रविवार, 31 अगस्त 2008

वाल-ई में हॉलीवुडीय कचड़ा

पृथ्वी एक कबाड़खाने में तब्दील हो चुकी है। जीवन का कहीं नामोनिशान नहीं है, सिवाय एक तिलचट्टे के जो वाल-ई नाम के एक रोबोट का पालतू है। न कोई इन्सान है, न जानवर, और न पेड़-पौधे। सोलर बैटरीज़ से चलने वाला वाल-ई हर जगह छितरे पड़े कबाड़ को छोटे-छोटे घन में बदलने की बुद्धिमान मशीन है। उस के भीतर इतनी मनुष्यता है कि आप ये महसूस करने लग सकते हैं कि सम्भव है कि मनुष्य भी एक अति-विकसित मशीन है जो अपना पुनरुत्पादन कर सकता है।

स्टार वार्स के आर टू डी टू की याद दिलाने वाला वाल-ई एक रोज़ पाता है कि एक स्पेस-शिप एक अन्य रोबोट को उसकी विध्वंस दुनिया में छोड़ गया है। वाल-ई से कहीं अधिक विकसित ये रोबोट अपनी प्रकृति में बेहद विनाशकारी है और थोड़ी सी आहट पर ही मिसाइल छोड़ देता है/देती है।

थोड़े ही घटना क्रम के बाद ये स्थापित हो जाता है कि उसका नाम ईवा है और वह सम्भवतः स्त्रीलिंग है (नाम है ईवा)। आगे की कहानी इन दोनों रोबोट के बीच एक रूमानी सम्बन्ध पर टिकी है जिस पर आगे चलकर डिज़्नी हमें साइंस फ़िक्शन और फ़ेयरी टेल रोमांस का चाशनी में लथेड़ने लगता है। (कभी-कभी सोचता हूँ कि हम रोमांस के कितने भूखे हैं? हॉलीवुड तो तब भी दूसरी कि़स्म की फ़िल्में बनाता है पर हम...?)

ईवा विनष्ट और ज़हरीली हो चुकी पृथ्वी पर जीवन की दुबारा खोज करने आई है। जैसे ही उसे एक पौधे की भेंट वाल-ई द्वारा प्राप्त होती है, उसका सिस्टम शट डाउन हो जाता है। और वह अपने मिशन की सफलता का सिगनल अन्तरिक्ष में भेजने लगती है। वाल-ई उसकी इस चुप्पी से परेशान हो जाता है और अपना सारा क्रिया कलाप भूलकर उसी का दीवाना हो जाता है। यहाँ तक कि ईवा को लेने आए स्पेस-शिप पर लटक कर स्पेस स्टेशन एक्सिऑम तक पहुँच जाता है।

एक्सिऑम पर मनुष्य हैं जो पृथ्वी के नष्ट हो जाने के बाद से हज़ारों साल से किसी ऐसे ग्रह की तलाश में हैं जिस पर रहा जा सके। इस यात्रा का उनकी बोन डेन्सिटी पर इतना अधिक दुष्प्रभाव पड़ा है कि वे खड़े तक नहीं हो सकते और अपने सभी कामों के लिए रोबोट पर निर्भर हैं। अमरीकी जीवन(और धीरे-धीरे शेष दुनिया) जिस बीमारी की चपेट में फूलता जा रहा है उस मैक्डॉनाल्ड संस्कृति की एक भयावह तस्वीर दिखती है यहाँ.. जो मशीनीकरण और बाज़ारीकरण पर एक अच्छी टीप है।

पर बहुत जल्दी फ़िल्म एक ऐसे बेहूदे कथानक की बैसाखियाँ पकड़ लेती है जिस के सहारे डिज़्नी आज तक अपनी हर फ़िल्म बेचता आया है जिस में हीरो-हीरोइन का प्यार और शेष जनता का जयजयकार करना मूल कथ्य बन जाता है। लायन किंग और फ़ाइन्डिंग नीमो तक तो भी तब ठीक था अब वे उन्ही मूर्खताओं को मशीनों पर भी आरोपित कर रहे हैं।

मुझे हैरानी होती है कि क्या वे सचमुच सोचते हैं कि वाल-ई का कथ्य कुछ कमज़ोर रह जाता अगर एक्सिऑम के सारे रोबोट्स और सारे मनुष्य वाल-ई और ईवा की हीरो वरशिप न करते?

वाल-ई का ये पर्यावरण सम्बन्धी सन्देश डिज़्नी ने जापानी एनीमेशन फ़िल्म्स के धुरन्धर हयाओ मियाज़ाकी से सीखा है मगर उस में वो अपनी हॉलीवुडीय खुड़पेंच करने से बाज़ नहीं आए और एक अच्छी खासी फ़िल्म को ज़बरदस्ती के मसालों से सस्ता बना गए। मैं मियाज़ाकी का भक्त हूँ क्योंकि वे अपने सन्देश में मूर्खताओं का मिश्रण किए बिना ही उन्हे इतना सफल बनाना जानते हैं कि डिज़्नी भी उनसे ईर्ष्या करता है।

मियाज़ाकी तो, आप थियेटर तो क्या शायद डीवीडी लाइब्रेरी में भी न पा सकें.. वाल-ई तो देख ही लें.. तमाम सीमाओं के बावज़ूद बेहतर फ़िल्म है।

आप के देखने के लिए मियाज़ाकी की तमाम फ़िल्मों के टुकड़ों को लेकर बनाया गया एक वीडियो यहाँ चिपका रहा हूँ.. आनन्द लीजिये..

रविवार, 24 अगस्त 2008

हमारे नाकामयाब पड़ोसी

सन २००५ से यूनाईटेड स्टेट्स थिंक टैंक, फ़ण्ड फ़ॉर पीस और फ़ॉरेन पॉलिसी पत्रिका एक सालाना मानक जारी करते हैं जिसे वे फ़ेल्ड स्टेट्स इन्डेक्स कहते हैं। आम तौर पर फ़ेल्ड स्टेट्स की परिभाषा में वे राज्य गिने जाते हैं जिनकी केन्द्रीय सत्ता इतनी कमज़ोर है कि वे अपने भूभाग की सुरक्षा नहीं कर सकते। दार्शनिक मैक्स वेबर के अनुसार जो राज्य बलप्रयोग के वैध इस्तेमाल पर इजारेदारी क़ायम रख सकता है वो राज्य एक सफल राज्य है अन्यथा असफल।

मूलतः इसी आधार पर इस सूची को तय करने के बारह मानक तय किए गए हैं-

सामाजिक मानक
१) आबादी के दबाव
२) शरणार्थियों या विस्थापितों की गतिविधि
३) आपस में प्रतिशोधी हिंसा में संलग्न गुट
४) लोगों का लगातार पलायन

आर्थिक मानक
५) सामूहिक आधार पर गैर-बराबरियाँ
६) विकट आर्थिक मन्दी

राजनैतिक मानक
७) राज्य का आपराधीकरण या वैधता का अभाव
८) सार्वजनिक सेवाओं का ह्रास
९) मानवाधिकारों का हनन
१०) राज्यसत्ता के भीतर अन्य सत्ताओं का जन्म
११) शासक वर्ग के बीच गहरी गुटबाज़ी
१२) बाहरी राज्य या बाहरी सत्ताओं की दखलन्दाज़ी


इन मानको के आधार पर हर साल तक वे फ़ेल्ड स्टेट्स की सूची निकालते रहे हैं। राहत की बात है कि भारत फ़ेल्ड स्टेट नहीं है। मगर अफ़सोस की बात है कि लगभग हर साल ही हमारे कई पड़ोसी देश, २० सबसे नाकामयाब राज्यों की सूची में जगह पाते रहे हैं।

इन पड़ोसियों के नाम हैं- पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान, नेपाल, बांगलादेश, बर्मा और श्रीलंका। मैं जानता हूँ कि ये मानक अन्तिम सत्य नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कि ये सूची नितान्त सत्यविहीन है। समझ में नहीं आता कि खुश हुआ जाय या दुखी ही बने रहा जाय।

भारत कामयाब राज्य है क्योंकि इस परिभाषा के तमाम अन्य मानको पर वो अपेक्षाकृत खरा उतरता है और साथ ही साथ अपने भू-भाग के भीतर बलप्रयोग पर उसकी इजारेदारी को कोई वैध चुनौती भी नहीं दे सका है। सताने वाली दुविधा यह है कि यदि भारत कश्मीरियों को उनकी जनतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुसार आज़ादी दे देता है तो ये जनतांत्रिक मानकों पर तो नैतिक क़दम होगा मगर अपने भू-भाग के भीतर बलप्रयोग की इजारेदारी का समर्पण कर के क्या वह एक नाकामयाब राज्य बनने की ओर तो नहीं खिसक जाएगा?

शनिवार, 16 अगस्त 2008

कश्मीर: पत्थर पर दूब

कश्मीर में हिंसा का दौर एक बार फिर से शुरु हो गया है। ऐसा लगता है कि हालात काफ़ी अच्छे हो चले थे मगर प्रशासन की कुछ बेवक़ूफ़ियों के चलते बद से बदतर हो गए हैं। बेशक़ प्रशासन से ग़लतियाँ हुई हैं मगर पत्थर पर से दूब नहीं उगा करती। एक गहरा असंतोष कश्मीरियों के अन्दर भीतर ही भीतर ही सुलग रहा था जो अवसर पाते ही ज़ाहिर हो गया।

श्राइन बोर्ड से समस्या क्यों?
अमरनाथ श्राइन को दी गई ९९ एकड़ ज़मीन के बारे में कई बाते कही जा रही हैं। पहले तो ये कि ये पूर्व राज्यपाल सिन्हा की घाटी के अन्दर की जा रही ‘एक साज़िश का हिस्सा’ है। दूसरे यह कि किसी बाहिरी व्यक्ति को ज़मीन देना राज्य के क़ानून के खिलाफ़ है। तीसरे यह कि श्राइन बोर्ड में ग़ैर कश्मीरी लोग भरे हुए थे। चौथे यह कि इसके ज़रिये घाटी में हिन्दुओं को बसाने की कोशिश की जा रही है।

बयानों में ये सारी बातें अधिक शालीन भाषा में कही जा रही थीं और तक़रीरों में यही बातें एक भड़काऊ भाषा में। ज़ाहिर है कि दो महीने के लिए अस्थायी शौचालय में किस तरह हिन्दू बसाये जायेंगे इस पर ध्यान देने की किसी ज़रूरत नहीं समझी। क्योंकि मुद्दा श्राइन बोर्ड नहीं था, मुद्दा भीतर बैठा एक अलगाव का भाव था/ है जो किसी रूप में ज़ाहिर होने के लिए मचल रहा था।

उल्लेखनीय है कि मुद्दे और आन्तरिक भाव के बीच यही दूरी जम्मू के आन्दोलन में भी बनी रही। श्राइन बोर्ड के रहने न रहने से बाबा अमरनाथ की गुफ़ा, यात्रा, यात्रियों पर कोई अन्तर नहीं पड़ रहा। और ये बात सच है कि कश्मीरियों ने अपने सारे विरोध के बावजूद यात्रियों और यात्रा को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया। लेकिन जम्मू वाले भी एक गहरे दुराव की भावना का जवाब दुराव की ज़बान से दे रहे थे। जिस के चलते हालात यहाँ तक पहुँचे कि कश्मीर घाटी को जाने वाले राजमार्ग पर ट्रकों की नाकाबंदी हो गई और घाटी की आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो गई।

क्या कश्मीर घाटी का इकोनॉमिक ब्लॉकेड हुआ?
इस से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैंतालिस पचास दिन लम्बे चले आन्दोलन में घाटी में रोज़मर्रा की चीज़ों की आपूर्ति पर, ज़रूरी दवाईयों आदि पर निश्चित फ़र्क पड़ा होगा। मगर दूसरी तरफ़ आवश्यक वस्तुएं न होने के कारण घाटी में कोई अकाल फैल गया हो ऐसा कम से कम दिखता तो नहीं। क्या आप ने कोई खबर देखी सुनी कि सब्ज़ी आदि के लिए दंगे हुए, या अनाज के लिए लूट हुई, या दवाई उपलब्ध न होने से किसी की जान पर बन आई?

और ऐसा भी नहीं कि घाटी में प्रेस की आज़ादी पर कोई रोक हो? सभी चैनल्स के रिपोर्टर्स स्थानीय कश्मीरी हैं जो इकोनॉमिक ब्लॉकेड की बात बराबर दोहराते हैं; यदि ऐसा होता तो क्या वे उसकी खबर नहीं करते? फिर लोग सब्ज़ी, दवाई आदि की माँग करने के बजाय मुज़फ़्फ़राबाद जाने में अधिक रुचि दिखा रहे हैं। खाने-पीने की इतनी व्यवस्था है कि उत्तेजना में नारे लगा रहे हैं, और सी आर पी एफ़ की चौकियों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं।

वे कह रहे हैं कि कमी हुई तो मान लिया जाय कि अकाल भले न हो पर कमी है। मगर उस कमी ने उन्हे जम्मू के लोगों की माँगों/ भावनाओं को समझने के बजाय मुज़फ़्फ़राबाद से होकर पाकिस्तान जाने वाले दूसरे रास्ते को खोलने की ओर उन्मुख किया। तो क्या वे जम्मू से अधिक जुड़ाव मुज़फ़्फ़राबाद से महसूस करते हैं?

असल मामला क्या है?
दो तीन दिन से हुर्रियत के नेता कहने लगे हैं कि मुद्दा इकोनॉमिक ब्लॉकेड नहीं है, मुद्दा श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन नहीं है, मुद्दा कश्मीर की हुर्रियत का है.. कश्मीरी भारत के साथ नहीं रहना चाहते। वे आज़ादी चाहते हैं.. स्वतंत्र होने की या पाकिस्तान में मिल जाने की। तो बात साफ़ है कि ये मुद्दे सिर्फ़ अवाम की भावनाओं को भड़काने के लिए थे। मुख्य बात भारत के विरुद्ध एक ग़दर करना है और इस ग़दर में लगभग तीस लोग शहीद हो गए।

वे भारतीय राज्य से क्या उम्मीद कर रहे थे कि वह हज़ारों कश्मीरियों को यूँ ही मुज़फ़्फ़राबाद में चले जाने देगा? अति-संवेदन शील नियंत्रण रेखा जहाँ से लगातार आतंकवादियों को घुसाने की कोशिश होती रही और पिछले दो महीने से बार-बार युद्ध-विराम का उल्लंघन किया जा रहा है। उस नियंत्रण रेखा के पार आम जनता को आने-जाने का हक़ उन्हे कोई सामान्य सुरक्षाकर्मी दे देगा? क्या उन्हे गोली चलने का अन्देशा नहीं था? या वे जानते थे कि इसका क्या खतरनाक अंजाम हो सकता है मगर जनता के भीतर एक ग़ुस्सा भड़काने के लिए उन्होने जानबूझ कर ये क़दम उठाया?

शर्तिया वे जानते थे कि उनके इस क़दम से राज्य की तरफ़ से कुछ हिंसा होगी और जिसका इस्तेमाल वो अपने हित में करना चाहते थे। कश्मीरी नेतागण एक स्वर से अपने इस पूरे आन्दोलन को एक बेचारी, सताई हुई मगर फिर भी सेक्यूलर छवि देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

मेरे एक कश्मीरी मित्र का आकलन है कि कश्मीरियों को पैथेटिक प्ले (दयनीय बनने का नाटक करना) करने की बीमारी होती है, और इस वक़्त भी वे यही कर रहे हैं बल्कि पिछले साठ साल से करते आ रहे हैं। वो पैथेटिक प्ले कर रहे हों या नहीं हालात सचमुच पैथेटिक हैं।

कश्मीरी अलगाववाद क्या एक साम्प्रदायिक आन्दोलन है?
कश्मीरियों नेताओं, अवाम और बुद्धिजीवियों का मानना है कि उनका आन्दोलन सेक्यूलर है और पूरी तरह से कश्मीरियत की भावना से ओत-प्रोत है। कश्मीरियत क्या है वो मैं नहीं जानता, और उस पर टिप्पणी भी नहीं करना चाहता। और मैं ये मानता हूँ कि जिस तरह से जम्मू का हर आन्दोलनकारी भाजपाई और संघी नहीं है वैसे ही हर कश्मीरी मुसलमान पाकिस्तान का झण्डा लहराने और हिन्दुस्तान का जलाने में यक़ीन नहीं रखता।

मैं ये भी समझता हूँ कि घाटी से पंडितों को खदेड़ने में चन्द उग्रवादियों की ही भूमिका थी लेकिन किसी भी साम्प्रदायिक दंगे में हिंसा करने वाले चन्द गुण्डे ही होते हैं चाहे वो अहमदाबाद में हो या श्रीनगर में। लेकिन मूक दर्शकों की असहमति किसी तरह से तो दर्ज होनी चाहिये..? जैसे गुजरात के हिन्दू २००२ के दंगो के लिए किसी बड़े पश्चाताप विहीन हैं वैसे ही पण्डितों को भगाने के खिलाफ़ किसी प्रकार की असहमति दर्ज कराने कश्मीरी सड़क पर नहीं उतरे हैं। इसलिए घाटी से अल्पसंख्यकों का सफ़ाया हो जाने पर सेक्यूलरिज़्म का दम्भ करना शायद उनके लिए आसान होगा पर मेरे लिए उसे स्वीकार कर पाना कठिन है।

कश्मीरियों के साम्प्रदायिक न होने के तर्क में एक ही बिन्दु है कि हाल के तमाम प्रदर्शनों के बीच भी अमरनाथ यात्रियों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा। क्या सिर्फ़ अपने से इतर धर्मावलम्बी पर हमला करना ही साम्प्रदायिकता है? मेरे मत से वो दंगाई मानसिकता है मगर साम्प्रदायिकता इस से गहरी चीज़ है, वह तमाम रूप में अभिव्यक्त होती है।

नेट पर उपलब्ध डिक्शनरी डॉट कॉम पर कम्युनलिज़्म का अर्थ यह मिलता है.. strong allegiance to one's own ethnic group rather than to society as a whole यानी समूचे समाज से अधिक अपने जातीय समुदाय के प्रति प्रबल निष्ठा।

अगर यहाँ समूचा समाज पूरा हिन्दुस्तान न भी समझा जाय तो कम से कम जम्मू व कश्मीर राज्य ही माना जाय। एक समस्या है जिसके दो पहलू हैं- कश्मीर और जम्मू। इस में दोनों ही पक्ष के लोग दूसरे को साम्प्रदायिक और खुद को सेक्यूलर बता रहे हैं। जम्मू वालों में प्रबल साम्प्रदायिक तत्व हैं ये सभी मानने को तैयार हैं मगर कश्मीर वाले आन्दोलनकारी सब सेक्यूलर हैं ये मानने में मुझे तक़लीफ़ हो रही है।

न तो वे धर्म-निरपेक्षता के अर्थ में सेक्यूलर हैं और न ही सर्व धर्म सम भाव के अर्थ में। और ग़ैर-साम्प्रदायिक के अर्थ में यदि वे सेक्यूलर हैं तो उनकी निष्ठा के दायरे में जम्मू के हिन्दू भी तो आने चाहिये? मगर घाटी के सभी नेता, जी सभी नेता सिर्फ़ कश्मीर घाटी की संवेदनशीलता को समझते हैं और उसके दर्द, उसके आक्रोश और उसके नाइंसाफ़ियों के लिए दिल रखते हैं, जम्मू के दर्द और आक्रोश के लिए उनके दिल में जगह क्यों नहीं जबकि पाकिस्तान और फ़िलीस्तीन के लिए है? क्या महज़ अपने जातीय समुदाय के प्रति निष्ठा यानी साम्प्रदायिकता नहीं है?

लेकिन आप कश्मीरियों को सीना ठोंक-ठोंक कर खुद को सेक्यूलर और जम्मू वालों को हिन्दू हूलिगन्स कहने से नहीं रोक सकते। ये उनका अधिकार है कि किसी शब्द का वो कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं। शब्दों में उनके सही अर्थ बने रहने की उम्मीद करना आज की तारीख में बचकाना चिंतन है।

कश्मीर क्या एक और फ़िलीस्तीन है?
कश्मीरी लोग अकसर अपनी तुलना फ़िलीस्तीन से करते हैं। ये ठीक बात है कि कश्मीर घाटी में सेना की बड़ी मौजूदगी है और उनके द्वारा अक्सर मानव अधिकारों का हनन भी होता है। पर ये कोई अनोखी स्थिति नहीं है। दुनिया के किसी भी भाग में आप सेना से मानवीय व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते, उसका चरित्र ही अमानवीय है। वो चाहे बुश का इराक़ या सद्दाम का, मुशर्रफ़ का पाकिस्तान हो या भारत के उत्तर पूर्वीय राज्य; सेना का चरित्र दमनकारी ही रहता है।

कश्मीर के लोगों का दूसरी बड़ी शिकायत उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर है। सत्तासी-अट्ठासी के चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई और जीते हुए उम्मीदवारों को हरा दिया गया। इन में से एक सैय्यद सलाहुद्दीन भी थे जो पाकिस्तान स्थित कश्मीरी आतंकवादी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन के मुखिया हैं। चुनावी धांधलियाँ भी भारत और दुनिया भर में आम हैं। इन असंतुष्ट कश्मीरियों का चहेता पाकिस्तान तो उल्लेख योग्य भी नहीं जबकि अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश खुद एक धांधली के बाद ही अमरीकी राष्ट्र के मुखिया की गद्दी पर क़ाबिज़ हुए।

कश्मीरियों पर अत्याचार के ये दो मुख्य आधार जायज़ ज़रूर हैं पर उन्हे किस नज़र से फ़िलीस्तीन के समकक्ष रखते हैं मेरी समझ के बाहर है। कैसे कोई कश्मीर और फ़िलीस्तीन को एक ही वाक्य में कह सकता है?

कश्मीर के मुसलमानों को बेघर किया गया .. नहीं।
उनके घरों को ढहाया गया.. नहीं।
उनकी ज़मीन छीनी गई.. नहीं।
बाहर से लाकर विधर्मियों को बसाया गया.. नहीं।
ये किस तरह का फ़िलीस्तीन है?

उलटे खुद कश्मीरियों ने घाटी के अल्पसंख्यकों को खदेड़ कर बाहर कर दिया और फिर भी वे खुद की तुलना फ़िलीस्तीनियों से करने का मंशा रखते हैं। आखिर फ़िलीस्तीनियों और कश्मीरियों में क्या समानता है, सिवाय इसके कि दोनों मुसलमान हैं? और यदि यही उनके साथ (और पाकिस्तान के साथ) एकता और जुड़ाव महसूस करने का एकमात्र बिन्दु है तो ये साम्प्रदायिकता नहीं तो और क्या है?

क्या उन्हे अलग होने का हक़ है?
हिन्दुस्तान ने कश्मीर पर हमला कर के क़ब्ज़ा नहीं किया। कश्मीर के राजा हरि सिंह ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से स्वतंत्र एक लग राज्य के रूप में कश्मीर के अस्तित्व को रखने का फ़ैसला किया था। मगर जब पाकिस्तानी कबाईलियों ने हमला किया तो हरि सिंह घबरा गए। क्योंकि पाकिस्तान के साथ जाने से कश्मीर के मुसलमानों का तो कोई नुक़्सान न होता मगर घाटी के पण्डितों, जम्मू के डोगरों और लद्दाख के बौद्धों का जीवन संकट में पड़ जाता।

इसलिए उन्होने पाकिस्तान के साथ न मिल कर धर्म निरपेक्ष हिन्दुस्तान के साथ मिलने का फ़ैसला किया, लेकिन अपनी स्वायत्तता की शर्त के साथ जो धारा ३७० के रूप में भारतीय संविधान में ससम्मान शामिल की गई। कश्मीर को भारतीय संघ में शामिल करने के बाद ही भारतीय सेना उनकी मदद के लिए गईं। और तब की नियंत्रण रेखा आज तक क़ायम है।

पाकिस्तान बार-बार जिस संयुक्त राज्य के प्रस्ताव की बात करता है उस के अनुसार पहले पाकिस्तानी सेना को उसके द्वारा अधिकृत कश्मीर को खाली करना होगा उसके बाद ही किसी जनमतसंग्रह किया जा सकता है। (और कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने वाले नेहरू थे, जिन्ना नहीं।) पाकिस्तान जनमत संग्रह की बात तो करता है मगर खुद के क़ब्ज़ियाए हुए कश्मीर को खाली करने की नहीं। पाकिस्तान सिर्फ़ भारत अधिकृत कश्मीर में यह जनमत संग्रह कराना चाहता है कि वे भारत में रहेंगे, पाकिस्तान में, या एक स्वतंत्र राज्य में?

मेरी निजी राय है कि कश्मीरी आन्दोलन साम्प्रदायिक है। मगर उस के साम्प्रदायिक आन्दोलन होने से वे कोई कम मनुष्य नहीं हो जाते और मानवीय अधिकार उतने ही बने रहते जितने कि किसी और के। यदि वे अलग होना चाहते हैं तो उन्हे अलग होने देना चाहिये। किसी जाति, किसी समूह को आप बन्धक बना कर अपने साथ नहीं रख सकते और न रखना चाहिये। इस में न उन का लाभ है न हमारा उलटे दोनों का नुक़्सान है।

कश्मीरियों को पाकिस्तान से मिलना है, मिल जायँ। मेरे अनुसार तो उन्हे यह हक़ बहुत पहले दे देना चाहिये था। अगर आज कश्मीरी पाकिस्तान के साथ होते तो हो सकता था कि वे हिन्दुस्तान के क़रीब होते और पाकिस्तान के खिलाफ़ अत्याचार का आरोप लगा रहे होते। पर भारत सरकार ने न तो उन्हे अपने यूनियन में मिलाया और न ही अलग होने दिया। भारत सरकार के लिए साँप-छ्छूँदर की स्थिति बनाए रखी और कश्मीरियों के भीतर एक ऊहापोह की।

सवाल बस एक रह जाता है कश्मीरियों को यदि अलग होने/ पाकिस्तान से मिलने का हक़ दिया जाता है तो कश्मीरी पण्डितों के उस ज़मीन पर हक़ का क्या होगा? वो तो फ़िलीस्तीनियों की तरह बहुसंख्यक भी नहीं है और न ही उनको निकालने वाले मुसलमान कहीं बाहर से आए हैं। उन्हे अलग से कोई पानुन कश्मीर तो देने से रहा। और जब भारत के अधिकार में होते हुए वापस कश्मीर लौटने का साहस जब उन पण्डितों में नहीं तो एक बार कश्मीर के पाकिस्तान में मिल जाने के बाद ऐसी कोई सम्भावना बनेगी इस में तगड़ा शक़ है।

रविवार, 10 अगस्त 2008

कोई उम्मीद बर नहीं आती

फ़िलीस्तीन एक तरह से दुनिया का केंद्र है; तीन महाद्वीप की नाड़ियाँ वहाँ से गुज़रती हैं। धर्म, संस्कृति और सभ्यता के प्राचीनतम सूत्र इस जगह से जुड़े हैं और मगर आज वही स्थान विश्व के सबसे घिनौने साम्प्रदायिक संघर्ष की ज़मीन में तब्दील हो गया है।


इस में जो दो पक्ष दिखाए दे रहे हैं उनके अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जो गंगा-यमुना के संगम में सरस्वती की तरह विलुप्त है। मेरा आशय उस योरोपीय कट्टर ईसाई मानस से है जिसकी प्रताड़ना से दग्ध हो कर यहूदी, मुसलमान अरबों के साथ आज इस संघर्ष में लथपथ हुए पड़े हैं। संगम की महिमा पापमोचन में हैं पर ये संगम पाप और प्रतिशोध का दलदल बन चुका है।


अभी तक आप ने इस श्रंखला की तीन कड़िया पढ़ी.. आज अन्तिम कड़ी..


अराफ़ात एक महानायक

1948 में इज़राईल की स्थापना के बाद बिखर आठ लाख शरणार्थियों में जो तमाम तरह की छोटी-छोटी राजनैतिक प्रतिक्रियाएं और अभिव्यक्तियाँ हुई उनमें से एक फ़तह नाम का संगठन भी था जो कुवैत में पढ़ने वाले फ़िलीस्तीनी विद्यार्थियों के बीच १९५९-६० में अस्तित्व में आया। फ़तह का उद्देश्य इज़राईल का विनाश और फ़िलीस्तीन की आज़ादी था। इसकी अगुआई कर रहे थे यासिर अराफ़त, जो वहाँ इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल कर रहे थे। अराफ़ात पहले ऐसा नेता थे जिन्होने फ़तह को अन्य फ़िलीस्तीनी गुटों/संगठनो की तरह किसी भी अरब देश का पिछलग्गू बनने से इंकार कर दिया और फ़िलीस्तीन की मुक्ति को खास फ़िलीस्तीनी संदर्भ में देखा, आम अरब संदर्भ में नहीं। उनसे ही फ़िलीस्तीनी राष्ट्रवाद की शुरुआत होती है और फ़िलीस्तीनी राष्ट्र निर्माण की भी। यहाँ तक कि आरम्भ में उन्होने इन देशों से आर्थिक सहयोग तक लेने से इंकार कर दिया ताकि उन पर किसी तरह का दबाव न रहे। कुवैत के बाद अराफ़ात ने पहले सीरिया और फिर जोर्डन को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया।


१९६४ में फ़िलीस्तीन मुक्ति संगठन (पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन) पी एल ओ की स्थापना हुई और १९६७ में इज़राईल के साथ अरब देशों की छै दिन की जंग। इस जंग के नतीज से लाखों फ़िलीस्तीनी एक बार फिर से शरणार्थी हुए और जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर इज़राईल का क़ब्ज़ा हो जाने से पूर्वी किनारे पर जोर्डन देश में बड़ी संख्या में तम्बुओ में आबाद हुए। इन्ही शरणार्थी कैम्पो में से एक करामह की लड़ाई लड़ी गई जिसने यासिर अराफ़ात को एक महानायक का दरजा दे दिया।


करामह की लड़ाई

फ़तह के लड़ाके इज़राईली सीमा पार कर के उनके ठिकानों पर हमला करने की नीति अपना कर एक छोटे स्तर का गुरिल्ला युद्ध छेड़े हुए थे, जिसमें कभी कदार एक-दो सैनिकों की क्षति हो जाती, मगर इज़राईल अपने रौद्र रूप और कठोर छवि को ज़रा भी कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहता था। १९६८ में करामह कैम्प से किए गए एक फ़िदायीन हमले के जवाब में इज़राईल की सेना पूरे दल-बल के साथ जोर्डन की सीमा में गुस आई और कैम्प पर हमला कर दिया। अराफ़ात ने एक नीति के तहत फ़िलीस्तीनियों को पीछे नहीं हटने दिया। आखिरकार मामले के बहुत अधिक विराट रूप ले लेने से डरकर इज़राईल की सेना स्वयं पीछे हट गई।


हालांकि इस लड़ाई में १५० फ़िलीस्तीनी व २५ जोर्डनी सैनिक मारे गए और दूसरी तरफ़ कुल २८ इज़राईली। मगर इज़राईल की सेना का पीछे हटना अरब जन में एक अद्भुत जीत की तरह देखा गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी अरब ने इज़राईल की सेना का डट कर मुक़ाबला किया था और उसे मुँहतोड़ जवाब दिया था। करामह की लड़ाई के बाद अराफ़ात का क़द अरबों के बीच बहुत ऊँचा हो गया इसी जीत के प्रभाव का नतीजा था कि अराफ़ात को पीएल का अध्यक्ष चुन लिया गया।


जोर्डन में संघर्ष

अराफ़ात की इस अप्रत्याशित लोकप्रियता से जोर्डन देश के भीतर सत्ता के दो केन्द्र हो गए। किंग हुसेन मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार से थे और वैधानिक रूप से देश के राजा थे मगर अरबों के बीच लोकप्रिय समर्थन अराफ़ात और पी एल के लिए बढ़ता ही जा रहा था। जैसा कि आप को मैंने पहले बताया था कि जोर्डन भी पूरी तरह से एक कृत्रिम देश जो पहले विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया क्योंकि अंग्रेज़ हाशमी परिवार की वफ़ादारी का ईनाम देना चाहते थे। वादा तो एक पूरे अरब राष्ट्र का था पर भागते भूत की लंगोटी भली जानकर, किंग हुसेन के दादा अब्दुल्ला ने वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।


तो किंग हुसेन अरबों के बीच फ़िलीस्तीन को लेकर जो लोकप्रिय जज़्बात थे उनको समझते थे इसीलिए किंग हुसेन ने बहुत कोशिश की मामला सुलझ जाए; यहाँ तक कि उन्होने अराफ़ात के सामने जोर्डन के प्रधान मंत्री पद को सम्हालने का भी प्रस्ताव रखा मगर अराफ़ात फ़िलीस्तीनी मक़्सद के लिए प्रतिबद्ध थे; वे तैयार नहीं हुए।

१९७१ में आखिरकार दोनों पक्षों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अन्य अरब देशों ने किसी तरह बीच-बचाव करके युद्ध विराम कराया गया पर तब तक ३५०० फ़िलीस्तीनी मारे जा चुके थे। फिर भी छिट-पुट घटनाएं होती रहीं। और हालात तब बिगड़ गए जब एक रोज़ अराफ़ात ने हुसेन के सत्ता पलट का इरादा कर लिया और किंग हुसेन पर हमला हो गया। अब समझौता नामुमकिन था और अराफ़ात और उनके लड़ाकों को जोर्डन छोड़ना पड़ा। पचीस साल पहले विस्थापित लोग फिर एक बार अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर लेबनान की शरण में चले गए।


लेबनान

लेबनान आकर अराफ़ात को अपने गतिविधियों के लिए वो आज़ादी मिल गई जो जोर्डन में उपलब्ध नहीं हो पा रही थी क्योंकि लेबनान की सरकार की सत्ता कमज़ोर थी और वहाँ पर पी एल एक स्वतंत्र राज्य की हैसियत से काम करने लगा। इज़राईल के भीतर और बाहर यहूदी सत्ता और यहूदी जनता पर हमले कर के उस पर दबाव बनाना उसकी नीति के अन्तर्गत था। पी एल में अराफ़त के फ़तह के अलावा भी कई दल शामिल थे। उनके नरम से लेकर चरम तक के सब रंग थे और सब पर अराफ़ात का नियंत्रण था भी नहीं।


१९७० से १९८० के बीच लेबनान को केन्द्र बनाकर पीएल के वृहद छाते के नीचे से तमाम तरह की हिंसक गतिविधियाँ की गई जैसे प्लेन हाईजैक, फ़िदायीन हमले, बंधक बनाना आदि हथगोले, फ़्रिज बम, कार बम आदि का इस्तेमाल करके इज़राईलियों के खिलाफ़ आतंकवादी घटनाएं होती रही। कुछ ऐसी भी थीं जिसमें मासूम बच्चों को निशाना बनाया गया। इन सब में सब से कुख्यात और दुखद घटना रही म्यूनिक ओलम्पिक में की गई इज़राईली खिलाड़ियों की हत्या। जिसका बदला लेने के लिए इज़राईल ने भी एक ग़ैर क़ानूनी पेशेवर हत्यारे का तरीक़ा अपनाया (देखिये स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म म्यूनिक)। इज़राईली कमान्डोज़ ने म्यूनिक हत्याकाण्ड के लिए जितने भी लोग ज़िम्मेदार थे, उन सब को चुन-चुन कर मारा।


इज़राईल का जवाब

१९७८ में एक १८ बरस की फ़िलीस्तीनी लड़की के अगुआई में ११ अन्य फ़तह के सद्स्यों द्वारा अंजाम दिए गए एक कोस्टल रोड मैसेकर में ३७ इज़राइली मारे गए। इस आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए इज़राईल ने फ़िलीस्तीनी गुरिल्लो को लेबनान की अन्दर बहने वाली लिटानी नदी के उत्तर तक धकेलने के इरादे से हमला कर दिया। एक हफ़्ते तक चली इस कार्रवाई में २००० ग़ैर फ़ौजी लेबनीज़ मारे गए और २,८५,००० अपने घरों से उजड़ गए। फ़िलीस्तीनी लड़ाकों का कुछ ज़्यादा नुक़्सान नहीं हुआ।

बड़ी संख्या में फ़िलीस्तीनियों के आ जाने से लेबनान की आन्तरिक राजनीति में उथल-पुथल मच गई थी। लेबनान के ईसाई समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच फ़िलीस्तीनियों को लेकर एक गहरा मतभेद घर कर गया था। जिसके चलते पी एल ओ, लेबनीज़ ईसाई संगठन और इज़राईल के बीच हिंसक झड़पे आम हो चली थीं। सीरिया का भी इस खेल में दखल बराबर बना रहा।


१९८२ में अपने एक राजदूत के हत्या के प्रयास के बदले में इज़राईल ने लेबनान पर हमला कर दिया और उसे नाम दिया ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली। लेबनान में भी तमाम समुदायों के बीच संघर्ष ने एक गृह-युद्ध का रूप ले लिया और इज़राईल ने भी मौके का फ़ायदा उठाकर हमला कर दिया। ये हमला मुख्य रूप से पी एल ओ और फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ने के मक़सद से किया गया था जिसमें वो कामयाब भी हो गए। इस लड़ाई के अन्तिम चरण में जब फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ दिया गया था तब इज़राईल के सरंक्षण में लेबनीज़ ईसाई संगठन फ़लन्जिस्ट ने निहत्थे फ़िलीस्तीनियों के शरणार्थी कैम्प पर एक हमला किया जिसमें मरने वालों की संख्या एक हज़ार से चार हज़ार तक अनुमानित की जाती है। इस ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली में निहत्थे फ़िलीस्तीनियों का जनसंहार प्रच्छन्न था।


फ़िलीस्तीनियों और पी एल ओ के पाँव लेबनान से भी उखड़ गए और अधिकतर फ़िलीस्तीनियों ने इस बार सीरिया में शरण ली और अराफ़ात को अपना पी एल ओ का दफ़्तर दूर ट्यूनिशाई शहर ट्यूनिस ले जाना पड़ा। अराफ़ात का फिर कभी लेबनान लौटना नहीं हुआ।


ओस्लो क़रार

फ़िलीस्तीन से इतना दूर जाकर अराफ़ात की हिम्मत जैसे टूटने लगी और जवानी के वो उत्साही दिन भी नहीं रहे। इज़राईल को नक़्शे से मिटाना हर आने वाले दिन और भी अधिक असम्भव दिखता जा रहा था। और दूसरी इज़राईल भी अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी के बदले कुछ रियायत देने को तैयार होने का मन बनाने लगा था। अराफ़ात का इस नए बदलाव से कोई सम्पर्क नहीं था। उनकी अपनी हालत युधिष्ठिर जैसी होती जा रही थी जो पूरे राज्य की जगह अपने लोगों के लिए पाँच गाँवों पर भी समझौता करने को तैयार हो सकते थे। शायद ऐसी ही किसी हताशा या विकसित चिन्तन के तहत उन्होने समझौते का रास्ता अख्तियार किया।


नवम्बर १९८८ में उन्होने एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन राज्य की स्थापना की उद्घोषणा की और दूसरी तरफ़ अगले ही महीन संयुक्त राज्य में लगातार बढ़ते अन्तराष्ट्रीय दबाव में आकर आतंकवाद की भर्त्सना की। इस भर्त्सना के चलते दबाव अब अराफ़ात से हटकर इज़राईल पर आ गया जिसने पी एल ओ से कभी बात न करने का रुख हमेशा से ही बना कर रखा हुआ था। इसलिए एक स्थायी हल और शांति बहाल करने के लिए पी एल ओ के साथ बैक चैनल संवाद शुरु हुआ, ओस्लो में।


तीन साल तक चले इसी संवाद की बुनियाद पर १९९३ में इज़राईल और फ़िलीस्तीन के बीच ऐतिहासिक समझौता, वाशिंगटन में हो गया। फ़िलीस्तीन ने अपनी तरफ़ इज़राईल के विनाश का मक़सद अपने चार्टर से हटा दिया और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। बदले में इज़राईल गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के कुछ भाग का प्रशासन व प्रबन्धन फ़िलस्तीनियों को सौंपने को तैयार हो गया। यह प्रक्रिया पाँच बरस में पूरी होनी थी लेकिन इज़राईल ने सारे अधिकारों को निर्दयता से भींचे रखा और बराबर नियंत्रण अपनी मुट्ठी में क़ैद किए रहा। १९९४ में यासिर अराफ़ात और इज़राईली प्रधान मंत्री यित्ज़ाक राबिन और विदेश मंत्री शिमोन पेरेज़ को नोबेल शांति पुरुस्कार से नवाज़ा गया पर शांति कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रही आज तक। और आज भी इज़राईल की दमनकारी नीति और नियंत्रण जारी है।

इस समझौते के दो बरस बाद ही यित्ज़ाक राबिन की यहूदी दक्षिणपंथियों ने हत्या कर दी। इसके पहले सुलह का रास्ता अपनाने मिस्र के राष्ट्र्पति अनवर सादात की हत्या मुस्लिम दक्षिणपंथियों द्वारा कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि उन्हे भी नोबेल शांति पुरुस्कार मिला था।


सेटलर्स

१९४८ के नकबे के दौरान फ़िलीस्तीनी अरबों दसे खाली कराए गए गाँवों, क़स्बों और शहरों में योरोप और दुनिया के अन्य देशों से आए यहूदियों को बसा दिया गया। इन्हे सेटलर(settler) कहा गया। १९६७ की छै दिन की जंग के बाद जब इज़राईल के के हाथ काफ़ी बड़ा भू-भाग आ गया तो उस ने गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और सिनाई क्षेत्र पर और भी सेटलर्स को बसाना शुरु कर दिया। ये सारे क्षेत्र सयुंक्त राष्ट्र के बँटवारे के मुताबिक भी उसके लिए अवैध थे, मगर उस की धृष्टता देखिये कि १९७८ में मिस्र के हुए समझौते के बाद सिनाई तो उसे लौटा दिया मगर गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक को इज़राईल का अभिन्न अंग घोषित कर दिया।


गाज़ा और वेस्ट बैंक में बचे रह गए फ़िलीस्तीनी अरबों का सीधा संघर्ष इन सेटलर्स के साथ होता। इज़राईल नए आए यहूदियों को अपने सीमांत पर बसा कर दो मक़सद पूरे करता रहा। एक वो नए ज़मीन पर यहूदियों को बसा कर उन्हे फ़िलीस्तीनियों को वापसी की उम्मीद और क्षीण करता है और दूसरे फ़िलीस्तीनियों को दबाने का काम इन नए आए हथियारबन्द यहूदियों को सौंप कर अपना काम आसान करता है। नए लोग फ़िलीस्तीनियों को दमन एक पाशविक वृत्ति के तहत करते हैं क्योंकि उन के अस्तित्व के लिए यही उनसे अपेक्षित होता है। उस ज़मीन पर या तो सेटलर रह सकते हैं या फ़िलीस्तीनी।


आज भी फ़िलीस्तीनियों और इज़राईलियों के बीच लड़ाई का बड़ा मसला ये सेटलर्स हैं। सेटलर्स और फ़िलीस्तीनी नागरिकों के बीच होने वाले इस संघर्ष में सेटलर्स खुद पुलिस और प्रशासन की भूमिका में रहते हैं।


फ़िलीस्तीनियों अपने रोज़गार-व्यापार के लिए भी पूरी तरह से इज़राईल पर ही निर्भर हैं। रोज़गार के अवसर कम और सीमित हैं, और व्यापार पर अनेको बन्दिशें। वास्तव में इज़राईली शासन में फ़िलीस्तीनी एक प्रकार के विशाल कारागार में ही बन्द कर के रखे गए हैं। जगह-जगह चेक पोस्ट खड़ी कर के लोगों के भीतर लगातार एक अंकुश बनाए रखना, आधी रात को घर में घुसकर तलाशी लेना, अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ करके बिना मुक़दमे लम्बे समय तक क़ैद में रखना, फ़र्जी एनकाउन्टर करना, छोटी सी बुनियाद पर लोगों के घरों का गिरा देना आदि इज़राईली प्रशासन का फ़िलीस्तीनियों के प्रति किया जाने वाला आम रवैया है। आज कल सेटलर्स ने फ़िलीस्तीनियों को परेशान करने की एक नई नीति निकाली है- फ़िलीस्तीनियों के घरों में बड़े-बड़े चूहो के झुण्ड छोड़ देना।


इन्तिफ़ादा

१९८८ में जब अराफ़ात आतंकवाद से तौबा करने की सोच रहे थे। उधर फ़िलीस्तीन में लम्बी निराशा और असहायता के लम्बे दौर की अभिव्यक्ति एक अजब बेचैनी में हो रही थी। नई पीढ़ी एक अजब दुस्साहस लेकर पैदा हो रही थी। गाज़ा में १९८७ में इज़राईली सेना के एक ट्रक से कुचलकर चार फ़िलीस्तीनियों की मौत हो गई। इस की प्रतिक्रिया में फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने पत्थर हाथ में उठा लिए और उसे अपने आक्रोश का हथियार बना कर इज़राईली सेना की तरफ़ फेंकने लगे।


छोटे-छोटे बच्चे जो न गोली से डरते और न टैंक से, कुछ तो पाँच बरस की उमर के। अपमान और दमन की ज़िन्दगी की मजबूरी को परे कर लड़ कर जीने की जज़बा पैदा कर लिया उन्होने। फ़िलीस्तीनी नौजवान के प्रतिरोध को इन्तिफ़ादा के नाम से जाना गया। इन्तिफ़ादा यानी डाँवाडोल के दौरान सिर्फ़ पत्थर ही नहीं चले। फ़िलीस्तीनी लड़के खुदकुश बमबाज़ भी बने, हथियारबन्द दस्तों से कार्रवाईयाँ भी की गईं, और इज़राईली इलाक़ों की तरफ़ रॉकेट भी दाग़े गए।


ये डाँवाडोल छै साल तक चलता रहा। हमास की निन्दा तो हुई मगर उस से अधिक दुनिया भर में इज़राईल के लिए निहायत शर्म का मसला बना। पहले इन्तिफ़ादा के दौरान ४२२ इज़राईली मारे गए और ११०० फ़िलीस्तीनी इज़राईलियों के हाथों मारे गए, जिसमें १५० के लगभग की उमर १६ बरस से भी कम थी। साथ-साथ लगभग १००० फ़िलीस्तीनी अपने ही लोगों के हाथों मारे गए। इनके बारे में शक़ था कि ये गद्दार हैं और इज़रालियों ले किए जासूसी करते हैं।


२००० में वेस्ट बैंक में अल अक़्सा मस्जिद को लेकर दूसरा इन्तिफ़ादा शुरु हुआ और फिर वही हिंसा चालू हो गई।


हमास

१९८७ में इन्तिफ़ादा के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के बीच एक नए संगठन का उदय हुआ- हमास। सत्तर के दशक के बाद से दुनिया भर में मुस्लिम कट्टरपंथी विचारों का पुनरुत्थान हुआ है। पाकिस्तान में जनरल ज़िया की सदारत में, अफ़्ग़ानिस्तान में अमेरिका के पोषण से, इरान में अयातुल्ला खोमेनी के झण्डे के तले, मिस्र में अल जवाहिरी के दल में। अराफ़ात की प्रगतिशीलता और सेक्यूलर सोच के अवसान के साथ ही फ़िलीस्तीन में भी सुन्नी कट्टरपंथी वहाबी चिंतन मजबूती पकड़ी। ये आन्दोलन न सिर्फ़ राजनैतिक है बल्कि धार्मिक भी है। इज़राईलियों से लड़ने के अलावा फ़िलीस्तीनी औरतों का हिजाब अगत व्यवस्थित न हो तो उचित सज़ा देने में भी यक़ीन रखता है।


हमास के नेता अहमद यासीन बचपन से ही एक ऐसी अस्वस्थता के शिकार थे जिसने उनके अस्तित्व को व्हीलचेयर के साथ बाँध दिया थ। पर इस शारीरिक सीमा ने उनकी मानसिक क्षमताओं को सीमित नहीं किया। उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया। उनके इसे खतरनाक प्रभाव के कारण इज़राईल ने उन पर कई बार हमले किए और आखिर में एक मिसाइल हमले से उनकी हत्या कर दी। इसके पहले इज़राईल ने फ़तह के नेता और अराफ़ात के सहयोगी अबू जिहाद को भी ऐसे ही एक हमले में मार डाला था।


आज की तारीख में फ़िलीस्तीन में अराफ़ात के संगठन फ़तह से कहीं अधिक लोकप्रियता हमास की है। २००६ के चुनावों में फ़िलीस्तीनी संसद की १३२ सीटों मे जहाँ फ़तह को ४३ सीटें मिलीं वहीं हमास ने ७६ सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन आज फिर हमास को फ़िलीस्तीनियों का प्रतिनिधि मानने से इंकार किया जा रहा है, क्योंकि वे खुले तौर पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं।

फ़िलीस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का ये रंग पहले से ज़्यादा खतरनाक है मगर क्या फ़िलीस्तीनियों के अधिकार का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिये कि उनका प्रतिनिधि करने वाला दल एक अतिवाद से ग्रस्त है?

हिंसा जारी है

आज भी फ़िलीस्तीन और इज़राईल के बीच आपसी नफ़रत के अलावा तमाम सारे अनसुलझे मुद्दे बने हुए हैं। उनके बीच भू-भाग का बँटवारे का सवाल वैसे ही उलझा हुआ है। इज़राईल अपना आधिकारिक मानचित्र आज भी जारी नहीं करने को तैयार है। सेटलर्स फ़िलीस्तीन के नियंत्रण में घोषित कर दिये भागों में अभी भी बने हुए हैं। इज़राईल की सेना और पुलिस आज भी फ़िलीस्तीनी क्षेत्रों में घुसकर जिसको जी चाहे गिरफ़्तार कर लेती है। और थोड़ी सी हिंसा होते ही इज़राईल फ़िलीस्तीनी इलाक़ो पर बम और मिसाइल वर्षा करने लगता है। ये मामले सुलझ सकते हैं अगर उनके बीच विश्वास का कोई पुल बने मगर जब नफ़रत और प्रतिशोध की खाईयाँ खुद चुकी हों तो कैसे कोई मामला हल हो सकता है।


लेबनान के शिया संगठन हिज़्बोल्ला के साथ भी इज़राईल का ऐसा ही उग्र सम्बन्ध क़ायम है जिसके चलते २००६ में एक महीने लम्बी खूनी लड़ाई लड़ी गई जिसमें हज़ारों जाने गईं और बेरुत जैसा खूबसूरत शहर एक बार फ़िर नष्ट हुआ।


चूँकि ये लेख उन लोगों को समर्पित रहा जो समझते हैं कि इज़राईल जैसी कठोर दमन की नीति अपनाने से आतंकवाद काबू में आ जाएगा.. (याद रखा जाय कि आतंकवादी हमारे देश में हैं फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहना उनका अपमान और उनके ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा जमाए बैठे अपराधी देश इज़राईल का अनुमोदन है, हाँ हिंसावादी निश्चित हैं).. तो अपने उन बन्धुओं को लिए आखिर में एक आँकड़ा रखता चलता हूँ..


१९८७ से २००० तक के बीच चौदह साल में १८७३ फ़िलीस्तीनी और ४५९ इज़राईली मारे गए.. जबकि २००१ से २००७ के सात साल में ४२०७ फ़िलीस्तीनी और ९९१ इज़राईली अपनी जान से गए। यानी कि आधी ही अवधि में मरने वालों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई।


भविष्य के प्रति निराश हूँ

हमारे हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम के बीच का दुराव के पीछे राजनैतिक संघर्ष, धार्मिक पूर्वाग्रह, और आपसी हिंसा के कुछ अध्याय ज़रूर हैं मगर सैकड़ों साल तक एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे को धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक स्तरों पर गहरे तौर पर प्रभावित भी किया और एक साझा जीवन जिया है।


जो लोग साझी संस्कृति की सच्चाई को नकारते हैं वे भी मानेंगे कि पिछले हज़ार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग ज़रूर रहीं पर एक लम्बे सफ़र में कभी-पास कभी दूर रहकर भी एक दूसरे को प्रभावित करती रहीं।

अपने देश के प्रति मैं आशावान हूँ पर फ़िलीस्तीन के लिए मैं नाउम्मीद हूँ क्योंकि वहाँ ऐसे साझेपन की किसी भी सम्भावना को शुरु से ही पनपने ही नहीं दिया गया, पहले ही बँटवारा कर दिया।


१९४८ के नकबा के बाद एक दूसरे के एकदम खिलाफ़ हो गए ये दो समुदाय कभी आपस में सहज हो पाएंगे ये कहना बहुत मुश्किल है। एक फ़िलीस्तीनी, एक इज़राईली को देखकर क्या कभी भूल पाएगा कि ये उसी क़ौम की सन्तति है जिसने हम पर अनेको अत्याचार किए और हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया?


सम्भव है कि हिंसा का ताप मद्धिम पड़ जाय पर वो एक शोले की तरह हमेशा उन के दिलों में दब के रहेगी और कभी भी भड़कने के लिए बेक़रार बनी रहेगी। किसी बहुत बड़ी महाविपत्ति के भार के नीचे ही यह आपसी नफ़रत दफ़न होकर, उन्हे वापस जोड़ सकती है, शेष कुछ नहीं; ऐसा मुझे लगता है। भगवान करे मैं ग़लत होऊँ।




इस श्रंखला की पहले की कड़ियाँ-


जो वादा किया..

रचना एक नए देश की

एक क़ानूनी मगर नाजायज़ देश


शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

शर्मनाक है मुसलमानों के नाम पर राजनीति

फ़रीद खान

अभी कुछ ही दिन पहले की बात है कि जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौता गरम था तब मायावती ने अपना मुस्लिम कार्ड फेंका और बयान दे दिया कि चूँकि मुस्लिम समुदाय अमेरिका के विरोध में है इसलिए यह डील नहीं होनी चाहिए।

मुझे तो ऐसा कोई मुसलमान नहीं दिखा जो अमेरिका विरोधी हो.. असल में उसे पता ही नहीं कि उसे अमेरिका का विरोध किस बात का करना है।

यह बयान देने वाली मायावती मूर्ख भले न हो.. पर इसके आधार पर मायावती को अपना हितैषी मानने वाले मुसलमान ज़रूर मूर्ख हैं। और इसके आधार पर अमेरिका के पक्ष में जिन लोगों का ध्रुवीकरण हुआ वे भी मूर्ख हैं। क्योंकि किसी सामान्य भारतीय की तरह मुसलमानों को भी इस डील के बारे में कुछ नहीं पता।इसलिए वे किसी भी सामान्य नागरिक की तरह न तो डील के पक्ष में हैं न विरोध में। पर नेता मुसलमानों को सामान्य रखना ही नहीं चाहते।

अगर मायावती डाल डाल तो मुलायम लालू पात पात।

अभी अभी लालू और मुलायम का बयान देखा टी वी पर कि सिमी पर से प्रतिबंध हटा लेना चाहिए... क्यों ? क्या यह संगठन मुसलमानों की बेरोज़गारी दूर करने की बात करता है? क्या यह संगठन मुसलमानों की अशिक्षा दूर करने की बात करता है? .. नहीं.. बिल्कुल भी नहीं। दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति तो यह है कि किसी भी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया। भाजपा से तो इसलिए इसके विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती कि जब यह मामला ज़ोर पकडेगा तो उसकी राजनीति को बल मिलेगा। क्योंकि भाजपा जैसी राष्ट्रवादी पार्टी भी दूसरों की तरह भारतीयों की राष्ट्रियता को हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई के रूप में देखती है।

इधर लालू और मुलायम, मायावती से अपनी स्पर्धा में लगे हैं.. कि कौन कितना बडा मुसलमानों का हितैषी हैं।

मायावती, मुसलमानों को अमेरिका विरोधी बोल बोल के उसे अमेरिका का विरोधी बना देती है और लालू मुलायम, सिमी को मुसलमानों का हितैषी बोल बोल के एक आतंकवादी संगठन को आम मुसलमानों से जोडने का रास्ता साफ़ कर रहे हैं।

सिमी ने उन मुसलमान नौजवानों को पकडा, जो इस देश के किसी भी नौजवान की तरह अपनी बेरोज़गारी, अशिक्षा, ग़रीबी और हताशा के कारण असंतोष के शिकार हैं। उन्हें मुस्लिम राष्ट्रीयता के गौरव के डण्डे से हाँका; ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ से प्रेरणा ले कर। और उस असंतोष को उसने साम्प्रदायिक दिशा दे दी जो आगे चलकर आतंकवादी गतिविधि में तब्दील हो गई।

मैंने एन डी टी वी के कमाल ख़ान की रिपोर्ट में ही पहली बार एक चीज़ देखी.. सिमी का एक बैनर, जिसमें टैग लाईन था- “इलाही.. भेज फिर एक महमूद कोई”। ..कौन है यह महमूद? ग़ज़नी? आख़िर क्यों मुसलमानों को उस ग़ज़नी से प्रेरणा लेने की बात सिमी कर रहा है? सिर्फ़ इसलिए कि वह मुसलमान था? तो भाई साहब वह बादशाह था.. आततायी था.. विध्वंसकारी था..। एक तरफ़ तो ऐसे आततायी गज़नी को सिमी, इस्लाम का नायक बना कर प्रचारित कर रही है जबकि इस्लाम में बादशाहत के लिए कोई जगह ही नहीं है; और दूसरी तरफ़ इस्लाम को एक क़ौम के रूप जो कि कोई क़ौम नहीं है।

अगर इस्लाम सच में कोई राष्ट्रीयता(क़ौमियत) है तो इस्लाम के पहले मुहम्मद साहब के पूर्वजों की राष्ट्रीयता (क़ौमियत) क्या थी? कुछ भी नहीं? भाई मेरे, मुहम्मद साहब के माध्यम से इस्लाम का उदय हुआ, पर एक चीज़ जो उनके पहले भी थी और उनके बाद भी रही.. वह है वहाँ के लोगों की राष्ट्रीयता (क़ौमियत).. और वह है अरब या अरबी। फिर ‘उस राष्ट्रीयता’ में भारत के मुसलमानों के लिए कहाँ जगह है?

फिर भारत का मुसलमान क्यों किसी अरबी या ईरानी या अफ़्ग़ानी से प्रेरणा ले? पर सिमी भारतीय नौजवानों के ज़ेहन में मज़हब और क़ौमियत(राष्ट्रीयता) का गडमड करके ज़हर घोल रहा है और भारत की परम्पराओं से उन्हें काट रहा है जिनका समर्थन लालू व मुलायम जैसे “ग़ैर-आतंकवादी” कर रहे हैं।

असल में राज्य शक्ति जब तक दमन से असंतोष को कुचल सकती है, तब तक वह उसे बख़ूबी कुचलती है। पर जब हालात विस्फोटक होने लगते हैं, सत्ता के पलटने का ख़तरा बनने लगता है, तब ही उस असंतोष को साम्प्रदायिक चोग़ा पहनाने के लिए सिमी जैसे संगठन का उदय होता है। ताकि उस असंतोष की दिशा को बदला जा सके।

इसलिए ध्यान देने की बात यह है कि इंदिरा गाँधी के काल तक आम नौजवानों के असंतोष का भरपूर दमन किया गया.. पर जैसे ही स्थिति विस्फोटक होने लगी, बागडोर साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के हाथ में चली गई। जिन भस्मासुर को इंदिरा जी पैदा किया था, उसी ने (आतंकवाद ने) उन्हें भस्म कर दिया। यह संयोग नहीं है कि सिमी जैसे संगठन और बजरंग दल जैसे संगठन लगभग एक ही समय में उपजे। लगभग एक ही समय शाहबानो केस और रामजन्म भूमि विवाद उठा। लगभग एक ही समय बाबरी मस्जिद में नमाज़ अदा करवाई गई और पूजा पाठ करवाई गई। क्यों ?

..असंतोष आम नौजवानों में होता है, जिसे हिन्दू और मुसलमान बता कर साम्प्रदायिक दिशा दे दी जाती है और वे अपनी नफ़रत में इतने अँधे हो जाते हैं.. कि दंगे और आतंक का रोज़गार थाम लेते हैं। इतना समझने के बावजूद मुसलमान, मायावती, मुलायम और लालू को अपना हितैषी मानते हैं और हिन्दू भाजपा और काँग्रेस को।

कल तक जो चीज़ें साम्प्रदायिक थीं वे आज आतंकवादी रूप धारण कर चुकी हैं.. अगले विकास की कल्पना कर पाने में मैं अक्षम हूँ।

नेता अपनी नीचता की स्पर्धा में लगे हैं और अंततः ठगा जाता है हिन्दू भी, मुसलमान भी।



फ़रीद मेरे दोस्त हैं और मेरे ब्लॉग पर गाहे-बगाये लिखते रहते हैं, उनकी लिखी अन्य पोस्ट देखें..

इब्लीस की नाफ़रमानियाँ और अल्लाह

फ़रीद खान की कविता
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