि अगर व्यभिचार माना होता तो वो पलायन क्यों करते, रुकते और व्यभिचार को हटाकर सदाचार स्थापित करने की कोशिश करते। मेरा विचार है कि भृर्तहरि ने इस चक्र को दुनिया का असली मर्म जाना, यही सत्य है संसार का। यही माया है जिसके पार जाना हो तो एक ही रास्ता है जो भृर्तहरि ने पकड़ा- वैराग्य! संसार में बने रहना है तो इस दुःख से बचा नहीं जा सकता।

मार्क्स के यूटोपिया- साम्यवाद में जब कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे अन्तरविरोध खत्म हो जाएंगे; मनुष्य अपनी पूरी ऊर्जा से प्रकृति के साथ अपने अन्तरविरोध पर लग सकेगा। उस आदर्श अवस्था में भी यह अन्तर्विरोध बना ही रहेगा.. यह दुःख बना ही रहेगा।

दोनों चित्र: एदुवर्द मुंच

रविवार, 18 नवंबर 2007

बस जिये जाना!

कई बार मैंने दूसरे लोगों के दुख-दर्द और रहने की अमानवीय स्थिति को देखकर अपनी नितान्त मूर्खता में ऐसा सोचा है कि वे आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते? अपने भविष्य में होने वाले रोगों के सम्बन्ध में सोचते हुए भी आत्महत्या के बेहूदे संकल्प के विषय में भी विचार किया है। पर आधा जीवन जी लेने और रोगों से भी कुछ सामना कर लेने के बाद ऐसे विचारों की खोखलेपन को समझ लिया.. जिन्हे दोस्तोयेवस्की ने अपराध और दण्ड में ऐसे लिखा है..

"जब किसी को मौत की सज़ा सुना दे जाती है तो वह अपनी मौत से घंटे भर पहले कहता है या सोचता है कि अगर किसी ऐसी ऊँची चट्टान पर, किसी ऐसी पतली सी कगर पर भी रहना पड़े, जहाँ सिर्फ़ खड़े होने की जगह हो, और उसके चारों ओर अथाह सागर हो, अनंत अंधकार हो, अनंत एकांत हो, अनंत तूफ़ान हो, अगर उसे गज भर चौकोर जगह में सारे जीवन, हजार साल तक, अनंत काल तक खड़े रहना पड़े, तब भी फ़ौरन मर जाने से इस तरह जिये जाना कहीं अच्छा है! बस जिये जाना, जिये जाना और जिये जाना! ज़िंदगी वह कैसी भी हो!.. कितनी सच बात है! क़सम से, कितना सच कहा है! आदमी भी कैसा बदज़ात है!.. बदज़ात है वो जो उसे इस बात पर बदज़ात कहता है,"

मनुष्य के भीतर ऐसी जीवन-वृत्ति के बावजूद कुछ ऐसे ज़िन्दादिल लोगों से भी मेरा परिचय रहा जिन्होने स्वयं आत्मघात कर लिया.. कैसा विचित्र बल है आदमी की (आत्मघाती!) विचार शक्ति में जो जीवन-वृत्ति को भी परास्त कर देती है।

शनिवार, 17 नवंबर 2007

क्या जवाब दूँगा शाहरुख को?

कल सबेरे उठा तो कुछ रंग-बिरंगी प्रतिक्रियाएं इनबॉक्स में मेरा इंतज़ार कर रही थीं। तरुण ने मुझे भी अपनी तरह निठल्ला मानते हुए चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनी नारियों के चित्र पेश किये जाने की माँग रख दी और साथ ही उनकी व्याख्या पूछने की भी धमकी दे दी। सच बात तो यह कि मैं इस धमकी से वाक़ई में डर गया। भाई पद्मिनी नारी के विचार की ऐतिहासिकता तलाशना एक मामला है और उस पूरे नारी वर्गीकरण की सचित्र चर्चा करना नितान्त दूसरा। पहले में तो सिर्फ़ प्रतिगामी होने के खतरे थे.. यह तो बेशक़ प्रतिगामी है। कल कोई पोस्ट न चढ़ा पाने के पीछे यह ऊहापोह सिर्फ़ एक कारण रहा। (यह पोस्ट लिखने के बाद देखा कि वरिष्ठ और सम्मानित साथी, जो टिप्पणीकार नाम का ब्लॉग चलाते हैं, ने मुझे पुराना मर्दवादी घोषित कर ही डाला। देखिये.. लागा चुनरी में दाग़..)

दूसरा कारण भी दो प्रतिक्रियाएं ही रहीं भाई संजीत ने कहा कि आपका शिष्यत्व ग्रहण करना है, निर्धारित योग्यताएं बतलाएं मान्यवर!! .. और प्रियंकर भाई पहले ही कह चुके थे कि यार अभय! गज़ब का शोध और संयोजन है . जगह हो और भर्ती चालू हो तो मुझे चेला मूंड़ लो .

किसी भी नश्वर से ऐसी बाते कहीं जाएंगी तो गर्व से माथा बिगड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में तत्काल झुक कर सामने वाले की वन्दना कर लेने से बीमारी से बचाव हो जाता है पर मैं वो करने से चूक गया। उलटा पता नहीं किस तरंग में घर पर पड़ी हुई जलेबियों पर दिल ललचा गया। जबकि पिछले एक साल से मैदे और दही की बनी चीज़ों से परहेज़ कर रहा हूँ। जलेबी में मैदा भी है और खट्टा दही भी और सल्फ़रयुक्त शक्कर का शीरा भी। परिणामतः ऐसी भयंकर नींद आई कि सोच रहा था कि क्लब जाकर बैडमिन्टन खेल आऊँ.. उस लायक तो क्या घर पर बैठ कर एक ब्लॉग पोस्ट लिखने लायक भी नहीं रहा। और यह पोस्ट न लिख पाने का तीसरा कारण बन गया। एक अजब सी तन्द्रा से आक्रान्त रहा। जाने यह तन्द्रा जलेबी जनित थी यह दो महानुभावों के शिष्यत्व स्वीकरण प्रस्ताव जनित?

मेरा पूरा दिन इसी में चला गया और दोपहर होते-होते गर्व की रेसिपी में एक पाव और आ मिला जब मनोज कुमार ने शाहरुख से अपना अपमान करने की शिकायत की। मन में लोगों को यह कहने के लिए भाव पेंगें मारने लगा कि लो मैंने तो कल ही लिखा है कि यह दोनों खान मिलकर पूरी इंडस्ट्री को नीचा दिखाकर अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए हैं। देखो.. कह दिया मनोज कुमार ने.. सही न कहता था मैं!.. और बाकी लोग जो चुप हैं वो इसलिए क्योंकि वे किंग खान से पंगा नहीं लेना चाहते। ये धंदा है भाई सब से बना कर रहना पड़ता है।

शाम होते-होते ही शाहरुख और फ़रहा ने प्रेस कान्फ़ेरेन्स करके अपनी माफ़ी पेश कर दी। पूरे देश के आगे मनोज कुमार एक गुड-ह्यूमर्ड मासूम मज़ाक को न समझने वाले 'रोअंटे' और शाहरुख एक 'विशाल हृदय लीजेंड' साबित हो गए जो अपने पूर्वगामी से चांटा भी खाने को तैयार थे। उनकी यह सदाशयता देख कर मुझे भी ग्लानि होने लगी कि हाय-हाय यह क्या लिख डाला मैने एक सुपरस्टार के खिलाफ़। कल को अगर उसके साथ काम करना पड़ गया तो क्या मुँह दिखाऊँगा उसे.. यह सोचता हूँ मैं आप के बारे में-आने वाली पीढ़ियाँ पूछने वाली हैं कि देखते क्या थे आप लोग उस आदमी में?

मेरे पास कोई जवाब नहीं है कि मैं क्या जवाब दूँगा शाहरुख को जो एम सी आर सी में मेरा दो साल का सीनियर भी रह चुका है और मेरा गुरु भाई भी है.. लेख टण्डन को वो भी एक वक़्त गुरु मानकर पैर छूता रहा है और मैं भी। मगर मेरे और उसके बीच अरबों रुपये का फ़ासला है। और सिर्फ़ यह फ़ासला ही वो अकेली वज़ह नहीं है कि मैं शाहरुख के बारे में जो सच में महसूस करता हूँ लिखना चाहता हूँ।

शाहरुख खान के नेतृत्व में इस पूरे मीडिया तंत्र को मेरे घर के टीवी में से चीख-चीख अपने माल और अपने मूल्यों का प्रचार करने का पूरा हक़ है.. खुद शाहरुख को तमाम चीज़ों के बारे में एक झूठ बोलकर मेरे समय, मेरे मानस पर कब्ज़ा कर मुझे अपने हाथों की कठपुतली बनाने का पूरा हक़ है.. तो मानवता की प्रगतिशील कदमों ने इन्टरनेट और ब्लॉग के ज़रिये मेरे हाथों में जो अभिव्यक्ति के मार्फ़त मुक्ति का जो रास्ता बख्शा है उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार होने का मुझे हक़ क्यों नहीं है? मुझे वह कहने का हक़ क्यों नहीं है जो मैं सच में सोच रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ? मुझे हक़ है.. और अगर मैं अपने जीवन के दबावों और आशंकाओं के चलते उस के प्रति बेईमानी करता हूँ तो यह बेईमानी मैं उसके साथ नहीं अपनी ही मुक्ति के साथ कर रहा हूँ।

पुनश्च: तन्द्रा और गर्व को सर से उतार कर धरती पर आ गया हूँ.. भाई प्रियंकर, भाई संजीत आगे आप लोग मुझे ऐसी मुश्किल से बचाए रखेंगे इस उम्मीद के साथ!

इतना सब कहने के बाद भी सवाल रह ही जाता है कभी शाहरुख मिल गया तो क्या बोलूँगा उस से? उस के मुँह पर उसकी तारीफ़ कर दूँगा और यह मान कर चलूँगा कि उसे मेरे ब्लॉग के बारे में पता चलने की कोई महीन सम्भावना भी नहीं है..
या उसे पता चल भी गया तो उसे उसके ही अंदाज़ में सॉरी बोलकर कह दूँगा ब्रदर इट वाज़ ऑल इन गुड ह्यूमर! चाहो तो चाँटा मार लो! वैसे भी उमर में भी बड़ा है मुझसे!
या फिर उस से मिलने की सम्भावना के उपस्थित होते ही अपनी आपत्तिजनक पोस्ट को डिलीट कर दूँगा..
या फिर.. उस से मिलने को ही लात मार दूँगा.. उसे लात मार कर भी दाल रोटी मिल ही जाएगी..

सोमवार, 5 नवंबर 2007

असल में क्या होती है लीला!

मेरा अपने आस-पास के जगत से कैसा रिश्ता है यह तय होता है इस बात से उस पल में अपने जगत में कितना धँसा हुआ हूँ मैं। दूर बैठकर ठोड़ी पर हाथ रखकर मनन करते रहने से पेड़, झाड़ी, गली-मकान भी दूर रहकर मनन मुद्रा बनाए रखते हैं। मगर जैसे ही विचारक को लंगड़ी मार कर खिलवाड़ के लिए उमड़ता हूँ, गली-मकान, पेड़-झाड़ी, स्कूटर-नाली का भी चरित्र बदल जाता है। क्यों, क्योंकर, किस तरह नहीं जानता पर अनुभव से जानता हूँ।

चलायमान हो जाता है सारा आस-पास, एक स्पंदन में धड़कने लगता है, जैसे जो गोशे चुपचाप अनजाने भाव में सिमटे-लिपटे पड़े थे अचानक एक परिचय की बयार में फड़कने लगे हों। खेलते हुए ये सारी भौतिक इकाईयाँ भी जैसे हमारे साथ एक खेल में शामिल हो जातीं हैं। जब इस खेल भाव से मैं उनके सम्पर्क में आता हूँ तो न तो बहुत गम्भीर होता हूँ न बहुत आह्लादित, न उनसे कुछ लेना चाह रहा होता हूँ और न कुछ देना। किसी मक़्सद किसी मंशा से उन भौतिक इकाईयों के सम्पर्क में नहीं आता; अपनी मौज में उनके क़रीब आता-जाता हूँ। जो आम तौर पर एक गेंद की शक्ल में यहाँ से वहाँ उछल-कूद कर रही होती है।

ये आम अनुभव है, सभी को होता है बचपन में और मेरे जिसे कुछ लोग जो बचपन में मनन के मारे जम के खेलने से रह गए, उन को अब भी होता है- खेलने के बचे हुए घण्टे पूरे करते हुए। इस सिलसिले के दौरान हम आस-पास के सभी पेड़, पत्थर, झाड़ी, दीवार, नाली, स्कूटर, साइकिल सभी के सम्पर्क में आते हैं।

इस अनुभव के दौरान एक और अनुषंगी अनुभव होता है। मैंने पाया है कि खेल शुरु होने के कुछ समय बाद ही ये सारी इकाईयाँ भी हमारे साथ खेल में शामिल हो जाती हैं- अपनी भौतिक सीमाओं के अन्दर रहते हुए। झाड़ी बहुत चाह कर भी अन्डर-आर्म बोलिंग नहीं कर सकती, मगर फ़ील्डिंग कर सकती है और करती है। कभी-कभी अपनी शानदार फ़ील्डिंग के मुज़ाहिरे पर दाद न मिलने या किसी दूसरी वज़ह से शैतानी भी करने लगती है। जैसे ही गेंद उसके पास आती है वह उसे लपक के अन्दर कर लेती है और वापस ही नहीं करती। अरे भाई साहब मैंने कितनी बार तो मोटरसाइकिल को गेंद को अपने पहियों के तीलियों में जकड़ के पकड़ते हुए पाया है और कितनी बार कार के अपने पेट के नीचे लुकाते हुए। नालियाँ भी कुछ कम पंगेबाज़ नहीं होती। गेंद को जैसे लील लेती हैं, फिर खोजते रहिये आप? अब ये पूरी तरह उनकी नाराज़गी के स्तर पर निर्भर होता है कि गेंद आप को वापस मिलेगी या नहीं मिलेगी।

मेरी ये बात उनको भी हवाई लग सकती है जिनके जीवन का मक़सद कुर्सी-बिस्तर और मकान-गाड़ी ही है। लेकिन जिन लोगों ने बचपन में अपनी न जाने कितनी गेंदे इस तरह से गँवाई हैं, वे मेरी बात समझेंगे। मैं तो आज तक गँवा रहा हूँ.. एक तो कल शाम को ही लील ली गई नाली द्वारा। जिस से खीज कर यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा हुई। और पोस्ट लिखते-लिखते ये समझ आई कि असल में क्या होती है लीला!

सोमवार, 29 अक्टूबर 2007

असली रोमांस की धमक

उदीयमान निर्देशक इम्तियाज़ अली की पहली फ़िल्म ‘सोचा न था’ भी कुछ छोटी-मोटी कमियों के बावजूद एक ऐसी ताज़गी से भरी फ़िल्म थी जो किसी नए फ़िल्मकार से ही अपेक्षित होती है। मगर अपनी दूसरी फ़िल्म ‘जब वी मेट’ से उन्होने अपने भीतर की कलात्मक ईमानदारी का मुज़ाहिरा कर के फ़िल्म इंडस्ट्री के मठाधीशों के चूहे जैसे दिल को भयाकुल हो जाने का एक बड़ा कारण दे दिया है। आम तौर पर सभी को दूसरों की सफलता व्याकुल करती है और खास तौर पर उन्हे जो सफल होने के लिए समीकरणों की लगातार गठजोड़ करते रहते हों।

मैं उनके दिल को चूहेसम बता रहा हूँ क्योंकि करोड़पति-अरबपति होने के बावजूद उनके भीतर अपनी ही बनाई किसी पिटी-पिटाई लीक छोड़कर कुछ अलग करने का साहस नहीं है। चूंकि पैसे के फेर में अपने दिल की आवाज़ सुनने का अभ्यास तो खत्म ही हो चुका है यह उनकी फ़िल्मों से समझ आता है। और दूसरों की दिलों की आवाज़ पर भरोसा करने की उदारता भी उनमें नहीं होती इसीलिए किसी नए को मौका देने के बावजूद उसकी स्वतःस्फूर्तता को लगातार एक समीकरण के अन्तर्गत दलित करते जाते हैं।

मैं इसे एक रोष के साथ लिख रहा हूँ क्योंकि मैंने इस धंधे में चौदह साल दिए हैं और अधिकतर टीवी की और कभी-कभी फ़िल्मों की दुनिया में भी इस प्रवृत्ति का सामना किया है और उसके आगे समर्पण किया है। भौतिक सुविधाओं के आगे कलात्मक प्रतिबद्धताओं की बलि देकर। और इसीलिए मुझे इम्तियाज़ अली की फ़िल्म देखकर एक आन्तरिक खुशी हो रही है कि उसने वह जीत हासिल की है जो मैं नहीं कर सका। फ़िल्मों की गुणात्मकता में बदलाव ला रहे नए निर्देशकों की उस सूची में उनका भी नाम लिया जाएगा जिसकी अगुआई अनुराग कश्यप और श्रीराम राघवन जैसे निर्देशक कर रहे हैं।

जब वी मेट एक रोमांटिक फ़िल्म है। एक लम्बी परम्परा है हमारे यहाँ रोमांटिक फ़िल्मों की। मगर पिछले सालों में मैने एक अच्छी रोमांटिक फ़िल्म कब देखी थी याद नहीं आता। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ‘कुछ कुछ होता है’ को मात्र मसाला फ़िल्में मानता हूँ, उसमें असली रोमांस नहीं है। असली रोमांस देखना हो तो जा कर देखिये जब वी मेट

बुधवार, 24 अक्टूबर 2007

मेरा कार-मोह

ब्लॉग की दुनिया में अपना नाम है निर्मलानन्द.. सुनने में किसी स्वामी जी का नाम लगता है.. वैसे इस नाम को रखने के पीछे कोई गहरा विचार नहीं था.. अभय तिवारी के नाम से पता मिल नहीं रहा था.. और उस के एक दो रोज़ पहले ही मैंने संगीत सीखते हुए सही सुर लग जाने की अनुभूति की तुलना खूबसूरत फ़िल्म वाले 'निर्मल आनन्द' से की थी.. बस उसी लपेट में यह नाम भी आजमा लिया और मिल गया..

अब हालत यह है कि ब्लॉग का नाम निर्मल आनन्द होने से लोग मान कर चलते हैं कि मैं बड़े ही निर्मल स्वभाव वाला व्यक्ति हूँ.. लोग कहते हैं मन को बड़ा अच्छा लगता है.. अपनी ही निर्मलता पर मन झूम-झूम जाता है.. सोचने लगता हूँ कि मैं तो भौतिक जगत के बन्धनों से ऊपर उठ चुका आदमी हूँ.. साधारण मोह-माया, जगत के जंजाल जिनमें उलझा रहता है आम आदमी.. मेरा दूर-दूर का नाता नहीं उनसे.. लेकिन ये सारा भ्रम टूट कर धराशायी हो गया जब आखिरकार हमने एक ड्राइवर को मुलाज़िम रख लिया..

मुझे कार चलानी नहीं आती थी.. कार चलाने को लेकर कोई बहुत उत्साह भी नहीं रहा कभी.. मगर पाँच बरस पहले रिक्शे से एक दुर्घटना हो जाने के बाद फटाफट कार सीखी और आनन-फानन एक कार खरीद भी ली.. मगर मैं घरघुस्सु आदमी.. कहीं भी जाने से पहले बीस बार सोचता हूँ.. पाँच साल में बमुश्किल तेरह-चौदह हज़ार किलोमीटर चलाई गाड़ी.. जबकि बीबी को अपने काम के सिलसिले में काफ़ी आना जाना होता है..(मगर वह ड्राइव न करती है और न करेगी यह तय हो चुका है..) लेकिन इस बरस तो हालत ये हुई कि मैं एकदम ही घर पर बैठ गया और बीबी का काम कुछ ऐसा बढ़ा कि उसे दिन भर काफ़ी जगह जाना होता.. तो ड्राइवर रखा गया..

वैचारिक तौर पर मुझे कोई समस्या नहीं थी.. पर मेरे अन्दर अजीब-अजीब भाव जन्म ले रहे थे.. मुझे नफ़रत हो रही थी इस फ़ैसले से.. उस ड्राइवर से जो मेरी गाड़ी को चलाएगा.. उसी सीट पर बैठेगा.. जिस पर मैं बैठता हूँ.. हे राम.. मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा प्रिय खिलौना कोई मुझसे छीने लिये जा रहा है.. पहले दिन जाती हुई गाड़ी को मैंने ऐसे देखा जैसे कोई विदा होती बेटी को देखता है..दिन भर उसी के बारे में सोचता रहा.. शाम को ड्राइवर को मैने उसके तौर-तरीकों के बारे में एक झाड़ लगाई.. बीबी को भी उसके गाड़ी के प्रति दुर्व्यवहार के लिए लताड़ा.. मैं एक राक्षस होता जा रहा था.. और ये कोई पुरानी बात नहीं है.. करीब महीने भर पहले ही.. उस वक्त ब्लॉग की दुनिया में कोई न कोई मेरे निर्मलापे को लेकर भली बातें कह-लिख-सोच रहा होगा..

तब मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना अधिक मोहासक्त था इस कार में.. कितना बँधा हुआ था इसके साथ.. शीयर अटैचमेन्ट.. मैं इस कार को लगभग एक मनुष्य का दरज़ा दिये हुए था.. शायद किसी मनुष्य से भी ज़्यादा मैं इस भौतिक वस्तु से जुड़ा हुआ था.. कि अभी भी दर्द होता है.. थोड़ा-थोड़ा..

शनिवार, 20 अक्टूबर 2007

मेरी माँ का अपना ब्लॉग


मेरी माँ की पारम्परिक शिक्षा सुव्यवस्थित तरह से नहीं हुई.. जो भी पढ़ा-जाना..स्वयं-शिक्षा से सम्भव हुआ.. एक पुरुषवादी समाज में एक स्त्री को जो हमेशा दोयम दरज़े पर धकेला जाता रहा है.. इस प्रवृत्ति के प्रति वे हमेशा सचेत रही हैं.. कहने का अर्थ यह नहीं कि मेरे पिता कोई राक्षस थे.. बस एक पुरुषवादी समाज में एक पुरुष थे.. और क्रांतिकारी नहीं थे.. फिर भी उन्होने अपने स्तर पर मेरी माँ की प्रतिभा को एक सामाजिक मंच देने की कोशिशें की.. पर वह उनके जीवन का उद्देश्य नहीं था.. मम्मी की प्रतिभा को दुनिया के सामने प्रकाशित कर देना मेरा भी जीवन उद्देश्य नहीं.. बस अपने स्तर पर जो कर सकता हूँ कर रहा हूँ..


काफ़ी दिनों से मम्मी की कविताओं का ब्लॉग खोलना चाह रहा था.. मगर मैं मुम्बई से निकल नहीं पा रहा था.. फोन पर मम्मी से कविताओं को लेना सम्भव नहीं था.. अब वे उमर के उस मकाम पर पहुँच गई हैं जहाँ आप को दूसरों की आवाज़े स्पष्ट नहीं सुनाई देतीं.. तो इस दफ़े कानपुर जा कर उनकी कविताओं को सहेज लाया हूँ और धीरे धीरे उनके अपने ब्लॉग पर चढ़ाता रहूँगा.. उम्मीद है आप लोग मेरी माँ के भीतर के कवि का उत्साह-वर्धन करेंगे.. अपने ब्लॉग का नाम उन्होने स्वयं चुना है.. जीवन जैसा मैंने देखा.. आप देखें और टिप्पणी अवश्य करें..

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2007

कानपुर में खालिस की खोज

पिछली पोस्ट लिखने के बाद से अब तक एक बीमारी का अन्तराल हो गया.. सच बात तो यह है कि मैं इस बीमारी का इन्तज़ार भी कर रहा था.. जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि ब्लॉगिंग का शग़ल पैदा होने से पहले मेरा शग़ल ज्योतिष हुआ करता था और ज्योतिष के नियमों के अनुसार मैं एक लम्बी दशा भोग चुकने के बाद एक नई दशा में प्रवेश करने के आस-पास हूँ.. वैसे तो दशा के बदलाव का समय दिन, घंटो और मिनट-सेकण्ड में भी निकाला जा सकता है.. मगर असली बदलाव अनुभव करता है जातक अपने दिलो दिमाग़ और शरीर के तल की गुणात्मकता में.. इस दशा परिवर्तन के दौरान अक्सर जातक किसी छोटी-बड़ी बीमारी का शिकार होता ही है.. गुणे भाग से तो मेरी नई दशा शुरु हो चुकी थी कानपुर में ही मगर मेरा शरीर मुझे बता रहा है कि ये तीन दिन पहले शुरु हुई है..

आगे का हाल तो आगे देखा-लिखा जाएगा.. मगर पहले पीछे का हाल.. बात दिल्ली छोड़ने तक पूरी हो गई थी.. अब आगे कानपुर.. मेरी जन्मस्थली.. बचपन से ले कर अब तक मैंने कुल तेरह चौदह साल इस शहर में बिताए हैं.. पापाजी के रिटायर होने पर इसी कानपुर के आज़ाद नगर में एक प्लॉट पर मकान बनवाने में उनका सहयोग करने हेतु सब काम-धाम छोड़कर छै महीने भी गुज़ारे.. पापाजी का तो देहान्त हो गया तीन बरस पहले.. अब मम्मी, बीच वाला भाई, भाभी और उनके बच्चे रहते हैं यहीं कानपुर में.. पिछले सात-आठ साल से यही नियम चला आ रहा है.. जब भी मुम्बई से निकलता हूँ तो सीधे कानपुर के लिए.. दिल्ली के रास्ते से.. बड़े भाई से मिलते हुए कानपुर.. और फिर वापस.. घुमक्कड़ी के अरमान बहुत हैं मन में पर पूरे नहीं हुए अभी.. इस बार कुछ बदलाव आने की उम्मीद ज़रूर है.. साइकिल पर भारत भ्रमण करने वाले अनूप जी के साक्षात दर्शन जो हो गए.. इस मिलन का कुछ तो असर होना चाहिये..

कानपुर पहुँच कर एक दो दिन तो अपने खाने पीने का विशेष इन्तज़ाम करने में चले गए.. ये बात कम ही लोग जानते हैं कि मैं पिछले एक साल से ज्वार की रोटियाँ खा रहा हूँ..स्वास्थ्य के कारणों से.. चीनी की जगह खाँड और भैस के दूध-घी की जगह गाय का दूध-घी.. तो कानपुर में कुछ समय इन चीज़ों की तलाश में दिया गया.. परिणाम आश्चर्यजनक थे.. ज्वार सिवाय कलक्टरगंज के थोक के बाज़ार के कहीं नहीं मिला.. वहाँ भी खड़ा ज्वार ही मिला ज्वार का आटा नहीं.. देशी घी के बारे में एक स्वर से सभी डेरी वालों ने कहा.. पूरे कानपुर भर में कहीं नहीं मिलेगा..जो आप को दे दे वह झूठा.. वह धोखेबाज..

दो तीन दुधैय्यों से बात करने के बाद हम ने मान लिया कि यही सच है कि इस देश के अधिकांश भाग से गाय का असली दूध घी मिलना एक स्वप्न मात्र रह गया है.. गौ के नाम पर जान देने वाले आप को अभी भी मिल जायेंगे.. घी नहीं मिलेगा.. और उसके पॄष्ठ भाग में बिना इंजेक्शन ठोंके उसका दूध चाहने वाले.. न जी.. वे लोग भी नहीं मिलेंगे.. यहाँ यह बता देना विषयान्तर न होगा कि दूध और घी के जितने भी गुण बताये गाये गए हैं वे सभी गाय के दूध घी के हैं..

रह गई खाँड.. वो हमें मिल गई देश के इलीट दुकानों पर हेल्थ कांशस जनता को बेचने के लिए बनाई गई आम चीनी से लगभग दुगुनी मँहगी ‘सुनेहरा’.. जो एक कलक्टरगंज की एक थोक की दुकान से मिली.. अभी रिटेल तक पहुँची भी नहीं थी.. तो अब पहले जैसा हाल नहीं रहा कि असली दूध घी शुद्ध माल खाने के लिए आदमी शहर छोड़कर गाँव की तरफ़ जाए.. धीरे धीरे यह मामला उलटता जा रहा है.. गाँवों और छोटे शहरों में आप को रासायनिक औद्यौगिक कचरे से भरा माल मिलेगा.. जबकि बड़े शहरों की खास-खास दुकानों पर आप प्राप्त कर सकेंगे.. ऑर्गैनिक भोज्य पदार्थ.. जैसे मैं प्राप्त करता हूँ मुम्बई में.. लेकिन फिर भी मैं ने अपने विक्रम से हासिल ही कर ली खाँड और ज्वार..गाय का घी फिर भी नहीं मिला..

अगले दिन फोन लगाया गया अनूप भाई को मुलाक़ात के लिए.. वे तो खुद ही हमें लेने आने के लिए तैयार थे मगर हमने उन्हे अपने कनपुरिया होने का आश्वासान दिलाया और खुद ही पहुँचने का वादा किया.. मगर हमारे मेहरबान साले साहब नवेन्दु भैया ने हम अनूप जी के निवास नगर आर्मापुर कॉलोनी के रास्ते की कठिन पहाड़ की ऊँचाई दिखा के विचलित कर दिया.. तो खैर उनकी कार की सुखद ठण्डक में पहुँचे हम आर्मापुर के विस्तृत वैभव में.. जो मुम्बई दिल्ली के शहराती वैभव से एक दम अलग था.. प्रकृति और सभ्यता का एक संतुलित संगम...
हमारा स्वागत किया अनूप जी के छोटे बेटे अनन्य ने.. परिचय पाते ही उसने तुरन्त हमें गुड इवनिंग ठोंक दिया.. हम और नवेन्दु भैया दोनों उसकी इस अदा से थोड़े अचकचा गए.. अन्दर जा कर हम अनूप जी और भाभी जी से मिले.. भाभी जी की बचपन की सहेली और उनके पति शुक्ल दम्पति के मेहमान-नवाज़ी का आनन्द पहले से उठा रहे थे.. हम भी बातचीत में शामिल हो गए.. बैठते ही हमारा स्वागत रसगुल्ले से किया गया.. रसगुल्ला अभी मुँह में था ही कि शुक्ल जी के बड़े सुपुत्र सौमित्र लपक कर हमारे पैर छू गए.. बताइये अब कौन भला ऐसा मीठा और सम्मान पूर्ण स्वागत पाने के बाद कुछ भी उल्टा सुल्टा लिखने की हिम्मत कर सकता है शुक्ल जी की शान में.. हमारी फ़ुरसतिया की आँखों से छलकता खून-पार्ट टू लिखने की सारी योजनाओं पर पानी फिर गया..

थोड़ी देर में भाभी जी की सहेली और और उनके पति ने विदा ली और नवेन्दु भैया भी किसी फ़र्ज की पुकार सुनने चले गए.. और राजीव टण्डन जी पधारे.. राजीव जी कम ही लिखते हैं आजकल पर जब लिखते हैं तो सब की नज़र में आ जाते हैं..लेकिन हमारी नज़र तो उस वक़्त शुक्ला जी का वैभव से चौंधियायी हुई थी.. तो निकल कर अनूप जी ने हम अच्छी तरह से अंधा कर देने के लिए अपना खेत उपवन दिखाकर उपकृत किया.. हम तो ईर्ष्यालु हुए ही.. दिल्ली में बैठे प्रमोद भाई भी एक अनजानी अग्नि में जलने लगे हैं जब से उन्हे फ़ुरसतिया के इस ऐश्वर्य का पता चला.. जीतू चौधरी की एसयूवी का उल्लेख भी आया पर उसे इस ऐश्वर्य के आगे धूरिसम माना गया.. खैर.. जैसा आप लोगों ने पढ़ा ही है कि फ़ुरसतिया हमें अपने खेत का एक बोरी धान देने वायदा कर चुके हैं.. अब कम से कम चावल तो हमें मुम्बई की इलीट ऑर्गैनिक दुकानों से तो नहीं खरीदना पड़ेगा.. ये बड़ी राहत की बात है..
आगे हम इस ऐश्वर्य में लोट लगाने के तत्पर होते उसके पहले ही हमें भाभी जी नाश्ते के लिए वापस अन्दर ले गईं..और हमारे आगे शानदार क़िस्म की पकौड़े पेश कर दिये.. हमारा सत्यवादी चरित्र पुकार–पुकार कर कहने लगा कि मना कर दे.. कह दे कि मैं ने यह सब न खाने का प्रण लिया है.. मगर हमारे अन्दर जाग रहे नए घुमक्कड़ जीव ने लचीलापन दिखाते हुए प्लेट स्वीकार कर ली और गपागप सब उदरस्थ कर लिया.. और जिस मसाले से अन्दर तक जल जाने की शिकायत मैं दिल्ली भर करता रहा.. उस मसाले की किसी तपिश का एहसास तक नहीं हुआ हमें.. शायद यह भाभी जी के पाक-कला नैपुण्य के अलावा उनके स्नेह की ठण्डक भी होगी.. निश्चित ही.. उनके स्नेह की ठण्डक का भान तो हमें बाद में भी होता रहा जब उन्होने एक ही झटके में हमारी उमर में पन्द्रह बरस घटाकर हमारी आयु में पन्द्रह बरस जोड़ दिए.. हम भाभी जी को लगातार ब्लॉग लिखने की लिए उकसाते रहे ऐसा तो अनूप जी ने बताया ही है आप को.. सच है.. और यह भी सच है कि हम उनके इस उत्तर से लाजवाब हो गए कि वह अपने सबसे बड़ी रचना प्रक्रिया -अपने बेटों के चरित्र निर्माण- से ब्लॉग लेखन के लिए समय निकालना अभी ठीक नहीं समझती.. और इस बात को मैं फिर दोहराना चाहता हूँ कि जिस खालिसपन को वस्तुओं में- ज्वार,खाँड, देशी घी आदि- कानपुर भर में तलाश कर निराश हो चला था.. वह खालिसपन भारतीय संस्कार की शक्ल में शुक्ल जी के बेटों में पाकर अन्दर तक प्रसन्न हो गया.. और उस में सुमन भाभी का ही ज़्यादा श्रेय होगा ऐसा मान लेने में मुझे नहीं लगता कि अनूप जी को भी कोई ऐतराज़ होगा..

शेष समय किस तरह क्रिकेट खेलने में, फ़ुरसतिया द्वारा कविता सुनाकर हमें पीड़ित करने की कोशिश में, और मोर देखने में बीता यह वृतांत आप अनूप जी के ब्लॉग पर पढ़ ही चुके हैं.. लौटते में अनूप जी और राजीव जी हमें छोड़ने स्वरूप नगर तक आए.. रास्ते में मोती झील की प्रसिद्ध दुकान पर चाय पान भी हुआ..

दो रोज़ बाद अनूप जी और राजीव जी मेरे घर पर पधारे जिसकी रपट भी आपने देखी होगी.. उस दिन का अफ़सोस यह रह गया कि पता नहीं किस खामखयाली में उस मुलाक़ात के चित्र उतारने की बात ही मेरे दिमाग़ में नहीं आई..

फिर बड़े भाई सपरिवार दिल्ली से आ गए थे तो वे दो दिन उस पारिवारिक उल्लास में गए.. कानपुर का शेष समय मम्मी की कविताओं को पढ़ते, लैपटॉप पर छापते और मम्मी से प्रूफ़ चेक करवाते बीता.. जिस के पीछे योजना यह थी कि जिस बात का आग्रह अनूप जी सहित ब्लॉग की दुनिया के मित्र कर रहे थे, उसे पूरा कर लिया जाय.. मम्मी की कविताओं का एक अलग से ब्लॉग खोल दिया जाय.. जो शीघ्र ही होगा..

सोमवार, 15 अक्टूबर 2007

घर से निकलकर..

इस बार जब लगभग दो साल के अन्तराल के बाद मुम्बई से बाहर निकला तो अपने जीवन की सीमाओं को मस्तक में भरे हुए और जड़ताओं को बैग्स में ढोते हुए निकला। ताकि जहाँ भी जाऊँ उसी मुम्बीय जीवन को वहाँ भी रच सकूँ। उसी तौलिया से मुँह पोँछने और उसी चप्पल को घसीटने के अलावा वैसा ही खा सकूँ और उसी समय पर सो सकूँ जैसे नियमों का पालन भी करता रह सकूँ, जैसा मुम्बई में करता रहा हूँ। और इसमें नियमित रूप से ब्लॉग लिखना और दूसरे मित्रों के ब्लॉग्स देखना भी शामिल रहा है, जीवन के नए विकास के रूप में। लेकिन दिल्ली और उसके बाद कानपुर पहुँचकर मैं अपने इस प्रिय शग़ल को जारी नहीं रख सका। जिसके लिए मैं सभी मित्रों से माफ़ी चाहता हूँ, खास तौर पर भाई बोधिसत्व और उनके परिवार से।

इस आई हुई रुकावट के पीछे पहले तो किसी अच्छे इन्टरनेट कनेक्शन का अभाव था और बाद में एक सचेत निर्णय भी था जो मैंने नए हालात के आगे समर्पण करते हुए किया। अगर कोशिश करता तो लड़-भिड़कर रोज़ एक पोस्ट डाल सकना ऐसा कोई कठिन पहाड़ न होता, मगर फिर घर से निकलने का मक़सद अलग खड़ा मुझ पर हँसता होता।

क्योंकि घर से निकलना अपने जमे-जमाये जीवन से निकलना होता है, उसके ठोस हो गए आकार की सीमाओं से बाहर निकलना होता है। घर से काम पर जाना, काम से निकल कर घर को आना, ज़रूरत पड़ने पर बाज़ार जाना और ज़रूरत की ही तरह मनोरंजन की दुकानों पर जाना- इन्ही जड़ताओं में फँसता जाता है रोज़मर्रा का ढर्रा। सभ्यता ने जहाँ एक तरफ़ मनुष्य के जीवन में अनन्त सम्भावनाओं के रंग भरे हैं वहीं दूसरी ओर ऐसी निहायत उबाऊ एकरसताओं का भी उत्पादन किया है, बड़े पैमाने पर। हम सब अपनी-अपनी एकरसताओं के शिकार हुए पड़े रहते हैं अपने-अपने कोटरों में - कल्पना में, किताबों में और अब के इन्टरनेटीय जीवन में एक आभासी दुनिया में एक समान्तर जीवन की रचना करते हुए।

मैंने चाहा था अपनी एक ओर ठोस हो चुकी मगर सीमित, और दूसरी ओर विस्तृत मगर वायवीय और आभासी दुनिया से निकलकर एक सच्ची, वास्तविक, तरल दुनिया में बहना। दिल्ली और कानपुर में पुराने और नए मित्रों के साथ समय गुज़ारते हुए और ढर्रे से कुछ अलग तरह समय को जीते हुए वह कुछ हद तक किया भी गया, जिसका विवरण एक अलग पोस्ट में दिया जायेगा। फ़िलहाल तो इतना ही कहना चाहता हूँ कि घुमक्कड़ी सम्भावनाओं के अनोखे द्वार खोल विविधताओं के अद्भुत दर्शन कराती है तो आदमी से एक लचीलापन भी माँगती है मगर आदमी नियम के नियंत्रण से नियति को बाँध रखने का इच्छुक रहता है।

इस खींचतान पर ग़ालिब का एक शेर याद आता है; आशिक़ी सब्रतलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूँ खूने जिगर होने तक।

इसी अन्तरविरोध पर एक ज़ेन मास्टर ने अलग तरह से टिपियाया कि जब भूख लगती है खा लेता हूँ और जब नींद आती है सो जाता हूँ।
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