शुक्रवार, 25 मई 2012
निहितार्थ
रविवार, 21 नवंबर 2010
गीत का सिमसिमी जादू
मंगलवार, 22 जून 2010
विभाजन के पहले विविधता
शुक्रवार, 28 मई 2010
टाई लगा कर हिन्दी?
रविवार, 4 अप्रैल 2010
एक पागल का प्रलाप

मेरे दोस्त फ़रीद ख़ान ने दो नई कविताएं लिखी हैं, उर्दू में लिखते तो कहा जाता कि कही हैं, लेकिन हिन्दी में हैं इसलिए लिेखी ही हैं।
हिन्दी में कविता मुख्य विधा है फिर भी ऐसी कविताएं विरल हैं।
मुलाहिज़ा फ़र्माएं:
एक पागल का प्रलाप
कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।
वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।
जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।
जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।
पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?
वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?
मेरा ईश्वर
मेरा और मेरे ईश्वर का जन्म एक साथ हुआ था।
हम घरौन्दे बनाते थे,
रेत में हम सुरंग बनाते थे।
वह मुझे धर्म बताता है,
उसकी बात मानता हूँ,
कभी कभी नहीं मानता हूँ।
भीड़ भरे इलाक़े में वह मेरी तावीज़ में सो जाता है,
पर अकेले में मुझे सम्भाल कर घर ले आता है।
मैं सोता हूँ,
रात भर वह जगता है।
उसके भरोसे ही मैं अब तक टिका हूँ, जीवन में तन कर खड़ा हूँ।
गुरुवार, 25 मार्च 2010
हिन्दी पर आलोक
उर्दू-हिन्दी का विवाद बड़ा जटिल मामला है। हिन्दी भाषा और हिन्दी समाज गहरे तौर पर इस विवाद से प्रभावित रहा है। पिछले दिनों इलाहाबाद में लोकभारती में किताबें देखते हुए अचानक शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी की किताब ‘उर्दू का आरम्भिक युग’ दिखाई दी। फ़ारुक़ी साब आज की तारीख़ में उर्दू के सबसे बड़े विद्वानों में से है। मीर तक़ी मीर पर उनके लेख अंग्रेज़ी में पढ़ चुका हूँ। उर्दू-हिन्दी मामले पर उनके विचार हिन्दी में पढ़ने का लोभ-संवरण नहीं कर सका। ख़रीद ली और आनन-फ़ानन पढ़ भी डाली। बहुत ही रिसर्च की मेहनत के बाद लिखे हुए लेख हैं, लेकिन वे जितने सवाल हल करते हैं उतने ही खड़े करते हैं।
बाद में वाक में नीलाभ भाई का एक लेख पढ़ने को मिला जिसमें उन्होने फ़ारुक़ी साब की प्रस्थापनाओं की ख़बर ली है: “फ़ारुक़ी साहब ने इस तहक़ीक़ाती कोशिश का जो मक़सद अपने लिए तय किया, वह इस पेचीदा मसले पर एक नया स्वाधीन और विवेकसम्मत विचार-विमर्श करने की बजाय उसी पिटे-पिटाये तर्क को दोहराना है कि सारी गड़बड़ी –और यहाँ ‘सारी’ पर ज़ोर मेरा है – अंग्रेज़ो की थी और उसके बाद हिन्दी (हिन्दू) अस्मिता के अलमबरदारों की।”
संयोग से तभी बोधिसत्त्व के घर से नया पथ के दो उर्दू-हिन्दी विशेषांक हाथ लग गए, उनमें असग़र वजाहत, अली अहमद फ़ातमी, महेश्वर दयाल, लुत्फ़ुर रहमान, मेहर अफ़शां फ़ारुक़ी, सलिल मिश्र, प्रमोद जोशी, मधु प्रसाद, आलोक राय, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, और रविकांत, के बड़े धारदार लेख पढ़ने को मिले। लेकिन मामले के सुलझाव का सिरा नहीं मिलता था। मुझ भाषा में इस क़दर उलझते देख प्रमोद भाई ने मेरी ओर आलोक राय की 'हिन्दी नेशनलिज़्म' उछाल दी। जिसे पढ़ कर मन तृप्त और गदगद हो गया।
अपनी भाषा और इतिहास और परम्परा के जितने भी माठे हैं, सब को किताब में बड़े प्रेम से सहेजा गया है। न किसी को सोहराया गया और न किसी को बख़्शा गया है। समझ में आता है कि किसी का दामन पाक नहीं है। अफ़सोस ये है कि किताब के पहले संस्करण के दस साल बाद भी इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है। आलोक राय प्रेमचंद के पोते हैं और ऑक्सफ़ोर्ड से शिक्षित हैं। लिहाज़ा हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी तीनों परम्परा में दख़ल रखते हैं। ये तो आलोक जी की सुगठित अंग्रेजी की महिमा है जो किताब कुल १२२ पन्नो की है, लेकिन अगर कोई आम इंसान लिखता तो शायद ३०० पन्ने की किताब बनती। इसका अनुवाद करना कोई हँसी-खेल नहीं मगर हम ने हाथ आज़माया है क्योंकि बातें बेहद ज़रूरी है।
हिन्दी नेशनलिज़्म
(ये किताब के बीच से रैन्डमली उठाया हुआ अपनी पसन्द का एक टुकड़ा है। इसके पहले राय साहब ये बता चुके हैं कि किस तरह से १८३५ में अंग्रेज़ो नें सरकारी कामकाज़ की भाषा फ़ारसी से बदलकर उर्दू कर दी। दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ो की शिक्षा नीति के तहत हिन्दी पाठशालाओं में नागरी में और मदरसों में उर्दू में शिक्षा जारी रही।)
दो समान्तर शिक्षा धाराएं पालने का बेतुकापन एक दुखद पिच तक पहुँच गया क्योंकि सबसे अधिक रोज़गार पैदा करने वाला कोलोनियल तंत्र, नागरी धारा से शिक्षित लोगों के रोज़गार के लिए पूरी तरह से बंद नहीं था। जैसा कि पहले इशारा किया गया है कि निस्बतन इस ज़्यादा देहाती छात्र से अपेक्षित था कि वे ‘मामूली स्थानीय पदों’ के लिए, अक्सर शिक्षा के ही क्षेत्र में, उम्मीदवारी करें – जिस से मसला और उलझता था। १८७७ में, नागरी/हिन्दी की मान्यता के लिए जो आन्दोलन पनप रहा था, उसके लगभग एक अड़ियल जवाब में, १० रुपये मासिक से अधिक की सरकारी नौकरी पाने के लिए उर्दू की जानकारी को कम्पलसरी बना दिया गया। अंग्रेज़ सरकार की शिक्षा नीति और रोज़गार नीति के बीच की विसंगति (कम्पलसरी उर्दू की बात को १८९६ में जाकर वापस लिया गया) से उपजी आर्थिक ज़रूरत या कहें आर्थिक हताशा, उन्नीसवीं सदी के आख़िरी सालो में उत्तर भारतीय भाषाई भेदभाव की राजनीति को समझने का एक ज़रूरी हिस्सा है। भारतेन्दु और उनके समकालीनों के लेखन में, शिक्षित वर्गो में बेरोज़गारी का विषय, बार-बार लौटता रहता है। उन में से एक ने एक कविता भी लिखी (जिसकी तारीख़ भी दिलचस्प है ६ ए. एच., एनो हरिश्चन्द्र यानी १८९१) जिसमें फंसे होने के मूड को बख़ूबी पकड़ा गया है:
लैसन इंकम चुन्गी चन्दा पुलिस अदालत बरसा घाम।
सब के हाथन असन बसन जीवन संसयमय रहत मुदाम।
जो इनहू ते प्रान बचे तो गोलि बोलति आय धड़ाम।
मृत्यु देवता नमस्कार तुम सब प्रकार बस तृप्यन्ताम॥
इनपुट (शिक्षा) और आउटपुट (रोज़गार) के बीच उस वक़्त मौजूद इस विसंगति के बिना, ख़ाली सीरामपुर और फ़ोर्ट विलियम से निकली कही जाने वाली फ़ारसी प्रभावित, संस्कृत और ब्रज से प्रभावित क़िस्मों के भाषाई और शैलीगत फ़र्क़ो से- यहाँ तक कि पतनशील मुग़ल अमीरों से और हिन्दू धार्मिक ग्रंथो के विविध अनुवादकों से भी- वो ज़हरीला असर मुमकिन नहीं था जो जल्द ही सामने आया। अपने और दूसरे के अंग-भंग करने वाले, और अन्ततः गृहयुद्ध और विभाजन तक ले जाने वाले सांस्कृतिक भेदभाव के प्रचण्ड राक्षस की रचना उन समान्तर नर्सरियों में हुई जो कोलोनियल शिक्षा नीति के अनचाही और मासूम पैदाईश थीं। लेकिन वर्नेकुलर विवाद- जैसा कि इस मामले को उस वक़्त नाम दिया गया था- या नागरी/हिन्दी आन्दोलन- केवल संयुक्त प्रांत (नॉर्थ वेस्ट प्राविन्स और अवध) में ही ज़ोर पकड़ सका। और ये बेक़ाबू तब हो चला जब कोलोनियल शिक्षा नीति - और कुछ दूसरे कारणों ने जैसे कि क़स्बों में व्यापारियों और साहूकारों के हाथों में वेल्थ के एकुमुलेशन - ने एक ऐसे इलीट वर्ग को पैदा कर दिया था जो भाषाई भेदभाव के द्वारा मुमकिन हुई, और अपरिहार्य हो गई राजनीति की बाग़डोर सम्हाल सके।
* * *
उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध को, कम से कम उत्तर भारत को, डिफ़ाइन करने वाली –बहुत मक़बूल न भी सही- घटना १८५७ का विद्रोह थी। कोलोनियल इतिहासकारों ने जिसका महत्व ‘सिपाही विद्रोह’ कह कर घटाने की सायास कोशिश की। १९७७ में राम विलास शर्मा की लिखी हुई असरदार किताब ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ एक घनघनाती हुई घोषणा से शुरु होती है: “हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से आरम्भ हुआ।” शर्मा जी के अनुसार, १८५७ के विद्रोहियों द्वारा जारी तमाम एलानों में व्यक्त पापुलर, डेमोक्रेटिक और एन्टी कोलोनियल विचारों से, भारतेन्दु और उनके समकालीनों में अभिव्यक्त चेतना तक, एक अबाध संक्रमण है। इसके बाद वे भारतेन्दु युग से, द्विवेदी जी के प्रभावशाली पत्रिका ‘सरस्वती’ से जुड़े लेखकों की चारित्रिक नेशनलिस्ट और मार्डनिस्ट बेचैनी तक, भी एक सीधा विकास देखते हैं। ये ऊपरी तौर पर विश्वसनीय और एक ख़ुशगवार अवधारणा है, लेकिन इसके साथ कुछ मुश्किलें हैं। १८५७ के विद्रोहियों की वैचारिक प्रेरणा में पापुलर-डेमोक्रेटिक और फ़्यूडल तत्व मिले-जुले थे। ये हैरानी की बात नहीं, और शर्मा जी १८५७ के विद्रोहियों की कोलोनियल नज़रिये से इतिहास में उन पर रखे गए दोषारोपण से उद्धार की ज़बरदस्त वक़ालत करते हैं। लेकिन १८५७ के सदमे के बाद वाली पीढ़ी का उस धरोहर से एक दुविधापूर्ण रिश्ता रहा। निश्चित ही इस धरोहर को ख़ुले तौर पर न अपना पाने के भारी कारण भी थे। फिर भी, ये ग़ौर करने लायक़ बात है कि कुछ दशक बीत जाने के बाद ही १८५७ की याद की जा सकी। नागरी/हिन्दी के आन्दोलन के एक पहलू पर उनके पायनियर स्टडी में क्षितिकंठ मिश्र अनायास कहते हैं कि भारतेन्दु हरिशचन्द्र और उनके समकालीनों में १८५७ को कोई जगह नहीं मिलती।
और जबकि १८५७ के विद्रोहियों को अपनाया नहीं जा सकता था, उस भूचाल के बाद क़ाबिज़ कोलोनियल सत्ता के साथ एक समझौते का रास्ता बनाना ही था। नतीजे में पैदा हुई चेतना एक अन्तरविरोध के तनाव में है, एक कोलोनियल आतंक के सन्दर्भ में एक राष्ट्रीय चेतना को गढ़ने की ज़रूरत के तनाव में है। भारतेन्दु का करियर कुछ अर्थों में इस तनाव का मार्मिक मुज़ाहरा है: अपनी दुनिया की ज़िम्मेदारी लेने को आतुर आज़ाद चेतना की लगाम बार-बार कसी जाती है, कोलोनियल ताक़त की सच्चाई के मुताबिक चलने के लिए मजबूर होती है, चुप रहने के लिए मजबूर होती है। शर्मा जी को सम्मान सहित, मेरा मत है कि कि यही तनाव है जो भारतेन्दु, उनके समकालीनों और उनके उत्तराधिकारियों के भी विकास का निर्धारण करता है। यही वजह है, म्यूटैटिस म्यूटैन्डिस*, कि हिन्दी आन्दोलन के आरम्भिक दौर में बेशक़ जो डेमोक्रेटिक और मार्डन तत्व थे वे समय के साथ संकीर्ण और रिएकशनरी बन गए। १८५७ एक वाटरशेड है, लेकिन राजनीति- सांस्कृतिक राजनीति भी - जो वाटरशेड के इस तरफ़ विकसित हुई वो मुक्ति और दमन, दोनों के क्षण से दाग़ी हुई है। १८५७ को एक ऐसी देहरी या ऐसे मंच, जिससे भारतीय राष्ट्र की आधुनिकता का प्रोजेक्ट शुरु हुआ, के बजाय मेरा सोच में वह एक रसातल की तरह है। रसातल के इस तरफ़ जो राजनीति हुई वो रसातल और उससे पैदा हुए शक्ति शून्यता, दोनों से बराबर प्रभावित थी, और उतनी ही विद्रोहियों के ऐलानों से और यहाँ तक कि सदमे के पहले के संसार की स्मृतियों से भी।
* दूसरे बदलावों को ज़ेहन में रखते हुए
(हालांकि किताब लिखने के बाद गंगा में और तमाम पानी बह गया है, हिन्दी आम लोगों तक पहुँचने की एक कारगर भाषा के रूप बाज़ार में उसके लिए जगह बनाई जा रही है तो दूसरी तरफ़ लण्डन में बैठे भाषाविद, हिन्दवी के इतिहास से नई बातें खोज निकाल रहे हैं। जिन्हे पढ़ने के बाद हिन्दी की उर्दू के कंधे पर सवार होने की बात शक़ के दायरे में जा रही है। )
मंगलवार, 16 मार्च 2010
लैण्डमार्क में हिन्दी वाले
हिन्दी किताबें देखने वाले और अंग्रेज़ी किताबे देखने वाले अलग-अलग लोग हैं और उनका व्यवहार भी अलग है?
इस व्यवहार से जुड़ा क्या एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि भाषा आदमी का व्यवहार तय करने, उसे निखारने में मददगार होती है? भाषा सिर्फ़ भाषा नहीं संस्कारों का भी मसला है?
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
हिन्दी में कौन स्टार है?
मेले में ख़ूब भीड़ थी। हिन्दी किताबों के हॉल नम्बर १२ में तो गज़ब की भीड़ थी। सभी प्रकाशकों के बड़े-बड़े स्टॉल्स थे। राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन के तो इतने बड़े स्टॉल थे कि विमोचन करने और गपियाने के लिए एक अलग जगह निकाली गई थी। ये जगहें हिन्दी के लेखकों और विचारकों के आपस में टकराने का अड्डा भी थीं। मैं भी वहीं-कहीं उस संघर्षण के आस-पास बना हुआ था। तमाम दोस्त -ब्लॉगर और ग़ैर-ब्लॉगर- मिल रहे थे। दोस्तों और किताबों से भरी-भरी ये दुनिया बड़ी भली लग रही थी।
ऐसे ही किसी भले-भले पल में मेरे कान में लाउडस्पीकर से गूँजती आवाज़ आई कि राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी जी पाठकों के साथ, सीधी बातचीत और सुझावों के लिए उपलब्ध हैं। मेरे भीतर एक घंटी सी बजी। मेरे मन में हिन्दी किताबों की दुनिया को लेकर जो बाते हैं, उसे एक सही मंच पर कहने का इस से बेहतर मौक़ा नही मिलेगा। मैं राजकमल के स्टॉल की ओर चल पड़ा। वहाँ अनुराग वत्स पहले से मौजूद थे। अशोक जी एक गोल मेज़ पर दो-चार लोगों से गुफ़्तगू कर रहे थे। मैं बातचीत शुरु होने का इन्तज़ार करने लगा। पाँच-दस मिनट यूँ ही बीत गए तो समझ आया कि मंच जैसा कुछ होगा नहीं, जो भी कहना-सुनना है वो ऐसे ही मेज़ पर आमने-सामने बैठ कर होना है। तो हम ने जा कर अशोक जी की गोल मेज़ के गिर्द कुर्सियाँ सम्हाल लीं।मैं ने उनसे जो कहा उसका सार कुछ ऐसे हो सकता है;
मैंने अशोक जी से सवाल किया कि हिन्दी लेखक का हाल अंग्रेज़ी के लेखक की तुलना में इतना मरियल क्यों है? क्या वह इसलिए है कि वह घटिया लेखक है या इसके कुछ और कारण है? भारत का मध्यवर्ग हिन्दी की किताबें नहीं पढ़ता लेकिन अंग्रेज़ी की किताबें ख़रीदता रहता है। हिन्दी साहित्य की दुनिया में कोई स्टार लेखक क्यों नहीं है?
जबकि हिन्दुस्तान के अंग्रेज़ी साहित्य की ओर देखिये तो तस्वीर एक्दम लग नज़र आती है। अंग्रेज़ी का प्रकाशन उद्योग न सिर्फ़ अपनी किताबों को लेकर एक आक्रामक रणनीति अपनाता है बल्कि अपने लेखको को चढ़ाने में भी जी-जान लगा देता है। अभी हाल के बुकर पुरुस्कार विजेता लेखक अरविन्द अडिगा की मिसाल लीजिये। उनकी किताब को बेहद मामूली गिनता हूँ मैं और दूसरे पढ़ने वाले भी। मगर सच्चाई ये है कि ये राय हमने किताब ख़रीदने कर पढ़ने के बाद क़ायम की है। आज अंग्रेज़ी के परिदृश्य में हाल ऐसा है कि किताब बाद में आती है लेखक पहले ही स्टार हो जाते हैं। प्रकाशक अपनी मार्केटिंग से ऐसा माहौल बना देते है, आम लोगों के मन में ऐसी जिज्ञासा पैदा कर देते हैं कि उनके मन में किताब ख़रीदने की प्रेरणा जाग उठती है।
उनके इस काम में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों तरह का मीडिया उनका ख़ूब सहयोग करता है। वे पुरस्कारों के ज़रिये लेखकों का बाज़ार गर्म करना जानते हैं और साथ ही लगातार अख़बारों में बैस्टसैलर सूची प्रकाशित करके पाठकों को ख़रीदी जा सकने वाली किताबों के प्रति धकेलते भी रहते हैं। जबकि हिन्दी में कोई प्रकाशक ऐसा करने में रुचि नहीं रखता और पु्रस्कारों की तो अलग राजनीति ही चल पड़ी है। उस पर बात करुंगा तो विषयान्तर हो जाएगा।
मैं यह नहीं कहता कि प्रकाशन उद्योग मार्केटिंग की दूसरी हद पर जा कर कचरे को हमारे गले में ठेलने लगे। लेकिन ये भी क्या बात हुई कि बाज़ार की ताक़त का इस्तेमाल अ़च्छी चीज़ के प्रसार के लिए करने से भी क़तरा जायं। पूरा प्रकाशन उद्योग पाठकों के बीच अपना माल बेचने के लिए किसी भी तरह की रणनीतियों के प्रति पूरी तरह उदासीन है। क्यों? क्या अख़बारों और टीवी के ज़रिये लेखकों और उनकी किताबों के प्रति जिज्ञासा पैदा करना इतना दुरूह है? क्यों हिन्दी के पास आज एक भी स्टार लेखक नहीं है?
विनोद कुमार शुक्ल एक अप्रतिम लेखक हैं, उनका लेखन हिन्दी में ही नही विश्व साहित्य में अनोखा है, अद्वितीय है। उदय प्रकाश भी बेहद मक़बूल कथाकार हैं। लेकिन हिन्दी साहित्य की दुनिया के बाहर कोई उनके नाम भी नहीं जानता? जबकि अरविन्द अडिगा के नाम से बच्चों की परीक्षा में सवाल बनाया जा सकता है, क्यों? क्यों नहीं विनोद जी या उनके जैसे दूसरे साहित्यकारों को एक स्टार की बतौर चढ़ाया जा सकता?
मज़े की बात ये है कि अगर हिन्दी के पास कोई स्टार है तो वो एक लेखक नहीं एक आलोचक है- नामवर सिंह। ये बात मैं बिना उनकी आलोचकीय गरिमा पर कोई आक्षेप किए हुए कर रहा हूँ। आलोचक की साहित्य में अपनी जगह है लेकिन वो लेखक के लिए पाठक के हृदय में जो मुहब्बत जो अपनापन होता है, उसका स्थानापन्न कतई नहीं हो सकता।
अशोक जी ने मेरी बात शांति से सुनी और माना कि यह स्थिति का सही चित्रण है। लेकिन उनका कहना था कि हिन्दी में स्टार लेखक नहीं है यह कहना ठीक नहीं; कुँवर नारायण और कृष्णा सोबती भी किसी स्टार से कम नहीं। बैस्ट्सैलर सूची का आइडिया उन्हे अच्छा लगा पर अख़बारो के वर्तमान बाज़ारीकरण की सूरत में उसके आर्थिक पक्ष को पूरा कर पाने में ख़ुद को असमर्थ बताया।
उनसे जिरह करने के बजाय मैंने अपना दूसरा सवाल अशोक जी से इसी आर्थिक पक्ष के मुतल्ल्कि किया। हिन्दी में लेखकों और अनुवादकों को पैसे क्यों नहीं मिलते? जबकि अंग्रेज़ी में ये हाल नहीं है? इस के जवाब में उनका कहना था कि हिन्दी किताबों का अर्थशास्त्र जितनी गुंज़ाइश देता है, उतना वह अवश्य करते हैं। मैं ने उनसे कहा कि पुस्तक मेले में हिन्दी प्रकाशकों ने जितनी जगह ले रखी है और उन पर जिस तरह से जनता टूटी हुई है, उसे देखकर तो यह बिलकुल नहीं लगता कि हिन्दी साहित्य में कोई अर्थशास्त्रीय संकट है।
"मैं जिन-जिन लेखकों को जानता हूँ, उनमें से किसी ने अपनी किताब से पाँच-दस हज़ार से कमाई की बात नहीं बताई। हो सकता है कमलेशवर की किताब ’कितने पाकिस्तान’ या सुरेन्द्र वर्मा की ’मुझे चाँद चाहिये’ से अच्छी रॉयल्टी बनी हो, लेकिन वह उतनी नहीं हो सकती कि वे एक रोमान्टिक्स लिखकर पंकज मिश्रा की तरह जीवन की असुरक्षाओं से मुक्त हो पहाड़ो में विचरण करते रहें। अनुवादक के हाल तो पूछिये ही मत।" यह कहते-कहते अशोक जी का कोई फ़ोन आ गया। कुछ और लोग आ गए, वे उनसे मुख़ातिब हुए। मैं समझ गया मेरा समय समाप्त हुआ। मैं ने उन्हे मेरी बात सुनने का धीरज दिखाने के लिए धन्यवाद किया। और उन्होने खड़े होकर, हाथ मिला कर मुझे विदा किया।
मैं अशोक जी से यह नही कह पाया कि पुस्तकालयों से अलग आम पाठकों के बीच भी किताब का एक बाज़ार होता है, लेकिन हिन्दी प्रकाशक उसके प्रति उदासीन है। वेदप्रकाश शर्मा की किताबों के विज्ञापन आप को बस स्टेशन्स वगैरह पर दिख जायेंगे, लेकिन उदय प्रकाश की नहीं। क्या यह इसलिए है कि वेदप्रकाश पूरी तरह पाठकों पर निर्भर है और उदयप्रकाश के प्रकाशक पुस्तकालयों पर?
हिन्दी राजभाषा है और हर सरकारी संस्थान में हिन्दी की किताबें ख़रीदने का एक बजट होता है, चाहे वो किताबें पढ़ने वाला हो या न हो। इन संस्थाओं में कौन सी किताबें आएंगी और कौन सी नहीं यह फ़ैसला भी ऊँचे राजकीय अधिकारियों द्वारा सिफ़ारिश के आधार पर लिया जाता है। विडम्बना यह है कि हिन्दी साहित्य की पुस्तकालयों की यह ख़रीद ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधा बन गई है। बैठे-बैठे माल बिकता हो तो उस के लिए इधर-उधर दौड़ने की क्या ज़रूरत? जिसके चलते प्रकाशक आम पाठक को न तो किताब बेचने का कोई वितरण-तंत्र विकसित करने के लिए मशक्कत करते हैं और न उनके बीच प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था। की बात यह है कि हिन्दी किताबों की दुकानों के सम्पूर्ण अभाव के बावजूद हिन्दी साहित्य बना हुआ है और पढ़ा भी जा रहा है। मेले में आई भीड़ इसका साफ़ सबूत है।
पुस्तकालयों में किताबों की सिफ़ारिश करने वाले ही सचमुच आज हिन्दी प्रकाशकों के लिए असली स्टार्स हैं| प्रकाशकों के लिए और लेखकों के लिए भी। क्योंकि उनकी राय से ही प्रकाशक तय करते हैं कि किताब छपने योग्य है कि नहीं। तो इस तरह से राजतंत्र में भीतर तक धँसे यही गणमान्य जन लेखकों के भी माई-बाप हो जाते हैं। जबकि वेदप्रकाश शर्मा बिना किसी आलोचक की परवाह किए सीना चौड़ा कर के अपना सस्ता साहित्य छापता जाता है क्योंकि वह पाठको से सीधे सम्पर्क में है।
*अभी हाल में हिन्दी के कवि देवी प्रसाद मिश्र को उनकी डॉक्यूमेन्टरी ’फ़ीमेल न्यूड’ के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला है। इस की कहीं चर्चा नहीं है। एक कवि की अभिव्यक्ति के दूसरे इलाक़े में ऐसी उपलब्धि अंग्रेज़ी की दुनिया में अछूती न रह जाती। देवी भाई से मेरा परिचय इलाहाबाद के दिनों से है। मैं उनकी फ़िल्म अभी देख नहीं सका हूँ, लेकिन कविताओं में वे जितना संतुलन और संयोजन बरतते हैं उस से कल्पना की जा सकती है कि फ़िल्म ज़रूर पुरस्कार योग्य होगी। देवी भाई को मेरी बहुत बधाईयां और शुभकामनाएं।
सोमवार, 13 जुलाई 2009
एक क्रांतिकारी नैतिकता की उम्मीद
उदय प्रकाश से एक क्रांतिकारी नैतिकता की उम्मीद की जा रही है बल्कि कुछ हद तक उन पर थोपी जा रही है। वे इस नैतिकता के थोपे जाने का विरोध करने के बजाय सामने वालों पर कीचड़ उछाल रहे हैं। हिन्दी साहित्य की दुनिया का जवाब नहीं।
उदय जी का सारा साहित्य वामपंथी, प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित है। अब यह एक आम परम्परा बन चुकी है कि किसी भी साम्प्रदायिक, जातिवादी ‘आततायी’ संस्था या व्यक्ति के हाथों पुरस्कार को ठोकर मार दी जाय। अच्छी बात है। ऐसा करने वाले सभी कलावन्तों का मैं नमन करता हूँ। हालांकि ये स्वयं एक ऐसा मुकुट बन चुका है जिस के प्रति एक अभिलाषा पाली जा सकती है – मुझे पुरस्कार मिला मगर मैंने ठोकर मार दी।
मेरा मानना है कि जीवन और साहित्य दो अलग-अलग मामले हैं। उनमें एक साम्य अपेक्षित है पर सहज प्राप्य नहीं। जीवन ठोस और क्रूर है। साहित्य तरल और नरम है। उसमें वह बहुत कुछ व्यक्त हो सकता है जीवन जिस की राह में रोड़े अटका रहा हो। साहित्यकार समाज से हमेशा विद्रोह की मुद्रा में ही रहे यह सम्भव नहीं, वह बहुत सारे समझौते करेगा क्योंकि वह समाज का अंग है। क्रांतिकारी की बात अलग है। वह समझौतापरस्त जीवन को ठोकर मार देता है- मैं नकारता हूँ तुझे- वह एक नए समाज की निर्माण में लग जाता है।
जब तक उनके साहित्य में आपत्तिजनक रंग नहीं घुलने लगे या उनका साहित्य नक़ली और घटिया न हो जाय, हमें शिकायत क्यों होनी चाहिये? और जब होने लगे तो उन्हे बख्शना भी नहीं चाहिये। मैं पिछले दिनों उनकी एक फ़र्जी कविता पर अपनी निराशा व्यक्त कर ही चुका हूँ। इसलिए बहस उनके व्यक्तित्व के बजाय उनके कृतित्व पर होती तो बेहतर था।
दुनिया में आप के अनेको ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें बड़े-बड़े कलाकार अपने निजी जीवन में हिंसक, बदमिज़ाज, चोर यहाँ तक कि बलात्कारी भी हुए हैं। उदय प्रकाश ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। समाज में दूसरों के तुलना में अपने सम्मान और पुरस्कारो को लेकर एक विपन्न भाव से ग्रस्त रहना एक कलाकार का मनोगत दोष है।उदय प्रकाश जैसे सफल और मशहूर लेखक का स्वयं को लांछित और उपेक्षित महसूस करना खेदपूर्ण है पर ठीक है।
उदय जी को हम क्रांतिकारी के तौर पर नहीं जानते, साहित्यकार के बतौर पहचानते हैं। न जाने किन कारणों के दबाव में उन्होने योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेना स्वीकार किया। ग़ैर-साम्प्रदायिक, ग़ैर-जातिवादी होना क्या नैतिकता का सब से बड़ा पैमाना है?
और ये मान लेना भी बचकाना ही होगा कि तथाकथित ग़ैर-साम्प्रदायिक, ग़ैर-जातिवादी दुनिया में सफलता की सभी सीढ़ियाँ सुबह-शाम नैतिकता के गंगाजल से धो कर पवित्र रखी जाती हैं। आज कल के अखबारों और टीवी चैनलों के दौर में कौन अपनी चदरिया के कोरी होने का दावा कर सकता है? दिक़्क़त बस इतनी सी है कि उदय प्रकाश स्वयं दूसरों को गाली देते वक़्त इन्ही मापदण्डो का सहारा लेते हैं।
और एक दुख की बात ये भी है कि हम लोग बेहद असहिष्णु हो चुके हैं। किसी भी छोटी सी ग़लती को हम नज़रअंदाज़ करने को तैयार नहीं। मित्रों ने उदय प्रकाश पर जम कर आक्रमण किया मगर शालीन। पर देख रहा हूँ कि उदय जी आक्रमण से तिलमिलाकर अपनी शालीनता का विस्मरण कर बैठे। और उन्होने उलटा आरोप लगाया है कि उन की आलोचना करने वाले सभी लोग साम्प्रदायिक, जातिवादी और न जाने क्या क्या हैं।
इस तरह की होने वाली बहसों के दौरान मुझे ये बोध हुआ है कि आजकल किसी भी व्यक्ति की इज़्ज़त उतारनी हो तो उसे साम्प्रदायिक और जातिवादी की गाली दे दो। अच्छी बात यह है कि ये मूल्य असभ्यता का प्रतीक माने जा रहे हैं। अफ़सोस की बात ये है कि उदय प्रकाश जैसे साहित्य का शिखर कहे जाने वाले व्यक्ति के इस आरोप के मूल में वही असत्य और अश्लील भाव है जिसकी अभिव्यक्ति पहले माचो-बैंचो में होती थी अब ऐसे हो रही है।
मंगलवार, 11 नवंबर 2008
बनी-बनाई कविता
उनकी एक कविता-एक शहर को छोड़ते हुए आठ कविताएं- एक अन्तराल तक मेरे मानस पर क़ायम रही थी। उस कविता में वैयक्तिक प्रेम और सामाजिक स्वीकृति के बीच के तनाव के ताने-बाने को उन्होने अपनी भाषाई चमत्कार से अच्छे से गढ़ा था। पर उनकी कई अन्य कविताओं में मुझे कभी कोई खास तत्व नहीं नज़र आया। मुझे उन में अनुभूति से अधिक अतिश्योक्ति और एक नाटकीयता ही समझ आई।
आज अचानक अफ़लातून भाई के ब्लॉग पर उदय जी की एक कविता दिखी। जो अफ़लातून भाई ने छापी तो जनवरी २००७ में थी मगर मैं आज ही देख सका। समाजवादी जनपरिषद पर एक नया लेख पढ़ते हुए संयोगवश साइडबार में मैंने उदय जी का नाम देखा .. जिज्ञासा हुई.. क्लिक किया तो पहले कमेंट पढ़ने को मिले।
सभी पाठक कविता से अभिभूत थे.. उदय जी का भी कमेंट था. वे इस इतने आत्मीय और प्रेरणास्पद स्वीकार से गदगद थे। प्रतिक्रियाओं को पढ़ने के बाद कविता पढ़ी..। वैसे तो मैं कविताएं अब नहीं पढ़ता हूँ लेकिन युवावस्था में उदय जी के लिए जो श्रद्धाभाव बना था उसके दबाव में एक बहुत लम्बे समय के बाद कोई कविता पढ़ी.. कविता शुरु होती है ऐसे..
एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ ‘आँसू’ से मिलता-जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार
पहली ही पंक्ति ग़ालिब के मिसरे- 'जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है'- का कठिन रूपान्तर है.. ऐतराज़ रूपान्तर से नहीं है.. अगर कोई छवि, रूपक आप के भाव के सादृश्य हो तो पाठक गप्प से निगल लेने को तैयार रहता है मगर मुझ से गप्प हुआ नहीं क्योंकि यहाँ कोशिश वही चमत्कार खड़ा करने की है। खैर.. आगे पढ़ा..
वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ
तो क्या जो पागल नहीं हुए वे ईमानदार नहीं है..? जिस जमात में स्वयं उदय प्रकाश भी शामिल हैं? और यहाँ पर यह भी याद कर लिया जाय कि ये वही उदय प्रकाश हैं जिन्होने प्रेम और क्रांति के जज़्बों के बीच झूलने वाले और अपनी इसी ईमानदारी के चलते विक्षिप्त हो जाने वाले कवि गोरख पाण्डेय का विद्रूप करते हुए एक कहानी भी रची थी-राम सजीवन की प्रेम कथा। जिसमें गोरख जी कभी कभी सहानूभूति के पात्र मगर अधिकतर हास्यास्पद चित्रित किए गए थे।
‘
ईश्वर ‘ कहते आने लगती है अकसर बारूद की गंध..
इस तरह की पंक्तियाँ बेहद असरदार हैं और उदय जी की उसी चमत्कारिक भाषा का प्रदर्शन है..जो उनकी पहचान है। पाठक इनको पढ़ कर कवि की प्रतिभा के आगे ढेर हो सकता है.. हो जाता है.. मगर क्या यही कविता है? ज़रा इन जुमलों पर भी गौर किया जाय..
सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक
सबसे ज्यादा लोकप्रिय
सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर
सबसे गरीब और सबसे खूंख्वार
सबसे काहिल और सबसे थके - लुटे
सबसे उत्पीड़ित और विकल
ये जुमले अतिश्योक्ति के एक ऐसे संसार की ओर इशारा करते हैं जिसमें अपना दुख ही सबसे बड़ा है.. और दुख देने वाला सबसे खतरनाक। ऐसी मोटी समझ से किसी महीन अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है क्या? मगर हम करते हैं.. क्योंकि उदय जी हिन्दी साहित्य के आकाश के प्रतिभावान सितारे हैं।
भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ
वर्जित है विचार
उदय जी के दिमाग में एक कल्पित तानाशाह है और है एक कल्पित विद्रोही। उस के अन्तरविरोध की तनी हुई रस्सी पर ही उदय जी अपनी सीली हुई कविता की भाषा सुखा रहे हैं। मेरा कहना है कि भई रस्सी है कि नहीं है.. है तो किस हाल में है.. ज़रा बीच-बीच में जाँच लिया जाय। कम से कम इस तरह की पंक्ति लिखने के पहले तो ज़रूर ही..
वह भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है इस दुनिया का
समूचा सूचना संजाल
हो सकता है कि ये वाक्य उन्होने नेट पर लिपियों के इस स्वातंत्र्य के पहले लिखें हों.. तो भी ये वाक्य कवि की 'दृष्टा' और 'जहाँ न रवि पहुँचे' वाली उक्तियों को पछाड़ कर उदय जी की वास्तविकता के आकलन क्षमता के प्रति कोई अनुकूल मत नहीं बनाती।
बहुत काल से हम हिन्दी वाले सत्ता की मुखालफ़त करते हुए अपने समाज की सारी कमियों का ठीकरा सत्ता पर फोड़ते जाते हैं। हम विज्ञान और संज्ञान में पिछड़े हैं क्योंकि हमारे भीतर न तो वैज्ञानिक सोच है और न ही औरतों की छातियों और कूल्हों को देखने से फ़ुरसत। इसका दोष सत्ता को देने से क्या सबब?
ये बात ही हास्यास्पद है कि सत्ता लोगों को औरतों के कूल्हे देखने के लिए मजबूर कर रही है। हिन्दी की तमाम छोटी-छोटी पत्रिकाओं में असहमति के आलेख छापे जाते हैं.. लेकिन लोग उन्हे न खरीद के ‘आज तक’ पर ‘सैफ़ ने करीना की चुम्मी क्यों ली’ देखना ही पसन्द करते हैं। क्या इसमें लोगों का कोई क़सूर नहीं? आगे लिखते हैं..
अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और
पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ
इन वाक्यों में ईमानदारी भी है और अनुभूति भी.. पर इस पर वे ज़्यादा देर टिकते नहीं, वे वापस अपनी हिन्दी कवियों की चिर-परिचित नाटकीयता के रथ पर सवार हो कर किसी दायोनीसियस को फटकारने लगते हैं..
सुनो दायोनीसियस , कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल,एक अपराजेय हत्यारे
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के ,
एक दायोनीसियस प्राचीन काल में यूनान का तानाशाह था। जो खा-खा कर इतना मोटा हो गया था कि बाद में उसे खाना खिलाने के लिए अप्राकृतिक तरीक़े इस्लेमाल किए गए.. आखिरकार वो अपने ही मोटापे में घुट कर मर गया। एक दूसरा दायोसीनियस अशोक के दरबार में यूनानी राजदूत था जिसने बहुत शक्ति और सम्पदा जुटा ली थी। तमाम और दायोनीसियस भी हैं.. ऐसी ही एक मिलते जुलते नाम का मिथकीय चरित्र दायनाइसस (बैकस) भी है जो मद, मदिरा और मस्ती का ग्रीक देवता है। उदय जी किस दायोनीसियस की बात कर रहे हैं? क्या इशारा है ये? किन बाहर से आए लोगों ने भाषा की दुर्गत कर दी है?
हिन्दी भाषा की दुर्गति और इस दायोनीसियस का क्या गूढ़ सम्बन्ध है यह मुझे समझ में नहीं आया। हो सकता है सामान्य समझ के परे होना ही दायोनीसियस जैसे नाम की विशेषता हो। आप को नहीं पता-उदय जी को पता है- वे आप से विद्वान हैं-सीधा निष्कर्ष निकलता है। तमाम विषेषणों से दायोसीनियस का चेहरा भली भाँति लाल कर चुकने के बाद उदय जी आशा के लाल सूरज पर ला कर कविता का अंत कर देते हैं।
लेकिन देखो
हर पाँचवे सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी
और
कहता है - ‘ माँ ! ‘
नया बच्चा पैदा हो रहा है.. और मातृभाषा में बोल रहा है.. उद्धार की उम्मीद बनी हुई है। ये कविता का वैसे ही अंत है जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में एक चेज़ के साथ फ़िल्म का क्लाईमेक्स होता था या तमाम प्रेम कथाओं का अंत हॉलीवुड की प्रेरणा से, आजकल एअरपोर्ट पर होने लगा है।
कविता, कहानी, तमाम कला और कलाकारों को तय करने का मेरा पैमाना उसकी सच्चाई ही रहा है.. बहुत साथियों को उदय जी की कविता सच का आईना लग सकती है मुझे वह अपनी तमाम भाषाई चमचमाहटों के बावजूद अतिश्योक्ति, और थके हुए-घिसे हुए शिल्प का एक प्रपंच लगती है।
एक पहले से तय ढांचा, पहले से तय मुहावरे, पहले से तय निशानों पर वार, पहले से तय बातों के प्रति उत्साह.. लगता नहीं कि कुछ नया लिखा जा रहा है.. नया रचा जा रहा है.. कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि कुछ भी नया पढ़ रहा हूँ। ऐसा लगता है कि बने-बनाए खांचों में फ़िट हुआ जा रहा है। विद्रोह का भी एक बना-बनाया स्पेस है हिन्दी और हिन्दी कविता में। जिसे ओढ़कर आप बड़े कवि बन सकते हैं और पुरुस्कार, सम्मान आदि पा सकते हैं।
शुक्रवार, 1 अगस्त 2008
व्हाट एन आइडिया सर जी!
यह एक विज्ञापन का हिस्सा है और इसी श्रंखला के पहले विज्ञापन में हम देखते हैं कि अभिषेक बच्चन के स्कूल में एक गाँववालेऔर उसकी बेटी को वापस कर दिया जाता है क्योंकि स्कूल की छात्र-क्षमता पूरी हो चुकी है। अभिषेक बाबा, जो शायद एक ‘फ़ादर’ की पोशाक में है, को एक ‘आईडिया’ आता है कि गाँव वालो को फोन के ज़रिये शिक्षा दी जाय! और उसके बाद आप देखते हैं उसका तुरन्त क्रियान्वन:
१) बच्चे एक फोन के आगे बैठ कर ई फ़ोर एलीफ़ैंट बोलना सीख गए हैं..
२) गाँव में आए एक अजनबी को पता बताने के लिए एक बच्चा अंग्रेज़ी में जवाब देता है..
३) और तीसरे में गाँव की एक बच्ची अपने बूढ़े दादा जी को खाना खाने के पहले अंग्रेज़ी में प्रेयर प्रार्थना करने की सभ्यता सिखा देती है..
आजकल ये विज्ञापन हर चैनल पर दिखाई दे रहा है। मुझे इस से कुछ शिकायतें है। पहली तो ये कि यह विज्ञापन शिक्षा को सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ज्ञान तक ही सीमित कर देता है। यह एक लोकप्रिय भ्रांति है जो समाज में पहले से मौजूद है और यह विज्ञापन उसी भ्रांति को और प्रगाढ़ करता है। बावजूद इस स्वीकृति के कि आज की तारीख में आप हिन्दी भाषा के सहारे ज्ञानार्जन करने की ज़िद में बहुत पीछे छूट सकते हैं। हिन्दी और अन्य देशज भाषाओं की ये जो सीमाएं हैं वो इन भाषा की कम और उनकी उपेक्षा से उपजी हुई मुश्किलों के चलते ज़्यादा हैं।
दूसरी यह कि यह विज्ञापन मुझे याद दिलाता है कि हम एक तरह के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के शिकार हैं। जो विविधता को मार रहा है, हर स्तर पर। दुनिया भर में प्रार्थना करने के विविध तरीक़े रहे हैं। सरस्वती शिशु मन्दिर में सिखाए जाने वाला भोजन मंत्र और कुछ भी शुरु करने से पहले मुसलमानो द्वारा कहे जाने वाला बिस्मिल्लाह भी उसी प्रार्थना के स्वरूप रहे हैं। दुख की बात ये है कि ये दोनों ही अब एक खास साम्प्रदायिक रंग से सीमित हो गए हैं। बिस्मिल्लाह का हाल तो ये है कि उस की परम्परा के प्रति निष्ठा निभाने वाला पाकिस्तानी क्रिकेटर इन्ज़माम उल हक़ कुछ भी बोलने के पहले यह मंत्र बोलने की वजह से बराबर उपहास का पात्र बनता रहा।
मगर देखिये यहाँ वही बात अंग्रेज़ी में बोल दिये जाने भर से प्रगतिशील और शिक्षित होने का प्रतीक बन जाती है। क्या ये कॉलोनियल मानसिकता नहीं है? राम-राम और सलाम अलैकुम करने वालों को बैकवर्ड मानने वाले इस देश के तमाम सुशिक्षित समुदाय के तमाम लोग अनजाने में विस्मय बोध के रूप में ‘जीसस क्राइस्ट!’ को और क्षोभ की अभिव्यक्ति के तौर पर ‘फ़ॉर क्राइस्ट्स सेक’ को बोलने में ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते, भले ही वो घोषित रूप से नास्तिक हों। क्यों? ये धर्म का मामला नहीं सांस्कृतिक मामला है। मुझे निजी तौर पर जीसस से कोई परेशानी नहीं बल्कि उन पर मेरी बड़ी श्रद्धा है। पर इस औपनिवेषिक मानस पर आपत्ति है जो अंग्रेज़ी भाषा को ही शिक्षा का पर्याय मान चुका है।
क्या पैंट-शर्ट पहन कर अंग्रेज़ी बोलना प्रगतिशीलता की और धोती या पैजामा पहनते रहना पिछड़ेपन की पहचान है? मैं पिछड़ेपन का समर्थक नहीं हूँ और न ही धोती और पगड़ी पहनते रहने का। लेकिन उस के त्याग भर से ही प्रगति के पावन आगमन की कल्पना कर लेने के चिन्तन से ज़रूर असहमत हूँ। मेरा मानना है कि भाषा या पोशाक बदलने भर से कोई प्रगतिशील नहीं होता और पुराने पोशाक पहनते जाने से ही कोई पिछड़ा नहीं बना रहता।
आखिरी बात ये कि इस विज्ञापन के द्वारा हम सब से यह परोक्ष रूप से स्वीकार कराया जा रहा है कि गाँव में किसी भी तरह की नियोजित शिक्षा असम्भव है। और अगर फोन के आगे बीस बच्चों को बैठ के ए बी सी डी कहलवा दिया जाय तो आप रोमांचित हो कर कह उठिये.. “व्हाट एन आइडिया सर जी!”
शुक्रवार, 25 जनवरी 2008
अरबी, फ़ारसी, उर्दू और नुक़्तेबाज़ी
खैर.. मामला नुक़्तों का है.. मैंने इरफ़ान भाई से जो सवाल किए थे चूँकि उन्होने जवाब नहीं दिए तो मैं ही उसकी चर्चा कर रहा हूँ। मेरे सवाल थे..
क और क़, ज और ज़, फ और फ़, ग और ग़, का तो आप बहुत ख्याल रखते हैं मगर मैंने आप को भी मुहब्बत को मुह़ब्बत और इश्क़ को इ़श्क़ लिखने नहीं देखा.. ? आप को पता है रमदान को ईरान के पूर्व में रमज़ान क्यों कहा जाता है? और व्याकरण व उच्चारण की शुद्धता का बहुत ख्याल रखने वाले अरब लोग पारस को फ़ारस क्यों कहने लगे?
जो उर्दू नहीं जानते वो भी जानते हैं कि एक जाहिल वाला ज होता है और एक ज़हीन वाला ज़ होता है। और कुछ समझदार लोग जानते हैं कौए वाले क के अलावा एक क़ होता है जो हलक़ से बोला जाता है और नुक़्ते में इस्तेमाल होता है। फिर एक ग होता है जो बेगम में होता है और एक ग़ जो ग़म में होता है (इरफ़ान भाई का ग़म इसी बेगम को बेग़म बना देने से शुरु हुआ था)। और फ के अलावा एक फ़ को तो लोग इतना ज़्यादा जान गए हैं कि अब फूल को फ़ूल ही कहते हैं। इस से कम से कम इतना तो पता चलता है कि लोग सही बोलना चाहते हैं.. पर अज्ञान की वजह से (वज़ह नहीं) नहीं बोल पाते।
और उर्दू जानने वाले जानते हैं कि ये जो ज़ होता है चार प्रकार का होता है.. ज़े, ज़ाल, ज़ा, ज़ाद, {एक पाँचवा त्ज़े (या ऐसा ही कुछ उच्चारण वैसे उर्दू वाले उसे भी ज़े ही कहते हैं) भी होता है पर उसका उर्दू में नहीं के बराबर इस्तेमाल है जैसे हिन्दी में लृ का}। जब मैंने फ़ारसी सीखना शुरु किया था तो मैं बहुत दिनों तक इस पहेली से बहुत परेशान रहा कि ये चार तरह के ज़ रखने का क्या मतलब जब कि उच्चारण सब का एक ही है- मेरा मन स्वीकार ही नहीं कर पाता था कि कोई भी समझदार जन अपनी भाषा में इस प्रकार का विधान रखेंगे? इस राज़ को जब मैंने समझा तो बहुत सुकून मिला.. पर राज़ बाद में। पहले ये भी जानना ज़रूरी है कि उर्दू में ह भी दो हैं और अ भी दो और स तीन हैं।
उर्दू एक संकर भाषा है.. उर्दू का फ़ारसी में मतलब होता है छावनी, कैन्टोनमेंट। आज भी लाहौर व काबुल के उस इलाक़े में उर्दू बाज़ार नाम के मोहल्ले मौजूद हैं जहाँ सेना की छावनी होती थी। लाहौर और काबुल में ही क्या अपने दिल्ली में भी एक उर्दू बाज़ार है- लाल किले के सामने, जामा मस्जिद के बाजू में। इन छावनियों में स्थानीय लोगों और छावनी में बसने वाले तुर्की, अरबी, ताजिक, उजबेकी, ईरानी, अफ़्ग़ानी आदि सैनिकों के अन्तर्सम्बन्ध से जो भाषा जन्मी वह आगे चलकर उर्दू कहलाई। उर्दू की लिपि वही जो फ़ारसी की है और फ़ारसी की लिपि वही है जो अरबी की है। पर इनमें फ़रक है.. अरबी में २८ अक्षर हैं, फ़ारसी में ३२ और उर्दू में ३८।
‘ट’ वर्ग की ध्वनियों को और सघोष ध्वनियों (ख,घ,भ आदि) को शामिल करने के लिए उर्दू में इन अक्षरों का इजाफ़ा करना पड़ा, जो फ़ारसी में नहीं हैं। और अरबी के २८ अक्षरों में इन ध्वनियों के अलावा प, च, ग ध्वनियाँ नहीं है। और 'त्ज़' (या जो भी वह है) ध्वनि भी नहीं है जो फ़ारसी के अलावा फ़्रेंच में मिलती है। चूँकि अरबी में प की ध्वनि है ही नहीं इसलिए वे पारस को हमेशा फ़ारस ही पुकारते रहे। और जब अरबों ने पारस पर आक्रमण करके क़ब्ज़ा किया तो अरबी साम्राज्यवाद से प्रभावित लोग स्वयं को भी फ़ारसी कहने लगे। इस्लाम के विस्तार को अरबी साम्राज्यवाद कहना कुछ अटपटा लगेगा कुछ लोगों को मगर इस्लाम के विद्वान असग़र अली इंजीनियर साहब की इस्लाम के विकास की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक व्याख्या से मैंने कुछ ऐसा ही सीखा है।
अब आप कल्पना कीजिये अरबी भाषा की जिसमें ट, ठ, ड, ढ, ड़ नहीं, ख, ग, घ, च, छ, प, फ नहीं, भ नहीं और दो अ, दो क, दो ह, और तीन स .. और चार ज़.. !!!??? अरबी लोग बोलते क्या हैं ल म ह क़ ख़ ग़ और ज़.. बस?
क़, ख़ और ग़ की तरह दूसरा अ और दूसरा ह दोनों हलक़ से बोले जाते हैं। इश्क़ में इ है उसकी सही ध्वनि हलक़ से निकलने वाले ऐ़न से आती है। और मुहब्बत य मुहम्मद में जो ह है वह भी हलक़ से ही निकलने वाली ध्वनि है। हज़ारों में कोई एक ही मुहम्मद के ह को हलक़ से बोलता है। मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने इरफ़ान को भी कभी ऐसे बोलते सुना हो.. लिखते तो वो हमेशा मुह़म्मद ही हैं बिना ह के नीचे नुक़्ता लगाए। क और ग और ख के नीचे नुक़्ता लगाने वाले ह और अ के नीचे नुक़्ता न लगाकर कोई ग़लत कर रहे हैं या किसी अघोषित नियम का पालन.. ये कौन बताएगा?
मगर सवाल उठता है कि न तो स हलक़ से निकल सकता है और न ही ज़। तो इनका रहस्य क्या है? ये माजरा क्या है? असल में.. अरबी में ये सारे अक्षर अलग-अलग ध्वनियों के प्रतिनिधि हैं;
तीन 'स' में से एक 'से' का उच्चारण स नहीं 'थ' है..
सीन का उच्चारण सीन ही है..
और साद के स के उच्चारण में थोड़ा भारी स की ध्वनि है..
चार ज़ में से पहले ज़ाल का उच्चारण दाल है.. जबकि उसके पहले के दाल का उच्चारण डाल है..
दूसरे ज़, ज़े का उच्चारण ज़ ही है..
तीसरे ज़- ज़ाद का उच्चारण दाद है.. थोड़ा भारी द..
और चौथे ज़- ज़ा का उच्चारण ज़ जैसा ही है पर थोड़ा भारी ज़..
किस तरह से भारी यह किसी अरबी बोलने वाले को सुनकर ही समझा जा सकता है। हमारे कान उस ध्वनि को सुनने-समझने के लिए और हमारी ज़बान उसे उच्चारित करने के लिए विकसित नहीं हुई है क्योंकि छै महीन से एक साल की उमर तक शिशु जो ध्वनियाँ सुनता है वो उसके मस्तिष्क में जड़ हो जाती हैं उसके बाद नई ध्वनियाँ बोलना सीखना लगभग असम्भव होता है ऐसा वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है। इसीलिए शायद पारम्परिक ज्ञान में भी मातृ भाषा का इतना महत्व माना गया है।
अरबी ज़बान की ये सारी ध्वनियाँ जब फ़ारस पहुँची तो पारस के लोगों ने ‘न जाने क्यों’ (या बेशर्मी से?!) इन ध्वनियों को ठीक-ठीक नहीं ग्रहण किया और अरबी की ध्वनियों को ग़लत-सलत उच्चारित करना शुरु कर दिया.. जैसे रमदान को रमज़ान।
उर्दू ने भारतीय बोलियों के तमाम ध्वनियों को अपनाने के लिए अरबी-फ़ारसी लिपि में प्रगतिशील परिवर्तन किए पर फ़ारसी द्वारा की गई ग़लतियों को जारी रखा। फ़ारस से पूर्व में, जहाँ-जहाँ फ़ारसी का प्रभाव रहा- अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, और बंगलादेश तक में रमदान को रमज़ान कहा जाता है। अब ये बताइये कि रमदान को रमजान लिखना सही है या रमज़ान.. या दोनों ग़लत?
हिन्दी में इन नुक़्तों की विशेष दिक़्क़त इसलिए होती है कि हिन्दी भाषा में यह ध्वनियाँ पहले से मौजूद नहीं है। हिन्दी या ग़ैर-उर्दू भाषी बच्चा अपनी माँ से नहीं सुनता ये ध्वनियाँ। और जब सुनता है तो उसके शुद्ध (?) उच्चारण को जाँचने के लिए देवनागरी तथा अन्य भारतीय लिपियाँ उसकी कोई मदद नहीं करती।
इसलिए इरफ़ान भाई से फिर गुज़ारिश है कि कोई जानबूझकर बेशर्मी से ग़लती नहीं कर रहा.. अनजाने में भूल हो जाती है। और लोग कोशिश कर रहे हैं एक भाषा को जानने-पहचानने की। ग़लतियाँ हो जाती हैं.. आप उस को बेशर्मी समझ कर खफ़ा मत होइये..
स्पष्टीकरण: मैं न उर्दू ठीक से जानता हूँ न फ़ारसी। बस सीखना चाहता हूँ.. और उसके लिए कोशिश करता रहता हूँ।
रविवार, 16 सितंबर 2007
मारेसि मोहिं कुठाँउ -२
बौद्ध हमारे यहीं से निकले थे। उस समय के वे आर्यसमाजी ही थे। उन्होने भी हमारे भंडार को भरा। हम तो 'देवानां प्रिय' मूर्ख को कहा करते थे। उन्होने पुण्यश्लोक धर्माशोक के साथ यह उपाधि लगाकर इसे पवित्र कर दिया। हम निर्वाण के माने दिये को बिना हवा के बुझना ही जानते थे, उन्होने मोक्ष का अर्थ कर दिया। अवदान का अर्थ परम सात्त्विक दान भी उन्होने किया।
बकौल शेक्सपीयर के जो मेरा धन छीनता है, वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि कुछ कहा नहीं जाता, हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। औरों ने तो गाँव को कुछ न दिया, उन्होने अच्छे-अच्छे शब्द छीन लिए।इसी से कहते हैं कि 'मारेसि मोहिं कुठाँउ'। अच्छे-अच्छे पद तो यूँ सफ़ाई से ले लिए हैं कि इस पुरानी दुकानों का दिवाला निकल गया। लेने के देने पड़ गए।
हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, 'हिंदू' कहते हैं। जैसे परशुराम के भय से क्षत्रियकुमार माता के लहँगों में छिपाए जाते थे वैसे ही विदेशी शब्द हिन्दू की शरण लेनी पड़ती है और आर्यसमाज पुकार-पुकार कर जले पर नमक छिड़कता है कि हैं क्या करते हो? हिन्दू माने काला चोर काफ़िर। अरे भाई कहीं बसने भी दोगे? हमारी मंडलियाँ भले 'सभा' कहलावें 'समाज' नहीं कहला सकतीं। न आर्य रहे और न समाज रहा तो क्या अनार्य कहे और समाज कहें(समाज पशुओं का टोला होता है)? हमारी सभाओं के पति या उपपति(गुस्ताखी माफ़, उपसभापति से मुराद है) हो जावें किन्तु प्रधान या उपप्रधान नहीं कहा सकते। हमारा धर्म वैदिक धर्म नहीं कहलावेगा, उसका नाम रह गया है- सनातन धर्म। हम हवन नहीं कर सकते, होम करते हैं। हमारे संस्कारों की विधि- संस्कार विधि नहीं रही, वह पद्धति (पैर पीटना) रह गई। उनके समाज-मन्दिर होते हैं हमारे सभा-भवन होते हैं।
और तो क्या 'नमस्ते' का वैदिक फ़िक़रा हाथ से गया, चाहे जयरामजी कह लो चाहे जयश्रीकृष्ण, नमस्ते मत कहना। ओंकार बड़ा मांगलिक शब्द है। कहते हैं कि यह पहले-पहल ब्रह्मा का कंठ फाड़ कर निकला था। प्रत्येक मंगल कार्य के आरंभ में हिन्दू श्री गणेशाय नमः कहते हैं। अभी इस बात का श्रीगणेश हुआ है- इस मुहावरे का अर्थ है कि अभी आरंभ हुआ है। एक वैश्य यजमान के यहाँ मृत्यु हो जाने पर पंडित जी गरुड़पुराण की कथा कहने गए। आरम्भ किया श्री गणेशाय नमः। सेठ जी चिल्ला उठे- 'वाह महाराज! हमारे यहाँ तो यह बीत रहा है। और आप कहते हैं कि श्री गणेशाय नमः। माफ़ करो।' तब से चाल चल गई है कि गरुड़पुराण की कथा में श्री गणेशाय नमः नहीं कहते हैं श्री कृष्णाय नमः कहते हैं। उसी तरह सनातनी हिन्दू अब ना बोल सकते हैं ना लिख सकते हैं, संध्या या यज्ञ करने पर ज़ोर नहीं देते। श्रीमद्भागवत की कथा या ब्राह्मण-भोजन पर संतोष करते हैं।
और तो और, आर्यसमाज ने हमें झूठ बोलने पर लाचार किया। यों हम लिल्लाही झूठ न बोलते, पर क्या करें। इश्क़बाज़ी और लड़ाई में सब कुछ ज़ायज़ है। हिरण्यगर्भ के माने सोने की कौंधनी पहने हुए कृष्णचन्द्र करना पड़ता है, 'चत्वारि श्रृंगा' वाले मंत्र का अर्थ मुरली करना पड़ता है, 'अष्टवर्षोऽष्टवर्षो वा' में अष्ट च अष्ट च एकशेष करना पड़ता है। शतपथ ब्राह्मण नामक कपालों की मूर्तियाँ बनाना पड़ता है। नाम तो रह गया हिन्दू। तुम चिढ़ाते हो कि इसके माने होता है काला चोर या काफ़िर।
अब क्या करें? कभी तो इसकी व्युत्पत्ति करते हैं कि हि+इंदु। कभी मेरुतंत्र का सहारा लेते हैं कि ' हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये' यह उमा-महेश्वर संवाद है, कभी सुभाषित के श्लोक 'हिंदवो विंध्यमाविशन' को पुराना कहते हैं और यह उड़ा जाते हैं कि उसी के पहले यवनैरवनिः क्रांता' भी कहा है, कभी महाराज कश्मीर के पुस्तकालय में कालिदास रचित विक्रम महाकाव्य में 'हिन्दूपतिः पाल्यताम' पद प्रथम श्लोक में मानना पड़ता है। इसके लिए महाराज कश्मीर के पुस्तकालय की कल्पना की, जिसका सूचीपत्र डॉक्टर स्टाइन ने बनाया हो, वहाँ पर कालिदास के कल्पित काव्य की कल्पना, कालिदास के विक्रम संवत चलाने वाले विक्रम के यहाँ होने की कल्पना, तथा यवनों के अस्पृष्ट (यवन माने मुसलमान! भला यूनानी नहीं) समय में हिन्दूपद के प्रयोग की कल्पना; कितना दुःख तुम्हारे कारण उठाना पड़ता है।
बाबा दयानन्द ने चरक के एक प्रसिद्ध श्लोक का हवाला दिया कि सोलह वर्ष से कम अवस्था की स्त्री में पच्चीस वर्ष से कम पुरुष का गर्भ रहे तो या तो वह गर्भ में ही मर जाय, या चिरंजीवी न हो या दुर्बलेन्द्रिय जीवे। हम समझ गए कि यह हमारे बालिका विवाह की जड़ कटी नहीं, बालिकारभस पर कुठार चला। अब क्या करें? चरक कोई धर्मग्रंथ तो है नहीं कि जोड़ की दूसरी स्मृति में से दूसरा वाक्य तुर्की-बतुर्की में दे दिया जाय। धर्मग्रंथ नहीं है आयुर्वेद का ग्रंथ हैइसलिए उसके चिरकाल न जीने या दुर्बलेन्द्रिय हो कर जीने की बात का मान भी कुछ अधिक हुआ। यों चाहे मान भी लेते और व्यवहार में मानते ही हैं- पर बाबा दयानन्द ने कहा तो उसकी तरदीद होनी चाहिए। एक मुरादाबादी पंडितजी लिखते हैं कि हमारे परदादा के पुस्तकालय में जो चरक की पोथी है, उसमें पाठ है--
ऊनद्वादशवर्षायामप्राप्तः पंचविशतिम।
लीजिए चरक तो बारह वर्ष पर ही 'एज ऑफ़ कंसेट विल' देता है, बाबा जी क्यों सोलह कहते हैं? चरक की छपी पोथियों में कहीं यह पाठ न मूल में है न पाठान्तरों में। न हुआ करे-- हमारे परदादा की पोथी में तो है।
इसीलिए आर्यसमाज से कहते हैं कि 'मारेसि मोहि कुठाँउ'।
-चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'
साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित और विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित ग्रंथ 'स्तबक' में संकलित
शनिवार, 15 सितंबर 2007
मारेसि मोहिं कुठाँउ: गुलेरी जी का एक लेख

गुलेरी जी का जन्म १८८३ में कांगड़ा में हुआ और ३९ वर्ष की उम्र में ही काशी में वे चल बसे। इस गणित से इस लेख का रचनाकाल बीसवीं सदी के पहले या दूसरे दशक में कभी का होना चाहिये; यानी आज से तकरीबन १०० बरस पहले।
जब कैकेयी ने दशरथ से यह वर माँगा कि राम को बनवास दे दो तब दशरथ तिलमिला उठे, कहने लगे कि चाहे मेरा सिर माँग ले अभी दे दूँगा, किन्तु मुझे राम के विरह से मत मार। गोसाई तुलसीदासजी की भाव भरे शब्दों में राजा ने सिर धुनकर लम्बी साँस भर कर कहा 'मारेसि मोहिं कुठाँउ- मुझे बुरी जगह पर घात किया। ठीक यही शिकायत हमारी आर्यसमाज से है। आर्यसमाज ने भी हमें कुठाँव मारा है, कुश्ती में बुरे पेच से चित पटका है।
हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पड़ा, चाहे और बातों में हमें ठगा गया पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं कतरी गई। राज के और धन के गठकटे यहाँ कई आए पर शब्दों की चोरी (महाभारत के ऋषियों के कमल-नाल की ताँत की चोरी की तरह) किसी ने नहीं की। यही नहीं, जो आया उससे हमने कुछ ले लिया।
पहले हमें काम असुरों से पड़ा, असीरियावालों से। उनके यहाँ असुर शब्द बड़ी शान का था। असुर माने प्राणवाला, ज़बरदस्त। हमारे यहाँ इन्द्र को भी यही उपाधि प्राप्त हुई, पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। फिर काम पड़ा पणियों से- फ़िनीशियन व्यापारियों से। उनसे हमने पण धातु पाया, जिसका अर्थ लेन-देन करना, व्यापार करना है।एक पणि उनमें ऋषि भी हो गया, जो विश्वामित्र के दादा गाधि की कुर्सी के बराबर जा बैठा। कहते हैं कि उसी का पोता पाणिनि था, जो दुनिया को चकराने वाला सर्वाङ्ग सुन्दर व्याकरण हमारे यहाँ बना गया।
पारस के पार्श्वों या पारसियों से काम पड़ा तो वे अपने सूबेदारों की उपाधि क्षत्रप या क्षत्रपावन या महाक्षत्रप हमारे यहाँ रखे गए और गुस्तास्य, विस्तास्य के वज़न के कृश्वाश्व, श्यावश्व, बृहदश्व आदि ऋषियों और राजाओं के नाम दे गए। यूनानी यवनों से काम पड़ा तो वे यवन की स्त्री यवनी तो नहीं, पर यवन की लिपि यवनानी शब्द हमारे व्याकरण को भेंट कर गए। साथ ही बारह राशियाँ मेष, वृष, मिथुन आदि भी यहाँ पहुँचा गए। इन राशियों के ये नाम तो उनकी असली ग्रीक शकलों के नामों के संस्कृत तक में हैं, पुराने ग्रंथकार तो शुद्ध यूनानी नाम आर, तार, जितुम आदि काम में लेते थे। ज्योतिष में यवन सिद्धान्त को आदर से स्थान मिला। वराहमिहिर की पत्नी यवनी रही हो या न रही हो, उसने आदर से कहा है कि म्लेच्छ यवन भी ज्योतिःशास्त्र जानने से ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं। अब चाहे वेल्यूयेबल सिस्टम भी वेद में निकाला जाय पर पुराने हिन्दू कृतघ्न और गुरुमार नहीं थे।
सेल्यूकस निकेटर की कन्या चन्द्रगुप्त मौर्य के ज़माने में आयी, यवन-राजदूतों ने विष्णु के मंदिरों में गरुड़ध्वज बनाए और यवन राजाओं की उपाधि सोटर त्रातर का रूप लेकर हमारे राजाओं के यहाँ आने लगी। गांधार से न केवल दुर्योधन की माँ गान्धारी आई, बालवाली भेड़ों का नाम भी आया। बल्ख से केसर और हींग का नाम बाल्हीक आया। घोड़ों के नाम पारसीक, कांबोज, वनायुज, बाल्हीक आए। शको के हमले हुए तो शाकपार्थिव वैयाकरणों के हाथ लगा और शक्संवत या शाका सर्वसाधारण के। हूण वंक्षु (oxus) नदी के किनारे पर से यहाँ चढ़ आए तो कवियों को नारंगी उपमा मिली कि ताजा मुड़े हुए हूण की ठुड्डी की सी नारंगी। कल-चुरी राजाओं को हूणों की कन्या मिली।
पंजाब में वाहीक नामक जंगली जाति आ जमी तो बेवकूफ़, बौड़म के अर्थ में (गौर्वाहीकः) मुहाविरा चल गया। हाँ, रोमवालों से कोरा व्यापार ही रहा, पर रोमक सिद्धांत ज्योतिष को के कोष में आ गया। पारसी राज्य न रहा पर सोने के सिक्के निष्क और द्रम्भ (दिरहम) और दीनार (डिनारियस) हमारे भण्डार में आ गए। अरबों ने हमारे 'हिंदसे' लिए तो ताजिक, मुजका, इत्थशाल आदि दे भी गए, कश्मीरी कवियों को प्रेम अर्थ में हेवाक दे गए। मुसलमान आए तो सुलतान का सुरत्राण, हमीर का हम्मीर, मुग़ल का मुंगल, मसजिद का मसीतिः, कई शब्द आ गए।
लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान अब एक हो रहा है, हम कहते हैं कि पहले एक था, अब बिखर रहा है। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा वैज्ञानिक परिभाषा का कोष बनाती है। उसी की नाक के नीचे बाबू लक्ष्मीचन्द वैज्ञानिक पुस्तकों में नयी परिभाषा काम में लाते हैं। पिछवाड़े में प्रयाग की विज्ञान परिषद और ही शब्द गढ़ती है। मुसलमान आए तो कौन सी बाबू श्यामसुन्दर की कमिटी बैठी थी कि सुलतान को सुरत्राण कहो और मुग़ल को मुंगल? तो कभी कश्मीरी कवि या गुजराती कवि या राजपूताने के पंडित सब सुरत्राण कहने लग गए। एकता तब थी कि अब?
...
(शेष लेख दूसरी कड़ी में )
साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित और विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित ग्रंथ 'स्तबक' में संकलित
गुरुवार, 30 अगस्त 2007
खिड़की से बाहर जा रहा तालाब..
पिछले दिनों मैंने अपने प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता और उपन्यास अंश को यहाँ पर छापा था.. प्रियंकर भाई जो निश्चित ही उनके लेखन के प्रशंसक है.. उन्होने प्रतिक्रिया की..
वाह-वा !
अब ब्लॉग में एक नई खिड़की खोलिये तथा सोनसी और रघुबर के प्रेम के एक-दो अद्वितीय दृश्य अवश्य दिखाइए .
प्रतीक्षा रहेगी . हाथी पर जाते हीरो की .
तो उनके आग्रह पर आज प्रस्तुत है.. 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' का एक रोचक अंश.. जिसमें रघुवर-सोनसी का प्रेम भी है.. और हाथी पर जाता नहीं तो उसका चिन्तन करता हीरो भी..
दीवार में एक खिड़की रहती थी
(एक अंश)
‘धरती आसमान की तरह लगती थी।’ अंधेरे में सोनसी ने रघुवर प्रसाद के कान में फुसफुसा कर कहा है।
‘क्या हम अपने आप खिड़की से बाहर जा रहे हैं।’
‘नहीं खिड़की का बाहर अन्दर आ रहा है।’
‘तालाब पहले आया फिर तालाब का किनारा आया।’
‘पगडण्डी पहले आई फिर धरती आई।’
‘तारे पहले आए फिर आकाश आया।’
‘पेड़ का हरहराना पहले आया फिर पेड़ आए।’
‘फिर तेज़ हवा आई।’
‘महक आई।’
‘महक के बाद फूल खिले।’
‘साइकिल खिड़की से बाहर नहीं गई खिड़की का बाहर साइकिल तक आ गया।’
‘पर मैं कैरियर में नहीं बैठूँगी। सामने तुम्हारी बाहों के बीच बैठूँगी।’ सोनसी ने कहा।
सुबह कमरा नहाया हुआ लग रहा था। कमरे की हर चीज़ धुली हुई लग रही थी।
रघुवर प्रसाद बिस्तर से सोकर ऐसे उठे जैसे नहा धोकर उठे हैं। साइकिल धुली-पुँछी थी। रघुवर प्रसाद के पहले सोनसी उठ गई थी।
‘तुम कब उठीं?’
‘अभी थोड़ी देर पहले।’
‘घर धुला धुला लग रहा है।’
‘सुबह मैं उठी तो लगा कि तालाब खिड़की से बाहर जा रहा है।’
‘मैं बाद में उठा तो तालाब का किनारा जा रहा था।’
‘पेड़ चले गए। पर पेड़ का हरहराना अभी यहाँ रह गया है।’ सोनसी ने कहा।
‘महक है। किसी कोने में फूल अभी-अभी खिला है।’
‘कोनों में फूल खिले हुए हैं। मैं देख चुकी।’
रघुवर प्रसाद ने कहा, 'मुझे महाविद्यालय जल्दी जाना पड़ेगा साइकिल पहुँचानी है। नहीं तो हाथी पर लादना होगा। साइकिल, कार्यालय में जमा होगी। तुम डब्बे में भात दे देना। मैं वहीं खाऊँगा।’
‘शाम को टेम्पो से लौटोगे?’
‘सुबह से जा रहा हूँ महा विद्यालय खुलने तक इधर उधर घूमता रहूँगा। विभागाध्यक्ष से छुट्टी माँग लूँगा। मिल गई तो टेम्पो से नहीं तो हाथी से।’ रघुवर प्रसाद ने कहा।
'कमरे से पेड़ों का हरहराना चला गया। अब पेड़ों में हरहराने की आवाज़ बाहर से आ रही है।’ सोनसी ने कहा।
‘पेड़ों की हरहराने की आवाज़ में चिड़ियों की चहचहाहट भी बैठी थी। चिड़ियों की चहचहाहट भी साथ चली गई।’ रघुवर प्रसाद ने कहा।
‘पेड़ की आवाज़ के पहले चिड़ियों की चहचहाहट उड़ कर चली गई हो।’ सोनसी ने कहा।
‘पेड़ की आवाज़ की शाखा में चिड़ियों की चहचहाहट बैठी होगी।’
‘अचानक उड़ कर गई।’
‘चौंक कर गई।’
जब मैंने तुम्हारी चादर झटकारी थी तब चौंककर चहचहाहट उड़ी?’
‘हम दोनों एक ही चादर ओढ़े थे।’
‘परन्तु ठण्ड नहीं थी।’
‘परन्तु खिड़की के पल्ले खुले थे।’
‘परन्तु चादर में चिड़ियों की चहचहाहट थी।’
‘परन्तु कुछ यह भी हुआ।’
साइकिल लौटाने रघुवर प्रसाद चले गए। रास्ते में उनका ध्यान चार ताड़ के पेड़ों पर गया। पेड़ वहीं थे, और रघुवर प्रसाद वहाँ महाविद्यालय का इन्तज़ार किए बिना महाविद्यालय जा रहे थे। हो सकता है ताड़ के पेड़ों को इस तरह रघुवरप्रसाद का महाविद्यालय जाना अटपटा लगा हो। ताड़ के पेड़ों ने रघुवर प्रसाद को साइकिल से जाते हुए न भी देखा हो। हाथी से जाते हुए ज़रूर देखा हो। साइकिल सरपट जाती है। हाथी धीरे-धीरे जाता हुआ जाता था। रुककर इन्तज़ार किए नहीं चलते-चलते हाथी पर इन्तज़ार कर रहे हैं। -यह अन्तर होगा। रघुवर प्रसाद जितनी तेज़ी से आगे गए ताड़ के पेड़ उतनी तेज़ी से पीछे छूटते गए। जैसे कैरियर से सामान गिर गया। मालूम नहीं पड़ा और सामान पीछे और पीछे छूटता रहा। --साइकिल से जा रहे हैं का ऐसा उत्साह था। लौटते समय छूटी हुई चीज़ जहाँ छूटी थी, मिलती जाएगी। सड़क एकदम खाली थी। तब भी उन्होने घंटी बजाई। लगातार बजाई कि शायद जो भी सामने था हटता जाए। हो सकता है कि दोनों किनारे के पेड़ पहले सड़क पर रहे हों रघुवर प्रसाद की घंटी बजाने से दोनों किनारे हो गए और सड़क खाली हो गई...
(अगर आपने यह पुस्तक नहीं पढ़ी है.. तो ज़रूर पढ़ें.. हिन्दी में वैसे ही उपन्यास कम लिखे जाते हैं.. और अच्छे तो बस उँगलियों पर गिने जा सकने जितने.. विनोद जी हिन्दी के ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं..उनके शिल्प की कोई बराबरी नहीं.. और उनकी भाषा के रस को अनुवाद कर पाना लगभग असम्भव.. 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उनका सबसे हाल में आया उपन्यास है.. उपन्यास क्या है.. हिन्दी के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान है..)"दीवार में एक खिड़की रहती थी": प्रकाशन वर्ष-२००२, वाणी प्रकाशन, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-२; मूल्य १२५ रुपये
रविवार, 19 अगस्त 2007
रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था
कविता क्या है?.. इस पर लोग लगातार बतियाते ही रहे हैं.. कला मूलतः जीवन की पुनर्रचना है.. जीवन को देख समझ कर उसके बारे में जो राय बनती है वह कला/कविता में झलकती है.. फिर कविता को देख समझ कर जो राय बनती है.. वह आलोचना में झलकती है.. एक तरह से वह जीवन की पुनर्रचना की पुनर्रचना है..
पिछले दिनों मोहल्ले पर छपी एक कविता को लेकर 'कविता क्या है' पर खूब ज़ोर-आज़माईश हुई.. मेरी एक दो कौड़ी की टिप्पणी और उस पर प्रियंकर भाई के बचाव से अविनाश मियाँ दुखी भी हुए..बात आई-गई हुई.. कुछ रोज़ पहले प्रमोदजी ने अपने टाँड़ पर दफ़नाई हुई कुछ पुस्तकों को दुबारा जीवन दिया.. उसमें से एक को मुझे भी पढ़ने की रुचि हुई..अशोक वाजपेयी की कवि कह गया है.. घर ले आ कर पलटा तो उसमें कुछ कवियों पर दिलचस्प विश्लेषण पढ़ने को मिला.. मेरे प्रिय लेखक और कवि विनोद कुमार शुक्ल के बारे में कुछ बेहद हसीन बातें वाजपेयी जी ने लिखी हैं.. जो 'कविता क्या है' पर भी एक राय बनाने में मदद करती हैं.. देखें..
कविता का काम जहाँ चीज़ों के बीच नए सम्बन्ध खोजना है, वहाँ चीज़ों को उनकी स्वतंत्र सत्ता में देखना भी है। अगर विनोद कुमार शुक्ल को 'गरीब का लड़का’ प्रतीकों के बाबा-सूट में कहीं जाने को तैयार दिखाई पड़ता है तो यह एक और प्रमाण उनके उस आग्रह का है जिसमें वह एक चीज़ को ठीक उसी चीज़ के रूप में निषेध करते हैं। चीज़ों और उनके सम्बन्धों के प्रति यह सम्मान ही उन्हे गरीब लड़के को गरीबी का उदाहरण मानने की आसान प्रवृत्ति से मुक्त रखता है। हिन्दी में हर चीज़ को किसी दूसरी चीज़ का प्रतीक मानने की इतनी भयानक रूढ़ि है कि चीज़ों और उनकी स्वतंत्रता के प्रति आदर और संवेदनशीलता का यह पुनर्वास मूल्यवान और कुछ मायनों में ऐतिहासिक है।
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यहाँ पढ़िये 'अतिरिक्त नहीं' में संकलित एक कविता--
रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था
रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था
उसी तरह प्यास के प्रसंग में उसमें
एक छोटे घडे़ में पानी भरा था
बहुत दिन से बचा था के कारण
घड़ा पुराना हो चुका था
पता नहीं क्या था के कारण
कुछ था जो याद नहीं आ रहा था
जो याद आ रहा था वह इतना था
कि उसके प्रसंग भी बहुत थे
आसपास था, दूर था
बीते हुए रात दिन का समय हो चुका था
बीतने वाले रात दिन का समय था
सब तरफ़ जीवन था
संसार के प्रसंग में घड़ा छोटा था
कोई किसी के घर पानी पीने आ सकता है
इसलिए छोटे घड़े के बदले
बड़े घड़े होने का एक प्रसंग था।
'अतिरिक्त नहीं ': वाणी प्रकाशन द्वारा २००० में प्रकाशित; मूल्य १२५/-
अशोक वाजपेयी की पुस्तक 'कवि कह गया है' का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है; मूल्य ५५/-