शुक्रवार, 31 अगस्त 2007

ए ब्यूटिफ़ुल माइन्ड

यह एक नोबेल पुरुस्कार विजेता गणितज्ञ जॉन नैश पर लिखी एक किताब और एक फ़िल्म का नाम है। जॉन नैश स्कित्ज़ोफ़्रेनिक हैं। मेरे एक पुराने और करीबी मित्र को भी डॉक्टर्स ने बताया है कि उन्हे स्कित्ज़ोफ़्रेनिया है। पिछले तीन सालों में उनको दो बार स्कित्ज़ोफ़्रेनिया के गम्भीर हमले हो चुके हैं दूसरी बार इस बीमारी के हमले के ज़रा पहले वो मेरे पास दस दिन रह कर गए थेतब हम ने कुछ अच्छे और कुछ कठिन पल साथ में गुज़ारे थेतभी मैंने समझा कि क्या होता है स्कित्ज़ोफ़्रेनिया और किस रोग ने मेरे प्रिय मित्र को अपने पाश में जकड़ रखा है

स्कित्ज़ोफ़्रेनिया के बारे में कुछ तथ्य-
ये क्यों होती है
? सायंस नहीं जानती पारिवारिक स्रोत होना एक प्रबल सम्भावना है।
हर सौ में से एक आदमी इस बीमारी का शिकार है
इलाज करने पर दवाई खाने से लाभ होता है। नशा करने से नुकसान होता है।


कुछ भ्रांतियां-
इसका मतलब डबल या स्प्लिट पेर्सैनैल्टी नहीं है
यह मानसिक बीमारी नहीं मस्तिष्क की बीमारी है। एक शारीरिक बीमारी जिसकी अभिव्यक्ति मानस पटल पर होती है। इसका इलाज साइकोथेरेपी से नहीं होता।


इस रोग के मुख्य लक्षण-
बहुत सोना या बिलकुल न सोनाबहुत डर होना या बहुत आक्रामक हो जाना। साफ़ सफ़ाई न रखना, अति संवेदनशील हो जाना, हर चीज़ को करने का एक विशेष तरीका इस्तेमाल करना। सामाजिक सम्बन्धों में गिरावट आना, तंत्र-मंत्र में अनायास रुचि हो जाना, काम और जीवन नाम से हम जिन गतिविधियों को जानते हैं उन से दूर भागनाआलोचना बिलकुल बरदाश्त न कर पाना, शब्दों के अपने कुछ विशेष अर्थ निकालना और उन्हे, उन्ही अर्थों मे प्रयोग करनाघूरना, बाल बढ़ा लेना या सब बाल कटा देनाबहुत ज़्यादा नशा करना, अपना एक अलग मानसिक संसार बना लेना, अतार्किक हो जाना। अपने को बहुत महान मानना या सबको दुश्मन समझना।

अगर आप एक बार सोच के देखें तो ये सारे लक्षण लगभग हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी तो लागू हो जाएंगेमगर एक रोगी में ये लक्षण सामान्य से अधिक मात्रा में पाए जाते हैंसारा खेल इस सामान्य का ही हैसामान्य कहे जाने वाले ६०-७० प्रतिशत के इधर और उधर के लोग असामान्य कहे जाते हैंविलक्षण.. ऐसे लक्षण वाले जो आम तौर पर नहीं मिलतेवे समाज के लिए विक्षिप्त भी हो सकते हैं और महापुरुष भी


समाज सिर्फ़ अपने जैसों का ही पुनरुत्पादन करना चाहता हैइसीलिए शादीशुदा लोग बार-बार छ्ड़ों को पकड़ कर शादी के मण्डप की तरफ़ खींचते हैंयोग करने वाला दूसरे से भी योग करवाना चाहता हैलाल झण्डे वाला सबसे इंकलाब ज़िन्दाबाद बुलवाना और खाकी नेकर वाला दूसरे को भी नेकर पहनाना चाहता हैअपनी ही छवि में दुनिया को रंग देना चाहता है आदमीभगवान को भी उसने अपने जैसा दिखने वाला ही बनाया हैचीन में जाकर बुद्ध की आँखें मिचमिचाई सी ऐसे ही नहीं हो गईंएक विलक्षण व्यक्ति को समाज कैसे स्वीकार कर लेगा? उसे लगातार नकारा जाता हैकोशिश की जाती है उसे बार बार सामान्य बनाने की..आम आदमी बनाने की..


चित्र: प्रसिद्ध स्कित्ज़ोफ्रेनिक चित्रकार विन्सेन्ट वैन्गॉह का एक चित्र 'स्टारी नाइट'

गुरुवार, 30 अगस्त 2007

खिड़की से बाहर जा रहा तालाब..

पिछले दिनों मैंने अपने प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता और उपन्यास अंश को यहाँ पर छापा था.. प्रियंकर भाई जो निश्चित ही उनके लेखन के प्रशंसक है.. उन्होने प्रतिक्रिया की..

वाह-वा !
अब ब्लॉग में एक नई खिड़की खोलिये तथा सोनसी और रघुबर के प्रेम के एक-दो अद्वितीय दृश्य अवश्य दिखाइए .
प्रतीक्षा रहेगी . हाथी पर जाते हीरो की .

तो उनके आग्रह पर आज प्रस्तुत है.. 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' का एक रोचक अंश.. जिसमें रघुवर-सोनसी का प्रेम भी है.. और हाथी पर जाता नहीं तो उसका चिन्तन करता हीरो भी..

दीवार में एक खिड़की रहती थी

(एक अंश)

रती आसमान की तरह लगती थी। अंधेरे में सोनसी ने रघुवर प्रसाद के कान में फुसफुसा कर कहा है।

क्या हम अपने आप खिड़की से बाहर जा रहे हैं।

नहीं खिड़की का बाहर अन्दर आ रहा है।

तालाब पहले आया फिर तालाब का किनारा आया।

पगडण्डी पहले आई फिर धरती आई।

तारे पहले आए फिर आकाश आया।

पेड़ का हरहराना पहले आया फिर पेड़ आए।

फिर तेज़ हवा आई।

महक आई।

महक के बाद फूल खिले।

साइकिल खिड़की से बाहर नहीं गई खिड़की का बाहर साइकिल तक आ गया।

पर मैं कैरियर में नहीं बैठूँगी। सामने तुम्हारी बाहों के बीच बैठूँगी। सोनसी ने कहा।

सुबह कमरा नहाया हुआ लग रहा था। कमरे की हर चीज़ धुली हुई लग रही थी।

रघुवर प्रसाद बिस्तर से सोकर ऐसे उठे जैसे नहा धोकर उठे हैं। साइकिल धुली-पुँछी थी। रघुवर प्रसाद के पहले सोनसी उठ गई थी।

तुम कब उठीं?

अभी थोड़ी देर पहले।

घर धुला धुला लग रहा है।

सुबह मैं उठी तो लगा कि तालाब खिड़की से बाहर जा रहा है।

मैं बाद में उठा तो तालाब का किनारा जा रहा था।

पेड़ चले गए। पर पेड़ का हरहराना अभी यहाँ रह गया है। सोनसी ने कहा।

महक है। किसी कोने में फूल अभी-अभी खिला है।

कोनों में फूल खिले हुए हैं। मैं देख चुकी।

रघुवर प्रसाद ने कहा, 'मुझे महाविद्यालय जल्दी जाना पड़ेगा साइकिल पहुँचानी है। नहीं तो हाथी पर लादना होगा। साइकिल, कार्यालय में जमा होगी। तुम डब्बे में भात दे देना। मैं वहीं खाऊँगा।

शाम को टेम्पो से लौटोगे?

सुबह से जा रहा हूँ महा विद्यालय खुलने तक इधर उधर घूमता रहूँगा। विभागाध्यक्ष से छुट्टी माँग लूँगा। मिल गई तो टेम्पो से नहीं तो हाथी से। रघुवर प्रसाद ने कहा।

'कमरे से पेड़ों का हरहराना चला गया। अब पेड़ों में हरहराने की आवाज़ बाहर से आ रही है। सोनसी ने कहा।

पेड़ों की हरहराने की आवाज़ में चिड़ियों की चहचहाहट भी बैठी थी। चिड़ियों की चहचहाहट भी साथ चली गई। रघुवर प्रसाद ने कहा।

पेड़ की आवाज़ के पहले चिड़ियों की चहचहाहट उड़ कर चली गई हो। सोनसी ने कहा।

पेड़ की आवाज़ की शाखा में चिड़ियों की चहचहाहट बैठी होगी।

अचानक उड़ कर गई।

चौंक कर गई।

जब मैंने तुम्हारी चादर झटकारी थी तब चौंककर चहचहाहट उड़ी?

हम दोनों एक ही चादर ओढ़े थे।

परन्तु ठण्ड नहीं थी।

परन्तु खिड़की के पल्ले खुले थे।

परन्तु चादर में चिड़ियों की चहचहाहट थी।

परन्तु कुछ यह भी हुआ।

साइकिल लौटाने रघुवर प्रसाद चले गए। रास्ते में उनका ध्यान चार ताड़ के पेड़ों पर गया। पेड़ वहीं थे, और रघुवर प्रसाद वहाँ महाविद्यालय का इन्तज़ार किए बिना महाविद्यालय जा रहे थे। हो सकता है ताड़ के पेड़ों को इस तरह रघुवरप्रसाद का महाविद्यालय जाना अटपटा लगा हो। ताड़ के पेड़ों ने रघुवर प्रसाद को साइकिल से जाते हुए न भी देखा हो। हाथी से जाते हुए ज़रूर देखा हो। साइकिल सरपट जाती है। हाथी धीरे-धीरे जाता हुआ जाता था। रुककर इन्तज़ार किए नहीं चलते-चलते हाथी पर इन्तज़ार कर रहे हैं। -यह अन्तर होगा। रघुवर प्रसाद जितनी तेज़ी से आगे गए ताड़ के पेड़ उतनी तेज़ी से पीछे छूटते गए। जैसे कैरियर से सामान गिर गया। मालूम नहीं पड़ा और सामान पीछे और पीछे छूटता रहा। --साइकिल से जा रहे हैं का ऐसा उत्साह था। लौटते समय छूटी हुई चीज़ जहाँ छूटी थी, मिलती जाएगी। सड़क एकदम खाली थी। तब भी उन्होने घंटी बजाई। लगातार बजाई कि शायद जो भी सामने था हटता जाए। हो सकता है कि दोनों किनारे के पेड़ पहले सड़क पर रहे हों रघुवर प्रसाद की घंटी बजाने से दोनों किनारे हो गए और सड़क खाली हो गई...


(अगर आपने यह पुस्तक नहीं पढ़ी है.. तो ज़रूर पढ़ें.. हिन्दी में वैसे ही उपन्यास कम लिखे जाते हैं.. और अच्छे तो बस उँगलियों पर गिने जा सकने जितने.. विनोद जी हिन्दी के ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं..उनके शिल्प की कोई बराबरी नहीं.. और उनकी भाषा के रस को अनुवाद कर पाना लगभग असम्भव.. 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उनका सबसे हाल में आया उपन्यास है.. उपन्यास क्या है.. हिन्दी के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान है..)
"दीवार में एक खिड़की रहती थी": प्रकाशन वर्ष-२००२, वाणी प्रकाशन, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-२; मूल्य १२५ रुपये

बुधवार, 29 अगस्त 2007

हम ज़्यादा नहीं जीते..

माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नातेदार ये सब तो हमें मिलते हैं; इनको चुनने में हमारी कोई भूमिका नहीं होती। मगर दोस्त हम खुद चुनते हैं। हम तय करते हैं कि कौन हमारा दोस्त होगा। या कोई होगा कि नहीं होगा? दोस्त तो वे रिश्ते हैं जो हमने अर्जित किए हैं। दुख इस बात का है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे दोस्त बनने और दोस्त बनाने, दोनों की काबिलियत कमज़ोर होती जाती है। इसकी चर्चा मेरे दोस्त प्रमोद जी ने भी की।

दुनिया के महानतम निर्देशकों में से गिने जाने वाले ऑर्सन वेलेस की फ़िल्म मिस्टर आर्काडिन के एक दृश्य में आर्काडिन अपने दोस्तों के बीच एक टोस्ट करते हुए एक कहानी सुनाता है, जार्जियन परम्परा का पालन करते हुए। कहानी सुनने लायक है:

कल रात मैंने एक सपना देखा.. मैं एक कब्रिस्तान में था.. मगर सारी कब्रों के पत्थर पर एक अनोखी बात थी.. १८३०-१८३४, १९२२-१९२६.. सभी पत्थर इसी तरह के थे.. जिसमे पैदाइश और मौत के दरम्यान बहुत कम वक़्त था.. फिर मैंने देखा कि कब्रिस्तान में एक बहुत बूढ़ा आदमी भी था.. मैंने हैरान हो कर उस से पूछा कि वह इतने साल कैसे जी गया जबकि उस के गाँव के सारे लोग इतनी कम उम्र में अल्ला को प्यारे हो गए.. जानते हो उसने क्या कहा मुझसे?.. उसने कहा.. बात ये नहीं कि हमारे गाँव के लोग ज़्यादा नहीं जीते.. बात यह है कि यहाँ हम अपनी कब्रों पर आदमी की ज़िन्दगी के साल नहीं लिखते.. बल्कि वह मुद्दत लिखते हैं जितने वक़्त उसके पास एक दोस्त रहा..


मंगलवार, 28 अगस्त 2007

शरीर आराम कर रहा है..

जैनियों के यहाँ सूर्यास्त के बाद न खाने की परम्परा है। बहुत से हिन्दू साधु भी ऐसे ही नियम का पालन करते हैं। सत्यनारायण गोयनका के विपासना कोर्स में भी दिन का आखिरी खाना शाम पाँच बजे दे दिया जाता है। मुम्बई के योग संस्थान में भी शाम का खाना हल्का रखने और जल्दी से जल्दी करने की सलाह दी जाती है। ये एक परम्परागत ज्ञान है जिसे सभी पंथ/ मत के लोग अंगीकार किए हुए हैं। गाँव-देहात में भी जल्दी खा के जल्दी सोने की परिपाटी पुरातन काल से चली आ रही है। मगर शहरी जीवन ने इस मूल्य को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया है।

हम शाम के वक्त समोसा, चाट, वड़ापाव, बर्गर वगैरा खाते हैं, और उसके बाद भी आखिरी खाने का अवसर बचा रहता है। जो रात को नौ, दस, ग्यारह बजे तक सम्पन्न होता है। मेरे कुछ मित्र अपना ये सुप्रतीक्षित आहार रात के एक दो बजे भी कर के तृप्त होते हैं।

वैसे आयुर्वेद के अनुसार भोजन को पचाने में सहयोगी तत्व पित्त मध्य-दिवस और मध्य-रात्रि में ही प्रबल होता है। उस दृष्टिकोण से मध्य-रात्रि भोजन करने का सबसे उचित समय ही तो हुआ। मगर उस से दूसरी जटिलताएं पैदा होती हैं।

इस तरह के खाने के तुरन्त बाद व्यक्ति क्या करेगा; सो जाएगा या दो अढ़ाई घंटे और जागता रहेगा? अगर जागता रहेगा तो खाया हुआ खाना तो पच जाएगा मगर चार बजे सोकर अगले रोज़ दस बजे के बाद ही उठेगा। तो इस तरह से दिन की शुरुआत में पित्त प्रबल होगा और वात मन्द। मल की निकासी ठीक ढँग से नहीं हो सकेगी और शरीर में विकार जन्म लेगा। और पूरे शरीर का पाचन-चक्र बिगड़ जाएगा। और लम्बे समय तक इसी तरह चलते रहने पर शरीर में गम्भीर रोग उत्पन्न हो जाएंगे।

अगर व्यक्ति उपरोक्त मध्यरात्रि के भोजन के बाद तुरंत सो जाता है तो और भी मुश्किल है। एक तो खाये हुए भोजन का पाचन सही तरह से नहीं हो सकेगा। दूसरे शरीर की अधिकतर ऊर्जा खाने के पाचन में लग जाने के कारण, नींद अच्छी नहीं आएगी। और सोकर उठने के बाद भी व्यक्ति को भारीपन लगता रहेगा।


कुछ लोग तो नींद को बेहोशी के सिवा कुछ नहीं मानते इसलिए हमेशा दारू पीकर छाई बेहोशी को ही नींद का पर्याय मानते रहे हैं। मेरा खयाल है कि ऐसे लोग बेहोशी के अँधेरे में ही नहीं, शुद्ध जहालत के अँधेरे में भी हैं। थोड़ी बुरी लगने वाली बात कह दी है, माफ़ कीजियेगा। इस अँधेरे में रहने और अपनी हानि करने का आप को पूरा हक़ है। मगर जानकर करें, अज्ञानता में क्यों?

नींद के वक्त लोग सोचते हैं कि शरीर आराम कर रहा है। क्या सचमुच? एक नज़रिया यह कहता है कि व्यक्ति आराम कर रहा है मगर शरीर काम कर रहा है। नई कोशिकाएं जन्म ले रही हैं, जो बीमार हैं, टूट-फूट गई हैं उनका इलाज हो रहा है। असल में तो जागते हुए शरीर आराम कर रहा है.. हल्की फुल्की गतिविधि कर रहा है। मगर 'सोते हुए' उसका काम इतना ज़्यादा है कि उसे दूसरे एप्लीकेशन्स शट-डाउन करने पड़ते हैं। इसीलिए बच्चा सोता है बीस-बीस घंटे। उसके पास बहुत काम है, बहुत तेज़ी से और बहुत सारा विकास करना है। जैसे-जैसे बचपन छूटता जाता है, नींद के घंटे कम होते जाते हैं। शरीर का विकास धीमा पड़ता जाता है, और एक मकाम पर आकर एकदम रुक जाता है।

मगर फिर भी नींद की ज़रूरत पड़ती रहती है। क्योंकि शरीर जीवित है और तमाम क़िस्म के बाहरी आक्रमण और भीतरी कमज़ोरियों का इलाज वह खुद करता है। ये लोगों की भ्रांति है कि दवाईयाँ कोई इलाज करती हैं। दवाईयाँ सिर्फ़ आपूर्ति करती हैं। शेष सारा काम शरीर स्वयं करता है। अतिवृद्ध हो जाने पर नींद आनी बंद हो जाती है- शरीर धीरे-धीरे जवाब दे रहा होता है; नई कोशिकाएँ बनना बंद हो जाती हैं, पुरानी की टूट-फूट की मरम्मत भी ठप पड़ जाती है।

इसलिए देर से खाकर तुरंत सोने पर नींद का बड़ा भाग और शरीर की अधिकतर ऊर्जा खाना पचाने में चली जाएगीऔर जागने पर भी एक नई सुबह का एहसास नहीं होगा। क्योंकि टूट-फूट की मरम्मत का काम नहीं हो पाया। अगर ऐसी ही दिनचर्या चलती रही तो वो कब होगा? वो मुल्तवी पड़ा रहेगा। और फिर धीरे धीरे एक गम्भीर रोग के रूप में विकसित हो जाएगा।

देर से खाने और भारी खाने से कितने नुकसान हैं, देखिए.. मेरा खयाल है कि यही कुछ कारण रहे होंगे जिसकी वजह से लगभग सभी पुरातनपंथी रात के खाने को जल्दी और हल्का रखने की कोशिश करते हैं।

कभी कभी इस तरह उपदेशात्मक लिखने का अधिकार मैंने सुरक्षित रख छोड़ा है..प्लीज़ एडजस्ट!


सोमवार, 27 अगस्त 2007

विनोद-विलास

नीत्शे की किताब बियॉन्ड गुड एन्ड ईविल के बारे में मैंने पिछली पोस्ट में चर्चा की थी.. आज उसी किताब के चौथे अध्याय Epigrams and Interludes से कुछ और जुमले पेश कर रहा हूँ--

८३

सहज-वृत्ति (इन्सटिंक्ट) --जब घर में आग लगी हो तो आदमी को खाने-पीने की सुध नहीं रहती-- सही है, पर बाद में राख के ढेर पर खाया जाता है वही खाना।

९२

अपनी प्रतिष्ठा के लिए किसने एक बार भी नहीं दिया है अपना बलिदान?

९७

क्या? महान व्यक्ति? मुझे तो हमेशा अपने आदर्श का अभिनेता भर दिखाई पड़ता है।

९९

निराशा की आवाज़: "मैंने सुनना चाही एक अनुगूँज और सुनाई दी सिर्फ़ प्रशंसा--"

१२०

ऐंद्रिकता अक्सर प्रेम को इतनी तेज़ी से विकसित कर देती है कि उसकी जड़ें कमज़ोर रह जाती हैं और आसानी से उखड़ आती हैं।


बुरक़े के अँधेरे

कल मैंने अपने घर के नज़दीक एक मॉल में एक बुरक़ा पहने लड़की को देखा। लड़की खूबसूरत थी। मगर वे सिर से पाँव तक बुरक़े में थी। सिर्फ़ उसका चेहरा नज़र आ रहा था। मैंने नज़र भर के देखा, मगर लड़की ने मुझे नहीं देखा। वह उस लड़के को प्यार भरे आत्म-विश्वास से देख रही थी, जिस से वो सट कर खड़ी थी। मैंने अब लड़के को देखा। लड़का थोड़ा घबराया हुआ था। उसने मेरी नज़र पड़ते ही पलट कर मुझे देखा। किसी ताड़ती हुई नज़र के प्रति वह पहले से सशंकित था। उनके व्यवहार में यह फ़र्क़ इस बात की फिर पुष्टि कर रहा था कि औरतें प्रेम में ज़्यादा जोखिम उठाती हैं, और ज़्यादा साहसी होती हैं। खैर, सीधी बात थी कि लड़का-लड़की अपने-अपने घरों से छिप कर एक-दूसरे के साथ मॉलबाज़ी कर रहे थे। इस में कोई अनोखी बात नहीं। जिस-जिस शहर में मॉल खुले हैं वे इसी उम्मीद से खुले हैं कि लोग और खासकर युवा लोग मॉलबाज़ी करने के लिए टूट पड़ेंगे। उनकी उम्मीद को बराबर इज़्ज़त बख्शी जा रही है।

अनोखी कही जा सकने वाली बात थी सिर्फ़ लड़की का बुरक़ा। लड़की ने दुनिया की वहशत से अपना हुस्न छिपाने के लिए बुरक़ा नहीं डाला था। यदि ऐसा होता तो शायद वह मॉल की पतनशील संस्कृति में हिस्सा लेने वहाँ आती ही क्यों? इस तरह सरेआम अपने प्रेमी से सटकर खड़ी होती ही क्यों? नज़रों में नज़रें फँसाकर उसके चेहरे पर चाहत के राज़ खोल कर उसे दुनिया के आगे शर्मिन्दा करती ही क्यों? यह बुरक़ा तो उसने अपने घर और पड़ोस के पहरेदारों से खुद को छिपाने के लिए डाला था। लड़की मुझे एक साथ दो दुनिया में जीती नज़र आई। एक परदे व ज़ब्त की तहज़ीब और दूसरी ओर ग्रीड और एनवे का संसार। क्या दोनों का हिस्सा वह मनमर्ज़ी से है? या किसी एक में कुछ ज़ोर-ज़बरदस्ती है? अगर है तो ये ज़ाहिर है कि ज़बरदस्ती कहाँ हो रही है।

ये देख कर मुझे अपनी एक और ग़लती का एहसास हुआ (करता ही रहता हूँ ग़लतियाँ)। मैं ने अभी हाल में करोड़ों करोड़ मुसलमानों को जहालत के अँधेरों में कै़द घोषित कर डाला। आज मुझे अपनी वह घोषणा कुछ अतिरंजित लग रही है। शायद सच्चाई यह है कि ये अँधेरे जहालत से ज़्यादा बुरक़े के हैं, औरतों पर ही नहीं मर्दों पर भी। सबब ये कि तरक़्क़ी और अक़्ल के उजाले जितनी दूसरी क़ौमों में हैं कमोबेश उतने यहाँ भी हैं पर महदूद हैं। मगर उन हदों से निकलने की बेचैनी आम मुसलमान के भीतर सर मार रही है और ये क़ौम उन अँधियारों को लिए-लिए मॉल की नियॉनी रोशनी में आती जा रही हैं। और इसीलिए अपनी घोषित लड़ाई के अलावा मुस्लिम आतंकवादियों की एक कोशिश अपनी क़ौम को खौफ़ के साये में दबाये रखने की भी है।

रविवार, 26 अगस्त 2007

चीज़ों में जीवन

बिस्तर पर अधलेटा मैं अंदर के कमरे में देश की बड़ी समस्या का हल निकालने में चिंताग्रस्त था कि अचानक अअअअअअद्द करके एक आवाज़ बाहर के कमरे से आई। देश की चिंता में विघ्न? चौंक गया। दो पल के बाद समझा कि मेज़ से टिकाया गया एक बैग मुँह के बल गिर पड़ा है। उसने ये फ़ैसला अचानक किया हो ऐसा नहीं लगता। बहुत नाप-तौल कर एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया में लागू किया गया था ये मुँह के बल गिरना। मैंने देखा है दूसरे मौकों पर भी जब चीज़ें इसी तरह आदमियों से स्वतंत्र अपनी सत्ता की घोषणा कर रही होती हैं।

पेड़ का खड़े-खड़े गिरना तो फिर भी समझ आता है; उसमें जीवन मानते हैं कुछ लोग। मगर जड़-निर्जीव चीज़ें? कभी अचानक एक स्टील की प्लेट छनछना कर किचेन में उत्पात करती है, कभी कोई परदा, पेलमेट से अपना नाता तोड़ लेता है। एक बार तो मेरी किताबों की भारी-भरकम रैक जो दीवार के साथ मजबूती से जड़ी गई थी, अचानक फ़र्श की मोहब्बत में गिर गई (जब से अंग्रेज़ इस मुल्क में आए हैं तब से लोग और चीज़ें मोहब्बत में सिर्फ़ गिरते हैं- फ़ेल इन लव, यू नो- उनके पहले उठने की भी रवायत थी)। बाद में पता चला कि दीवार और रैक के बीच अलगाव की यह आग, सीलन ने लगाई थी। बताइये, हद है! बाद में उसे खुद अपनी गलती का एहसास हुआ कि फ़र्श के साथ उसकी मोहब्बत एक छलावा थी, धोखा थी। कई दिनों तक दीवार और रैक, दोनों ने एक दूसरे से कोई बात नहीं की, लेकिन एक बढ़ई ने आकर दोनों का वापस मेल-मिलाप करा दिया।

इस तरह की बात करते हुए ऐसा लगता है चीज़ों में सचमुच जीवन है। है क्या? आम तौर हम निर्जीव उन्हे मानते हैं, जो अचल हैं और बदलाव से परे हैं। पत्थर को पत्थर हम सिर्फ़ इसलिए कहते हैं कि वह सालों साल जस का तस पड़ा रहता है, बिना किसी हलचल के। मगर वही धरती के भीतर दबे पत्थर सालोसाल की एक लम्बी-धीमी प्रक्रिया में बदल के कैसे-कैसे रत्न भी तो बन जाते हैं। और लोहा भी हवा और पानी के सम्पर्क में आकर ज़ंग खाने लगता है। यूरेनियम और हीलियम के सम्पर्क से क्या होता है आप जानते ही हैं।

क्या इसे जीवन कहना उचित नहीं होगा? शायद नहीं। क्योंकि इनमें चेतना का अभाव है? या कहीं यह तो नहीं कि हमारी चेतना, उनकी चेतना को पहचानने में सक्षम नहीं? जिस पृथ्वी की मिट्टी, हवा और पानी में लगातार करोड़ों सालों से एक जीवन चल रहा है, जीवधारी जन्म-मरण की एक सतत प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उस पृथ्वी को निर्जीव कहना कहाँ तक तर्कसंगत है? क्या पृथ्वी अपनी समष्टि में एक जीवित, सचेत संरचना नहीं हो सकती? ये सारा जीव-निर्जीव प्रपंच उसके विभिन्न अवयव ही तो हैं। आखिर हम जीवधारियों का शरीर भी तो अलग-अलग स्वतंत्र कोशिकाओं का एक समुच्चय भर ही तो है।

शनिवार, 25 अगस्त 2007

चकदे..

कई मित्रों की अभिभूत प्रतिक्रियाओं के बाद कल रात मैंने चकदे इंडिया देख ही ली.. सबसे पहले तो अजित भाई से एक गुजारिश.. पता कर सकें तो बताएं कि ये क्या है 'चक'..कहाँ से आ रहा है? सुना बहुत है-- ओय फट्टे चकदाँगे!! ओय चकदे फट्टे!! क्या होता है इसका सही अर्थ? फाड़ दो..फेंक दे..तोड़ दो.. मोड़ दो.. क्या?

ऐसे ही कई दूसरे पंजाबी शब्दों के आगे मैं बिलकुल लाचार हो जाता हूँ। जैसे एक और शब्द, जिसका इस्तेमाल मैंने एक गाने में सुना..'मुटियार'। मैंने अपने कई पंजाबी मित्रों से पता करने की कोशिश की। पर नाकाम रहा। फिर मेरे टीवी/फ़िल्मी गुरु लेख टण्डन ने बताया कि इसका अर्थ जवान होती लड़की/किशोरी होता है। लेख जी से मेरी बोलचाल बन्द है, उन्होने मुझसे चार एपीसोड लिखा के एक के पैसे दिलवाए। और फिर उलटा मुझी पर चढ़ गए कि तूने मेरा नाम खराब किया। मेरे मन का वही हाल हुआ जो सब्ज़ियों का गरम तवे पर पावभाजी की शक्ल लेते हुआ होता होगा। कुछ दिन मैं वह श्रद्धा-क्रोध, गर्व-ग्लानि, लज्जा-आक्रोश से क्षुब्ध भावीय-पावभाजी भकोसता रहा; फिर हाजमा खराब होने के डर से मैने उनसे बात न ही करने का फ़ैसला किया। उनसे मैं पूछने से रहा। आप में से किसी को पता हो तो ज़रूर बताएं।

चकदे पैसा-वसूल फ़िल्म है। कथानक ज़बर्दस्ती के ड्रामों में नहीं फँसता? कोई हीरो-हीरोइन नहीं, कोई रोमान्स, कोई गाने नहीं। फ़िल्म का हीरो भी कबीर खान नहीं, फ़िल्म की हीरो हैं वे लड़कियाँ जो खेल रही हैं एक मर्दवादी समाज में हॉकी। फ़िल्म में शाहरुख को सूत्र बनाकर फ़िल्म को उन्ही के गिर्द बुना गया है। पर फिर भी आप उन्हे याद नहीं रखते। आप याद रखते हैं बलबीर को, कोमल चौटाला को, और बिन्दिया नाइक को। कबीर खान को एक धर्म-निरपेक्ष देश के मुसलमान खिलाड़ी के तौर पर जो जिल्लत उठानी पड़ती है, वो आप को बुरी ज़रूर लगती है, मगर आप को आनन्द तब आता है जब पूरी टीम दिल्ली के ईवटीज़र्स की पिटाई करती है।

फ़िल्म आप को पकड़े रखती है। कथानक इधर उधर बहकता नहीं, बराबर मुद्दे पर बना रहता है। फ़िल्म पर डाइरेक्टर का नियंत्रण है। चरित्र-चित्रण सूक्ष्म होते हुए भी मोहक है खासकर लड़कियों का। कोई लड़की अदाबाज़ी नहीं करती मगर फिर भी आपको दिल से भा जाती हैं। संवाद चुटीले हैं। ये सब मेरी निजी राय है। मगर फ़िल्म की सफलता इस की ताईद कर रही है कि ऐसी ही कुछ राय और लोगों की भी है। हिन्दी फ़िल्मों के सन्दर्भ में ये बेहद गुदगुदा देने वाली सफलता है। दुआ करता हूँ कि ऐसी फ़िल्में और बनें और हमें व्यर्थ की मसालेबाज़ियों से छुटकारा मिले। लेकिन इसमें अभिभूत हो जाने जैसी भी कोई बात नहीं है। इसको इतने तक ही रखा जाय, कला और कलात्मकता के शिखर पर ना बिठा दिया जाय जैसा कि आजकल चलन हो गया है।

अगर अर्थ पता होता तो पूरे आत्मविश्वास से आखिर में इस नारे का कोई सार्थक उपयोग करता.. मगर सॉरी कह रहा हूँ.. दे दीजियेगा सॉरी!

शुक्रवार, 24 अगस्त 2007

ट्रान्सलेटर्स आर ट्रेटर्स

ट्रान्सलेटर्स आर ट्रेटर्स.. ट्रान्सलेटर्स आर ट्रेटर्स.. ट्रान्सलेटर्स आर ट्रेटर्स.. किसी ने कहा था.. और जैसा कि आप देख ही रहे हैं बहुत ज़ोर देकर कहा था। चाहता तो था मगर इसी डर से इसका अनुवाद नहीं कर पाया। आज डी एन ए के एडिट पेज पर फ़ारूख ढोंडी का एक आलेख है। अंग्रेज़ी भाषा के बदसूरत इस्तेमाल पर आपत्तियाँ जताई हैं। न तो मुझे उनकी लिखी कोई फ़िल्म आज तक पसन्द आई और न यह आलेख। एक काम की बात दे गए फिर भी मुझे-- येवजेनी येव्तुशेन्को का एक कथन; "अनुवाद की फ़ितरत औरतों की तरह की है, अगर उसमें निष्ठा है तो सौन्दर्य नहीं है और सौन्दर्य है तो निष्ठा नहीं है।"

ये बात स्त्रियों के बारे में गलत ज़रूर है.. मगर अनुवाद के बारे में यह सौ प्रतिशत सच है। ये बात मैं अनुभव से जानता हूँ। रूमी को मूल फ़ारसी से अनुवाद करने की मेरी जुंग के पीछे कुछ निष्ठा वाला मामला भी था। और जिन्होने मेरा रूमी का अनुवाद पढ़ा है, वे जानते हैं कि उसमें कितना सौन्दर्य है। यहाँ पर दिये गए लिंक का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि जिन्होने नहीं पढ़ा है वे दौडकर जाकर पढ़ लें। वह लेख में एक और लिंक देने के लिए है, ऐसा ही समझें। मैं कबूल कर रहा हूँ कि रूमी के काव्य के मेरे द्वारा किए अनुवाद में सौन्दर्य गायब है.. वो काठ है.. क्योंकि उसमें निष्ठा कूट-कूट के भरी है (ऐसी मेरी खामखयाली है, कोई अच्छा फ़ारसी का जानकार मेरे इस कथन के लिए मुझे लथेड़-लथेड़ के मार सकता है, अग्रिम माफ़ी)।

इतने सब के बावजूद मेरे अन्दर का अनुवादक हमेशा जागा रहता है। उसकी एक वजह यह भी है कि मूल पाठ को बिना समझे आप उसका अनुवाद नहीं कर सकते। और मेरा अनुवादक उन्ही चीज़ों को अनुवाद करने के लिए किलकता रहता है, जिनके आगे मेरा मस्तक भाँय-भाँय करने लगता है। फिर भी ये ज़िद है कि हम तीरे नज़र देखेंगे, ज़ख्मे जिगर देखेंगे।

कुछ किताबें जिनका अनुवाद मैं करना चाहता रहा हूँ.. उनमें रूमी की दीवाने शम्स, मसनवी और फ़ीही मा फ़ीही हैं। फ़ीही मा फ़ीही अब सबसे ज़्यादा आसान लग रही है, क्योंकि वह मूल फ़ारसी में उपलब्ध नहीं है, अंग्रेज़ी में है। पश्चिमी दर्शन को पत्थर-हजम-चूरन की शकल में फँकाने वाली स्वीडिश लेखक जोस्टीन गार्डर की किताब सोफीज़ वर्ल्ड और अंत में फ़्रेडरिक नीत्शे की पुस्तक बियॉन्ड गुड एंड ईविल। आखिरी किताब के बारें में विशेष बात यह है कि जब भी उसे पढ़ने के लिए उठाता हूँ, काँखने लगता हूँ; तीन पेज भी एकाग्रता से कभी नहीं पढ़ पाया, मगर दिल के अरमानों का क्या कहना।


इसी किताब के चौथे अध्याय से चंद विनोद-विलास (Epigrams and Interludes) आपकी पेशेनज़र है:

--हम अपने भगवान के प्रति सबसे अधिक बेईमान है; उसे गुनाह भी नहीं करने देते।

--प्रेम में एकनिष्ठता असभ्यता है; क्योंकि यह दूसरों की कीमत पर है। भगवान में एकनिष्ठता भी।

--शांति के दौर में लड़ाकू अपने आप पर हमला बोल देता है।


कैसे बदलती है दुनिया

कर्मकाण्ड से आक्रांत भारतीय समाज में बुद्ध एक नई रौशनी की तरह आते हैं और इतिहास की धारा को एक नया मोड़ देते हैंयह बात कहने में अच्छी लग सकती है मगर इतिहास की सही समझ नहीं हो सकती। यजुर्वेदियों से त्रस्त क्षत्रियों ने अपने उपनिषदों की रचना पहले शुरु कर दी थी.. बुद्ध उस चिन्तन की तार्किक परिणति हैं। बुद्ध अकेले नहीं हैं, उनके साथ महावीर भी हैं, अजित केशकम्बल और चार्वाक भी हैं। बुद्ध अपने समय की अभिव्यक्ति है, उनका समय उनकी अभिव्यक्ति नहीं।

और बुद्ध ने आकर इतिहास को कोई क्रांतिकारी मोड़ दे दिया, ऐसा सोचना अतिरेक ही होगा। जो व्यक्ति, 'ईश्वर है या नहीं', इस सवाल पर मौन रह गया हो, उसका नाम प्रतिमा के नाम का पर्याय हो जाता है- बुत। कैसी विडम्बना है! यही नहीं, कर्मकाण्डियों का जुआ उतार फेंक कर एक प्रपंच रहित सच्चे धर्म की सदिच्छा से उपजा संघ आगे जा कर न सिर्फ़ एक अलग धर्म बनता है, बल्कि एक अति आनुष्ठानिक स्वरूप भी ग्रहण करता है। तिब्बती बौद्ध जिस तरह की पद्धतियों का पालन करते हैं वे हमारे देशज तांत्रिकों से ज़्यादा भिन्न नहीं हैं। कैसे हो जाता है यह?

ईसा जेरूसलम के मन्दिर में जाकर कोड़ों से मारते हैं वहाँ बैठे धर्म के छ्द्म व्यापारियों को और धरती के राज को भुला कर ईश्वर के राज्य का मार्ग दिखाते हैं। उनके भक्त उनकी मूर्ति बना के, गिरजे-गिरजे लटका कर मध्ययुगीन धरती का एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करते हैं।

मुहम्मद, आदमी के मानस की आँखे खोलने के लिए, काबा मे जाकर भौतिक आँखों से दृश्य मूर्त ईश्वर का भंजनकर के, मन की आँखों से दिखने वाले अदृश्य अल्लाह की ओर प्रेरित करते हैं। मगर उनके अनुगामी पीरों-मजारों में उसी मूर्ति-संस्कृति को पुनर्जीवित कर लेते हैं।

मज़दूर और मानवता को उसके सारे बन्धनों से मुक्त करा कर उसकी आज़ादी का सच्चा मार्ग प्रशस्त करने का दर्शन देने वाले मार्क्स के अनुयायी उनके साथ-साथ स्टालिन जैसे हत्यारे की भी 'पूजा' करते हैं।

इतना सब देखने के बाद जब मैं पूछता हूँ कि अगर अच्छी-अच्छी बातें दुनिया नहीं बदलती तो फिर दुनिया को क्या बदलता है? तो इसमें क्या गलत करता हूँ भाई.. क्या मैं अपना समय नष्ट कर रहा हूँ.. और आपका?

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

काहे लिखता है कोई?

आज इंडीब्लॉग विजेता अमित वर्मा का ब्लॉग इंडिया अनकट देखा। अन्य बातों के अलावा एक अनोखी चीज़ देखने को मिली। अमित ने अपने ब्लॉग के पुराने अवतार में टिप्पणियों की सुविधा को निष्क्रिय कर रखा था, जो नए पर भी जारी है। वे बेचारे बेनामों और नामधारियों के भाषाई आतंक से इस अवस्था में धकेले गए। मगर उन्होने ई-मेल की सुविधा को सक्रिय कर रखा है, इस दोटूकता के साथ कि पढ़ लूँगा पर जवाब की उम्मीद मत रखिये।

मुझे इस बात ने थोड़ा सोचने पर मजबूर कर दिया। कि आदमी ब्लॉग काहे लिखता है। सभी ब्लॉगिये शायद यही कहेंगे कि व्यक्ति की अभिव्यक्ति का कोई तो माध्यम होगा, हमारा ब्लॉग है। माना। मगर कभी कभी तो अपने हिन्दी चिट्ठाजगत में मुझे ऐसा लगता है कि व्यक्ति की अभिव्यक्ति पिछड़ जाती है और ब्लॉग लिखने का पूरा बल टिप्पणियों की निधि को समेटने में ही प्रतीत होने लगता है। जो जितनी टिप्पणियाँ बटोर ले आया वो सबसे बड़ा ब्लॉगिया है। समीर जी (पिछले इंडीब्लॉग विजेता) और अनूप जी(शायद अगले इंडीब्लॉग विजेता) तो अपनी सफलता का राज़ ही सबके साथ मधुर सम्बन्ध और मुक्त-हस्त टिप्पणी-वितरण बताते हैं। अगर ये सच है तो ई ससुर कल का लौंडा अमितवा कैसे इत्ता सफल ब्लॉगर बन बैठा है। बिना दूसरों के लिखे पे टिपियाए? और वो कोन्ची है जो उसे ठेल-धकेल के इत्ता ढेर-ढेर लिखाए जा रही है बिना टिप्पणियों की निधि बटोरे? सोचिये तो!

एक तो ये बात। दूसरी बात ये कि भाई, टिप्पणी लोग करते काहे हैं? उनका क्या आनन्द है? लिखने वाले ने तो लिख दिया, अब भाई पढ़ने वाले को भी कुछ कहने की खुजली है। होगी ही। खाली कान लेके तो पैदा हुआ नहीं है, मुँह भी तो है.. और वो तो मुखर है। तो वापस खींच के दो देने की अकुलाहट ही शायद इसके मूल में होगी। क्योंकि अमित की उत्तर न देने की दोटूकता के बाद भी उसे पचास ई-मेल आ जाती हैं। क्या आप बता सकते हैं कि वो क्या जज़्बा है जो इन पचास लोगों से बिना जवाब पाए फूल या पत्थर प्रेषित करवा रहा है?

और हाँ अमित को पढ़ने वालों की संख्या तो पता नहीं, मगर फ़ीडबर्नर के ग्राहकों की संख्या २८८० है।

सभ्यता की निशानियाँ

आजकल गाँधीजी की पुस्तक 'हिन्द स्वराज' पढ़ रहा हूँ। सृजन शिल्पी ने अपने लेख में इस किताब के एक अंश का उद्धरण दिया था। उसे देखने के बाद किताब पढ़ने की इच्छा हुई, और दूसरे ही रोज़ मेरे वरिष्ठ मित्र कमल स्वरूप के यहाँ एक साथ दो-दो प्रतियाँ दृष्टिगोचर हुईं। स्वाभाविक रूप से एक साधिकार अधिग्रहीत कर ली गई। कुछ दिलचस्प बातें पढ़ने को मिल रही हैं। यूरोपीय सभ्यता के बारे में गाँधी जी लिखते हैं

इस सभ्यता की सही पहचान तो यह है कि लोग बाहरी दुनिया की खोजों में और शरीर के सुख में धन्यता---सार्थकता और पुरुषार्थ मानते हैं। इसकी कुछ मिसालें लें। सौ साल पहले यूरोप के लोग जैसे घरों में रहते थे उनसे ज़्यादा अच्छे घरों में आज वे रहते हैं; यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। इसमें शरीर सुख की बात है। इसके पहले लोग चमड़े के कपड़े पहनते थे और भालों का इस्तेमाल करते थे। अब वे लम्बे पतलून पहनते हैं और शरीर को सजाने के लिए तरह-तरह के कपड़े बनवाते हैं; और भाले के बदले एक के बाद एक पाँच गोलियाँ छोड़ सके ऐसी चक्करवाली बन्दूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यता की निशानी है।

..पहले लोग जब लड़ना चाहते थे तो एक-दूसरे का शरीर-बल आजमाते थे। आज तो तोप के एक गोले से हजारों जानें ली जा सकती हैं। यह सभ्यता की निशानी है। पहले लोग खुली हवा में अपने को ठीक लगे उतना काम स्वतंत्रता से करते थे। अब हजारों आदमी अपने गुजारे के लिए इकट्ठा हो कर बड़े कारखानों में काम करते हैं। उनकी हालत जानवर से भी बदतर हो गई है। उन्हे सीसे वगैरा के कारखाने में जान को जोखिम में डालकर काम करना पड़ता है। इसका लाभ पैसेदार लोगों को मिलता है। पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था; आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच दे कर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आजकल लोगों में पैदा हो गए हैं और उसके साथ डॉक्टर खोज करने लगे हैं कि इन्हे कैसे मिटाए जाएँ। ऐसा करने से अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है।..

..शरीर का सुख कैसे मिले यही आज की सभ्यता ढू़ढ़ती है; और वही देने की कोशिश करती है। परंतु वह सुख भी नहीं मिल पाता।..

..यह सभ्यता ऐसी है कि अगर हम धीरज धर के बैठे रहेंगे, तो सभ्यता की चपेट में आए हुए लोग खुद की जलाई हुई आग में जल मरेंगे। पैग़म्बर मोहम्मद साहब की सीख के मुताबिक यह शैतानी सभ्यता है। हिन्दू धर्म इसे निरा कलजुग कहता है।


ये विचार गाँधी जी ने चालीस वर्ष की वय में १९०९ में लिखे और कुछ लोगों की इस कल्पना के बावजूद कि शायद वे इसमें कुछ संशोधन करना चाहेंगे, वे अंत तक इन विचारों पर क़ायम रहे। इन्ही विचारों के आधार पर अपना पूरा जीवन जिया और उसकी शिक्षा भी देते रहे। एक-आध अपवाद को छोड़ दें तो इस देश में और बाहर के देशों में भी, गाँधी जी के विचार और उन पर आधारित उनका जीवन सभी को, गहरे तौर पर प्रभावित करता रहा है। पूरा देश उन्हे बापू यूँ ही तो नहीं कहने लगा था।

तो फिर हमारा देश, हमारा समाज गाँधी जी के इन विचारों को नज़र-अन्दाज़ करके ऐसा क्यों बन गया जैसा कि यह अब है? नेहरू जी लोकप्रियता में गाँधी जी के कहीं अगल-बगल भी नहीं ठहरते होंगे, तो फिर कैसे वे 'हमारे भारत' को 'अपने सपनों के भारत' में ढालते चले गए? गाँधी जी पर इतनी श्रद्धा के बावजूद आज उनके विचार का कोई पुछवैया कहीं क्यों नहीं दिखता? अगर गाँधी जी इतना अच्छा-अच्छा सोचने और उस सोच का जीवंत उदाहरण बनने के बावजूद इस दुनिया को नहीं बदल पाए, तो फिर कैसे बदलती है दुनिया?


बुधवार, 22 अगस्त 2007

खुदा किस की तरफ़ है?

युवा अमरीकी फ़िल्ममेकर जेम्स लॉन्गले की फ़िल्म इराक़ इन फ़्रैगमेन्ट्स दावा करती है कि युद्ध अमरीकी कब्ज़े और फ़िरक़ाई तनाव के बीच वह इराक़ की कहानी इराकि़यों की ज़ुबानी है। मगर अपने इस शिल्प में वह जहाँ बिखरते हुए इराक़ी समाज की तो एक अच्छी तस्वीर खींच देती है वहीं पूरा ध्यान अमरीकी भूमिका से हटा कर इराक़ियों पर केन्द्रित कर देती है। ऐसा लगता है कि अमरीकी तो मायने रखते ही नहीं, समस्या तो इराक़ियों में है। क्या फ़िरक़ापरस्ती की ये समस्याएं दूसरे समाजो में नहीं है? पूरी तरह से अमरीकी चिन्तन और इसलिए अमरीकी हितों को ही आगे बढ़ाती है यह फ़िल्म।

खैर, इस के बावजूद फ़िल्म ठीक-ठाक है और कुर्दियों वाला हिस्सा सचमुच अच्छा बन पड़ा है। उसमें से दो बातें न भूलने लायक है। मुख्य चरित्र का बूढ़ा पिता एक जगह कहता है कि रसूल ने कहा था कि मुझमें कोई इच्छा नहीं। उन्होने कहा कि ज़िन्दगी कुछ नहीं एक खाली घर है जिसके दो दरवाज़े हैं; आप एक से भीतर आते हैं और दूसरे से निकल जाते हैं।

फिर एक दूसरी जगह वही बूढ़ा एक लघु कथा बताता है कि दो लोग लड़ रहे थे। किसी ने पूछा कि खुदा किस की तरफ़ है? जवाब मिला कि खुदा हमेशा जीतने वाले के साथ होता है। जो जीतेगा, खुदा उसी की तरफ़ है।
सीधी-सादी-सच्ची बात!

रामजी करेंगे बेड़ा पार?

ज्ञान भाई की चिंता है कि सज्जनता की मूल्य की रक्षा होनी चाहिये। कोई गलत चिंता नहीं। जिस तरह से समाज में मूल्यों का ह्रास हुआ है। किसी भी मूल्य का कोई मूल्य नहीं रह गया। मैं तो समझ रहा था कि मनमोहन सिंह सज्जन हैं इस बात पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता। मगर ज्ञान भाई की इस पोस्ट पर की गई टिप्पणी में संजय तिवारी ने उस पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। वैसे मैं व्यक्तिगत तौर पर मनमोहन जी का सम्मान और समर्थन करता हूँ। मगर राजनीति किसी के व्यक्तिगत सम्मान और समर्थन का मसला नहीं होता। वह तो नीतियों का प्रश्न है। जो भी विरोध और समर्थन होता है, वह नीतियों का होता है। और इस मसले पर जो विरोध हो रहा है वह पूर्णतया नीतिगत है, ऐसा मन मानना चाहता है।

लेकिन नाभिकीय समझौते जैसे पेचीदा मामले पर मेरी कोई जानकारी नहीं है। और कोई भी पक्ष लेने से पहले पता तो होना चाहिये कि आदमी किस बात का समर्थन/ विरोध कर रहा है? और मुझे इस की बारीकियाँ नहीं मालूम। फिर भी अनुभव से कहा जा सकता है कि अमरीका सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने हित में काम करता है। और जिस देश में पैर फैलाता है, उसे बरबादी की ओर धकेल देता है। अमरीका इस मामले में कितना हमारा हित-चिंतन कर रहा होगा, इस पर किसी को कोई शक़ नहीं होना चाहिये। और उसके किए वायदों पर कितना यकी़न किया जा सकता है इस के बारे में हमें अपने पड़ोसियों से बेहतर कोई नहीं बता सकता। जो आज तक अपने एफ़-१६ का इंतज़ार कर रहे हैं।

मगर दूसरी तरफ़ विरोध करने वालों पर भी नज़र डाल ली जाय। एक तरफ़ सीपीआई और सीपीएम हैं। जिनकी राजनैतिक बुद्धि की जितनी 'तारीफ़' की जाय कम है। सीपीएम चीन के आक्रमण के मुद्दे पर सीपीआई से टूट कर अलग हो गई थी। उन्हे चीन का पक्ष सही लगा था। आज कश्मीर में आज़ादी के सवाल पर चिंता व्यक्त करने वाले कैसे तिब्बत की आज़ादी के प्रति संवेदना नहीं रख पाए? (अक्साई चिन पर उनका दावा तिब्बत पर उनका दावा सिद्ध होने के बाद ही सिद्ध होगा।) और सीपीआई ने अपनी स्वतंत्र राजनैतिक सोच का परिचय तब दिया, जब पूरा देश तानाशाही का विरोध करते हुए इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के खिलाफ़ गोलबंद हो गया था। तो इस दल ने श्रीमती गाँधी का दमनकारी हाथ मज़बूत करने का निर्णय लिया था।

आज यह लोग इस मसले पर कितनी राजनैतिक परिपक्वता पर सोच रहे होंगे इस पर फिर मुझे गहरा संदेह है। तीन सालों से वे दिल्ली में बैठकर सत्ता की आग में हाथ भी सेंक रहे हैं और धुँए से भी बचे हुए हैं। उन्हे भी तो अपने मतदाताओं को जो कांग्रेस की प्रतिस्पर्धा में इन्हे वोट देते हैं, बताना है कि वे कांग्रेस के धुर-विरोधी हैं। आर्थिक नीतियों पर तो एक विनिवेश के मामले के सिवा सब मक्खन माफ़िक सर्र से निकला जा रहा है। मज़दूरों और छोटे-मझोले व्यापारियों के कपड़े उतारे जाने वाले बिलों को वे ध्वनि मत से पारित करते रहे हैं तो अब कुछ तो विरोध करना है ना। और इस बात की क्या गारंटी है कि वे इस समझौते में चीन की हानि ज़्यादा और अपने देश का हित कम देख रहें हो? और ये क्यों न मान लिया जाय कि अमरीका इस पूरे समझौते में में इसका ठीक उलट देख रहा हो-- हमारी शक्ति बढ़ाकर चीन के आकार को पिचकाने की एक कोशिश।

रह गई भाजपा, उस की बात न ही की जाय तो ठीक होगा। वे कब क्या कहेंगे और कब उसी से उलट जायेंगे कुछ तय नहीं। बस एक चीज़ से नहीं उलटते- अपने सतत मुसलमान-विरोध से। पिछले चुनाव में उस से भी उलटने का एक प्रयास दर्शाया था। धड़ाधड़ मुस्लिम सम्मेलन और आरिफ़ मोहम्मद खान तक को पकड़ लिया था। मगर हारकर अपनी पुरानी नीति पर लौट आए। तो उनके इस विरोध को गम्भीरता से न लिया जाय। ये माना जाय कि अगर सरकार गिर गई और खुदा न खास्ता उनके हाथ सत्ता लग गई। तो वे इसी समझौते को ससम्मान लागू करेंगे।

पत्रकारों, विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों में से किसी को भी अपने आप में मैं भरोसे के काबिल नहीं समझता? कौन किस स्वार्थ से बोल रहा है आप कैसे जानते हैं? क्या सचमुच सागरिका घोष को देश के हित की चिंता है या उन्हे और राजदीप को अपने सी एन एन वाले साझेदारों/ मालिकों की चिंता की चिंता है? रात को सोते समय उनके मानस पर अपनी घटती-बढ़ती टी आर पी का ग्राफ होता है या देश की ऊर्जा ज़रूरतों में नाभिकीय दखल की तार्किक ऊहापोह? इसलिए अपनी एक स्वतंत्र समझ न विकसित कर पाने और किसी दूसरे के मत पर भी विश्वास न धर पाने की सूरत में हम अपने आप को एकदम असहाय पा रहे हैं। हमें नहीं मालूम कि सही पक्ष क्या है।

तो हे प्रभु अब तुम ही सँभालना इस देश की नैय्या। एक पहलू और है जिसके बारे में ज़्यादा बात नहीं हो रही है, सुरक्षा का। इस देश के तीन बड़े गाँधियों की तो सुरक्षा कर नहीं पाए, इस संवेदनशील तत्व की लम्बे समय तक सुरक्षा कैसे होगी। यह सवाल भी रह-रह कर परेशान करता है। चेर्नोबिल अफ़्रीका के किसी देश में नहीं हुआ था। हे राम जी.. तुम्हारा ही सहारा है।

कब होगी क्रांति?

पिछले दिनों मैंने अपनी एक पोस्ट में बाबा मार्क्स की उस बात में आस्था व्यक्त की जिसमें उन्होने उम्मीद जताई थी कि सबसे पहले मज़दूर क्रांति इंग्लैंड/जर्मनी में आएगी क्योंकि वह (उस काल का) सबसे औद्योगिक रूप से विकसित देश है। तो अविकसित और विकासशील देशों के हाल-चाल और भूत काल में उनके भीतर हुए समाजवाद के प्रयोगों की असफलता को ध्यान में रखकर मैंने लेनिन को किनारे करते हुए मार्क्स की बात के मर्म को पहचाना। पर आज उसी मसले पर फ़रीद के साथ चर्चा करते हुए लगा कि सबसे विकसित देश में पहले क्रांति होने वाली यह बात अब शायद प्रासंगिक नहीं रह गई।

दुनिया डेढ़ सौ साल में बहुत बदल गई है। दुनिया का एक हिस्सा दूसरे हिस्से के बेहद करीब आ गया है। 'देश' के आयाम में कोई फ़र्क नहीं आया है मगर 'काल' का आयाम सिकुड़ गया है। एक हिस्से का दूसरे पर प्रभाव पहले भी पड़ता था। अब भी पड़ता है। मगर जो प्रभाव प्राचीन काल में हजार बरस में पड़ता, मध्यकाल में दस साल में पड़ता, आज के समय में वही प्रभाव दस दिन से भी कम समय में पड़ सकता है। कुछ प्रभाव तो साथ-साथ ही पड़ते हैं।
ऐसे में किसी एक विकसित व परिपक्व हो गए हिस्से में क्रांति हो भी गई, तो क्या? दूसरे अपरिपक्व हिस्से उस पर प्रतिक्रिया करेंगे। तत्काल प्रतिक्रिया। और क्रांति को विफल कर देंगे। एक देश के भीतर तो ऐसे प्रयास होते रहे हैं। और स्वतंत्र राज्यों की 'क्रांति' को विफल करने के भी प्रयास किए जाते रहे हैं, अमरीका द्वारा वियतनाम और निकारागुआ जैसे तमाम अन्य देशों में। या तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा प्रतिक्रांति(!) को विफल करने की चेकोस्लावाकिया और अफ़गानिस्तान में की कोशिशें भी ऐसी ही प्रतिक्रिया का उदाहरण रही हैं।

यानी जब तक यह समूचा विश्व एक साथ क्रांति के लिए परिपक्व नहीं हो जाता। तार्किक तौर पर क्रांति नहीं हो सकती। मतलब क्रांति तभी होगी जब पूरा विश्व एकरस हो जाएगा। और एकरस तो होना निश्चित है। पूँजीवादी बाज़ार का जो आक्रामक तेवर अभी दुनिया में चल रहा है, उसे देख कर दूर-दूर के इलाक़ो का भी आमूल-चूल परिवर्तन होना तय दिख रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरण, वन्य-जीवन, लोक-परम्परा और परिपाटियों के नाश का एक आसन्न खतरा भी साफ़ नज़र आता है। देखना होगा कि प्रतिरोधी शक्तियाँ कितना बदल पाती हैं बाज़ार के इस विनाशकारी मिज़ाज को।
इतना सब हो चुकने के बाद जो भी नुची-खुची या अतिसमृद्ध जो भी दुनिया होगी उसके भीतर साधनों और सम्पदा के साझे अधिकार की समझ को व्यवस्था में नीतिबद्ध कर देने की प्रक्रिया के लिए क्या किसी रक्तपात की आवश्यक्ता होगी? और उस सूरत में इस प्रकार के अवस्था-परिवर्तन को क्या क्रांति कहना उचित होगा?

मंगलवार, 21 अगस्त 2007

विजेताओं की हिंसा का बर्बर इतिहास

इतिहासकार अखिलेश मितल अपने कॉलम में लिखते हैं कि अंग्रेज़ी शब्द बारबेरियन को नए सिरे से परिभाषित करने की ज़रूरत है। शब्दकोष में इसका अर्थ असभ्य, जंगली और बदतमीज़ है और अपनी परिभाषा से ये सिर्फ़ गैर-रोमन, गैर-ग्रीक, गैर-ईसाई आदि पर लागू होता हैं। कुछ प्रसिद्ध या कुख्यात बारबेरियन के नाम होंगे-- पहली सदी में हुआ अटिला नामक हूण हमलावर, तेरहवीं सदी का मंगोल चंगेज़ खान, चौदहवीं सदी का तैमूर लंग। तीनों गैर-यूरोपीय, एशियाई।

तेज़ी से एकरस होती दुनिया में बारबेरियन के अर्थ में वे सभी लोग आ जाने चाहिये जो हिंसा का अतिरेक करते हैं। उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में, यूरोपीय हमलावरों द्वारा वहाँ के मूल निवासी या अबॉर्जिनी लोगों का जो संहार किया गया, वह। दूसरे विश्वयुद्ध में ज्यू और जिप्सी लोगों का हिटलर ने जो क़त्लेआम किया, वह। १८५७/५८ में ब्रिटिश सेना ने लाखों भारतीयों को जो मौत के घाट उतारा, वह। (मेरे इतिहासकार मित्र अमरेश मिश्रा बताते हैं कि मारे गए लोगों की संख्या एक करोड़ के करीब थी। और १८५७/५८ के बाद के रिकॉर्ड्स से पता चलता है कि अंग्रेज़ों को काम करने के लिए मज़दूर नहीं मिलते थे। बड़ी तादाद में जवान आबादी का सफ़ाया हो गया था। बचने वालों में ज़्यादातर औरतें, बच्चे और बूढ़े थे।) और अमरीका द्वारा जापान पर परमाणु बम हमले से लाखों लोगों की हत्या, वह। इन सब घटनाओं को भी बारबेरियन व्यवहार क्यों नहीं माना जाना चाहिये? क्या इसलिये कि वे गैर-रोमन, गैर-ग्रीक, गैर-ईसाई और गैर-यूरोपी हिंसा के उदाहरण नहीं हैं?

अटिला, चंगेज़, और तैमूर के पहले एक और व्यक्ति विश्वविजय पर निकला था। मैसेडोनिया का सुन्दर राजकुमार सिकन्दर महान। सिकन्दर और उसकी सेना द्वारा की गई किसी हिंसक अतिरेक की चर्चा क्यों नहीं होती? क्या इसलिए कि जिनका लिखा इतिहास हम पढ़्ते रहे हैं, उनके लिए सिकन्दर उनका गौरव है, उनका आदर्श-पुरुष है? ईरान, समरकन्द और भारत के उसके विजय-अभियान की राह में जिन राज्यों ने घुटने टेक दिये, वे दास, मवेशी और सोना आदि देकर मुक्त हो गए। लेकिन जिन्होने प्रतिरोध करने की जुर्रत की, वे रौंद दिए गए। ईरान में पर्सपोलिस और मध्य एशिया में समरकन्द को यह नुकसान उठाना पड़ा। शहर को जलाकर खाक किया गया और शहरियों को गुलाम बना दिया गया।ये क्यों मान लिया जाय कि ये हिंसा अटिला, चंगेज़ और तैमूर द्वारा की गई हिंसा के मुकाबले सभ्य रही होगी?

पुरु ही एक अकेला शासक था जिसे प्रतिरोध के बावजूद बख्श दिया गया। सिकन्दर के व्यवहार में इस अपवाद के कारण कुछ इतिहासकारों का मानना है कि लड़ाई में सिकन्दर की जीत नहीं हुई बल्कि मामला बराबरी पर छूटा तभी उसे संधि करनी पड़ी। बाकी की कहानी तो कहती ही है कि सिकन्दर ने पुरु के साथ वैसा व्यवहार किया जैसा कि एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिये। मगर हमने तो पढ़ा है कि पुरु हार गया था और उसे बाँध कर सिकन्दर के सामने लाया गया। और ये तो सिकन्दर की उदारता और बड़प्पन था कि उसने पुरु का राज्य वापस दे दिया। सवाल है कि अगर सिकन्दर का हृदय ऐसा ही उदार था तो वह विश्व विजय पर निकला ही क्यों? व्यर्थ की हिंसा और हाय-हत्या में पड़ा ही क्यों?

कहानी में कुछ तो लोचा है। आखिर ये कहानी विजेताओं ने लिखी है। विजेताओं का इतिहास में विजेता सर्वगुणसम्पन्न होता है, और विरोधी निपट मूर्ख, खल, दुष्ट.. राक्षस। देखिये हमारे राजा राम और कृष्ण सर्वगुणसम्पन्न हैं। वे इतने सही हैं कि वे भगवान हैं। जबकि उनके विरोधी नीच अधम और पापी, धरती का बोझ हैं। (श्रद्धालु भाई/बहन मुझे माफ़ करें, मैं भी भगवान राम के भजन सुनकर आनन्दित होता हूँ, मगर ये भी तो एक पहलू है।)

दूसरी तरफ़ चंगेज़ और तैमूर जिन्हे हम खलनायक मानते हैं। किन्ही इतिहासों में वे नायक हैं। पाकिस्तान के इतिहास में गज़नी और गोरी महानायक हैं। हमारे यहाँ वे सारे पाप की जड़। हम तो पराजित हारे हुए लोग थे। विजेताओं के लिखे इतिहास को पढ़ते रहे, सच मान कर चलते रहे। पर लिखे हुए इतिहास से भी अलग एक जातीय स्मृति होती है। वह किसी भी इतिहास को नकार व्यक्ति के मानस पर काबिज़ रहती है। जैसे ही हमें अपनी गुलामी के जुए से मुक्ति मिली। हमने अपनी पराजयों का बदला लेना शुरु कर दिया। उनसे जो हमारी लगातार 'पराजय के जीते जागते सबूत' थे। और उनसे जो हमारी 'पराजय के स्थापत्य में सबूत' थे। उन्हे दबाने के लिए, गिराने के लिए अब हम लिख रहे हैं एक 'अपना इतिहास', एक 'नया इतिहास'। वह इतिहास जो हम लिखना चाहते थे मगर हज़ार साल तक लिख नहीं सके। क्योंकि हम पराजित लोग थे और अब हम पराजित लोगों की आत्मग्लानि में डूबे लोग हैं।

पराजित लोगों की इस आत्मग्लानि के हालिया दर्शन मैंने एक हाल में देखी एक पुरानी फ़िल्म में किए जरमनी ईयर ज़ीरो। दूसरे विश्व युद्ध के बाद के जरमनी की तस्वीर। अगर आप डी वी डी लायब्रेरी में या नेट पर दूसरे विश्व युद्ध से सम्बन्धित फ़िल्मों की खोज करें तो आप को सैकड़ों ऐसी फ़िल्में मिलेंगी जिसमें जरमनों द्वारा यहूदियों पर अत्याचार की कहानियाँ सुनाई-दिखाई गई हैं। मगर जरमनी के लोगों ने युद्ध के बाद क्या विनाश और कठिन समय देखा, इस पर मुश्किल से ही कोई फ़िल्म मिले। मैंने खुद ऐसी यह पहली फ़िल्म देखी है। जबकि कन्सनट्रेशन कैम्प्स के बारे में बीसियों देख चुका है, और अब उनको देखने से ऊब भी गया हूँ। दुनिया की आबादी में दाल में नमक के बराबर यहूदी हैं, पर अपनी अत्याचार की कहानी का डंका उन्होने पूरे संसार में पीट रखा है। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेज़ाद तो इतना तंग आ गए कि उन्होने कहना शुरु कर दिया कि ये होलोकास्ट-फोलोकास्ट सब झूठ है, ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। सब बनाई हुई कहानियाँ हैं। (ये तो कुछ ज़्यादा हो गया प्रेसीडेन्ट साब!)

मगर मेरा कहना है कि यहूदी ये सब कर सके, क्योंकि वे विजेता हैं। क्योंकि अमरीका को नियंत्रित करने वाला पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा यहूदी धर्म से ताल्लुक रखता है। और इसीलिए अमरीका अरब-इस्राइल विवाद में इस्राइल का लगातार पक्ष लिए जाता है। अमरीका दुनिया का सबसे 'सभ्य' देश है इसलिए उनके द्वारा लिखे जा रहे इतिहास में अतिरेक नहीं होगा, और इराक, अफ़ग़ानिस्तान और अन्य जगहों पर अमरीकी सेनाएं जो सेवाकार्य कर रही हैं, उसके आतंक इतिहास में पारदर्शिता के साथ दर्ज होंगे, यह सोचना बचकाना होगा।


अगर विजेताओं का इतिहास सच नहीं है? और पराजितों का आरोपित इतिहास भी सच नहीं? तो सच क्या है? सच क्या है, यह इतनी आसानी से बताया नहीं जा सकता। यह इतना सीधा सवाल नहीं है, जितना नज़र आता है।

सोमवार, 20 अगस्त 2007

सीएम साब, मत दीजिये हिसाब!

खबर है कि हमारे रितेश के पापा परेशान हैं । आप रितेश के पापा को नहीं जानते? अरे भई वो सी एम भी तो हैं। छुट्टियाँ मनाने यूरोप जा रहे थे.. साथ में प्रदेश का कुछ काम भी निबटा देते एक दो मीटिंग कर के। मगर लोगों को उनसे न जाने का जलन है, उन्हे एक अच्छा खासा सरदर्द दे दिया। कह रहे हैं कि हिसाब दो? काहे का? अरे भाई कुछ ३७५० रुपये दिया था उसी का। हाँ वो कुछ किसान अपना गला आपे टीप कर मर-मुरा रहे थे तो लोगो ने कुछ हो हल्ला किया होगा। उसी के लिए मनमोहन साहब ने कुछ पैसा भेजा था। अब आप बताइये ३७५० भी कोई रकम होती है। एक दो करोड़ तो कब कैसे जेब से गिर जाता है पता ही नहीं चलता। ३७५० करोड़ का हिसाब हम कहाँ से दे। हम क्या सी एम इसलिए बने हैं कि आप बार-बार हम से हिसाब माँगेंगे? हद है।

मगर मनमोहन और उनके लोग पीछे ही पड़ गए हैं। कह रहे हैं कि ३० अगस्त का आ रहा हूँ, तब तक हिसाब तैयार होना चाहिये। दस दिन में कैसे होगा सब? कुछ समझ ही नहीं आ रहा। कल उनके २० बेचारे अफ़सर बिना ड्रिंक्स ब्रेक लिए दिन भर बहसियाते रहे कि कैसे बतायें हिसाब? किसी को मीटिंग छोड़ के जाने को नहीं मिला.. सूसू ब्रेक भी नहीं। बताइये ये भी कोई बात हुई बेकार हलकान कर रखा है मासूम अफ़सरों को । उनका क्या कसूर? साले खुद लटक के मरें किसनवे और सूसू दबा के बैठे रहें सी एम साब के फ़ेवेरिट अफ़सर? हद है। और ऊपर से पी एम ओ ने ये खर्रा अलग से भेज दिया है कि इस की व्याखा कीजिये...

--पिछले साल १४४८ किसान अपनी जान खुद मारे.. इस साल अभी तक ६०० हो गये हैं..(अरे तो ये तो खुश होने की बात है।१४४८ का आधा हुआ ७२४। और साल भर का आधा हुआ जुलाई तो अगस्त चलते -चलते अभी परसाल के आधे भी नहीं हुए। तो १२४ तो वैसे ही कम हैं। चलिए इसका जवाब तो है।)

--विदर्भ के किसानों का कुल बकाया १६०० से १७०० करोड़ रुपये है जो अभी भी नीचे नहीं आया है तो इस लिहाज़ से पिछला कर्ज़ न चुकाने की सूरत में वे नये लोन के लिए योग्य नहीं होंगे.. (इस पर तो हम भी सोच में पड़ गए हैं.. पूरी फ़ाइनेंस इकानमी का कचरा हो रहा है)

--इसका कारण वे कह रहे हैं कि पी एम के पैकेज से कोऑपरेटिव बैंक को फ़ैदा हुआ है किसान को नहीं.. (अरे कोऑपरेटिव वाले इंसान नहीं क्या? कल को जलन के मारे कि 'किसान को सीधे पैसा दे दिया हमारे बारे में सोचा तक नहीं', इस बात पर उसके अफ़सर ने अपना गला टीप लिया तो कौन जिम्मेवार होगा?)

--विदर्भ के किसानों के अपना-गला-टीप रवैये पर कोई एक करमजला पी आइ एल डाले रहा.. तो उसके जवाब में राज्य सरकार न बोल दिया कि 'किसानों को पैसा बाँटने में देरी केंद्र के कारण हुई है'.. एक ठो एफ़ीडेविट बना के डाल दिया..इस बात पर पी एम ओ नाराज़ है..! (अब इसको इतनी सीरियसली लेने का का जरूरत है भाई? उस बखत कुछ तो बोलना था। आप से पूछेंगे आप अमेरिका का नाम बोल देना। फिर अमरीका से पूछें कौन जाएगा। बात खतम हो जाएगी।)

--फिर कहते हैं कि यवतमल के किसी किसान की बेवा को वहाँ के कलक्टर साब ने चेक दिया था तो वो बैंक में जमा करने पर बाउन्स कर गया..क्योंकि सरकारी एकाउन्ट में पैसा नहीं था.. इस पर भी पी एम ओ खफ़ा है..! (अब इसका भी जवाब माँगेंगे? एक तो हमारा देश वैसे ही गरीब है। और फिर यवतमल जैसी जगह। आप ने नाम सुना है यवतमल का? नहीं ना। बताइये जिस जगह को 'आम शहरी' जानता तक नहीं उस जगह के सरकारी एकाउन्ट में पैसा रखके क्या होगा? किसी 'शहरी' का भला होगा? )

--फिर कहते हैं कि इस साल किसान को मदद देने के लिए जो २७७१ रुपये.. मतलब २७७१ करोड़ रुपये.. (करोड़ लगाना हमेशा भूल जाता हूँ.. आजकल रुपये की कीमत ही कहाँ रह गई) रखे गए थे, उसमें से १७२७ करोड़ अभी तक खर्च हो गए हैं.. (ये तो अच्छी बात है। टारगेट पूरा हो रहा है। आप बाकी भी भेज दीजिये हम खरच कर देंगे) मगर किसानों की मौत नहीं रुक रही.. (ये हम कैसे रोक दें भाई। लोकतंत्र है देश में। कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं। वो जमाना गया जब आप किसानों से उठक-बैठक करा लेते थे। आजकल तो बात ही नहीं सुनते। हम ने, सी एम साब ने, और लोगों ने भी, सब ने कितना समझाया किसानों को "अरे यार मत करो इ खुद्कुशी। साला सारी इमेज का कचरा हो रहा है। मरना ही है तो जा के नक्सल हो जाओ। सल्वा जुडुम मार देगा। नहीं तो सल्वा जुडुम हो जाओ। नक्सल मार देगा। अबे चूतिये ज़हर खाके, पेड़ से लटक के क्यों मरते हो?" सुनते ही नहीं।)

अब आ रहे हैं ३० अगस्त को। भगवान जाने क्या बतायेंगे उन्हे। हम तो कहते हैं कि सी एम साब बोल दीजिये कि नहीं है हिसाब। अरे सूखी-प्यासी धरती पर आप एक दो बाल्टी पानी डाल कर उम्मीद कर रहे हैं कि जड़ों तक पहुँच जाय पानी? अरे हम लोग कितना गरीब हैं हम से पूछिये। यूरोप-अमरीका जाते हैं तो शर्म से आँख नीचा हो जाता है। किसी से बात करने में सकुचाते हैं। अर्मानी का बस दस ठो सूट लेके कैसे कोई इज्ज्त का जिनगी बसर कर सकता है? कैल्विन क्लाइन का चार चड्ढी भी नहीं है हमारे अफ़सरों के पास। देश का, आम शहरी का तरक्की चाहते हैं, तो ऐसा हिसाब मत माँगिये। वो बात मत पूछिये जो बताने के काबिल नहीं है।

रविवार, 19 अगस्त 2007

रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था

कविता क्या है?.. इस पर लोग लगातार बतियाते ही रहे हैं.. कला मूलतः जीवन की पुनर्रचना है.. जीवन को देख समझ कर उसके बारे में जो राय बनती है वह कला/कविता में झलकती है.. फिर कविता को देख समझ कर जो राय बनती है.. वह आलोचना में झलकती है.. एक तरह से वह जीवन की पुनर्रचना की पुनर्रचना है..

पिछले दिनों मोहल्ले पर छपी एक कविता को लेकर 'कविता क्या है' पर खूब ज़ोर-आज़माईश हुई.. मेरी एक दो कौड़ी की टिप्पणी और उस पर प्रियंकर भाई के बचाव से अविनाश मियाँ दुखी भी हुए..बात आई-गई हुई.. कुछ रोज़ पहले प्रमोदजी ने अपने टाँड़ पर दफ़नाई हुई कुछ पुस्तकों को दुबारा जीवन दिया.. उसमें से एक को मुझे भी पढ़ने की रुचि हुई..अशोक वाजपेयी की कवि कह गया है.. घर ले आ कर पलटा तो उसमें कुछ कवियों पर दिलचस्प विश्लेषण पढ़ने को मिला.. मेरे प्रिय लेखक और कवि विनोद कुमार शुक्ल के बारे में कुछ बेहद हसीन बातें वाजपेयी जी ने लिखी हैं.. जो 'कविता क्या है' पर भी एक राय बनाने में मदद करती हैं.. देखें..

एक बेहद सामान्य स्थिति के बखान को विनोद कुमार शुक्ल बहुत शांति और बिना किसी नाटकीयता के ऐसा मोड़ दे देते हैं कि कुछ अप्रत्याशित सामने आ जाता है, पर वह फिर सामान्य की ओर चले जाते हैं। सामान्य और असामान्य के बीच एक द्वंदात्मक सम्बन्ध उनके यहाँ बराबर मिलता है, लेकिन कभी भी फ़ैंटेसी और यथार्थ के बीच एक महीन अंतर से अधिक कुछ नहीं होता। दिलचस्प यह है कि फ़ैंटेसी किसी तरह के इच्छित विश्वास या क्षतिपूर्ति की इच्छा का संस्करण नहीं बनती। विनोद कुमार शुक्ल फ़ैंटेसी औए सामान्य के ऐसे तीव्रीकरण को कि वह असामान्य लगेकभी चौंकाने के लिए इस्तेमाल नहीं करते। उनका काव्यशास्त्र चौंकाने का है ही नहीं: वह विचलित करने का है, हमारे समय की ऐसी सचाई दिखाने समझने का है, जो अन्यथा अदृश्य रहती है और जिसे कविता में देखना कहीं गहरे विचलित होना है।

कविता का काम जहाँ चीज़ों के बीच नए सम्बन्ध खोजना है, वहाँ चीज़ों को उनकी स्वतंत्र सत्ता में देखना भी है। अगर विनोद कुमार शुक्ल को 'गरीब का लड़का प्रतीकों के बाबा-सूट में कहीं जाने को तैयार दिखाई पड़ता है तो यह एक और प्रमाण उनके उस आग्रह का है जिसमें वह एक चीज़ को ठीक उसी चीज़ के रूप में निषेध करते हैं। चीज़ों और उनके सम्बन्धों के प्रति यह सम्मान ही उन्हे गरीब लड़के को गरीबी का उदाहरण मानने की आसान प्रवृत्ति से मुक्त रखता है। हिन्दी में हर चीज़ को किसी दूसरी चीज़ का प्रतीक मानने की इतनी भयानक रूढ़ि है कि चीज़ों और उनकी स्वतंत्रता के प्रति आदर और संवेदनशीलता का यह पुनर्वास मूल्यवान और कुछ मायनों में ऐतिहासिक है।

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विनोद कुमार शुक्ल की कविता एक ठोस, जाना पहचाना लेकिन अप्रत्याशित और विचलित करने वाला संसार हमारे लिए खोजती-रचती चलती है जो प्रामाणिकता और व्यापकता रखते हुए भी उनका है, अद्वितीय है और उदाहरण होने से बचा हुआ है। वह निश्चय ही हमारा भी है लेकिन अपनी पूरी सघनता, निर्ममता, वस्तुपरकता और ऐंद्रिकता के साथ एक संसार है, इस-उसका उदाहरण नहीं।

यहाँ पढ़िये 'अतिरिक्त नहीं' में संकलित एक कविता--



रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था

रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था

उसी तरह प्यास के प्रसंग में उसमें

एक छोटे घडे़ में पानी भरा था

बहुत दिन से बचा था के कारण

घड़ा पुराना हो चुका था

पता नहीं क्या था के कारण

कुछ था जो याद नहीं आ रहा था

जो याद आ रहा था वह इतना था

कि उसके प्रसंग भी बहुत थे

आसपास था, दूर था

बीते हुए रात दिन का समय हो चुका था

बीतने वाले रात दिन का समय था

सब तरफ़ जीवन था

संसार के प्रसंग में घड़ा छोटा था

कोई किसी के घर पानी पीने आ सकता है

इसलिए छोटे घड़े के बदले

बड़े घड़े होने का एक प्रसंग था।


'अतिरिक्त नहीं ': वाणी प्रकाशन द्वारा २००० में प्रकाशित; मूल्य १२५/-

अशोक वाजपेयी की पुस्तक 'कवि कह गया है' का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है; मूल्य ५५/-


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