पाखी का जनमदिन है। उसे क्या तोहफ़ा देना है, शांति कोई फ़ैसला नहीं कर पाई। तमाम भागदौड़ के बीच सबसे सरल उपाय यही मालूम दिया कि पाखी से ही पूछ लिया जाय कि उसे क्या चाहिये। पाखी से पूछा तो उसने कहा कि सोच के बताएगी। उसने सोचा तो पर बताया कुछ भी नहीं। शांति ने पहले सोचा था कि किसी रेस्तरां में पाखी के सारे दोस्तों को बुलाकर जश्न कर लेंगे। मगर फिर सब इन्तज़ाम घर पर ही करना ठीक समझा। छोले और दही बड़े जैसी कुछ चीज़ें शांति ने घर पर ही बना ली थीं। पीज़्ज़ा, बर्गर और कोल्डड्रिंक जैसी कुछ चीज़े जो बच्चों को ख़ास पसन्द होती हैं, बाहर से मंगा ली। केक का और्डर शांति ने फोन पर दे दिया था। दफ़्तर से वापसी में लेती हुई चली आई। यह देखकर उसे थोड़ा चैन पड़ा कि अजय उससे पहले घर पहुँच गया और इन्तज़ाम सम्हाल रहा है।
केक कटा। हैप्पी बर्थडे टु यू गाने की रस्म हुई। और तोहफ़े और जवाबी तोहफ़े दिए गए। इतना सब होने के बाद शांति ने ग़ौर किया कि उसी की तरह अजय भी कोई तोहफ़ा नहीं लाया है। तो शांति ने पाखी से पूछा कि बताए कि उसे क्या चाहिये। पाखी मुसकराई और बोली- मोबाइल फ़ोन। शांति और पाखी इस पर पहले बात कर चुके हैं। यह उनके बीच हुए समझौते का उल्लंघन था मगर बिटिया के जनमदिन की लाज रखकर शांति चुप ही नहीं रही बल्कि थोड़ा सा मुसकराई भी। एक पल को सोचा कि अगले साल देने की बात थी। एक बरस पहले ही सही। और हामी भर दी। पाखी ने जोश में भरकर मम्मी को चूम लिया। अब अजय की बारी। पूछा बेटी से कि बताओ बेटी क्या चाहिये। बेटी ने अपने सभी दोस्तों और मेहमानों के बीच बोला कि पापा आप गुटका खाना छोड़ दीजिये।
पाखी को अजय का गुटका खाना पसन्द नहीं। इस पर वो पहले भी आपत्ति करती रही है। वही क्यों, उसकी मम्मी और दादी भी करती रही हैं। और छोड़ देने की गुज़ारिश भी करती रही हैं। ऐसा नहीं है कि अजय दिन में चालीस पुड़िया गुटके गटक लेता है। मगर बारह-पन्द्रह की गिनती तो पार हो ही जाती है। इसलिए कभी किसी को कोई ख़ास चिन्ता भी नहीं हुई। मगर जब से अरोड़ा अंकल को मुँह का कैन्सर हुआ और उनका गाल काटकर अलग करना पड़ा। तब से पाखी हर दूसरे-तीसरे दिन अजय से पूछने लगी कि पापा कब छोड़ रहे हैं गुटका। अजय ने टालमटोल की नीति से अभी तक पाखी का दिल बहलाए रखा था। मगर आज वो फंस गया। जनमदिन के रोज़ अपनी प्यारी बेटी की फ़र्माईश पर चाह कर भी वो न नहीं कह सका। उसे बोलना ही पड़ा कि छोड़ दूंगा। पर पाखी इतने पर राज़ी नहीं हुई। छोड़ने की तारीख़ तय करने पर अड़ गई। हारकर अजय ने बोला कि अगले सोमवार के बाद वो फिर कभी गुटका नहीं खाएगा। पाखी ने उसका हाथ पकड़ कर अपने सर पर रख लिया। बोलिये मेरी क़सम। अजय ने बेटी की मासूम आँखों में किसी अनजानी ताक़त के लिए झांका और दिल कड़ा करके बोल दिया – तेरी क़सम!
अजय भावुक कि़स्म का आदमी ज़रूर है। परिवार में सबकी सुनता है। सबको साथ लेकर चलता है। पर करता अपने मन की है। इसलिए शांति को अजय पर भरोसा नहीं था। उसे नहीं लगता था कि अजय गुटका छोड़ सकेगा। पर पाखी को पूरा यक़ीन था। पापा ने उसके सर पर हाथ रखकर क़सम खाई है। शांति ने अकेले में अजय से कहा भी कि बच्ची की क़सम खाकर तोड़ना मत। इस बार छोड़ देना गुटका। अजय ने उसे यक़ीन दिलाया कि उसका इरादा पक्का है। सोमवार आने में कुल तीन रहते थे। वो तीन दिन अजय ने ख़ूब गुटका खाया। सबसे यही कहता कि बेटी की क़सम खाई है, सोमवार को छोड़ रहा हूँ। इतवार को तो उसने हद ही कर दी। पाउच के बदले पूरा डब्बा लेकर आया। और खाने-पीने के अलावा कोई टाइम ऐसा नहीं था। जब उसके मुँह में गुटका न रहा हो। गुटका छोड़ने की उलटी गिनती चल रही है। छोड़ने के पल के पहले का पल सबसे अधिक गुनाह से भरा हुआ था। तो रात को सोते समय भी कुल्ला न किया। मुँह में दबा कर सो गए। और फिर क़यामत की रात गुज़र गई और एक नया सूरज उग गया।
सोमवार को सब उसे उसकी क़सम याद दिला रहे थे। और वो सब को यक़ीन दिला रहा था कि उसने वाक़ई गुटका छोड़ दिया। अपने संकल्प के सबूत के तौर पर मसाले का डब्बा उसने कचरे में फेंक दिया। घर से लेकर दफ़्तर तक सब अजय के संकल्प की परीक्षा लेते रहे। मगर अजय ने किसी कमज़ोरी का प्रदर्शन नहीं किया। शाम को जब लौटा तो पाखी ने पूछा ही। अजय ने अपनी जेब और मुँह दोनों की तलाशी दे दी। उसके बाद एक क़दम और आगे बढ़कर दूसरे ही दिन जाकर डेन्टिस्ट से दांत साफ़ करवा लिए। हाँ यह ज़रूर हुआ कि गुटके की तलब को मारने के लिए अजय पहले च्यूंइगम और फिर लौंग-इलायची चबाने लगा। उससे किसी को कोई आपत्ति न थी। पाखी तो बहुत ख़ुश रहने लगी। उसे मोबाईल मिल गया था। और उसने पापा को एक बड़ी बीमारी का शिकार होने से बचा लिया। उसका आत्मविश्वास कई गुना बढ़ गया। उसे लगने लगा कि वह कुछ भी कर सकती है। सब कुछ सम्भव है। प्यार से दुनिया बदली जा सकती है। चेहरा एक अलग तेज से दमकने लगा।
कुछ दिन गुज़र गए। बीच-बीच में पाखी और शांति परखते रहते कि अजय ने फिर तो शुरु नहीं किया न गुटका। फिर एक रोज़ शांति को अजय की बुश्शर्ट की जेब पर एक भूरा दाग़ दिखा। जैसा गुटके से पड़ता है। अजय से पूछा तो वो कहने लगा कि न जाने कैसे लग गया। फिर कुछ दिन बाद उसे बेसिन में अजीब से दाग़ दिखाई दिए। ठीक वैसे जो गुटके की पीक से बन जाते हैं। अजय से पूछा तो मुकर गया। लेकिन अब शांति को शक़ हो गया। और उसने एक रोज़ अजय को खाने के बाद गुटका चबाते हुए पकड़ ही लिया। शांति ने अजय से मुँह खोलने को कहा तो अजय चिढ़ गया। और हड़बड़ी में गुटका गटक गया। मगर जब मुँह खोला तो भी कुछ अवशेष अजय के हाल में साफ़ कराए दांतो से चिपका हुए थे। शांति को दुख हुआ। मगर पाखी का तो दिल ही टूट गया। वो बहुत लड़ी, रोई, चिल्लाई। अजय हर तरह से पाखी को खुश देखना चाहता है। लेकिन उसके शरीर में कुछ ऐसे संवेग पलते हैं जो बाप की भावनाओं को नहीं समझते। अपनी मनमानी करते हैं, तानाशाही करते हैं। इन्हे आदत कहते हैं। अजय ने लड़ने की कोशिश की मगर हार गया। बेबस हो गया।
पाखी सिर्फ़ इस बात से दुखी नहीं हुई कि उसके पापा फिर से कैंसर की चपेट में चले गए। और न सिर्फ़ इसलिए कि पापा ने उसके सर की झूठी क़सम खाई थी। लेकिन उसके पापा को उससे किए वाएदे की परवाह कम और गुटके की तलब अधिक है, यह सोचकर वो बहुत मायूस हुई थी। शांति ने अपने बेटी की कोमल भावनाओं की रक्षा करने की बहुत कोशिश की। मगर इस तरह पिता द्वारा दिल टूट जाने के बाद पाखी का आत्मविश्वास फिर पहले जैसा नहीं रहा। कुछ दिनों में लोग कहने लगे – पाखी बड़ी हो गई है।
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(२४ अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी)