बावजूद इसके कि लोकतांत्रिक राज्य अभी भी, मानवाधिकारों को अनदेखा कर के अपनी प्रजा का दमन करता है, और एक विशेष वर्ग के हित में समाज के दूसरे वर्गों के शोषण को प्रायोजित करता है, ऐतिहासिक तौर पर अब तक लोकतांत्रिक राज्य ही सबसे उदार और मानवतावादी सिद्ध हुआ है- और वो व्यवस्थाएं जो अपने को मनुष्य के विकास की आगे की अवस्थाएं मानती थीं, कहीं अधिक क्रूर और दमनकारी सिद्ध हुईं जैसे समाजवाद और साम्यवाद।
देश में चल रहे आन्दोलनों, विशेषकर कश्मीर के हुर्रियत आन्दोलन और आदिवासियों के बीच जंगल के अधिकार को लेकर माओवादियों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन, के सन्दर्भ में हमें ये समझने की ज़रूरत है कि राज्य कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसकी पकड़ संवेदना के नदी के प्रवाह में बह कर अचानक ढीली पड़ जाएगी और वो कश्मीरियों को उनकी आज़ादी ले लेने देगा और आदिवासियों को उनके जंगल। राज्य हज़ारों साल के मनुष्य के इतिहास में विकसित एक जटिल सरंचना है जो अपने अस्तित्व को विलीन नहीं होने दे सकती न अपनी विघटन को सहन कर सकती है। ऐसे ही नहीं टूट गई बर्लिन वाल; उसके टूटने की पूर्वशर्त थी एक राज्य का विघटन, जैसा कि हुआ। और ये बात बेहद बचकानी है कि कोई किसी राज्य से यह उम्मीद करे कि वो अपने क़ब्ज़े की ज़मीन छोड़ दे?
ये एक अजीब विरोधाभास है : हमारे भारत के उदारवादी भद्रजन सबसे प्रगतिशील लोग, सबसे पिछड़े जन के साथ मोर्चाबद्ध हैं। मात्र विरोध दर्ज करने के लिए? या वे सच में विश्वास करते हैं कि भविष्य का समाज यही लोग गढ़ेंगे? मैं समझ नहीं पाता कि कश्मीर में कट्टर जमाते इस्लामी के नेता सैयद अली शाह गिलानी जैसे शख्स के हाथ में यदि सत्ता आएगी तो वह किस तरह के लोकतंत्र का निर्माण करेगा? चलिए उन्हे छोड़ दें और मान लीजिये कि हुर्रियत के दूसरे धड़े मीरवाइज़ (यानी इस्लाम के उपदेशक) उमर फ़ारुख ही अगर अगुआ हुए तो?
मीर वाइज़ पेशे से एक मौलवी हैं एक ऐतिहासिक मस्जिद के मुल्ला - कुछ ऐसे समझें कि जैसे कि अपने जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी साहब। जो लोग भूल गए हों वे कृपया याद कर लें कि शाही इमाम साहब ने हमारी अपनी उदार मानवतावादी नायिका शबाना आज़मी के बारे में क्या उद्गार प्रगट किए थे एन डी टी वी के एक कार्यक्रम पर। हो सकता है कि व्यक्तिगत रूप से मीरवाइज़ बेहद उदार और भले हों पर जिस विचारधारा के वे प्रवक्ता हैं वो बेहद दमनकारी है।
मेरा मानना है कि कहीं न कहीं औद्योगिक विकास एक ऐसी छंछूदर बन चुका है जिसे अब सिर्फ़ निगला जा सकता है, उगला नहीं। साम्राज्यवादी शक्तियों और उनके ऐतिहासिक अन्याय से लड़ने की एक अन्य मिसाल ज़िम्बाब्वे में राबर्ट मुगाबे भी हैं –जिन्होने सौ-डेढ़ सौ साल पहले गोरों द्वारा की हुई ज़मीन की लूट का इंसाफ़ तो कर दिया मगर देश, समाज और अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। ज़िम्बाब्वे अब शायद एक महामारी बन चुका है।
स्वयं अपने गांधी जी भी एक रामराज्य का सपना देखते थे। उनका मानना था इस समाज की सबसे बड़ी बुराइयों में वक़ील और डॉक्टर हैं। वक़ीलों और डॉक्टरों दोनों के व्यवहार से मैं भी बहुत क्षुब्ध रहता हूँ, मगर गांधी जी के रामराज्य में दलितों की जगह को लेकर अम्बेडकर को क्या आपत्ति थी इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। उनके ग्रामीण समाज में जातीय रिश्ते सिर्फ़ सवर्णों की सहृदयता के बंधुआ होते। क्या वो हमें, उदार मानवतावादियों को स्वीकार्य है?
अगर मुझ से पूछा जाय कि मुझ किन आदर्शों में विश्वास है तो शायद मैं एक अराजकतावादी सिद्ध हो जाऊँ। जहाँ न राज्य है, न पुलिस, न क़ानून, आदमी प्रकृति के साथ एकाकार है और ‘जीवनयापन के लिए काम करना’ मानवता का अपमान है। पर क्या मैं आज के समाज में इन आदर्शों के साथ जी सकता हूँ? यदि मैं भारत सरकार से माँग करूँ कि पुलिस और क़ानून का अन्त कीजिये और उसके बाद खुद भी विलोप हो जाइये और जेन्टलमैनली मनमोहन सिंह मेरी माँग मान कर सब कुछ समाप्त कर के अपने आसाम वाले घर में पलायित कर जाएं तो क्या मेरे आदर्शों का अराजक समाज क़ायम हो जाएगा? या पलक़ झपकते ही हरियाणवी गुण्डे/ बिहारी बाहुबली/इस्लामी आतंकवादी/हिन्दू हलकट अपने-अपने शक्ति-वृत्त बना लेंगे और समाज में व्यवहारिक अराजकता क़ायम हो जाएगी। दार्शनिक अराजकता और व्यवहारिक अराजकता में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है।
मुझे खेद है कि इस देश में आत्महत्या कर रहे ग़रीब किसानों और अपने ही ज़मीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों, और क़ानून ताक़ पर रखकर सताए जा रहे नक्सलियों के प्रति अपनी सारी चिन्ताओं के बावजूद मैं माओवादियों की हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे पूरा भरोसा है कि एक बार माओवादी लड़ाकू मानवता से द्रवित होकर अपने दुश्मन (आम सिपाही) को गोली मारने से हिचकिचा सकता है, लेकिन राज्य तंत्र की नमक-रोटी खाने वाला सिपाही ये रियायत माओवादी को नहीं बख्शेगा। मैं शायद उमर बढ़ने के साथ कुछ अधिक निराशावादी (या व्यवहारिक) हो गया हूँ और अपने उस क्रांतिकारी जोश को पूरी तरह हिरा चुका हूँ जो कि जवानी के दिनों में मुझे क्रोध और आक्रोश से भर दिया करता था- अब मुझे यक़ीन है कि माओवादियों और राज्य की इस लड़ाई में मारे आदिवासी ही जाएंगे या फिर निरीह सिपाही।
मैं नहीं जानता कि कारपोरेट पूँजीवाद और उसकी सहयोगी शक्तियों ने मिलकर ये जो भूमण्डलीकरण की महा संरचना/ महातंत्र खड़ा किया है, उसका विकल्प क्या हो सकता है? पर ये ज़रूर लगता है कि जो शक्तियाँ अभी अमरीकी नेतृत्व में इस पूँजीवादी लोकतंत्र का विरोध कर रहे हैं – इस्लामिक जड़वादी और माओवादी – वो इसका विकल्प नहीं हो सकते। ये दोनों प्रतिगामी शक्तियाँ हैं जो एक पुरातनता को बचाने की कोशिश की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस्लाम लड़ रहा है एक मध्ययुगीन नैतिकता को बचाने के लिए- उसका विकल्प है शरई क़ानून।
और माओवादी लड़ रहे हैं आदिवासियों के जंगल पर अधिकार के लिए, कम से कम नज़र तो ऐसा ही आता है और दावा भी वो ऐसा ही करते हैं, पर उनके इरादे कुछ और हैं। वे नव-लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं- माओ की एक अवधारणा न्यू डेमोक्रेसी के लिए – जो पूंजीवाद को सामन्तवाद और साम्राज्यवाद के चंगुल से आज़ाद करेगी। यह सोच माओ ने १९४० में चीन की हालात के अनुसार पेश की थी। वे पूँजीवाद (यानी उद्योग, कारखाने, खनन, बाज़ार; सब मिला कर जंगल के आदिम जीवन से पूर्ण विरोध) के विरोधी नहीं है मगर उनका मानना है कि अभी का शासक वर्ग पूँजीवाद का सही विकास करने में अक्षम है। यदि वे सत्ता में आए तो चीन की तरह खुद ही पूँजी का विकास करेंगे- चीन के मानवाधिकार हनन से कैसे बचेंगे, ये वे नहीं बताते।
पहले तो इस तरह की सोच एक नियतिवादी चिन्तन है: विकास की सारी अवस्थाएं और नमूने पहले से तय हैं अब मनुष्य को अंजाम देना है- मगर मनुष्य (उनकी समझ से) ऐसा मूढ़ है कि विकास की नमूने से भटक कर एक अलग ही रास्ता पकड़ लेता है; अपने नियन्ता के सच्चे अनुगामी होने के नाते माओवादी ये ज़िम्मेदारी अपने सर लेते हैं कि नमूने की योजना को जस का तस लागू किया जाय।
दूसरे ये कि नियन्ता माओ के द्वारा पूज्य एक पूर्वगामी नियन्ता लेनिन ने इस विषय में एक विरोधी बात कह रखी है – “कोई मार्क्सवादी यह कभी नहीं भूल सकता कि पूँजीवाद, सामन्तवाद की तुलना में प्रगतिशील है, और साम्राज्यवाद इजारेदारी के पहले की पूँजीवादी अवस्था से प्रगतिशील है। इसलिए हमें साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हर संघर्ष का समर्थन नहीं करना चाहिये। साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों के संघर्ष का समर्थन हम नहीं कर सकते”।
लेनिन की समझ से माओवादी प्रतिक्रियावादी साबित होते हैं। (विकास के साथ उनके विरोधाभास पर यहाँ और पढ़ें) और क्रांतिकारी भी तभी तक क्रांतिकारी रहता है जब तक सत्ता की लड़ाई जारी है, सत्ता पलटते ही वह खुद प्रतिक्रियावादी हो जाने के लिए अभिशप्त है। नेहरू जी आज़ादी मिलने के पहले तक तो नौकरशाहों की सख्त खिलाफ़त किया करते थे, मगर सत्ता हाथ में आते ही उन्होने नौकरशाहों में ही अपना सबसे बड़ा मित्र पाया। और जो क्रांतिकारी प्रतिक्रियावादी नहीं होते वे कितने बड़े मानवतावादी होते हैं इसे स्टालिन के दौर में मारे गए और माओ की सतत क्रांति के प्रयोग सांस्कृतिक क्रांति के दौरान मारे गए लाखों लोगों की मिसाल से समझना चाहिये।
निछन्दम जंगल का प्राकृतिक जीवन और शरई क़ानून की सीमाओं में रहकर एक पवित्र नैतिक जीवन दोनों ही काल्पनिक अवधारणाएं हैं और रूमानी दोष से ग्रस्त हैं। औद्योगिकीकरण और उसकी संस्कृति का पहाड़ एक ऐसा वस्तुगत सच है जिसे अनदेखा करना, शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर दबाना है। भविष्य का समाज इस पहाड़ के उस पार ही बन सकता है, इस पार नहीं।
औद्योगिक समाज ने हम से बहुत कुछ छीना है मगर जो हमें दिया है उसकी चर्चा करना हमारे क्रांतिकारी मित्र हमेशा भूल जाते हैं? भौतिकवाद मानता है कि मनुष्य का वस्तुजगत से एक गहरा तादात्म्य है, और वस्तुओं से भी। आज जिन-जिन वस्तुओं को हम अपने इर्द-गिर्द पाते हैं जिसने हमारा जीवन सुविधाजनक बनाया है, उन्हे हम तक लाने में पूँजीवादी बाज़ार ने जो क्रांतिकारी भूमिका निभाई है, उसे लगातार अनदेखा किया नहीं जा सकता। स्त्री अधिकार को एक मानसिक अवधारणा के जगत से निकालकर उसकी बराबरी के लिए एक वास्तविक दुनिया बनाने का काम पूँजीवाद ने ही किया है। ज्ञान को कुलीन कुटियाओं से निकालकर जनसाधारण तक पुस्तकाकार में पहुँचाने का काम क्या बाज़ार ने नहीं किया है? इन्टनेट जैसे सूचना के महामार्ग और लैपटॉप जैसे उपकरण को जनसुलभ करने का काम बाज़ार के बिना कैसे मुमकिन हो सकता था?
समस्या दुनिया भर में चल रहे बाज़ारीकरण के साथ आ रहे बदलाव से होने वाले संक्रमण की है। जैसे भारत की सरकार कृषि में आधुनिकीकरण तो चाहती है मगर ज़मीन पर हल जोत रहे किसान को आत्महत्या के पहाड़ी से नीचे धकेल कर। सरकारी तंत्र द्वारा अपने लोगों की प्रति इस संवेदनहीनता का विरोध करते हुए क्या हम उन सब के पक्ष में भी खड़े हो जाएंगे जो विरोध में हमारे साथ हैं? चूंकि वो बन्दूक लेकर अत्याचार के विरोध की लड़ाई लड़ रहे हैं क्या सिर्फ़ इसलिए उनके सपने के दुनिया खुदबखुद इस दुनिया से बेहतर हो जानी है?
उम्मीद बस यही की जा सकती है कि उनके इस आन्दोलन से आदिवासियों और नक्सली कार्यकर्ताओं के प्रति बरती जा रही निर्ममता में कमी आए और उनके साथ न्याय हो!
शनिवार, 31 अक्तूबर 2009
रविवार, 25 अक्तूबर 2009
रचयिता की मृत्यु
इलाहाबाद के ब्लॉग सम्मेलन में मुझे भी बुलावा था, जाना तय भी था मगर आरक्षण नहीं मिला और ऐन मौक़े पर तबियत ने भी जवाब दे दिया। प्रकृति और संयोग दोनों के नकार को स्वीकार कर हम घर पर ही रुके रहे। अनूप जी और होनहार विनीत की रपटें और मसिजीवी की फ़िसलरपटें पढ़ता रहा- बहसें तमाम जो हुई उनसे विभक्ति से अधिक दुख दोस्तों से मिल न पाने का था। घर पर पड़े-पड़े जी बहलाने के लिए बोर्ग़्हेज़ पढ़ रहा था। उसमें कैल्विनवाद का ज़िक़्र आया। कैल्विनवाद को समझने के लिए पीटर वाटसन की आईडियाज़ पलटने लगा। उसे पलटते हुए देरिदा को बूझने लगा।
उसी सन्दर्भ में रोलाँ बात्थ भी याद आए और याद आई उनकी किताब माइथॉलजीस। एक और लेख का ज़िक्र देखा- डेथ ऑफ़ दि ऑथर। नेट पर खोजा तो मिल गया। पढ़ कर बाग़-बाग़ हो गया। नामवर जी ने इलाहाबाद के सम्मेलन में जो कहा वो मेरी उनसे जो उम्मीद थी उस से काफ़ी कम था। मेरा अनुमान था कि वो ब्लॉग माध्यम के अनोखेपन की दार्शनिक विवेचना करेंगे। निराशा हुई। फिर याद आया कि प्रमोद भाई कहते हैं हिन्दी में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं है। है कोई रेमण्ड विलियम्स, वाल्टर बेन्जामिन या फ़ूको? सही है, कोई नहीं है। अचरज होता है कि इतनी अद्भुत बातें रोलाँ बात्थ १९६७-६८ में कर रहे थे, मेरे जन्म के साल, और हम हिन्दी में आज भी प्रेमचन्द के युग से ठीक से बाहर नहीं आ सके हैं? इस लेख को लिखे जाने के इतने सालों बाद भी हिन्दी में इस चेतना की सुगबुगाहट तक नहीं है? फिर प्रमोद भाई की बात- हिन्दी एक मरी हुई भाषा है। है कि नहीं पता नहीं, कुछ उनके धकेलने पर और कुछ अपनी भाषा के प्रति ज़िम्मेदारी के एहसास से दब कर एक दिन इस अनुवाद के नाम गया।
इस लेख में अनुवाद करते हुए वाक्य रचना में विराम चिह्नों के प्रयोग को ज्यों का त्यों छोड़ा गया है। कई जगह मैं पूर्ण विराम का इस्तेमाल कर सकता था, लेकिन इस चिन्तन को मैं ऐसे रख कर ही देखना चाहता हूँ। वैसे भी हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत में भी विराम चिह्नो की परम्परा नहीं है, यह परम्परा सीधे योरोप से आई है। हिन्दी में आज भी पूर्ण विराम, कॉमा, कोष्ठक के अलावा और विराम चिह्न कम ही इस्तेमाल होते हैं। प्रमोद भाई जो मन की गतिविधि को उसके समूचेपन में पकड़ने की कोशिश सतत करते हैं, इन विराम चिह्नों से क़तराते रहते हैं शायद इसलिए कि पहले से जटिल-जटिल अलाप रहे पाठक विराम चिह्नों की जटिल झाड़ियों में न उलझ मरें। फिर भी मेरी इच्छा है कि लोग कोशिश करें और जटिल-पाठ करें।
हिन्दी में इस भाषा की परम्परा नहीं है, इसलिए पाठकों से थोड़े धीरज की उम्मीद है। रोलाँ बात्थ बीसवीं सदी के बड़े दार्शनिक नामों में से हैं, फ़्रांस की धरती से जो उत्तर आधुनिकता के दादाओं में जिनका नाम लिया जाता है उन में फ़ूको, लाकाँ, और देरिदा के साथ बात्थ भी शामिल हैं। इस लेख में बात्थ ने ऑथर और राइटर (स्क्रिप्टर) में भेद किया है जिसे मैंने रचयिता और लेखक (लिपिक) के रूप में अनूदित किया है।
रचयिता की मृत्यु : रोलाँ बात्थ
बालज़ाक अपनी कहानी सरासिने में, औरत के भेस में रहने वाले एक कैस्तरातो (नटुआ जिसे बचपन में ही बधिया किया गया हो) के सन्दर्भ में लिखते हैं: “ये स्वयं एक औरत थी, अपने एकाएक उपजे डर, बेदलील तरंगें, अपने मादरजाद खौफ़, बिलावजह की दिलेरी का मुज़ाहरा, अपने हौसलों और अपने लज़ीज़ नाज़ुक़ी जज़्बात के साथ’’। ये कौन है जो यूं बोल रहा है? क्या ये औरत के भेस में छिपे कैस्तरातो की उपेक्षा से चिंताग्रस्त कहानी का नायक है? या अपने निजी अनुभवों से औरत के दर्शन से समृद्ध बालज़ाक नाम का आदमी है? या फिर रचयिता बालज़ाक, जो स्त्रीत्व के बारे में कुछ साहित्यिक विचारों की व्याख्या कर रहा है? क्या यह सार्वभौमिक ज्ञान है? या रूमानी मनोविज्ञान? यह जानना कभी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि सारा लेखन एक विशेष प्रकार की वाणी है जिसमें समाई होती हैं दूसरी कई अनजानी वाणियां। और साहित्य इसी विशेष प्रकार की वाणी का आविष्कार है जिसके उद्गम का हम कोई निर्धारण नहीं कर पाते: साहित्य है वह तटस्थ, मिला-जुला, तिर्यक आयाम जिसमें पलायित हो जाते हैं सभी विषय, वो जाल जिसमें खो जाती हैं सभी पहचान, सर्वप्रथम उस व्यक्ति की पहचान जो उसे लिखता है।
सम्भवतः हमेशा यही मामला रहता है: जब कभी कुछ वर्णन किया जाता है, वास्तविकता पर किसी सीधी प्रतिक्रिया के लिए नहीं वरन अकर्मक लक्ष्य के लिए – यानी किसी भी क्रिया से अन्ततः परे लेकिन प्रतीक के ठीक-ठीक प्रयोग में - तब होता है यह अलगाव, वाणी अपना उद्गम खो देती है, रचयिता प्राप्त होता है अपनी मृत्य को, लेखन आरम्भ होता है। तब पर भी इस परिघटना को लेकर भावना मिली-जुली रही है; प्राचीन समाजों में, वृत्तान्त कभी एक व्यक्ति की ज़िम्मेवारी नहीं रही, बल्कि एक माध्यम की, ओझा की या वक्ता की, जिसके प्रदर्शन (वृत्तान्त संग्रह की उसके कौशल) पर श्रद्धा हो सकती थी परन्तु उसकी मेधा पर नहीं। रचयिता एक आधुनिक आकृति है, जो पैदा हुई है बेशक़ हमारे समाज (पश्चिमी योरोप) द्वारा ही मध्ययुग के अन्त में, अंग्रेज़ी व्यवहारवाद, फ़्रांसीसी बुद्धिवाद और सुधारआन्दोलन की निजी आस्था से उपजी एक निर्मिति। जिसने खोजी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, और उदार शब्दों में कहें तो, ‘मानवीय व्यक्ति’ की प्रतिष्टा। इसीलिए यह तार्किक लगता है कि साहित्य की दृष्टि से, पूँजीवादी चिन्तन के सार व परिणाम, प्रत्यक्षवाद ने ही रचयिता के व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है। साहित्यिक इतिहास के गुटकों में, रचयिताओं की आपबीतियों में, पत्र-पत्रिकाओं के साक्षात्कारों में, यहाँ तक कि साहित्यिक लोगों की स्मरण में भी रचयिता आज भी राज करता है, अपने निजी डायरियों के ज़रिये अपने कृतित्व और अपने व्यक्तित्व को एकरूप करने के लिए बेचैन। समकालीन संस्कृति में मौजूद साहित्य की छवि अत्याचार की हद तक रचयिता पर केन्द्रित है, उस का व्यक्तित्व, उसका इतिहास, उसकी पसन्द, उसके शौक़; आलोचना भी यही होती है कि बॉदलेयर का काम बॉदलेयर व्यक्ति की असफलता है, वैन गॉह का काम उसकी विक्षिप्तता, त्चैकोवस्की का उसके अवगुण: कृति की व्याख्या उस आदमी में खोजी जाती है जिसने उसे रचा है जैसे कि गल्प के कमोबेश पारदर्शी रूपक के ज़रिये ये हमेशा अन्ततः उस ही एक व्यक्ति, रचयिता, की वाणी थी जिसने उसकी गोपनीयता का उद्घाटन किया।
हालांकि रचयिता का साम्राज्य अभी भी बहुत मज़बूत है ( हालिया आलोचना ने उसे और सुदृढ ही किया है), यह ज़ाहिर है कि एक लम्बे समय से कुछ निश्चित लोगों ने उसकी चूलें हिलाने के प्रयास किए हैं। फ़्रांस में, मलाहमे सबसे पहले थे जिन्होने पूर्वानुमान लगाया और उसके पूरे विस्तार में समझा कि अभी तक आदमी जिस स्थान पर स्वामित्व का दावा कर रहा था उस आदमी की जगह पर भाषा को रखने की ज़रूरत है। मलाह्मे के लिए, और हमारे लिए भी, वो भाषा है जो बोलती है, रचयिता नहीं : लिखना पहुँचना है, एक पहले से मौजूद व्यक्तित्वहीनता के ज़रिये- यथार्थवादी उपन्यासकार की बधिया तटस्थता के ज़रिये नहीं – वह बिन्दु जहाँ भाषा मात्र ही काम करती है, ‘निष्पादन’ करती है, ‘हमारा स्वत्व’ नहीं। मलाह्मे का सम्पूर्ण काव्यशास्त्र लेखन के हित में रचयिता का दमन करने में ही निहित है (जो, हम देखेंगे, पाठक की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना के लिए है।) आत्म के मनोविज्ञान को ढोते हुए वैलरी ने मलाह्मे की प्रस्थापना को नर्म तो बनाया, साथ ही आलंकारिकता के सबक़ पर शास्त्रीयता को वरीयता दे कर उन्होने रचयिता पर सवाल खड़े किए और हँसी उड़ाई, और उसकी गतिविधि के भाषिकी और ‘सांयोगिक’ प्रकृति पर ज़ोर दिया, और उनके गद्य ने लगातार साहित्य की मौखिक स्थिति का समर्थन किया जिसके सम्मुख रचयिता की हीनता की कोई भी शरण लेना उनको शुद्ध अन्धविश्वास लगा। यह साफ़ है कि स्वयं प्रुस्त ने भी, उनके विश्लेषणों के ज़ाहिरा मनोवैज्ञानिक चरित्र के बावजूद रचयिता और उसके चरित्रों के बीच के सम्बन्धों को, एक चरम सूक्ष्मता के ज़रिये, निर्दयता से धूमिल करने का काम किया : कथावाचक को एक ऐसा व्यक्ति बना कर- जो लिखेगा, न कि जो लिख रहा है, या जिसने देखा और महसूस किया। (उपन्यास का नौजवान – पर, कौन है ये, क्या उमर है इसकी? - लिखना चाहता है पर लिख नहीं पाता और उपन्यास वहाँ समाप्त हो जाता है जब अन्ततः लेखन सम्भव हो पाता है) प्रुस्त ने आधुनिक साहित्य को उसका महाकाव्य दिया है : एक मूलभूत विपर्यय के द्वारा; बजाय अपने जीवन को उपन्यास में डालने के, जैसा कि कहा जाता है, वे अपने जीवन को एक ऐसा काम बना डालते हैं जिसके लिए एक तरह से उनकी अपनी किताब एक नमूना थी, ताकि ये हम पर साफ़ज़ाहिर रहे कि ये चार्लि नहीं है जो मन्तेसकियू का अनुकरण करता है बल्कि मन्तेसकियू अपने क़िस्साई, ऐतिहासिक सच्चाई में एक गौण अंश है जो चार्लि से उपजा है। आधुनिकता के इस पूर्वइतिहास पर बने रहने के लिए अब आखिर में अतियथार्थवाद : अतियथार्थवाद बेशक़ भाषा को एक स्वायत्त दरज़ा नहीं दे सका, चूंकि भाषा एक व्यवस्था है, और इस आन्दोलन का (रूमानी) मक़सद ही सारी नियमावलियों को छिन्न-भिन्न करना था – एक आभासी छिन्न-भिन्नता, क्योंकि कोई नियमावली नष्ट नहीं की जा सकती, केवल उसके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है; लेकिन अपेक्षित अर्थों को झटके से भंग कर के (अतियथार्थवादियों का प्रख्यात झटका), जिस चीज़ को सिर अनदेखा कर जाता है उसके लेखन की ज़िम्मेदारी शीघ्रातिशीघ्र हाथ को देकर (यह था स्वचालित लेखन), सामूहिक लेखन का सिद्धान्त और अनुभव स्वीकार कर के, अतियथार्थवाद ने लेखक की छवि को लौकिक बनाने में मदद की। और अन्त में, साहित्य की दुनिया से बाहर (वास्तव में, ये सारी भिन्नताएं लांघी जा रही हैं) भाषाशास्त्र ने बहुमूल्य वैश्लेषिक औज़ार के साथ रचयिता का विनाश सम्पन्न कर दिया है यह दिखाकर कि अपनी समूचेपन में प्रगटीकरण एक खोखली प्रक्रिया है जो उस खाली जगह पर किन्ही संभाषी व्यक्तियों को रखे बिना ही अच्छी तरह काम करती है। भाषिकी तौर पर, रचयिता कभी भी लिखने वाले से अधिक कुछ नहीं है, जैसे कि मैं, मैं कहने वाले से ज़्यादा कुछ नहीं है : भाषा एक कर्ता को जानती है, व्यक्ति को नहीं, इस कर्ता का अन्त कर दो, तो ठीक इस प्रगटीकरण के बाहर की शून्यता जो इसे परिभाषित करती है, वही काफ़ी है भाषा के ‘कर्म’ द्वारा इसे खाली कराने के लिए।
रचयिता की अनुपस्थिति (ब्रेष्ट के मामले में रचयिता साहित्यिक मंच के एक कोने में सिमट जाता है, इसे हम कह सकते हैं सचमुच का विलगाव) मात्र कोई लिखने की प्रक्रिया या ऐतिहासिक सच ही नहीं है : इस ने आधुनिक पाठ को पूरी तरह से रूपान्तरित कर दिया है। (या – जो कि एक ही बात है – अब पाठ ऐसे लिखा और पढ़ा जाता है कि उस में से, हर स्तर पर, रचयिता स्वयं को अनुपस्थित कर लेता है) समय, सबसे पहले, भी वह नहीं रहा। रचयिता, जब हम उस पर भरोसा करते हैं, की कल्पना हम उसकी किताब के भूतकाल की तरह करते हैं : किताब और रचयिता अपने आप ही एक ही रेखा में अपनी जगह लेते हैं, पूर्व और पश्चात के रूप में, रचयिता से अपेक्षित होता है कि वह किताब को भोजन दे – मतलब कि, वह पहले होता है, सोचता है, उसके लिए जीता है; अपने काम के साथ पूर्ववर्ती होने का वह वही सम्बन्ध निभाता है जो एक पिता अपने बच्चे के साथ। इसके ठीक विपरीत, आधुनिक लेखक (लिपिक) अपने पाठ के साथ ही जन्मता है। किसी भी तौर पर उसे ऐसी कोई हस्ती नहीं मिलती जो उसके लेखन से पहले से हो और बढ़ कर भी हो, वह किसी भी तौर पर वह कर्ता नहीं है जिसका कि उसकी किताब कथन है, प्रगटीकरण के अलावा कोई दूसरा समय नहीं है, और हर पाठ शाश्वत रूप से अभी और यहीं लिखा जाता है। यह इसलिए है (या : इसके परिणाम स्वरूप है) अब लेखन का अर्थ अभिलेखन, अवलोकन, निरूपण, चित्रण की प्रक्रिया (जैसे कि शास्त्रीय लेखक कहते हैं) नहीं हो सकता, बल्कि जिसे भाषाशास्त्री, ऑक्सफ़ोर्ड स्कूल की शब्द सम्पदा का अनुकरण करते हुए, निष्पादात्मक कहते है, एक विरल क्रियात्मक रूप (विशिष्ट रूप से केवल प्रथम पुरुष और वर्तमान काल के लिए सुरक्षित) जिसमें कि प्रगटीकरण में कोई और कथ्य नहीं, सिवा उस क्रिया के जिस के द्वारा वह प्रगट किया गया : पूर्वकालिक चारणों की चरणवन्दना की तरह ; आधुनिक लेखक, ‘रचयिता’ को दफ़नाने के बाद अब यह मान नहीं सकता, अपने पूर्ववर्तियों की दयनीय नज़रिये की तरह, कि उसका हाथ उसके विचारों और आवेगों के लिए बहुत मन्द है, जिसके परिणामस्वरूप, आवश्यक्ता को नियम में ढालते हुए, उसे इस अन्तराल को भरना होगा और अनन्तकाल तक अपने शिल्प का मांजना होगा; इसके विपरीत उसके लिए, उसका हाथ किसी भी वाणी से स्वतन्त्र होकर, अंकण (अभिव्यक्ति नहीं) की एक शुद्ध चेष्टा से भरा हुआ, खींचता है एक निर्मूलक क्षेत्र – या जिसका, कम से कम, सिवा भाषा के और कोई मूल नहीं, यानी कि वही एक तत्व जो लगातार हर उत्पत्ति पर प्रश्न उठाती चलती है।
हम जानते हैं कि कोई पाठ सिर्फ़ शब्दों की एक पंक्ति भर ही नहीं होता, जिस से मात्र एक ‘धर्मशास्त्रीय’ अर्थ (लेखकीय ईश्वर का संदेश) निकले बल्कि होता है कई पहलुओं वाला एक आयाम, जिस में तमाम तरह के लेख जड़े और लड़े होते हैं, और जिन में कोई भी मौलिक नहीं होता : संस्कृति के हज़ार मुखों से निकला, पाठ उद्धरणों का एक तन्तु है। हमेशा के नक़लची बूवा और पेक्यूशे की तरह, एक साथ ही उदात्त और हास्यास्पद दोनों और जिनकी गहन निरर्थकता लेखन के सच को ठीक-ठीक दिखाती है, लेखक केवल हमेशा अपनी पूर्ववर्ती चेष्टा की नक़ल भर कर सकता है, मौलिक कभी नहीं हो सकता; उसकी सारी सामर्थ्य विभिन्न प्रकार के लेखन का मिश्रण करने में है, और एक को दूसरो के विरुद्ध खड़ा करने में है, ताकि उसे कभी किसी एकमात्र पर ही निर्भर न हो जाना पड़े; अगर वह स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है, तो कम से कम उसे पता होना चाहिये कि वह आन्तरिक ‘तत्व’, जिसका वह ‘रूपान्तरण’ करने का दावा करता है, अपने आप में एक पहले से तैयार शब्दकोष है जिसके शब्दों की व्याख्या (परिभाषा) केवल दूसरे शब्दों के द्वारा ही की जा सकती है, और दूसरे शब्दों की और दूसरे शब्दों से, और ऐसे ही अनन्त काल तक :, ग्रीक भाषा में विशेष प्रतिभा सम्पन्न, नौजवान डि क्विन्सी का एक अनुकरणीय अनुभव हमारे सामने है, ऐसा बॉदलेयर बताते हैं कि, उस मृत भाषा में कुछ विशेष अत्याधुनिक विचारों और छवियों का अनुवाद करने के लिए, “उन्होने तैयार किया शुद्ध साहित्यिक विषयों के अश्लील धैर्य से उपजने वाले से भी अधिक विस्तृत और जटिल एक शब्दकोष” (पैरादिस आर्तिफ़िसियल)। रचयिता के परवर्ती होने के बाद, लेखक आवेग, परिहास, भाव, छाप, अपने भीतर नहीं रख सकता बल्कि रखता है वह विशाल शब्दकोष जिससे वह हासिल करता है लेखन, जो न रुकता है और न खत्म होता है ; जीवन किताब की नक़ल करने से अधिक कुछ नहीं करता और किताब स्वयं किसी खोये हुए, अनन्त दूरी पर स्थित, संकेतों का तन्तु है।
एक बार जब रचयिता विदा हो गया, तो पाठ के रहस्योद्घाटन का दावा भी बिलकुल अर्थहीन हो जाता है। किसी पाठ को एक रचयिता के हवाले करना उस पाठ को एक सीमा में बाँधना है, उसको एक अन्तिम अर्थ तक पहुँचा कर लेखन को समाप्त करना है। यह परिकल्पना आलोचना को बिलकुल जंचती है, जो अपने लिए पाठ के पीछे से रचयिता की खोज (या उसकी प्रस्थापनाएं : समाज, इतिहास, अन्तर्मन, स्वतन्त्रता) का एक बड़ा बीड़ा उठा सकती है: एक बार जब रचयिता की खोज हो गई तो पाठ की व्याख्या भी हो जाती है और आलोचक विजयी होता है; इसलिए ये ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि ऐतिहासिक तौर पर रचयिता का युग आलोचक का भी युग हो, और आलोचना (“नई आलोचना” भी) को भी रचियता के साथ उखाड़ फेंकना चाहिये। लेखन की बहुलता में, वास्तव में, हर एक की विशिष्टता है पर व्याख्या किसी की नहीं; संरचना जारी रह सकती है, अपनी चरणों के सारी पुनरावृतियों में (किसी मोज़े के तरह) बिनी हुई, मगर जिसके नीचे कोई धरातल नहीं है; लेखन के आयाम से गुज़रा जा सकता है उसे भेदा नहीं जा सकता : लेखन लगातार अर्थ को स्थान देता है लेकिन हमेशा बिला जाने के लिए : लेखन, अर्थ के एक व्यवस्थाबद्ध विमोचन की ओर बढ़ता है। और इस रास्ते से साहित्य (वैसे अब से लेखन कहना अच्छा होगा), पाठ को कोई रहस्य, या उसका परम अर्थ, देने से इन्कार कर के, एक ऐसी गतिविधि को मुक्ति प्रदान करता है जिसे धर्मशास्त्र विरोधी कहा जा सकता है, और सच में क्रांतिकारी, क्योंकि अर्थ को जड़ करने से इन्कार करना ईश्वर और उसके प्रस्थापनाओं तर्क, विज्ञान और विधि से इन्कार करना है।
चलिये बालज़ाक के वाक्य पर वापस लौटते हैं : वह किसी का (यानी किसी व्यक्ति का) कथन नहीं है : इस वाणी के स्रोत का पता नहीं चलता; फिर भी सब कुछ समझ में आता है; वह इसलिए कि लेखन का असली बिन्दुपथ पठन है। इसे एक और विषेश उदाहरण से समझते हैं : हालिया शोधों (जे पी वेरनाँ) ने ग्रीक त्रासदी के मूलभूत श्लेषात्मक स्वभाव पर प्रकाश डाला है, उनका पाठ ऐसे शब्दों से बुना हुआ है जो द्विअर्थी हैं, पर हर चरित्र उनका एक ही अर्थ लेता है (त्रासदी का अर्थ, लगातार होने वाली ऐसी ही ग़लतफ़हमी से ही है); फिर भी कोई है जो हर शब्द को उसके द्वैधता में समझता है, और यह भी कहा जा सकता है कि अपने सामने खड़े चरित्रों के बहरेपन को भी समझता है : यह कोई और नहीं पाठक है (यहाँ दर्शक)। इस तरह से लेखन के सारा अस्तित्व सामने आ जाता है : एक पाठ के भीतर कई लेख होते हैं विभिन्न संस्कृतियों से आए और एक दूसरे के साथ संवाद में, विद्रूप में, और संघर्ष में संलग्न; लेकिन एक जगह है जहाँ ये सारी विविधता एकत्र होती है, एकजुट होती है, और यह जगह रचयिता नहीं है, जैसा कि हम अभी तक कहते आ रहे हैं कि थी, बल्कि पाठक है। पाठक ही वह आयाम है जहाँ किसी भी लेखन के भीतर के सारे उद्धरण, बिना खोये अंकित होते हैं; किसी भी पाठ की एकता उसके उद्गम में नहीं बल्कि उसके गन्तव्य में है; लेकिन वह गन्तव्य अब निजी नहीं रह सकता ; पाठक एक ऐसा आदमी है जिसका कोई इतिहास नहीं, कोई जीवनी नहीं, कोई मनोविज्ञान नहीं; वह मात्र एक कोई है जो पाठ के भीतर निर्मित विभिन्न राहों को एक क्षेत्रीय इकाई में थामे रखता है। इसीलिए पाठक के अधिकारों के स्वनियुक्त और पाखण्डी हिमायतियों द्वारा, मानवतावाद के नाम पर, नवलेखन की निन्दा करना बिलकुल अनर्गल है। शास्त्रीय आलोचना का सरोकार कभी भी पाठक नहीं रहा है; उसके लिए साहित्य में लिखने वाले के अलावा दूसरा कोई है ही नहीं। इस तरह के अन्तरविरोधी जुमलों का कपट अब नहीं चल सकता जिनके ज़रिये हमारा सभ्य समाज गर्व से उनकी हिमायत करता है जो उसी के द्वारा अस्वीकृत हैं, उपेक्षित हैं, जिनका गला घोटा जाता है और नष्ट किया जाता है; हम जानते हैं कि लेखन के भविष्य की प्रतिष्ठा के लिए, हमें उसके मिथक को उलटना होगा ; पाठक के जन्म की फ़िरौती रचयिता को अपनी मृत्यु से चुकानी होगी।
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उसी सन्दर्भ में रोलाँ बात्थ भी याद आए और याद आई उनकी किताब माइथॉलजीस। एक और लेख का ज़िक्र देखा- डेथ ऑफ़ दि ऑथर। नेट पर खोजा तो मिल गया। पढ़ कर बाग़-बाग़ हो गया। नामवर जी ने इलाहाबाद के सम्मेलन में जो कहा वो मेरी उनसे जो उम्मीद थी उस से काफ़ी कम था। मेरा अनुमान था कि वो ब्लॉग माध्यम के अनोखेपन की दार्शनिक विवेचना करेंगे। निराशा हुई। फिर याद आया कि प्रमोद भाई कहते हैं हिन्दी में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं है। है कोई रेमण्ड विलियम्स, वाल्टर बेन्जामिन या फ़ूको? सही है, कोई नहीं है। अचरज होता है कि इतनी अद्भुत बातें रोलाँ बात्थ १९६७-६८ में कर रहे थे, मेरे जन्म के साल, और हम हिन्दी में आज भी प्रेमचन्द के युग से ठीक से बाहर नहीं आ सके हैं? इस लेख को लिखे जाने के इतने सालों बाद भी हिन्दी में इस चेतना की सुगबुगाहट तक नहीं है? फिर प्रमोद भाई की बात- हिन्दी एक मरी हुई भाषा है। है कि नहीं पता नहीं, कुछ उनके धकेलने पर और कुछ अपनी भाषा के प्रति ज़िम्मेदारी के एहसास से दब कर एक दिन इस अनुवाद के नाम गया।
इस लेख में अनुवाद करते हुए वाक्य रचना में विराम चिह्नों के प्रयोग को ज्यों का त्यों छोड़ा गया है। कई जगह मैं पूर्ण विराम का इस्तेमाल कर सकता था, लेकिन इस चिन्तन को मैं ऐसे रख कर ही देखना चाहता हूँ। वैसे भी हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत में भी विराम चिह्नो की परम्परा नहीं है, यह परम्परा सीधे योरोप से आई है। हिन्दी में आज भी पूर्ण विराम, कॉमा, कोष्ठक के अलावा और विराम चिह्न कम ही इस्तेमाल होते हैं। प्रमोद भाई जो मन की गतिविधि को उसके समूचेपन में पकड़ने की कोशिश सतत करते हैं, इन विराम चिह्नों से क़तराते रहते हैं शायद इसलिए कि पहले से जटिल-जटिल अलाप रहे पाठक विराम चिह्नों की जटिल झाड़ियों में न उलझ मरें। फिर भी मेरी इच्छा है कि लोग कोशिश करें और जटिल-पाठ करें।
हिन्दी में इस भाषा की परम्परा नहीं है, इसलिए पाठकों से थोड़े धीरज की उम्मीद है। रोलाँ बात्थ बीसवीं सदी के बड़े दार्शनिक नामों में से हैं, फ़्रांस की धरती से जो उत्तर आधुनिकता के दादाओं में जिनका नाम लिया जाता है उन में फ़ूको, लाकाँ, और देरिदा के साथ बात्थ भी शामिल हैं। इस लेख में बात्थ ने ऑथर और राइटर (स्क्रिप्टर) में भेद किया है जिसे मैंने रचयिता और लेखक (लिपिक) के रूप में अनूदित किया है।
रचयिता की मृत्यु : रोलाँ बात्थ
बालज़ाक अपनी कहानी सरासिने में, औरत के भेस में रहने वाले एक कैस्तरातो (नटुआ जिसे बचपन में ही बधिया किया गया हो) के सन्दर्भ में लिखते हैं: “ये स्वयं एक औरत थी, अपने एकाएक उपजे डर, बेदलील तरंगें, अपने मादरजाद खौफ़, बिलावजह की दिलेरी का मुज़ाहरा, अपने हौसलों और अपने लज़ीज़ नाज़ुक़ी जज़्बात के साथ’’। ये कौन है जो यूं बोल रहा है? क्या ये औरत के भेस में छिपे कैस्तरातो की उपेक्षा से चिंताग्रस्त कहानी का नायक है? या अपने निजी अनुभवों से औरत के दर्शन से समृद्ध बालज़ाक नाम का आदमी है? या फिर रचयिता बालज़ाक, जो स्त्रीत्व के बारे में कुछ साहित्यिक विचारों की व्याख्या कर रहा है? क्या यह सार्वभौमिक ज्ञान है? या रूमानी मनोविज्ञान? यह जानना कभी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि सारा लेखन एक विशेष प्रकार की वाणी है जिसमें समाई होती हैं दूसरी कई अनजानी वाणियां। और साहित्य इसी विशेष प्रकार की वाणी का आविष्कार है जिसके उद्गम का हम कोई निर्धारण नहीं कर पाते: साहित्य है वह तटस्थ, मिला-जुला, तिर्यक आयाम जिसमें पलायित हो जाते हैं सभी विषय, वो जाल जिसमें खो जाती हैं सभी पहचान, सर्वप्रथम उस व्यक्ति की पहचान जो उसे लिखता है।
सम्भवतः हमेशा यही मामला रहता है: जब कभी कुछ वर्णन किया जाता है, वास्तविकता पर किसी सीधी प्रतिक्रिया के लिए नहीं वरन अकर्मक लक्ष्य के लिए – यानी किसी भी क्रिया से अन्ततः परे लेकिन प्रतीक के ठीक-ठीक प्रयोग में - तब होता है यह अलगाव, वाणी अपना उद्गम खो देती है, रचयिता प्राप्त होता है अपनी मृत्य को, लेखन आरम्भ होता है। तब पर भी इस परिघटना को लेकर भावना मिली-जुली रही है; प्राचीन समाजों में, वृत्तान्त कभी एक व्यक्ति की ज़िम्मेवारी नहीं रही, बल्कि एक माध्यम की, ओझा की या वक्ता की, जिसके प्रदर्शन (वृत्तान्त संग्रह की उसके कौशल) पर श्रद्धा हो सकती थी परन्तु उसकी मेधा पर नहीं। रचयिता एक आधुनिक आकृति है, जो पैदा हुई है बेशक़ हमारे समाज (पश्चिमी योरोप) द्वारा ही मध्ययुग के अन्त में, अंग्रेज़ी व्यवहारवाद, फ़्रांसीसी बुद्धिवाद और सुधारआन्दोलन की निजी आस्था से उपजी एक निर्मिति। जिसने खोजी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, और उदार शब्दों में कहें तो, ‘मानवीय व्यक्ति’ की प्रतिष्टा। इसीलिए यह तार्किक लगता है कि साहित्य की दृष्टि से, पूँजीवादी चिन्तन के सार व परिणाम, प्रत्यक्षवाद ने ही रचयिता के व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है। साहित्यिक इतिहास के गुटकों में, रचयिताओं की आपबीतियों में, पत्र-पत्रिकाओं के साक्षात्कारों में, यहाँ तक कि साहित्यिक लोगों की स्मरण में भी रचयिता आज भी राज करता है, अपने निजी डायरियों के ज़रिये अपने कृतित्व और अपने व्यक्तित्व को एकरूप करने के लिए बेचैन। समकालीन संस्कृति में मौजूद साहित्य की छवि अत्याचार की हद तक रचयिता पर केन्द्रित है, उस का व्यक्तित्व, उसका इतिहास, उसकी पसन्द, उसके शौक़; आलोचना भी यही होती है कि बॉदलेयर का काम बॉदलेयर व्यक्ति की असफलता है, वैन गॉह का काम उसकी विक्षिप्तता, त्चैकोवस्की का उसके अवगुण: कृति की व्याख्या उस आदमी में खोजी जाती है जिसने उसे रचा है जैसे कि गल्प के कमोबेश पारदर्शी रूपक के ज़रिये ये हमेशा अन्ततः उस ही एक व्यक्ति, रचयिता, की वाणी थी जिसने उसकी गोपनीयता का उद्घाटन किया।
हालांकि रचयिता का साम्राज्य अभी भी बहुत मज़बूत है ( हालिया आलोचना ने उसे और सुदृढ ही किया है), यह ज़ाहिर है कि एक लम्बे समय से कुछ निश्चित लोगों ने उसकी चूलें हिलाने के प्रयास किए हैं। फ़्रांस में, मलाहमे सबसे पहले थे जिन्होने पूर्वानुमान लगाया और उसके पूरे विस्तार में समझा कि अभी तक आदमी जिस स्थान पर स्वामित्व का दावा कर रहा था उस आदमी की जगह पर भाषा को रखने की ज़रूरत है। मलाह्मे के लिए, और हमारे लिए भी, वो भाषा है जो बोलती है, रचयिता नहीं : लिखना पहुँचना है, एक पहले से मौजूद व्यक्तित्वहीनता के ज़रिये- यथार्थवादी उपन्यासकार की बधिया तटस्थता के ज़रिये नहीं – वह बिन्दु जहाँ भाषा मात्र ही काम करती है, ‘निष्पादन’ करती है, ‘हमारा स्वत्व’ नहीं। मलाह्मे का सम्पूर्ण काव्यशास्त्र लेखन के हित में रचयिता का दमन करने में ही निहित है (जो, हम देखेंगे, पाठक की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना के लिए है।) आत्म के मनोविज्ञान को ढोते हुए वैलरी ने मलाह्मे की प्रस्थापना को नर्म तो बनाया, साथ ही आलंकारिकता के सबक़ पर शास्त्रीयता को वरीयता दे कर उन्होने रचयिता पर सवाल खड़े किए और हँसी उड़ाई, और उसकी गतिविधि के भाषिकी और ‘सांयोगिक’ प्रकृति पर ज़ोर दिया, और उनके गद्य ने लगातार साहित्य की मौखिक स्थिति का समर्थन किया जिसके सम्मुख रचयिता की हीनता की कोई भी शरण लेना उनको शुद्ध अन्धविश्वास लगा। यह साफ़ है कि स्वयं प्रुस्त ने भी, उनके विश्लेषणों के ज़ाहिरा मनोवैज्ञानिक चरित्र के बावजूद रचयिता और उसके चरित्रों के बीच के सम्बन्धों को, एक चरम सूक्ष्मता के ज़रिये, निर्दयता से धूमिल करने का काम किया : कथावाचक को एक ऐसा व्यक्ति बना कर- जो लिखेगा, न कि जो लिख रहा है, या जिसने देखा और महसूस किया। (उपन्यास का नौजवान – पर, कौन है ये, क्या उमर है इसकी? - लिखना चाहता है पर लिख नहीं पाता और उपन्यास वहाँ समाप्त हो जाता है जब अन्ततः लेखन सम्भव हो पाता है) प्रुस्त ने आधुनिक साहित्य को उसका महाकाव्य दिया है : एक मूलभूत विपर्यय के द्वारा; बजाय अपने जीवन को उपन्यास में डालने के, जैसा कि कहा जाता है, वे अपने जीवन को एक ऐसा काम बना डालते हैं जिसके लिए एक तरह से उनकी अपनी किताब एक नमूना थी, ताकि ये हम पर साफ़ज़ाहिर रहे कि ये चार्लि नहीं है जो मन्तेसकियू का अनुकरण करता है बल्कि मन्तेसकियू अपने क़िस्साई, ऐतिहासिक सच्चाई में एक गौण अंश है जो चार्लि से उपजा है। आधुनिकता के इस पूर्वइतिहास पर बने रहने के लिए अब आखिर में अतियथार्थवाद : अतियथार्थवाद बेशक़ भाषा को एक स्वायत्त दरज़ा नहीं दे सका, चूंकि भाषा एक व्यवस्था है, और इस आन्दोलन का (रूमानी) मक़सद ही सारी नियमावलियों को छिन्न-भिन्न करना था – एक आभासी छिन्न-भिन्नता, क्योंकि कोई नियमावली नष्ट नहीं की जा सकती, केवल उसके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है; लेकिन अपेक्षित अर्थों को झटके से भंग कर के (अतियथार्थवादियों का प्रख्यात झटका), जिस चीज़ को सिर अनदेखा कर जाता है उसके लेखन की ज़िम्मेदारी शीघ्रातिशीघ्र हाथ को देकर (यह था स्वचालित लेखन), सामूहिक लेखन का सिद्धान्त और अनुभव स्वीकार कर के, अतियथार्थवाद ने लेखक की छवि को लौकिक बनाने में मदद की। और अन्त में, साहित्य की दुनिया से बाहर (वास्तव में, ये सारी भिन्नताएं लांघी जा रही हैं) भाषाशास्त्र ने बहुमूल्य वैश्लेषिक औज़ार के साथ रचयिता का विनाश सम्पन्न कर दिया है यह दिखाकर कि अपनी समूचेपन में प्रगटीकरण एक खोखली प्रक्रिया है जो उस खाली जगह पर किन्ही संभाषी व्यक्तियों को रखे बिना ही अच्छी तरह काम करती है। भाषिकी तौर पर, रचयिता कभी भी लिखने वाले से अधिक कुछ नहीं है, जैसे कि मैं, मैं कहने वाले से ज़्यादा कुछ नहीं है : भाषा एक कर्ता को जानती है, व्यक्ति को नहीं, इस कर्ता का अन्त कर दो, तो ठीक इस प्रगटीकरण के बाहर की शून्यता जो इसे परिभाषित करती है, वही काफ़ी है भाषा के ‘कर्म’ द्वारा इसे खाली कराने के लिए।
रचयिता की अनुपस्थिति (ब्रेष्ट के मामले में रचयिता साहित्यिक मंच के एक कोने में सिमट जाता है, इसे हम कह सकते हैं सचमुच का विलगाव) मात्र कोई लिखने की प्रक्रिया या ऐतिहासिक सच ही नहीं है : इस ने आधुनिक पाठ को पूरी तरह से रूपान्तरित कर दिया है। (या – जो कि एक ही बात है – अब पाठ ऐसे लिखा और पढ़ा जाता है कि उस में से, हर स्तर पर, रचयिता स्वयं को अनुपस्थित कर लेता है) समय, सबसे पहले, भी वह नहीं रहा। रचयिता, जब हम उस पर भरोसा करते हैं, की कल्पना हम उसकी किताब के भूतकाल की तरह करते हैं : किताब और रचयिता अपने आप ही एक ही रेखा में अपनी जगह लेते हैं, पूर्व और पश्चात के रूप में, रचयिता से अपेक्षित होता है कि वह किताब को भोजन दे – मतलब कि, वह पहले होता है, सोचता है, उसके लिए जीता है; अपने काम के साथ पूर्ववर्ती होने का वह वही सम्बन्ध निभाता है जो एक पिता अपने बच्चे के साथ। इसके ठीक विपरीत, आधुनिक लेखक (लिपिक) अपने पाठ के साथ ही जन्मता है। किसी भी तौर पर उसे ऐसी कोई हस्ती नहीं मिलती जो उसके लेखन से पहले से हो और बढ़ कर भी हो, वह किसी भी तौर पर वह कर्ता नहीं है जिसका कि उसकी किताब कथन है, प्रगटीकरण के अलावा कोई दूसरा समय नहीं है, और हर पाठ शाश्वत रूप से अभी और यहीं लिखा जाता है। यह इसलिए है (या : इसके परिणाम स्वरूप है) अब लेखन का अर्थ अभिलेखन, अवलोकन, निरूपण, चित्रण की प्रक्रिया (जैसे कि शास्त्रीय लेखक कहते हैं) नहीं हो सकता, बल्कि जिसे भाषाशास्त्री, ऑक्सफ़ोर्ड स्कूल की शब्द सम्पदा का अनुकरण करते हुए, निष्पादात्मक कहते है, एक विरल क्रियात्मक रूप (विशिष्ट रूप से केवल प्रथम पुरुष और वर्तमान काल के लिए सुरक्षित) जिसमें कि प्रगटीकरण में कोई और कथ्य नहीं, सिवा उस क्रिया के जिस के द्वारा वह प्रगट किया गया : पूर्वकालिक चारणों की चरणवन्दना की तरह ; आधुनिक लेखक, ‘रचयिता’ को दफ़नाने के बाद अब यह मान नहीं सकता, अपने पूर्ववर्तियों की दयनीय नज़रिये की तरह, कि उसका हाथ उसके विचारों और आवेगों के लिए बहुत मन्द है, जिसके परिणामस्वरूप, आवश्यक्ता को नियम में ढालते हुए, उसे इस अन्तराल को भरना होगा और अनन्तकाल तक अपने शिल्प का मांजना होगा; इसके विपरीत उसके लिए, उसका हाथ किसी भी वाणी से स्वतन्त्र होकर, अंकण (अभिव्यक्ति नहीं) की एक शुद्ध चेष्टा से भरा हुआ, खींचता है एक निर्मूलक क्षेत्र – या जिसका, कम से कम, सिवा भाषा के और कोई मूल नहीं, यानी कि वही एक तत्व जो लगातार हर उत्पत्ति पर प्रश्न उठाती चलती है।
हम जानते हैं कि कोई पाठ सिर्फ़ शब्दों की एक पंक्ति भर ही नहीं होता, जिस से मात्र एक ‘धर्मशास्त्रीय’ अर्थ (लेखकीय ईश्वर का संदेश) निकले बल्कि होता है कई पहलुओं वाला एक आयाम, जिस में तमाम तरह के लेख जड़े और लड़े होते हैं, और जिन में कोई भी मौलिक नहीं होता : संस्कृति के हज़ार मुखों से निकला, पाठ उद्धरणों का एक तन्तु है। हमेशा के नक़लची बूवा और पेक्यूशे की तरह, एक साथ ही उदात्त और हास्यास्पद दोनों और जिनकी गहन निरर्थकता लेखन के सच को ठीक-ठीक दिखाती है, लेखक केवल हमेशा अपनी पूर्ववर्ती चेष्टा की नक़ल भर कर सकता है, मौलिक कभी नहीं हो सकता; उसकी सारी सामर्थ्य विभिन्न प्रकार के लेखन का मिश्रण करने में है, और एक को दूसरो के विरुद्ध खड़ा करने में है, ताकि उसे कभी किसी एकमात्र पर ही निर्भर न हो जाना पड़े; अगर वह स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है, तो कम से कम उसे पता होना चाहिये कि वह आन्तरिक ‘तत्व’, जिसका वह ‘रूपान्तरण’ करने का दावा करता है, अपने आप में एक पहले से तैयार शब्दकोष है जिसके शब्दों की व्याख्या (परिभाषा) केवल दूसरे शब्दों के द्वारा ही की जा सकती है, और दूसरे शब्दों की और दूसरे शब्दों से, और ऐसे ही अनन्त काल तक :, ग्रीक भाषा में विशेष प्रतिभा सम्पन्न, नौजवान डि क्विन्सी का एक अनुकरणीय अनुभव हमारे सामने है, ऐसा बॉदलेयर बताते हैं कि, उस मृत भाषा में कुछ विशेष अत्याधुनिक विचारों और छवियों का अनुवाद करने के लिए, “उन्होने तैयार किया शुद्ध साहित्यिक विषयों के अश्लील धैर्य से उपजने वाले से भी अधिक विस्तृत और जटिल एक शब्दकोष” (पैरादिस आर्तिफ़िसियल)। रचयिता के परवर्ती होने के बाद, लेखक आवेग, परिहास, भाव, छाप, अपने भीतर नहीं रख सकता बल्कि रखता है वह विशाल शब्दकोष जिससे वह हासिल करता है लेखन, जो न रुकता है और न खत्म होता है ; जीवन किताब की नक़ल करने से अधिक कुछ नहीं करता और किताब स्वयं किसी खोये हुए, अनन्त दूरी पर स्थित, संकेतों का तन्तु है।
एक बार जब रचयिता विदा हो गया, तो पाठ के रहस्योद्घाटन का दावा भी बिलकुल अर्थहीन हो जाता है। किसी पाठ को एक रचयिता के हवाले करना उस पाठ को एक सीमा में बाँधना है, उसको एक अन्तिम अर्थ तक पहुँचा कर लेखन को समाप्त करना है। यह परिकल्पना आलोचना को बिलकुल जंचती है, जो अपने लिए पाठ के पीछे से रचयिता की खोज (या उसकी प्रस्थापनाएं : समाज, इतिहास, अन्तर्मन, स्वतन्त्रता) का एक बड़ा बीड़ा उठा सकती है: एक बार जब रचयिता की खोज हो गई तो पाठ की व्याख्या भी हो जाती है और आलोचक विजयी होता है; इसलिए ये ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि ऐतिहासिक तौर पर रचयिता का युग आलोचक का भी युग हो, और आलोचना (“नई आलोचना” भी) को भी रचियता के साथ उखाड़ फेंकना चाहिये। लेखन की बहुलता में, वास्तव में, हर एक की विशिष्टता है पर व्याख्या किसी की नहीं; संरचना जारी रह सकती है, अपनी चरणों के सारी पुनरावृतियों में (किसी मोज़े के तरह) बिनी हुई, मगर जिसके नीचे कोई धरातल नहीं है; लेखन के आयाम से गुज़रा जा सकता है उसे भेदा नहीं जा सकता : लेखन लगातार अर्थ को स्थान देता है लेकिन हमेशा बिला जाने के लिए : लेखन, अर्थ के एक व्यवस्थाबद्ध विमोचन की ओर बढ़ता है। और इस रास्ते से साहित्य (वैसे अब से लेखन कहना अच्छा होगा), पाठ को कोई रहस्य, या उसका परम अर्थ, देने से इन्कार कर के, एक ऐसी गतिविधि को मुक्ति प्रदान करता है जिसे धर्मशास्त्र विरोधी कहा जा सकता है, और सच में क्रांतिकारी, क्योंकि अर्थ को जड़ करने से इन्कार करना ईश्वर और उसके प्रस्थापनाओं तर्क, विज्ञान और विधि से इन्कार करना है।
चलिये बालज़ाक के वाक्य पर वापस लौटते हैं : वह किसी का (यानी किसी व्यक्ति का) कथन नहीं है : इस वाणी के स्रोत का पता नहीं चलता; फिर भी सब कुछ समझ में आता है; वह इसलिए कि लेखन का असली बिन्दुपथ पठन है। इसे एक और विषेश उदाहरण से समझते हैं : हालिया शोधों (जे पी वेरनाँ) ने ग्रीक त्रासदी के मूलभूत श्लेषात्मक स्वभाव पर प्रकाश डाला है, उनका पाठ ऐसे शब्दों से बुना हुआ है जो द्विअर्थी हैं, पर हर चरित्र उनका एक ही अर्थ लेता है (त्रासदी का अर्थ, लगातार होने वाली ऐसी ही ग़लतफ़हमी से ही है); फिर भी कोई है जो हर शब्द को उसके द्वैधता में समझता है, और यह भी कहा जा सकता है कि अपने सामने खड़े चरित्रों के बहरेपन को भी समझता है : यह कोई और नहीं पाठक है (यहाँ दर्शक)। इस तरह से लेखन के सारा अस्तित्व सामने आ जाता है : एक पाठ के भीतर कई लेख होते हैं विभिन्न संस्कृतियों से आए और एक दूसरे के साथ संवाद में, विद्रूप में, और संघर्ष में संलग्न; लेकिन एक जगह है जहाँ ये सारी विविधता एकत्र होती है, एकजुट होती है, और यह जगह रचयिता नहीं है, जैसा कि हम अभी तक कहते आ रहे हैं कि थी, बल्कि पाठक है। पाठक ही वह आयाम है जहाँ किसी भी लेखन के भीतर के सारे उद्धरण, बिना खोये अंकित होते हैं; किसी भी पाठ की एकता उसके उद्गम में नहीं बल्कि उसके गन्तव्य में है; लेकिन वह गन्तव्य अब निजी नहीं रह सकता ; पाठक एक ऐसा आदमी है जिसका कोई इतिहास नहीं, कोई जीवनी नहीं, कोई मनोविज्ञान नहीं; वह मात्र एक कोई है जो पाठ के भीतर निर्मित विभिन्न राहों को एक क्षेत्रीय इकाई में थामे रखता है। इसीलिए पाठक के अधिकारों के स्वनियुक्त और पाखण्डी हिमायतियों द्वारा, मानवतावाद के नाम पर, नवलेखन की निन्दा करना बिलकुल अनर्गल है। शास्त्रीय आलोचना का सरोकार कभी भी पाठक नहीं रहा है; उसके लिए साहित्य में लिखने वाले के अलावा दूसरा कोई है ही नहीं। इस तरह के अन्तरविरोधी जुमलों का कपट अब नहीं चल सकता जिनके ज़रिये हमारा सभ्य समाज गर्व से उनकी हिमायत करता है जो उसी के द्वारा अस्वीकृत हैं, उपेक्षित हैं, जिनका गला घोटा जाता है और नष्ट किया जाता है; हम जानते हैं कि लेखन के भविष्य की प्रतिष्ठा के लिए, हमें उसके मिथक को उलटना होगा ; पाठक के जन्म की फ़िरौती रचयिता को अपनी मृत्यु से चुकानी होगी।
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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009
एक अद्भुत लेखक से परिचय
ऑरहे लुइस बोर्ग़्हेस* का रचना संसार एक ऐसा विद्वतापूर्ण जटिल और सघन दलदल है जिसमें आप उतरने से क़तरा सकते हैं। पहले वाक्य से ही वो आप को डरा सकता हैं आतंकित कर सकता है अनजाने नामों, सन्दर्भों और लोकों से। लेकिन उस साहसी पाठक के लिए जो न घबराया- न डरा, ये कहानियां बौद्धिक आनन्द का उम्दा ईनाम है।
बोर्ग़्हेस की रचनाओं के बारे में यह तय काना मुश्किल होता है कि वे दार्शनिक संवाद है जिनके भीतर कहानी के अद्भुत तत्व विद्यमान हैं या फिर वे कमाल की कहानियां हैं जो गहरे दार्शनिक अर्थों से लबरेज़ हैं।
आम तौर पर कहानियां ऐसी होती हैं कि आप एक पंक्ति का एक शब्द पढ़कर नीचे उतरते चले जाइये, सुपरमैन की तरह सुपरस्पीड से पढ़ते हुए। लेकिन बोर्ग़्हेस की कहानी में कोई वाक्य कूद कर आगे नहीं जा सकते। हर वाक्य एक नया आयाम उद्घाटित करता है। एक नयी परत खोलता है। पुराना अर्थ तोड़ता है, एक नया अर्थ जोड़ता है।
बौद्धिक तेज से चमचमाती ये कहानियां पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि बीस वर्ष पहले के दौर में लौट गया हूँ जब पहली बार मिलान कुन्देरा पढ़कर या बुनुएल की फैन्टम ऑफ़ लिबर्टी और ओब्सक्योर ऑबजेक्ट ऑफ़ डिज़ायर देखकर एक बौद्धिक सनसनी हुई थी। शायद काफ़्का के बाद बोर्ग़्हेस दुनिया के अकेले ऐसे लेखक होंगे जिन्होने अपने समय को सबसे अधिक प्रभावित किया।
बोर्ग़्हेस पोस्ट-मार्डनिस्म के अस्तित्व में आने से पहले ही वे एक पोस्ट-मार्डनिस्ट थे। वे यथार्थवादी नहीं बल्कि अल्ट्राइस्ट थे। उनका यथार्थ जैसा यथार्थ नहीं है, और स्वप्न ठीक ठीक स्वप्न ही है यह नहीं माना जा सकता है। दोनों एक दूसरे में घुलते हुए से हैं। कब स्वप्न की तरलता यथार्थ की तरह ठोस हो जाए और यथार्थ का घनत्व पिघल कर कैसा अचरजी रंग बदल ले आप तय नहीं कर सकते। उनकी हर कहानी कुछ विशेष विषय के गिर्द ही चलती है - अनन्त, असीम, भ्रम, माया, स्वप्न, परतदार सत्य, लैबीरेन्थ (जटिल भूलभुलैया या सघन गोरखी दुनिया), समय; वर्तुलाकार या चक्राकार समय।
उनकी एक मशहूर कहानी है -पियर मेनार, ऑथर ऑफ़ द ‘कीहोटि’। लेखकीय मौलिकता के ऊपर ऐसी मौलिक कहानी पहले नहीं पढ़ी थी। यह एक ऐसे लेखक की कथा जो सरवान्तीज़ के डॉन कीहोटि की पुनर्रचना में कुछ इस तरह जुटता है कि उसका एक एक लफ़्ज़ सरवान्तीज़ के साथ मेल खाता है मगर विश्लेषक या पाठक के लिए उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं क्योंकि उनकी देश काल परिस्थिति भिन्न है।
मिसाल के तौर पर एक और कहानी है ‘लाइब्रेरी ऑफ़ बेबेल’, जिसमें लाइब्रेरी ब्रह्माण्ड का एक रूपक है- ये अनन्त लाइब्रेरी एक विशाल खगोल है जो अनगिनत षटभुजों से मिलकर बनी है, जिसका केद्र तो हर एक षटभुज है पर परिधि कहीं नहीं। लाइब्रेरी सम्पूर्ण है, जिस में एक जैसी कोई भी दो किताबें नहीं हैं। और उसकी आलमारियों में २२ लेखन चिह्नों के सभी समुच्च्य मौजूद हैं। चूंकि लाइब्रेरी में सभी सम्भव लेखन उपस्थित है इसलिए दुनिया की हर समस्या, निजी और सामाजिक का हल लाइब्रेरी के किसी न किसी कोने में रखी किसी किताब के भीतर लिखा हुआ है। और इन्ही किताबों के बीच एक ऐसी किताब भी है जो कि है सम्पूर्ण किताब, जो कि बाक़ी सभी किताबों की कुंजी- सभी किताबों के रहस्य अपने भीतर छिपाये हुए है। बावजूद इस सब के लाइब्रेरी में अशांति है, अराजकता है, हताशा है..कुछ लोग किताबें जला रहे हैं, कुछ उस दिव्य किताब की खोज में विचित्र प्रयोग कर रहे हैं।
बोर्ग़्हेस की कहानियों के भीतर के कल्पनालोक में काल्पनिक लेखकों की काल्पनिक किताबें होती हैं एक नहीं तमाम। ऐसा माना जा सकता है कि ये सारी किताबें वो किताबें है जो बोर्ग़हेस स्वयं लिखना चाहते थे चूंकि उनका मानना है कि पांच सौ पन्नो की किताबें लिखने की मशक्कत एक ऐसा व्यर्थ का पागलपन जो आप के बहुमूल्य समय पर डाका डालता है, जबकि वही बात आप पांच मिनट में मुँहज़बानी सुना सकते हैं। बेहतर ये है कि मान लिया जाय कि वो किताबें पहले ही लिखीं जा चुकी हैं और सिर्फ़ उन पर टिप्पणी लिखी जाय।
पेंग्विन ने उनकी कहानियों के सारे संग्रह छापे हैं। लेकिन सबसे बेहतरीन कहानियां ‘फ़िक्शन्स’ नाम के संग्रह में संकलित है। अगर आप कहानियों के घिसे-पिटे सुर से ऊब चुके हैं तो ज़रूर आज़माईये बोर्ग़्हेस को- नाउम्मीद नहीं होंगे।
*Borges के उच्चारण को लेकर भी एक विविधता है- जो उन पर जंचती है। हिन्दी भाषी लोग इसे आम तौर पर बोर्जेस पढ़ेंगे मगर अगर आप Borges के हिन्दी अनुवाद देखेंगे तो आप को वहाँ बोर्ख़ेस लिखा मिलेगा-हिन्दी के विद्वजन भी यही उचारते मिलेंगे। G किस नियम के अनुसार ख़ में बदल जाएगा, को लेकर मेरे भीतर एक हलचल मची रही। मैंने डिक्शनरी डॉट कॉम पर देखा तो वहाँ उचारण मिला- ऑरहे लुइस बोर्हेस। यह सही भी है क्योंकि स्पेनी फ़िल्मों में Jorge (George) को ऑरहे ही बोला जाता है। लेकिन जब मैं इसे बातचीत में बोरहेस-बोरहेस बोलने लगा तो उलझन सी होने लगी। G की छवि को ह की तरह बोलने में तक़लीफ़ हो रही है बावजूद इसके कि प्रसिद्ध चित्रकार Modigliani को हम मोदिहलियानी ही कह कर बुलाते सुन सकते हैं। फिर मेरी पत्नी तनु ने मुझ से कहा कि बोरहेस का जो ह है वह हलक़ से निकलना चाहिये, अरबी के हलक़ वाले हे की तरह। मैंने बोलकर देखा- बेहतर लगा। फिर भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ। फिर ख्याल आया कि G को ग भी तो बोला जा सकता है और उसे अगर ग़ैन वाले ग़ की तरह बोला जाय तो कैसा रहे? तो हुआ बोरग़ेस मगर डिक्शनरी डॉट कॉम का उच्चारण इससे मेल नहीं खाता। लिहाज़ा मैंने दोनों को मिला दिया और पाया – बोर्ग़्हेस। ये काफ़ी कुछ असली उच्चारण के क़रीब है।
बोर्ग़्हेस की रचनाओं के बारे में यह तय काना मुश्किल होता है कि वे दार्शनिक संवाद है जिनके भीतर कहानी के अद्भुत तत्व विद्यमान हैं या फिर वे कमाल की कहानियां हैं जो गहरे दार्शनिक अर्थों से लबरेज़ हैं।
आम तौर पर कहानियां ऐसी होती हैं कि आप एक पंक्ति का एक शब्द पढ़कर नीचे उतरते चले जाइये, सुपरमैन की तरह सुपरस्पीड से पढ़ते हुए। लेकिन बोर्ग़्हेस की कहानी में कोई वाक्य कूद कर आगे नहीं जा सकते। हर वाक्य एक नया आयाम उद्घाटित करता है। एक नयी परत खोलता है। पुराना अर्थ तोड़ता है, एक नया अर्थ जोड़ता है।
बौद्धिक तेज से चमचमाती ये कहानियां पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि बीस वर्ष पहले के दौर में लौट गया हूँ जब पहली बार मिलान कुन्देरा पढ़कर या बुनुएल की फैन्टम ऑफ़ लिबर्टी और ओब्सक्योर ऑबजेक्ट ऑफ़ डिज़ायर देखकर एक बौद्धिक सनसनी हुई थी। शायद काफ़्का के बाद बोर्ग़्हेस दुनिया के अकेले ऐसे लेखक होंगे जिन्होने अपने समय को सबसे अधिक प्रभावित किया।
बोर्ग़्हेस पोस्ट-मार्डनिस्म के अस्तित्व में आने से पहले ही वे एक पोस्ट-मार्डनिस्ट थे। वे यथार्थवादी नहीं बल्कि अल्ट्राइस्ट थे। उनका यथार्थ जैसा यथार्थ नहीं है, और स्वप्न ठीक ठीक स्वप्न ही है यह नहीं माना जा सकता है। दोनों एक दूसरे में घुलते हुए से हैं। कब स्वप्न की तरलता यथार्थ की तरह ठोस हो जाए और यथार्थ का घनत्व पिघल कर कैसा अचरजी रंग बदल ले आप तय नहीं कर सकते। उनकी हर कहानी कुछ विशेष विषय के गिर्द ही चलती है - अनन्त, असीम, भ्रम, माया, स्वप्न, परतदार सत्य, लैबीरेन्थ (जटिल भूलभुलैया या सघन गोरखी दुनिया), समय; वर्तुलाकार या चक्राकार समय।
उनकी एक मशहूर कहानी है -पियर मेनार, ऑथर ऑफ़ द ‘कीहोटि’। लेखकीय मौलिकता के ऊपर ऐसी मौलिक कहानी पहले नहीं पढ़ी थी। यह एक ऐसे लेखक की कथा जो सरवान्तीज़ के डॉन कीहोटि की पुनर्रचना में कुछ इस तरह जुटता है कि उसका एक एक लफ़्ज़ सरवान्तीज़ के साथ मेल खाता है मगर विश्लेषक या पाठक के लिए उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं क्योंकि उनकी देश काल परिस्थिति भिन्न है।
मिसाल के तौर पर एक और कहानी है ‘लाइब्रेरी ऑफ़ बेबेल’, जिसमें लाइब्रेरी ब्रह्माण्ड का एक रूपक है- ये अनन्त लाइब्रेरी एक विशाल खगोल है जो अनगिनत षटभुजों से मिलकर बनी है, जिसका केद्र तो हर एक षटभुज है पर परिधि कहीं नहीं। लाइब्रेरी सम्पूर्ण है, जिस में एक जैसी कोई भी दो किताबें नहीं हैं। और उसकी आलमारियों में २२ लेखन चिह्नों के सभी समुच्च्य मौजूद हैं। चूंकि लाइब्रेरी में सभी सम्भव लेखन उपस्थित है इसलिए दुनिया की हर समस्या, निजी और सामाजिक का हल लाइब्रेरी के किसी न किसी कोने में रखी किसी किताब के भीतर लिखा हुआ है। और इन्ही किताबों के बीच एक ऐसी किताब भी है जो कि है सम्पूर्ण किताब, जो कि बाक़ी सभी किताबों की कुंजी- सभी किताबों के रहस्य अपने भीतर छिपाये हुए है। बावजूद इस सब के लाइब्रेरी में अशांति है, अराजकता है, हताशा है..कुछ लोग किताबें जला रहे हैं, कुछ उस दिव्य किताब की खोज में विचित्र प्रयोग कर रहे हैं।
बोर्ग़्हेस की कहानियों के भीतर के कल्पनालोक में काल्पनिक लेखकों की काल्पनिक किताबें होती हैं एक नहीं तमाम। ऐसा माना जा सकता है कि ये सारी किताबें वो किताबें है जो बोर्ग़हेस स्वयं लिखना चाहते थे चूंकि उनका मानना है कि पांच सौ पन्नो की किताबें लिखने की मशक्कत एक ऐसा व्यर्थ का पागलपन जो आप के बहुमूल्य समय पर डाका डालता है, जबकि वही बात आप पांच मिनट में मुँहज़बानी सुना सकते हैं। बेहतर ये है कि मान लिया जाय कि वो किताबें पहले ही लिखीं जा चुकी हैं और सिर्फ़ उन पर टिप्पणी लिखी जाय।
पेंग्विन ने उनकी कहानियों के सारे संग्रह छापे हैं। लेकिन सबसे बेहतरीन कहानियां ‘फ़िक्शन्स’ नाम के संग्रह में संकलित है। अगर आप कहानियों के घिसे-पिटे सुर से ऊब चुके हैं तो ज़रूर आज़माईये बोर्ग़्हेस को- नाउम्मीद नहीं होंगे।
*Borges के उच्चारण को लेकर भी एक विविधता है- जो उन पर जंचती है। हिन्दी भाषी लोग इसे आम तौर पर बोर्जेस पढ़ेंगे मगर अगर आप Borges के हिन्दी अनुवाद देखेंगे तो आप को वहाँ बोर्ख़ेस लिखा मिलेगा-हिन्दी के विद्वजन भी यही उचारते मिलेंगे। G किस नियम के अनुसार ख़ में बदल जाएगा, को लेकर मेरे भीतर एक हलचल मची रही। मैंने डिक्शनरी डॉट कॉम पर देखा तो वहाँ उचारण मिला- ऑरहे लुइस बोर्हेस। यह सही भी है क्योंकि स्पेनी फ़िल्मों में Jorge (George) को ऑरहे ही बोला जाता है। लेकिन जब मैं इसे बातचीत में बोरहेस-बोरहेस बोलने लगा तो उलझन सी होने लगी। G की छवि को ह की तरह बोलने में तक़लीफ़ हो रही है बावजूद इसके कि प्रसिद्ध चित्रकार Modigliani को हम मोदिहलियानी ही कह कर बुलाते सुन सकते हैं। फिर मेरी पत्नी तनु ने मुझ से कहा कि बोरहेस का जो ह है वह हलक़ से निकलना चाहिये, अरबी के हलक़ वाले हे की तरह। मैंने बोलकर देखा- बेहतर लगा। फिर भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ। फिर ख्याल आया कि G को ग भी तो बोला जा सकता है और उसे अगर ग़ैन वाले ग़ की तरह बोला जाय तो कैसा रहे? तो हुआ बोरग़ेस मगर डिक्शनरी डॉट कॉम का उच्चारण इससे मेल नहीं खाता। लिहाज़ा मैंने दोनों को मिला दिया और पाया – बोर्ग़्हेस। ये काफ़ी कुछ असली उच्चारण के क़रीब है।
रविवार, 4 अक्तूबर 2009
आत्माहीन कला
इन्ग्लोरियस बास्टर्ड्स - अगर मुझे पता होता कि नाज़ियो और यहूदियों के समीकरण के ही बारे में ये एक और फ़िल्म है तो मैं कभी इस फ़िल्म को देखने को राज़ी नहीं होता। मैंने इसका पोस्टर देखा ज़रूर था और यह भी जानता था कि यह एक वॉर फ़िल्म है, लेकिन.. मेरी मूर्खता थी शायद.. मुझे बूझ लेना था। पिछले बीस सालों में मैंने यहूदियों पर नाज़ी अत्याचारों को लेकर इतनी फ़िल्में देखी हैं कि मैं अब इस विषय के प्रति अपनी संवेदना खो चुका हूँ। होलोकास्ट, गैस चैम्बर्स, यहूदियों की प्रताणना जैसे बातें सुनकर मेरे चित्त पर रञ्जना और अभिव्यञ्जना की सारी सम्भावनाएं विलोप हो जाती हैं.. चालू ज़ुबान में मैं चटने लगता हूँ।
मेरे सारे प्रगतिशील दोस्त मेरे इस बयान को लेकर अपने हाथों में पत्थर कस चुके होंगे। जैसी कि आम प्रगतिशीलों की फ़ित्रत होती हैं वे अपने कट्टर दुश्मन साम्प्रदायिकों की तरह ही, सारी दुनिया को अस एण्ड देम के दो बाड़ों में ही देख पाने के लिए अभिशप्त होते हैं। उन्होने मुझे या तो मुझे महमूद अहमेदीनिज़ाद की तर्ज़ पर होलोकास्ट को होक्स मानने वाली प्रस्थापना का समर्थक मान लिया होगा या किसी एक नई-नवेली 'हिन्दू ज़ायनिस्ट' डिज़ाइन का हिस्सा।
अगर उन के सामने आप कश्मीर के आन्दोलन में निहित मूल साम्प्रदायिकता की बात कर दीजिये तो वो आप को कम्यूनल भाजपाई मान लेंगे और इसके विपरीत अगर आप मोदी को चार गाली दे दीजिये तो अपनी राय पर थोड़ा शक़ होगा और हो सकता है कि आप को सेक्यूलर क्लब की सदस्यता की पर्ची काट दें। इसके बाद अगर आप श्राद्ध पक्ष के बाद सर घुटाए दिख गए तो हैरानी से उनका मुँह खुला रह जाएगा.. अरे आप तो.. और आप की सदस्यता पर पुनर्विचार चलने लगेगा। उनकी कमज़ोर जीवन दृष्टि पर जो मोटा चशमा चढ़ा है उससे कुछ भी महीन सूक्ष्म देख पाने की क्षमता वो खो चुके हैं। मैं कह सकता था कि ये उस चश्मे का दोष है, उनका दोष नहीं है, पर नहीं कहूँगा। मैं उन से भी बहुत चटा हुआ हूँ।
पर मेरे पाठक आप ही बताइये.. एक आदमी जो कि न तो नाज़ी है, न जर्मन है, न ब्रिटिश है, न फ़्रेंच, न यूरोपी और न अमरीकी.. और यहूदी तो बिलकुल ही नहीं..आखिर क्यूंकर उसे इस विषय के प्रति हर मौक़े-बेमौक़े पर अपनी आंसुओं की बाल्टी तैयार कर लेनी चाहिये? और माफ़ कीजिये मैं मुसलमान भी नहीं हूँ जिनके भीतर प्रायः यहूदियों के प्रति एक खास नफ़रत का समन्दर ठाठें मारता रहता है। (यहाँ पर मुझे लिखना चाहिये कि - हर मुसलमान नहीं - पर मैं नहीं लिखूंगा)
दुनिया में तमाम ऐसे दारुण विषय हैं जिन पर फ़िल्म बनने की दरकार हो सकती है लेकिन नहीं बनती। अब जैसे कल एक लेख में पढ़ रहा था कि एक चीनी लेखक द्वारा लिखी एक नई किताब के अनुसार चेयरमैन माओ की 'ग्रेट लीप फ़ारवर्ड' के तहत ३ करोड़ साठ लाख लोगों की हत्याएं हुई, जो कि होलोकास्ट में मारे गए लोगों से सम्भवतः अधिक है। मगर उस त्रासदी के बारे में कितने लोग जानते हैं? अपने १८५७ के बारे में ही एक अनुमान है कि ९० लाख लोग मारे गए - उस पर कितनी फ़िल्में बनी हैं? जो बनी थी - मंगल पाण्डेय - वो बरदाश्त के बाहर थी। लेकिन हमारी मानसिकता ऐसी बन गई है कि अत्याचार और त्रासदी के नाम पर हमारे पास सबसे दारुण मिसाल होलोकास्ट ही होती है।
मैं एक सीधा साधा फ़िल्म-प्रेमी हूँ। जो सिनेमा हॉल के गाढ़े अंधेरों में अपने मानस के जाने-अनजाने तत्वो को दूसरे मनुष्य के अनुभवों के जीवन्त चित्रण के हवाले कर उन्हे साझना चाहता है। टैरनटीनो बड़े निर्देशक हैं। किल बिल, रेज़ेरवायर डॉग्स और पल्प फ़िक्शन कल्ट फ़िल्म्स हैं और सही हैं। डेथ प्रूफ़ अच्छी नहीं थी मगर बुरी भी नहीं थी। उनकी इन्ही फ़िल्मों को प्रभाव था कि मैंने फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले ही उसे देखने का मन बना लिया था। एक्सप्रेस में रिव्यू के आगे पाँच स्टार्ज देखे ज़रूर थे, और उस का असर भी मन पर लिया था, लेकिन पढ़ा नहीं था। अच्छा पढ़ा नहीं था फिर तो शायद और गु़स्सा होता। रिव्यू लिखने पर किसी स्टूडियो का दबाव रहा होगा ऐसा नहीं है लेकिन सबसे बड़ा दबाव प्रतिष्ठा का होता है। वो ऐसा दबाव होता है कि अगर आप को फ़िल्म न भी समझ आए, बुरी भी लग जाए तो आप कसूर फ़िल्म को देने के बजाय या अपनी राय साफ़ सामने रखने के बजाय बड़े-बड़े झूठे शब्द उछाल कर तारीफ़ों का ऐसा मुज़ाहरा करते हैं कि किसी को भनक भी न पड़ने पाए कि आप ऐसे मूर्ख हैं जिसे टैरनटीनो की फ़िल्म नहीं समझ आई?
मैं एक ऐसा मूर्ख हूँ जिसे फ़िल्म पसन्द नहीं आई। ऐसा नहीं कि फ़िल्म आप को पकड़ती नहीं, पकड़ती है और जकड़ती भी है.. इस हद तक कि आप का माथा पिराने लगे और आप आशंका और उत्तेजना से थथराने लगें। फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर टैरनटीनो ने जो दस साल तक मेहनत की है वो दिखाई देती है, महसूस भी होती है। असर में कमी नहीं है.. फ़िल्म की जो मूल समझ है, एहसास की जिस दुनिया में फ़िल्म हमें ले जाती है, शिकायत और तक़लीफ़ उस से है।
फ़िल्म रंगीन ज़रूर है पर दिखाई देनी वाली दुनिया दुरंगी यानी काली सफ़ेद है। एक हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला है। जर्मन्स खोज-खोज कर यहूदियों की हत्याएं कर रहे हैं उसके जवाब में प्रतिशोध से भरे हुए जर्मन यहूदियों और अमरीकियों का एक गैंग है जो जरमनों की हत्याएं कर रहा है उनसे भी अधिक पाशविकता से।
फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है मगर कथानक काल्पनिक है। फ़िल्म के अंत में जिस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाता है वो टैरनटीनो की ‘गूढ़’ कल्पना है। गूढ़ पर ज़ोर इसलिए कि उस कल्पना को जेब में डाले हर आतंकवादी घूम रहा है। अगर टैरनटीनो की इस दुनिया में एलाइड पक्ष की जगह अफ़्ग़ानी, पाकिस्तानी और अरब लड़ाके और नाज़ियों की जगह अमरीकी, फ़्रेंच और अंग्रेज़ हो तो आज की सही तस्वीर बन जाएगी। लेकिन शायद टैरनटीनो साहब के दिमाग़ में दो पैमाने होंगे एक अमरीकी हिंसा को तौलने का और दूसरा नाज़ियों और मुसलमानों की हिंसा को तौलने का? (मेरे प्रगतिशील मित्र नाज़ियों और मुसलमानों को समीकरण के एक ओर एक साथ रखने को अन्यथा ले सकते हैं, मेरा वैसा कोई आशय नहीं है लेकिन मैं इस वाक्य संरचना को नहीं बदल रहा हूँ)
फ़िल्म का आधार नफ़रत है। दोनों तरफ़ से हचक के नफ़रत। ऐसी करुणाहीन फ़िल्म, चाहे कितनी भी कारीगरी की शिखर पर चढ़ कर बैठी हो, मेरी नज़र में बुरी फ़िल्म है। कोई हत्यारा अगर किसी का गला काटने समय गणपति की अद्भुत आकृति उकेरने का उस्ताद हो तो क्या उसे कलाकार मान लेना चाहिये? एक ऐसा चिंतन है जो मानता है। मैं नहीं मानता।
ब्रैड पिट ने जबड़ों में अजब तनाव पैदा कर के न जाने कैसी अभिनय की कोशिश की है; मुझे तो ज़रा भी समझ नहीं आई। क्रिस्टोफ़ वाल्ट्ज़ ने बहुत बेहतर काम किया है जिसके लिए उन्हे कान फ़िल्मोत्सव में पुरस्कार भी मिला। एक बात और जो मुझे बहुत अखरी – पूरी कहानी फ़्रांस में घटित होती है लेकिन इनग्लोरियस बास्टर्ड्स में फ़्रांस की ज़रा भी आत्मा नहीं है। सच पूछिये तो आत्मा है ही नहीं।
मेरे सारे प्रगतिशील दोस्त मेरे इस बयान को लेकर अपने हाथों में पत्थर कस चुके होंगे। जैसी कि आम प्रगतिशीलों की फ़ित्रत होती हैं वे अपने कट्टर दुश्मन साम्प्रदायिकों की तरह ही, सारी दुनिया को अस एण्ड देम के दो बाड़ों में ही देख पाने के लिए अभिशप्त होते हैं। उन्होने मुझे या तो मुझे महमूद अहमेदीनिज़ाद की तर्ज़ पर होलोकास्ट को होक्स मानने वाली प्रस्थापना का समर्थक मान लिया होगा या किसी एक नई-नवेली 'हिन्दू ज़ायनिस्ट' डिज़ाइन का हिस्सा।
अगर उन के सामने आप कश्मीर के आन्दोलन में निहित मूल साम्प्रदायिकता की बात कर दीजिये तो वो आप को कम्यूनल भाजपाई मान लेंगे और इसके विपरीत अगर आप मोदी को चार गाली दे दीजिये तो अपनी राय पर थोड़ा शक़ होगा और हो सकता है कि आप को सेक्यूलर क्लब की सदस्यता की पर्ची काट दें। इसके बाद अगर आप श्राद्ध पक्ष के बाद सर घुटाए दिख गए तो हैरानी से उनका मुँह खुला रह जाएगा.. अरे आप तो.. और आप की सदस्यता पर पुनर्विचार चलने लगेगा। उनकी कमज़ोर जीवन दृष्टि पर जो मोटा चशमा चढ़ा है उससे कुछ भी महीन सूक्ष्म देख पाने की क्षमता वो खो चुके हैं। मैं कह सकता था कि ये उस चश्मे का दोष है, उनका दोष नहीं है, पर नहीं कहूँगा। मैं उन से भी बहुत चटा हुआ हूँ।
पर मेरे पाठक आप ही बताइये.. एक आदमी जो कि न तो नाज़ी है, न जर्मन है, न ब्रिटिश है, न फ़्रेंच, न यूरोपी और न अमरीकी.. और यहूदी तो बिलकुल ही नहीं..आखिर क्यूंकर उसे इस विषय के प्रति हर मौक़े-बेमौक़े पर अपनी आंसुओं की बाल्टी तैयार कर लेनी चाहिये? और माफ़ कीजिये मैं मुसलमान भी नहीं हूँ जिनके भीतर प्रायः यहूदियों के प्रति एक खास नफ़रत का समन्दर ठाठें मारता रहता है। (यहाँ पर मुझे लिखना चाहिये कि - हर मुसलमान नहीं - पर मैं नहीं लिखूंगा)
दुनिया में तमाम ऐसे दारुण विषय हैं जिन पर फ़िल्म बनने की दरकार हो सकती है लेकिन नहीं बनती। अब जैसे कल एक लेख में पढ़ रहा था कि एक चीनी लेखक द्वारा लिखी एक नई किताब के अनुसार चेयरमैन माओ की 'ग्रेट लीप फ़ारवर्ड' के तहत ३ करोड़ साठ लाख लोगों की हत्याएं हुई, जो कि होलोकास्ट में मारे गए लोगों से सम्भवतः अधिक है। मगर उस त्रासदी के बारे में कितने लोग जानते हैं? अपने १८५७ के बारे में ही एक अनुमान है कि ९० लाख लोग मारे गए - उस पर कितनी फ़िल्में बनी हैं? जो बनी थी - मंगल पाण्डेय - वो बरदाश्त के बाहर थी। लेकिन हमारी मानसिकता ऐसी बन गई है कि अत्याचार और त्रासदी के नाम पर हमारे पास सबसे दारुण मिसाल होलोकास्ट ही होती है।
मैं एक सीधा साधा फ़िल्म-प्रेमी हूँ। जो सिनेमा हॉल के गाढ़े अंधेरों में अपने मानस के जाने-अनजाने तत्वो को दूसरे मनुष्य के अनुभवों के जीवन्त चित्रण के हवाले कर उन्हे साझना चाहता है। टैरनटीनो बड़े निर्देशक हैं। किल बिल, रेज़ेरवायर डॉग्स और पल्प फ़िक्शन कल्ट फ़िल्म्स हैं और सही हैं। डेथ प्रूफ़ अच्छी नहीं थी मगर बुरी भी नहीं थी। उनकी इन्ही फ़िल्मों को प्रभाव था कि मैंने फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले ही उसे देखने का मन बना लिया था। एक्सप्रेस में रिव्यू के आगे पाँच स्टार्ज देखे ज़रूर थे, और उस का असर भी मन पर लिया था, लेकिन पढ़ा नहीं था। अच्छा पढ़ा नहीं था फिर तो शायद और गु़स्सा होता। रिव्यू लिखने पर किसी स्टूडियो का दबाव रहा होगा ऐसा नहीं है लेकिन सबसे बड़ा दबाव प्रतिष्ठा का होता है। वो ऐसा दबाव होता है कि अगर आप को फ़िल्म न भी समझ आए, बुरी भी लग जाए तो आप कसूर फ़िल्म को देने के बजाय या अपनी राय साफ़ सामने रखने के बजाय बड़े-बड़े झूठे शब्द उछाल कर तारीफ़ों का ऐसा मुज़ाहरा करते हैं कि किसी को भनक भी न पड़ने पाए कि आप ऐसे मूर्ख हैं जिसे टैरनटीनो की फ़िल्म नहीं समझ आई?
मैं एक ऐसा मूर्ख हूँ जिसे फ़िल्म पसन्द नहीं आई। ऐसा नहीं कि फ़िल्म आप को पकड़ती नहीं, पकड़ती है और जकड़ती भी है.. इस हद तक कि आप का माथा पिराने लगे और आप आशंका और उत्तेजना से थथराने लगें। फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर टैरनटीनो ने जो दस साल तक मेहनत की है वो दिखाई देती है, महसूस भी होती है। असर में कमी नहीं है.. फ़िल्म की जो मूल समझ है, एहसास की जिस दुनिया में फ़िल्म हमें ले जाती है, शिकायत और तक़लीफ़ उस से है।
फ़िल्म रंगीन ज़रूर है पर दिखाई देनी वाली दुनिया दुरंगी यानी काली सफ़ेद है। एक हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला है। जर्मन्स खोज-खोज कर यहूदियों की हत्याएं कर रहे हैं उसके जवाब में प्रतिशोध से भरे हुए जर्मन यहूदियों और अमरीकियों का एक गैंग है जो जरमनों की हत्याएं कर रहा है उनसे भी अधिक पाशविकता से।
फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है मगर कथानक काल्पनिक है। फ़िल्म के अंत में जिस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाता है वो टैरनटीनो की ‘गूढ़’ कल्पना है। गूढ़ पर ज़ोर इसलिए कि उस कल्पना को जेब में डाले हर आतंकवादी घूम रहा है। अगर टैरनटीनो की इस दुनिया में एलाइड पक्ष की जगह अफ़्ग़ानी, पाकिस्तानी और अरब लड़ाके और नाज़ियों की जगह अमरीकी, फ़्रेंच और अंग्रेज़ हो तो आज की सही तस्वीर बन जाएगी। लेकिन शायद टैरनटीनो साहब के दिमाग़ में दो पैमाने होंगे एक अमरीकी हिंसा को तौलने का और दूसरा नाज़ियों और मुसलमानों की हिंसा को तौलने का? (मेरे प्रगतिशील मित्र नाज़ियों और मुसलमानों को समीकरण के एक ओर एक साथ रखने को अन्यथा ले सकते हैं, मेरा वैसा कोई आशय नहीं है लेकिन मैं इस वाक्य संरचना को नहीं बदल रहा हूँ)
फ़िल्म का आधार नफ़रत है। दोनों तरफ़ से हचक के नफ़रत। ऐसी करुणाहीन फ़िल्म, चाहे कितनी भी कारीगरी की शिखर पर चढ़ कर बैठी हो, मेरी नज़र में बुरी फ़िल्म है। कोई हत्यारा अगर किसी का गला काटने समय गणपति की अद्भुत आकृति उकेरने का उस्ताद हो तो क्या उसे कलाकार मान लेना चाहिये? एक ऐसा चिंतन है जो मानता है। मैं नहीं मानता।
ब्रैड पिट ने जबड़ों में अजब तनाव पैदा कर के न जाने कैसी अभिनय की कोशिश की है; मुझे तो ज़रा भी समझ नहीं आई। क्रिस्टोफ़ वाल्ट्ज़ ने बहुत बेहतर काम किया है जिसके लिए उन्हे कान फ़िल्मोत्सव में पुरस्कार भी मिला। एक बात और जो मुझे बहुत अखरी – पूरी कहानी फ़्रांस में घटित होती है लेकिन इनग्लोरियस बास्टर्ड्स में फ़्रांस की ज़रा भी आत्मा नहीं है। सच पूछिये तो आत्मा है ही नहीं।
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