बुधवार, 27 अप्रैल 2011

तेरी क़सम



पाखी का जनमदिन है। उसे क्या तोहफ़ा देना है, शांति कोई फ़ैसला नहीं कर पाई। तमाम भागदौड़ के बीच सबसे सरल उपाय यही मालूम दिया कि पाखी से ही पूछ लिया जाय कि उसे क्या चाहिये। पाखी से पूछा तो उसने कहा कि सोच के बताएगी। उसने सोचा तो पर बताया कुछ भी नहीं। शांति ने पहले सोचा था कि किसी रेस्तरां में पाखी के सारे दोस्तों को बुलाकर जश्न कर लेंगे। मगर फिर सब इन्तज़ाम घर पर ही करना ठीक समझा। छोले और दही बड़े जैसी कुछ चीज़ें शांति ने घर पर ही बना ली थीं। पीज़्ज़ा, बर्गर और कोल्डड्रिंक जैसी कुछ चीज़े जो बच्चों को ख़ास पसन्द होती हैं, बाहर से मंगा ली। केक का और्डर शांति ने फोन पर दे दिया था। दफ़्तर से वापसी में लेती हुई चली आई। यह देखकर उसे थोड़ा चैन पड़ा कि अजय उससे पहले घर पहुँच गया और इन्तज़ाम सम्हाल रहा है।

केक कटा। हैप्पी बर्थडे टु यू गाने की रस्म हुई। और तोहफ़े और जवाबी तोहफ़े दिए गए। इतना सब होने के बाद शांति ने ग़ौर किया कि उसी की तरह अजय भी कोई तोहफ़ा नहीं लाया है। तो शांति ने पाखी से पूछा कि बताए कि उसे क्या चाहिये। पाखी मुसकराई और बोली- मोबाइल फ़ोन। शांति और पाखी इस पर पहले बात कर चुके हैं। यह उनके बीच हुए समझौते का उल्लंघन था मगर बिटिया के जनमदिन की लाज रखकर शांति चुप ही नहीं रही बल्कि थोड़ा सा मुसकराई भी। एक पल को सोचा कि अगले साल देने की बात थी। एक बरस पहले ही सही। और हामी भर दी। पाखी ने जोश में भरकर मम्मी को चूम लिया। अब अजय की बारी। पूछा बेटी से कि बताओ बेटी क्या चाहिये। बेटी ने अपने सभी दोस्तों और मेहमानों के बीच बोला कि पापा आप गुटका खाना छोड़ दीजिये।

पाखी को अजय का गुटका खाना पसन्द नहीं। इस पर वो पहले भी आपत्ति करती रही है। वही क्यों, उसकी मम्मी और दादी भी करती रही हैं। और छोड़ देने की गुज़ारिश भी करती रही हैं। ऐसा नहीं है कि अजय दिन में चालीस पुड़िया गुटके गटक लेता है। मगर बारह-पन्द्रह की गिनती तो पार हो ही जाती है। इसलिए कभी किसी को कोई ख़ास चिन्ता भी नहीं हुई। मगर जब से अरोड़ा अंकल को मुँह का कैन्सर हुआ और उनका गाल काटकर अलग करना पड़ा। तब से पाखी हर दूसरे-तीसरे दिन अजय से पूछने लगी कि पापा कब छोड़ रहे हैं गुटका। अजय ने टालमटोल की नीति से अभी तक पाखी का दिल बहलाए रखा था। मगर आज वो फंस गया। जनमदिन के रोज़ अपनी प्यारी बेटी की फ़र्माईश पर चाह कर भी वो न नहीं कह सका। उसे बोलना ही पड़ा कि छोड़ दूंगा। पर पाखी इतने पर राज़ी नहीं हुई। छोड़ने की तारीख़ तय करने पर अड़ गई। हारकर अजय ने बोला कि अगले सोमवार के बाद वो फिर कभी गुटका नहीं खाएगा। पाखी ने उसका हाथ पकड़ कर अपने सर पर रख लिया। बोलिये मेरी क़सम। अजय ने बेटी की मासूम आँखों में किसी अनजानी ताक़त के लिए झांका और दिल कड़ा करके बोल दिया तेरी क़सम!

अजय भावुक कि़स्म का आदमी ज़रूर है। परिवार में सबकी सुनता है। सबको साथ लेकर चलता है। पर करता अपने मन की है। इसलिए शांति को अजय पर भरोसा नहीं था। उसे नहीं लगता था कि अजय गुटका छोड़ सकेगा। पर पाखी को पूरा यक़ीन था। पापा ने उसके सर पर हाथ रखकर क़सम खाई है। शांति ने अकेले में अजय से कहा भी कि बच्ची की क़सम खाकर तोड़ना मत। इस बार छोड़ देना गुटका। अजय ने उसे यक़ीन दिलाया कि उसका इरादा पक्का है। सोमवार आने में कुल तीन रहते थे। वो तीन दिन अजय ने ख़ूब गुटका खाया। सबसे यही कहता कि बेटी की क़सम खाई है, सोमवार को छोड़ रहा हूँ। इतवार को तो उसने हद ही कर दी। पाउच के बदले पूरा डब्बा लेकर आया। और खाने-पीने के अलावा कोई टाइम ऐसा नहीं था। जब उसके मुँह में गुटका न रहा हो। गुटका छोड़ने की उलटी गिनती चल रही है। छोड़ने के पल के पहले का पल सबसे अधिक गुनाह से भरा हुआ था। तो रात को सोते समय भी कुल्ला न किया। मुँह में दबा कर सो गए। और फिर क़यामत की रात गुज़र गई और एक नया सूरज उग गया।

सोमवार को सब उसे उसकी क़सम याद दिला रहे थे। और वो सब को यक़ीन दिला रहा था कि उसने वाक़ई गुटका छोड़ दिया। अपने संकल्प के सबूत के तौर पर मसाले का डब्बा उसने कचरे में फेंक दिया। घर से लेकर दफ़्तर तक सब अजय के संकल्प की परीक्षा लेते रहे। मगर अजय ने किसी कमज़ोरी का प्रदर्शन नहीं किया। शाम को जब लौटा तो पाखी ने पूछा ही। अजय ने अपनी जेब और मुँह दोनों की तलाशी दे दी। उसके बाद एक क़दम और आगे बढ़कर दूसरे ही दिन जाकर डेन्टिस्ट से दांत साफ़ करवा लिए। हाँ यह ज़रूर हुआ कि गुटके की तलब को मारने के लिए अजय पहले च्यूंइगम और फिर लौंग-इलायची चबाने लगा। उससे किसी को कोई आपत्ति न थी। पाखी तो बहुत ख़ुश रहने लगी। उसे मोबाईल मिल गया था। और उसने पापा को एक बड़ी बीमारी का शिकार होने से बचा लिया। उसका आत्मविश्वास कई गुना बढ़ गया। उसे लगने लगा कि वह कुछ भी कर सकती है। सब कुछ सम्भव है। प्यार से दुनिया बदली जा सकती है। चेहरा एक अलग तेज से दमकने लगा।

कुछ दिन गुज़र गए। बीच-बीच में पाखी और शांति परखते रहते कि अजय ने फिर तो शुरु नहीं किया न गुटका। फिर एक रोज़ शांति को अजय की बुश्शर्ट की जेब पर एक भूरा दाग़ दिखा। जैसा गुटके से पड़ता है। अजय से पूछा तो वो कहने लगा कि न जाने कैसे लग गया। फिर कुछ दिन बाद उसे बेसिन में अजीब से दाग़ दिखाई दिए। ठीक वैसे जो गुटके की पीक से बन जाते हैं। अजय से पूछा तो मुकर गया। लेकिन अब शांति को शक़ हो गया। और उसने एक रोज़ अजय को खाने के बाद गुटका चबाते हुए पकड़ ही लिया। शांति ने अजय से मुँह खोलने को कहा तो अजय चिढ़ गया। और हड़बड़ी में गुटका गटक गया। मगर जब मुँह खोला तो भी कुछ अवशेष अजय के हाल में साफ़ कराए दांतो से चिपका हुए थे। शांति को दुख हुआमगर पाखी का तो दिल ही टूट गया। वो बहुत लड़ी, रोई, चिल्लाई। अजय हर तरह से पाखी को खुश देखना चाहता है। लेकिन उसके शरीर में कुछ ऐसे संवेग पलते हैं जो बाप की भावनाओं को नहीं समझते। अपनी मनमानी करते हैं, तानाशाही करते हैं। इन्हे आदत कहते हैं। अजय ने लड़ने की कोशिश की मगर हार गया। बेबस हो गया।  

पाखी सिर्फ़ इस बात से दुखी नहीं हुई कि उसके पापा फिर से कैंसर की चपेट में चले गए। और न सिर्फ़ इसलिए कि पापा ने उसके सर की झूठी क़सम खाई थी। लेकिन उसके पापा को उससे किए वाएदे की परवाह कम और गुटके की तलब अधिक है, यह सोचकर वो बहुत मायूस हुई थी। शांति ने अपने बेटी की कोमल भावनाओं की रक्षा करने की बहुत कोशिश की। मगर इस तरह पिता द्वारा दिल टूट जाने के बाद पाखी का आत्मविश्वास फिर पहले जैसा नहीं रहा। कुछ दिनों में लोग कहने लगे – पाखी बड़ी हो गई है।

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(२४ अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी)

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

सुनो

कोयल दिन भर बोलती है। दहियल सुबह दो घंटे बोलता है और फिर शाम एक घंटा बोलता है। छोटा बसन्ता कभी उत्तर पूर्व से बोलता है और कभी दक्षिण पूर्व से बोलता है। तोते बोलते नहीं चीखते हैं। दक्षिण से चीखते हुए आते हैं और उत्तर को निकल जाते हैं और कभी उलटा। गौरेया जब तुलसी के पत्ते खा रही होती है तो नहीं बोलती। उसके पहले बोलती है। फिर बाद में भी बोलती है। कबूतर कभी नहीं बोलता। बस गुर्राता है। मैना शोर मचाती है और कौआ अप्रिय ही नहीं प्रिय भी बोलता है। एक पेड़ है जो चिड़ियों की सराय है। सारी चिड़ियों से ऊँचे सुर में उसी पेड़ पर रहने वाली गिलहरी पूँछ उठाकर न जाने क्या-क्या बोलती है। नाली के नीचे रहने वाला चूहा कभी कुछ नहीं बोलता। कुत्ते दोस्तों से बोलते हैं और दुश्मनों से। अजनबियों से वो भी कुछ नहीं बोलते। उनकी सुनते भी नहीं। 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

अन्ना : भ्रष्टाचार : लोकपाल


२०११ के इस अप्रैल के पहले पखवाड़े में कुछ अभूतपूर्व घटनाएं हुई हैं। भारत ने क्रिकेट का विश्वकप जीता। अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जनलोकपाल के लिए किये गए अनशन को अप्रत्याशित जनसमर्थन मिला। और सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फ़ैसलों को कूड़ेदान में फेंकते हुए राजद्रोह के आरोपी बिनायक सेन को निर्दोष घोषित कर दिया। तीनों घटनाएं आशा, विजय और आनन्द का दुर्लभ प्रयोजन बनी। इनमें से पहली और आख़िरी पर तो कोई अधिक विवाद नहीं हुआ। मगर दूसरी घटना याने अन्ना हज़ारे, उनका आन्दोलन और उनके द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल बिल क्रूर आलोचनाओं का निशाना बना है।

आशावाद बनाम हताशा
मूर्धन्य पत्रकार पी साईनाथ से जब पूछा गया कि उनकी इस बिल के बारे में क्या सोच है। तो उन्होने इसे चरम आशावाद बताया है। और इस पर आस्था रखने वाले व्यक्ति की तुलना किसी बहुमंज़िली इमारत से गिर रहे उस बदनसीब आदमी से की जो हर मंज़िल गुज़रने के बाद कहता है- यहाँ तक तो सब बढ़िया है। निश्चित तौर पर इस आन्दोलन के समर्थक एक तरह के आशावाद के मरीज़ हैं। जो मान रहे हैं कि एक लोकपाल आ जाने से देश में भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान हो जाएगा। पर क्या बात सिर्फ़ इतनी ही है?

पिछले पचीस बरस से इस देश में भ्रष्टाचार के मामले कभी ठण्डे नहीं पड़ने पाए हैं। एक के बाद दूसरे मामले, उत्तरोत्तर गहरे और बड़े मामले। लाखों से करोड़ों और करोड़ों से अरबों रुपये के घपले के मामले। जनता का पैसा जिसे देश के विकास- स्वास्थ्य, शिक्षा और जनकल्याण- में खर्च होना चाहिये, वो नेता और नौकरशाह चूहों की तरह कुतरते तो भी सहा जा सकता मगर वो तो डाकुओं की तरह लूट रहे हैं। जनता उनकी इस बेशर्म लूट को लेकर इतनी हताश हो चुकी है कि सब साले चोर हैं को ही अन्तिम सत्य मान चुकी है। जबकि सच्चाई कभी इतनी सरल नहीं होती।

भारत की जनता एक हारी हुई, लुटी हुई, और पिटी हुई मानसिकता का शिकार रही है। शायद सैकड़ों बरस से। एक अकाल, एक दुर्भिक्ष का मानस घर कर गया है उनके अन्दर। हर आदमी अपने संकीर्ण स्वार्थ को सामने रखकर जितना हो सके, मलाई चांभ लेना चाहता है। इसीलिए जब कोई आदमी लंगोटी लगाकर उनके हित की बात करने को आगे आता है तो वो जनता उसे व्यक्ति को महात्मा की पदवी पर चढ़ाकर उसमें अपनी सम्पूर्ण आस्था निवेश कर देती है। यह जनता इस क़दर हारी हुई भी है कि एक क्रिकेट टीम की जीत को वो अपनी निजी जीत की तरह देखती है। और उसकी हार की सम्भावना उपस्थित होते ही स्टेडियम से पलायन कर जाती है या टीवी बन्द कर देती है। ऐसी हताश जनता में आशा के संचार होने को क्या पी साईनाथ की तरह रोग समझा जाय? या स्वास्थ्य की दिशा में बढ़ते क़दम। हताश लोग या तो लड़ाई लड़ते ही नहीं, लड़ते हैं तो प्रतिरोध होते ही हथियार डाल देते हैं, और कुछ तो आत्महत्या भी कर लेते हैं। आशावान ही किसी नए समाज की नींव रख सकता है। या किसी परिवर्तन में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है। अफ़सोस ये है कि मेरे अधिकतर प्रगतिशील और सामाजिक परिवर्तन के आंकाक्षी मित्र अभी भी निराशा की गर्त में से इस आन्दोलन को गलिया रहे हैं। शुरुआत में सीपीआई एम एल के मेरे कुछ पुराने साथियों ने अन्ना के प्रति बेहद कटु निन्दा का रवैया लिया था। इसीलिए जब सीपीआई एम एल ने आन्दोलन का समर्थन करने का फ़ैसला किया तो मुझे बहुत हैरानी हुई मगर ख़ुशी भी।


साम्प्रदायिक और जातिवादी समर्थक
एक बात बार-बार ये भी कही जा रही है कि इस बिल के समर्थक या तो शहरी, अभिजात्य वर्ग के स्वयं भ्रष्टाचारी लोग हैं। या फिर साम्प्रदायिक और जातिवादी लोग। पहले तो यह सच है नहीं। इस आन्दोलन की अपील बहुत व्यापक है। तभी सरकार ने घबराकर फ़ौरन सारी माँगें मान लीं। और अब छिपकर तरह-तरह के दुष्प्रचार करवा रही है। दूसरे ये कि जो लोग ये आरोप लगा रहे हैं असल में उन्हे भारवासियों के असली चरित्र का अन्दाज़ा नहीं है। ये कहा जा सकता है कि यहाँ वही ईमानदार है जिसे बेईमानी करने का मौक़ा नहीं मिला है। अगर ग़रीब किसान और मज़दूर ईमानदार है तो इसलिए कि वो कमज़ोर है। भ्रष्ट होने के लिए ताक़त होना ज़रूरी है। रही बात जातिवादी होने की। तो इस समाज में मैं बहुत कम ऐसे लोगों से मिला हूँ जो जातिवादी नहीं हैं। और उनमें से अधिकतर शहरी और पढ़े-लिखे वर्ग से आते हैं। हाँ ये ज़रूर कहा जा सकता है कि इस आन्दोलन के कई समर्थक मण्डल कमीशन के विरोधी थे। ऐसा ज़रूर सच है। मगर इस से यह सिद्ध नहीं होता कि जो लोग मण्डल कमीशन के समर्थक थे वो जातिवादी नहीं थे? कुछ एक प्रगतिशील तत्वों को छोड़कर मण्डल के समर्थक वही लोग हैं जिन्हे इस नीति से लाभ मिलने वाला है। इस लाभ के मिल जाने से उनके भीतर का जातिवाद मिट नहीं जाता। उलटे वह अवसर और शक्ति मिलने से और प्रबल होकर सामने आया है। आरक्षण से दलित और पिछड़ी हुई जातियों का उत्थान अवश्य होगा मगर उससे जातिवाद नहीं जाएगा। जातिवाद को कमज़ोर करने वाली सबसे बड़ी ताक़त वो शै है जिसे मेरे प्रगतिशील मित्र हिकारत की नज़र से देखते हैं- औद्योगिक पूँजीवादी समाज। भारतीय ग्रामीण जीवन जातिवाद की जड़ों का पोषण करता रहा है।

मेरा कहना यह है कि फ़िलहाल देश में जातिवाद और भ्रष्ट आचरण सर्वव्याप्त है। तो किसी ऐसी जनता की कल्पना करना जो पूरी तरह से इन रोगों से मुक्त होगी, व्यर्थ है। निश्चित ही इस अभियान के कुछ समर्थक मण्डल कमीशन की प्रगतिशील नीतियों के विरोधी हैं। मगर उनके चरित्र को पूरे अभियान पर आरोपित करना अतिरेक है। यह अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध है जातिवाद के पक्ष या विपक्ष में नहीं। जो लोग इसमें जातिवाद और साम्प्रदायिकता का आरोपण कर रहे हैं उनके लिए पुरानी कहावत पीढ़ियों से चली आई है- सावन के अंधे को सब तरफ़ हरा ही हरा दिखता है।

अनशन का ब्लैकमेल
कुछ लोग कह रहे हैं कि अन्ना लोकतंत्र की गाड़ी में डंडा फंसा रहे हैं। अनशन करके वो जनता के प्रतिनिधियों को ब्लैकमेल कर रहे हैं। अन्ना कोई अकेले या पहले आदमी हैं जिन्होने अनशन किया है? इरोम शरमीला नाम की एक लड़की दस साल से अनशन कर रही है। सरकार तो आज तक ब्लैकमेल नहीं हुई? सवाल है कि क्यों नहीं हुई? अनशन करने से कोई सरकार ब्लैकमेल नहीं होती। अनशन करने से जब किसी व्यक्ति को जनसमर्थन मिलने लगता है तो सरकार पर जनता का दबाव बनता है और जनता की व्यापक इच्छा को ध्यान में रखते हुए वो कोई क़दम उठाती है। इस तरह के अनशन और अभियान को अलोकतांत्रिक समझना एक गहरी भूल है। लोकतंत्र चुनाव तक ही सीमित नहीं होता। अधिक से अधिक जनता की भागीदारी ही स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।

लोकपाल का दायरा
कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक और शिगूफ़ा छोड़ा है- कि सिर्फ़ संसद, विधानसभा और नौकरशाही ही लोकपाल कानून के दायरे में हैं। और कारपोरेट्स, एन जी ओ, मीडिया, उच्च न्यायपालिका, आदि लोकपाल के दायरे में नहीं हैं। इस तर्क में कोई दम नहीं है। कारपोरेट्स, एन जी ओ, मीडिया, उच्च न्यायपालिका, आदि के ख़िलाफ़ सरकार जब चाहे तफ़तीश कर सकती है। उसके पास तमाम एजेन्सीज़ हैं। सवाल तो उनके खिलाफ़ जांच करने का है जो जांच एजेन्सीज़ के माईबाप बनकर बैठे हैं।

साम्प्रदायिकता बनाम भ्रष्टाचार
एक लहर ये भी चली है कि अन्ना मोदी के समर्थक हैं। इसका समूहगान करने वाले भूल जाते हैं कि इसी अभियान के दूसरे नेता स्वामी अग्निवेश माओवादियों के समर्थक हैं। वैसे सच ये है कि अन्ना ने मोदी की व नीतीश की तारीफ़ की ज़रूर मगर ग्रामीण विकास के प्रसंग में। फिर अलग से उन्होने गुजरात के साम्प्रदायिक दंगो की भर्त्सना भी की। मगर कुछ लोग तो जैसे इसी इन्तज़ार में थे कि कब अन्ना कुछ ऐसा कहें जिस पर उनको पीटा जा सके। मैं स्वय़ं मोदी का विरोधी हूँ। मगर ज़रा सोचिये गुजरात में एक साम्प्रदायिक मोदी बनाम महाराष्ट्र में पवार, ठाकरे, व देशमुख, कर्णाटक में बेल्लारी बंधु और येदुरप्पा, तमिलनाडु में करुणानिधि और जयललिता, आंध्र में वाइ एस आर जगनरेड्डी, बिहार में लालू, यू पी में मुलायम और माया, झारखण्ड में कोडा और केन्द्र के अनगिनत मंत्री और सत्ता के दलाल। क्या अकेले साम्प्रदायिकता ही देश पर आसन्न ख़तरा है और भ्रष्टाचार कोई समस्या ही नहीं है? ये वैसे ही है जैसे बहुत से लोग लाख से ऊपर आत्महत्या कर चुके किसानों की कर्ज़े की समस्या से बड़ी समस्या आतंकवाद को मानते हैं। सत्ता, लगातार मँहगें होते चुनाव और भ्रष्टाचार का एक वर्तुल सा बना हुआ है। जिसे तोड़ने के लिए लोकपाल बिल एक ज़रूरी कड़ी बन सकता है।


अन्ना और बिल
अन्ना कौन हैं क्या हैं, यह महत्व का है। मगर अभियान उनसे अधिक महत्व का है। अभियान में और भी लोग हैं जो अन्ना जैसे नहीं हैं। उनकी अलग साख और अलग मूल्य हैं। अग्निवेश, केजरीवाल, किरन बेदी यह सब एकदम अलग लोग हैं, पर एक मुद्दे पर एक हैं। देखने की बात ये भी है कि इनका पिछला ट्रैक रेकार्ड क्या है? अन्ना और केजरीवाल वही लोग हैं जिन्होने सूचना के अधिकार के लिए अभियान चलाया था। और आज जब सूचना का अधिकार का क़ानून बन गया है तो वो सिर्फ़ सवर्णों और हिन्दुओं के लिए नहीं है। लोकपाल क्या अन्ना की कल्पना है? चालीस साल से यह बिल बनकर धूल खा रहा है। हुआ बस इतना कि इतने अरसे में उसके दांत ज़रूर गिर गए। फिर से कहता हूँ कि साम्प्रदायिकता और जाति का मुद्दा ध्यान भटकाने की साज़िश है।

बिल में समस्याएं
इस प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में तमाम समस्याएं हैं। और इसमें लोकपाल चुनने की प्रक्रिया तथा अन्य भी सुधार और परिष्कार की गुंज़ाईश है। मगर जिस तरह मेरे तमाम प्रगतिशील मित्र और सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध साथी इस आन्दोलन और जनलोकपाल बिल का विरोध कर रहे हैं उस से ऐसा लगता है कि जनलोकपाल बिल सामाजिक परिवर्तन की राह में रोड़ा बन गया हो। और जैसे उसके लागू हो जाने से जातीय विषमताएं बढ़ जाने वाली हैं। जैसे लोकपाल अपने आप में कोई साम्प्रदायिक पद हो। जिसके अस्तित्व में आ जाने से देश में मुसलमानों और ईसाईयों पर बड़ी आफ़त टूट पड़ने वाली है। अभी बिल पर बहुत बात होनी है। बजाय दूसरी बातों के जनलोकपाल की संस्था को कैसे और बेहतर बनाया जाय, पर बात होनी चाहिये।

पावर करप्ट्स
आजकल एक चलन हो चला है कोई बीमारी हो प्राणायाम कर लो। रामदेव का यह रामबाण तो अब उनके भक्तों के अनुसार भी बेअसर होने लगा है। हमारा यह विविधतापूर्ण समाज इतना सरल नहीं है। कि एक जातिवाद को दूर करने से ही आदर्श समाज क़ायम हो जाएगा। या इज़ारेदार पूँजी पर रोक लगाने भर से समता स्थापित हो जाएगी। या साम्प्रदायिक भेदभाव को मिटा देने और साम्प्रदायिकता के राक्षस को जिबह कर देने से अमन और इंसाफ़ का निज़ाम हो जाएगा। मामला उलझा हुआ और जटिल है। कुछ लोग कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार का सम्बन्ध नई उदारवादी आर्थिक नीतियों से है। अगर ऐसा है तो १९९१ के पहले तो सब जगह सदाचार ही होना चाहिये था। पर ऐसा था क्या? इन सारी समस्याओं के प्रति यथोचित सम्मान व्यक्त करते हुए मैं इतना अर्ज़ करना चाहूँगा कि मेरी समझ में भ्रष्टाचार की जड़ सत्ता और शक्ति के केन्द्रीकरण में है। जब अधिकार किसी एक संस्था या व्यक्ति में केन्द्रीकृत हो जाते हैं तो भ्रष्टाचार जड़ फैलाने लगता है। अंग्रेज़ी का सरल और पुराना सूत्र है- पावर करप्ट्स। दो शब्दों में सीधा सम्बन्ध नज़र आता है। पावर और करप्शन। इसीलिए शक्तिशाली और सत्ताधीन लोगों की शक्ति और सत्ता के विकेन्द्रीकरण की ज़रूरत है। और जनलोकपाल इसी दिशा में एक और क़दम है। मेरा ज़ोर एक और पर है। न तो यह पहला है और न आख़िरी। लोकतंत्र की संरचना ही शक्ति के केन्द्र के विखण्डन की है। और जो लोग इस बिल को अलोकतांत्रिक कह रहे हैं वो असल में इसके भीतर और जनतांत्रिक सम्भावनाओं की सेंध लगा रहे हैं। उनका स्वागत किया जाना चाहिये।


मगर जो लोग इसे पूरी तरह से नकार कर इसके ख़िलाफ़ एक भर्त्सना अभियान चला रहे हैं वो असल में सत्ताधारियों और भ्रष्टाचारियों की उस साज़िश का शिकार बन रहे हैं जो इस मुद्दे से ध्यान भटका कर अपनी बदउन्वानी की रसोई पकाते रहना चाहते हैं। क्योंकि लोकपाल की संस्था के क़ायम हो जाने से उनकी मनमानी पर लगाम लग जाने वाली है।

रविवार, 17 अप्रैल 2011

मरने के पहले मर जा



















क़यामत

असरार२ को ख़ोजने वाले से बोले मुस्तफ़ा३
देखना चाहते हो मुर्दा आदमी को ज़िन्दा?

चल रहा है जो ज़िन्दो की तरह ख़ाक पर
मुर्दा है वो और रूह उसकी है आसमान पर

इस दम उसकी रूह का मकां है बहुत ऊपर
गर मर जाय तो उस रूह की कोई नहीं बदल

क्योंकि पहले मौत के ही वो कर चुका नक़ल४
ये मरने से समझ आएगा, न समझेगी अक़ल

आम रूहों की तरह है ये नहीं है नक़ल
ये तो बस ऐसे कि जगह भर जाय बदल

देखना चाहे कोई इस तरह का एक मुर्दा
ज़ाहिरी चल रहा है जो ज़मीन पर ज़िन्दा

कह दो कि देख ले वह अबू बकर५ को एक बार
सदाक़त६ से जो बन गए मुहशर७ वालो के सरदार

देख उस सिद्दीक़८ को इन निशानो के अन्दर
ताकि बढ़ जाय यकीं तुम्हारा हश्र९ के ऊपर

तो मुहम्मद सौ क़यामत थे उसी वक़्त वहीं नक़द
क्योंकि घुल चुके थे बंधने व मिटने से वो अहमद१०

इस दुनिया में मुहम्मद की ये थी दूजी पैदाईश११
अन्दर से उनके सौ क़यामत की हुई थी नुमाईश

क़यामत के बारे में लोग उनसे करते थे परवाह
अय क़यामत! दूर कितनी अब क़यामत की राह

फिर बोलते थे वे अक्सर हाल१२ की ज़ुबान में
पूछता है कौन क़यामत की क़यामत के सामने?

तो इस बारे में बोले वो खुश पयाम लाने वाले
मरने के पहले मर जा अय क़यामत चाहने वाले

कि मरने से पहले जैसे मैं मौत पाया हूँ
और वहाँ से शुहरत व आवाज़ ले आया हूँ

तो हो जाओ क़यामत और देखो क़यामत को
शर्त होती है यही देखने की किसी चीज़ को

जानेगा नहीं उसे जब तक तू खुद वो न हो
चाहे वो नूर का उजाला हो या अंधियाला हो


मौलाना जलालुद्दीन 'रूमी' की मसनवी मानवी से, ज़िल्द छठी, ७४२-५७.
. रहस्य
. मुहम्मद साहब की उपाधि
. यहाँ प्रतिलिपि से अर्थ नहीं बल्कि बदलाव से है, तबादले से है।
. मुहम्मद के क़रीबी दोस्त, ससुर और मुहम्मद साहब के बाद पहले ख़लीफ़ा
. सत्यवान
. क़यामत को मानने वाले
. पवित्र
. क़यामत
१०. मुहम्मद का ही दूसरा नाम
११. सूफ़ी मानते हैं कि दुनिया की रचना के सबसे पहले चरण में  ईश्वर ने मुहम्मद की ज्योति को बनाया, यही उनकी पहली पैदाईश है और दूसरी वो जो उन्होने भौतिक रूप से मक्का में बीवी अमीना के गर्भ से जन्म लेकर की।
१२. सूफ़ियों की आनन्दातिरेक की अवस्था। सूफ़ी मत में मानते हैं कि मुहम्मद सिद्ध सूफ़ी थे।


कलामे रूमी, पृष्ठ १०७-९

डंक और मुस्कान



आजकल दफ़्तर में काम कुछ ज़्यादा है। बच्चों के स्कूल के चलते शांति घर से निकलती तो उसी समय है। मगर घर लौटने में उसे रोज़ आठ-साढ़े आठ बज जाता है। इस वजह से घर के; बच्चों के; उसके अपने; बहुत सारे काम अधूरे पड़े हुए हैं। और एक लगातार कचोटने वाली ज़िम्मेदारी की तरह उसकी स्मृति से चिपटे हुए हैं। इसी वजह से या किसी और भी वजह से शांति आजकल कुछ उखड़ी-उखड़ी रहती है। वह चाहती है कि दफ़्तर का काम उसके सर से उतरे। घर की और दूसरी ज़िम्मेदारियां उसके सर से उतरे। जो भी उसके सर पर बोझ की तरह चढ़ा है, उतरे। ताकि वो मुक्त होकर वापस चैन से जी सके। अभी वो बेचैन है।

उसे अपना काम सख़्त नापसन्द हो चला है। जिन अंको के अमूर्तन में उसे ब्रह्म के दर्शन होते थे। अभी वही उसे नीरस, उबाऊ और जानखाऊ लगने लगे हैं। गिनतियों की भूलभुलैय्या में लाभ-हानि की एक तस्वीर बनाने के काम से वो लगभग नफ़रत करने लगी है। घर जाती है तो घर में भी वो सुकून नहीं मिलता। सुकून के सब सामानों के जैसे दांत से निकल आए हों। घर जाते ही वो शांति को काटने लगते हैं। और नतीजा ये है कि शांति का दिमाग़ धीरे-धीरे एक बर्र के छत्ते में बदलता जा रहा है। जिसमें दाख़िल होने वाला कोई भी विचार या व्यक्ति एक दुश्मन की तरह देखा जाता है। अभी उससे बात करना बर्र के छत्ते में हाथ डालना है। दिमाग़ की प्रतिक्रिया हर बार ऐसी जवाबी कार्रवाई की होती है कि सामने वाले बिलबिला उठे। मगर कुछ अपनेपन का परदा होने से उसके बच्चे, उसका पति, दफ़्तर में बौस और कुछ भूतपूर्व अज़ीज़ सहकर्मी कमोबेश बचे रहते हैं। मगर सड़क पर चलते लोग, सब्ज़ी-भाजी वाले, काम वाली बाई, दफ़्तर के बहुत सारे सहकर्मी, और सबसे अधिक फोन मार्केटिंग वाले उसके कोप का निशाना बन रहे हैं। शांति को छेड़ते ही वो ऐसा डंक खाते हैं कि कई दिनों तक डंक की जलन से छुटकारा नहीं पाते।

ऐसे ही एक दिन जब शांति का रौद्ररूप उसकी सहन शक्ति के सीमान्त पर फुफकार रहा है और वो अपनी सारी रचनात्मक ऊर्जा बटोर कर आँखों में जमा कर के कम्प्यूटर स्क्रीन की तफ़्तीश कर रही है। तभी फोन की घंटी बजती है। और पहले उसके शांति शर्मा होने का सत्यापन किया जाता है। और फिर उसे कारलोन का सौभाग्यशाली अधिकारी सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। तो शांति किसी भूखी शेरनी की तरह छलांग लगाकर दूरभाष की सारी दूरियों को लांघकर लोन विक्रेता को ऐसी फटकार देती है कि उसके आत्मसम्मान से ख़ून छलछलाने लगता है। और वो भी कारलोन को भुलाकर एक ऐसे ख़ूनी संघर्ष में कूद पड़ता है जिसका मक़सद है सामने वाले की अस्मिता को गहरे तक छील देना। कहना न होगा कि विजय शांति की ही होती है। और फोन पर कारलोन बेचने वाला लड़का अपने घावों को चाटता हुआ पलायन कर जाता है।

उस शाम जब शांति घर पहुँची तो उसने पाखी को एक पैर पर लंगड़ाता हुआ पाया। पाखी का टखना मोच खा गया है और सूज भी गया है। इस घटना ने शांति के दिमाग़ के छत्ते में दुश्मन की तरह प्रवेश किया। और शांति पाखी पर ही बिगड़ गई- बैठे बिठाई चोट लगा ली। पाखी ने बताया कि बैठे-बिठाये नहीं बास्केटबाल खेलते हुए। शांति का मन हुआ कि पाखी को डंक मार दे। फिर बेटी पर रहम आया और चुप रही। सुबह होते-होते चोट और सूज आई। अजय टुअर पर बाहर है। लिहाज़ा हड़बड़ाई हुई सुबह के बाद पाखी को लेकर शांति ही हस्पताल पहुँची।

हस्पताल के गेट पर ही जूते-चप्पल उतारने की जगह है। एक टोकेन लेकर जूते-चप्पल एक ख़ाने में रख देना होता है। शांति ने टोकेन लिया और आगे बढ़ गई। उसने ध्यान भी नहीं दिया कि किसी ने उससे गुड मौरिनंग की। डौक्टर ने बताया कि हड्डी कोई नहीं टूटी मगर फ़िज़ियोथेरेपी करनी होगी। रोज़ आना होगा अगले दस दिन तक। अगले दिन जब शांति और पाखी आए तो उनके चप्पल-जूते लेने के पहले फिर से एक गुडमौर्निंग ने उनका स्वागत किया। शांति ने देखा। वो चप्पल रक्षक था। काही रंग की वर्दी। ढलती हुई सी उमर। कच्चे-पक्के सर के बाल। छरहरा बदन। तांबे जैसा रंग। मगर यह सब उसकी चमकती हुई मुस्कान के पीछे धुंधलाया हुआ था।

अगले रोज़ अजय लौट आया। और पाखी को फ़िज़ियोथेरेपी के लिए ले जाने की ज़िम्मेदारी दो दिन उसी ने सम्हाल ली। तीसरे दिन अजय बहुत देर से उठा तो फिर शांति पाखी को लेके हस्पताल आई। हस्पताल में घुसने से पहले उसे चप्पल रक्षक की याद आई। उसकी मुस्कान और उसकी गुडमौर्निंग याद आई। वो तमाम आने वालों के जूते-चप्पल लेने-देने में व्यस्त था। न जाने क्यों इस बार शांति ने पहले गुडमौरनिंग की। चप्पल लेते हुए उसने पूछा कि दो दिन वो नहीं आईं? शांति ने बताया कि वो व्यस्त थी इसलिए उसके पति आए थे। उसने मुसकरा कर पाखी से पूछा कि उसकी मोच बेहतर है ना। पाखी उसे देखकर जिस तरह से मुसकराई उससे शांति ने समझा कि पाखी उसे कितना पसन्द करती है। हस्पताल के भीतर जाते हुए शांति ने देखा कि सभी आने-जाने वालों के साथ उसका एक दोस्ती और आत्मीयता का नाता है। और तभी शांति ने एक और चीज़ ग़ौर की जो वो पहले नहीं देख सकी थी। उसका दायां हाथ कंधे से कटा हुआ था। वो एक ही हाथ से सारे काम निबटा रहा था।

जितनी देर पाखी की फ़िज़ियोथेरेपी होती रही, शांति उसी के बारे में सोचती रही। एक ऐसे आदमी के बारे में जिसका काम तो आने वालों के चप्पल-जूतों को लेना-देना है। मगर हस्पताल के गेट पर बैठकर वो चप्पल-जूतों से अलग किसी और चीज़ का लेनदेन कर रहा है । आने वाले हर बीमार के मन में एक मुस्कान भर रहा है। जबकि उसके अपने जीवन में कुढ़ने, नाराज़ और निराश होने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। वापस जाते हुए जब शांति ने अपनी चप्पल ली और साथ में एक उदार अमूल्य मुसकान भी।

शांति ने देखा कि घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। उसे आधे घंटे में दफ़्तर पहुँचना होगा। उसके पहले पाखी को घर भी छोड़ना है। सड़क के जाम से अलग एक जाम पार्किंग में भी लगा हुआ है। पाखी को पीछे बिठाकर पहियों को पैरों से धकेलते हुए शांति के भीतर का तापमान बढ़ने लगा। बाहर का तापमान ऐसा था कि उसके शरीर के विभिन्न अंगों से गर्मी पसीज कर कई धाराओं में बह निकली। शांति ने बेवजह हौर्न न बजाने की अपनी नीति के अनुसार हौर्न से अपना हाथ दूर हटाया हुआ था। मगर कानों को किनकिना देने वाले तीखे हौर्न सब तरफ़ से उस की सहन शक्ति पर आक्रमण कर रहे थे। उसी में फोन भी बजने लगा। बड़ी मुश्किल से हेलमेट उतार कर कान पर लगाने पर पता चलता है कि कोई दिवाकर हैं जो उसके इन्श्योरैन्स के लिए फ़िक्रमन्द हैं। अन्दर-बाहर की तपन एक झटके में शांति की जीभ पर सिमट आई और कुछ शब्द ज़हरीले डंक बनकर निकले। फ़ोन कट जाने के बाद शांति ने सोचा कि दूसरे सिरे पर मौजूद आदमी को कुछ घाव ज़रूर हुआ होगा। न जाने क्यों उसे थोड़ा सा अफ़सोस भी हुआ।

पार्किंग से निकलते हुए हस्पताल के गेट नज़र आता था। शांति ने देखा चप्पल रक्षक आने-जाने वालों से घिरा हुआ था। वो अभी भी मुसकरा रहा होगा, शांति ने सोचा। और फिर ये भी सोचा कि मुसकराता कैसे है वो आदमी?

*** 

(१७ अप्रैल के दैनिक भास्कर में प्रकाशित) 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

मधुर मिलन


अजीब दृश्य था। बेटी ज़ार-ज़ार रो रही थी। और माँ उसे अजनबियों की तरह घूर रही थी। बेटी कुछ चाह रही थी। और माँ उसे वो देने को तैयार नहीं थी। बेटी माँ को ग़ुस्से में नोच रही थी। माँ उसे चिढ़कर झटक रही थी। बेटी और भी ग़ुस्से में माँ से चिपट रही थी। माँ उसे थप्पड़ मार रही थी। बेटी ने रो-रो कर आसमान गुंजा दिया। अपने कान लाल कर लिए। गरदन की नसें फुला लीं। अजीब दृश्य था। पर कुछ भी अजीब नहीं था। सम्बन्ध जितना आत्मीय हो, हिंसा उतनी ही गहरी होती जाती है। न जाने क्या बात थी? न जाने बेटी क्या चाह रही थी? और न जाने क्यों माँ ऐसी निष्ठुर की तरह बरताव कर रही थी? शांति को देखकर कर बहुत बुरा लग रहा था। मगर माँ-बेटी के नाज़ुक रिश्ते के बीच दख़ल देना मूर्खता होती। तो शांति चुप रही। एअरक्राफ़्ट में मौजूद बा़की सभी लोग भी चुप ही रहे। ये घटना दो-तीन महीने पुरानी है।

पिछले हफ़्ते यही माँ-बेटी शांति की ऊपर वाली मंज़िल पर आकर रहने लगे। आते-जाते हलका-फुलका परिचय हो गया। बेटी का नाम अंकिता है। माँ का नाम सुनीता। पिता के अभी तक दर्शन नहीं हुए। पर रात-बिरात उनके फ़्लैट से चीख़ने-चिल्लाने की सदाएं, झटकने-पटकने के शब्द और रोने-सुबकने के सुर सुने जाते हैं। नए पड़ोसियों के घरेलू झगड़े का सोसायटी में हर जगह चर्चा है। अंकिता की अचरज से अच्छी दोस्ती हो गई है। और इसी बहाने थोड़ी-थोड़ी शांति से भी। अंकिता को सजने का बहुत शौक़ है।

एक रोज़ अंकिता आई तो अचरज नहा रहा था। तो बैठ गई पाखी के साथ और बतियाने लगी। शांति ने भी कुछ देर उसकी मीठी बातों का रस लिया। मगर उसका ध्यान दूसरी चीज़ों में उलझा था। अगली बार जब उसने अंकिता को देखा तो पाखी ने उसका पूरा नखशिख श्रंगार कर दिया था। आईलाइनर, लिपस्टिक, नेलपौलिश, मस्कारा वगैरह लगाकर अंकिता इतनी प्यारी लग रही थी कि शांति ने फ़ौरन उसकी कुछ तस्वीरें खींच डाली। और अंकिता की मुस्कान तो कानों तक जा रही थी। मानो उसकी सब मुरादें पूरी हो गई हों। बाद में जब सुनीता ने उसे देखा तो सब की उम्मीद थी कि वो भी अंकिता की सजधज देखकर आनन्दित होगी। मगर सुनीता तो जैसे चिढ़ गई और लगभग खींचते हुए उसे ऊपर ले गई। उनके आंखों से ओझल हो जाने के बाद अंकिता के रोने की आवाज़ आने लगी। एक ख़ुशहाल बच्चे को बेवजह रुलाने के लिए सुनीता के ख़िलाफ़ शांति के मन में एक क्रोध का उबाल आया। पर शांति ने उस पर दुनियादारी और समझदारी के छींटे मारे और दरवाज़ा बंद कर लिया।

अगली शाम को जब शांति घर लौटी तो घबराई हुई सुनीता उसके दरवाज़े पर थी। उसके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी। साथ ही ग़ुस्से और खीज ने उसके चेहरे को और भी जटिल बना रखा था। वो अंकिता को तलाश रही थी। अंकिता घर पर नहीं थी। अचरज भी नहीं था। वो नीचे खेल रहा था। और अंकिता उसके साथ नहीं थी। शांति और सुनीता ने हर मुमकिन जगह पर अंकिता को खोज डाला मगर अंकिता नहीं मिली। तरह-तरह के ख़्याल उनके मन को ग्रसने लगे। कहीं कोई उठा न ले गया हो? कहीं कोई दुर्घटना न हो गई हो? या रूठकर तो नहीं चली गई?

शांति ने पूछा कि क्या उसने डाँटा था अंकिता को किसी बात पर? सुनीता चुप रह गई। शांति का मन तो किया कि कस कर ख़बर ले सुनीता की। पर उसका चेहरा एक बंद दरवाज़े की तरह था जिस पर कोई बड़ा बेडौल ताला पड़ा हो। हर विचार और भाव को अस्वीकार करता हुआ। शांति को नहीं पता था कि सुनीता की अंकिता के पापा के साथ क्या मुश्किलें थीं। मगर उस चेहरे के साथ कुछ भी सुलझना लगभग असम्भव मालूम दिया शांति को। कहने को बहुत कुछ था शांति के पास मगर वो जानती है कि उलटे भगोने में कुछ भी डालना मूर्खता है। वो चुप रह गई। सुनीता ही गरम होती रही। अपना रोना रोती रही। जैसे-जैसे समय बीता उसकी गरमी पिघल कर आँसुओं में टपकने लगी।

दोनों ने सोसायटी में सब जगह देख लिया। फिर पुलिस में फोन किया। उन्होने थाने आकर रपट लिखाने को कहा। वहाँ के लिए स्कूटर निकालते हुए अचानक शांति को अपने बचपन की एक घटना याद आई। शांति ने सोसायटी से बाहर निकलकर अपना स्कूटर सामने वाले पार्क के सामने रोक दिया। सुनीता का हाल बुरा हो चला था। उसे बाहर ही बिठाकर शांति अन्दर गई। जैसी कि शांति की उम्मीद थी, अंकिता वहीं थी। एक आईसक्रीम वाले के ठेले के पास पेड़ से टिककर बैठी थी। अंधेरा घिर आने से उसे अंकिता के गालों पर आँसुओं के बहकर जाने के निशान नहीं दिखाई दिए। शांति हौले से अंकिता के बगल में बैठ गई। अंकिता न घबराई न मुसकराई। अपने दुख में बने-बने ही शांति की मौजूदगी को एक नज़र से दर्ज़ किया। और सर झुका लिया। दो पल की चुप्पी के बाद शांति ने पूछा।

क्या बात हो गई?
मैंने घर छोड़ दिया!
क्यों?
मुझसे कोई प्यार नहीं करता..
पापा भी नहीं?
नहीं। अगर करते तो मेरे बर्थडे के दिन बाहर क्यों चले जाते?
हम्म.. अब क्या करोगी?
पता नहीं..
तुम्हारे बिना मम्मी तो बहुत रोएगी..
रोने दो! जब मैं नहीं रहूंगी तब पता चलेगा उसे..
उसको पता चल गया.. वो बहुत रो रही है..
अच्छा?!
हाँ.. देखोगी?
अंकिता एक पल को हिचकी।
दूर से..?

इस पर अंकिता राज़ी हो गई और उठ गई। शांति ने उसका हाथ पकड़ना चाहा। मगर अंकिता ने शायद इस डर से छुड़ा लिया कि कहीं उसके साथ कोई ज़बरदस्ती न हो जाय। शांति ने कोई प्रतिक्रिया न की। दो-चार क़दम चलने के बाद अपने आप शांति की उंगलियों के गिर एक नन्हा हाथ लिपट गया। दोनों चलकर पार्क की उस दीवार तक गए जिस के पार फ़ुटपाथ पर सुनीता बैठी थी। स्ट्रीट लाइट की भगवा रौशनी में उसका धीरे-धीरे फफकना दूर से भी दिख रहा था। अंकिता ने दूर से अपनी माँ को रोते हुए देखा। शांति ने देखा कि अंकिता को अपनी माँ का रोना देखकर सुकून मिल रहा था। वो रोना सबूत था कि उसकी माँ के दिल में अंकिता के लिए प्यार है। उसका आत्मविश्वास लौट आया और वहीं से उसने आवाज़ दी- मम्मी। सुनीता ने दौड़कर उसे चिपटा लिया। दोनों के मधुर मिलन के बीच पार्क की दीवार की सलाखों के अलावा भी बहुत कुछ उलझा हुआ था। जो आगे की ज़िन्दगी में पसरने वाला है। उस रात ऊपर के फ़्लैट से न तो चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आई ना रोने-सुबकने की।    

बाद में एक रोज़ सुनीता ने शांति से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि अंकिता पार्क में होगी? शांति ने बताया कि कभी वो भी घर से भागी थी। मुझे भी कभी लगा था कि मेरे माँ बाप मुझ से बिलकुल प्यार नहीं करते तो मैं घर छोड़कर चली गई। और गोलगप्पे के ठेले के पास बैठी रही।
गोलगप्पे?

मुझे बहुत पसन्द थे। गोलगप्पे वाला मुझे पहचान गया। पहले तो गोलगप्पे खिलाए और बाद में मेरे घरवालों को ख़बर कर दी। वो सोच रहे थे कि मैं खो गई हूँ। पर मैं नहीं खोई थी। वो खो गए थे। जब मैं भागी तो वो मिल गए। सुनीता ने सुना और दूसरी ओर देखने लगी।

***

(१० अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपा)  

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मैच अच्छे हैं



एक हफ़्ते से सब जगह युद्ध का माहौल बना हुआ है। अख़बार में, टीवी पर, दफ़्तर में, सड़कों पर, हर मुमकिन जगह पर पीट देने, तोड़ देने, पटक देने और ऐसी ही दूसरी अन्य क्रियाओं की गूँज बनी हुई है। किसी ने तो इसे युद्ध, महायुद्ध, जंग, संग्राम, आर-पार की लड़ाई जैसे शब्दों जो भेदकर भारत-पाक चौथा युद्ध तक कह डाला। शांति को क्रिकेट से कोई दिलचस्पी नहीं है। क्रिकेट का नाम सुनकर ही उसे चिढ़ होने लगती है। और जहाँ क्रिकेट की बात होती हो वहाँ शांति नहीं रुकती। उसका सर पकने लगता है। एक ही बेमतलब की बात पर कोई कैसे इतनी देर तक बात कर सकता है। जबकि उस बात से न तो जीवन में कुछ बनने वाला है और न बिगड़ने वाला है। मगर लोग हैं कि जीत पर ऐसे उछलने लगते हैं जैसे उनकी लौटरी खुल गई हो। और हार पर ऐसे मायूस हो जाते हैं जैसे कोई अपना रुख़सत हो गया हो। शांति अक्सर अपने आप से पूछती है कि ऐसे खेलना क्या ज़रूरी है? खेल को खेल ही रहने दो.. युद्ध क्यों बनाते हो?

अजीब माहौल है दफ़्तर का। दोपहर के डेढ़ बजे हैं और ऐसा लगता है जैसे साढ़े पाँच बज रहे हों। पूरे हौल में बमुश्किल चार-पांच लोग हैं। शांति ने सोचा कि बौस देखेंगे तो बहुत ग़ुस्सा करेंगे। मगर उसी पल में बौस भी पलायन करते नज़र आए। जाते-जाते शांति को भी घर जाने की सलाह दे गए। सड़कों का हाल बुरा है। वहाँ पर भी साढ़े पाँच-छै बज रहे हैं। सबको घर जाने की जल्दी है। अजय शांति से पहले घर पहुँचकर टीवी के सामने अपनी जगह जमा चुका है। और अकेला नहीं है। उसके साथ उसके तीन दोस्त भी आसीन हैं। और युद्ध की इस गरमी में तरावट बनाए रखने के ठंडी बीयर भी उनके साथ है।

सासू माँ अपने कमरे में अपने टीवी पर सीरयलों की दुनिया में मगन रहते हुए भी क्रिकेट के बुख़ार की ज़द में आ चुकी थीं। लगातार कुढ़ रही थीं क्रिकेट से। और कोस रही थीं उन सबको जिन्होने क्रिकेट को जुनून बना रखा है। अजय के तीन दोस्तों में से एक दोस्त को सर्दी है। हर तीसरे मिनट पर उसे उठकर बेसिन तक कफ़ से मुक्ति पाने जाना पड़ रहा है। शांति की समझ से बेहतर तो होता कि वो घर जाकर आराम करता। मगर मेहमान से घर जाने को कहना बेअदबी होती। अजय और उसके बाक़ी दोस्त उसे गर्म पानी में रंगीन पानी मिलाकर पीने की नेक सलाह देते रहे। मगर उठकर दवा लेने कोई नहीं गया। घर में आ गए जंगजुओं से बचने के लिए दवा लेने गई शांति।

सड़क पर कुत्ते भूंक रहे थे। शांति ने सोचा कि अगर कुत्तों को भी क्रिकेट में दिलचस्पी होती तो सड़क का सन्नाटा पहाड़ों की चुप्पी से होड़ ले सकता था। दवा की दुकान पर भी क्रिकेट चल रहा था। जो शहर शांति को हर रोज़ अपनी बदसूरती और बेसुरेपन के लिए अखरता है। आज वही अपने खुले-खुले सन्नाटे में बड़ा रुचने लगा। शांति का मन किया कि वहीं दवा की दुकान के सामने, महुवे के पेड़ के नीचे जो थोड़ी हरी-पीली घास है, उस पर बैठ जाय कुछ पल। और शहर के अन्दर जो जीवन अचानक सांस लेता हुआ लग रहा है उसे अपने अन्दर बहने दे और देर तक वहीं रहने दे। शांति शायद धूप की परवाह न करते हुए भी घंटे-दो घंटे वहीं बैठी रहती। मगर उसे याद आई उस मरीज़ की जिसकी दवा लेने वो आई है। और वो स्कूटर उठाकर वापस घर को लौट गई।    

अजय के दोस्त को दवा दे दी। मगर उसकी बीमारी कुछ और थी। जिसके असर में उसका बुख़ार तब तक बढ़ता रहा जब तक कि भारत जीत नहीं गया। उसके पहले तक वो और बा़की भी, कई उबालों से गुज़रते रहे। भारत के पक्ष में और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मचलते रहे। ऐसा लगता था जैसे एक उन्माद उनके रगों से होकर बह रहा हो। शांति ने सोचा कि अब थोड़ी राहत होगी मगर शोरोगुल थमा नहीं, बढ़ता ही रहा। देर तक पटाखे फूटते रहे। नारे गूंजते रहे। सुबह अख़बार और टीवी में वही ख़बरें थीं। मगर उन्माद हवा हो गया था। यहाँ तक कि उन्ही उन्मादियों में से कुछ लोग पाकिस्तान के लिए अफ़सोस और अफ़रीदी की तारीफ़ करते हुए भी पाए गए। शांति को यह देख बड़ी हैरत हुई।

दफ़्तर में भी लोग गोल बनाकर कल की जीत के जोश में फूले नहीं समा रहे हैं। लेकिन मिश्रा जी का सुर कुछ अलग हैउन्होने क्रिकेट को इस तरह की तवज्जो दिए जाने के अपनी आवाज़ बुलन्द की। उन्होने कहा, “क्रिकेट से क्या हासिल होता है। ये सिर्फ़ लोगों को बहकाता है। भ्रष्टाचार और अत्याचार जैसी मुख्य समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाता है। ये जनता की अफ़ीम है। अगर जनता को जागना होगा तो क्रिकेट और ऐसे किसी भी भुलावे से छुटकारा पाना ही होगा मिश्रा जी ने अपनी ज्ञान की जड़ियाँ हवा में उछाल दी अच्छे-अच्छे क्रिकेट के जुनूनियों की ज़ुबान भी उस जड़ी के आगे अकड़ गई 

शांति को मिश्रा जी की राय में न तो कोई दिलचस्पी रही है और न ही उस फ़ुज़ुल की जुगाली में हिस्सा लेने की कोई हसरत। मगर मिश्रा जी ने शांति का नाम लेकर उसे जबरन अपने पक्ष में खींचने की कोशिश की, क्यों शांति जी, आप क्या कहती हैं..?

उन्होने सोचा होगा कि शांति क्यों भला क्रिकेट के जुनूनियों के पक्ष में बोलने लगी। मगर ठीक उसी वक़्त शांति के ज़ेहन में पिछले दिन लोगों से ख़ाली सड़क, और अगले दिन ख़बरों से ख़ाली अख़बार ने साथ आकर एक अजब सोच पैदा की। और शांति को अचानक क्रिकेट का एक उजला पहलू दिखने लगा, मेरे ख़याल से मैच अच्छे हैं..
अच्छा?! मिश्रा जी को एक पल को तो यक़ीन नहीं हुआ कि शांति भी ऐसा कह सकती है।
क्यों भला?
मैच होता है तो लोग बिज़ी रहते हैं.. कुछ देर के लिए अपनी मुश्किलों को भूल जाते हैं..
और उसके लिए लड़ना भी भूल जाते हैं.. मिश्रा जी को अपनी बात पर ज़ोर देने का मौक़ा मिल गया।
 लड़ाई भी तरीक़े से लड़ी जानी चाहिये.. क्रिकेट हो या कोई भी खेल हो.. आपको एक सलीक़ा सिखाता है.. और नौजवानों में जो बहुत सारी ऊर्जा होती है उसका सही इस्तेमाल भी कराता है.. जब वही ऊर्जा कहीं ख़र्च नहीं होती तो तोड़फोड़ और मारपीट में निकलती है.. इसीलिए मैं कहती हूँ कि मैच अच्छे हैं! शांति ने कहा।
मैच क्या पूरा युद्ध हो रहा है और आप कह रही हैं मैच अच्छे हैं..?
कल तक मैं भी यही सोच रही थी कि ये सारे टीवी वाले पागल हो गए हैं.. क्रिकेट के एक मैच को इन्होने भारत-पाक के युद्ध में बदल दिया.. मगर आज मुझे लग रहा है कि एक आम आदमी के दिल में पाकिस्तान के लिए जितनी नफ़रत कल थी.. आज उस से कम है..
कम है क्योंकि हम मैच जीत गए.. अगर ग़लती से हार जाते तो..
तो भी हार का बदला लेने की बात खेल के मैदान में ही होती न कि युद्ध के मैदान में.. युद्ध से तो युद्ध जैसे मैच ही अच्छे हैं..

***

(३ मार्च के दैनिक भास्कर के लिए लिखा गया) 
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