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शुक्रवार, 13 जून 2008

ट्रुथ सीरम का ट्रुथ

आजकल आरुषि हत्या काण्ड (जिसमें हेमराज नाम का शख्स भी मारा गया) की तफ़्तीश में सी.बी.आई डॉक्टर तलवार के कम्पाउण्डर कृष्णा के ज़रिये केस सॉल्व करने की जीतोड़ कोशिश में लगी हुई है। इस कोशिश में कृष्णा को किस तरह की हिरासत में कितने दिन से रखा जा रहा है इसका पता ठीक-ठीक नहीं चल सका है। कुछ सूत्रों का कहना है कि उसकी गिरफ़्तारी भी नहीं हुई है। मैंने भी सी बी आई के निदेशक को टी वी पर एक बयान देते हुए सुना कि वे नार्को टेस्ट करने के लिए कृष्णा को उसकी इजाज़त से बेंगालूरू ले जा रहे हैं।

ये अलग बात है कि कृष्णा के घरवाले हाय-तोबा मचा रहे हैं कि न जाने कितने रोज़ से कृष्णा घर नहीं लौटा है। वैसे एक सच्चा देशभक्त होने के नाते मैं उनकी इन बातों पर कान नहीं देता.. आखिर सी बी आई एक सम्मानित केन्द्रीय संस्था है वो कोई अवैध काम करेगी ये कोई सोच भी कैसे सकता है.. उसका तो काम ही अवैध अपराधिक गतिविधियों की जाँच करना है।

इसी जाँच के सिलसिले में कृष्णा के तीन लाई-डिटेक्टर टेस्ट हुए और फिर बेंगालूरू में नार्को टेस्ट। अभी-अभी खबर आई है कि कृष्णा के दूसरे नार्को टेस्ट की भी सम्भावना है? अब वो होगा या नहीं वो तो भविष्य में देखेंगे मगर मुझे जिज्ञासा हुई कि होती क्या है यह बला?

अन्तरजाल से ही पता चला कि ट्रुथ सीरम या सोडियम पेन्टाथॉल नाम की ये दवा गन्धहीन स्वादहीन और लगभग प्रभावहीन है.. इसका एक मात्र प्रभाव फ़िसलती हुई ज़ुबान ही है। ये एक तरह का अनेस्थेटिक है जिसे सर्जरी के वक़्त इस्तेमाल किया जाता है। जंगली जानवरों को क़ाबू में करने के लिए भी ये दवा ट्रान्क्वेलाइज़र के बतौर प्रयोग की जाती है।

आदमी के ऊपर नार्को टेस्ट की दवा का असर खत्म होने के बाद व्यक्ति को जिह्वा-स्वातंत्र्य के इस अनुभव की कोई स्मृति नहीं रहती। लोगों की ज़ुबान खुलवाने का यह तरीक़ा रूसी गुप्तचर संस्था केजीबी ने ईजाद किया था जिसका लाभ आगे चलकर सीआईए ने भी उठाया। फ़िलहाल ये अन्तराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार प्रतिबंधित है। अमरीका ने ग्वान्टानामो बे में क़ैद लोगों का अपराध सिद्ध करने के लिए भी इसके इस्तेमाल नहीं किया है.. कम से कम ऐसा घोषित तो नहीं किया है।

फिर इस सीरम की उपयोगिता पर भी बड़ा प्रश्न चिह्न है क्योंकि ये सीरम सिर्फ़ हिचक तोड़कर ज़ुबान को खोलता है पर उस ज़ुबान से सत्य ही निकलेगा इसे पक्का नहीं करता। दवा के प्रभाव में आदमी ज़ुबान पर से अपने बन्धन उठा लेता है मगर नियंत्रण नहीं खोता और भड़भड़ा कर सब कुछ नहीं बकने लगता। अगर वो सच को छिपाना चाहेगा तो छिपा ले जाएगा। मुझे याद है कि तेलगी के नार्को टेस्ट में उसने कोई ऐसी बात नहीं बोली जिस से वो या कोई दूसरा बड़ा आदमी फँस सकता था।
इसके अलावा ये नार्को टेस्ट व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों का कितना अतिक्रमण करता है यह और भी बड़ा प्रश्न है। आखिर मार-पीट कर किसी से अपराध उगलवाने से कितना अलग है यह? हो सकता है कुछ बन्धुओं को लगे कि इसे प्रताड़ना की कोटि में नहीं रखा जा सकता और यह तरीक़ा न्यायोचित है। हो सकता है.. लोग तरह-तरह से सोचते हैं। कुछ लोग ऐसे भी तो हैं जो दंगो के दौरान मर्दों का पैजामा उतार कर सत्य की परीक्षा करने को भी उचित समझते हैं।

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

एक असहिष्णु नैतिकता

शाहरुख मेरे दोस्त नहीं हैं उलटे उनकी फ़िल्मों और उनमें उनके अभिनय से मैं काफ़ी पका रहता हूँ लेकिन उनकी इस बात में मैं उनके साथ हूँ कि उन्हे सिगरेट पीने से रोकने के लिए रामदौस को सिगरेट पीने मात्र को क़ानूनी तौर पर अवैध घोषित करना होगा। और वे स्कीन पर सिगरेट पियेंगे या नहीं पियेंगे, इसका फ़ैसला वे अपनी रचनात्मक आज़ादी के दायरे में खड़े होकर करेंगे।

मगर रामदौस को यह बात पसन्द नहीं आई.. उनका कहना है कि शाहरुख को रचनात्मक आज़ादी के बारे में आमिर खान से सीखना चाहिये कि किस तरह से 'तारे ज़मीन पर' उन्होने डाइसलेक्सिया से पीड़ित बच्चों के प्रति लोगों की मानसिकता को बदलने का काम किया है.. रचनात्मक आज़ादी ऐसी होनी चाहिये!

'ये होना चाहिये' वाली भाषा कुछ जानी पहचानी नहीं लग रही आप को..? मुझे तो इसी लाइन ने यह पोस्ट लिखने को प्रेरित किया है। एक तरफ़ हम लोग रचनात्मक आज़ादी और लोकतांत्रिक अधिकार जैसे शब्दों के इस्तेमाल से एक प्रगतिशीलता का आवरण बनाए रखते हैं मगर उसके भीतर-भीतर ही एक असहिष्णु नैतिकता के डण्डे से दूसरों की पिटाई करते रहते हैं।

दूसरों की.. क्योंकि दूसरा नरक होता है.. मगर दूसरे (अपने से भिन्न मत, धर्म, सेक्स, विचार, जाति वाले और शुद्ध दूसरा व्यक्ति भी) के साथ आप का बरताव कैसा है यही लोकतंत्र की असली कसौटी है। चुनाव में बहुमत जीतने वाली पार्टी की सरकार बन जाना नहीं.. बल्कि अल्पमत वाली पार्टी की असहमति का अधिकार सुरक्षित रहना।

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

हमारा नैतिक बोध

आज कल आदमी और दुनिया की बहुत सी परेशानियों के लिए पश्चिमी सभ्यता को ज़िम्मेदार माना जाता है.. अंधाधुंध भौतिकता, और राजनैतिक-सामाजिक-निजी जीवन में पतित नैतिक मूल्यों के लिए तो विशेषकर ही.. ऐसे इल्ज़ाम मैंने भी लगाए हैं मगर इमैन्युअल कान्ट का यह टुकड़ा देखिये क्या कहता है..

हमारे कुल अनुभव की सबसे चकित कर देने वाली सच्चाई हमारा नैतिक बोध ही है, लालच के आगे हमेशा मौजूद रहने वाला वह भाव, जो बताता है कि यह या वह ग़लत है। हमारे घुटने टेक देने के बावजूद वह भाव बना रहता है.. क्या है वह जो पछतावे की कचोट और एक नए इरादे को पैदा करता है ? वह हमारे भीतर का निरपेक्ष आदेश (categorical Imperative) है, हमारी चेतना का उन्मुक्त आदेश। ऐसे व्यवहार करना जैसे कि हमारे संकल्प के ज़रिये हमारा व्यवहार प्रकृति का सार्वभौमिक नियम बन जाने वाला हैं। तर्क से नहीं, बल्कि तात्कालिक और सुस्पष्ट बोध के द्वारा हम जानते हैं कि हमें ऐसे किसी भी व्यवहार से बचना चाहिये जो अगर सब लोग करने लगें तो सामाजिक जीवन असम्भव हो जाएगा। मेरे भीतर यह बोध रहता है कि मुझे झूठ नहीं बोलना चाहिए, भले ही वो मेरे फ़ायदे में ही क्यों न हो। दुनियादारी अन्दाज़ों पर आधारित है- उसका सूत्र ईमानदारी है तभी तक जब कि वह सब से अच्छी नीति हो; लेकिन हमारे हृदय का नैतिक नियम निरपेक्ष है और निर्द्वन्द्व है।

कोई व्यवहार इसलिए अच्छा नहीं है क्योंकि उसका फल अच्छा है या फिर इसलिए कि वह समझदारी भरा है, बल्कि इसलिए कि वह हमारे अन्दर की कर्तव्य-भावना के अनुसार में है। यह नैतिक नियम निजी अनुभव से नहीं उपजता वरन वह स्वयंभू है और हमारे सभी भूत, वर्तमान और भविष्य के व्यवहार के लिए पहले से ही निर्धारित (a priori) होता है। इस दुनिया में निर्द्वन्द्व रूप से अच्छी चीज़ सिर्फ़ अच्छा इरादा, शुभ सकंल्प ही है- नैतिक नियम के पालन का संकल्प, अपने नफ़े-नुक़सान से परे। अपने आनन्द का मत सोचो; अपना कर्तव्य निभाओ। नैतिकता स्वयं को आनन्द देने का नहीं बल्कि स्वयं को आनन्द के योग्य बनाने का सिद्धान्त है। हमें अपने आनन्द को दूसरों में खोजना चाहिये, और अपने लिए सम्पूर्णता- चाहे वह आनन्द लाए या पीड़ा। तो मनुष्य के साथ, अपने साथ व दूसरों के साथ, ऐसे व्यवहार करो जैसे वे किसी साध्य का साधन नहीं अपने आप में साध्य हों। और हम महसूस कर सकते हैं कि यह भी निरपेक्ष आदेश का ही एक हिस्सा है।

ऐसे सिद्धान्त के अनुसार आचरण कर के हम बौद्धिक जनों का एक आदर्श समाज बना सकेंगे, और ऐसे समाज को बनाने के लिए बस हमें ऐसे व्यवहार करना है जैसे हम पहले ही से उसके हिस्से हों; सम्पूर्ण नियम को हमें अपूर्ण अवस्था में ही लागू करना होगा। आप कह सकते हैं कि यह कठोर नीति है– सौन्दर्य से पहले कर्तव्य, आनन्द से पहले नैतिकता; लेकिन सिर्फ़ इसी तरह से हम पाशविकता के पाश से निकल कर देवत्व प्राप्ति की ओर बढ़ सकते हैं।

ध्यान दें कि कर्तव्य के प्रति यह निर्द्वन्द्व आदेश अन्ततः हमारे संकल्प की, मनोरथ की आज़ादी को सिद्ध कर देता है। अगर हम स्वयं को स्वतंत्र नहीं समझते तो तो हम किसी कर्तव्य की बात को सोच भी कैसे सकते थे? इस स्वतंत्रता को हम सैद्धान्तिक बुद्धि से सिद्ध नहीं कर सकते; हम इसे नैतिक चुनाव की दुविधा में ही सीधे सिद्ध करते हैं। और हम इस स्वतंत्रता को अपने शुद्ध अहम के, अपनी अन्तरात्मा के मूल तत्व की तरह महसूस करते हैं।

(विल ड्यूरां की किताब दि स्टोरी ऑफ़ फिलॉसफ़ी के एक अंश पर आधारित)

.. कान्ट को पश्चिमी दर्शन परम्परा में एक बड़ा मुक़ाम मानते हैं.. और उसके ऐसे विचारों को पढ़ने के बाद मैं आदमी और दुनिया की तमाम परेशानियों के लिए पश्चिमी सभ्यता को गरियाने के पहले सोचूँगा.. क्योंकि, निश्चित ही, सभ्यता बड़ा शब्द है..

गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

इन्टरनेट पर हक़ की लड़ाई

इन्टरनेट और वेब मानव इतिहास का सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक संवादसक्षम मंच है.. दुनिया भर में आम लोग और बड़े-बड़े कॉरपोरेशन्स इसकी शक्ति से आकर्षित हो कर इसकी और खिंच रहे हैं.. कुछ विद्वान लोगों ने अपनी काबलियत और हुनर के योगदान से इसे बनाया और सँवारा है.. हम आप जैसे लोग इसका उपयोग भर ही कर रहे हैं.. मगर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सिर्फ़ और सिर्फ़ इसका भोग करने की नीयत से तालों का और हथकड़ी-बेडि़यों का इस्तेमाल चाहते हैं.. और सरकारें भी उनके हित के अनुकूल क़ानून बनाकर लागू करने में प्रयासरत हैं.. अभी हिन्दुस्तान में चीज़ें उस मकाम तक नहीं पहुँची हैं पर अमरीका, कनाडा और यूरोप में एक संघर्ष शुरु हो चुका है..


देखिये यहाँ..

और यहाँ..

मुझे एक वीडियो भी मिला है जो अन्तरजाल पर होने वाले संघर्ष से सम्बन्धित एक कहानी कह रहा है.. देखिये.. और खुद फ़ैसला कीजिये कि आप की क्या राय इस विषय में..



सोमवार, 3 दिसंबर 2007

इब्लीस की नाफ़रमानियाँ और अल्लाह



फ़रीद खान मेरे मित्र और सहकर्मी हैं, उन्हे आप इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं..आज सुबह मेल में उनका ये लेख मिला इस नोट के साथ कि अगर प्रासंगिक लगे तो छापिये.. और मैं छाप रहा हूँ।



आरंभ करता हूँ ईश्वर के नाम से जो अत्यंत दयावान और कृपालु है।
(बिस्मिल्लाह इर्रहमानिर्रहीम का हिन्दी अनुवाद)

इस दुनिया में जो भी वुजूद में है, उसके पीछे ख़ुदा की एक मस्लेहत है।

(उर्दू शब्दकोश में मस्लेहत का मतलब हिकमत, पॉलेसी या नीति, ख़ूबी या विशेषता, मुनासिब तजवीज़ या उपयुक्त प्रस्ताव और अच्छा मशवरा दर्ज है।)

मेरा सवाल है आज उस अल्लाह से, जिसकी मैं वन्दना करता हूँ , कि अगर तस्लीमा और सलमान रुश्दी ने इतने ही हानिकारक विचार लिखे हैं तो उन्हें उठा क्यों नहीं लेता ... उन मुस्लमानों को क्यों हत्यारा बना रहा है भाई, जो आवेश में आ कर तलवार लिए तस्लीमा या रुश्दी के पीछे भाग रहे हैं।

लेकिन अल्लाह शब्दों में जवाब नहीं देता ... वह संकेत देता है।
संकेत है - आदम और हव्वा के वजूद में आने के पहले ही इब्लीस (शैतान) द्वारा अल्लाह की नाफ़रमानी करने पर भी अल्लाह ने उसे ख़त्म नहीं किया ... ।

अल्लाह ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर , असहमति पर , मतभेद पर रोक नहीं लगाई। और तो और शैतान ने तो नहीं सुधरने की भी ज़िद कर रखी है फिर भी अल्लाह ने उसे छोड दिया... शैतान ने चुनौती भी दे रखी है अल्लाह को, कि वह उसके बन्दों को बहका कर रहेगा, फिर भी अल्लाह ने उसे छोड दिया।

इब्लीस (शैतान) तक के वुजूद को अल्लाह ने ख़त्म नहीं किया फिर हम इंसान कौन होते हैं उसके काम में दख़ल देने वाले, लठ ले के तस्लीमा के पीछे भागने वाले और सलमान रुश्दी के पीछे तलवार ले कर भागने वाले ?

अचंभा तो इस बात का है कि जिन राजनेताओं को देश और संस्कृति की चिंता नहीं होती वे अचानक धार्मिक भावनाओं के रक्षक क्यों बन जाते हैं।

वह इसलिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (चाहे वह अभिव्यक्ति किसी भी तरह की क्यों ना हो) एक राजनीतिक कदम है। आप इतिहास देख लें .... सूफ़ियों से कितने ही बादशाहों को ख़तरा महसूस होता था ....औरंगज़ेब ने तो मंसूर को कुट्टी कुट्टी कटवा दिया था। नाथूराम गोडसे ने गांधी की आवाज़ को हमेशा हमेशा के लिए बंद कर दिया। सफ़दर हाशमी को कांग्रेसियों ने मौत की नींद सुला दी। मराठी नाटक मी नाथूराम गोडसे बोलतोय पर महाराष्ट्र सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। एम एफ़ हुसैन पर बजरंगियों का ख़तरा बना ही हुआ है और ताज़ा तरीन हमला फ़िल्म आजा नच ले पर भी हो गया।

हर कोई विचारधारा, देश हित, धर्म और राष्ट्र के नाम पर मारने और आवाज़ बंद करने को तत्पर बैठा है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो , सभी भयभीत होती हैं विचारों से। इसीलिए आम लोगों में उनके जो एजेंट होते हैं वह अपनी भावनाओं को हमेशा अपनी हथेली पर लिए सडकों पर फिरते हैं कि किसी भी चीज़ से उन्हें ठेस पहुंचे और मौलिक अधिकारों से हमारा ध्यान हट कर दोयम दर्जे की चीज़ों पर चला जाये।

यहाँ मारने को हर कोई स्वतंत्र खडा है लेकिन बोलने को कोई नहीं।

कोपरनिकस और गैलेलियो ने जिस तरह से चर्च के ख़िलाफ़ जा कर दुनिया के सामने अपना विचार रखा और आज दुनिया उनकी अहसानमन्द है। उसी तरह ......



अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे,
तोडने ही होंगे मठ और गढ सब।

-मुक्तिबोध।

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

मैं हर जगह बन्धन में हूँ..

कमरे में दीवारें मुझे क़ैद रखती हैं। खिड़कियां मुझे और मेरे संसार को भीतर और आकाश को बाहर, सलाखों से बंद रखती हैं। दरवाज़ें खोलने का आभास ज़रूर देते हैं लेकिन हर दरवाज़ा किसी के लिए राह खोलता है तो कहीं ज़्यादा लोगों के लिए राह रोकता है।

रुकता हूँ तो रुका ही हूँ और चलता हूँ तो दिशाएं मुझे छेकती हैं और गति आगे कम बढ़ाती है पीछे ज़्यादा फेंकती है।

जल में साँस रोक कर रखने की एक हद है और पृथ्वी के वायुमण्डल की भी हद है। देश की ही नहीं, राज्य और ज़िलों की भी सरहद हैं। समाज में मर्यादाएं हैं, फिर का़नून हैं। और रिश्तों का तो दूसरा नाम ही सम्बन्ध है। उम्मीदें हमें पकड़े हुए हैं और फ़र्ज़ हमें जकड़े हुए हैं।

अपने नाम की ध्वनि से बँध गए हैं मेरे कान उम्र भर के लिए। चाहूँ तो बस सकता हूँ दूसरे देश के दूसरे शहर में, बोल सकता हूँ कोई और भाषा और बदल भी सकता हूँ अपना नाम। लेकिन जिन्होने जन्म दिया, अपने उन माँ-पिता से जनम भर चिपका रहता हूँ।

शरीर में रूप-रंग और कद-काठी की स्थूल और रोगों की सूक्ष्म सीमाएं हैं। मन के भीतर गाँठों की बाधाएं हैं। जागता हूँ तो जागृति के बन्धन हैं और सोता हूँ तो सपनों के बन्धन हैं। कल्पनाएं-इच्छाएं.. ऐसा लगता है कि कहीं भी आती-जाती हैं पर वे भी अनुभवों के डोर से उड़ाई जाती हैं।

मैं कितना होना चाहता हूँ आज़ाद पर हर जगह बन्धन में हूँ..

सोमवार, 10 सितंबर 2007

गद्दार को गद्दार कहना

क्या आप ने कभी सोचा है कि तात्या टोपे के वंशज कहाँ हैं? या मंगल पाण्डेय के वंशजो का क्या हाल है? अच्छा इन सैनिक और सेनापतियों को छोड़ दीजिये। आज़ादी के सितारों की बात कीजिये; रानी लक्ष्मीबाई, अज़ीमुल्ला खान, नाना साहिब के वंशजो का क्या हुआ? हो सकता है इन में से कुछ का वंश समाप्त ही हो गया हो और कुछ का इस हाल में हो, जिस की चर्चा न ही की जाय तो बेहतर!

पिछले साल मैंने टीवी पर कलकत्ता में एक फटेहाल परिवार की दारुण कथा देखी थी- कहते थे कि बहादुरशाह 'ज़फ़र' के वंशज हैं। उनकी फटेहाली पर किसी को हैरान होने की क्या वज़ह हो सकती है.. देश आज़ाद हो चुका है.. अब देश में लोकतंत्र है और राजशाही खत्म हो चुकी है। मगर ये बात सिन्धिया, होलकर और कश्मीर के डोगरों पर लागू नहीं होती? वे तो अभी भी राजसी ठाठ-बाट बनाए हुए हैं। क्यों और कैसे?

क्या इसलिए कि १८५७ की लड़ाई में अंग्रेज़ो का साथ देने वाले यही राजघराने थे? जो तब भी मलाई चाँभ रहे थे और अब भी चाँभ रहे हैं। सवाल है कि १९४७ में मिली आज़ादी के बाद ये तस्वीर बदली क्यों नहीं? जिन्होने १८५७ की लड़ाई में क़ुर्बानी दी, उनके वंशजो को आमंत्रित करके पुराने ठाठ वापस न करना समझ आता है। मगर गद्दारों को गद्दार कहने से चूक जाना समझ नहीं आता!

विचार स्रोत: अखिलेश मितल

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

ईसा नक्सलियों के साथ नहीं है!

नक्सलवादी अब नासिक, जलगाँव, अमरावती, थाने और मुम्बई जैसे शहरों पर हमला बोलने की योजना बना रहे हैं, ऐसा एटीएस के 'गुप्त सूत्रों' से पता चला है। इसके पहले अगस्त १९ व २० को मुम्बई पुलिस ने शहर से श्रीधर श्रीनिवासन और वरनॉन गॉन्सॉल्वेज़ नाम के दो नक्सलियों को गिरफ़्तार करके हिरासत में ले लिया है। आरोप है कि उनके पास आपत्तिजनक साहित्य के अलावा हथियार और बारूद भी बरामद हुआ, जिसे पुलिस ने अदालत की इजाज़त से गैर-क़ानूनी होने के नाते नष्ट कर दिया। अदालत को पुलिस की 'सचबयानी' पर पूरा भरोसा है, और अब मुकद्दमा इस नष्ट किए गए हथियार के बिना पर जारी है। मानवाधिकार का हल्ला मचाने वाले विधि-विशेषज्ञों ने इस मामले पर फिर से टिल्ल-बिल्ल करना शुरु किया है; पर हमेशा की तरह उनकी आवाज़ को सुनने वाले उनके जैसे कुछ खलिहर लोगों के सिवा कोई अन्य नहीं है।

नक्सली हमारे समाज का कोढ़ हैं और पुलिस-प्रशासन हमारे हितों के सजग रक्षक।

इसके काफ़ी पहले नागपुर में ८ मई को अरुन फ़ैरेरा नाम के एक और नक्सली को उसके दो साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिया। वैसे तो पुलिस १५ दिन तक किसी आरोपी को अपनी कस्टडी में रख सकती है, मगर इन विश्वस्त अपराधियों को पुलिस ने सत्य-वमन के उद्देश्य से ४० दिन तक अपनी हिरासत में बनाये रखने के बाद ही उन्हे न्यायिक हिरासत में भेजा। नक्सलवाद के समर्थकों का कहना है कि ये गैर क़ानूनी है, और पुलिस इन लोगों पर गुदा द्वार से एक पेग पेट्रोल प्रवेश कराने जैसे अत्याचार कर रही है। पुलिस ने ऐसे किसी भी आरोप का खण्डन किया है, और देश के न्याय और नियम का पूरी तरह से पालन करने का अपना संकल्प दोहराया है।

ये तीनों नक्सली मुम्बई के ही रहने वाले हैं। और इनके कॉलेज के दोस्त बता रहे हैं कि ये लोग ईमानदार और न्यायप्रिय किस्म के लोग हैं, और देशद्रोही या व्यवस्थाद्रोही आदि नहीं है; साथ-साथ अपील भी कर रहे हैं कि पुलिस और प्रशासन इनके मानवाधिकारों की रक्षा करे। ज़ाहिर है पुलिस, प्रशासन और हमारी व्यवस्था के चलाने वालों के पास इनको सुनने-पढ़ने से ज़्यादा ज़रूरी अनेको काम हैं।

पता ये भी चला है कि इनमें से दो व्यक्ति जो ईसाई धर्म से ताल्लुक रखते हैं। १९६० के दशक में दक्षिण अमेरिका में जन्मी लिबरेशन थियॉलजी नाम की नई विचारधारा में विश्वास रखते हैं। यह विचारधारा मानती है कि ईसा का वह कथन भूलना नहीं चाहिये कि सुई के छेद से ऊँट का प्रवेश सम्भव है, किन्तु स्वर्ग के द्वार से अमीरों का प्रवेश नामुमकिन है। इसके मानने वालों ने मार्क्स के साम्यवादी विचारधारा को ईसा के विचार की ही एक बढ़त स्वीकार किया। इन्हे कहीं ज़्यादा सफलता नहीं मिली, दक्षिणी अमरीका में ये मारे गए, यहाँ भी मारे जा रहे हैं। और पोप बेनेडिक्ट ने भी इनकी विचारधारा को नकार की लात मार दी है। पोप की इस बात से अब शंका की कोई गुंजाइश नहीं रही कि ईसा भी नक्सलियों के साथ नहीं है !


शनिवार, 18 अगस्त 2007

' जन गण मन' पर कुछ और बातें...

जन गण मन का अधिनायक क्या जार्ज पंचम है? पर कुछ दिलचस्प टिप्पणियाँ आईं.. और देर तक आती रहीं.. आज सुबह मेल बॉक्स में देबाशीष की एक टिप्पणी दिखाई दी..

"अवधिया जी की दी कड़ी से एक और लेख मिला. "जन गण मन" के बारे में लोगों को जो भ्रम हैं वो ये लेख दूर कर सकता है, जो अड़ियल है उन्हें खैर कोई समझा नहीं सकता। इस लेख में ये भी बताया गया है कि टैगोर के गीत को "वंदे मातरम्" की जगह तरजीह क्यों मिली। मुझे लगता है ये निर्णय एकदम सही था और इससे हमारे देश की सही छवि बनी रही है।"

देबाशीष और अवधिया जी के मिले जुले प्रयासों से खोजा गया यह लेख आर वी स्टिल सिंगिंग फ़ॉर द एम्पायर?' दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अध्यापक प्रदीप कुमार दत्ता ने लिखा है.. इस में कुछ दिलचस्प तथ्य संजोये गए हैं.. जिनमें से निम्न मुख्य हैं..

१९११ के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में जार्ज पंचम को 'विशेष धन्यवाद' इसलिए दिया गया कि उन्होने १९०५ के बंग-भंग के फ़ैसले को वापस लेने में अपनी भूमिका निभाई.. जिस पर कांग्रेस लगातार आंदोलन कर रही थी.. और जिस के विरोध में गुरुदेव भी मुखर रहे थे.. (इसे कांग्रेस का बचाव न समझा जाय..और कांग्रेस के संदर्भ में की गई इष्टदेव जी की टिप्पणी वज़न रखती है)

जन गण मन के बारे में मिथ्या प्रचार के बीज अंग्रेज़ी प्रेस की गलत रिपोर्टिंग के कारण पड़े जिस के अन्दर जनगणमन के अर्थ को समझने के लिए न साहित्यिक रुचि थी और न भाषाई जानकारी..

इस कांग्रेस अधिवेशन के बाद सरकार द्वारा एक सर्कुलर जारी किया गया जिसमें शांतिनिकेतन को सरकारी अफ़सरों की शिक्षा के लिए बिलकुल अनुपयुक्त घोषित किया गया और उन अफ़सरों के विरुद्ध दण्ड देने की भी बात की गई जो अपने बच्चों को शांतिनिकेतन भेजने की भूल करेंगे..

वन्दे मातरम की किसी एक धुन को स्वयं रवीन्द्रनाथ ने संगीतबद्ध किया था..

देश आज़ाद होने और जनगणमन को राष्ट्रगान बनाने के काफ़ी पहले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने इसे राष्ट्रगान की तरह से स्वीकृत किया..

वन्दे मातरम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अधिक लोकप्रिय गीत था.. मगर एक देवी को सम्बोधित होने के कारण मुस्लिम देशवासियों को इस से गुरेज़ था.. और हिन्दू दंगाइयों ने दंगो के दौरान इस गीत का इस्तेमाल भड़काने वाले नारे की तरह किया था.. और ऐसा कर के विभिन्न समुदायों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में उसे अनुपयोगी बना दिया था..

वन्दे मातरम पूरे देश को एक समरस हिन्दू इकाई के रूप में चित्रित करता है.. जबकि जनगणमन देश को भिन्न-भिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समुदायों की महाधारा के रूप में पेश करता है..

इस लेख को खोजने के लिए देबाशीष जी का आभार..

गुरुवार, 16 अगस्त 2007

चित्त जहाँ भयमुक्त हो..

जिस कवि की पहचान उसकी नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित रचना गीतांजलि है.. जिसमें वह परमपिता परमेश्वर की आराधना के गीत गाता है.. उसे उसकी रचनाओं की आध्यात्मिक अन्तर्वस्तु के कारण मनस्वी और आधुनिक ऋषि की तरह जाना जाता है..उसके ऊपर आरोप है कि उसने अपने एक गीत में विधाता, पिता, राजेश्वर के सम्बोधन देकर जार्ज पंचम की स्तुति की है.. जबकि यही सम्बोधन वह अपनी दूसरी रचनाओं में ईश्वर के लिए करता रहा है..

वह गीत आज इस देश का राष्ट्रगीत है.. आरोप लगाने वाले वे हैं जिनकी राजनैतिक धारा का स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना देना तक नहीं रहा.. और उन आरोपों पर विश्वास करने वाले यह तक भूल जाते हैं कि १९११ के कांगेस के उस अधिवेशन के पहले दिन वन्दे मातरम भी गाया गया था.. मेरी नज़र में यह हमारी विचारों की सीमाएँ ही है.. जो हम कवि के विराट कृतित्व को अपने क्षुद्र पैमानो से नापते हैं..

यहाँ कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक और कविता छाप रहा हूँ जो उन्होने १९१२ में लिखी और गीतांजलि में संकलित की.. जैसे जनगणमन में उस अधिनायक को एक जगह माता कहकर सम्बोधित कहने के बावजूद लोगों का प्रबोधन नहीं हुआ.. ऐसे संशयजीवी यहाँ प्रयुक्त पिता को भी उसी संकीर्ण अर्थों में समझेंगे..

पहले देवनागरी लिपि में मूल बंगला.. और फिर अंग्रेज़ी में स्वयं कवि द्वारा किया हुआ अनुवाद..


चित्त जेथा भयशून्य

चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर, ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर

आपन प्रांगणतले दिवस-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ थण्ड क्षूद्र करि।

जेथा वाक्य हृदयेर उतसमूख हते उच्छसिया उठे जेथा निर्वारित स्रोते,

देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रविध चरितार्थाय।

जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-

पौरूषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तूमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।

निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः, भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृत॥


Where the mind is without fear

Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is free

Where the world has not been broken up into fragments

By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth

Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way

Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee

Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.


इसके बाद भी देश की आज़ादी और ईश्वर की सत्ता के सम्बन्ध के विषय में रवीन्द्रनाथ के आशय पर किसी को शुबहा हो तो उस व्यक्ति को किसी भी तरह विश्वास नहीं दिलाया जा सकता..


बुधवार, 15 अगस्त 2007

जन गण मन का अधिनायक क्या जार्ज पंचम है?

जन गण मन का अधिनायक जार्ज पंचम है.. ये भ्रांति काफ़ी आम है.. आज भी संजय तिवारी ने जब अपने चिट्ठे पर 'राष्ट्रगान में यह भाग्यविधाता कौन है' यह सवाल किया तो शिल्पा शर्मा और अनुनाद सिंह ने यही विश्वास व्यक्त किया कि रवीन्द्रबाबू ने यह गान जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा था.. खुद रवीन्द्रनाथ ठाकुर उनको और हम सबको जवाब देने के लिए हमारे बीच नहीं है.. अपने जीते जी भी उन्होने इस पर कभी कोई सफ़ाई पेश नहीं की.. पर उनके द्वारा स्थापित विश्वभारती (शांति निकेतन) के हिन्दी विभाग में कार्य कर चुके महापण्डित व मूर्धन्य विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने १९४८/४९/५० में (पुस्तक में साल का उल्लेख नहीं है) एक लेख लिखा था.. जिसे आप सब के लाभार्थ यहाँ छाप रहा हूँ..



जन गण मन अधिनायक जय हे

देश का राष्ट्रगीत वन्दे मातरम गान हो या जनगणमन अधिनायक, इस प्रश्न पर आज-कल बहुत वाद-विवाद हो रहा है। भारतीय विधान-सभा शीघ्र ही इस बात पर भी विचार करेगी। दोनों गानों के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। मुझे इन बातों पर यहाँ विचार करना अभीष्ट नहीं हैं। प्रन्तु इधर हाल ही में कुछ लोगों ने यह बात उड़ा दी है कि यह जनगण वाला गान कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने सम्राट जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा था और वह पहले पहल सन १९१२ ई० के दिल्ली दरबार में गाया गया था। इस सम्बन्ध में मेरे पास अनेक सज्जनों ने पूछताछ की है। भारत का राष्ट्रगीत चाहे जो भी स्वीकार कर लिया जाय, वह हम लोगों के लिए पूजनीय और वन्दनीय होगा, पर किसी असत्य बात का प्रचार करना अनुचित है। मैंने विश्व भारती संसद (गवर्निंग बॉडी) के सदस्य की हैसियत से अन्य अनेक मित्रों के साथ एक वक्तव्य ३० नवम्बर, १९४८ को दिया था। परन्तु उस वक्तव्य के प्रकाशित होने के बाद भी पत्र आते रहे। इसलिए एक बार फिर मैं साधारण जनता के चित्त से इस भ्रान्त धारणा को दूर करने के उदेश्य से यह वक्तव्य प्रकाशित करा रहा हूँ।

कुछ दिनों पहले तक इस प्रकार के अपप्रचार का क्षेत्र बंगाल तक ही सीमित रहा है। कवि की जीवितावस्था में ही इस प्रकार की कानाफूसी चलने लगी थी। किसी किसी ने उनसे पत्र लिखकर यह जानने का प्रयत्न भी किया था कि इस कानाफूसी में कुछ तथ्य है या बिलकुल निराधार है। कवि ने बड़ी व्यथा के साथ सुधारानी देवी को अपने २३ मार्च,१९३९ के पत्र में लिखा था कि मैंने चतुर्थ या पंचम जार्ज को मानव इतिहास के युग-युग धावित पथिकों के रथयात्रा का चिरसारथी कहा है, इस प्रकार की अपरिमित मूढ़ता का सन्देह जो लोग मेरे विषय में कर सकते हैं, उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्मावमानना है।

रवीन्द्र-साहित्य का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि रवीन्द्रनाथ राजा या राजराजेश्वर किसे कहते हैं। साधारण जनता जिसे ईश्वर या भगवान कहती है उसी को रवीन्द्रनाथ ने राजा, राजेन्द्र, राजराजेश्वर आदि कहा है। उनके राजा, डाकघर, अरूपतन आदि नाटकों में यही राजा अदृश्य पात्र होता है। एक शक्ति कविता में उन्होने इसी राजेन्द्र को सीमाहीन काल का नियन्ता कहा है। एक गान में उन्होने लिखा है कि तेरे स्वामी ने तुझे जो कौड़ी दी है उसे ही तू हँश कर ले ले, हजार-हजार खिंचावों में पड़ा मारा-मारा न फिर। ऐसा हो कि तेरा हृदय जाने कि तेरे राजा हृदय में ही विद्यमान हैं।

जे कड़ि तोर स्वामीर देवा सेइ कड़ि तुइनिस रे हेसे।

लोकेर कथा जिसने काने फिरिसने आट हजार टाने।

जेन रे तोर हृदय जाने हृदय तोर आद्येन राजा॥

जो लोग सरल भाव से विश्वास कर सकते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने राजेश्वर कहकर किसी पंचमजार्ज की स्तुति की है, वे यदि गान की पँक्तियों पर थोड़ा भी विचार करते तो उन्हे अपना भ्रम स्पष्ट हो जाता। कैसे कोई किसी पंचम या षष्ठ जार्ज को

विकट पन्थ उत्थान पतन मय युग युग धावित यात्री

हे चिर सारथि तव रथचक्रे मिखरित पथ दिन रात्री

दारुण विप्लव माँझे, तब शंखध्वनि बाजे

संकट दुख परित्राता (हिन्दी अनुवाद से)

कह सकता है? फिर कोई पंचम या अपंचम जार्ज को किस प्रकार

"घोर अन्धतम विकल निशा भयमूर्छित देश जनों में

जागृत था तव अविचल मंगल नत अनिमिष नयनों में

दुःस्वप्ने आतंके आश्रय तव मृदु अंके,

स्नेहमयी तुम माता।

कहकर उसे जनगण संकट त्राटक कह सकता है? और रवीन्द्रनाथ जैसे मनस्वी कवि से जो लोग आशा करते हैं कि किसी नरपति को वह इतना सम्मान देगा कि सम्पूर्ण भारत उसके चरणों में नतमाथ होगा, उसे क्या कहा जाय!

वस्तुतः यह गाना दिल्ली दरबार में नहीं बल्कि सन १९११ ई० में हुए कांग्रेस के कलकत्ते वाले अधिवेशन में गाया गया था। सन १९१४ ई० में जॉन मुरे ने दि हिस्टारिकल रेकार्ड ऑफ़ इम्पीरियल विज़िट टु इण्डिया, १९११ नाम से दिल्ली दरबार का एक अत्यन्त विशद विवरण प्रकाशित किया था। उसमें इस गान की कहीं चर्चा नहीं है। सन १९१४ में रवीन्द्रनाथ की कीर्ति समूचे विश्व में फैल गई थी। अगर यह गान दिल्ली दरबार में गाया गया होता तो अंग्रेज प्रकाशक ने अवश्य उसका उल्लेख किया होता, क्योंकि इस पुस्तिका का प्रधान उद्देश्य प्रचार ही था।

असल में १९११ के कांग्रेस के मॉडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दम्पती की विरुदावली कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होने इस आशय की रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना भी की थी, पर उन्होने अस्वीकार कर दिया था। कांग्रेस का अधिवेशन जनगणमन गान से हुआ और बाद में सम्राट दम्पती के स्वागत का प्रस्ताव पारित हुआ। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिन्दी गान बंगाली बालक बालिकाओं ने गाया था, यही गान सम्राट की स्तुति में था। सन १९११ के २८ दिसम्बर के बंगाली में कांग्रेस अधिवेशन की रिपोर्ट इस प्रकार छपी थी

The proceedings commnenced witha patriotic song composed by Babu Rabindranath Tagore, the leading poet of Bengal (Janaganamana..) of which we give the English translation (यहाँ अँग्रेज़ी में इस गान का अनुवाद दिया गया था) Then after passing of the loyalty resolution, a Hindi song paying heartfelt homage to their imperial majesties was sung by Bengali boys and girls in chorus.

विदेशी रिपोर्टरों ने दोनों गानों को गलती से रवीन्द्रनाथ लिखित समझ कर उसी तरह की रिपोर्ट छापी थी। इन्ही रिपोर्टों से आज यह भ्रम चल पड़ा है।

मैं स्पष्ट रूप से बता दूँ कि मैं वन्दे मातरम गान का कम भक्त या प्रशंसक नहीं हूँ। यह वक्तव्य इस उद्देश्य से दिया गया है कि असत्य बात प्रचारित न हो और इस महान कवि के सिर व्यर्थ का ऐसा दोषारोप न किया जाय जिसने भारतवर्ष की संस्कृति को सम्पूर्ण जगत में प्रतिष्ठा दिलाई। रवीन्द्र मनस्वी कवि थे, वे कभी किसी विदेशी नरपति की स्तुति में इतना मनोहर गान लिख ही नहीं सकते थे।

-हजारी प्रसाद द्विवेदी


भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'भाषा साहित्य और देश' में संकलित

लोहे का स्वाद

लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिस के मुँह में लगाम है


ये मुहावरा है..? सुभाषित है..? या आर्य सत्य है..?
ये
सुदामा पांडे 'धूमिल' द्वारा लिखी हुई आखिरी पँक्ति है..

१४/१/१९७५ का दिन.. धूमिल भीषण सरदर्द से पीड़ित थे.. दृष्टि एकदम कमज़ोर हो चुकी थी.. छोटे भाई लोकनाथ पांडे से बोले—“ज़रा कागज़ पेंसिल लाओ, देखें-दृष्टि कमज़ोर हो गई है, चश्मा बगैर लिख पाता हूँ या नहीं। कागज़ पेंसिल मँगाकर यह पँक्तियाँ लिखीं..



शब्द किस तरह

कविता बनते हैं

इसे देखो

अक्षरों के बीच गिरे हुए

आदमी को पढ़ो

क्या तुमने सुना कि यह

लोहे की आवाज़ है या

मिट्टी में गिरे हुए खून

का रंग।


लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिस के मुँह में लगाम है।


आज़ादी के साठ साल बाद किस को कितनी आज़ादी मिली यह किससे पूछा जाय यह ज़रा अच्छे से सोचने की ज़रूरत है?

धूमिल को मरे बत्तीस साल हो गए.. मोबाइल फोन है.. इंटरनेट है.. हेमा मालिनी के गाल जैसी सड़क है..शॉपिंग मॉल है..शहरों-कस्बों की रंगत बदल गई है.. पर कुछ तो है जो इन सजावटों के पीछे इस देश में अभी भी नहीं बदला है..?

पढ़िये धूमिल की एक और कविता..


एक कविता: कुछ सूचनाएँ

सबसे अधिक हत्याएँ

समन्वयवादियों ने की।

दार्शनिकों ने

सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा।

भीड़ ने कल बहुत पीटा

उस आदमी को

जिस का मुख ईसा से मिलता था।


वह कोई और महीना था।

जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था,

किंतु इस बार तो

मौसम बिना बरसे ही चला गया

न कहीं घटा घिरी

न बूँद गिरी

फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु

कई प्रतिशत बढ़ गए


कई बौखलाए हुए मेंढक

कुएँ की काई लगी दीवाल पर

चढ़ गए,

और सूरज को धिक्कारने लगे

--व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है

सूरज कितना मजबूर है

कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है।


हवा बुदबुदाती है

बात कई पर्तों से आती है

एक बहुत बारीक पीला कीड़ा

आकाश छू रहा था,

और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर

शौचालयों के सामने

पँक्तिबद्ध खड़े हैं।


आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं

लोग खोई हुई आवाज़ों में

एक दूसरे की सेहत पूछते हैं

और बेहद डर गए हैं।


सब के सब

रोशनी की आँच से

कुछ ऐसे बचते हैं

कि सूरज को पानी से

रचते हैं।


बुद्ध की आँख से खून चू रहा था

नगर के मुख्य चौरस्ते पर

शोकप्रस्ताव पारित हुए,

हिजड़ो ने भाषण दिए

लिंग-बोध पर,

वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं

आत्म-शोध पर

प्रेम में असफल छात्राएँ

अध्यापिकाएँ बन गई हैं

और रिटायर्ड बूढ़े

सर्वोदयी-

आदमी की सबसे अच्छी नस्ल

युद्धों में नष्ट हो गई,

देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य

विद्यालयों में

संक्रामक रोगों से ग्रस्त है


(मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को

सड़को पर

किश्तियों की खोज में

भटकते हुए देखा है)


संघर्ष की मुद्रा में घायल पुरुषार्थ

भीतर ही भीतर

एक निःशब्द विस्फोट से त्रस्त है


पिकनिक से लौटी हुई लड़कियाँ

प्रेम-गीतों से गरारे करती हैं

सबसे अच्छे मस्तिष्क,

आरामकुर्सी पर

चित्त पड़े हैं।


वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'कल सुनना मुझे 'से साभार


मंगलवार, 14 अगस्त 2007

मज़दूर होने की आज़ादी?

कल हमारे स्वतंत्रता दिवस की साठवीं वर्षगाँठ है.. अंग्रेज़ी में Independence Day.. इन शब्दों में ही हमारी स्वतंत्रता की असलियत छिपी है.. हमारा देश न अकेले अपने तंत्र से चल रहा है.. न ही Independent है.. अब पूरा विश्व एक तंत्र की तरह विकसित हो रहा है.. और उसमें अलग अलग देशों की Independence के बजाय inter-dependence की तरफ़ झुकाव बढ़ता जा रहा है.. बावजूद इसके कि अमेरिका अपनी दादागिरी किए जा रहा है, विश्व एक ऐसी इकाई के रूप में विकसित हो रहा है जिसके अलग अलग हिस्सों में भयानक विरूपता है.. मेरे जैसे इस का विरोध करने वालों का विरोध इस वैश्वीकरण से नहीं बल्कि इस विरूपता से है.. जो हमें स्वतंत्र तो नहीं ही छोड़ रही और साथ साथ एक ऐसे तंत्र के हवाले कर रही है जो न सिर्फ़ क्रूर है बल्कि बेढंगा है..

हमारी स्वतंत्रता का दूसरा पहलू आज़ादी है.. वैयक्तिक आज़ादी.. इस विषय पर मैं बाबा मार्क्स को याद करना चाहूँगा.. हम एक समाज की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लोग धीरे धीरे मज़दूर बनते जा रहे हैं.. आई टी सेक्टर में काम करने वाला भी मज़दूर है और एक बड़े अस्पताल में काम करने वाला डॉक्टर भी.. मेरे जैसा एक लेखक भी.. और अनूप जी जैसे अफ़सर भी.. मेरी एक पिछली पोस्ट में भी मैंने बाबा को याद किया तो पोस्ट की मूल बात से तो बड़े भाई ज्ञान जी खूब सहमत हुए मगर बाबा मार्क्स को बिल्कुल नकार दिया.. मेरा ख्याल है कि बाबा को गलत समझा जा रहा है.. बाबा मार्क्स एक कमाल के दिमाग के स्वामी थे.. उनकी बारे में कोई भी राय उनको पढ़ कर लगनी चाहिये न कि उन के समर्थकों को देख-पढ़कर.. आज कल के हमारे देश के कम्यूनिस्टों को देखकर तो कतई कोई राय बाबा के बारे में न बनायें.. नहीं तो ये वैसा ही होगा जैसे कि कोई भक्तों को भड़ैती देखकर भगवान को नकार दें..१८४४ में रचित इकोनोमिक एंड फिलॉसॉफ़िकल मैन्यूस्क्रिप्ट से यह अंश समझने योग्य है..

..मज़दूरी मज़दूर के लिए बाहरी है(आन्तरिक नहीं)-- यानी यह उसके मूल अस्तित्व से नहीं उपजती; ऐसे कि मज़दूर अपने काम में अपने आप को पुनर्स्थापित नहीं करता बल्कि नकारता है, खुश नहीं होता दुख पाता है, स्वतंत्र मानसिक और शारीरिक ऊर्जा विकसित नहीं करता बल्कि अपने हाड़-मांस को दफ़नाता है और दिमाग को नष्ट करता है। इसलिए मज़दूर अपने अस्तित्व को तभी महसूस कर पाता है जब वह काम नहीं कर रहा हो; जब वह काम कर रहा होता है, वह अपने को महसूस नहीं करता। वह जब काम नहीं कर रहा तो चैन से(रिलैक्स्ड) है और जब काम कर रहा है तो राहत नहीं है(तनाव में है)। क्योंकि उसका श्रम उसकी मरज़ी का नहीं है बल्कि थोपा हुआ है। और इसलिए यह किसी ज़रूरत का शमन नहीं बल्कि इस काम से अलग की ज़रूरतो को बुझाने का एक साधन मात्र है। इसका अलगाव वाला गुण इस बात से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि जैसे ही कोई भौतिक या दूसरा दबाव नहीं रहता, कोई भी मज़दूरी नहीं करना चाहता। थोपी हुई मज़दूरी, वह मज़दूरी जिस में आदमी अपने आप से अलगाव महसूस करता है, वह मज़दूरी है जिसमें अपने ही हाड़-मांस की बलि दी जाती है, उसे दफ़नाया जाता है। इस मज़दूरी का बाहरी स्वभाव इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि इस पर मज़दूर का नहीं बल्कि दूसरे का अधिकार होता है.. उस से मज़दूर के अपनेपन की हानि होती है..

अब बताइये कितने लोग हैं जिन पर यह बात लागू नहीं होती..? मगर इसी बेरहम दुनिया में हमारी आज़ादी के भी बीज छिपे हुए हैं.. जैसे ये हमारा ब्लॉग.. ये हम किसी के दबाव में नहीं लिखते.. जो मन आता है लिखते हैं.. कुछ लोगों को टिप्पणियों का दबाव लगता होगा.. मगर आप टिप्पणी करने के लिए किसी को मजबूर नहीं कर सकते.. ये एक ऐसी सामाजिक सीमा है जिसका अतिक्रमण आप किसी आदर्श समाज में भी नहीं कर सकते.. साम्यवाद में भी नहीं.. आप किसी स्त्री/पुरुष से प्रेम करने के लिए तो स्वतंत्र है पर उसे वापस प्रेम करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते.. ये हमारी आज़ादी की सीमा है..

हमारा जीवन का अधिकतर समय ऐसी गतिविधि में जाता है जिसे हम बाध्यता में कर रहे होते हैं.. मज़दूर हो या अफ़सर, एक बाध्यता बनी रहती है.. ज्ञान जी अफ़सरी के ठाठ का आनन्द तो लेते होंगे मगर रोज़ सवेरे-सवेरे उठ कर दफ़्तर जाकर गाड़ियों का संचालन करना उनके आदर्श दिन की रूपरेखा न होगा.. पर ब्लॉग तो वह किसी के निर्देश पर किसी दबाव में नहीं लिखते.. अपनी मौज अपनी आज़ादी से लिखते हैं..

हम सब के जीवन में ऐसी फ़ुरसत और आज़ादी और और आए ऐसी कामना करता हूँ..

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