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इस महीन कहानी को अपने खास सजावटी फ़्रेम्स में गढ़ते हुए उन्होने सोचा होगा कि मैं एक परदे पर उकेर रहा हूँ अ पोएट्री इन ब्लू.. और एक गुनगुनी सरसराहट उनके मेरूदण्ड में दौड़ गई होगी। और यह सोचकर उनके गर्वीले भाल में तनाव का एक पेंच और कस गया होगा कि इस दफ़े वे सूक्ष्म दोस्तोयेवस्कियन उत्कण्ठा को गढ़ रहे हैं। दिक़्क़त यह है कि सावरिया भंसाली की सभी दूसरी फ़िल्मों की तरह अपने समय, अपने समाज से विछिन्न हैं.. वह एक स्वैर कारीगरी का घमण्डपूर्ण प्रदर्शन है। फ़िल्म में प्रदर्शित उत्कण्ठा में कोई दारुणता नही है और स्थूल शरतचन्द्रीय देवदासीय अतिनाटकीयता भी नहीं है जिसे उनकी उस दर्शक दीर्घा को लत पड़ चुकी है जिसकी मुख्य खुराक एकता कपूर के मद्रास कट वाले टीवी सीरियल्स हैं। और शायद यही उनकी असफलता का मुख्य कारण होगा, अगर फ़िल्म सचमुच असफल है तो! और रही बात उनकी सजावटी फ़्रेम्स की.. निश्चित ही उनमें एक सौन्दर्य है पर ताज़े फूलों का सौन्दर्य नहीं... पानी मारे हुए बासी फूलों का सौन्दर्य भी नहीं.. प्लास्टिक के फूलों का सौन्दर्य.. जो अपने रंगो में असली से भी ज़्यादा आकर्षक दिख सकते हैं.. मगर बे-खुशबू होते हैं।
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इसका मतलब यह नहीं समझा जाय कि कला का कोई बाज़ार नहीं होता.. होता है ज़रूर होता है.. पर कला और बाज़ार का कोई सीधा रिश्ता नहीं है। बाज़ार में बिकने वाली हर चीज़ कला नहीं है और हर कलात्मक चीज़ की सही पहचान कर पाने की क़ुव्वत बाज़ार में नहीं होती। हो सकता है कि कोई कला तुलसीदास, हिचकॉक और पिकासो की तरह लोकप्रिय हो और कोई कला वैनगॉग की तरह अपने समय में बुरी तरह असफल.. और उसका महत्व काफ़ी सालों बाद ही समझा जा सके।
जो लोग भंसाली के सिनेमा को पसन्द करते रहे हैं उन्हे इस फ़िल्म से निराशा नहीं होगी ये मेरा अनुमान है। और फिर देखने के लिए रनबीर राज और सोनम भी तो हैं.. जो काफ़ी सारे उन लोगों से बेहतर हैं जो फ़िल्मी परिवार के होने की बिना पर ही हमारे सर पर लादे जाते रहे हैं।
फ़िल्म कई बार रनबीर राज का राज कपूर से सम्बन्ध याद दिलाने की कोशिश करती है .. पर व्यर्थ में.. राज कपूर का सिनेमा अपने सारे सपनीले यथार्थ के बावजूद ख्वाजा अहमद अब्बास की ज़मीन से उगता था। सावरिया का यथार्थ अपनी रजत रातों से इतना कटा हुआ है कि उसमें चाँद आता तो ज़रूर है 'साँवरिया' के 'सा' के ऊपर टिकता नहीं.. डूबा ही रहता है।
10 टिप्पणियां:
जो दर्शक दिमाग में रख कर बनाई होगी, वह देख रहा होगा। फिल्म चलने का सवाल अता हो तो औसत दर्शक के एक स्टेण्डर्ड डेवियेशन तक का प्ले ले कर फिल्म बनानी चहिये।
बनायेंगे दार्शनिकार्थ और चली/न चली की बात करेंगे - यह भी कोई बात है!
सांवरिया को असफ़ल घोषित करने के पीछे एक सजिश है.ओम शन्ति ओम को सफ़ल कहने से बात नहीं बन रही है.बाज़ार के इस खेल को भि ध्यान में रखना होगा.
मैंने सांवरिया तो नहीं देखी है लेकिन आपकी भंसाली के बारे में की गई समीक्षा से पूरी तरह सहमत हूँ....
भन्साली ने जब इस फ़िल्म के बारे मे सोचा होगा तो यही सोचा होगा कि वो कुछ नाज़ुक एह्सास स्क्रीन पर् उतार रहे हैं... लेकिन चूक गये... पूरी फ़िल्म सिर्फ़ मोमेन्ट्स और खूबसूरती के दम पर आगे बढ़ती ज़रूर है (हाँ बनावटी खूबसूरती ही सही)लेकिन अगर सलमान का कैरेक्टर भन्साली शुरुआत मे दिखा कर जस्टीफ़ाई न करते बल्कि सिर्फ़् फ़िल्म् के अन्त मे उसका आना रखते तो बहुत् सारी चीज़े इल्लाजिकल न लगतीं - नायिका ऑपर्च्यूनिस्ट न लगती, ये न लगता कि एक खुश्मिजाज़ हसीन इन्सान के बद्ले नायिका एक खढ़ूस बुड्ढे को कैसे चुन सकती है. जब नायक नायिका से पूछता है कि वो चार रातें क्या थी..तो नायिका जवाब देती है- वो सिर्फ़ दोस्ती थी. भंसाली मोमेन्ट्स क्रिएट करने में भूल गए कि नायिका नायक से प्यार नहीं करती- झूठी साबित होती है. भन्साली का जब एक कैरेक्टर को सारे आयामो सहित एक् मोमेन्ट मे दर्शाने का समय आया तो छक्के छूट गये... अरे हिम्मत करो तो पूरी... फ़िल्म एक तरफ़... निर्देशक कि जर्नी एक तरफ़... सावरिया मे भन्साली फ़ेल कर गये अपने ही मापदण्डों में..
फ़िल्म नही देखी मैने पर भंसाली की विवेचना बहुत शानदार की है आपने!!
बहुत अच्छी समीक्षा । अब इसे मद्देनज़र रखकर शायद फिल्म देख ही लें ।
सिर्फ 'ब्लैक' में भंसाली इंटेंस दिखते हैं और थोड़ा-थोड़ा 'हम दिल दे चुके सनम' में। आश्चर्य होता है कि एक आदमी अगर सपने में भी यह जानता है कि इंटेंसिटी जैसी कोई चीज कला की दुनिया में होती है तो फिर वह इससे कंप्रोमाइज के लिए तैयार कैसे हो जाता है! इस आदमी ने 'देवदास' जैसी दो कौड़ी की फिल्म बनाई, जिसमें कहानी का कुछ सिर-पैर ही उसकी समझ में आता नहीं लगा। लगता है इस माध्यम में आत्म-छल के लिए बहुत गुंजाइश है- और कोई शायद इसमें लगे बंदों को पूरे दम से बताता भी नहीं कि उनका गढ़ा हुआ क्या ठीक और क्या कूड़ा है। आपकी समीक्षा विजुअल लेवल पर बहुत अच्छी लगी लेकिन कोई डाइरेक्टर अगर कोई क्लासिकी कथा पकड़ता है तो बात इसपर भी होनी चाहिए कि वह कहानी के कितने करीब जा सका- और जानबूझकर वह उससे दूर गया तो ट्रीटमेंट में वैसी सघनता बनाए रख सका या नहीं। 'रजत रातें' मैंने 1985 में पढ़ी थी- पीपीएच से प्रकाशित दो उपन्यासिकाओं के संकलन 'दरिद्र नारायण और रजत रातें- दोस्तोयेव्स्की' में। इनमें दरिद्र नारायण का किस्सा याद है- और ठीक यही कहानी आजकल मेरे एक बुजुर्ग मित्र के इर्द-गिर्द थोड़े घटिया ढंग से दोहराई जा रही है। रजत रातें की कहानी तो भूल चुकी है लेकिन लेकिन उसे पढ़कर चढ़े दिमागी बुखार की याद अबतक बाकी है। 'सावरिया' अब शायद मुझे सिर्फ इसके साथ इस कहानी का नाम जुड़ जाने के चलते देखनी पड़े।
बहुत सही विश्लेषण है अभय। मैं आपके विचारों से पूर्णत: सहमत हूं। इस देश के भावुकतावाद का क्या कीजिएगा, लोग बात-बात पर बिसूरने लगते हैं, आंसू गिराने लगते हैं। ब्लैक देखकर आहें भरते हैं। क्या कमाल की फिल्म है, ऐसी तो देखी न सुनी। उन्हें कला और नौटंकी में फर्क करने की तमीज नहीं। शायद ज्यादा कड़ा लिख रही हूं, लेकिन भंसाली की नौटंकी पर हम्हीं ताली पीट सकते हैं।
बड़ा धांसू लिखे भाई। अब देखेंगे और पसन्द आयी बतायेंगे।
मैं भी सहमत हूं तनु की बात से । मैंने कल ही ये फिल्म देखी है । भंसाली बुरी तरह चूक गये हैं । उन्होंने नायक और नायिका के चरित्र तक ठीक से नहीं बुने । उन्होंने जितनी मेहनत फ्रेम्स की खूबसूरती गढ़ने और सपनीली नीली रातें दिखाने में की है अगर थोड़ी सी मेहनत कहानी पर ठीक से कर लेते तो ये फिल्म एक कालजयी फिल्म बन सकती थी ।
बहुत बड़ा मिसफायर है सावरिया ।
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