जन गण मन का अधिनायक जार्ज पंचम है.. ये भ्रांति काफ़ी आम है.. आज भी संजय तिवारी ने जब अपने चिट्ठे पर 'राष्ट्रगान में यह भाग्यविधाता कौन है' यह सवाल किया तो शिल्पा शर्मा और अनुनाद सिंह ने यही विश्वास व्यक्त किया कि रवीन्द्रबाबू ने यह
गान जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा था.. खुद रवीन्द्रनाथ ठाकुर उनको और हम सबको जवाब देने के लिए हमारे बीच नहीं है.. अपने जीते जी भी उन्होने इस पर कभी कोई सफ़ाई पेश नहीं की.. पर उनके द्वारा स्थापित विश्वभारती (शांति निकेतन) के हिन्दी विभाग में कार्य कर चुके महापण्डित व मूर्धन्य विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने १९४८/४९/५० में (पुस्तक में साल का उल्लेख नहीं है) एक लेख लिखा था.. जिसे आप सब के लाभार्थ यहाँ छाप रहा हूँ..
जन गण मन अधिनायक जय हे
देश का राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम’ गान हो या ‘जनगणमन अधिनायक’, इस प्रश्न पर आज-कल बहुत वाद-विवाद हो रहा है। भारतीय विधान-सभा शीघ्र ही इस बात पर भी विचार करेगी। दोनों गानों के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। मुझे इन बातों पर यहाँ विचार करना अभीष्ट नहीं हैं। प्रन्तु इधर हाल ही में कुछ लोगों ने यह बात उड़ा दी है कि यह ‘जनगण’ वाला गान कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने सम्राट जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा था और वह पहले पहल सन १९१२ ई० के दिल्ली दरबार में गाया गया था। इस सम्बन्ध में मेरे पास अनेक सज्जनों ने पूछताछ की है। भारत का राष्ट्रगीत चाहे जो भी स्वीकार कर लिया जाय, वह हम लोगों के लिए पूजनीय और वन्दनीय होगा, पर किसी असत्य बात का प्रचार करना अनुचित है। मैंने विश्व भारती संसद (गवर्निंग बॉडी) के सदस्य की हैसियत से अन्य अनेक मित्रों के साथ एक वक्तव्य ३० नवम्बर, १९४८ को दिया था। परन्तु उस वक्तव्य के प्रकाशित होने के बाद भी पत्र आते रहे। इसलिए एक बार फिर मैं साधारण जनता के चित्त से इस भ्रान्त धारणा को दूर करने के उदेश्य से यह वक्तव्य प्रकाशित करा रहा हूँ।
कुछ दिनों पहले तक इस प्रकार के अपप्रचार का क्षेत्र बंगाल तक ही सीमित रहा है। कवि की जीवितावस्था में ही इस प्रकार की कानाफूसी चलने लगी थी। किसी किसी ने उनसे पत्र लिखकर यह जानने का प्रयत्न भी किया था कि इस कानाफूसी में कुछ तथ्य है या बिलकुल निराधार है। कवि ने बड़ी व्यथा के साथ सुधारानी देवी को अपने २३ मार्च,१९३९ के पत्र में लिखा था कि “मैंने चतुर्थ या पंचम जार्ज को ‘मानव इतिहास के युग-युग धावित पथिकों के रथयात्रा का चिरसारथी’ कहा है, इस प्रकार की अपरिमित मूढ़ता का सन्देह जो लोग मेरे विषय में कर सकते हैं, उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्मावमानना है।”
रवीन्द्र-साहित्य का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि रवीन्द्रनाथ राजा या राजराजेश्वर किसे कहते हैं। साधारण जनता जिसे ईश्वर या भगवान कहती है उसी को रवीन्द्रनाथ ने राजा, राजेन्द्र, राजराजेश्वर आदि कहा है। उनके ‘राजा’, ‘डाकघर’, ‘अरूपतन’ आदि नाटकों में यही राजा अदृश्य पात्र होता है। एक शक्ति कविता में उन्होने इसी ‘राजेन्द्र’ को सीमाहीन काल का नियन्ता कहा है। एक गान में उन्होने लिखा है कि तेरे स्वामी ने तुझे जो कौड़ी दी है उसे ही तू हँश कर ले ले, हजार-हजार खिंचावों में पड़ा मारा-मारा न फिर। ऐसा हो कि तेरा हृदय जाने कि तेरे राजा हृदय में ही विद्यमान हैं।
जे कड़ि तोर स्वामीर देवा सेइ कड़ि तुइनिस रे हेसे।
लोकेर कथा जिसने काने फिरिसने आट हजार टाने।
जेन रे तोर हृदय जाने हृदय तोर आद्येन राजा॥
जो लोग सरल भाव से विश्वास कर सकते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने राजेश्वर कहकर किसी पंचमजार्ज की स्तुति की है, वे यदि गान की पँक्तियों पर थोड़ा भी विचार करते तो उन्हे अपना भ्रम स्पष्ट हो जाता। कैसे कोई किसी पंचम या षष्ठ जार्ज को—
“विकट पन्थ उत्थान पतन मय युग युग धावित यात्री
हे चिर सारथि तव रथचक्रे मिखरित पथ दिन रात्री
दारुण विप्लव माँझे, तब शंखध्वनि बाजे
संकट दुख परित्राता” (हिन्दी अनुवाद से)
कह सकता है? फिर कोई पंचम या अपंचम जार्ज को किस प्रकार—
"घोर अन्धतम विकल निशा भयमूर्छित देश जनों में
जागृत था तव अविचल मंगल नत अनिमिष नयनों में
दुःस्वप्ने आतंके आश्रय तव मृदु अंके,
स्नेहमयी तुम माता।”
कहकर उसे जनगण संकट त्राटक कह सकता है? और रवीन्द्रनाथ जैसे मनस्वी कवि से जो लोग आशा करते हैं कि किसी नरपति को वह इतना सम्मान देगा कि सम्पूर्ण भारत उसके चरणों में ‘नतमाथ’ होगा, उसे क्या कहा जाय!
वस्तुतः यह गाना दिल्ली दरबार में नहीं बल्कि सन १९११ ई० में हुए कांग्रेस के कलकत्ते वाले अधिवेशन में गाया गया था। सन १९१४ ई० में जॉन मुरे ने ‘दि हिस्टारिकल रेकार्ड ऑफ़ इम्पीरियल विज़िट टु इण्डिया, १९११’ नाम से दिल्ली दरबार का एक अत्यन्त विशद विवरण प्रकाशित किया था। उसमें इस गान की कहीं चर्चा नहीं है। सन १९१४ में रवीन्द्रनाथ की कीर्ति समूचे विश्व में फैल गई थी। अगर यह गान दिल्ली दरबार में गाया गया होता तो अंग्रेज प्रकाशक ने अवश्य उसका उल्लेख किया होता, क्योंकि इस पुस्तिका का प्रधान उद्देश्य प्रचार ही था।
असल में १९११ के कांग्रेस के मॉडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दम्पती की विरुदावली कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होने इस आशय की रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना भी की थी, पर उन्होने अस्वीकार कर दिया था। कांग्रेस का अधिवेशन ‘जनगणमन’ गान से हुआ और बाद में सम्राट दम्पती के स्वागत का प्रस्ताव पारित हुआ। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिन्दी गान बंगाली बालक बालिकाओं ने गाया था, यही गान सम्राट की स्तुति में था। सन १९११ के २८ दिसम्बर के ‘बंगाली’ में कांग्रेस अधिवेशन की रिपोर्ट इस प्रकार छपी थी—
The proceedings commnenced witha patriotic song composed by Babu Rabindranath Tagore, the leading poet of Bengal (Janaganamana..) of which we give the English translation (यहाँ अँग्रेज़ी में इस गान का अनुवाद दिया गया था) Then after passing of the loyalty resolution, a Hindi song paying heartfelt homage to their imperial majesties was sung by Bengali boys and girls in chorus.
विदेशी रिपोर्टरों ने दोनों गानों को गलती से रवीन्द्रनाथ लिखित समझ कर उसी तरह की रिपोर्ट छापी थी। इन्ही रिपोर्टों से आज यह भ्रम चल पड़ा है।
मैं स्पष्ट रूप से बता दूँ कि मैं वन्दे मातरम गान का कम भक्त या प्रशंसक नहीं हूँ। यह वक्तव्य इस उद्देश्य से दिया गया है कि असत्य बात प्रचारित न हो और इस महान कवि के सिर व्यर्थ का ऐसा दोषारोप न किया जाय जिसने भारतवर्ष की संस्कृति को सम्पूर्ण जगत में प्रतिष्ठा दिलाई। रवीन्द्र मनस्वी कवि थे, वे कभी किसी विदेशी नरपति की स्तुति में इतना मनोहर गान लिख ही नहीं सकते थे।
-हजारी प्रसाद द्विवेदी
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'भाषा साहित्य और देश' में संकलित