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शुक्रवार, 13 मई 2011

आई पी एल का निर्मल आनन्द

क्रिस गेल ने जब तीसरा विकेट लेने के बाद अनायास जो नाच किया उस से उसके विशाल शरीर के भीतर जो एक ख़ूबसूरत दिमा़ग़ है उसका पता मिला। कितना आह्लादाकरी कितना मुक्तिकारी पल था वह। जिन्होने वह नहीं देखा वह कुदरत की एक निहायत अनुपम चीज़ देखने से वंचित रह गए। कुछ लोग इसे पढ़कर हो सकता है यू-ट्यूब पर उस पल की क्लिपिंग खोजना शुरु कर दें। और कुछ लोग हो सकता है मुँह बिचका कर कहें- क्रिकेट तो एक ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी-बाज़ारी संस्कृतिबिद्ध-अंधराष्ट्रवादी- फ़ासीवादी-जनविरोधी वृत्तियों का ज़हरीला मेल है। आप हैरत करेंगे कि कोई ऐसा कैसे कह सकता है? मगर एक मूर्धन्य विद्वान हैं अभय कुमार दुबे जिन्होने कुछ ऐसे ही निष्कर्ष निकाले हैं।  और वो कोई अकेले नहीं हैं चन्द लोग ऐसे और मिल जायेंगे जो ऐसा ही कुछ, या इससे भी आगे बढ़कर कुछ प्रस्तावित करने को तैय्यार बैठे हैं।

जब आई पी एल शुरु हो रहा था तो मैंने आशंका व्यक्त की थी कि कोई भला क्यों देखेगा इस तमाशे को? शहरों के आधार पर बनाई गई टीमों की प्रतिस्पर्धा- वो भी ऐसी टीमें जो ठीक-ठीक अपने शहर का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती हों- को देखने में किसी की कोई रुचि क्यों होने लगी? मेरा अन्देशा था कि अयोजन बुरी तरह फ़्लाप होगा। लेकिन मेरा अन्देशा फ़्लाप निकला और आई पी एल सुपरहिट रहा। यहाँ तक कि अब मैं भी उसके दर्शकों में से हूँ। मैंने अपने आप से ही पूछा कि आख़िर क्यों देखता हूँ मैं? तो जवाब यही मिला कि खेलने और खेल देखने से मिलने वाले निर्मल आनन्द के लिए देखता हूँ। जब क्रिस गेल बेलौस छक्के मारता है या मलिंगा की तिरछी गेंद बरछी की तरह आकर बल्लेबाज़ की विकेट की बुनियाद में धंस जाती है तो वो दृश्य अद्‌भुत विस्मयकारी होता है। और सभी जानत्ते हैं कि सभी रसों में अद्‌भुत का विशेष स्थान है। अपने मन में इस आनन्द का लेपन करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। एक बहुत बड़ी जनसंख्या है जो इस सुख का पान कर रही है। पूछा जाना चाहिये कि क्या उन सब का मलिंगा या गेल के कौशल को देखकर आनन्द लेना एक जनविरोधी-अंधराष्टवादी-ब्राह्मणवादी-हिन्दूवादी-पूँजीवादी-फ़ासीवादी गतिविधि हैं?

क्रिकेट पर इस तरह के आरोप लगाने के आधार ये हैं कि भारत-पाक मैच होने दौरान ऐसे मौक़े आते हैं कि साम्प्रदायिक या राष्टवादी भावनाएं जाग उठती हैं और कुछ मीडियाकर्मी उसे सायास या अनायास भड़काते हैं। बड़े-बड़े सिद्धान्त चबाने वाले ये विद्वान ये भूल जाते हैं कि समाज में जो भी रोग होंगे वो सब समाज की सब चीज़ों में बिम्बित होंगे -उसके लिए क्रिकेट को अकेले दोषी ठहराने का अर्थ है? बुराई समाज से उपज रही है क्रिकेट से नहीं। साम्प्रदायिकता और राष्टवाद की जड़ें क्या क्रिकेट के खेल की संरचना में हैं? अगर कोई ऐसा समझता है तो आई पी एल की सफलता उसके लिए सबसे बड़ा जवाब है। क्रिकेट के आनन्द पर राष्ट्रीयताओं के जो दबाव अब तक बने हुए थे और बने हुए हैं भी, उनसे मुक्त एक क्रिकेट हाज़िर किया गया है हमारे सामने। और यह ‘निन्दनीय’ कारनामा किसने किया है उसी ‘गलीज़’ बाज़ार ने जिसे जनवादी और प्रगतिशील सोच बेहद ‘प्रतिगामी’ मानती है। [क्या बाज़ार की इस वास्तविक प्रगतिशीलता पर कुछ ग़ौर करने की कोई ज़रूरत नहीं? जिस जातिवाद को ख़त्म करने के लिए सारे जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर संघर्षरत है, उसे बाज़ार अपनी स्वाभाविकता में पहले ही निर्मूल कर चुका है।]

क्रिकेट हमारे औपनिवेशिक आक़ाओं का खेल था। तब यह सिद्ध किया जा सकता था कि यह गुलामी की मानसिकता को और पुख़्ता करने का औज़ार है। मगर आज हम जानते हैं कि ऐसी सोच कितनी हास्यास्पद होती। ये वैसे ही है जैसे कोई कहे कलशनिकोव साम्यवाद फैलाने का हथियार है। या कोई दूसरा कहे कि नहीं कलशनिकोव तो इस्लामी आतंकवाद फैलाने का माध्यम है। अरे भाई कब तक चांद के बदले उंगली को देखते रहोगे? कभी तो चांद को देखो! क्रिकेट एक खेल है और सभी खेलों की तरह मानवीय वृत्तियों का सहज विस्थापन हैं। इसीलिए उनको अंग्रेज़ी में रिक्रिएशन या पुनर्रचना की कोटि में रखा जाता है।

मुश्किल क्या है हमारे समाज में एक तबक़ा है जो अपने आप को अतिक्रांतिकारी सिद्ध कर देने की बेचैनी से ग्रस्त है। यह तबक़ा हर जाति में है पर ब्राह्मण जाति में इसकी बहुतायत है। इनकी चेष्टाओं को देखकर मुझे प्राचीन भारत के अपने वो पूर्वज याद आ जाते हैं जो बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को गिरफ़्तार करने के लिए अपने आप को बौद्धों से भी बढ़कर अहिंसक और करुण सिद्ध करने को आतुर थे। जिस आतुरता में उन्होने यज्ञों में पशुबलि की प्राचीन वैदिक परम्परा को छोड़ दिया। और गो-माता की पवित्र कल्पना पर खड़े होकर अपने धर्म की पुनर्व्याख्या कर डाली। आज के इस दौर में पूरे ब्राह्मण समाज पर दबाव है कि वह स्वयं को प्रगतिशील और जनतांत्रिक साबित करे या लगातार हो रहे हमलों की मार झेले। तो हमारे चतुर बन्धु अपने चतुर पूर्वजों की तरह पाला बदल कर ब्राह्मणवाद पर हमला करने वालों में शामिल हो गए हैं। और वो बाक़ियों से बढ़-चढ़ कर हमले करते हैं ताकि अपनी ईमानदारी सिद्ध कर सकें। अपनी अतिक्रांतिकारिता के इस अभ्यास में वो अपने आप को जितना तोड़ते-मरोड़ते हैं उससे कहीं अधिक वो सच्चाई को तोड़ते-मरोड़ते हैं। इसलिए ऐसे विद्वानों की प्रस्थापनाओं से थोड़ा सावधान रहने की ज़रूरत है।

मित्रों की सुविधा के लिए क्रिस गेल की क्लिपिंग यह रही!


बुधवार, 14 जुलाई 2010

तव सर कंदुक सम नाना

माना जाता है कि तमाम खेलों की तरह फ़ुटबौल भी इंगलैण्ड में जनमा, पूरी तरह निराधार नहीं है यह बात। आज के तमाम लोकप्रिय खेलों के स्वरूप के निर्धारित करने में १९वीं सदी के उत्तरार्ध के सालों में इंगलैण्ड की भूमिका रही है। यह सही है कि इन परम्परागत खेलों को नियमावली को संगठित करने और उनके मानकीकरण का श्रेय उन्हे ही है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि गेंद को पैर और छड़ी से खेले जाने वाले खेल पहले अस्तित्व में ही नहीं थे।

क्या आप को याद नहीं है कि द्रोणाचार्य कौरवों के यहाँ आचार्य का पद कैसे पा गए? कौरव-पाण्डव  राजकुमारों की कन्दुक एक सूखे कुँए में गिर गई थी, और उसे निकालने का कोई साधन उनके पास नहीं था। तभी द्रोण वहाँ से निकले (सम्भवत: अश्वत्थामा के लिए दूध खोजने निकले होंगे ताकि उसे बार-बार आटे का घोल न पीना पड़े)। राजकुमारों की सहायता करने के लिए उन्होने गहरे कुँए में एक तीर मारा, फिर तीर के ऊपर और उसके ऊपर तीर तब तक मारते रहे जब तक आख़िरी तीर कुँए के जगत तक नहीं आ गया। और उन्होने कन्दुक बाहर निकाल ली। तो गेंद उस काल में भी खेली जाती थी।

एक क़यास यह भी लगाया जाता है कि असल में पूर्वकाल में लोग दुश्मन के कटे हुए सर को पैरों से मार-मार कर आपस में खेलते थे और दुश्मन के प्रति अपने मन में भरे सारे आवेशों को मार्ग देते थे। ये ठीक बात है। जिन लोगों ने इस्मत चुग़ताई का उपन्यास 'एक क़तराए ख़ून' पढ़ा है उन्हे याद होगा कि जब हज़रत हुसैन का सर काट कर दमिश्क में ख़लीफ़ा के दरबार में पेश किया गया तो यज़ीद ने उसे लातों से मार कर इधर-उधर उछालना शुरु कर दिया। ये दृश्य एक ज़ईफ़ दरबारी की बरदाश्त के बाहर हो गया और उसने यज़ीद को ताक़ीद की, "बाज़ आ, इन्ही सूखे लबों वाले सर को मैंने देखा है पैग़म्बर को  चूमते हुए.."


और तो तुलसी बाबा ने भी ऐसी एक रवायत को याद करते हुए अपने काव्य में उसे जगह दी है। लंका काण्ड में अंगद दशानन रावण को धमकाते हुए कहते हैं-

ते तव सर कंदुक सम नाना।
खेलहहिं भालु कीस चौगाना॥

दोस्तों आप जानते ही होंगे चौगान, पोलो नामक खेल का मूल फ़ारसी का नाम है। इसी चौगान का एक रूप अफ़ग़ानिस्तान का लोकप्रिय खेल बुज़कशी भी है। यह भी ध्यान दिया जाय कि मानस में जो गिने-चुने फ़ारसी के शब्द हैं उन में चौगान भी एक है।

शनिवार, 26 जून 2010

फ़ुटबाल, क्रिकेट और सेक्स


आज कल क्रिकेट का बुख़ार हलका है और फ़ुटबाल का नश्शा अपने उरूज़ पर है। हैं तो दोनों खेल ही, और दोनों के समकालीन स्वरूप का जन्म भी एक ही जगह -इंगलिस्तान में हुआ मगर क्रिकेट जहाँ दुनिया के सबसे जटिल खेलों में गिना जा सकता है वहीं फ़ुटबाल बड़ा ही प्राथमिक क़िस्म का खेल है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि फ़ुटबाल पाशविक बल पर आधारित एक क़बीलाई खेल है और क्रिकेट तमाम वर्जनाओ से युक्त नागरी क्रीडा।

इसके पहले कि मैं अपनी बात के एक और स्तर को उघाड़ूँ, यह साफ़ कर दूँ कि खेल से मेरी मुराद क्या है? मेरा मानना यह है कि लगभग सभी खेल हमारी मौलिक वृत्तियों के विस्थापन हैं। इसका बहुत मोटा उदाहरण यह है कि विभाजन के अनसुलझे मुद्दों को, असली युद्ध के मैदान में हल करने के बजाय, भारत व पाकिस्तान अपनी प्रतिद्वन्दिता को एक ऐसे क्रिकेट मैच के दौरान, जिसका उस मामले से कोई लेना-देना नहीं है, भावनाओं के उबाल में बहा डालते हैं और कुछ देर के लिए उस पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, तात्कालिक राहत महसूस करते हैं। इस को आप स्खलन का सुख कह सकते हैं। ये मूल समस्या को सुलझाता नहीं बस उस को एक दूसरी संरचना में विस्थापित कर देता है। आदमी की सिगरेटादि लत भी इसी तरह का एक विस्थापन है जो विस्थापन के रस्ते एक तात्कालिक सुख देती हैं।

अब फ़ुटबाल पर वापस आते हैं। फ़ुटबाल कितना सरल खेल है वो इसके नियमों से समझें- कुल जमा तीन-चार नियम हैं इस खेल में। दो दल हैं, दो गोल हैं, एक गेंद हैं, पैर से ही खेलना है हाथ से नहीं, मार-पीट नहीं करनी है। और एक जटिल नियम है औफ़साइड का- गोल और आक्रामक खिलाड़ी के बीच सुरक्षात्मक दल के दो खिलाड़ी होने आवश्यक हैं। इन नियमों की सरलता तब समझ आती है जब आप क्रिकेट के नियमों की सोचिये!

असल में फ़ुटबाल समेत दुनिया के सभी गोल-प्रधान खेलों का आधार शुद्ध सेक्स है। ये सारे खेल गर्भाधान का विस्थापन हैं। कैसे? गोल ओवम/डिम्ब है और खिलाड़ी स्पर्म/शुक्राणु। पूरी गतिविधि का उद्देश्य डी एन ए पैकेट को ओवम तक पहुँचाना है। यौन क्रिया में करोड़ों की संख्या में शुक्राणु होते हैं, यहाँ इस खेल में ग्यारह/आठ. छै/ पाँच हैं। यौन क्रिया में एक ही ओवम होता है यहाँ दो विरोधी दलों के लिए दो अलग-अलग ओवम हैं मगर डी एन ए पैकेट के रूप में मौजूद गेंद एक ही है। असल में यह क़बीलाई समाज में रहने वाले मनुष्य के भीतर की संजीवन-वृत्ति की विस्थापित अभिव्यक्ति है। जिसमें एक दल का अस्तित्व दूसरे दल के अस्तित्व का साथ लगातार टकरा रहा है, और दोनों अस्तित्व की इस लड़ाई में एक-दूसरे को मात दे देना चाहते हैं।

अंग्रेज़ी में इन खेलों के लिए बड़ा अच्छा शब्द है रिक्रिएशन, देखिये क्रिएशन की यौन क्रिया से सम्बन्ध इसमें साफ़ झलक रहा है। ये एक ऐसे समाज के शग़ल हैं जो अपनी मौलिक गतिविधि से दूर आकर ऐसी बातों में उलझ चुका है जिसका जीवन के मूल तत्व से बहुत सम्बन्ध नहीं बचा है। मगर समाज यौन-प्रतिस्पर्धा की खुली छूट नहीं दे सकता, वासना और हिंसा का ताण्डव खड़ा हो जाएगा। इसलिए इस तरह के विस्थापन ईजाद किए गए हैं।

यौन क्रिया का सब से सीधा विस्थापन एथलेटिक्स में दिखता है। शुक्राणुओं की तरह सारे धावक दौड़े जा रहे हैं, जीतने वाले को ईनाम मिलेगा- शरीर की नश्वरता के पार जीवन को क़ायम रखने का ईनाम। कार रेस में जीतने वाले, इस खेल के मूल में छिपी यौन क्रिया को तब साफ़ उजागर कर देते हैं जब वे बोतल हिला कर उस में झागदार शैम्पेन को बहाते हैं। फ़ील्ड एण्ड ट्रैक के सारे ईवेन्ट्स शुक्राणुओं के बीच होने वाली दौड़ का ही स्थानापन्न हैं।

फ़ील्ड व ट्रैक ईवेन्ट्स जिसमें लक्ष्य एक ही है जब कि प्रतियोगी अनेक, मनुष्य समाज की तब की अभिव्यक्ति है जब मातृसत्ता प्रबल थी लेकिन फ़ुटबाल और उसके जैसे दूसरे बाल-गेम्स शुक्राणुओं के बीच की दौड़ नहीं, मनुष्य समाज की थोड़ी विकसित यौन अभिव्यक्ति हैं जब कि पितृसत्ता ने क़बीलों का रूप ले लिया था। मातृत्व को कमज़ोरी बना कर पुरुष ने उसकी रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया ताकि अपनी मादाओं को बचाकर और दूसरे क़बीलों की मादाओं का गर्भाधान कर के वह अपने जीन कोड को आगे बढ़ा सके। पूरा मध्यकालिक इतिहास निरन्तर युद्ध और फिर बलात्कार का अनुष्ठान भर है जैसे।

मनुष्य के विकास की क़बीलाई अवस्था ने औरत का भयंकर दमन किया है लेकिन प्राकृतिक मानकों की दृष्टि से मातृ शक्ति, नर शक्ति से कितनी प्रबल रही है इसे देखिये कीट जगत में, लगभग सभी कीड़ों में मादा समाज के केन्द्र में और नर से कई गुना बड़ी होती है। इसी का एक दूसरा रूप ओवम और स्पर्म की तुलना में देखिये। शुक्राणु अनेक हैं और ओवम एक है और आकार में शुक्राणु से कई गुना बड़ा है।

क्रिकेट बालगेम नहीं है। बाल इसमें है ज़रूर लेकिन वह किसी गोल में नहीं डाली जानी है। यह खेलों के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ है। गोल की जगह विकेट आ गया है। विकेट कीपर- जो गोलकीपर समझा जाना चाहिये- वो विकेट के पीछे खड़ा होता है आगे नहीं। क्यों? क्योंकि असली गोली, विकेटकीपर नहीं बल्कि बल्लेबाज़ है, वो ही है जो विकेट की रक्षा कर रहा है। और सिर्फ़ रक्षा ही नहीं कर रहा बल्कि आक्रमण भी कर रहा है। जितनी बार वो आक्रामक गेंद को प्रति-आक्रमण के ज़रिये आक्रामक दल की पहुँच से बाहर फेकं देता है, उतनी दफ़े उसे मिलता है असली लाभ का वो अवसर जो हार-जीत का फ़ैसला करेगा। ये लाभ विपक्षी दल के क़ब्ज़े में गेंद वापस आने के बीच लगाई गई दौड़ो में नापा जाता हैं।

उफ़! इसके दुर्बोध नियमों की शुरुआत किए बिना ही यह कितना जटिल मालूम दे रहा है। शायद इसीलिए बहुत सारे लोगों को, ख़ासकर घर की महिलाओं को, ये खेल सहज ही समझ नहीं आता। जैसे लम्बे समय तक देखते रहने के बावजूद आज भी मैं बेसबाल ठीक-ठीक नहीं समझता। जबकि रग्बी समझने में कोई मुश्किल नहीं होती। उन दोनों के बीच भी मोटे तौर पर वही अन्तर हैं जो फ़ुटबाल और क्रिकेट के बीच।

क्रिकेट एक बेहद जटिल, नागरी और सभ्य समाज की अभिव्यक्ति है जिसमें वर्जनाएं बहुत बढ़ गई हैं। इस खेल में सिर्फ़ गर्भाधान की वृत्ति ही नहीं झलकती, सभ्य समाज की और भी तमाम उलझी-गुलझी बातें हैं जो इस खेल के ज़रिये विस्थापन और फिर स्खलन की राहत खोजती हैं।यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि क्रिकेट निन्यानबे के फेर वाले पूँजीवादी समाज में किस क़दर आँकड़ो का खेल बन गया है।

विचार विलास के लिए दो अन्य खेलों के बारे में सोचिये; एक तो शतरंज जैसा खेल जिसमें कोई गोल है ही नहीं, सिर्फ़ युद्ध है, मानसिक रणनीतिक युद्ध; और दूसरा कैरम या बिलियर्डस जैसे खेल जिसमें एक नहीं चार गोल हैं और दोनों खिलाड़ी किसी भी/अपनी गोटियों को किसी भी गोल/पौकेट में डाल सकते हैं। 

एक बड़ी ख़ास बात इस पूरी व्याख्या में रह जाती है कि आख़िर देखने वाले को क्या मज़ा आता है? मेरी समझ में इसमें दो बाते हैं, एक तो यह कि देखना अपने में एक तरह का विस्थापन और इसलिए मनोरंजक है, और दूसरे एक बेहद बड़े स्तर पर हम शुक्राणु की ही तरह व्यवहार करते हैं। करोड़ों शुक्राणु आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए लक्ष्य की ओर दौड़ते ज़रूर हैं मगर किसी एक की ही सफलता में उन सब की सफलता निहित है, ये बात वो समझते हैं। और हम भी समझते हैं जब हम अपनी टीम, अपनी जाति, अपने देश का समर्थन कर रहे होते हैं, उसकी ओर से लड़ रहे होते हैं।


बुधवार, 7 मई 2008

आई पी एल के छक्के

आई पी एल शुरु होने के पहले बहुत लोगों ने उसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न लगाए थे; मैं भी इस जमात में शामिल था। पर आज, ‘मनोरंजन के बाप’ के आग़ाज़ के बीसेक दिन बाद कोई शुबहा नहीं रह गया है कि पूरा देश अपनी शामें कहाँ ज़ाया कर रहा है।

मेरी सारी आशंकाओ को धूल चटाता हुआ आई पी एल साढ़े आठ की टी आर पी के साथ आरम्भ हुआ.. टी वी के शीर्ष कार्यक्रम ‘एकता की सास-बहू’ से दो अंक ऊपर.. हालत यह है कि सारे अन्य चैनल्स इसकी समाप्ति का इन्तज़ार कर रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ..? स्थानीयता, वफ़ादारी, भावनात्मक जुड़ाव जैसी तमाम सीमाओं के बावजूद आई पी एल के साथ लोग क्यों तमाशाई बने हुए हैं?

मैं ने लिखा था.. मगर आई पी एल तो शुद्ध सर्कस है। सर्कस कभी-कभी देखने के लिए बड़ा रोचक है पर आप रोज़-रोज़ उसे देख कर वही उत्तेजना नहीं महसूस कर सकते।
अगर इनमें से किसी टीम के साथ मेरे दिल की भावना नहीं जुड़ेगी तो मैं सब कुछ छोड़कर इन के मैच क्यों देखने लगा?


मेरे आकलन सिर्फ़ यहाँ तक सही था कि वफ़ादारियाँ नहीं है.. इसके आगे ग़लत.. वफ़ादारियाँ नहीं हैं पर पूरा मज़ा उठाने के लिए लोग बड़ी आसानी से अपनी वफ़ादारियाँ चुन रहे हैं.. एक ही परिवार के भीतर लोगों की वफ़ादारियाँ बँट गई हैं। ऐसा होने के पीछे किसी खास खिलाड़ी का आकर्षण काम कर रहा है शायद!

वैसे मज़ा लेने वालो दो बैलों के युद्ध, दो मुर्ग़ों के युद्ध, दो कुत्तों के युद्ध में भी अपने-अपने पक्ष चुन कर मज़ा ले लेते हैं। मैंने इस पहलू का पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था। और सबसे बड़ी ग़लती मैंने ‘सब कुछ छोड़कर’ जैसा वाक्यांश इस्तेमाल कर के की.. भारतीयों के पास सब कुछ छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं है..

मेरा ये ख्याल कि शुरुआत में लोग उत्सुकतावश देखेंगे पर जल्दी ही ऊब कर पूर्वस्थिति में लौट जाएंगे, पूरी तरह ग़लत था। मेरा सोचना था कि वे ऊब कर जो पहले कर रहे थे वो करने लगेंगे.. पर पूर्वस्थिति जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं.. वो तो कुछ कर ही नहीं रहे थे.. और आई पी एल को उनके उबाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी.. वो पहले से ही इतने ऊबे हुए थे कि अपने समय को कैसे काटे इस प्रश्न के आगे लाजवाब थे।

अधिक से अधिक हो ये सकता था कि वे रिमोट बीबी के हाथ में दे देते और ‘एकता की सास’ में क्या हुआ, देखने लगते बीबी के साथ। पर अभी शायद बीबी 'एकता की सास' से ऊब कर 'आई पी एल के छक्कों' को देख रही है। मेरे एक मित्र इस बात को कुछ यूँ रखते हैं कि “जिस आदमी ने दिन भर दफ़्तर में मरवाई हो वो शाम को आकर कुछ शुद्ध मनोरंजन चाहता है.. और आई पी एल से अच्छा ड्रामा उसे कहाँ मिलेगा?”

बात बहुत सरल है.. हर आदमी के भीतर एक तमाशाई है जो सड़क होने वाले झगड़े को देखने के लिए साइकिल रोक कर किनारे खड़ा हो जाता है। सिर्फ़ वही आदमी एक बार उड़ती नज़र डाल कर आगे बढ़ जाता है जिसके पास करने के लिए कुछ सार्थक हो.. घर से कोई मक़्सद ले कर निकला हो।

बात घूम कर फिर उसी मक़्सद पर जा अटकती है.. या तो अधिकाधिक लोग भटके हुए हैं और जीवन का उद्देश्य खोज पाने में नाकामयाब रहे हैं.. और बस कुछ विरले महापुरुषों ने अपना जीवन उस अमूल्य ध्येय को पाकर सफल किया है। और या फिर वे भ्रमित आत्मा है और वास्तव जीवन का कोई मक़सद नहीं.. और ये बात हर तमाशाई जानता है और सब कुछ भूल कर मज़े से तमाशा देखता है।

सोमवार, 5 नवंबर 2007

असल में क्या होती है लीला!

मेरा अपने आस-पास के जगत से कैसा रिश्ता है यह तय होता है इस बात से उस पल में अपने जगत में कितना धँसा हुआ हूँ मैं। दूर बैठकर ठोड़ी पर हाथ रखकर मनन करते रहने से पेड़, झाड़ी, गली-मकान भी दूर रहकर मनन मुद्रा बनाए रखते हैं। मगर जैसे ही विचारक को लंगड़ी मार कर खिलवाड़ के लिए उमड़ता हूँ, गली-मकान, पेड़-झाड़ी, स्कूटर-नाली का भी चरित्र बदल जाता है। क्यों, क्योंकर, किस तरह नहीं जानता पर अनुभव से जानता हूँ।

चलायमान हो जाता है सारा आस-पास, एक स्पंदन में धड़कने लगता है, जैसे जो गोशे चुपचाप अनजाने भाव में सिमटे-लिपटे पड़े थे अचानक एक परिचय की बयार में फड़कने लगे हों। खेलते हुए ये सारी भौतिक इकाईयाँ भी जैसे हमारे साथ एक खेल में शामिल हो जातीं हैं। जब इस खेल भाव से मैं उनके सम्पर्क में आता हूँ तो न तो बहुत गम्भीर होता हूँ न बहुत आह्लादित, न उनसे कुछ लेना चाह रहा होता हूँ और न कुछ देना। किसी मक़्सद किसी मंशा से उन भौतिक इकाईयों के सम्पर्क में नहीं आता; अपनी मौज में उनके क़रीब आता-जाता हूँ। जो आम तौर पर एक गेंद की शक्ल में यहाँ से वहाँ उछल-कूद कर रही होती है।

ये आम अनुभव है, सभी को होता है बचपन में और मेरे जिसे कुछ लोग जो बचपन में मनन के मारे जम के खेलने से रह गए, उन को अब भी होता है- खेलने के बचे हुए घण्टे पूरे करते हुए। इस सिलसिले के दौरान हम आस-पास के सभी पेड़, पत्थर, झाड़ी, दीवार, नाली, स्कूटर, साइकिल सभी के सम्पर्क में आते हैं।

इस अनुभव के दौरान एक और अनुषंगी अनुभव होता है। मैंने पाया है कि खेल शुरु होने के कुछ समय बाद ही ये सारी इकाईयाँ भी हमारे साथ खेल में शामिल हो जाती हैं- अपनी भौतिक सीमाओं के अन्दर रहते हुए। झाड़ी बहुत चाह कर भी अन्डर-आर्म बोलिंग नहीं कर सकती, मगर फ़ील्डिंग कर सकती है और करती है। कभी-कभी अपनी शानदार फ़ील्डिंग के मुज़ाहिरे पर दाद न मिलने या किसी दूसरी वज़ह से शैतानी भी करने लगती है। जैसे ही गेंद उसके पास आती है वह उसे लपक के अन्दर कर लेती है और वापस ही नहीं करती। अरे भाई साहब मैंने कितनी बार तो मोटरसाइकिल को गेंद को अपने पहियों के तीलियों में जकड़ के पकड़ते हुए पाया है और कितनी बार कार के अपने पेट के नीचे लुकाते हुए। नालियाँ भी कुछ कम पंगेबाज़ नहीं होती। गेंद को जैसे लील लेती हैं, फिर खोजते रहिये आप? अब ये पूरी तरह उनकी नाराज़गी के स्तर पर निर्भर होता है कि गेंद आप को वापस मिलेगी या नहीं मिलेगी।

मेरी ये बात उनको भी हवाई लग सकती है जिनके जीवन का मक़सद कुर्सी-बिस्तर और मकान-गाड़ी ही है। लेकिन जिन लोगों ने बचपन में अपनी न जाने कितनी गेंदे इस तरह से गँवाई हैं, वे मेरी बात समझेंगे। मैं तो आज तक गँवा रहा हूँ.. एक तो कल शाम को ही लील ली गई नाली द्वारा। जिस से खीज कर यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा हुई। और पोस्ट लिखते-लिखते ये समझ आई कि असल में क्या होती है लीला!
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