सोमवार, 20 दिसंबर 2010

राम-राम हरे-हरे



बोधिसत्त्व की एक ताज़ी कविता:




घरे-घरे दौपदी, दुस्सासन घरे-घरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

गली-गली कुरुक्षेत्र, मरघट दरे-दरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

देस भा अंधेर नगर, राजा चौपट का करे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

सीता भई लंकेस्वरी, राम रोवें अरे-अरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

राजा दसरथ भुईं लोटैं, राज करे मंथरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

आम गा महुवा गा, अब त बस बैर फरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

कोयल मोर मूक भए, दादुर टर-टर टरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

ऊपर से कुछ बात, और कुछ बा तरे-तरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे॥

- बोधिसत्त्व

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

जो मिथकीय है, वही वास्तविक है..

हर चीज़ पवित्र है, याद रखो मेरे बच्चे हर चीज़ पवित्र है। प्रकृति में कुछ भी प्राकृतिक नहीं है। जब तुम्हे ये प्राकृतिक लगने लगे, समझो कि वो उनका अंत है। फिर कुछ और शुरु होगा। अलविदा आसमान! अलविदा सागर!

ये आसमान कितना ख़ूबसूरत है। कितना शांत और कितना चमकदार। क्या तुम्हे नहीं लगता कि आसमान का वह एक टुकड़ा ज़रा भी प्राकृतिक नहीं है और एक देवता द्वारा ग्रस्त है? .. ह्म्म.. समन्दर भी ऐसा ही लगता है...

अपने पीछे देखो! क्या दिखाई देता है? क्या कुछ भी प्राकृतिक है? जो कुछ भी दिखता है सब एक छाया है, एक माया। तीसरे पहर की धूप में ठहरे शांत पानी में प्रतिबिम्बित होते बादल.. देखो उधर! समन्दर के उस पतली काली पट्टी पर तेल जैसे गुलाबी चमक। पेड़ो की छायाएं और बांसो के झुरमुट.. जिधर भी नज़र जाती है, एक देवता छिपा हुआ है। और यदि ग़लती से नहीं भी है, तो उसकी पवित्र उपस्थिति के निशान हैं। ये सन्नाटा, घास की ख़ुशबू, ठण्डे पानी की ताज़गी.. हाँ, यह सब पवित्र है। लेकिन पवित्रता भी एक शाप है। देवता यदि प्रेम करते हैं तो घृणा भी करते हैं...

शायद तुम्हे लगता हो कि मैं बिलकुल झूठा हूँ .. या फिर सिर्फ़ कविताई कर रहा हूँ। लेकिन प्राचीन मानव के लिए मिथक और अनुष्ठान, ठोस अनुभव हैं जो उसके दैनिक जीवन में और शरीर में, हिस्से की तरह शामिल होते हैं। उसके लिए वास्तविकता एक ऐसी सम्पूर्ण अवधारणा है जिसमें वह, मिसाल के लिए, शांत आकाश के ठहराव को देखकर जो भाव महसूस करता है वही भाव आधुनिक मानव अपने गहनतम निजी और व्यक्तिगत अनुभव में महसूस करता है।

तुम्हारा राज्य जिसने छीना है, तुम अपने उस चचा के पास जाओगे और अपना हक़ माँगोगे तो वो तुमसे छुटकारा पाने के लिए तुम्हे किसी अभियान पर भेज देगा.. शायद सुनहरी ऊन को लाने के लिए। उसके लिए तुम्हें समन्दर पार दूर देस में जाना होगा। वहाँ तुम्हारा सामना ऐसी दुनिया से होगा जहाँ बुद्धि का उपयोग, हमारी दुनिया से काफ़ी अलग है। वहाँ जीवन बड़ा वास्तविक है। क्योंकि केवल वो जो कि मिथकीय है, वही असल में वास्तविक है.. और केवल वो जो वास्तविक हैं, मिथकीय है।



(पासोलिनी की फ़िल्म मिदीया के एक लम्बे वार्तालाप का हिस्सा जो चेन्तौर किरौन, जेसन से करता है)





गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

रूमी और शम्स


शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उस तरह से उपलब्ध नहीं है जैसे कि रूमी के बारे में। कुछ लोग मानते हैं कि वो किसी सिलसिले के सूफ़ी नहीं थे, बस एक इधर-उधर घूमने वाले दरवेश या क़लन्दर थे। एक अन्य स्रोत से ये भी हवाला मिलता है कि शम्स के दादा हशीशिन सम्प्रदाय (१) के नेता हसन बिन सब्बाह के नाएब थे। (२) बाद में शम्स के वालेद साहब ने सुन्नी इस्लाम ग्रहण कर लिया। लेकिन यह बात संदेहास्पद होते हुए भी दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इसमायली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ा थे। और ये इस्मायली ही थे जिन्होने सबसे पहले क़ुरान के ज़ाहिरी अर्थ को नकार कर बातिनी (छिपे हुए) अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरी दुनिया को नकार कर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।

रूमी और शम्स की मुलाक़ात के बाद ही रूमी को एक असाधारण अनुभव हुआ जिसके लिए उन्होने कहा कि उनके दिमाग़ में एक खिड़की सी खुली और उसमें से धुँआ निकल कर अर्श की ओर चला गया। यह निस्सन्देह एक उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की ओर इशारा है, जिसे तंत्र की भाषा में कह सकते हैं कि उनकी कुण्डलिनी सीधे सहस्रार तक जा पहुँची और समाधि लग गई।

इस अनुभव के बाद शम्स ने रूमी पर कुछ पाबन्दिया लगाईं जैसे कहा कि ख़ामोश रहो, किसी से मत बोलो। और रूमी चालीस दिन (या तीन महीने) तक न किसी और से बोले, और न शम्स से जुदा हुए। दोनों एक कमरे में बन्द रहे बस। दूसरे रूमी में कुछ रासायनिक परिवर्तन ख़ुदबख़ुद आये जैसे कि उन्होने मौलवी का चोगा उतार कर फ़क़ीरों का ख़िरक़ा पहन लिया, और कालान्तर में नाचना-गाना भी शुरु कर दिया। उनके इन बदलाव का ज़िम्मेदार उनके शिष्यों ने शम्स को माना और अपने गुरु को इस तरह से भ्रष्ट करने के लिए वे शम्स से नफ़रत करने लगे। वैसे कुछ और भी स्वतंत्र कारण थे कि लोग उन्हे नापसन्द करते, जैसे कि शम्स बहुत सी ऐसी बातें बोलते थे और करते थे जो कि इस्लाम के नियमों के ज़ाहिरी अर्थ के अनुसार कुफ़्र समझी जाती। शम्स इस ग़लतफ़हमी की परवाह न करते और लोग मानते कि उन्हे इस्लाम की परवाह नहीं है। साथ ही यह भी अफ़वाह थी कि शम्स शराब पीते हैं।

किसी रोज़ कुछ ढीठ मुफ़्तियों ने रूमी से पूछा कि शराब हराम है कि हलाल? उनका मक़सद शम्स तबरेज़ी को बदनाम करना था; रूमी ने रूपक में जवाब दिया, “यह इस बात पर टिका है कि पीने वाला कौन है? नदी में एक मुश्क शराब मिलाने से न तो नदी नशीली होती है न उसका रंग मैला होता है, और पूरी तरह से वज़ू के लायक़ बना रहता है। लेकिन अगर एक तसले पानी में एक बूंद भी शराब पड़ जाय तो पानी नापाक हो जाता है। सीधी बात है कि मौलाना शम्स अगर पीते हैं तो उन के लिए जाएज़ है क्योंकि वो नदी की तरह हैं लेकिन तुम्हारे जैसे रंडी के बिरादरों के लिए शराब तो क्या जौ की रोटी भी हराम है।” (३)

जैसे कि हवाले मिलते हैं शम्स एक बहुत ही सख़्त और सम्पूर्ण समर्पण की माँग करने वाले गुरु थे, दोस्त थे, जो भी नाम उनके रिश्ते को दिया जाय। क्योंकि उनको देखकर ये तय करना मुश्किल था कि कौन किस से सीख रहा है, ऐसा कहा जाता है। लेकिन घटनाक्रम से यह निर्णय निकाला जा सकता है कि शम्स ही गुरु थे और रूमी चेले; मुर्शिद समर्पण नहीं करता, मुरीद करता है। और रूमी ने किस तरह का समर्पण किया यह अफ़्लाकी ने मुनाक़िब ए आरिफ़ीन में लिखा है। वे लिखते हैं कि कोन्या की महफ़िलों में ये बातें होने लगीं थीं कि बहाउद्दीन बल्खी का बेटा (यानी रूमी) तो शम्स का फ़रमाबरदार लौंडा बन गया है। (४)

‘मुनाक़िब ए आरिफ़ीन’ में ही दिए एक अन्य क़िस्से में सुल्तान वलेद के हवाले से बताया जाता है कि एक रोज़ शम्स ने रूमी को उकसाने और आज़माने के लिए, एक हसीन सूरत की माँग की (सूफ़ियों में एक रवायत रही है कि वे किसी एक हसीन सूरत को प्रतीक बनाकर अल्लाह से इश्क़ का रास्ता खोलते हैं, उसे वे शाहिदी कहते हैं), तो रूमी ने अपनी मरियम की तरह पाक और बेगुनाह और बेहद ख़ूबसूरत बीवी कीरा ख़ातून का हाथ पकड़ कर उनके आगे पेश कर दिया; वो थीं। शम्स ने उन्हे देखकर कहा कि ये तो मेरी रूहानी बहन है, ये नहीं चलेंगी। बल्कि मुझे तो एक नाज़ुक और ख़ूबसूरत लड़के की चाहत है जो मेरी सेवा भी करे। फ़ौरन रूमी, युसूफ़ की तरह हसीन सुल्तान वलेद को ले आए और शम्स के आगे खड़ा कर दिया, और बोले कि उम्मीद है कि ये आप की ख़िदमत के और जूते ले आने, पहनाने के लायक़ है। तो शम्स बोले कि ये तो मेरा प्यारा बच्चा है; अब बस थोड़ी शराब का भी इन्तज़ाम हो जाता किसे मैं पानी की जगह पी सकता क्योंकि मैं उसके बिना नहीं रह सकता। इसके बाद रूमी बाहर गए और पड़ोस के यहूदियों के मुहल्ले से एक घड़े में शराब भी ले आए।

इसके बाद रूमी की फ़रमाबरदारी से क़ायल हो कर अचानक शम्स ने आनन्दातिरेक में एक चीख मारी और अपने जिस्म के कपड़े फाड़ दिये और बोले कि तुम जैसा कोई नहीं। (५) वे ये सब बातें रूमी के समर्पण की आज़माईश के लिए कर रहे थे।

जलालुद्दीन मुहम्मद रूमी और शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बीच के रिश्ते के बारे तमाम तरह की अटकलें लगाईं जाती रही हैं। इस तरह के क़िस्सों और रूमी के काव्य में शम्स के प्रति जुनूनी इश्क़ और उनके सम्पूर्ण समर्पण ही वो बातें है जो उनके बीच समलैंगिक सम्बन्ध होने का शुबहा पैदा करती है। रूमी भी मानते हैं कि इश्क़ कैसा भी हो अच्छा है। क्योंकि वह वास्तव में बन्दे और अल्लाह के बीच के इश्क़ का स्थानापन्न है और अन्ततः उसी ओर प्रेरित कर ले जाएगा। फिर भी उनके बीच में शारीरिक सम्बन्ध थे या नहीं इसे सिद्ध करने का कोई तरीक़ा नहीं है। लेकिन ये तो जग ज़ाहिर है कि उनके बीच बहुत गहरे, बहुत पक्के, भावनात्मक और आध्यात्मिक रिश्ते थे। जिसे रूमी ख़ुद अपने शब्दों में इश्क़ कहते हैं।

फ़र्क़ ये ज़रूर है कि पुरुष जब स्त्री से इश्क़ करता है तो उस में एक बहुत तगड़ा लैंगिक आयाम रहता है, वासना का प्रभाव रहता है। जबकि ऐसा मानते हैं कि सूफ़ियाना इश्क़ में मामला पूरी तरह रूहानी होता है। सूफ़ी शब्दों में एक नफ़्स से संचालित है और एक रूह से। आम आदमी तो इश्क़ को नफ़्स के, लैंगिक वासनाओं के दायरे से आज़ाद कर ही नहीं पाता। जबकि इश्क़ करने वाले हर सूफ़ी साधक की कोशिश अपने नफ़्स (मूलाधार की हैवानी ऊर्जा) को दिल और दिल से ऊपर की ओर ले जाने की है, ताकि वो हैवान से उन फ़रिश्ते की ओर यात्रा की जा सके, जिनके भीतर कोई दैहिक वासना नहीं होती।

मगर दूसरी तरफ़ यह भी सच है कि चूंकि दोनों तरह की ऊर्जाओं, सम्बन्धों, और उनकी अभिव्यक्तियों में इतना अधिक साम्य है एक को दूसरे में जाने या गिर जाने की बात भी मुमकिन लग सकती है। यानी इस राह के साधक भटक जाने पर वासनाओं के दलदल में जा गिरेंगे, और जा गिरते रहे हैं। और इस बात के व्यापक प्रमाण हैं कि कैसे बौद्धों और ईसाई मठो में व्यभिचार होता रहा। सूफ़ी साधकों के बीच वासना विचलना पैदा करती रही है। ख़ुद रूमी इस प्रवृत्ति के प्रति सचेत हैं कि कैसे लोगों ने सूफ़ी मार्ग को सिर्फ़ समलैंगिकता और ख़िरक़ा ही समझ लिया है। उनके क़िस्सो में और उनके जीवन के क़िस्सों में सूफ़ी समाज में इस व्यवहार के ज़िक्र आते रहे हैं। यहाँ तक कि जब मौलाना ने सुल्तान वलेद को शम्स का शागिर्द बनाया तो कहा कि मेरा बहाउद्दीन (सुल्तान वलेद का नाम, उनके दादा के नाम पर) न तो हशीश खाता है और न ही उसे समलैंगिकता की आदत है क्योंकि अल्लाह की नज़र में ये दोनों आदतें बहुत ही नापसंदगी की हैं। (६)

अंतरंगता की चाह और समर्पण की माँग दोनों तरह के इश्क़ में होती है। नफ़्स से संचालित सम्बन्धों में कभी-कदार हासिल होती है, जबकि रूह से चालित इश्क़ में उनकी प्रबल अभिव्यक्ति होती है। वो रूमी में भी है, सूर, तुलसी और मीरा में भी है। कहा जा सकता है कि भक्ति प्रेम की उच्चतम अवस्था है। लेकिन इस उच्चतम अवस्था के चिह्न देखकर निचली कामनाओं – लैंगिक सम्बन्ध- की भी मौजूदगी की कल्पना कर लेना तार्किक नहीं लगता।


सन्दर्भ:

१. उमैय्या वंश की अय्याशियों के विरोध से पैदा हुआ एक शिया सम्प्रदाय जिसने लड़ाई का एक गुरिल्ला तरीक़ा अपनाया। वे अपने उच्च पदस्थ दुश्मनों को हत्यारे भेजकर क़त्ल करवा देते थे। माना जाता था कि ये हत्यारे अफ़ीम पर पाले जाते थे, मगर यह बात संदेहास्पद है। (दि असैसिन्स; बर्नार्ड लुईस; ११) इन हशीशिन के नाम से अंग्रेज़ी का हत्यारे अर्थ का शब्द असैसिन विकसित हुआ।
२. लाइफ़ एण्ड वर्क्स ऑफ़ जलालुद्दीन रूमी; अफ़ज़ल इक़बाल; ११०
३. मुनाक़िबे आरिफ़ीन के अंग्रेज़ी अनुवाद फ़ीट्स ऑफ़ नोअर्स ऑफ़ गॉड, जॉन ओ केन, पृष्ठ ४४१
४. वही पृ. ४३६
५. वही पृ. ४२७
६. वही पृ. ४३६


(शालीनता की सीमाओं में रहने की मुराद से इस लेख को 'कलामे रूमी'  में छपने से बचा लिया गया)


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मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

सूफ़ी मत: एक स्त्रैण धर्म

क़ुरान के भीतर बार-बार डराया गया है कि मुहम्मद की बात न सुनने वाले और इस्लाम के नियम को न मानने वालों को दोज़ख़ की आग में जलाया जाएगा। यह समर्पण कराने का पुरुषोचित तरीक़ा है। इस्लाम मानता है कि ये दुनिया आज़माईश की दुनिया है यानी यहाँ की अमीरी-ग़रीबी थोड़े दिनों की है, यहाँ पर किए गए कर्मों का फ़ैसला क़यामत के रोज़ होगा और उस दिन मुसलमानों को जन्नत में बाग़ और हूरे मिलेंगी और काफ़िरों को दोज़ख़ में जलाया जाएगा।

ये माना जा सकता है कि ईश्वर में विश्वास रखने वाला आदमी दोज़ख़ के डर से और जन्नत के लालच में उन नियमों का पालन करता है, लेकिन यह उसकी आस्था का मूल कारण नहीं है। जब आप हर चीज़ ख़ुदा के नियम के अनुसार करते हैं तो आप के भीतर ग़लत करने का या पाप करने का बोध बिला जाता है और आप पूरी तरह से अपराध बोध से पाक हो जाते हैं; असुरक्षा भी चली जाती है और भय भी निकल जाता है, बशर्ते विश्वास और नियम पालन पूरा हो। इसलिए मेरी समझ में मूल कारण अपने जीवन की ज़िम्मेदारी से आज़ादी है; यह मुक्ति का अलग स्वरूप है।

दूसरी ओर सूफ़ियों का मत यह स्वीकार कर लेता है कि ईश्वर कभी कोई इच्छा पूरी नहीं करता; अगर कभी करता है तो उसकी रहमत है। अपनी मानसिक व्याधियों से बचने का सर्वोत्तम उपाय समर्पण ही है। जो है उसी में राज़ी हो जाना। धर्म मानसिक व्याधियों के इलाज से अधिक और है ही क्या? या दूसरे शब्दों में कहें तो मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्रतिरोध छोड़ देना ही धर्म का मूल है। रूमी का, और अन्य सूफ़ियों का, धर्म भी कुछ ऐसा ही है। वे आनन्द और शांति की खोज में हैं। कहा जा सकता है कि रूमी का धर्म स्त्रैण धर्म है। आम तौर पर देखा जाता है कि पुरुष का समर्पण शक्तिशाली के आगे जनित कमज़ोरी के चलते होता है, जबकि स्त्री समर्पण करती है तो अन्तःप्रेरणा से करती है, प्रेम में करती है।

परम्परागत इस्लाम में स्त्रैणता का अभाव है। अल्लाह रहमान ज़रूर है मगर उसके कठोर दण्ड देने वाले स्वरूप पर क़ुरान में अधिक ज़ोर है। हालांकि इस्लाम के जानकार बताते हैं कि इस्लाम में और क़ुरान में पौरुष और स्त्रैणता के दोनों ध्रुव पहले से मौजूद हैं। अल्लाह का क़हर पौरुष भाव है और अल्लाह का रहम स्त्रैण भाव है। अल्लाह के सारी सिफ़तों (गुणों) को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। एक जलाल के गुण यानी उसके गर्म स्वभाव के गुण; दूसरे जलाल के गुण यानी सौन्दर्य और करुणा के गुण; और तीसरे वे गुण जो लिंगत्व से परे हैं जैसे सर्वव्यापकता। इसी तरह जन्नत भी अल्लाह के जमाल यानी स्त्रैणता की अभिव्यक्ति है और दोज़ख़ उसके जलाल यानी उसके पुरुषत्व की अभिव्यक्ति है।

कट्टर इस्लाम ने जलाल के, पौरुष के पक्ष पर बहुत अधिक ज़ोर दिया और धर्म के स्वरूप का संतुलन बिगाड़ दिया जिस के चलते जमाल के स्त्रैणता के भाव अभिव्यक्ति के लिए दूसरे स्रोतों से राह पाने लगे। सूफ़ी मार्ग इस्लाम की स्त्रैणता की अभिव्यक्ति है, ऐसा मान लेना अनुचित नहीं होगा।

यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि इब्नुल अरबी, शेख़ुल अकबर वो पहले सूफ़ी थे जिन्होने स्त्री के चेहरे, और उसके सौन्दर्य को लेकर काव्य रचा। उनका मानना था कि ईश्वर का सौन्दर्य स्त्री के मुखड़े में ही अपनी उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है। शुरुआत में उन्हे और उनके काव्य को काफ़ी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा लेकिन सूफ़ी मार्ग के राहियों ने उनका बड़े स्तर पर अनुसरण किया, और स्त्री के रूपक में अल्लाह की बन्दगी सूफ़ी मार्ग का मज़बूत पाया बन गई। यहाँ तक कि रूमी भी ये लिखते हैं कि जब इबलीस को एक दफ़े पर्दे के पीछे से ईश्वर की उड़ती हुई झलक मिली तो वह एक औरत का दिलकश मुखड़ा था।

हालांकि इस अपवाद के अलावा रूमी पूरी तरह से मर्दानी सुहबत और मर्दानी दोस्ती के क़ायल हैं और उसी की जुस्तजू करते हैं। उनका इन्सानुल कामिल भी आदमी ही है, कोई औरत नहीं। जबकि तार्किक बात ये होगी कि अगर अल्लाह ने आदमी को अपनी शक्ल में गढ़ा है और रूमी बयान देते हैं कि ईश्वर का स्वरूप स्त्री का है तो इन्सानुल कामिल भी स्त्री की ही तरह होना चाहिये। और स्त्री के लिए शायद इन्सानुल कामिल हो जाना आदमियों से सरल होना चाहिये। लेकिन ऐसा है नहीं, रूमी स्त्री को इस लायक़ नहीं मानते हैं। मसनवी में एक भी दफ़े रूमी ने राबिया का ज़िक्र नहीं किया है जबकि तज़किरातुल औलिया में अत्तार ने दस पन्ने की तफ़्सील दी है। मनाक़िब ए आरिफ़ीन में अफ़लाकी रूमी के मुर्शिद शम्स तबरेज़ी के एक अजीब किस्से को जगह देते हैं जो कि कुछ यूँ है:

एक रोज़ शम्स औरतों के किरदार पर कुछ रौशनी डाल रहे थे, वे बोले कि अगर कोई औरत अल्लाह की कुर्सी और अर्श के उस पार भी चली जाय और फिर एक नज़र वो धरती पर डाले और वहाँ से उसे ज़मीन की सतह पर एक उत्तेजित लिंग दिखाई दे तो पागलों की तरह वहीं से छलांग मार कर उस पर सवार हो जाएगी। क्योंकि उन के दीन में उस के ऊपर कुछ नहीं है।

शम्स का यह बयान राबिया और उनके जैसी अन्य महिलाओं की आध्यात्मिकता को पूरी तरह नज़र-अंदाज़ करता है। यानी यह माना जा सकता है कि अपने मार्ग में स्त्रैणता के मूल भाव को अभिव्यक्ति देने के बावजूद सूफ़ी सिद्ध और साधक स्त्रियों के प्रति अपने समय के पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो सके थे।

सन्दर्भ:
१. मुनाक़िबे आरिफ़ीन के अंग्रेज़ी अनुवाद फ़ीट्स ऑफ़ नोअर्स ऑफ़ गॉड, जॉन ओ केन, पृष्ठ ४४१


(शालीनता की सीमाओं में रहने की मुराद से इस लेख को 'कलामे रूमी'  में छपने से बचा लिया गया)


शनिवार, 27 नवंबर 2010

अकथ कहानी प्रेम की


क्या इस देश में प्रगति अंग्रेज़ों के साथ आई? क्या अंग्रेज़ों के आने से पहले इस देश में फ़ारसी व संस्कृत का ही वर्चस्व था? क्या देशभाषाओं को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में स्वीकारा जा सकता है? कबीर और तुकाराम अपने परिवेश की उपज थे या समय से पहले पैदा हो गए अनोखे प्राणी? और अगर वे उस रूढ़िबद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था में जकड़े समाज में इतने ही अनोखे थे तो एक बड़ी जनसंख्या के लिए पूज्य कैसे बन गए? क्या सारी की सारी देशज परम्परा एक साज़िश है? भारतीय समाज में सामाजिक वर्चस्व का स्रोत क्या रहा है, तलवार व पैसा या कर्मकाण्ड व रक्तशुद्धि?

मानवाधिकारों की कल्पना क्या इमैन्वल कांट के ही दिमाग़ की उपज थी और कबीर जो बोल-गा रहे थे, वो कोई और ही प्रलाप था? इस देश के आमजन इतने मिट्टी के माधो रहे हैं जो चतुर ब्राह्मणों की साज़िश का लगातार शिकार होते ही जाते हैं?

अपनी परम्परा और विरासत के प्रति थोड़े से भी सजग व्यक्ति को बेचैन कर देने वाले ये सवाल पूछते हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में। कबीर और उनके समय के सहारे इन सारे कठिन सवालों के जवाब तलाशते हुए पुरुषोत्तम जी की किताब महत्वपूर्ण हो जाती है न सिर्फ़ इसलिए कि उन्होने कबीर और उनके समय की एक नई विवेचना की है बल्कि और अधिक इसलिए कि उन्होने तत्कालीन और (समकालीन समाज भी) को देखने-समझने के लिए एक नई नज़र की प्रस्तावना की है।

और जो जवाब विकसित होते हैं वो बने-बनाए निष्कर्षों पर ‘आस्था’ रखने वाले, पोलिटिकली करेक्ट समझ का ही दामन पकड़ कर चलने वाले विद्वानों को बड़े दुष्कर मालूम दे सकते हैं क्योंकि किताब के निष्कर्ष माँग करते हैं कि आँखों पर चढ़े पूर्वाग्रहों और इतिहास की मोटी समझ के चश्मे को निकाल फेंका जाय और एक अधिक परिपक्व और महीन समझ विकसित की जाय।

‘अकथ कहानी प्रेम की’ में कबीर के जीवन, चिंतन, उनकी साधना, और उनके काल से संबधित सभी पहलुओं पर विशद चर्चाएं हैं। किताब में इस बात की भी विवेचना है कि कबीर के नाम से प्रचलित रचनाएं उन्ही की हैं या ब्राह्मणवादी एप्रोप्रिएशन की नीयत से उन पर आरोपित कर दी गई हैं? इस तरह के चिंतन की ख़बर ली गई है जो एक औफ़ीशियल पाठ अपना कर शेष प्रतिकूल पाठों को ख़ारिज़ करने की उस रोमन वृत्ति से चलता है जिसके तहत ईसा के शिष्यों के चालीस संस्मरणों में से चार को छोड़ बाक़ी को दबा दिया गया। इसी वृत्ति की अनुकृति वाली अपनी समझ से इतिहास की चयनित व्याख्या की बीमारी आज भी काफ़ी विद्वानों को अपनी चपेट में लिए हुए है।

फिर पुरुषोत्तम जी कबीर, रैदास, सेन नाई, धन्ना जाट, और पीपा के गुरु माने जाने वाले रामानन्द की ऐतिहासिक गुत्थी को भी सुलझाने में भी वे कुछ दिलचस्प बातें सामने लाते हैं। ‘जात पाँत पूछे नहिं की, हरि को भजे सो हरि को होई’ की घोषणा करने वाले रामानन्द वाक़ई कबीर के गुरु थे भी या उन्हे सिर्फ़ ब्राह्मणवादियों ने कबीर और उनकी मेधावी परम्परा पर अधिकार करने की नीयत से रामानन्द का आविष्कार कर लिया? इस मामले में जो पारम्परिक मान्यता को आधुनिक और आधुनिक निर्मिति को पारम्परिक मानने की उलटबाँसी चली है उसको पुरुषोत्तम जी रामानन्दी और रामानुजी सम्प्रदाय की जातीय सरंचना और उनके आपसी रिश्तों के इतिहास के ज़रिये सीधा और अर्थवान करते हैं।

कबीर की साधना किस तरह से धर्मसत्ता की सुरक्षा के बदले विवेक की सौदेबाज़ी को सीधे चुनौती दे रही थी, और किसी नए धर्म की स्थापना नहीं बल्कि धर्म मात्र की आलोचना कर रही थी, ‘अकथ कहानी प्रेम की’ इस का भी तार्किक उद्‌घाटन करते हैं। बहुत आगे जाकर मार्क्स श्रम की जिस आध्यात्मिक एकता के ज़रिये मनुष्य की मुक्ति की चर्चा करते हैं, उसी श्रम और अध्यात्म के परस्पर संबंध से मुक्ति की सहज साधना कबीर कैसे कर रहे थे, और उसे गाकर बता भी रहे थे, यह भी स्थापित करते हैं।

मगर मुझे अपने सरोकारों की नज़र से, सबसे महत्वपूर्ण उनका दूसरा अध्याय मालूम दिया जिसमें वे देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त की चर्चा करते हैं। आज तक आम धारणा यह है कि आधुनिकता के नाम से जिस व्यक्तिसत्ता की मान्यता, विवेकपूर्णता, और सहिष्णुता के मूल्यबोध की पहचान की जाती है, उसका जन्म योरोप में हुआ और भारत समेत सम्पूर्ण विश्व को वो योरोप की ही देन है। लेकिन इस बात को कम ग़ौर किया गया है कि भारतभूमि मे पन्द्रहवीं सदी में कबीर अपने कविता और साधना के ज़रिये व्यक्ति, समाज, और ब्रह्माण्ड के परस्पर संबन्धों की नई समझ विकसित कर रहे थे और बड़ी संख्या में शिष्य और अनुयायी उनकी चेतना का अनुसरण कर रहे थे; सभी जाति के लोग जाति के पार जाकर साधु और भगत के रूप में पहचाने जा रहे थे; न सिर्फ़ कबीर, नामदेव और रैदास अपनी आधुनिकता को अभिव्यक्ति दे रहे थे बल्कि समाज में उन्हे माना-पूजा जा रहे थे। तो इन्ही के बुनियाद पर पुरुषोत्तम जी सवाल करते हैं कबीर का काल आधुनिक क्यों नहीं था?

१५ वीं सदी में व्यापार के विस्तार, मानवकेन्द्रित चिन्ता, और चर्च के प्रति असंतोष के उदय के आधार पर ही योरोप आधुनिक होने का दावा करता है, हालांकि योरोपीय आधुनिकता के सबसे पहले पैरोकार मार्टिन लूथर, यहूदियों को नदी में डुबा देने की भी बात भी अपने आधुनिक सुर में करते जाते हैं। तो उस से कहीं अधिक विकसित चेतना और मूल्य बोध के होने के बावजूद कबीर और उनका काल माध्यकालिक क्यों कहलाता है?

इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ है जाति का प्रश्न। कबीर के समय को मध्यकाल में गिनते हुए हम मानते रहे हैं कि भारतीय समाज ब्राह्मणों के द्वारा वर्णाश्रम की बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक स्थिर और रूढ़िबद्ध समाज रहता आया है जिसमें ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर बैठकर समाज के हर नियम को बनाता और लागू करता आया है। पुरुषोत्तम जी ऐसी किसी भी धारणा को ब्राह्मणों की फ़ैन्टेसी को सच्चाई मान लेने की भूल बताते हैं। क्योंकि व्यापार का विस्तार होने से दस्तकारी से जुड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ रहा था और वर्णाश्रम व्यवस्था अप्रासंगिक हो रही थी।

मनुस्मृति को मध्यकालीन समाज का अन्तिम विधान मानने वाले विवाद रत्नाकर जैसे ग्रंथ को भूल जाते हैं जिसमें ब्राह्मण की अवध्यता पर इतनी शर्तें लगाई गई हैं कि किसी अपराधी ब्राह्मण का अवध्य होना असंभव हो जाय। मनुमहिमा का तो पुनरोदय हुआ वारेन हेस्टिंगज़ की कृपा से बने ग्यारह ब्राह्मणों की कमेटी के ज़रिये जब उन्होने हिन्दू ला के लिए बीस स्मृतियों में से बस एक मनुस्मृति को छाँटकर बस उसीका खूंटा पकड़ लिया। जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता बहुत पहले पीछे छोड़ आई थी उसे वापस हिन्दुओं की ‘दि बुक’ बना दिया गया और हमारे समाज की बहुवचनात्मकता को केन्द्रीकृत शास्त्रीयता में बदलने का उपक्रम किया गया।

और यह उपक्रम काफ़ी सफल भी रहा है, आज की तारीख़ में मनुस्मृति ही भारतीय परम्परा का पारिभाषिक ग्रंथ बन चुका है। जबकि अत्रिस्मृति जैसे ग्रंथ की कहीं चर्चा भी नहीं है जिसमें ब्राह्मणों की द्स कोटियों में शूद्र ब्राह्मण, म्लेच्छ ब्राह्मण, चांडाल और निषाद ब्राह्मण भी शामिल हैं, और आदिवासी पुरोहितों को भी ब्राह्मण जाति की निचली पायदान में जगह मिल चुकी थी। यह बताता है कि जाति व्यवस्था में ‘नीचे’ से ‘ऊपर’ जाने की सम्भावना बनी रहती आई है और ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ की भी क्योंकि पुरुषोत्तम जी बताते हैं कि तमाम जुलाहों के गोत्रों से पता चलता है कि उनमें वैश्य, तोमर, भट और गौड़ मूल के लोग भी थे/हैं।

‘मध्यकाल’ की जातीय जड़ता में विश्वास करने वाले ऐसे तथ्यों को अनदेखा कर जाते हैं जो बताते हैं कि उज्जयिनी का महान शासक हर्षवर्धन बनिया था, अकबर को चुनौती देने वाला राजा हेमू बक्काल था। उसी रुढ़िबद्ध मध्यकाल में व्यापारजनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, और मज़दूर भी और आदिवासी गोंडो के स्तुति गायक भी जबकि तेलीवंश में जनमे मंत्री बन रहे थे, नाई घर के जनमे सेनापति, वर्णसंकर महामंत्री, वेश्यापुत्र राजा, हीनकुलोत्पन्न राजगुरु, जुलाहे राजकवि, और मल्लाह महामण्डलीक हो रहे थे। सन्यासी और व्यापारी भी महाजनी गतिविधियां चला रहे थे और आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रहे थे। अठाहरवीं सदी के आते-आते ब्राह्मण जाति के लोग सूरत जैसे शहरों की फ़ैक्ट्रियों में मज़दूर, और ईस्ट इंडिया कम्पनी की फ़ौज में सिपाही हो रहे थे।

(असल में तो ब्राह्मणों के इस काल्पनिक वर्चस्व को प्राचीन भारत में भी जगह नहीं थी। महाभारत में अष्टावक्र की प्रसिद्ध कथा आती है जो अपने पिता का बदला लेने जनक के दरबार में जाते हैं जहाँ बन्दी नामक एक विद्वान ने शास्त्रार्थ में उनके पिता और दूसरे कई ब्राह्मणों को हराकर ताल में डुबवा दिया था। यह महाविद्वान बन्दी, एक सूत है, यानी उसी जाति का, जिस जाति से आने वाले अधिरथ ने महारथी कर्ण का पालन-पोषण किया था। ब्राह्मणी वर्चस्व की प्राचीन सच्चाई का एक पहलू यह भी है।)

समझा जाय कि भारतीय समाज कोई गतिहीन, जड़ समाज नहीं था वह एक गतिशील, प्रगतिशील समाज था। भक्ति के लोकवृत्त से ब्राह्मण वर्चस्व को मिली चुनौती के चलते तत्कालीन भारत में वह परिघटना हुई जिसे कुछ विद्वान नौन कास्ट हिन्दूइज़्म कहते हैं। इस लोकवृत्त में कोरी व ब्राह्मण एक ही भगत रूप में पहचाने जाते थे। आप स्वयं सोचें कि रज्जब ,दादू, पीपा, रैदास, कबीर को आप जाति से पहचानते हैं या उनकी भगत वृत्ति से? पुरुषोत्तम जी चेताते हैं कि उस समय के समाज को समझने के लिए पेण्डुलम धर्म से निजात पानी होगी- या तो जाति पर ध्यान ही न देना या सिर्फ़ जाति पर ही ध्यान देना।

तथाकथित मध्यकाल में सामाजिक गतिशीलता की पड़ताल करते हुए वे पाते हैं कि जिस रूप में हम जानते हैं, उस रूप में जाति एक आधुनिक परिघटना है। इसका जन्म भारत और पश्चिमी औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक सम्पर्क के कारण हुआ। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारतीय जाति व्यवस्था का कोई नस्ली पहलू नहीं है। जातीय सवाल में अंग्रेज़ो ने अपनी नस्लवादी समझ जाति व्यवस्था पर थोप दी, उन्हे इसे दूसरी तौर से समझना न आया।

इस सवाल पर मैं शेल्डन पौलाक के एक लम्बे लेख पर इसी ब्लौग पर मैं लिख भी चुका हूँ। जाति व्यवस्था में नस्ल के आधार को सिद्ध करने के लिए २० वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण हुए और जिन के नतीजो ने सिरे से नस्ल की परिकल्पना को पूरी तरह से नकार दिया। जो चीज़ कभी थी ही नहीं पहले उसे आरोपित किया गया, फिर स्थापित किया गया, जिसके फलस्वरूप कुछ लोग मिथ्याभिमान और कुछ मिथ्याग्लानि के शिकार हुए। अम्बेडकर जैसे विद्वान की भी काफ़ी ऊर्जा, जातिवाद के नस्ली पहलू के इस मिथ को ध्वस्त करने में ज़ाया हुई।

अकथ प्रेम की कहानी कबीर के बहाने भारतीय समाज और परम्परा का पुनर्मूल्याकंन है। ऐसी मान्यताओं और विश्वासों पर पुनर्विचार करने के लिए आमंत्रण जिसे हम सच मानकर उस पर अपने सिद्धान्तों की इमारतें खड़ी कर चुके हैं। और उन सारे राजनीतिबाज़ों को चुनौती है जो इन खोखली मान्यताओं की नींव पर अपने निहित स्वार्थों की राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी की रोटी गरम कर रहे हैं।

इन तमाम सारे मुद्दे, जिन पर मैं ख़ुद भी व्यथित होता रहा हूँ, पुरुषोत्तम जी ने विस्तार से चर्चा की है और ठोस साक्ष्यों की मदद से अपनी बात को पुख़्ता तरह से रखा है। देसी परम्परा के स्रोत, संस्कृत साहित्य, हिन्दू धर्म के भीतर की साम्प्रदायिक परम्पराओं की गहरी छानबीन करके अपने पैने तर्कों, मेहनत से जुटाये गए साक्ष्यों और विभिन्न विद्वत परम्पराओं से लाए गए उद्धरणों, लोकगाथाओं और किंवदन्तियों के ज़रिये अपने निष्कर्षों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हैं। निश्चित ही इस किताब को लिखने में उनकी मेधा के साथ-साथ, पूरे जीवन भर की मेहनत लगी हुई है। उनको इस काम के लिए मैं बहुत बधाई देता हूँ।

स्वतंत्र रूप से हिन्दी में चिन्तन की विरल परम्परा है और इस तरह के काम का हिन्दी में बहुधा अकाल रहता है। मेरी उम्मीद है कि हिन्दी में स्वतंत्र चिंतन की परम्परा की उस विरल धारा को जिसे पुरुषोत्तम जी ने आगे बढ़ाया है, अब सघन होकर विकराल रूप धारण करे और पुरुषोत्तम जी के जो वैचारिक विरोधी हैं वो भी इतनी ही मूर्धन्यता और अनुशीलन के सहारे अपने समाज को समझने की तरफ़ आगे ठोस क़दम बढ़ाएं।

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रविवार, 21 नवंबर 2010

गीत का सिमसिमी जादू


पिछले दिनों गीत चतुर्वेदी का दूसरा कहानी संग्रह ‘पिंक स्लिप डैडी’ प्रकाशित हुआ। संग्रह में तीन लम्बी कहानियां हैं और तीनों ही महानगरीय जीवन के संकटों के आख्यान हैं। पहली कहानी गोमूत्र एक निम्नमध्यमवर्गीय दृष्टिकोण से कर्ज़ आधारित अर्थव्यवस्था में वैयक्तिक व्यथाओं की कथा है। किताब की आख़िरी कहानी ‘पिंक स्लिप डैडी’ मंदी के दौर में एक कौरपोरेट संरचना के भीतर से उसकी जटिलताओं का अक्स मानवीय आईने में दिखलाती कहानी है। हालांकि २००९ में लिखी इस कहानी का मूलाधार २००९ में ही प्रदर्शित अमरीकी फ़िल्म ‘अप इन दि एअर’ से कुछ मिलता है मगर गीत की कहानी में अपनी क़िस्म की परते हैं।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘सिमसिम’, ज़िन्दगी की शुरुआत करते एक नौजवान और ज़िन्दगी की अंत पर खड़े मगर अपनी ज़िन्दगी की शुरुआती स्मृतियों में उलझे और तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी सम्बन्ध की कहानी होने से अधिक उस छवि की कहानी है जो इन दोनों चरित्रों को एक साथ रखने से बनती है। इस कहानी में किसी फ़िल्म की पटकथा जैसी बुनावट और गति है। वैसा ही कहानी के वातावरण का स्पन्दन पाठक अपने रोमों, पोरों में महसूस कर सकता है, जैसा अनुभव फ़िल्म देखते हुए होता है। और आधुनिक सार्थक फ़िल्मों ने जिस तरह की पुरातन क़िस्सागोई से दुश्मनी ले रखी है, वो यहाँ भी मौजूद है।

मेरी समझ में शिल्प की दृष्टि से गीत की यह कहानी बड़ी अनोखी और बेजोड़ है। गीत की काव्य प्रतिभा भी इस कहानी में सबसे अधिक उभर कर आती है। ऐसा लगता है कि गीत भी मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की तरह कविता और उपन्यास (या लम्बी कहानी) में कोई मौलिक फ़र्क़ नहीं मानते। विनोद जी ने एक जगह कहा है, “उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है।”

गीत की कहानियों में विचारों की, अनुभवों की ख़ूब चहलक़दमियाँ हैं। उनके पास कहने को बहुत कुछ है। किसी सामान्य सी रोज़मर्रा की भी घटना में वे बहुत कुछ देख लेते हैं। गीत अपने चरित्रों को बख़ूबी जानते हैं, उनके अनुभवों को बारी़कियों से पहचानते हैं। उनके परिवेश और सामाजिक दबावों को समझते हैं और देश-दुनिया की राजनैतिक-आर्थिक सच्चाईयों से उनके तार कैसे जुड़ते हैं, इसकी समझदारी भी रखते हैं गीत। और अपनी बेहद समृद्ध भाषा के मार्फ़त उनके अनुभवों और उनके मनोजगत के मर्म को व्यक्त करने में वे माहिर हैं।

किताब का कहीं से भी खोलकर पढ़ना शुरु कर दीजिये, आप को ख़ुले हुए दो पन्नों के बीच ही ऐसा कोई टुकड़ा मिल जाएगा जो आपके द्वार जिये हुए यथार्थ को ही, पहचाने हुए अनुभव को एक नई नज़र से दिखाता हो। कोई चकित करने वाली बात ज़रूर मिल जाएगी उन दो पन्नों के बीच। यह गीत की ताक़त है। गीत की एक और ताक़त किसी भी सामान्य घटना को उसकी सम्भावना की भौतिक सीमाओं के पार खींच ले जाकर उसके अन्तरविरोध को उभारने में भी है, जिसे आम तौर पर जादुई यथार्थवाद के नाम से बताया जाता है।

गीत वैचारिक रूप से बहुत सचेत हैं। जिस दुनिया में वे रह रहे हैं, जिस की कहानियाँ वे रच रहे हैं उसकी तमाम जानकारियाँ उनके पास है। और उस दुनिया के प्रति उनके सरोकार भी बहुत विकसित हैं, साथ ही उनके कलात्मक सरोकार भी। अपने शिल्प के प्रति भी वे बेहद सचेत हैं, ऐसा मालूम देता है। उनकी कहानियों में कोई तत्व यूँ ही ऊँघता हुआ, किसी बेहोशी में चला आया है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उनकी कहानी में सब कुछ सायास है, सोचा-समझा है।

लेकिन उनमें अजीब तरह का कुछ अनगढ़पन भी है। एक पाठक की तरह उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे लगा कि कुछ बातों का अनावश्यक विस्तार है और कुछ चीज़ें जिन पर मैं और व़क्त गुज़ारने को तैयार था वो सूत्र गीत ने जल्दबाज़ी में निपटा दिये। लेकिन यह तो लेखक स्वयं ही तय करेगा कि किस तत्व को विस्तार कितना विस्तार देगा, और उसके पास तर्क भी होंगे इस चुनाव के पीछे। फिर भी पाठक शिकायत करने का तो हक़ रखता है।

मैं जानता हूँ कि उनकी कहानी की आलोचना करते हुए मैं साहित्य व कला के तमाम नए-पुराने आन्दोलनों से अपरिचित हूँ, सम्भवतः उनसे भी जिनको ध्यान में रखते हुए उन्होने अपने शिल्पगत चुनाव किए हैं, फिर भी एक पाठक के तौर पर मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कहने का अवसर ले रहा हूँ कि उनकी कहानी में अगर कोई कमज़ोरी है तो वह ये कि उसमें क़िस्सागोई का अभाव है।

गीत की कहानी कोई संस्पेंस कथाएं नहीं है। और सच बात तो ये है कि संस्पेंस कथा कभी सस्पेंस कथा नहीं होती। उसकी कहानी का ढांचा पहले से तय होता है। सिर्फ़ एक तत्व, एक तथ्य पाठक से छिपा लिया जाता है। और पाठक इस ढांचे में बड़े सुकून से बेचैन रहता है। जबकि जिस तरह की कहानियाँ गीत लिख रहे हैं वो पाठकों को वाक़ई में बेचैन कर सकती हैं क्योंकि वे न तो अपनी कहानी की दिशा की कोई पूर्वसूचना पाठक को देते हैं या कहानी को रोचक बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश करते हैं जैसे कि पुराने क़िस्सागो करते रहे हैं। और शायद इसी कारण से या किसी और कारण से पढ़ने वालों को लग सकता है कि वे चरित्रों से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रहे या रस की सृष्टि में कुछ कमी रह गई।

इन के बावजूद गीत एक बहुत प्रतिभासम्पन्न लेखक हैं। वे युवा हैं और अभी तो यह शुरुआत है, आगे वे क्या और कैसे गुल खिलायेंगे इसे देखने की प्रतीक्षा है मुझे। और सच बात तो यह है कि उनकी प्रतिभा और महत्व का असली आकलन तो उनके बाद वाली पीढ़ी ही करेगी, जैसा कि हमेशा होता आया है।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

सोशल नेटवर्क

नया करने वाला हर व्यक्ति किसी आदर्श व्यक्तित्व का स्वामी, किसी उच्च चेतना और नैतिकता का वाहक नहीं होता। वे तो बस अपने ज़रिये अपने समय को बेलाग-बेलौस अभिव्यक्त कर रहे होते हैं। पुराने ढाँचे में नए की अभिव्यक्ति सहज सरल रूप से ही हो जाय यह हमेशा सम्भव नहीं होता। नया अक्सर वह पुराने ढाँचे को ढहा कर, उस की बाँस-बल्लियां हिला कर ही पैदा होता है। और इसीलिए वह अवैध और अनैतिक बताया जाता है। सोशल नेटवर्क में भी मूल सवाल यही है- मार्क ज़करबर्ग क्या एक अपराधी है? क्या उसने झूठ बोला है, चोरी की है, धोखा दिया है?

हाँ यह ठीक है कि मार्क 'दिए गए' मानकों पर अपराधी नज़र आता है लेकिन अगर वह समाज की स्थापित नैतिकता के अनुसार ही चलने लगता तो शायद कभी भी फ़ेसबुक को वो शकल नहीं दे पाता जो आज है। उसने व्यक्तियों और दिये गए विधान के बदले, अपने और अपने आविष्कार के प्रति निष्ठावान होने का चुनाव किया; जो अमानवीय नज़र आता है पर हर आविष्कारी की मौलिक पहचान होता है।आविष्कार मानवता के हित में, प्रगति के हित में होते हैं जबकि नैतिकता सिर्फ़ व्यवस्था को बनाए रखने के हित में।

समाज में तमाम ज़रूरते, पहले से तैयार तंत्रों की सीमाओं से परे होती हैं। व्यवस्था के पहले से तैयार ढाँचा उस ज़रूरत को पूरा कर पाने में असमर्थ होता है। और व्यवस्था ने उस ज़रूरत का इष्टतम इस्तेमाल करने के लिए और अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसे क़ानून बना लिए होते हैं कि किसी भी और तरीक़े से उसकी पूर्ति अवैध कहलाई जाये। जैसे क़ानूनी तौर पर किसी भी किताब को फोटोकौपी करना अपराध है, किसी भी डीवीडी को क़िराये पर देना अपराध है। इन्टरनेट से संगीत डाउनलोड करना अपराध है, फ़िल्में शेअर करना अपराध है।

लेकिन चौतरफ़ा हो रहे बदलावों की समसामयिकता या कहें कि ऐतिहासिक परिस्थितियां ऐसी पकती हैं कि ई-मेल, नैपस्टर, बिट-टौरेन्ट, यू-ट्यूब, और फ़ेसबुक जैसे आविष्कार होते हैं। इन्हे आविष्कार करने वाले सामान्य व्यक्ति नहीं थे लेकिन उन्हे किसी महान मेधा के मालिक समझना भी भूल होगी। उन्होने बस समय की गति को पहचाना और अपने आप को उसमें बहने दिया। अगर वो उन आविष्कार को अंजाम नहीं देते तो छह-आठ महीनों में ही कोई और नौजवान वैसे या उस जैसे किसी और आविष्कार को पेश कर देता।

सोशल नेटवर्क की सबसे सफल बात यही है कि वह तमाम गहरी बातों को बिना बहुत गम्भीर हुए, एक ज़बरदस्त गति और दिलचस्पी बनाए रखते हुए कह ले जाती है। फ़िल्म का आख़िरी दृश्य मार्क ज़करबर्ग की विडम्बना को एक छवि में समेट लेता है- अपने ही द्वारा आविष्कृत फ़ेसबुक में मार्क अपनी भूतपूर्व प्रेमिका से दोस्ती की स्वीकृति का इन्तज़ार करता हुआ उतना ही निरीह है जितना कि कोई भी दूसरा टीनेजर होगा।

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

वामपंथी सच्चाई - मरोड़ी हुई


मैं एक लम्बे समय तक वामपंथी विचारधारा से प्रभावित रहा हूँ। आज भी मेरे मूल आग्रह वामपंथ से बहुत अलग नहीं है। लेकिन पिछले कुछ सालों से मैं धीरे-धीरे वामपंथ के तौर-तरीक़ों को लेकर बहुत पकता रहता हूँ। और मैंने पाया है कि विचारधारा के नाम पर ये आग्रह अपने विरोधियों के चोले में ढलते जा रहे हैं। जैसे अभी हाल की अरुंधती वाले मसले की मिसाल लीजिये- जिसमें अरुंधती के कश्मीर पर उनके कुख्यात बयान के बाद भाजपा के एक दल ने अरुंधती के घर पर ‘हमला’ किया।

मैंने इसकी रपट टीवी पर देखी थी। बाद में मेरे मित्रों ने फ़ेसबुक और ब्लौग्स पर इस घटना को दक्षिणपंथी गुण्डों द्वारा किए हमले की संज्ञा देते हुए इस लोकतंत्र पर हमला, फ़ासीवाद, और न जाने क्या-क्या बताया। फिर अरुंधती की चिठ्ठी देखी जिसमें उन्होने भी घर का गेट तोड़कर तोड़फोड़ की बात कही, हालांकि उन्होने ख़ुद स्वीकारा कि वे उस वक़्त घर पर नहीं थी। अभी देखता हूँ कि अरुंधती ने न्यूयौर्क टाइम्स में एक लेख में इस घटना का उल्लेख किया है और उन्होने वहाँ इसे हमले की नहीं, एक प्रदर्शन की संज्ञा दी है।

भाजपा का एक दंगाई इतिहास है (है तो वैसे कांग्रेस का भी, और तमाम दूसरी पार्टियों का भी) और जिसके लिए मैं उनका कड़ा विरोधी भी हूँ। लेकिन उनके विरोधी होने भर से मैं उनकी अभिव्यक्ति का भी विरोध करना उचित नहीं समझता। अगर हम अरुंधती और दूसरे वामपंथियों की अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए उत्सुक होते हैं तो अपने विरोधियों की अभिव्यक्ति को सहन करने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिये। न कि उनके बोलने के पहले ही –इसने मुझे गाली दी, मुझे मारा- का आरोप लगाने चाहिये। जैसा कि इस मामले में हुआ।

संयोग से चाणक्यपुरी स्थित अरुंधती के पति प्रदीप क्रिशन के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे द्वारा इस प्रदर्शन के इस तथाकथित हमले से आभासी जगत पर मची हलचल से पहले मैंने इसकी रपट टीवी पर देखी थी। मैंने देखा कि तक़रीबन सौ औरतें एक बड़े से घर के बड़े से गेट के आगे नारे लगा रही हैं। उनमें से एक औरत एक गमले को उठाकर उसे पटकने का उपक्रम करती है, एक दूसरी औरत उसे रोकती है, पहली उस गमले को वापस जा कर रख देती है। फिर भी कुछ गमले ज़रूर टूटे लेकिन न तो उन्होने किसी पर हमला किया न कोई मारपीट। यहाँ पर दिये वीडियो से साफ़ पता चलता है कि विरोध करने वाली महिलाएं दक्षिणपंथी विचारधारा की ज़रूर थीं मगर हूलिगन या गुण्डी नहीं थीं। उनका विरोध भी टीवी कैमरों के लाभार्थ अधिक है, ऐसा भी साफ़ दिख रहा है।

लेकिन मेरे वामपंथी उदारवादी मित्रों ने इस दक्षिणपंथी गुण्डों का हमला बताया? उनसे ये चूक कैसे हुई? क्या वे वास्तविकता का सही आकलन करने में असमर्थ हैं? ये कैसी असमर्थता है जिसमें पत्थर फेंकने वाली भीड़ अहिंसक कहलाती है और नारे लगाकर प्रदर्शन करने वाली भीड़ हमलावर?

या वे जानबूझ कर अपने पक्ष को मज़बूत करने के लिए अपने विरोधियों की हर हरकत को एक आपराधिक रंगत देने की नीति में यक़ीन रखते हैं? क्या यही मानसिकता दो विरोधी पक्षों के बीच साम्प्रदायिक दंगे जैसी तनाव की स्थिति में भारी जानमाल की क्षति का कारण नहीं बनती है? साम्प्रदायिकता का प्राणपन से विरोध करने वाले मेरे वामपंथी मित्र सच्चाई को अपनी सहूलियत के अनुसार मरोड़ने, और उस मरोड़ी हुई सच्चाई का ऊँचे स्वर से प्रचार करने की दंगाई मानसिकता से कैसे ग्रस्त हो रहे हैं, यह मेरे लिए गम्भीर चिंता का विषय है।


बुधवार, 10 नवंबर 2010

गांधीदर्शन

गांधी जी राष्ट्रपिता हैं। हमें बताया जाता है कि वे सत्य, अहिंसा और नैतिकता की प्रतिमूर्ति थे और उन्होने आज़ादी का आन्दोलन का नेतृत्व कर देशवासियों को आज़ादी दिलवाई।

मैं उपरोक्त बातों को हलवा समझ कर हज़म नहीं कर पाता। गांधीजी असफल रहे- इस बात को स्वीकार करने में किसी को क्या परेशानी हो सकती है? आज़ादी मिलते ही उनके पट्टशिष्य़ नेहरू जी तक ने उनके बताये रास्ते ग्रामस्वराज का रास्ता छोड़कर अपने 'सपनों के भारत' को लागू करना शुरु कर दिया। चंद मुट्ठी भर आदर्शवादियों के अलावा लगभग सभी ने सत्य, अहिंसा और खादी का आश्रय छोड़कर भ्रष्ट भौतिक जीवन के पीछे भागना शुरु कर दिया। क्या इस से पता नहीं चलता है कि गांधीजी की वास्तविक अपील कितनी सीमित थी।

गांधीजी सत्यवादी और अहिंसक थे लेकिन उदार नहीं थे। हठी थे। अपनी बात मनवाने और के लिए किसी भी हद तक जाते थे। सुभाषचन्द्र बोस वाला प्रकरण सभी को मालूम ही है जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष की तरह उनके कार्यकाल को गांधीजी ने इतना मुश्किल बना दिया कि सुभाषचन्द्र बोस को इस्तीफ़ा देना पड़ा। और उनका आमरण अनशन भी एक तरह का हठ तो है ही साथ ही एक नज़रिये से हिंसा भी है। हिंसक आदमी अपनी बात मनवाने के लिए दूसरे के गले पे चाकू रखता है- मेरी बात मानो वरना मार दूँगा। गांधीजी पलटकर चाकू अपने गले पर रख लेते थे- मेरी बात मानो वरना मर जाऊँगा; बेचारे भले लोग हारकर मान जाते थे।

उनके आन्दोलन में अहिंसा के महत्व को मैं नकार नहीं रहा हूँ। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के अनशन करके नैतिक दबाव बनाने वाले वो कोई अकेले ऐतिहासिक व्यक्ति थे। इतिहास पढ़ने वाले जानते हैं कि मुग़ल शासन के अवनति के वर्षों में जब उनके पास सिपाहियों को उनका वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं होते थे तो ऐसे एक मौक़े पर मुग़ल बादशाह आलमगीर दोयम ने भी भूख हड़ताल की थी ताकि इमादुलमुल्क द्वारा  जनता पर लगाये गए मनमाने कर को वापस लिया जाय। मेरा गांधीजी के अहिंसक हठ से कोई ऐतराज़ न होता अगर वे इसके ज़रिये कोई वास्तविक सामाजिक बदलाव ले आते- लेकिन क्या वे कुछ भी बदल सके लोगों में? 

उनके त्यागपूर्ण जीवन की हमारे आज के जीवन में कितनी उपयोगिता है? जबकि अब गांधीदर्शन का मतलब करेन्सी नोटों पर छपे उनके हँसते हुए मुखड़े का दर्शन ही बनता है? हमारा राष्ट्रीय ध्वज भी, जिसे पहले खादी का ही होने की बात थी, खादी का छोड़ अन्य सभी तरह के कपड़ों का होता है?

गांधीजी का ग्रामस्वराज क्या अम्बेडकर को स्वीकार था या आज के दलितों को स्वीकार होगा जिसमें जातीय रिश्तों में बदलाव के लिए कोई जगह नहीं बनती है?

क्या आज़ादी वास्तव में गांधीजी के नेतृत्व का परिणाम थी? या विश्वयुद्ध से पस्त हो चुके साम्राज्यवादियों के द्वारा हड़बड़ी में सौंपी गई ज़िम्मेदारी?

गांधीजी एक प्रेरक पुरुष थे, महात्मा थे- इस से कोई इन्कार नहीं कर सकता।  ओबामा और उनसे पहले मार्टिनलूथर किंग भी उनसे प्रेरणा लेते रहे हैं। लेकिन अफ़्रीकी-अमरीकी नागरिकों की आज़ादी में उनकी इससे अधिक कोई भूमिका नहीं देखी जा सकती। उसके केन्द्र में ऐतिहासिक कारण थे।

राजनीति में नैतिकता की एक जगह होनी चाहिये, लेकिन वो भी 'चाहिये' के दायरे में ही है। रियलपौलिटिक में चीज़े नैतिकता से तय नहीं होती। नैतिक दबाव हो या न हो, चीज़ों को बदलने वाली शक्तियाँ उन्हे एक निश्चित दिशा में लेके जाती हैं।

गांधीजी गाली के योग्य क़तई नहीं है लेकिन उन्हे भगवान भी न बनाया जाय!


(फ़ेसबुक पर एक बहस के दौरान उपजे विचार)

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

अरुंधती की नीयत क्या है?

अरुंधती उस देश पर तरस खा रही हैं जो लेखकों की आत्मा की आवाज़ को खामोश करता है। उन्हे तरस आता है उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कार्पोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं। यह पूरा सच नहीं है। बहुत सारे साम्प्रदायिक अपराधी, जनसंहारों के अपराधी, कारपोरेट घोटालेबाज़, लुटेरे, बलात्कारी और ग़रीबों के शिकारी पकड़े गए हैं, उन पर मुक़दमें चलाए गए हैं और तमाम को सज़ा भी हुई है और कई मामले प्रक्रिया में है। लेकिन बहुत से ऐसे अपराधी हैं जो खुले घूम रहे हैं, यह भी सच है। लेकिन एक अधूरे सच को एक सम्पूर्ण सत्य की तरह पेश करने वाली अरुंधती की नीयत क्या है, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता।

हालांकि मुझे उनकी इस बात पर कोई ऐतराज़ नहीं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है। किसी को ये लग ही सकता है, उसमें क्या समस्या है? मुझे तो कभी-कभी लगता है कि मुम्बई भी भारत का अभिन्न अंग नहीं है। भारत के मुख़्तलिफ़ हिस्से भारत के भिन्न-भिन्न अंग हैं। उनके इस बयान पर जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं, वो बेकार की बाते हैं। सच तो ये है कि मैं स्वयं कश्मीरियों को अधिक से अधिक स्वतंत्रता देने के पक्ष में हूँ। अगर देश से अलग होकर पाकिस्तान से मिल जाने में ही उनकी ख़ुशी है तो मुझे उसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं दिखती। लोगों से अलग न तो कोई देश होता है और न कोई राष्ट्र। लेकिन क्या मामला मेरी आपत्ति का है? क्या राजनैतिक यथार्थ महज़ नैतिकताओं और सदिच्छाओं से संचालित होता है। अगर कोई ऐसा समझता है तो उसकी बचकानी समझ पर तरस खाने के सिवा मेरे पास और क्या विकल्प है?

और तरस से मैं लौटता हूँ अरुंधती के बयान पर जिसमें वे भारत पर तरस खा रही हैं। मुझे उनके इस बयान पर वाक़ई ऐतराज़ है। ये सच है कि हमारा देश कोई हमारे सपनों का भारत नहीं है, भारत में तमाम सारी समस्याएं है, भ्रष्टाचार है, विषमताएं हैं, बहुत सारा कूड़ा-करकट है। जिसको लेकर सभी सचेत नागरिक समय-समय पर चिंतित होते रहते हैं। हमारा देश, हमारा समाज कैसे और बेहतर हो, इसकी चिंता करना स्वाभाविक है मगर जो अरुंधती करती हैं उसे अंग्रेज़ी में ‘इण्डिया-बैशिंग’ (यानी भारत की पिटाई) कहते हैं। और अरुंधती ने इस ‘इण्डिया-बैशिंग’ में महारत सी हासिल कर ली है। हम सब अपने देश को कभी-कभी गरियाते हैं मगर अरुंधती का गरियाना एक्स्ट्राशक्ति और एक्स्ट्राआनन्द के साथ होता है। आज तक उनके इस गरियाने पर लोगबाग दुखी भले हुए हों मगर उन पर राज्य या सरकार ने कभी निगाहें टेढ़ी नहीं की। तो वो किस आधार पर उस देश पर तरस खा रही हैं जो लेखकों की आत्मा की आवाज़ को खामोश करता है? उनके इस अनजानेपन को मूर्खता कहा जाय या मक्कारी?

जब कोई देश को गाली देता है तो वस्तुतः उसके लोगों को ही गाली देता है। देश का अर्थ उस से लोगों से जुदा कुछ नहीं होता। जिस तरह अगर कोई किसी अन्य के ईश्वर को गाली देता है तो वस्तुतः उसे ही गाली देता है क्योंकि उसका ईश्वर उसकी भीतर के सबसे शुभ, सबसे शक्तिमान, और सबसे सुन्दर तत्व की अभिव्यक्ति है। भले ही बाक़ी जगत के लिए उसके ईश्वर में वे सारे गुण दृश्यमान न हों लेकिन उस व्यक्ति की ओर से शुभता, शक्ति और सौन्दर्य के प्रतिमान उसके ईश्वर में आरोपित होते हैं। मैं यह नहीं कहता कि देश ईश्वर है। ये कह रहा हूँ कि देश की अवधारणा में आदमी ने अपनी सामाजिक, सामूहिक पहचान को आरोपित किया होता है। कश्मीरियों और आदिवासियों की हमदर्द बनने वाली अरुंधती भारतवासियों की सामूहिक पहचान पर क्यों इस तरह से हमलावर हो जाती हैं?

क्या इसलिए कि वे भारत के भीतर मौजूद तमाम छोटी-छोटी राष्ट्रीयताओं का तो अनुमोदन करती हैं लेकिन एक अधिक सार्वभौमिक पहचान भारतीयता का खण्डन? किसी भी व्यक्ति के भीतर अपने नाम, पारिवरिक नाम, जातीय पहचान, से लेकर इंसान व प्राणी होने तक पहचानों के कई स्तर होते हैं। व्यक्ति के भीतर मौजूद एक बड़ी पहचान का खण्डन व सीमित पहचान का मण्डन करना, और परोक्ष रूप से भारतीयता में किसी भी एकसूत्रता को नकारना अरुंधती की मूर्खता है  या मक्कारी?

ये ठीक है कि कुछ लोगों में आत्मघृणा के तत्व होते हैं- एक दौर में सभी में होते हैं जिस की अभिव्यक्ति वे अपने माँ-बाप से नफ़रत करके करते हैं- लेकिन अधिकतर लोग अपने आप से, अपने परिवार से और देश से मोहब्बत करते हैं और उस पर किए हुए किसी भी हमले को पसन्द नहीं करते। लगातार भारतीयता की पहचान पर हमला करने वाली अरुंधती की इस आक्रामकता को उनकी मूर्खता कहा जाय या मक्कारी?

अरुंधती कश्मीर में जाकर कश्मीरी पण्डितों के पलायन को बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यको पर अत्याचार न कहकर, एक त्रासदी भर बताती हैं और सैय्यद अली शाह गीलानी की मासूमियत और बदले तेवर से अभिभूत नज़र आती हैं। क्या कोई भी समुदाय अपने पूर्वजों की ज़मीन, घर-बार, ज़मीन-मकाना सिर्फ़ इसलिए छोड़कर भाग खड़ा होता है कि उसे किसी गर्वनर ने कहा है? एक क्षेत्र विशेष से, एक समूह का उसके ख़िलाफ़ बने आतंक के माहौल से घबरा कर पलायन की इतिहास में दूसरी भी मिसालें हैं। क्या अरुंधती इतनी ही मासूमियत से उन्हे भी महज़ त्रासदी, उनकी दुख भरी कहानियों को मनगढ़न्त कह सकती हैं? क्या वे यही बात जर्मनी से यहूदियों के पलायन और नक़बा के वक़्त फ़िलीस्तीन से अरबों के पलायन के लिए भी कहेंगी? यह ठीक है कि पण्डितो का मामला हत्याओं व पलायन के परिमाण में ठीक-ठीक जर्मनी के यहूदियों और फ़िलीस्तीनी अरबों जैसा नहीं है मगर उसका चरित्र वही है। महमूद अहमदीनेज़ाद के होलोकास्ट को नकारने की तर्ज़ पर अरुंधति का मानना कि पण्डितों पर हुआ अत्याचार अधिकतर मामलों में उनके द्वारा पैदा की गई एक झूठी कहानी है- यह अरुंधती की मूर्खता है मक्कारी?

याद रहे सैय्यद अली शाह गीलानी वही शख़्स हैं जिन्होने १९८९-९० में “आज़ादी का मतलब क्या? ला इलाहा इल अल्ला!” चिल्लाकर पण्डितों को हत्याओ करने और अन्ततः उन्हे घाटी से खदेड़ने वाली हिंसक भीड़ का (परोक्ष या अपरोक्ष) नेतृत्व किया था। और ये वही गीलानी हैं जिन्होने दो बरस पहले ही श्राइनबोर्ड विवाद के समय पण्डितों से निरापद हो चुकी कश्मीर घाटी की डेमोग्राफ़िक्स बदलने की साज़िश का राग अलापकर ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का कार्ड खेला था। पाकिस्तान के ख़ुले समर्थक और जमाते 'इस्लामी'  के नेता गीलानी में गाँधी की छवि देखने वाली अरुंधती मूर्ख हैं या मक्कार?

किसी भी समस्या का एक राजनैतिक समाधान होता है- राजनैतिक समाधान का अर्थ कि जिसमें एक ऐसे हल की दिशा में अग्रसर हुआ जाता है जो व्यावहारिक हो, जिसे लागू किया जा सके, और जो सभी पक्षों को स्वीकार्य भी हो। लेकिन अरुंधती के पास किसी भी समस्या के हल जैसा कुछ भी नज़रिया नहीं है। अरुंधती जो कुछ भी विचारती हुई दिखती हैं वे आदर्शवादी नैतिकता की जुगालियाँ हैं, राजनीति नहीं। वे उत्पात को बढ़ाने में, फ़ित्‌ने की भाषा बोलने में और ऐसे अतिवादी जुमले फेंकने में तत्पर दिखती हैं जो दिखते-सुनने में तो बड़े लुभावने मालूम होते हैं मगर समस्या के निराकरण में उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती।

मगर उनकी सबसे बड़ी ताक़त यही है कि वे एक जुमलेबाज़ हैं। जो पहले से कहे हुए प्रस्थापनाएं हैं उन्हे वे अतिश्योक्त्ति की चाशनी में डाल के परोसने में सिद्धहस्त हैं। इस लिहाज़ से वे देश के पढ़े-लिखे उदारवादी तबक़े के लिए वैसे ही हैं जैसे कि बिहार के अनपढ़ अहिरों के लिए लालू यादव थे। लालू भी अपनी जुमलेबाज़ी से एक ऐसा माहौल रचते थे कि वे कोई वास्तविक आन्दोलन खड़ा कर रहे हैं और एक वास्तविक परिवर्तन के अग्रदूत हैं। मगर सच्चाई इस से कोसों दूर थी, लालू सिर्फ़ अपने हित साध रहे थे। अरुंधती क्या साध रही हैं- ये फ़िलहाल तो ठीक-ठीक नहीं खुल रहा? यहाँ तक कि उनके खोखले जुमलों का सच भी बहुत सारी ‘लिबरल जमात’ पर नहीं खुल रहा। इकतरफ़ा और अतिरंजित जुमले पेश कर के देश की लिबरल जमात को गुमराही के राह पर धकेलना अरुंधती की मूर्खता है या मक्कारी?

अब जैसे अरुंधती का ये जुमला देखिये कि भारत एक सवर्ण हिन्दू राज्य है। क्योंकि यहाँ मुसलमानों, दलितों, ईसाईयों, सिखों, आदिवासियों, कम्यूनिस्टो और प्रतिरोध करने वालों ग़रीबों पर अत्याचार होता है। लेकिन ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है, जिसमें सवर्णों की सत्ता की रक्षा के लिए नहीं दलितों और पिछड़ों को सत्ता में शामिल करने के लिए क़ानून बनते हैं। ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें तमिलनाडु से लेकर उत्तर प्रदेश तक सत्ता पर दलित राजनीति का वर्चस्व है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य जिसमें देश की अनेक समस्याओं के लिए ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों को दोषी ठहराया जाता है और गरियाया जाता है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें ब्राह्मण नहीं, दलित के सम्मान की रक्षा के लिए हर सम्भव जगह बनाई जा रही है? अरुंधती जैसी ‘विद्वान’ और ‘सचेत’ महिला भी इस अन्तर को देख पाने और चिह्नित करने में क्यों चूक जाती हैं कि इस राज्य व समाज में अब अगर कोई बायस है तो अब दलितों और पिछड़ों के पक्ष में।

इस 'सवर्ण हिन्दू राज्य' पर अरुंधती समेत सभी माओवादी एक दूसरे आकलन से आरोप  लगाते हैं कि इस देश को साम्राज्यवादी शक्तियां यानी अमरीका आदि और उनके दलाल यानी सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, अज़ीम प्रेम जी, अम्बानी बंधु, टाटा आदि चला रहे हैं। अगर सचमुच ऐसा है तो क्या वे मानते हैं कि इस सवर्ण हिन्दू आग्रह की जड़ अमरीका तक जाती है? और क्या अरुंधती ये मानती हैं कि टाटा, सोनिया और मनमोहन हो सकते हैं पारसी, ईसाई और सिख मगर चिंता सवर्ण हिन्दू हितों की करते हैं? और आप ख़ुद सोचिये कि अम्बानी अपनी नीतियां तय करते वक़्त हिन्दू हित की चिंता करते हैं? भारत को सवर्ण हिन्दू राज्य बतलाने वाली अरुंधती कश्मीरी आन्दोलन का स्पष्ट वहाबी सुन्नी मुस्लिम चरित्र देखने में जो चूक जाती हैं उसे मैं उनकी मूर्खता समझूँ या मक्कारी?

अरुंधती मानती हैं कि भारत एक कोलिनियल शक्ति है? अरुंधती ने ये बयान कश्मीर जाकर दिया है। कहने का मतलब ये कि वे यह असर पैदा कर रही हैं कि भारत ने कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाया हुआ है। अब तो यह बात आमफ़हम है कि कोई भी ग़ैरकश्मीरी कश्मीर में ज़मीन ख़रीद कर वहाँ अपनी रिहाईश नहीं कर सकता। न तो कोई व्यक्ति और न ही कोई कारपोरेट। और ये भी बात सार्वजनिक है कि भारत या भारत स्थित कोई कारपोरेट कश्मीर से किसी सम्पदा का हरण नहीं कर रहा बल्कि सच्चाई उलटी है, भारत वहाँ पर करदाता के पैसे का बुरी तरह से अपव्यय कर रहा है जिससे मैं स्वयं नाख़ुश हूँ। कश्मीर के सन्दर्भ में उनका यह बयान बिलकुल निर्मूल है। फिर भी अरुंधती इसे बेहद आत्मविश्वास से प्रचारित कर रही हैं। आप बताइये कि उनके इस आत्मविश्वास के पीछे उनकी मूर्खता है या मक्कारी?

दूसरी तरफ़ उनके माओवादी साथी, जिनकी प्रवक्ता की तरह भी अरुंधती सक्रिय हैं, भारतीय राज्य को अमरीकी पूँजी का दलाल बताते हैं। जब उनके समर्थन में अरुंधती बयानबाज़ी कर रही होती हैं तो उनके मुखारविंद से यह भारत एक कोलोनियल शक्ति वाली प्रस्थापना अवतरित नहीं होने पाती, क्यों? क्या इसलिए कि उनके बाज़ू में खड़े होकर अरुंधती कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहती जो उनकी प्रस्थापना के आड़े जाकर उन्हे नाराज़ कर दे? तो इस तरह की मुँहदेखी बात करना अरुंधती की मूर्खता है या मक्कारी?

अरुंधती मानती हैं कि भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करता है? डा० ज़ाकिर नाइक जो ओसामा और तालिबान की ख़ुलेआम ताईद करने की वजह से इंगलिस्तान जाने का वीज़ा हासिल नहीं कर पाए हैं, हिन्दुस्तान में कुछ भी कहने-सुनने के लिए आज़ाद हैं। अपनी मनचाहे विचारों का प्रचार करते हुए वे मानते हैं कि भारत में बोलने की जितनी आज़ादी है उतनी कहीं नहीं। अफ़सोस कि अरुंधती डा०नाइक की तरह साफ़गो नहीं हैं, जो मनचाहे बोलने के लिए आज़ाद होने के बावजूद बेड़ियों की दुहाई देती हैं। तो इसे उनकी मक्कारी कहा जाय या मूर्खता?

अरुंधती मानती हैं कि वे एक स्वतंत्र मोबाइल रिपब्लिक हैं? सुनने में यह जुमला बेहद आकर्षक लगता है। लेकिन इस जुमले का खोखलापन किसी ने जाँचा नहीं ठोस सवालो की चोट से। पूछा जाना चाहिये कि एक विराट इम्मोबाइल रिपब्लिक के भीतर स्वतंत्र मोबाइल रिपब्लिक होने की आज़ादी उन्हे मिली कहाँ से? क्या यह आज़ादी चीन में है? क्या सोवियत रूस में थी? क्या क्यूबा, ईरान, साउदी अरब में है? और क्या कश्मीर में है? जहाँ मीरवाइज़ मौलवी फ़ारुक़, अब्दुल गनी लोन और न जाने कितने दूसरे नेता पाकिस्तान समर्थित कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवादियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए, क्यो? क्योंकि वे थोड़ी सी वैचारिक आज़ादी का मुज़ाहिरा कर रहे थे। अरुंधती अपने स्वतंत्र मोबाइल रिपब्लिक होने का सेहरा अपने सर पर आप बाँधे घूमती हैं; उसी रिपब्लिक को जुतियाते और थुकियाते हुए, जिसने उन्हे ‘स्वतंत्र’ होने की आज़ादी दी है.. इसे उनकी मक्कारी कहा जाय या मूर्खता?

अरुंधती मानती हैं कि कश्मीर में पिछले तीन माह से भारतीय सुरक्षा सेनाएं निरपराध निहत्थों पर गोलियाँ चला रही हैं? एक तो ये सफ़ाई कर ली जाय कि पत्थर फेंकती भीड़ निहत्थी नहीं होती, जैसे तमाम लोग बता रहे हैं। इस मसले में पूछने की बात ये है कि सुरक्षाकर्मियों गोलियाँ चला रहे थे इसलिए लोग पत्थर फेंक रहे थे? या लोग पत्थर फेंक रहे थे इसलिए सुरक्षाकर्मी उन्हे गोली के डर से धमका कर रोकने की कोशिश कर रहे थे? मेरा ये मानना है कि एक सौ ग्यारह नहीं एक मौत भी बेहद अफ़सोसनाक है, नहीं होनी चाहिये थी। लेकिन ज़रा सोचिये दुनिया की कौन सी सरकार होगी जो पत्थर फेंकती भीड़ के आगे समर्पण कर देगी? राज्य का काम व्यवस्था रखना है, अराजक भीड़ की हिंसा के आगे समर्पण करना नहीं? अगर, मिसाल के तौर पर अगर मैं गीलानी साहब या मैडम अरुंधती की प्रेस कान्फ़्रेन्स में जाकर पत्थर फेंकना चालू कर दूँ तो क्या मेरा विरोध प्रदर्शन हिंसक कहलाएगा या अहिंसक?

पिछले कई दशकों से पाकिस्तान सक्रिय रूप से कश्मीर में तरह-तरह से फ़ित्ना खड़ा करने की मुहिम छेड़े हुए है। हर साल हज़ारों नौजवान और अरबों रुपये सीमा पार से कश्मीर में भेजे जा रहे हैं। हर मुमकिन कोशिश की जा रही है कि ऐसी सूरत खड़ी हो कि भारत में फिर से साम्प्रदायिक आधार पर बँटवारा हो; और इस विशाल देश को छियत्तर टुकड़ों में बाँट दिया जाय और कश्मीर उस योजना की एक केन्द्रीय कड़ी है। खालिस्तानियों और श्रीलंकाई तमिल अलगाववादियों के साथ दिल्ली में आज़ादी का उदघोष करने वाली अरुंधति ये मानकर चल रही हैं कि एक राष्ट्र के छिहत्तर टुकड़े हो जाने से न्याय और शांति की स्थापना हो जाएगी? छिन्न-भिन्न हो जाने में सुनहरे सवेरे को देखने की उनकी यह मासूमियत और इस पूरी तस्वीर में पाकिस्तानी पहलू को नज़रअदांज़ कर देना अरुंधती की मक्कारी है या मूर्खता?

विद्वान लोग बताते हैं कि एक चरित्र वाले लोग एक-दूजे के सदैव शत्रु होते हैं। तो फिर निश्चित ही यह संयोग नहीं है कि अरनब गोस्वामी को सबसे अधिक चिढ़ अरुंधती से है और अरुंधती को अर्नब गोस्वामी से है; अभी हाल की प्रेस कवरेज के बाद अरुंधती की प्रेस कान्फ़रेन्स से टाइम्स नाउ वालों को निकाल दिया गया। अरनब गोस्वामी, राखी सावन्त और अरुंधती राय में वैसे तो बड़ा अन्तर है। लेकिन एक स्तर पर उनमें कोई अन्तर नहीं है, कि ये सभी एक अतिवादी सोच, एक सनसनीखेज़ बयानबाज़ी करके ध्यानार्कषण की नीति में यक़ीन रखते हैं।

अरुंधती कभी माओवादियों से नहीं पूछती कि तुम इन बंदूक की नली से निकालकर सत्ता पा जाओगे तो कौन सा समाज बनाओगे? वो माओवादियों की चन्दाउगाही की भ्रष्ट नीति- जो घूस लेके उद्योगपतियों को मज़े से अपना धंधा चलाने का अधिकार देती हैं- पर कभी सवाल नहीं करतीं? क्यों? क्यों कश्मीरियों के कट्टरपंथी धार्मिकता, उनकी साम्प्रदायिकता और पण्डितों के प्रति घृणा पर वो कभी उन्हे खरी-खरी नहीं सुनातीं? क्यों कभी उनसे नहीं कहतीं कि बन्द करो मासूम नौजवानों को भड़काना? बन्द करो उनके हाथ में गोली, बन्दूक और पत्थर देकर उन्हे बरबादी के रास्ते पर धकेलना? क्यों? क्योंकि वे डरती हैं कि अगर उन्होने राज्य के साथ-साथ आन्दोलनकारियों को भी उसी सुर में गलियाना शुरु कर दिया तो उनको भाव कौन देगा? इसीलिए अगर उनका आन्दोलनकारियों से अलग उनका कोई मत हो भी तो वे उसे ‘इण्डिया-बैशिंग’ के सप्तम सुर से बहुत नीचे, बहुत मंद्र स्वर में उच्चारित करती हैं? क्यों?

अगर कोई यह समझता है कि इतिहास में बदलाव जनान्दोलनों के ज़रिये आते हैं तो वे अहमको़ की ख़ामख़याली में जी रहा है। ज़रा सोचिये मानव जीवन की जिस शकल को हम जी रहे हैं उसे किस जनान्दोलन ने पैदा किया है? मानव जीवन को संवारने और उसे ख़ूबसूरत बनाने वाली शक्तियाँ एकल व्यक्तियों की मेधा, और कुछ संयोगो का मिला-जुला करिश्मा होता है। भीड़, और ख़ासकर नारे लगाने वाली, पत्थर फेंकने वाली उन्मादी, दंगाई भीड़ लूटमार कर सकती है, आगज़नी कर सकती है, तोड़-फोड़ कर सकती है, लेकिन रच सिर्फ़ फ़ित्ना ही सकती है और कुछ नहीं। और अरुंधती, इस देश के बहुत सारे संवेदनशील नौजवान और मेरे बहुत से अज़ीज़ दोस्त अभी तक यही समझते हैं कि ग़ुस्साई भीड़ के हिंसक आक्रोश के नताईज से नया मनुष्य पैदा होगा और नया समाज रचेगा। किसी मज़लूम अवाम का स्वतःस्फूर्त तरीक़े से कभी क्रुद्ध हो उठना एक बात है लेकिन सचेत-संगठित सोच के तहत उस क्रोध को विकसित करना और उससे मुक्तिकामी परिवर्तन की उम्मीद रखने को उनकी मूर्खता माने या मक्कारी?

अरुंधती बोलती हैं एक बेहद ऊँचे नैतिक मंच से जहाँ से सारे व्यावहारिकताएं अनैतिक और अनर्गल मालूम देती हैं। वो जहाँ से खड़ी होकर बोलती हैं वहाँ से उनसे असहमत सारे लोग दलाल और अत्याचारी नज़र आते हैं। लेकिन उनकी अपनी सोच एक बेहद सर्वसत्तावादी सोच है। वे लगातार दुहाई देती हैं कि सरकार ने यह नहीं किया, वह नहीं किया, सरकार इस बात की दोषी है, उस बात की दोषी है। कहने का अर्थ ये है कि वे परोक्ष रूप से यह कहती हैं कि राष्ट्र की सीमाओं के भीतर उसके नागरिकों के जीवन में क्या-क्या घटता है, या नहीं घटता है इसकी सीधी ज़िम्मेदारी सरकार पर है, या उसके विभिन्न घटकों पर है। अरुंधती घटको की अलग से बात नहीं करती, वे सीधे एक मोटे तौर पर राज्यसत्ता की बात करती हैं। मुझे नहीं लगता कि ऊपर-ऊपर से इसमें कोई आपत्तिजनक बात दिखती है लेकिन ये बात अन्दर से बेहद ख़तरनाक अवधारणा है। इसी सोच के साथ जब लोग सत्तातंत्र पर क़ाबिज़ होते हैं तो लोगों के जीवन के नियंता बन बैठते हैं और सार्वजनिक जीवन ही नहीं लोगों के व्यक्तिगत जीवन के भी हर पहलू में दखलंदाज़ी करने लगते हैं क्योंकि ऐसा करना वे अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं। इस सोच के क्या दुष्परिणाम निकलते हैं वो हम तमाम ऐतिहासिक उदाहरणो से पहले से ही जानते हैं।

भारतीय विषमताओं और समस्याओं के प्रति सचमुच दुखी व पीड़ित रहने वाले लिबरल जमात के लोग जो अरुंधती जैसी अतिवादी राजनैतिक समझ के जुलूस में मुर्दाबाद के नारे लगाने वाले हुए ये देख नहीं पाते कि यह उनके नैतिकमोक्ष का मार्ग नहीं है। व्यावहारिकता का रास्ता नीरस, कठिन और लम्बा होता है, क्रांतिकारिता आकर्षक, आसान और फ़ौरी? मगर व्यावहारिकता का मध्यमार्ग ही वह एकमात्र उपाय है जिस से सबका मंगल और सब ओर शांति संभव है। लेकिन व्यावहारिकता की धुरविरोधी अरुंधती हमेशा एक अतिवादी नैतिकता बघारती नज़र आती हैं। फिर पूछता हूँ इसे उनकी मूर्खता माना जाय या मक्कारी?

एक ऐसी दुनिया जिसमें सत्ता की शकल अब तक हिंसा से तय होती आई है, अरुंधती का यह अपेक्षा कि अहिंसा की सर्वोच्च नैतिकता निभाने की ज़िम्मेवारी राज्य पर है, हास्यास्पद है। ये एक आदर्श के रूप में तो भली मालूम देती है लेकिन व्यावहारिक कसौटी पर यह बात किसी समाज को एक दिन भी सुरक्षा और शांति नहीं दे सकती। अन्त में मैं कहता हूँ कि मैं कश्मीरियों की साम्प्रदायिक आन्दोलन से मूलभूत असहमति रखता हूँ फिर भी कश्मीरियों, और नागाओं को अपने भाग्यनिर्धारण का हक़ मिलना चाहिये, इसका समर्थन करता हूँ। साथ ही मैं माओवादियों के साथ भले न होऊँ लेकिन आदिवासियों की वनसम्पदा का उपयोग किस तरह से हो इस प्रक्रिया में उनकी राय सब से अहम हो, इस माँग की भी ताईद करता हूँ। मेरी विनम्र असहमति सिर्फ़ अरुंधती के अतिवाद और उनकी इण्डियाबैशिंग से है।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

विनोद कुमार शुक्ल : कुछ अनमोल वचन



  • मेरी रचनाएं मेरे बाद सब को सम्बोधित हैं पर सब सुनें, यह ज़रूरी नहीं। 
  • लिखने के कर्म से जो जुड़े हुए हैं वे अपने थोड़े से दायरे में जनता के सुनसान में होते हैं।


  • जब लिखा हुआ सुनसान में है तो लेखक भी है।


  • हम रचना में भाषा से अन्तर्निहित में जाते हैं। भाषा एक दूरी होती है, अर्थ के पहुँचने तक की यह दूरी पार करनी होती है।


  • लगातार जटिल होते संसार में कविता बार-बार अधिकतम अभिव्यक्त होती रहेगी। कविता अत्यन्त बौद्धिक, अत्यन्त अभिव्यक्ति के लिए होगी। अत्यन्त बौद्धिक होना अभिव्यक्ति की एक सरलता होगी।


  • अपनी लिपि में भाषा सुरक्षित रहती है, लिपि भाषा के लिए क़िले की तरह है।


  • जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्यक्ति का स्थायित्व नहीं था जो लिखे जाने से बनता है।


  • उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है। और एक दस क़दम की कविता भी देर तक की चहलक़दमी होती है।


  • दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।


  • आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।


  • रचना पाठक की शर्त पर नहीं होती, रचना की शर्त पर पाठक होते हैं।


  • यथार्थ सुख देता है तो स्वप्न जैसा और दुख देता है तो यथार्थ जैसा। 

  • अगर यथार्थ का एक यथार्थ है तो दूसरा यथार्थ कल्पना का भी है।


(कथादेश, अक्तूबर २०१० के अंक में प्रकाशित उनके साक्षात्कार से निकाले कुछ सूत्र) (रेखाचित्र: प्रमोद सिंह)



शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

अमन के लिए फ़ैसला.. इंसाफ़ नहीं है!



साठ साल बाद एक जटिल मसले पर फ़ैसला आया है। इस देश में न्यायिक प्रक्रिया की धीमी निष्क्रिय गति को देखते हुए तमाम लोग शुक्र मना सकते हैं कि वे अपने जीवनकाल में न्यायालय को एक फ़ैसला सुनाते हुए देख पा रहे हैं। बार-बार बताया जा रहा है कि यह एक नया भारत है, और नया भारत आगे बढ़ गया है, और नए भारत के आगे बढ़ जाने का ये भी एक लक्षण है कि वह कठिन फ़ैसले सुनाने में घबराता नहीं है तो यह अच्छी बात है।

लेकिन जो फ़ैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूँ। ऐसा नहीं लगता है कि यह किसी न्यायालय का फ़ैसला है। लगता है कि जैसे किसी सदय पिता ने अपने झगड़ते बच्चों के बीच खिलौने का बँटवारा कर दिया है- लो तीनों मिलकर खेलो! मैं कोई न्यायविद नहीं हूँ और न ही मैंने सम्पूर्ण फ़ैसले का अध्ययन किया है। लेकिन निर्णय का संक्षेप पढ़ने से जो बात समझ आती है वह ये है कि चीज़ों का फ़ैसला ताथ्यिक आधार पर नहीं बल्कि मान्यताओं के आधार पर किया गया है।

अब जैसे विवादित स्थल पर मन्दिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है। दूसरी ओर कई सालों से खड़ी मस्जिद पर से वक्फ़ बोर्ड के अधिकार को इस क़ानूनी पेंच के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया कि उन्होने मुक़द्दमा करने में छै साल की देरी कर दी। और अगर वक़्फ़ बोर्ड का अधिकार उस ज़मीन पर है ही नहीं तो उन्हे एक तिहाई हिस्सा दिया ही क्यों जा रहा है? क्या यह अदालत के द्वारा उदारता का प्रदर्शन है? या समाज में व्यापक शांति बनाए रखने के लिए एक सौहार्दपूर्ण कोशिश?

हाँ यह ठीक है कि अगर फ़ैसला यह आता कि ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड की है मस्जिद की फिर से तामीर हो, तो हिन्दू सेनाएं फिर से जूझने लगतीं और देश फिर से बेकार के टंटो में उलझ जाता। और अगर यह फ़ैसला आता कि विवादित ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड का कोई हक़ नहीं और वहाँ पर पहले भी मन्दिर था और आगे भी मन्दिर बने तो मुस्लिम मानस निराशा के अँधेरों में डूबकर किसी भयानक नकारात्मकता का शिकार हो जाता। एक तरह से देखा जाय तो ये फ़ैसला दोनों के बीच एक मध्यमार्गी फ़ैसला है, जो अमन व शांति के लिए शायद बेहतर है।

पर क्या यह अदालत का काम है कि वह ज़मीन की मिल्कियत से जुड़े एक मामले पर अमन और शांति की परवाह के नज़रिये से अपना फ़ैसला सुनाए? तथ्यों के आधार पर फ़ैसला एक होना चाहिये लेकिन कहीं आस्थाएं न आहत हो जायं तो दूसरा फ़ैसला बता दे? यह काम तो सामाजिक संगठनों और राजनैतिक दलों का होना चाहिये! लेकिन अफ़सोस! सामाजिक संगठन और राजनैतिक दल समाज को जोड़ने का नहीं तोड़ने का काम कर रहे हैं। और उनके घोर अपराधों की बहुमत का समर्थन होने की आड़ में छिपाया जा रहा है!

मैं पूछना चाहता हूँ कि इस देश में क्या क़ानून एक निरपेक्ष वस्तु है या वह आदमी की आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक हैसियत देखकर तय होता है? क्या सीवान में कौमरेड चन्द्रशेखर के हत्यारे शहाबुद्दीन को इसलिए सजा नहीं मिलनी चाहिये क्योंकि उसे वहाँ की जनता का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है? क्या कश्मीर से पण्डितों की सुनियोजित ढंग से हत्या करने वाले व्यक्तियों को इसलिए खुले तौर पर राजनीति करते रहने की अनुमति इसलिए मिलती रहनी चाहिये क्योंकि उन्हे छेड़ने से घाटी में शांति लाने की प्रक्रिया को ठेस पहुँचती है? गुजरात में मोदी ने जनता से दोबारा पाँच साल राज करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है क्या इसी बिना पर उसके १२०० निर्दोष मुसलमान नागरिकों की सुनियोजित हत्याकाण्ड चलाने का अपराध माफ़ हो जाता है?

अगर ऐसा नहीं है तो जिस आदमी ने देश के कोने-कोने में जा कर एक महत्वहीन मस्जिद को हिन्दू सम्मान के अतिक्रमण का प्रतीक बनाकर और उस के आधार पर देश के बेरोज़गार नौजवानों की बेकार ऊर्जा को पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ़ प्रेरित करने का जो ऐतिहासिक अपराध किया था, उसे उन सारी हत्याओं का ज़िम्मेदार मानकर सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये, जो बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद उस कारण इस देश में हुई हैं, और दूसरे देशों में भी हुई हैं। अगर हत्या करना अपराध है तो हत्या करने के लिए उकसाना भी अपराध है!

ये बात हमें साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। और न ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दा है बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, और मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का ज़मीनी झगड़ा चल रहा था बहुत सालों से। १८५५ तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेज़ों को इस मामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन ग़ौर करने योग्य बात ये है कि आज़ादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताक़त और सत्ता के ज़रिये इस ज़मीन को क़ब्ज़ियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आज़ादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुज़ाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!

ये कोई ढकी-छिपी बात नहीं है, सब जानते हैं कि इस्लाम में बुतशिकनी का एक इतिहास है, एक परम्परा है। मक्का से लेकर भारत तक मुसलमान मूर्तियों को तोड़ते आए हैं। भारत में भी साढ़े छै सौ साल के इतिहास में बहुत से शासक ऐसे भी हुए हैं जिन्होने बहुसंख्यक समुदाय की आस्थाओं को समझते हुए मन्दिरों का निर्माण भी करवाया है लेकिन मुख़्तलिफ़ मुस्लिम शासक बुतशिकनी में मुलव्वस भी होते रहे हैं।

मन्दिरों के तोड़े जाने की बात को स्वीकार करने में बड़ी परेशानी है। एक पक्ष इस अतिचार से इस हद तक आहत हो जाता है कि उस की ज़िम्मेवारी आज के सारे मुसलमानों पर थोपने लगता है, और मुसलमान घबरा कर ऐसे किसी भी अतिचार को मानने से ही इंकार करने लगता है, और उन आक्रांताओ से अपना अलगाव करने के बजाय उनसे चिपटता जाता है। और तीसरा पक्ष, सामाजिक सौहार्द के नाम पर, सिर्फ़ क़ानूनी पहाड़े याद करने लगता है।

जो काम आज अदालत ने किया है – कि आस्था ही प्रमाण है – यह काम बहुत पहले सामाजिक संगठनो और राजनैतिक दलों को करना चाहिये था; और इस्लाम में मस्जिद का कोई महत्व नहीं है, वह सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की एक जगह है। इस्लामी राज्यों में मस्जिद को एक जगह से दूसरे जगह पर विस्थापित कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हमारे नेता चाहते तो मुस्लिम समाज को विश्वास में लेकर इस दिशा में क़दम बढ़ा सकते थे, लेकिन हमारे देश के किसी भी राजनैतिक दल में ये साहस नहीं था, न ही है।

अदालत ने आज जो सामाजिक सौहार्द की पुनर्स्थापना का जो क़दम उन्होने उठाया है, उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया, उन्होने उलटा किया। हिन्दुओं के भीतर के इस पराजय बोध, और मुसलमानों के भीतर बैठी असुरक्षा और अपने आत्मसम्मान की रक्षा की भावना का इस्तेमाल किया- सत्ता को हासिल करने के लिए। राजीव गाँधी, लाकॄ आडवाणी, लालू और मुलायम.. सब ने एक या दूसरे समुदाय का राजनैतिक इस्तेमाल करने के दोषी हैं।

लेकिन सारे दोषियों का सिरमौर, लालकृष्ण आडवाणी है। पराजय की भावना एक रोग है, उस से प्रेरित होकर सिर्फ़ और सिर्फ़ पाप किया जा सकता है। और आडवाणी ने देश के नौजवानों को किसी स्वस्थ भाव की प्रेरणा नहीं दी, एक रुग्ण कुण्ठा को कुरेद कर एक राक्षसी आन्दोलन पैदा किया था इस व्यक्ति ने। अपने आन्दोलन के तेवर से उसने सुझाया था कि मस्जिद गिरा देने से हमारे भीतर के पराधीनता की जातीय स्मृति का  निराकरण  हो जाएगा। लेकिन ऐतिहासिक तथ्य क्या कुछ तोड़-फोड़ करने से मिट जाते हैं? और वैसे भी दूसरे को अपमानित करने से अपना सम्मान नहीं होता, न हुआ! स्वाधीनता, आत्मविश्वास और सफलता के उगने की ज़मीन कुछ और ही होती है, कुण्ठा नहीं। 

इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी  और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।

ये फ़ैसला ठीक है लेकिन इसी के आधार पर अपने मुसलमान भाईयों के बीच  एक सहजता की उम्मीद करना बेकार है। वे स्वेच्छा से, आपसी बातचीत से, क़ानूनी फ़ैसले के आधार पर, उस स्थान को राममन्दिर बनने के लिए दे देते तो कोई बात नहीं थी। लेकिन ये स्वेच्छा से नहीं हुआ है। सुनियोजित तरह से, जगह-जगह भड़काऊ भाषण कर के मुस्लिमों को नीचा दिखाने के लिए इस मस्जिद को दंगाईयों ने तोड़ा था। इसके पहले कि ऐसा अपमान, ऐसा पराजयबोध, उनके भीतर भी एक रुग्ण-कुंठित मानसिकता को जन्म दे, हमें चाहिये कि इस अपमान के असली अपराधियों पर मुक़द्दमा चलायें। अभी जो हुआ है ये इंसाफ़ नहीं है; उन अपराधियों को दण्डित करना ही असली इंसाफ़ होगा।

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रविवार, 19 सितंबर 2010

बुरक़े में दाढ़ी


क्या आप ने कभी सोचा है कि पुरुष को ही क्यों सर्वशक्तिशाली ईश्वर ने श्मश्रु से पुरस्कृत किया है? क्या यह इसलिए है ईश्वर स्वयं एक नर है और चूंकि पुरुष उस विराट कालपुरुष का सूक्ष्म संस्करण है इसलिए उसके दाढ़ी-मूंछ होना स्वाभाविक है? ये दीगर बात है कि बीसवीं सदी के आरम्भ में जनमी कैलेण्डर आर्ट के अनुसार क्षीर सागर में शयन करने वाला वह वैकुण्ठी विष्णु सदैव श्मश्रुहीन अवस्था में ही पाया जाता है। वैसे सोचने की बात तो ये भी है कि किन कलात्मक आग्रहों और दबावों के चलते आर्टिस्ट ने ऐसा चुनाव किया होगा कि सभी अवतारी पुरुषों से उनकी पुरुषत्व का सबसे सहज प्रतीक छीन लिया होगा?

प्रकृति में भी कुछ अन्य भी उदाहरण ऐसे हैं जिनमें नर और मादा का स्वरूप अलग-अलग होता है। अब जैसे नर बाघ और मादा बाघ के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है जबकि नर सिंह और मादा सिंह के रूप में में बड़ा गरु अन्तर है। वही दाढ़ी!

वैज्ञानिक मानते हैं कि यह कभी संयोग भले रहा हो लेकिन बाद में इन संयोगो के निमित्त बने प्राणी अपनी वंशवृद्धि में अधिक सफल होने के कारण ये बदलाव रूढ़ हो गए। ऐसे कुछ अन्य भी प्राणी हैं जिन्होने अपनी हिंसा और आक्रामक वृत्ति की पहचान को दूर से ही बतला देने के लिए इस प्रकार की आकृति का चुनाव किया है। दूसरी तरफ़ कुछ प्राणियों की मादाओं ने भी अपने विभिन्न अंगो को रंगों और आकृति से नर के लिए आकर्षक बनाया है। कुछ प्राणियों में आकर्षण का यह काम नर करते हुए मिलते हैं विशेषकर पक्षियों में। कौन आकर्षण कर रहा है, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि समागम के चुनाव का अधिकार किस के पास है। अगर नर के पास है तो मादा आकर्षण का काम सम्हालती है, और जिन प्राणियों में मादा चुनाव करती है तो नर आकर्षक बनाता हैं स्वयं को।

मनुष्य में, सिंह की ही तरह, गर्भाधान का चुनाव नर के पास है। वह अपनी हिंसक और आक्रामक वृत्ति से यह फ़ैसला करता रहा है कि कौन पुरुष गर्भाधान करेगा। क्या आश्चर्य है कि कृष्ण भगवान की १६००८ रानियां थीं; कि लम्बे समय तक एकपत्नीव्रत का पालन करने वाले मुहम्मद साहब की पत्नियों की संख्या, विजयी होने के बाद अल्पकाल में ही ग्यारह हो गईं थी, ग़नीमत में मिली दासियां अलग से; कि दुनिया में इस समय सबसे अधिक वंशज विश्वविजेता चंगेज़ खां के हैं, जिसने मंगोलिया से लेकर योरोप तक अनेक उपजाऊ धरतियों को रौंदा था? कोई आश्चर्य नहीं, यह संसार का नियम रहा है! मगर क्यों? क्यों कि विजेता के जीत ने उसके सर्वोत्तम जीन का मालिक होने पर मोहर लगा दी है, और इसलिए प्रकृति ने उसे अपने जीन के प्रसार का अधिकार दिया है। सरवाइवल औफ़ द फ़िटेस्ट का सिद्धान्त यही है।

अपने आत्मप्रसार के लिए हिंसक और आक्रामक वृत्ति की बाहिरी अभिव्यक्ति बनी रही है दाढ़ी। और सर्वोत्तम जीन को आकर्षित करने के लिए स्त्रियों ने अपने स्वरूप में से इस दाढ़ी का पूरी तरह से परित्याग किया और चिकने, सौम्य और सुडौल स्वरूप का वरण किया ताकि इस चुनाव में वह स्वयं भी एक भूमिका निभा सके। याद रहे मित्रो कि पहले एक अवस्था यह थी, वैज्ञानिकों के अनुसार (कुछ लोग उसे नहीं भी मानते हैं), जबकि आदमी और औरत दोनों का शरीर बालों से भरा हुआ था, अन्य सभी थलीय प्राणियों की तरह।

लेकिन प्रगति ने देखिये कैसे बदल दिया है संसार का रंग-ढंग। जैसे-जैसे सभ्यता ने क़दम बढ़ाये, आदमी ने कपड़े पहने और सामाजिक संरचनाओं के ज़रिये व्यक्ति की हिंसा को नियंत्रित करने के लिए क़ानून बनाये, तो प्राकृतिक नियमों से उसकी दूरी बढ़ती गई। और मनुष्य प्रकृति के नियमों से अलग मनुष्यता के मूल्यों, जिन्हे अक्सर धर्म की संरचना में भी परिभाषित किया जाता है, संचालित होने लगा। तो दया, करुणा, सहानुभूति आदि जैसे मूल्यों के चलते जिन्हे पहले सिर्फ़ स्त्रैण माना जाता था, पौरुष के दायरे में प्रबलता पाने लगे। और तमाम संस्कृतियों में दाढ़ी की भूमिका घटती गई। कैलेण्डर आर्ट में हिन्दू भगवानों की दाढ़ी-विहीन मुखाकृतियों को इसी प्रकाश में देखा जा सकता है- ताकि उनके भीतर के करुणा और सौम्यता के गुणों को रेखांकित किया जा सके।

सभ्य होते-होते आज तो हालत ये है कि आधुनिक संस्कृति में दाढ़ी बढ़ाये रखना प्रमाद का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन सभी संस्कृतियों में दाढ़ी परम्परावादियों की पसन्द बनी रहती है। लेकिन इस दाढ़ी हट जाने से, अधिक वीर्यवान पुरुषों को गर्भाधान में जो वरीयता मिलती थी, वह कम नहीं हुई। युद्ध में विजयी सैनिक और शहरों में गुण्डे और बदमाश आज भी वैसे ही बलात्कारी वृत्ति का पालन करते हैं। साथ ही बल का जो आर्थिक स्वरूप सामने आया है, उस का उपयोग करके लक्ष्मीवान जिसे चाहे ख़रीद कर अपनी क्षुधातृप्ति करते हैं। तो क्या प्रगति के इस दौर में स्त्री को इस विषय में कोई अधिकार नहीं प्राप्त हुआ? हुआ है.. खिलाड़ी, रौकस्टार्स, फ़िल्म अभिनेता आदि दुनिया भर में लड़कियों के साथ सोने का जो लाभ उठाते हैं, उन मामलों में उनका अपना चुनाव गौण और लड़कियों का चुनाव प्रमुख होता है। वे लड़कियां तय करती हैं कि वे सोना चाहती हैं उन सितारों के साथ।

और सबसे अधिक बढ़ कर, गन्धर्वविवाह की पुरानी परम्परा को जो आधुनिक प्रेमविवाह का स्वरूप मिला है, उस में स्त्री को अपने आप को आकर्षक बनाने और सर्वोत्तम साथी को चुन सकने की बड़ी भूमिका है। वे अपने आकर्षण का इस्तेमाल गर्भाधान के लिए करें या सिर्फ़ यौनानन्द के लिए यह बात यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है। [क्योंकि गर्भनिरोधक ने स्त्रियों को सम्भोग के आनन्द को पुरुषो के ही स्तर पर ले सकने के आज़ादी दे दी है] शुद्ध गर्भाधान हो या यौनान्द, उसका लाभ वे तभी उठा सकती हैं जब कि उन्हे प्रकृति प्रदत्त सौम्यता और सुडौलता को प्रदर्शित कर के पुरुषों को आकर्षित करने का अवसर मिल सके।

लेकिन कुछ संस्कृतियां ऐसी भी हैं जो स्त्री को यह आज़ादी देने के नाम से ही भड़क जाती हैं। वे भले ये मानती हों कि ईश्वर सर्वगुण सम्पन्न हो और सम्पूर्ण हो मगर उसकी कृति व प्रकृति, जैसी ईश्वर ने बनाई वैसी स्वीकार्य नहीं है; उसे काटने-छाँटने और ढकने-छिपाने की ज़रूरत है। और इसीलिए वे स्त्री को छिपा कर रखना चाहते हैं। जबकि मेरी समझ में ऐसा करना, स्त्री ने हज़ारो बरस में प्राकृतिक चुनाव के ज़रिये जो गुण व सौन्दर्य विकसित किया है, उस पर डाका डालना है।

सोचिये अगर संयोग से, अपना मुँह छिपाये रहने वाली इन स्त्रियों में  से किसी के दाढ़ी उग आई, जोकि म्यूटेशन के चलते होता ही रहता है गाहे-बगाहे, तो उस जीन को हताश भी नहीं कर सकेगी प्रकृति। और सम्भव है कि लगातार मुँह छिपाये घूमते रहने से बेहतर विकल्प उनको यही मालूम दे कि जिस जीन को प्रकृति ने इतने हज़ारों बरसों में संजोया है उसे त्याग कर, फिर से दाढ़ी-मूँछ का 'प्राकृतिक बुर्क़ा' अपने चेहरे पर कर लिया जाय।

एक आक्रामक, हिंसक और असुरक्षित समाज में स्त्रियाँ स्वयं अपने प्रकृतिप्रदत्त सौन्दर्य को छुपाना चाहेंगी लेकिन एक सुरक्षित व स्वस्थ समाज में भी कोई स्त्री स्वयं बुरक़े के अंधेरों में बन्द होने का चुनाव कर सकती है। जैसा कि देखा जा रहा है, उस स्थिति में स्त्री सम्भवतः उस स्वस्थ समाज से, किन्ही कारणों से भी, अपने आपको जोड़ कर देख पाने में अक्षम है। लेकिन उस के इस चुनाव से बुरक़े का मूल स्त्रीविरोधी चरित्र रद्द नहीं हो जाता।

बुधवार, 25 अगस्त 2010

क्रौञ्च की खरौंच


'शब्द चर्चा' पर आए दिन ज़बरदस्त शब्द संधान और शब्द विवेचना होती रहती है। कई दफ़े तो सन्देशों की संख्या पचास के भी पार चली जाती है। पिछले दिनों योगेन्द्र सिंह शेखावत ने क्रौञ्च पक्षी के बारे में शंका ज़ाहिर की। इस क्रौञ्च पक्षी की प्रसिद्धि यह है कि वाल्मीकि के कवि बनने और उसके बाद कवियों के बोझ से इस पवित्र भूमि के भारी हो जाने के पीछे यही क्रौञ्च पक्षी ज़िम्मेदार था। वह करुणगान, काव्य इतिहास का वह तथाकथित पहला श्लोक जो इस क्रौञ्च के निमित्त जन्मा वह वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के द्वितीय सर्ग में मिलता है-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीं समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

photo by Fraser Simpson
तमसा तट पर अपने प्राण का बलिदान दे कर जिस क्रौञ्च पक्षी ने कविता जैसी आतंकित कर देने वाली विधा को जन्म दिया है उसके प्रति पीडि़तजनों की जिज्ञासा स्वाभाविक है। आम तौर पर लोगों का विश्वास है कि यह सारस नाम को वह पक्षी है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना राजकीय पक्षी घोषित कर रखा है। उस बेचारे सारस को यह बात मालूम नहीं है और वह निष्ठावान निरीह पक्षी ग़रीब किसानों के पानी भरे खेतों में छोटे-मोटे कीड़ों से ही अपनी क्षुधातृप्ति करता है। अगर उसे पता चलता तो वो लाल बत्ती लेकर शहरों के बजबजाते ट्रैफ़िक को चीरता हुआ किसी भी रेस्तरां में जा कर अपनी पसन्द के कीटों का महाभोज पा सकता था। लेकिन उसके जीवन की कहानी शुरु से अभी तक करुणा से ही भरी हुई है। और करुण बात ये है कि रामायण में वर्णित और उसमें सहज प्राप्य, अपने साथी के प्रति जीवन भर की निष्ठा के बावजूद कुछ लोग उस के क्रौञ्च होने पर ही प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। आयें समझें कि मामला क्या है?

सारस के बारे में मुख्य आपत्ति यह है कि वह नदी किनारे नहीं बल्कि मुख्य रूप पानी भरे खेतों में पाया जाता है, यानी दलदली भूमि में पैदा होने वाले कीट उसका मुख्य आहार हैं। अब यह प्रश्न उठ ही सकता है, और जिसे चर्चा में मेरे मित्र आशुतोष ने उठाया भी कि भई क्या तमसा नदी के किनारे हरे-भरे पानी से भरे खेत नहीं हो सकते? हो सकते हैं.. कभी-कभी नदी के ठीक किनारे पर खेत मिलते हैं। मगर यहाँ वाल्मीकि के श्लोक स्वयं आड़े आ जाते हैं।
उसी प्रकरण यानी बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग के चौथे श्लोक में वे कहते हैं-
स तु तीरं समासाद्य तमसाया महामुनिः।
शिष्यमाह स्थितं पार्श्वे दृष्ट्वा तीर्थमकर्दमम॥

यह जो श्लोक के अंत में तीर्थमकर्दमम्‌ आया है इसका सन्धि विच्छेद होगा तीर्थं अकर्दमं यानी बिना दलदल का किनारा। ये हुआ एविडेन्स नम्बर वन माई लौर्ड। और ये देखिये एविडेन्स नम्बर टू, उसे सर्ग के आठवें श्लोक में-
स शिष्यहस्तादादाय वल्कलं नियतेन्द्रियः।
विचचार ह पश्यंस्तत्सर्वतो विपुलं वनम्॥

पश्यं तत्‌ सर्वतो विपुल वनं यानी वहाँ खड़े विस्तृत जंगल को देखते हुए। मतलब किनारे पर जंगल है और दलदली पानी नहीं है। ऐसी जगह सारस के लिए ज़रा भी अनुकूल नहीं है।

सारस के विरुद्ध संस्कृत के महाविद्वान वामनराव शिवराव आप्टे भी सारस की कोई सहायता न करते हुए उसकी पहले से ही करुण परिस्थिति को और भी करुण बना देते हैं। उनके संस्कृत-हिन्दी कोष में क्रौञ्च का अर्थ क्रौंच का अर्थ जलकुक्कुटी, कुररी और बगला दिया हुआ है। एक सारस का नाम दे देते तो उनका क्या घटता था क्योंकि जो नाम उन्होने दिये वे भी क्रौञ्च पर सही नहीं बैठते। जलकुक्कुटी (water hen) तो स्वयं संस्कृत नाम है और उसकी पहचान एकदम अलग पक्षी के रूप में आज तक बनी हुई है। कुक्कुट वो शब्द है जिससे भरतीय भाषाओं में मुर्गी के लिए तमाम शब्द कुकड़ी,कुकड़ा, कुकड़ो आदि बने हैं। (कुक्कुट पर भी 'शब्द चर्चा' में चर्चा हो चुकी है) बगला होना मुश्किल है क्योंकि स्वतंत्र रूप से 'बक' की अन्यत्र काफ़ी महिमा है; क्रौञ्च के साथ उसका भ्रम नहीं हो सकता।

रह गई कुररी.. कुररी के बारे में पता चलता है कि इसे sea osprey/ sea hawk/ समुदी उक़ाब कहते हैं। स्वयं आप्टे के कोष में कुररः के मायने क्रौंच और समुदी उक़ाब दोनों दिया है। अब उकाब ज़मीन पर चलते-फिरते तो नहीं दिखते, बहुत ऊपर आसमान से अपना शिकार तड़ते हैं। तो कुररी भी नहीं हो सकता। (इस परचे पर टिप्पणी करते हुए अरविन्द मिश्रा जी ने बताया है कि कुररी नाम की एक और चिड़िया होती है, जिसे अंग्रेज़ी में टर्न कहते हैं, देखें नीचे सदुपदेशों में) और सबसे प्रमुख बात यह कि इन तीनों में साथी के प्रति उस तरह की निष्ठा नहीं मिलती जिसे क्रौञ्च का विशिष्ट गुण बताया गया है। उसकी यह निष्ठा एक नहीं दो जगह बताई गई है.. उसी प्रकरण में नवां श्लोक है..
तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम्।
ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम॥

चरन्तम्‌ नपायिनम्‌ यानी कि चलते हुए वे कभी एक दूजे से अलग नहीं होते थे। दूसरे प्रमाण के रूप में आगे बारहवां श्लोक है-
वियुक्ता पतिना तेन द्विजेन सहचारिणा।
ताम्रशीर्षेण मत्तेन पत्त्रिणा सहितेन वै॥
पतिना सहचारिता यानी सदैव पति के साथ फिरती थी।

अब सारस की समस्या को और जटिल बनाते हुए किन्ही महाशय ने इन्टनेट के एक पन्ने पर क्रौञ्च की पहचान यूरेशियन कर्ल्यू के रूप में कर दी है। रहता भी ये कर्ल्यू नदी, जलाशयों के पास ही है। इस चिड़िया के पक्ष में और महत्वपूर्ण बात ये है कि इसका एक हिन्दी नाम गौंच है। वाल्मीकि के काल से (बीस हज़ार साल से दो हज़ार के बीच कोई भी समय, पाठक अपनी श्रद्धा के अनुसार काल का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं) अब तक तमसा में इतना पानी तो बह ही गया है कि क्रौञ्च जैसे कठोर आर्य शब्द को लोगों ने घिस-घिस कर नदी के पत्थर की तरह चिक्कन और कोमल गौंच बना लिया हो। (लोग आहत न हों कठोर का विशेषण आर्य संस्कृति पर किसी तरह का आक्षेप नहीं बल्कि क और ग ध्वनि का अन्तर है; क, च, ट, त, प, ध्वनियां कठोर गिनी जातीं हैं और ग, ज, ड, द, ब, ध्वनियां मृदु)

लेकिन गौंच महाशय बारहों महीने तमसा तट क्या किसी भी भारतीय तट पर नहीं टिकते। गर्मियों में उत्तरी योरोप और साइबेरिया में रहते हैं, सर्दियों में दक्षिणी योरोप, अफ़्रीका और भारत चले आते है। इस से भी क्या फ़र्क़ पड़ना था और क्रौञ्च का फ़ैसला हो ही जाता मगर सबसे दुख की बात ये पता चली कि वे यहाँ घोंसला नहीं बनाते। और चूंकि मनुष्येतर अधिकतर प्राणी सिर्फ़ प्रजनन के लिए ही मैथुन करते हैं इसलिए कामचेष्टा में लिप्त उस पक्षी युगल के यूरेशियन कर्ल्यू होने की सम्भावना कमज़ोर हो जाती है।

लेकिन दोस्तों, कहानी पिक्चर तो अभी बाक़ी है! यानी एक और सबूत, इस बार सारस के पक्ष में.. इसी प्रकरण के (ऊपर दिए गए) बारहवें श्लोक में ताम्रशीर्षेण का पद उसकी रंगत का एक राज़ खोलता है। ताम्रशीर्षेण यानी तांबे के रंग के सर वाला। अब देखिये सारस और साइबेरियन क्रेन दोनों के सर पर लाल निशान होता है। सारस में सर पर तो नहीं मगर गरदन क एक लम्बा हिस्सा लाल होता है और साइबेरियन क्रेन में ज़रा सा मगर ठीक चोंच के ऊपर।

लेकिन एक कौमन क्रेन भी है, जिसके लिए हिन्दी में नाम है- कुरुन्च, कुर्च, सिन्धी में केअन्ज, और तेलुगु में कुलंग। और मी लौर्ड, इस कुरुंच यानी कौमन क्रेन के सर पर भी लाल निशान मिलता है- ठीक सर पर! अगर भौगोलिक विवरण को अनदेखा कर दें तो इस नई जानकारी के आधार पर लगता है कि अगर कोई क्रौंच हो सकता है तो ये ही। लेकिन नहीं..

निष्कर्ष पर पहुँच जाने की ख़ुशी मैं बाधा डालने के लिए क्षमा चाहता हूँ, मगर ये कुरुंच महाराज, इनका दूसरा नाम यूरेशियन क्रेन है, भी जाड़े भर के मेहमान होते हैं और प्रजनन वहीं साइबेरिया में निपटा कर आते हैं।

हद है बताइये, नाम से लगता है कि ये कुरंच ही है..
साथी के प्रति निष्ठा के चरित्र, और अपने पूर्णकालिक भारतनिवास से लगता है कि सारस है..
और भौगोलिक विवरण से लगता है कि कर्ल्यू है..
सोचिये ज़रा, एक प्रसंग में एक पक्षी की पहचान में इतनी उलझने हैं और जबमामला अयोध्या और लंका जैसे शहरों का हो तो सर फुटव्वल कैसे न हो..

ऐसा लगता है कि वाल्मीकि ने अपने कवि होने के उस अधिकार का कुछ अधिक ही इस्तेमाल कर लिया है जिसे अब पोएटिक लिबर्टी कहा जाता है। लेकिन ये बात नहीं हो सकती क्योंकि इस प्रकरण में वाल्मीकि स्वयं एक चरित्र के रूप में दर्शाये गए हैं, यानी लिखने वाला कोई और है। और इस प्रसंग को बाद में रामायण में जोड़ दिया गया है। और जोड़ने वाले हमारे पूर्वज जो भी थे, या तो वे एक से अधिक थे जो क्रौञ्च को अपने-अपने प्रिय पक्षी के रूप में बताना चाहते थे, और उनकी खींचतान में ऐसी घालमेल हुई है कि क्रौञ्च सिर्फ़ कवि की कल्पना में पाये जाने वाला एक पक्षी बन गया है।

और अगर कोई एक ही महापुरुष थे तो खेद के साथ लिखना पड़ता है कि वे पक्षियों के बारे में अधिक नहीं जानते थे। एक अन्तिम सम्भावना और भी है- जिसे मेरे बहुत सारे मित्र जो किसी भी पुरातनता पर प्रश्नचिह्न उठाने के प्रश्न से ही ठिठर उठते हैं, लोक लेना चाहेंगे- कि ये क्रौञ्च एक ऐसा पक्षी था जो वाल्मीकि के समय में तो मिलता था मगर कलियुग में गंगा और दूसरी नदियों के पापसिक्त विषाक्त जल के कीट खा कर, पूरी प्रजाति समेत परमधाम को प्राप्त हो गया।

***
(शब्द चर्चा में हुई इस क्रौञ्च चर्चा में घुघूती बासूती, आशुतोष कुमार, नारायण प्रसाद, योगेन्द्र शेखावत, अरविन्द मिश्रा और अजित वडनेरकर ने भी भाग लिया। परचे के शीर्षक के लिए राजेन्द्र स्वर्णकार का आभारी हूँ, यह पद 'शब्द चर्चा' में वे ही लाए थे।)
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