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बुधवार, 3 दिसंबर 2008

क्या आप ने यह नक़्शा देखा है?


मुम्बई पर हुए हमलों को लेकर भारत और पाकिस्तान में हड़कम्प मचा हुआ है। भारत के अन्दर ये समझदारी है कि दस के दस आतंकवादी पाकिस्तान से बोट के ज़रिए आए थे और उनका मक़सद भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुँचाना था जिसके लिए उन्होने लियोपोल्ड कैफ़े, ताज पैलेस और ओबेरॉय ट्राईडेन्ट जैसे होटलों को निशाना बनाया ताकि भारत के लोगों के भीतर एक खौफ़ पैदा करने के साथ-साथ विदेशियों को भी भारत आने और व्यापार करने से हतोत्साहित किया जा सके। नतीजतन भारत को भी पाकिस्तान की ही तरह एक असुरक्षित ज़ोन घोषित मान लिया जाय जहाँ क्रिकेट खेलने से अब भारतीय खिलाड़ी भी इन्कार करने लगे हैं।

मगर पाकिस्तान में आम राय है भारत की यह समझदारी निराधार है और इन हमलों का पाकिस्तान से कोई लेना-देना नहीं। पाकिस्तान ही नहीं अपने भारत के भी कुछ अति सक्रिय बुद्धि आश्रित जीवन जीने वाले बन्धु भी यह प्रचार करने लगे हैं कि यह हमले हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने इज़्रयाइली गुप्तचर संस्था मोसाद के साथ मिलकर आयोजित किए हैं। इनका मानना है कि आतंक का इस आयोजन का मक़सद हिन्दुत्ववादी आतंक की जाँच को दफ़नाना और पूरा ध्यान मुस्लिम आतंकवाद की तरफ़ वापस घुमाना था।

इस सोच के अनुसार ए टी एस प्रमुख हेमन्त करकरे की हत्या कोई दुर्घटना नहीं बल्कि एक सुनियोजित साज़िश है। यहाँ तक कि सी एस टी स्टेशन पर ली गई फोटो में अजमल क़सव के हाथ में बँधा कलावा उस के हिन्दू होने का सबूत है। पाकिस्तान के लोग तो यह भी आरोप लगा रहे हैं कि हम हमले भारतीय गुप्तचर संस्था ने खुद आयोजित किए हैं ताकि वो पाकिस्तान पर हमला कर सके।

पाकिस्तानी पक्ष और हमारा अपना एक बुद्धिजीवी वर्ग सारे सबूतों को अपनी सहूलियत से विश्लेषित कर रहा है। वो मानते हैं सब कुछ भारतीय षडयंत्र है.. मगर हाथ के कलावे के सबूत को षडयंत्र का हिस्सा नहीं समझते.. उसे एक सच की तरह क़सव के हिन्दू होने का प्रमाण मान लेते हैं। हम मानते हैं कि करकरे, कामटे, और सलसकर का एक कार में बैठ कर कामा हस्पताल की ओर जाना के बुरा संयोग था.. वे इस में एक गहरी साज़िश की बू पाते हैं। दि़क़्क़्त ये भी है कि वे सारे घटना क्रम को भारतीय राजनैतिक परिस्थितियों के चश्मे से समझना चाहते हैं। मगर दुनिया छोटी हो गई है और आतंकवाद एक अन्तराष्टीय परिघटना है, जिसे सिर्फ़ बजरंग दल के चश्मे से समझना गहरी भूल होगी।



मुम्बई में आतंकवादी हमले के दो दिन पहले डी एन ए में एक रपट छपी थी जिसमें पाकिस्तान, अफ़्गानिस्तान और ईरान की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने की एक अमरीकी योजना का उद्घाटन किया गया था। और यह भी बताया गया था कि इस योजना को लेकर पाकिस्तानी हल्क़ों में किस तरह की बेचैनी और खलबली मची हुई है। एक बेहतर मिडिल ईस्ट को स्थापित करने की अमरीकी सोच के तहत इस नक़्शे को सबसे पहले आर्म्ड फ़ोर्सेस जर्नल में छापा गया।


इस नए नक़्शे में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत को दक्षिण-पूर्वी ईरान का हिस्सा मिलाकर एक स्वतंत्र देश बना दिया गया है। हेरात समेत पश्चिमी अफ़्गानिस्तान को ईरान में शामिल कर दिया गया है। और नार्थ वेस्ट फ़्रन्टियर प्रोविन्स तथा पाक अधिकृत कश्मीर को अफ़्गानिस्तान के हवाले कर दिया गया है। ईरान और अफ़्गानिस्तान का नफ़ा नुक़्सान बराबर हो गया मगर पाकिस्तान को बुरी तरह क़तर दिया गया है। अगर अमरीका इस योजना को लागू कर ले गया तो पाकिस्तान पंजाब और सिन्द प्रांत की एक पतली सी पट्टी भर बन कर रह जाएगा।

अफ़्गानिस्तान में सात साल लम्बी लड़ाई आज भी किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुँची है क्योंकि कबाइली पख्तूनो के लिए पाक-अफ़्गान सीमा का कोई महत्व ही नहीं है। और तालिबान लड़ाके भाग-भाग कर इधर-उधर होते रहते हैं। बहुत दिनों तक अमरीकियों ने पाकिस्तान से उम्मीद की वे अपनी सीमा तालिबानों से मुक़ाबला करेंगे। मगर उन्होने अपने वाएदों को सदा की तरह ज़िम्मेदारी से नहीं निभाया। लिहाज़ा आजकल अमरीकी सेना पाक सीमाओं का अतिक्रमण बिना उनकी अनुमति के करती रहती है। इस को लेकर भी पाकिस्तान में बेहद आक्रोश रहा है मगर अमरीकी शक्ति के आगे वे बेबस हैं और जानते हैं कि सीधे मुक़ाबले में उनका जीतना सम्भव है इसलिए आतंकवाद का गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे हैं।

पाकिस्तान के तमाम आतंकवादी संगठन अपने देश के भीतर, अमरीकी ठिकानों पर हमले तो कर ही रहे थे, इस नक़्शे के सार्वजनिक होने पर और भी बौखला गए। और पाकिस्तान के बाहर भी सुरक्षित समझे जाने वाली मुम्बई जैसी जगहों पर अमरीकी, ब्रितानी और इज़्रायली नागरिकों को निशाना बना डाला। कोई कह सकता है कि मरने वालों तो अधिकतर हिन्दुस्तानी हैं। ठीक बात है लेकिन यह भी देखना चाहिये कि दस में सिर्फ़ दो आतंकवादियों ने शुद्ध भारतीय ठिकानों पर हमला किया.. जब कि छै ने विदेशियों की शरणस्थली पर और दो ने सिर्फ़ यहूदी ठिकाने पर। क्या इस से उनकी वरीयता का कुछ पता चलता है? यह हमला एक अन्तराष्ट्रीय युद्ध का एक हिस्सा था जो भारत की ज़मीन पर लड़ा गया।

आखिर में उन लोगों के लिए एक सलाह जो ये समझते हैं कि हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने हेमन्त करकरे की हत्या करने के लिए यह षडयंत्र रचा- भाई लोगों ज़रा जनता का मूड पकड़ना फिर से सीखो! साध्वी प्रज्ञा और अन्य गिरफ़्तारियों को लेकर आम हिन्दू जनमानस में भाजपा के खिलाफ़ नहीं बल्कि उसके पक्ष में हवा तैयार हो रही थी। लोगों में करकरे के खिलाफ़ एक ग़ुस्सा विकसित हो रहा था.. और साध्वी के प्रति एक सहानूभूति। करकरे की मृत्यु से तो उलटा भाजपा के हाथ से एक चुनावी मुद्दा छिन गया है..

शनिवार, 15 नवंबर 2008

न्याय का आतंक

पिछले दो हफ़्तो में जिस तरह से हिन्दू साधु और साध्वी आतंकवाद के सिलसिले में पकड़े गए हैं उसे लेकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मैं जानता हूँ कि मेरी ही तरह तमाम अन्य मित्र भी ऐसा महसूस कर रहे हैं। ये ऐसा मामला है कि बुरा लगना स्वाभाविक है.. आप की आस्थाएं जहाँ से जुड़ती हों उस इमारत के कुछ लोग यदि गम्भीर आरोपों के घेरे में आ जायं तो धक्का तो लगता है। खासकर और, जब वही आरोप हम दूसरे समुदाय के लोगों पर लगाते रहे हों।

अपने हिन्दू समुदाय के लोगों को मेरा मशवरा हैं कि वे बौखलाए नहीं, संयम से काम लें। यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा।

लेकिन अगर आप मानते हैं कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय सरकार, और पुलिस के साथ-साथ न्याय-प्रणाली भी शामिल है तो इस पर गु़स्सा नहीं अफ़सोस करने की ज़रूरत है कि हमारे देश के बहु-संख्यक हिन्दू जन अपने ही धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में खुशी-खुशी सहयोग कर रहे हैं? और जिस समाज के इतने सारे पहलू इस हद तक सड़-गल गए हों उसके साधु-संत और महन्त बन कर घूमने वाले लोग क्या निष्पाप होंगे?

आम तौर पर माना जाता है कि धर्म की भूमिका मनुष्य और ईश्वर के बीच एक स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित करने की है। पर यह सच नहीं है.. असल में दुनिया के अधिकतर धर्म अपने स्वभाव में आध्यात्मिक से अधिक सामाजिक हैं। इस भूमिका के सन्दर्भ में एक छोर पर इस्लाम जैसा धर्म है जो सामाजिक जीवन के बारे में सब कुछ परिभाषित करने का प्रयास करता है तो दूसरे छोर पर बौद्धों और जैनों की श्रमण परम्परा जो समाज को त्याग देने में ही धर्म का मूल समझते थे।

इन दो छोरों के बीच हिन्दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय जो अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग भूमिका निभाते रहे हैं। आप को हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले साधकों की परम्परा भी मिलेगी, शुद्ध पारिवारिक जीवन जीने और तिथि-वार के अनुष्ठानों से दैनिक जीवन को अर्थवान करने वाली वैष्णव परम्परा भी है, घोर अनैतिक समझे जाने वाले वामाचारी तांत्रिक भी हैं, और अपने सम्प्रदाय के हितों के लिए हथियार ले कर युद्ध करने वाले अखाड़ों के सन्यासी भी हैं।

अपने धर्म के सामाजिक पहलू के पोषण के लिए इस्लाम में एक लम्बी परम्परा रही है जिसे लोकप्रिय रूप से जेहाद का नाम दिया जाता रहा है। ईसाईयत ने भी अपनी धर्म-स्थानों पर क़ब्ज़े के लिए चार-पाँच सौ साल तक क्रूसेड्स का सिलसिला जारी रखा। इसके अलावा ईसाईयों में पेगन्स के खिलाफ़ हिंसक गतिविधियों में भी उनके भीतर वैसा ही उत्साह जगाया जाता रहा जैसे कि इस्लाम में समय-समय पर क़ाफ़िरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम होता रहा है।

सनातन धर्म भी इस तरह की सामाजिक हिंसा से अछूता नहीं रहा है। शैव-वैष्णव संघर्ष, बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष का स्वरूप भी बेहद क्रूर और हिंसक रहा है। पुष्यमित्र का अपने ही राजा बृहद्रथ की हत्या कर राज्य हथियाने के पीछे एकमात्र कारण बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष ही था। फिर गुरु नानक जैसे परम ज्ञानी की सिख परम्परा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य रूप लेना पड़ा (हालांकि विडम्बना ये है सैन्य रूप लेते ही नानक की परम्परा का अस्तित्व गहरे तौर पर बदल गया)।

धर्म के नाम पर होने वाली इस तरह की सारी सामाजिक हिंसा को करने वाले लोग किसी प्रकार के नैतिक दुविधा का सामना नहीं करते क्योंकि वे इस हिंसा का हेतु सीधे अपनी आस्था और नैतिकता के स्रोत अपने धर्म से ग्रहण करते हैं। वे राज्य की न्याय-व्यवस्था से इतर और उससे स्वतंत्र एक न्याय-प्रणाली में विश्वास करते हैं।

किसी ने अपराध किया या नहीं इसका फ़ैसला वो किसी नौकरीपेशा न्यायाधीश पर नहीं छोड़ते, खुद करते हैं। और उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ये भी स्वयं ही तय करते हैं और स्वयं ही निष्पन्न भी कर डालते हैं। उनकी अपनी नज़र में वे अपराधी नहीं होते बल्कि उस न्याय—व्यवस्था के रखवाले होते हैं जिस पर उनका पक्का यक़ीन है।

तमिलो के हितों की लड़ाई लड़ने वाला प्रभाकरन भी अपनी नज़र में न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। भूमिहीन किसानों के हितों के लिए हथियार बन्द संघर्ष करने वाले नक्सली भी न्याय के पक्ष में खड़े हैं। ओसामा बिन लादेन और अफ़ज़ल गुरु भी इंसाफ़ के सिपाही हैं। और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे पर भी यही आरोप है कि उन्होने क़ानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है।

राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक वो अपने द्वारा परिभाषित क़ानून को लागू करा सके। इसके लिए ऐसे सभी लोग जो न्यायप्रणाली में दखल देने की कोशिश करते हैं उन्हे राज्य, अपराधी की श्रेणी में रखता है। मगर राज्य चाह कर भी अपनी न्याय की परिभाषा को हर व्यक्ति के भीतर के न्याय बोध पर लागू नहीं कर पाता।

अब जैसे साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे के मामले में ही लोगों ने अपने-अपने न्याय-बोध से फ़ैसले कर लिए हैं। कुछ लोग तो अवधेशानन्द तक को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं। और कुछ लोग आरोपियों के अपराधी साबित हो जाने पर भी उन्हे अपराधी नहीं स्वीकार करेंगे.. क्योंकि उनके न्यायबोध से उन्होने किसी को मार कर कोई अपराध नहीं किया। ऐसे न्याय-बोध के प्रति क्या कहा जाय?

फ़िलहाल मामला अदालत में है और अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है। वैसे तो आधुनिक क़ानून यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है तब तक उसका जुर्म साबित नहीं हो जाता। मगर आजकल इसका उलट पाया जाता है। जैसे परसों ही मैंने कांगेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन को टीवी पर बोलते सुना कि let them prove their innocence.. । मेरा ख्याल था कि आप अदालत में जुर्म साबित करने की कोशिश करते हैं.. मासूमियत नहीं।

मज़े की बात ये है कि उस पैनल डिसकशन में मौजूद विहिप के लोगों ने भी इस बयान पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। क्योंकि इस बात पर तो वे खुद भी आज तक विश्वास करते आए हैं और इस समझ की पैरवी करते आए हैं। तभी तो एक बड़ा तबक़ा आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने वाले हर मुस्लिम युवक को अपराधी ही समझता रहा है। यहाँ तक कि कुछ शहरों का अधिवक्ता समुदाय एक स्वर से आरोपी की पैरवी तक करने से इंकार करते रहे हैं और उस मुस्लिम युवक के वक़ील बनने वाले के साथ मारपीट तक करते पाए गए हैं। ये है हमारे समाज का न्यायबोध?

आखिर में साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को आतंकवादी मानने वालों से मैं गुज़ारिश करूँगा कि वे याद कर लें कि आतंकवादे के मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों के विषय में उनकी क्या राय होती थी? जो लोग मालेगाँव जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बम विस्फोट करना न्यायसंगत समझते हैं उनसे कोई क्या कह सकता है? मगर साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को निर्दोष क़रार देने वालें मत भूलें कि गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे।

सोमवार, 4 अगस्त 2008

जो वादा किया..

आजकल आतंकवाद के संदर्भ में बार-बार इज़राईल का नाम लिया जाता है और उसे एक आतंकवाद के खिलाफ़ एक मज़बूत आदर्श के बतौर प्रस्तुत किया जाता है। इसके समर्थकों को शायद इज़राईल का उदाहरण इसलिए पसन्द आता होगा वहाँ फिलीस्तीनी ईंट का जवाब इज़राईली गोली से दिया जाता है।

मेरे विचार में पहले तो इज़राईल के आदर्श का यह विचार तार्किक रूप से ही ग़लत है क्योंकि इतने लम्बे संघर्ष के बाद भी इज़राईल आतंकवाद को न तो कम करने में सफल हो सका है न ही उसे घेरने में। आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं और इज़राईल आतंकवाद के नाम से जिसे चिह्नित करता है उसका फिलिस्तीनियों, अरबों, मुसलमानों और शेष दुनिया के बीच लोकप्रिय समर्थन भी घटा नहीं बढ़ा है। दूसरे इज़राईल से भारत से सीखने की बात भारत की आतंकवाद के विरुद्ध अपनी एक जायज़ लड़ाई पर नाजायज़ रंग पोतने जैसी है।

क्यों? इसके लिए ये समझना ज़रूरी है कि आखिर इज़राईल है क्या? और जो आतंकवादी उसकी जान के पीछे पड़े हैं वो क्या हैं?

इज़राईल की भूमि
इज़राईल एक उपाधि थी जो ईश्वर के फ़रिश्ते से युद्ध करने के बाद अब्राहम के पोते याक़ूब को मिली था। आगे चलकर यहूदी जन अपने सपनों के देश को इज़राईल की भूमि नाम से बुलाने लगे।

यहूदी या ज्यू अब्राहम के द्वारा चलाए गए धर्म के मानने वालों का नाम है। इन में से अधिकतर अब्राहम की सीधी संताने हैं। अब्राहम इज़राईल में नहीं रहते थे। वे पूर्व में मेसोपोटेमिया में कहीं से आए थे। ईश्वर ने कनान (तत्कालीन फिलीस्तीन/ इज़राईल) के उस क्षेत्र को अब्राहम की संतानो को देने का वादा अब्राहम से किया था। लेकिन अब्राहम और उनकी संताने लम्बे समय तक यहाँ-वहाँ भटकते रहे। मिस्र के फ़िरौन काल में ग़ुलाम भी रहे जहाँ से अपने सारे जातीय बन्धुओं को मूसा निकाल के लाए इसी देश के ईश्वरीय वादे पर भरोसा कर के। और बहुत सालों तक भटकने के बाद और अमोरी, बाशान, मोआबी आदि लोगों से एक खूनी संघर्ष के बाद यहूदी जन ईश्वरीय वादे वाली ज़मीन पर क़ाबिज़ हुए।

इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर दाऊद और सुलेमान के प्रसिद्ध शासन के बाद लगभग १००० ई०पू० से ६०० ई०पू० के बीच में इज़राईल और जूडाह नाम के दो यहूदी देश इस भू-भाग पर क़ायम हुए। बाद में ये यहूदी लोग निरन्तर दूसरी जातियों के राजनैतिक प्रशासन में रहे। पहले असीरी, बेबीलोनी, फिर पारसी, फिर ग्रीक और फिर रोमन; जिन्होने इस भूभाग का नाम बदलकर फिलीस्तीन कर दिया। इन सब में उनके साथ सबसे अच्छा सुलूक पारसियों का ही रहा।

रोमनो के प्रशासन के दौरान ही प्रभु ईसा की लीला इस देश में घटित हुई थी। ईसा स्वयं एक यहूदी थे और उस समय इस देश में यहूदियों की ही बहुतायत थी मगर राज रोमनो का था। इन दोनों के अलावा अन्य कई राष्ट्रीयताएं भी जैसे सुमेरी, असीरी, मिस्री, बेबीलोनी, अमोरी, पारसी, फ़ीनिशी आदि साथ रहती थीं। लगभग उसी समय से बड़ी संख्या में इस भूभाग से यहूदियों का पलायन शुरु हो गया; लगातार चलने वाले युद्ध और अन्य जिन भी वजहों के चलते। फिर भी यहूदियों की एक अच्छी संख्या इस देश में बाद तक बनी रही।

इस्लाम के जन्म के बाद यह भू-भाग मुसलमानों के राजनैतिक प्रशासन के अन्तर्गत चला गया। इस्लाम के प्रभाव में यहूदियों का एक हिस्सा धर्म परिवर्तन कर के मुसलमान हो गया। मगर शेष यहूदियों, ईसाईयों और मुसलमानों का एक शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व बना रहा। फिर ग्यारहवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी के बीच योरोपीय ईसाईयों (फ़्रैंक्स या फ़िरंगियों) ने धर्म-युद्ध के नाम पर इस देश पर लगातार क़ब्ज़े लिए क्रूसेड्स लिए और हज़ारों लोगों का खून बहाया जिनमें यहूदी प्रमुख थे। क्योंकि ईसा के जीवन काल में उन्हे यहूदियों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था और जिसके कारण यहूदी सदा के लिए ईसाइयों की नफ़रत के पात्र बन गए थे।

अब्राहम से वादा
अब्राहम को ईश्वर से प्रजापति होने का वरदान मिला था। ईश्वर ने वादा किया था कि यदि वो ईश्वर की भक्ति करे तो वे उसकी सन्तानों को दुनिया की सबसे प्रभावशाली कौ़म बना देंगे। तभी से यहूदी मानते आए हैं कि वे अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं। वे दुनिया में जहाँ भी रहते हैं अपनी एक अलग पहचान और तौर-तरीक़े क़ायम रखते आए हैं। इसके अलावा यहूदी लोग बेहद मेहनती और उद्यमी होते हैं तथा हर क्षेत्र में सफलता के शीर्ष तक जाते हैं। मार्क्स, फ़ाएड, स्पीलबर्ग, आइंसटीन, वुडी एलेन, नोअम चॉम्सकी, ज़ुबीन मेहता, लेनार्ड कोहेन; ये सारे प्रतिभाशाली लोग यहूदी परिवारो में जन्मे।

मगर दुनिया भर में यहूदी जहाँ भी रहे हमेशा एक अल्पसंख्यक के बतौर ही रहे और हर जगह लोगों की घृणा और तिरस्कार का पात्र बनते रहे। मुख्य तौर पर योरोप में ईसाईयों के हाथों। पूरे मध्यकाल में इंगलैंड, फ़्रांस, स्पेन, सिसली, पुर्तगाल, ऑस्ट्रिया सभी देशों में यहूदियों को प्रताड़ित किया जाता रहा और हज़ारों की तादाद में निकाला जाता रहा। मुस्लिम देशों में भी यहूदियों के प्रति कोई विशेष प्रेम नहीं रहा पर ईसाईयों जैसे अत्याचार मुसलमानों ने उन पर नहीं किए। सम्भवत: उनके प्रति यह सार्वभौमिक नफ़रत उनके श्रेष्ठ भाव और आर्थिक-भौतिक सफलता से जन्मी ईर्ष्या से भी उपजती होगी। इस नफ़रत का सबसे बड़ी अभिव्यक्ति हिटलर के जर्मनी में हुई जिस के बारे में सभी जानते हैं।

लेकिन उस से बहुत पहले से ही इस तरह बिखरे हुए यहूदी एक ‘अपने’ देश, जिसका वादा ईश्वर अब्राहम से कर चुके थे, में रहने की कल्पना करते आए थे। और उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में यहूदियों ने ज़ायोनिस्ट आन्दोलन(ज़ायन यहूदियों के पवित्र शहर जेरूसलेम की एक पहाड़ी का नाम है) के तहत अपने उसे वादे वाले देश में लौटने का फ़ैसला किया। और दुनिया भर में बिखरे यहूदी १८९० के बाद से फिलीस्तीन में आ-आ कर बसने लगे।

ज़ायोनिस्ट आन्दोलन ने अर्जेन्टीना के एक हिस्से में भी अपना देश बनाने की बात पर विचार किया। लेकिन फ़ैसला फिलीस्तीन के पक्ष में हुआ क्योंकि जेरूसलेम से पुराना जुड़ाव था और फिलीस्तीन में बसना उन्हे अपेक्षाकृत अधिक आसान लगा क्योंकि अधिकतर इलाक़ा मरुभूमि है और जनसंख्या भी विरल है। हो सकता है कि तीसरा कारण यह भी रहा हो कि ऐतिहासिक रूप से मुसलमानों से उनके रिश्ते कभी वैसे कटु नहीं रहे जैसे कि ईसाईयों के साथ।

यहूदी और मुसलमान
इस्लाम के जन्म से पहले से अरब देशों में यहूदी लोग रहते आए थे। विशेषकर मदीना में उनकी एक बड़ी आबादी का उल्लेख आता है। मुहम्मद को मदीना में शरण देने वालों में यहूदी भी थे। बाद में यहूदी समुदाय और मुहम्मद के समर्थकों के बीच समझौता टूटा और उनके बीच युद्ध की स्थिति भी बनी जिसमें कुछ यहूदी मारे भी गए। बाद में जब खलीफ़ा उमर ने अरब में एक क़ौम के मुहम्मद साहब के क़ौल को लागू किया तो कुछ यहूदी अपना धर्म बदल कर मुसलमान हो गए और शेष को अरब छोड़कर जाना पड़ा। आगे चलकर मुसलमानों ने फिलीस्तीन पर भी राजनैतिक अधिकार कर लिया। और उनके शासन में फिलीस्तीन में यहूदी, ईसाई और मुसलमान अमन-चैन से रहे। अन्दलूसिया (आधुनिक स्पेन) के मुस्लिम शासन काल में यहूदियों को समाज में काफ़ी सम्मानित स्थान प्राप्त थे।

ईसाईयों द्वारा अपने पवित्र धर्म स्थलों को अपने प्रशासन में लेने के लिए बारहवीं से पन्द्रहवीं सदी तक चलाए गए धर्म युद्ध(क्रूसेड्स) के लम्बे दौर में भी उनके बीच कभी झगड़ा हुआ हो ऐसा नहीं पाया जाता। बल्कि क्रूसेड्स के दौरान वे ईसाईयों के हाथों उनका क़त्ले आम हुआ। ईसाईयों से उनका कोई जातीय रिश्ता नहीं रहा मगर अरब मुसलमान तो उनके चचेरे भाई हैं।

बाइबिल के पुराने विधान में कथा है कि अब्राहम के जब लम्बे समय तक कोई सन्तान न हुई तो उसने अपनी पत्नी सारा की अनुमति से उसकी दासी हैगर के साथ संसर्ग किया। सारा को लगा कि बड़ा बेटा होने के नाते उत्तराधिकार इस्माईल का होगा इसलिए उसने षड्यंत्र करके (इस्माईल से) गर्भवती हैगर को मरुभूमि में निष्कासित करवा दिया जहाँ उसने इस्माईल को जन्म दिया। बाद में ईश्वर के चमत्कार से अब्राहम को उसकी वैध पत्नी सारा से भी एक सन्तान हुई- इसाक। आगे चलकर अब्राहम के छोटे बेटे इसाक के वंशज यहूदी के तौर पर जाने गए। और बड़े बेटे इस्माईल की सन्तानें अरब राष्ट्र के रूप में, जो कालान्तर में सब मुसलमान हो गए।

अब्राहम यहूदियों के लिए तो परम पूज्य प्रजापति हैं ही इस्लाम में भी उन्हे पैग़म्बर का दरजा हासिल है।

इन तथ्यों से आप जो भी नतीजे निकालें, मेरे दो निष्कर्ष हैं..

१) ईश्वर ने अब्राहम को किया अपना वादा १००० ई०पू० से ६०० ई०पू० तक निभाया। उसके बाद यहूदियों ने उस राज्य को अपने हाथ से निकल जाने दिया। २५०० साल बाद वो फिलीस्तीन के भू-भाग पर अपने यहूदी राष्ट्र के दावे की वैधता के रूप में बस वही एक ईश्वरीय वादा पेश करते हैं।

२) यहूदी दुनिया भर में नापसन्द किए जाते रहे। मगर मध्यकाल में ईसाई राज्यों ने उन पर जिस तरह के सतत अत्याचार किए हैं, उनके आगे मुसलमान राज्यों द्वारा यहूदियों पर लगाए गए जिज़िया कर जैसे भेदभाव कहीं नहीं ठहरते।


अगली कड़ी में आगे की कहानी..

बुधवार, 30 जुलाई 2008

क्यों नहीं फट रहे बम?

आतंकवाद की गुत्थी सुलझने के बजाय उलझती ही जा रही है। सूरत शहर में अब तक २० बम बरामद हो चुके हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि इसे सूरत की पुलिस की सफलता मान कर खुश हुआ जाय या ये सोचकर असफलता मान कर दुखी हो लिया जाय कि पेड़ पर और होर्डिंग पर आतंकवादी बम रखते रहे और किसी को पता तक नहीं चला। सब से रहस्यमय पहलू तो बमों के न फटने का है।

अब तो खुद सरकार की ओर ये विचार आ रहा है कि ये सारे बम पुलिस एजेन्सीज़ का ध्यान बँटाने के लिए लगाए गए थे। दिमाग की सोच को अवरुद्ध कर देने वाली बात ये है कि आतंकवादियों ने ध्यान हटाने के लिए कारगर बम क्यों नहीं लगाए? बम के धमाके होते, और लोग मरते, और आतंक फैलता.. तो क्या आतंकवादियों का मक़्सद और बेहतर तरीक़े से पूरा नहीं होता?

अब या तो आतंकवादी की यह बेहद घटिया असफलता है जिसके लिए उनके आक़ा उनकी बुरी तरह से खबर ले रहे होंगे.. “मरदूदों! बेंगलूरू और अहमदाबाद में सिर्फ़ एक-एक बम ही समय से नहीं फटा.. तो फिर सूरत में क्या अफ़ीम की पिनक में बम फ़िट किए थे.. जो एक भी नहीं फटा?” ये बात ज़रा हजम नहीं होती.. अरे कम से कम एक तो फटता! एक भी नहीं फटा..! हद है!!

(वैसे एक विचार दिमाग़ में ये भी है कि कहीं ये बम सरकार ने ही तो नहीं..? अपनी मुस्तैदी दिखाने के लिए और ध्यान बँटाने के लिए। आखिरकार एक असफलता से ध्यान बँटाने का सबसे अच्छा तरीक़ा, एक सफलता ही होता है। )

या फिर ये आतंकवादियों की जानी-बूझी नीति के तहत किया है। ये सोच कर.. “कि लो बेटा.. देखो.. अगर हम चाहें तो किसी भी शहर में (मोदी के गुजरात में भी) एक शहर में बीस-बीस बम फ़िट कर दें और सैकड़ो को हलाक कर दें। लेकिन अभी नहीं करते अभी सिर्फ़ नमूना दिखा रहे हैं.. अभी भी वक़्त है सम्हल जाओ!” अगर ये बात है तो ज़रा सोचिये हम कितनी बड़ी मुसीबत में है.. पूरी तरह से आतंकवादियों के रहमोकरम पर।

समाज के एक विशेष वर्ग की नज़र से देखा जाय जो हर मुसलमान को देशद्रोही और आतंकवादी नहीं तो कम से कम उनका मददगार तो समझता ही है, तो ये सूरते हाल भयानक है। क्योंकि उनके हिसाब आतंकवादियों का बेहद विकसित और विराट नेटवर्क है, और यदि सचमुच है तो हमें हर रोज़ एक बड़ी घटना के लिए तैयार रहना चाहिये। क्योंकि जिस हिसाब से सूरत में बम मिले हैं उस हिसाब से देश के चप्पे-चप्पे में फैले आतंकवादी हर छोटे-बड़े क़स्बे में रोज़ाना धमाके कर सकते हैं।

अगर ये धमाके नहीं हो रहे तो इसके दो वजहें हो सकती हैं। पहली तो ये कि हमारी पुलिस बहुत ही मुस्तैद और चुस्त है। सारे सम्भावित आतंकवादियों को सलाखों के भीतर किया हुआ है और उनकी आगामी गतिविधि को पहले से भाँप लेने का तंत्र तैयार किया हुआ है। ये निहायत हवाई बात है। अगर ऐसा होता तो क्या सूरत के ये सूरते हाल हो सकते थे?

और वो अपराधियों को पकड़ने में कितनी बुद्धि से काम लेती है इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगाइये कि अहमदाबाद के विस्फोट के सिलसिले में पुलिस ने हलीम नाम के जिस शख्स को पकड़ा है उस पर आरोप है कि २००२ के दंगे में अनाथ हो गए बच्चों को रिलीफ़ कैम्प के बहाने ब्रेनवाश करके जेहादी बनाने का। बताया गया है कि ये हलीम तब से फ़रार था। और ये हलीम यदि सचमुच आतंकवादियों से मिला है तो इतने दिन फ़रार रहने के बाद ठीक धमाके वाले दिन शहर में लौट आया कि लो भाई पकड़ लो मुझे? हद है! और अठारह बम अहमदाबाद में फोड़ने में सफल होने वाले आतंकवादी कितने भी मूर्ख हों पर इतने तो नहीं होंगे कि सीधे उन्ही लोगों से सम्पर्क बनायें जिन को पुलिस पहले से तड़े हुए है। तो इतना तो तय है इन सम्भावित धमाकों के न होने की वजह पुलिस की होशियारी नहीं है।

तो फिर आतंकवादी क्यों रोज़ाना हर छोटे-बड़े क़स्बे में धमाके क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि अधिकतर पर्यवेक्षकों की बात मानी जाय तो इनका नेटवर्क बहुत्त विकसित और विराट है? तो क्या ये हम पर रहम खा कर ऐसा नहीं कर रहे? जो आतंकवादी अस्पतालों में बम विस्फोट कर चुके हैं उनके भीतर किसी भी मानवता की कल्पना बेमानी है।

तो फिर सच बात ये है कि देश का आम मुसलमान भले ही जींस के बदले अभी भी पैजामा पहनता हो, टीवी से क़तराता हो, मुख्यधारा से कटा-कटा रहता हो, और अपनी एक अलग पहचान में क़ैद रहना चाहता हो.. उस सब के बावजूद वो मासूम है। और उस पर निराधार आक्षेप लगाने वाले लोग उसे मुख्यधारा में आने में मदद करने के बजाय उसे वापस अपनी असुरक्षा के घेरे में धकेल रहे हैं।

रही बात बम फोड़ने वालों के वे आतंकवादी निश्चित ही गिने-चुने मुट्ठी भर विदेशी घुसपैठिये हैं या रोगी मानसिकता के गिने-चुने शुद्ध अपराधी हैं.. जिनका मजहब क्या है उस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। याद रहे इस देश की दो सबसे बड़ी आतंकवादी दुर्घटनाएं जिसमें देश के दो प्रधानमंत्री शहीद हुए, किसी मुसलमान आतंकवादी ने अंजाम नहीं दी थी।

लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि हमारी पुलिस और हमारा भ्रष्ट तंत्र इन अपराधियों को पकड़ने में बुरी तरह असमर्थ है । और वो अपनी असमर्थता पर पर्दा डालने की कोशिश मासूम मुसलमानों को पकड कर करती है। जिन्हे मेरी इस बात पर अतिरंजना नज़र आ रही हो वो ज़रा आरुषि केस को याद कर लें। और ये भी याद रखें कि जिन नौकरों को अभी अपराधी की तरह प्रदर्शित किया जा रहा है उनके खिलाफ़ भी अभी भी कोई पुख्ता सबूत नहीं है।

सोमवार, 28 जुलाई 2008

आतंकवाद: कुछ विचार

१) एशिया में इस्लामी तालीम का सबसे बड़ा केन्द्र दारुल उलूम देवबन्द दहशतगर्दी को इन्सानियत के खिलाफ़ ‘क़ाबिले नफ़रत जुर्म’ क़रार दे चुका है और कह चुका है कि इस्लाम इंसाफ़ की जंग में भी बेगुनाहों, इबादतगाहों और तालीमी मरकज़ को निशाना बनाने से मना करता है। पिछले साल दिए गए इस फ़त्वे के मुताबिक़ चन्द अत्याचारी लोग मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे है।

इस्लाम के इतिहास में और शेष दुनिया के इतिहास में हिंसा की क्या भूमिका रही है.. यह सब एक स्वतंत्र चिंता और अध्ययन का मसला है। अभी इतना समझा जाय कि इस्लामी दीन के आलिमो फ़ाज़िल आतंकवाद को ग़ैर-मज़हबी घोषित करके ऐसे सभी लोगों को अपने समाज की मुख्यधारा से काट कर फेंक चुके हैं जो अपने दिमाग़ की हिंसक बीमारियों की अभिव्यक्ति इस्लाम के नाम पर कर रहे हैं।

और इसलिए हर आतंकवादी हमले के होते ही इस्लाम-विरोध की माला जपने वाले अपने उन तमाम भाई-बहनों से मेरा विनम्र निवेदन है कि कृपया बाज़ आयें। क्योंकि न तो आप इस्लाम को जानते हैं न स्वयं अपने धर्म को। आप मात्र अपने पूर्वग्रहों को जानते हैं। उन के अँधेरे में खड़े होकर बौखलाये नहीं..एक दुर्घटना हुई है। कुछ घर हमेशा के लिए तबाह हो गए हैं। मनुष्य के अमूल्य जीवन के साथ खिलवाड़ हुआ है। ये एक दूसरे पर उंगलियाँ उठाने का अवसर नहीं है। कोशिश करें कि संयत रहें और अपने बने-बनाए नज़रिये से ऊपर उठकर एक इंसान की तरह सोचें।

२) समीर भाई ने लिखा है कि वे एक टिप्पणी का १२१ बार प्रयोग कर चुके हैं- 'दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!' उनकी इस बात में बड़ी विडम्बना है। क्योंकि देश के तमाम नेता, चाहे कांग्रेस के हो या भाजपा के या अन्य किसी भी दल के.. इसी टिप्पणी का इस्तेमाल कर रहे हैं। और न जाने कब से कर रहे हैं। और आगे भी करते रहेंगे। क्योंकि इसके अलावा उनके पास करने को कुछ नहीं है। क्यों? क्योंकि शांति बनाए रखने के लिए सभी का सहयोग चाहिये होता है और शांति भंग करने के लिए एक सिरफिरा ही काफ़ी है।

३) ऐसा मालूम होता है कि भाई शिवकुमार बुद्धिजीवियों से (मुझ से?) खफ़ा हैं।आखिर वो चाहते क्या हैं ? क्या किया जाय..? गाली दी जाय कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं..? “सब को मार दो.. तभी आतंकवाद खत्म होगा!”.. ऐसा बोल जाय? यदि सब लोग मिल कर समवेत स्वर में ऐसा बोलें तो क्या इस से आतंकवाद की समस्या सुलझ जाएगी? या इस विचार के कार्यान्वन से सुलझ जाएगी? मोदी जी ने इसी फ़ॉर्मूले के तहत गुजरात की मुस्लिम आबादी का दमन किया था। क्या हुआ?

साथ में ये भी कहा जा रहा है कि भारत चूँकि सॉफ़्ट स्टेट है इसलिए उसे आतंकवाद का दंश झेलना पड़ रहा है। ऐसा सोचने वाले महानुभावों का मत होता है कि आतंकवाद से निबटने के लिए अमरीका और इस्रायल की नीति का अनुसरण करना चाहिये। क्या ऐसे लोग जानते नहीं कि इस्रायल की तथाकथित ‘आतंकवाद’ की नीति बुरी तरह से असफल है?

पहले तो ये कि एक स्वतंत्र देश फिलीस्तीन में क़ब्ज़ा करने वाले विदेशी इस्रायलियों के विरुद्ध संघर्ष करने वालों को आप आतंकवादी कैसे कह सकते हैं? सच तो ये है कि इस्रायल अपने चरित्र में एक मध्ययुगीन आततायी देश है। जो निरन्तर युद्धरत रह कर फिलीस्तीनियों को कुचलने में अपनी पूरी ऊर्जा से संलग्न है मगर फिर भी असफल है। और उसके संदर्भ में एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की बात वैसे ही है जैसे एक महामूढ़ से न्यूक्लीयर एनर्जी से सम्बन्धित वार्तालाप करना।

रही बात अमरीका की आतंकवाद के मोर्चे पर सफलता की.. तो अगर आप अमरीका के भीतर आतंकवादी हमलो में मारे लोगों की संख्या देखेंगे तो धोखा खा जायेंगे। इस सफलता को सही-सही समझने के लिए इराक़ और अफग़ानिस्तान में मरे हुए अमरीकियों की गिनती कीजिये। करी?

४) आतंकवाद की आप को अस्सी परिभाषा मिल जायेंगी। जो चाहता है अपनी तरह से व्याख्या कर लेता है। पर जो भी हो रहेगी तो शुद्ध हिंसा ही। आज अमरीका और योरोप जिस ‘सभ्यता’ की दुहाई देते नहीं थकते उसकी बुनियाद में घनघोर हिंसा दबी पड़ी है। खुद अमरीका को महाशक्तिमान की पदवी हिरोशिमा और नागासाकी के बमकाण्ड के बाद ही मिली। क्या उसे आतंकवाद माना जाएगा ? या बलशाली की हिंसा आतंक नहीं कहलाती?

५) आतंकवाद अपेक्षाकृत नया शब्द है मगर राज्यसत्ता के प्रति प्रतिरोध पुराना है। और इस संघर्ष में आम जनता अछूती नहीं बनी रहती थी। बालाजी राव पेशवा के समय जब मराठे बंगाल, बिहार और उड़ीसा से चौथ वसूली की प्रक्रिया में उतरते तो जिधर से गुज़रते अपने पीछे जलते हुए गाँवों की एक लड़ी बनाते हुए चलते। उनका संघर्ष अलीवर्दी खान से था और गाँव वाले बेक़सूर थे मगर फिर भी वे मरते और तबाह होते। क्योंकि ये मराठों के युद्ध का एक पैंतरा था।

६)मनुष्य अभी भी एक हिंसक प्राणी है और एक ऐसे समाज में रहता है जिस की बाग़डोर राज्यसत्ता के खून-सने हाथों में है। राज्य चाहता है कि हिंसा का आचरण सिर्फ़ उसके संस्थाओ तक सीमित रहे मगर हमेशा ऐसा होता नहीं। कभी सत्तर के दशक में बंगाल के नौजवान नक्सलबाड़ी का नाम लेकर विद्रोही हो जाते हैं। कभी अस्सी के दशक में पंजाब के सिख खालिस्तान के सपने से मतवाले हो जाते हैं और फिर कभी दुनिया भर में मुस्लिम नौजवानों में जेहाद का जुनून सवार हो जाता है। मगर सत्ता कोई भी हो बाग़ियों के साथ एक जैसे पेश आती है.. दमन।

७)ये सच है कि ये ‘इस्लामिक’ आतंकवादियों का ये जुनून बीस सालों से जारी है। और ये कब तक जारी रहेगा ये न आप जानते हैं न हम। भारत में होने वाले आतंकवाद के तार पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान से लेकर इंगलैण्ड और अमरीका तक फैले हुए हैं। यह एक अंतराष्ट्रीय परिघटना है और इस आग में अमरीका और इस्रायल निरन्तर घी (पेट्रोल) डाल रहे हैं।

८) आखिर में एक क्रूर सवाल। इस दुखद घटना में मरने वालों की संख्या कितनी है? पचास निर्दोष लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हैं। आप जानते हैं सिगरेट और गुटका रोज़ाना कितने लोगों की जान ले रहा है? बाज़ार में जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड बीजो के आने के बाद से कितने किसानों ने आत्महत्या की इसका आँकड़ा तो आप के पास ज़रूर होगा। आप को क्या लगता है गर्भ में मार दी जाने वाली लड़कियों की संख्या ज़्यादा है या बम फटने से मरने वालों की?

९)मेरा आशय आतंकवाद का बचाव नहीं है लेकिन आप का ध्यान उस साज़िश की तरफ़ खींचना है जिसके तहत तमाम ज़्यादा ज़रूरी मुद्दों से आप की चिंता को हटा कर इस कम ज़रूरी मुद्दे की तरफ़ केन्द्रित कर देना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि यह मुद्दा हमें बाँटता है और हमारे बँटने से हमारे भीतर एक शत्रुभाव पैदा होता है जिसका लाभ उठाकर ये मतलबपरस्त राजनैतिक दल हमें अपने पीछे आसानी से गोलबन्द कर लेते हैं और अपना मतलब साधते हैं। वे सभी लोग जो राजठाकरे की विभाजक राजनीति की असलियत पहचानते हैं और खूब समझ लेते हैं मराठे-भैया के द्वन्द्व में कितना सत्व है। अफ़सोस की बात है कि वो लोग भी हिन्दू-मुस्लिम मामले में गच्चा खा जाते हैं।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

दहशतगर्दी के खिलाफ़ देवबंद का फ़तवा

उर्दू पत्र इंक़िलाब के आज के एडीशन में एक खबर है जो न तो मेरे अंग्रेज़ी के अखबार में है और न हिन्दी के अखबार में.. कम से कम आप लोगों की नज़र में आ जाय इसलिए यहाँ छापने की मेहनत कर रहा हूँ.. खबर मुखपृष्ठ पर ऐसे छपी है..

शीर्षक है - 'दहशतगर्दी के खिलाफ़ देवबंद का फ़तवा'.. तस्वीर के बगल के बॉक्स में ये मुख्य बिन्दु छापे हैं-

-एशिया में इस्लामी तालीम के सबसे बड़े मरकज़ ने दहशतगर्दी का मुआज़ना (तुलना) जेहाद से करने से मना कर दिया और कहा: जेहाद का मक़्सद बुराई के खिलाफ़ जंग है जबकि दहशतगर्दी का मक़्सद बेगुनाहों को निशाना बनाना.

-दहशतगर्दी को इन्सानियत के खिलाफ़ ‘क़ाबिले नफ़रत जुर्म’ क़रार दिया और कहा कि इस्लाम तवाज़माना (इंसाफ़ की) जंग में भी बेगुनाहों, इबादतगाहों और तालीमी मरकज़ को निशाना बनाने से मना करता है.

-फ़तवे के मुताबिक़ चन्द शिद्द्त-पसन्द (अत्याचारी) मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं.

यह फ़तवा मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के एक सवाल के जवाब में जारी किया गया. जावेद साहब ने पूछा था कि जेहाद और दहशतगर्दी में क्या फ़र्क़ है?

१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अस्तित्व मे आए दारुल उलूम देवबंद की भूमिका देश की आज़ादी में भी उल्लेखनीय रही है. और आज भी इस स्कूल के छात्रों की संख्या हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और कुछ हद तक अफ़्गानिस्तान तक फैली हुई है. इसलिए इस फ़तवे का महत्व दूरगामी और ऐतिहासिक है. अफ़सोस कि देश के हिन्दी और अंग्रेज़ी मीडिया ने इस ज़िक्र के लायक नहीं समझा.

बुधवार, 28 नवंबर 2007

मैं चुप रहा..

जीवन मे अधिकतर दो खराब वस्‍तुओ मे से कम खराब वस्‍तु को चुनना पडता है। भारत के हिसाब से कम खराब अमेरिका लगता है। ऐसा मेरी पिछली पोस्ट पर कपिल ने कहा और संजय बेंगाणी इस बात से सहमत हो गए। उनकी इस सहमति से मुझे एक जर्मन कविता 'मैं चुप रहा' की याद हो आई.. कविता नाज़ियों के बारे में है पर मुझे प्रासंगिक लगती है क्योंकि तीस के दशक के यूरोप में जर्मनी ने जो भूमिका निभाई आज दुनिया में वह अमरीका निभा रहा है..

मैं चुप रहा

नाज़ी जब कम्यूनिस्टों के लिए आए
तो मैं चुप रहा
मैं तो कम्यूनिस्ट नहीं था

फिर जब उन्होने समाजवादियों को सलाखों में डाला
तो मैं चुप रहा
मैं समाजवादी नहीं था

फिर जब मज़दूरों की धर-पकड़ हुई
तो भी मैं चुप रहा
मैं मज़दूर नहीं था

जब यहूदियों को घेरा गया
तो फिर मैं चुप रहा
मैं यहूदी भी नहीं था

और जब वे मुझे पकड़ने आए
तो बोलने के लिए कोई नहीं बचा था बाकी़..

- मार्टिन नाइमोलर

(ग़लती से इस कविता को बर्तोल्त ब्रेख्त (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट) द्वारा रचित समझा जाता है)

(अनुवाद खाकसार का..)

शनिवार, 24 नवंबर 2007

कैसी आस्था है न्याय में?

मुसलमानों से जुड़ी दो बड़ी खबर हैं- पहली कि नन्दिग्राम का झण्डा उठाए-उठाए पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने तस्लीमा नसरीन को भी खदेड़ दिया है.. और गरीब किसानों के आगे बिना झुके गोलियाँ चलाने वाली माकपा सरकार उनके आगे झुक गई है। अब आतंकवाद और कट्टरपंथ से लड़ने वाली बेघर तस्लीमा, एक अकेली औरत.. जिसका एकमात्र अपराध उसकी अभिव्यक्ति है.. एक पूरी क़ौम, एक पूरे मुल्क के लिए खतरा बन गई है..??!! और वो जहाँ जा रही है प्रशासन के हाथ पाँव फूल जा रहे हैं। मान गए भई कि व्यक्ति में कितना बल होता है.. और अभिव्यक्ति में कितना बल होता है !!

पर इसका यह अर्थ नहीं कि लखनऊ, वाराणसी और फ़ैज़ाबाद में वकीलों ने जो किया वह भी मासूम लोकतांत्रिक भावना थी..
दूसरी बड़ी खबर.. लखनऊ, वाराणसी और फ़ैज़ाबाद में सीरियल बम धमाकों में कई मरे। ववकीलों को ही निशाना बनाने के आतंकवादियों के इस इरादे के बारे में इयत्ता में सत्येन्द्र प्रताप लिखते हैं, "लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद में वकीलों ने अलग-अलग मौकों पर आतंकवादियों की पिटाई की थी।शुरुआत वाराणसी से हुई. अधिवक्ताओं ने पिछले साल सात मार्च को आरोपियों के साथ हाथापाई की और उसकी टोपी छीनकर जला डाली। आरोपी को न्यायालय में पेश करने में पुलिस को खासी मशक्कत करनी पड़ी. फैजाबाद में वकीलों ने अयोध्या में अस्थायी राम मंदिर पर हमले के आरोपियों का मुकदमा लड़ने से इनकार कर दिया। कुछ दिन पहले लखनऊ कचहरी में जैश ए मोहम्मद से संबद्ध आतंकियों की पिटाई की थी।"..उनका मानना है कि यह हमला आतंकवादियों का विरोध करने वालों पर है।

मासूम लोगों को निशाना बनाने वाली ऐसी किसी भी कायर आतंकवादी घटना की मैं घोर निंदा करता हूँ.. पर इसका यह अर्थ नहीं कि लखनऊ, वाराणसी और फ़ैज़ाबाद में वकीलों ने जो किया वह भी मासूम लोकतांत्रिक भावना थी। वो भी बेहद शर्मनाक और कायरतापूर्ण था। अन्यायी पुलिस द्वारा सिर्फ़ शक़ की बिना पर गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों को अदालत के बाहर पीटना और उनका मुक़दमा लड़ने से भी इंकार कर देना कैसी आस्था है न्याय व्यवस्था में और लोकतंत्र में?!

इसके पहले कि अदालत में उनका अपराध साबित हो उन्हे पहले ही आतंकवादी स्वीकार कर लिया वकीलों ने! ऐसा कितनी बार होता है कि पुलिस जिन्हे पकड़ती है उनका अपराध से कोई लेना-देना भी नहीं होता.. वे पुलिस की चपेट में सिर्फ़ इसलिए आ जाते हैं क्योंकि पुलिसवालों को कुछ करते हुए दिखाई पड़ना है। अभी कहा जा रहा है कि हमें ज़्यादा कड़े का़नूनों की ज़रूरत है.. ताकि प्रिवेन्टिव मेज़र्स लिए जा सकें। आप समझते हैं इसका क्या मतलब है.. इसका मतलब होगा कि ऐसा क़ानून जिसके तहत पुलिस सिर्फ़ शक़ की बुनियाद पर ही किसी को भी गिरफ़्तार कर सकेगी, जेल में डाल सकेगी, गोली मार सकेगी।

मुस्लिम समुदाय बाकी देश की तरह मॉल संस्कृति में रचने-बसने के बजाय अपने धर्म में और अधिक क्यों धँसता जा रहा है?
आतंकवाद से लड़ने के लिए ये कोई नई नीति नहीं है.. अमरीका, इस्राइल और कुछ हद तक हमारे देश में भी इस नीति पर काम होता रहा है। पर नतीजे क्या है? क्या आतंकवाद घटा है.. उस पर काबू किया जा सका है? नतीजे उलटे हैं.. न सिर्फ़ मुस्लिम सम्प्रदाय में अमरीका और इस्राइल के खिलाफ़ गु़स्सा और नफ़रत बढ़ती ही जा रही है, साथ में आतंकवाद की घटनाएं भी बढ़ी हैं। क्या भारत को उसी राह पर चलने की ज़रूरत है.. क्या करेंगे हम.. अमरीका की तरह किसी भी दाढ़ी वाले को मुसलमान समझ कर डर जायेंगे और उसकी पिटाई कर देंगे? या इस्राइल की तरह मुसलमानों के इलाक़ों की घेराबंदी करके उनकी आवाजाही को चेकप्वायंट्स से नियमित करेंगे?

रुकिये.. सोचिये.. एक कायर अपराधी की सज़ा एक पूरे समुदाय को मत दीजिये! दण्ड की एक भूमिका होती है न्याय में। पर अगर वह दण्ड न्याय के बजाय अन्याय करने लगे तो अपराध कम नहीं होगा.. बढ़ेगा। ज़रूरत है न्याय की पुनर्स्थापना की।

सोचिये तो क्यों बन रहे हैं मुस्लिम नौजवान आतंकवादी..? क्या अन्याय हुआ है पिछले सालों में मुस्लिम समुदाय के साथ? क्यों मुस्लिम समुदाय बाकी देश की तरह मॉल संस्कृति में रचने-बसने के बजाय अपने धर्म में और अधिक क्यों धँसता जा रहा है?.. जवाब शायद धर्म की इस परिभाषा में है…

धार्मिक पीड़ा, वास्तविक पीड़ा की ही एक अभिव्यक्ति है.. और धर्म सताये हुये लोगों की एक कराह है.. धर्म हृदय हीन संसार का हृदय, आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा.. और अन्त में जनता की अफ़ीम है...




पढ़िये इसी विषय पर दो पुराने लेख:
चालीस कमीज़े खरीदने की बेबसी बनाम धर्म
किसे राहत दे रहा है ये न्याय
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