आप लोगों ने आज के अखबार में देखा होगा कि हैदराबाद पुलिस ने एम आई एम के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी की अर्ज़ी पर तस्लीमा नसरीन के खिलाफ़ लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़काने का केस कर स्वीकार कर लिया है... ये केस भी शायद उसी धारा से सम्बन्धित होगा जो वडोदरा में चन्द्रशेखर पर लगाया गया था.. हद है.. जब मायावती काँग्रेस और भाजपा को नागनाथ और साँपनाथ कहती हैं तो क्या गलत कहती हैं..
अंग्रेज़ी के अखबार में खबर है कि हैदराबाद से निकलने वाले उर्दू अखबारों ने एम आई एम की खबर ली है.. खुश मत हो जाइये कि चलिए जनता ने न सही अखबारों ने तो हमलावरों को हमला करने के लिए फटकारा .. मामला उलटा है.. उन्हे फटकारा जा रहा है कि जहाँ जूते और चप्पल मारने चाहिये थे वहाँ फूल फेंक मारे गए.. ओवैसी साब सुरक्षात्मक मुद्रा में हैं.. हद है..
मुम्बई से निकलने वाले उर्दू अखबार इंकलाब में किसी आसिम जलाल ने एक लेख लिखा है.. तस्लीमा तस्लीम नहीं.. (स्वीकार नहीं).. उसमें वे कहते हैं.. चन्द सवालात ऐसे हैं जो तवज्जो तलब(ध्यान देने योग्य) हैं..
१.क्या हैदराबाद में जो कुछ हुआ उस के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ हमलावर ही ज़िम्मेदार हैं.. ?
२. क्या हुकुमत और इन्तज़ामिया (व्यवस्था) पर इस की कोई जवाबदेही आयद नहीं होती?
३. क्या वह जमात (संस्था) इस के लिए ज़िम्मेदार नहीं जिसने तस्लीमा को मदऊ (आमंत्रित) किया था?
४. क्या एक मुतनाज़ा (झगड़ालू) और बदनामे ज़माना मुसन्निफ़ा (लेखिका) की हैदराबाद आमद पर सिक्योरिटी की खातिरख्वाह इन्तज़ामात नहीं किए जाने चाहिये थे?
५. क्या अगर हिन्दोस्तान ने मुसलमानों के मुतालबात(माँगों) के अल्लिरे-ग़म (बर खिलाफ़) तस्लीमा नसरीन को हिन्दोस्तान में क़याम (रहने) की इजाज़त न दी होती यह सब होता? नहीं -
इसके आगे पूरे लेख में इस बात का रोना रोया गया है कि किस तरह से पूरी दुनिया में इस्लाम के खिलाफ़ साजिश हो रही है.. और कैसे मुसलमानों की भावनाओं की अनदेखी की जा रही है.. वही पुराना राग जो कभी सिख अलापते हैं कभी हिन्दू और कभी मुसलमान..
ये जो सवाल पूछे जा रहे हैं.. एक खास मानसिकता की झाँकी देते हैं.. कि अगर हमें आप की किसी बात से तकलीफ़ हो रही है तो जनाब आप सुधर जाइये बजाय इसके कि हम अपने भीतर थोड़ी बरदाश्त पैदा करें.. ये सारे श्रद्धालु लोग इस बात से खफ़ा हैं कि तस्लीमा अच्छी मुसलमान नहीं हैं.. और इस्लाम और मुहम्मद साहिब की शान में अनाप-शनाप लिख-बक रहीं है.. और ये बड़ा कुफ़्र है साहब.. मगर इसका नतीजा क्या होगा.. दोज़ख..!! तस्लीमा के लिए.. मगर ये लोग बेचैन है कि कैसे तस्लीमा को दोज़ख मिल जाय.. वे अपने साथ साथ तस्लीमा के लिए भी जन्नत की सीट बुक करना चाहते हैं.. इसलिए इतना जोशो-खरोश.. सर क़लम कर देने की खुजली..
जहालत के अँधेरे में जीवन बसर कर रहे ये करोड़ो करोड़ो लोग अभी भी क़ुरान और इस्लामी दर्शन को ज्ञान की शुरुआत और अन्त समझते हैं.. किसी भी विषय पर अंतिम निर्णय करने के लिए हर बार मुहम्मद साहिब की नींद हराम करने पहुँच जाते हैं.. उनके दो अलग अलग मौक़ो पर कहे गए बयानों से अपने मतलब के अर्थ निकाल कर वही करते हैं जिसका वे पहले ही मन बना चुके हैं.. इसलिए हार कर उनके मज़हब के दानिशमंद लोग भी उन्हे बार बार कुरान के ही सहारे कुछ राह दिखाने की कोशिश करते हैं.. कि भाई देखो मुहम्म्द साहिब का असली अर्थ क्या था.. पर वे नहीं मानते.. उन दानिशमंदों को अपना तक नहीं मानते.. उर्दू के इन अखबारों में जावेद अख्तर और नुरुल हसन के बयानों को कोई अहमियत नहीं दी जाती.. छपते ही नहीं..
ये सोच उसी जिहादी मानसिकता का एक चपेटा है जिसे मोटे तौर पर आतंकवाद की शक्ल में देखा जाता है.. मगर ये जिहादी ज़ेहनियत वाले मर्दोज़न भूल जाते हैं कि उनके चहेते पैग़म्बर मुहम्मद साहिब ने भी ज़िहाद की दो क़िस्में बताई हैं.. जिहादे अकबर और जिहादे असग़र.. दुनिया में फैली बुराइयों और अन्याय के खिलाफ़ लड़ाई जिहादे असग़र है.. और अपने भीतर के राक्षस को मारने की लड़ाई जिहादे अकबर है.. ध्यान रहे कि असग़र मायने -बहुत छोटा और अकबर मायने-सबसे बड़ा.. मगर ये भाई लोग बड़े काम को हमेशा के लिए मुल्तवी कर के छोटी मोटी लड़ाई किया करते हैं.. और उम्मीद करते हैं कि उनका अल्लाह बड़ा प्रसन्न होगा..
आखिर कैसे बदलाव आएगा इन करोड़ो करोड़ देशवासियों में.. कभी कभी मुझे लगता है कि जिस बाज़ार से मैं इतना खफ़ा और ग़मज़दा रहता हूँ.. उस के मूल्य ही इनकी जहालत के अँधेरे में कुछ रौशनी ला सकते हैं.. भले ही वे नियॉन लाइट्स की भ्रामक रंगीनियाँ ही क्यों न हो.. और वैसे भी सामंतवाद से सीधे साम्यवाद में कूद जाने के सारे शार्टकट फ़ेल हो चुके हैं.. बाबा मार्क्स की उस बात का महत्व बार बार समझ आता है कि साम्यवाद सबसे पहले सबसे विकसित समाज में ही आएगा...
6 टिप्पणियां:
सच तो ये है कि एक खास किस्म का ठसपना काबिज़ है इस वर्ग में, और इनके लिए सबसे ज्यादा सुविधाजनक है, इस्लाम को हर वक्त संकट में दिखाना, दुश्मनों से घिरा दिखाना, जिसके सहारे बड़ी तादाद में लोगों को बहकाया जा रहा है । सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमारे यहां लोगों पर इन ताक़तों का असर बड़ी जल्दी पड़ता है । अल्पसंख्यक समुदाय एक ख़ास किस्म के डर में तहत जीता है, जिसे असुरक्षा की भावना ज्यादा कहा जा सकता है, तस्लीमा या रूशदी जैसों का लेखन फौरन इस्लाम पर हमला क़रार दिया जाता है । मुझे अफसोस है कि इसी बहाने रूशदी या तस्लीमा बेस्ट सेलर बन जाते हैं, उनके लेखन का सही आकलन होने ही नहीं पाता । आज मो0 वज़ीहुद्दीन ने तस्लीमा के लेखन के स्तर पर एक अच्छा लेख लिखा है पढियेगा ।
बिलकुल सही कहा आपने युनूस.. कि तस्लीमा और रुश्दी के लेखन का सही आकलन नहीं हो पाता.. मैंने तस्लीमा को नहीं पढ़ा है.. और मैं उनके लिखे के पक्ष या विपक्ष में नहीं खड़ा हो रहा हूँ.. मुद्दा वो है भी नहीं.. मुद्दा तो एक व्यक्ति की अस्मिता का है.. और सामान्य का़नून व्यवस्था का है.. और दूसरी तरफ़ की मानसिक बेड़ियों का है..
वैसे मैंने सैटेनिक वर्सेज़ के कुछ पन्ने पढ़े थे.. इतना घटिया लेखन.. और इतनी गिरी हुई मानसिकता से लिखा हुआ कि पूछिये मत.. मगर इसके लिए आप एक लेखक का सर क़लम नहीं कर सकते.. जब कि ह्त्यारों को सभ्य समाज सीने से चिपटाए घूम रहा हो..
मैंने सेटानिक वर्सेज छोड़ रुश्दी के लगभग सब उपन्यास पढ़े हैं । कुछ बहुत अच्छे हैं, कुछ अच्छे हैं कुछ ठीक ठाक । तसलीमा का लज्जा पढ़ा है । वह लगभग एक आँकड़ों की पुस्तक है कि कितने मन्दिर तोड़े गए और कितने अन्याय अल्प संख्यकों के साथ हुए । भाषा और शैली के बारे में कुछ कहने लायक नहीं है । ये पुस्तकें विवाद के चलते ही इतनी प्रसिद्ध हुईं हैं। किसी भी चीज पर जब रोक लगाई जाती है तो वह लोगों का कौतूहल जगाती है ।
घुघूती बासूती
ये जेहाद-ए-अकबर और जेहाद-ए-असगर तक आकर ही सब कुछ रुक जाता है....जेहाद-ए-जिन्दगानी की बात नही होती....कोई तो सामने आये जो इन्हे ज़िन्दगी की जेहाद के बारे मे कुछ बताये..
अभय जी, आप अपनी उठाई हुई बात को खुद ही तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी की लेखकीय गुणवत्ता के सवाल में रिड्यूस या अवांतर कर रहे हैं। तस्लीमा नसरीन का वास्तविक महत्त्व यह है कि वो इस्लाम के करीब डेढ शताब्दी के इतिहास में शायद पहली विद्रोही हैं। आपने अगर उनकी किताबें औरत के हक में, द्विखंडिता और आत्मकथा के अन्य खंड पढ़े होते तो आपको पता होता कि तस्लीमा में सच का पैशन किस कदर है। तस्लीमा सचमुच की विद्रोही हैं, इसका एक सबूत यह भी है आपको उनका कोई मुस्लिम प्रशंसक शायद ही कहीं ढूंढ़े से मिल। वैसे उनका गद्य भी लज्जा के बाद क्रमशः बेहतर होता गया है।
सच है, जो भी प्रगतिशीलता की पह्चान मे शुमार हो वह इनको हजम नही होता . क्यो भाई, क्या
आपके दिमाग की चाभी अल्ल्मुहम्मद रसूल ने अल्लाह पाक को कयामत के दिन के लिए सुपुर्द
कर दिया है ? यह रेल, बस, कार, जहाज वगैरह आपको रास आ जाता है लेकिन जेहनी तौर पर
आप जाहिलपने की इन्तेहा दिखा कर ही अपने समाज मे इज्जत पाते है , तो ठीक. लेकिन बाकी
दुनिया को तो चैन से जीने दो, यारो !
आखिर अल्लाह पाक और कुर्रान की दुहाई दे दे कर कब तक अपने आप और अपनी कौम को ठगते
रहोगे ? इन फ़तवो को जारी करके पूरे मुस्लिम समाज को अपना बन्धक समझने का लाइसेन्स
आप आलिम फाजिल को किसने जारी किया .
मुख्य धारा मे आओ भाई, पूरी दुनिया मे बदअमनी फैलाने का हुक्म तुमको शायद अल्लाह ने
तो दिया न होगा.
जिहाद करो,लेकिन इस्लाम को खतरे मे जता कर नही
जिहाद करो,जिहाद ए अकबर करने का जिगरा रखते हो तो
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