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शनिवार, 27 नवंबर 2010

अकथ कहानी प्रेम की


क्या इस देश में प्रगति अंग्रेज़ों के साथ आई? क्या अंग्रेज़ों के आने से पहले इस देश में फ़ारसी व संस्कृत का ही वर्चस्व था? क्या देशभाषाओं को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में स्वीकारा जा सकता है? कबीर और तुकाराम अपने परिवेश की उपज थे या समय से पहले पैदा हो गए अनोखे प्राणी? और अगर वे उस रूढ़िबद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था में जकड़े समाज में इतने ही अनोखे थे तो एक बड़ी जनसंख्या के लिए पूज्य कैसे बन गए? क्या सारी की सारी देशज परम्परा एक साज़िश है? भारतीय समाज में सामाजिक वर्चस्व का स्रोत क्या रहा है, तलवार व पैसा या कर्मकाण्ड व रक्तशुद्धि?

मानवाधिकारों की कल्पना क्या इमैन्वल कांट के ही दिमाग़ की उपज थी और कबीर जो बोल-गा रहे थे, वो कोई और ही प्रलाप था? इस देश के आमजन इतने मिट्टी के माधो रहे हैं जो चतुर ब्राह्मणों की साज़िश का लगातार शिकार होते ही जाते हैं?

अपनी परम्परा और विरासत के प्रति थोड़े से भी सजग व्यक्ति को बेचैन कर देने वाले ये सवाल पूछते हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में। कबीर और उनके समय के सहारे इन सारे कठिन सवालों के जवाब तलाशते हुए पुरुषोत्तम जी की किताब महत्वपूर्ण हो जाती है न सिर्फ़ इसलिए कि उन्होने कबीर और उनके समय की एक नई विवेचना की है बल्कि और अधिक इसलिए कि उन्होने तत्कालीन और (समकालीन समाज भी) को देखने-समझने के लिए एक नई नज़र की प्रस्तावना की है।

और जो जवाब विकसित होते हैं वो बने-बनाए निष्कर्षों पर ‘आस्था’ रखने वाले, पोलिटिकली करेक्ट समझ का ही दामन पकड़ कर चलने वाले विद्वानों को बड़े दुष्कर मालूम दे सकते हैं क्योंकि किताब के निष्कर्ष माँग करते हैं कि आँखों पर चढ़े पूर्वाग्रहों और इतिहास की मोटी समझ के चश्मे को निकाल फेंका जाय और एक अधिक परिपक्व और महीन समझ विकसित की जाय।

‘अकथ कहानी प्रेम की’ में कबीर के जीवन, चिंतन, उनकी साधना, और उनके काल से संबधित सभी पहलुओं पर विशद चर्चाएं हैं। किताब में इस बात की भी विवेचना है कि कबीर के नाम से प्रचलित रचनाएं उन्ही की हैं या ब्राह्मणवादी एप्रोप्रिएशन की नीयत से उन पर आरोपित कर दी गई हैं? इस तरह के चिंतन की ख़बर ली गई है जो एक औफ़ीशियल पाठ अपना कर शेष प्रतिकूल पाठों को ख़ारिज़ करने की उस रोमन वृत्ति से चलता है जिसके तहत ईसा के शिष्यों के चालीस संस्मरणों में से चार को छोड़ बाक़ी को दबा दिया गया। इसी वृत्ति की अनुकृति वाली अपनी समझ से इतिहास की चयनित व्याख्या की बीमारी आज भी काफ़ी विद्वानों को अपनी चपेट में लिए हुए है।

फिर पुरुषोत्तम जी कबीर, रैदास, सेन नाई, धन्ना जाट, और पीपा के गुरु माने जाने वाले रामानन्द की ऐतिहासिक गुत्थी को भी सुलझाने में भी वे कुछ दिलचस्प बातें सामने लाते हैं। ‘जात पाँत पूछे नहिं की, हरि को भजे सो हरि को होई’ की घोषणा करने वाले रामानन्द वाक़ई कबीर के गुरु थे भी या उन्हे सिर्फ़ ब्राह्मणवादियों ने कबीर और उनकी मेधावी परम्परा पर अधिकार करने की नीयत से रामानन्द का आविष्कार कर लिया? इस मामले में जो पारम्परिक मान्यता को आधुनिक और आधुनिक निर्मिति को पारम्परिक मानने की उलटबाँसी चली है उसको पुरुषोत्तम जी रामानन्दी और रामानुजी सम्प्रदाय की जातीय सरंचना और उनके आपसी रिश्तों के इतिहास के ज़रिये सीधा और अर्थवान करते हैं।

कबीर की साधना किस तरह से धर्मसत्ता की सुरक्षा के बदले विवेक की सौदेबाज़ी को सीधे चुनौती दे रही थी, और किसी नए धर्म की स्थापना नहीं बल्कि धर्म मात्र की आलोचना कर रही थी, ‘अकथ कहानी प्रेम की’ इस का भी तार्किक उद्‌घाटन करते हैं। बहुत आगे जाकर मार्क्स श्रम की जिस आध्यात्मिक एकता के ज़रिये मनुष्य की मुक्ति की चर्चा करते हैं, उसी श्रम और अध्यात्म के परस्पर संबंध से मुक्ति की सहज साधना कबीर कैसे कर रहे थे, और उसे गाकर बता भी रहे थे, यह भी स्थापित करते हैं।

मगर मुझे अपने सरोकारों की नज़र से, सबसे महत्वपूर्ण उनका दूसरा अध्याय मालूम दिया जिसमें वे देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त की चर्चा करते हैं। आज तक आम धारणा यह है कि आधुनिकता के नाम से जिस व्यक्तिसत्ता की मान्यता, विवेकपूर्णता, और सहिष्णुता के मूल्यबोध की पहचान की जाती है, उसका जन्म योरोप में हुआ और भारत समेत सम्पूर्ण विश्व को वो योरोप की ही देन है। लेकिन इस बात को कम ग़ौर किया गया है कि भारतभूमि मे पन्द्रहवीं सदी में कबीर अपने कविता और साधना के ज़रिये व्यक्ति, समाज, और ब्रह्माण्ड के परस्पर संबन्धों की नई समझ विकसित कर रहे थे और बड़ी संख्या में शिष्य और अनुयायी उनकी चेतना का अनुसरण कर रहे थे; सभी जाति के लोग जाति के पार जाकर साधु और भगत के रूप में पहचाने जा रहे थे; न सिर्फ़ कबीर, नामदेव और रैदास अपनी आधुनिकता को अभिव्यक्ति दे रहे थे बल्कि समाज में उन्हे माना-पूजा जा रहे थे। तो इन्ही के बुनियाद पर पुरुषोत्तम जी सवाल करते हैं कबीर का काल आधुनिक क्यों नहीं था?

१५ वीं सदी में व्यापार के विस्तार, मानवकेन्द्रित चिन्ता, और चर्च के प्रति असंतोष के उदय के आधार पर ही योरोप आधुनिक होने का दावा करता है, हालांकि योरोपीय आधुनिकता के सबसे पहले पैरोकार मार्टिन लूथर, यहूदियों को नदी में डुबा देने की भी बात भी अपने आधुनिक सुर में करते जाते हैं। तो उस से कहीं अधिक विकसित चेतना और मूल्य बोध के होने के बावजूद कबीर और उनका काल माध्यकालिक क्यों कहलाता है?

इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ है जाति का प्रश्न। कबीर के समय को मध्यकाल में गिनते हुए हम मानते रहे हैं कि भारतीय समाज ब्राह्मणों के द्वारा वर्णाश्रम की बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक स्थिर और रूढ़िबद्ध समाज रहता आया है जिसमें ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर बैठकर समाज के हर नियम को बनाता और लागू करता आया है। पुरुषोत्तम जी ऐसी किसी भी धारणा को ब्राह्मणों की फ़ैन्टेसी को सच्चाई मान लेने की भूल बताते हैं। क्योंकि व्यापार का विस्तार होने से दस्तकारी से जुड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ रहा था और वर्णाश्रम व्यवस्था अप्रासंगिक हो रही थी।

मनुस्मृति को मध्यकालीन समाज का अन्तिम विधान मानने वाले विवाद रत्नाकर जैसे ग्रंथ को भूल जाते हैं जिसमें ब्राह्मण की अवध्यता पर इतनी शर्तें लगाई गई हैं कि किसी अपराधी ब्राह्मण का अवध्य होना असंभव हो जाय। मनुमहिमा का तो पुनरोदय हुआ वारेन हेस्टिंगज़ की कृपा से बने ग्यारह ब्राह्मणों की कमेटी के ज़रिये जब उन्होने हिन्दू ला के लिए बीस स्मृतियों में से बस एक मनुस्मृति को छाँटकर बस उसीका खूंटा पकड़ लिया। जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता बहुत पहले पीछे छोड़ आई थी उसे वापस हिन्दुओं की ‘दि बुक’ बना दिया गया और हमारे समाज की बहुवचनात्मकता को केन्द्रीकृत शास्त्रीयता में बदलने का उपक्रम किया गया।

और यह उपक्रम काफ़ी सफल भी रहा है, आज की तारीख़ में मनुस्मृति ही भारतीय परम्परा का पारिभाषिक ग्रंथ बन चुका है। जबकि अत्रिस्मृति जैसे ग्रंथ की कहीं चर्चा भी नहीं है जिसमें ब्राह्मणों की द्स कोटियों में शूद्र ब्राह्मण, म्लेच्छ ब्राह्मण, चांडाल और निषाद ब्राह्मण भी शामिल हैं, और आदिवासी पुरोहितों को भी ब्राह्मण जाति की निचली पायदान में जगह मिल चुकी थी। यह बताता है कि जाति व्यवस्था में ‘नीचे’ से ‘ऊपर’ जाने की सम्भावना बनी रहती आई है और ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ की भी क्योंकि पुरुषोत्तम जी बताते हैं कि तमाम जुलाहों के गोत्रों से पता चलता है कि उनमें वैश्य, तोमर, भट और गौड़ मूल के लोग भी थे/हैं।

‘मध्यकाल’ की जातीय जड़ता में विश्वास करने वाले ऐसे तथ्यों को अनदेखा कर जाते हैं जो बताते हैं कि उज्जयिनी का महान शासक हर्षवर्धन बनिया था, अकबर को चुनौती देने वाला राजा हेमू बक्काल था। उसी रुढ़िबद्ध मध्यकाल में व्यापारजनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, और मज़दूर भी और आदिवासी गोंडो के स्तुति गायक भी जबकि तेलीवंश में जनमे मंत्री बन रहे थे, नाई घर के जनमे सेनापति, वर्णसंकर महामंत्री, वेश्यापुत्र राजा, हीनकुलोत्पन्न राजगुरु, जुलाहे राजकवि, और मल्लाह महामण्डलीक हो रहे थे। सन्यासी और व्यापारी भी महाजनी गतिविधियां चला रहे थे और आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रहे थे। अठाहरवीं सदी के आते-आते ब्राह्मण जाति के लोग सूरत जैसे शहरों की फ़ैक्ट्रियों में मज़दूर, और ईस्ट इंडिया कम्पनी की फ़ौज में सिपाही हो रहे थे।

(असल में तो ब्राह्मणों के इस काल्पनिक वर्चस्व को प्राचीन भारत में भी जगह नहीं थी। महाभारत में अष्टावक्र की प्रसिद्ध कथा आती है जो अपने पिता का बदला लेने जनक के दरबार में जाते हैं जहाँ बन्दी नामक एक विद्वान ने शास्त्रार्थ में उनके पिता और दूसरे कई ब्राह्मणों को हराकर ताल में डुबवा दिया था। यह महाविद्वान बन्दी, एक सूत है, यानी उसी जाति का, जिस जाति से आने वाले अधिरथ ने महारथी कर्ण का पालन-पोषण किया था। ब्राह्मणी वर्चस्व की प्राचीन सच्चाई का एक पहलू यह भी है।)

समझा जाय कि भारतीय समाज कोई गतिहीन, जड़ समाज नहीं था वह एक गतिशील, प्रगतिशील समाज था। भक्ति के लोकवृत्त से ब्राह्मण वर्चस्व को मिली चुनौती के चलते तत्कालीन भारत में वह परिघटना हुई जिसे कुछ विद्वान नौन कास्ट हिन्दूइज़्म कहते हैं। इस लोकवृत्त में कोरी व ब्राह्मण एक ही भगत रूप में पहचाने जाते थे। आप स्वयं सोचें कि रज्जब ,दादू, पीपा, रैदास, कबीर को आप जाति से पहचानते हैं या उनकी भगत वृत्ति से? पुरुषोत्तम जी चेताते हैं कि उस समय के समाज को समझने के लिए पेण्डुलम धर्म से निजात पानी होगी- या तो जाति पर ध्यान ही न देना या सिर्फ़ जाति पर ही ध्यान देना।

तथाकथित मध्यकाल में सामाजिक गतिशीलता की पड़ताल करते हुए वे पाते हैं कि जिस रूप में हम जानते हैं, उस रूप में जाति एक आधुनिक परिघटना है। इसका जन्म भारत और पश्चिमी औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक सम्पर्क के कारण हुआ। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारतीय जाति व्यवस्था का कोई नस्ली पहलू नहीं है। जातीय सवाल में अंग्रेज़ो ने अपनी नस्लवादी समझ जाति व्यवस्था पर थोप दी, उन्हे इसे दूसरी तौर से समझना न आया।

इस सवाल पर मैं शेल्डन पौलाक के एक लम्बे लेख पर इसी ब्लौग पर मैं लिख भी चुका हूँ। जाति व्यवस्था में नस्ल के आधार को सिद्ध करने के लिए २० वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण हुए और जिन के नतीजो ने सिरे से नस्ल की परिकल्पना को पूरी तरह से नकार दिया। जो चीज़ कभी थी ही नहीं पहले उसे आरोपित किया गया, फिर स्थापित किया गया, जिसके फलस्वरूप कुछ लोग मिथ्याभिमान और कुछ मिथ्याग्लानि के शिकार हुए। अम्बेडकर जैसे विद्वान की भी काफ़ी ऊर्जा, जातिवाद के नस्ली पहलू के इस मिथ को ध्वस्त करने में ज़ाया हुई।

अकथ प्रेम की कहानी कबीर के बहाने भारतीय समाज और परम्परा का पुनर्मूल्याकंन है। ऐसी मान्यताओं और विश्वासों पर पुनर्विचार करने के लिए आमंत्रण जिसे हम सच मानकर उस पर अपने सिद्धान्तों की इमारतें खड़ी कर चुके हैं। और उन सारे राजनीतिबाज़ों को चुनौती है जो इन खोखली मान्यताओं की नींव पर अपने निहित स्वार्थों की राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी की रोटी गरम कर रहे हैं।

इन तमाम सारे मुद्दे, जिन पर मैं ख़ुद भी व्यथित होता रहा हूँ, पुरुषोत्तम जी ने विस्तार से चर्चा की है और ठोस साक्ष्यों की मदद से अपनी बात को पुख़्ता तरह से रखा है। देसी परम्परा के स्रोत, संस्कृत साहित्य, हिन्दू धर्म के भीतर की साम्प्रदायिक परम्पराओं की गहरी छानबीन करके अपने पैने तर्कों, मेहनत से जुटाये गए साक्ष्यों और विभिन्न विद्वत परम्पराओं से लाए गए उद्धरणों, लोकगाथाओं और किंवदन्तियों के ज़रिये अपने निष्कर्षों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हैं। निश्चित ही इस किताब को लिखने में उनकी मेधा के साथ-साथ, पूरे जीवन भर की मेहनत लगी हुई है। उनको इस काम के लिए मैं बहुत बधाई देता हूँ।

स्वतंत्र रूप से हिन्दी में चिन्तन की विरल परम्परा है और इस तरह के काम का हिन्दी में बहुधा अकाल रहता है। मेरी उम्मीद है कि हिन्दी में स्वतंत्र चिंतन की परम्परा की उस विरल धारा को जिसे पुरुषोत्तम जी ने आगे बढ़ाया है, अब सघन होकर विकराल रूप धारण करे और पुरुषोत्तम जी के जो वैचारिक विरोधी हैं वो भी इतनी ही मूर्धन्यता और अनुशीलन के सहारे अपने समाज को समझने की तरफ़ आगे ठोस क़दम बढ़ाएं।

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बुधवार, 26 मई 2010

जाति जन गण ना?


मैं इस बारे में उत्सुक हूँ कि भारतीय जनो में विभिन्न जातियों का क्या अनुपात है। लेकिन इस उत्सुकता के आधार पर ही क्या मैं जातिवादी हो जाता हूँ? मेरी उत्सुकता के बीज दूसरे हैं और मुलायमादि यादवों के कारण दूसरे। पर देखा ये जा रहा है कि आम प्रगतिशील व्यक्ति जाति आधारित जनगणना के ख़िलाफ़ मत प्रकट कर रहा है। रिजेक्ट माल पर निखिल आनन्द ने जाति और जनगणना के सम्बन्ध में कुछ मौज़ूं सवाल उठाए हैं और मैं काफ़ी कुछ उनसे सहमत हूँ।

मुम्बई में मेरी गणना हो चुकी है। बी एम सी के विद्यालय के एक शिक्षक जो छुट्टियां मनाने गाँव न जा सके इस कार्य को सम्पन्न करने आए थे। उन्होने बाक़ी सवाल तो किए मगर जाति के बारे में नहीं पूछा। जब मैंने सवाल किया तो उन्होने बताया कि सब कुछ (सारे सरनेम्स) कम्प्यूटर में फ़ीड हैं; यानी तिवारी डालते ही वह मुझे ब्राह्मण की श्रेणी में सरका देगा। वैसे यह प्रणाली ठीक भी है, आम लोग भी ऐसे ही औपरेट करते हैं। रही बात कुमारादि या अन्य 'भ्रामक' सरनेम की तो उन मौक़ो पर उन्हे सवाल पूछने का निर्देश है।

जब धर्म के आधार पर गणना हो सकती है तो जाति के आधार पर क्यों नहीं? ये सही है कि जाति और धर्म के समीकरण में कोई आपसी सम्बन्ध नहीं। इस देश के बहुतायत मुसलमान और ईसाई अधिकतर दलित समाज से धर्म परिवर्तन किए हुए लोग हैं या पूर्व-बौद्ध हैं। बौद्धों के बारे में अम्बेडकर ने स्वयं लिखा है हालांकि लोग उनकी प्रस्थापना को मानने में हिचकते हैं। मुझे उनकी बात तार्किक लगती है। इस नज़रिये से मुसलमान और वे ईसाई जिनके पूर्वज आदिवासी या दलित समाज से थे, आरक्षण के अधिकारी होने चाहिये, मगर राजनीति इस के आड़े आती है।

और ये बात भी सही है कि जाति जान लेने भर से कोई जातिवादी थोड़े हो जाता है। ये तो आँधी के डर से रेत में सर डाले रखने वाली बात है। मैं जाति आधारित जनगणना का समर्थन करता हूँ।

गुरुवार, 2 अगस्त 2007

कितना कुछ बदल गया

कल से मेरे घर के बाथरूम में तोड़फोड़ चालू है.. मेरे बाथरूम में कुछ रिसाव की वजह से मेरे नीचे रहने वाले पड़ोसी परेशान थे.. चार-पाँच महीने पहले भी एक बार उन्होने मुझसे कहा था.. तब मैं कुछ ज़्यादा ही आर्थिक तंगी में था..अब भी हूँ.. और ये तो बनी रहने वाली चीज़ है.. तो मैं तुरंत रिसाव के निदान में नहीं कूद गया.. सोचा कि उन्हे धकेलने देता हूँ.. पर मेरे पड़ोसी इतने भले और शांत आदमी हैं कि उन्होने दुबारा पलट कर तभी गुहार लगाई जब उनके भी नीचे रहने वाले रिसाव की शिकायत करने लगे.. और उसके लिए मेरे पड़ोसी को तंग करने लगे.. खैर.. मैंने दो रोज़ पहले उनके घर की हालत देखी और अपराध बोध को प्राप्त हुआ.. हाल बहुत बुरा था.. खैर काम शुरु कराया गया..

दो मज़दूर काम पर लग गए.. एक छेनी ले के तोड़ता रहा.. दूसरा टूटे हुए मलबे को नीचे ले जा कर फेंकता था.. बात करने पर पता चला कि दोनों लोग बोधि भाई के ज़िले भदोहीं के हैं..और सुरियावां के पास के रहने वाले हैं.. जिसकी चर्चा ज्ञान जी भी करते रहे हैं पिछले दिनों.. जान के अच्छा लगा.. वे लोग काम करते रहे.. मैं अन्दर के कमरे में बैठ कर कुछ काम करता रहा.. थोड़ी देर बाद बाहर से कुछ अनजानी आवाज़ आने लगीं.. तो बाहर निकल के देखा तो गलियारे में एक पुलिस वाला खड़ा हुआ मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देख रहा है.. एक पल को मेरी समझ में कुछ नहीं आया.. कि ये क्या माज़रा है..

पता चला कि मज़दूर जिस जगह जा कर मलबा फेंक रहा था.. वो जगह आरे के अन्दर एक आदिवासी की खेत का किनारा था.. अपनी खेती बाड़ी की ज़मीन और अपने प्राकृतिक जीवन को पूरी तरह से नागरीय सभ्यता द्वारा घेर लिए जाने और लगातार उसके उगले हुए कचरे-मलबे से तंग आ चुके आदिवासी स्त्री ने कल के दिन हिंसा के ज़रिये अपने असंतोष की अभिव्यक्ति की.. और मेरे घर का मलबा फेंकने वाले मज़दूर को पहले जी भर के डंडों से पीटा.. मेरा ख्याल है कि उसने भी कुछ ज़बानदराज़ी ज़रूर की होगी.. और उसके बाद उसे बलपूर्वक आरे दुग्ध कॉलोनी के भीतर स्थित पुलिस थाने ले गई.. जहाँ शिकायत दर्ज किए जाने के नतीजतन पुलिस वाला ठेकेदार की तलाश में मेरे घर तक आया..मैंने पुलिस वाले को बिठाया.. चाय पिलाई और ठेकेदार को फोन करके बुलवा लिया.. उसके आने पर मैंने उसे सुझाव दिया कि वह आदिवासी महिला से माफ़ी माँग ले और उसका गुस्सा ठण्डा करने के लिए एक ऐसा बोर्ड बनाने की पेशकश करे जिस पर लिखा हो कि खबरदार!! यहाँ मलबा-कचरा फेंकने वाले के खिलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी..रामहर्ष ने मेरी बात सपाट चेहरे से सुनी और अच्छा भर कह के पुलिस वाले को देखता रहा.. मेरा मन था थाने जाने का पर पुलिस वाले ने कहा.. आप की ज़रूरत होगी तो साब आप को बुलाएंगे..

मैंने बेचैन हो कर थोड़ी में एक दो बार अपने ठेकेदार रामहर्ष को फोन किया..पर तब तक सरकारी दफ़्तरों के बाहर बैठ कर अपनी बारी आने का जो इंतज़ार किया जाता है.. वह चालू था.. फिर राम हर्ष का फोन आया कि आप को आना होगा.. २४०० रुपये का फ़ाइन लगाया है.. बिना आप के आए काम नहीं चलेगा.. मैं तुरंत चल पड़ा.. आरे का थाना भी आरे की ही तरह खुला और हवादार.. न कोई भीड़ भड़क्का.. न शोरोगुल..बस चार छै खाकी वर्दी वाले.. मेरा ठेकेदार रामहर्ष और मज़दूर दोनों अन्दर के कमरे में अपराधी भाव से बैठे थे.. मैंने देखा मज़दूर की आँखें तनाव से भैंगी हो गई थीं.. सुबह ऐसा नहीं था.. मैने अपने घर आने वाले पुलिस वाले से पूछा कि क्या करना है.. बताया गया कि अभी २४०० रुपये जमा करके अगले दिन दोनों ख़तावारों को अदालत में पेश होना होगा..

हिन्दुस्तान में आजकल न्याय को जो स्वरूप देख रहा हूँ.. उसे सोच कर मैं घबरा गया.. मज़दूर तो पूरी तरह रामआसरे है ही.. रामहर्ष भी कोई धन्नासेठ ठेकेदार नहीं है.. एक पुताई मज़दूर जो अधिक पैसा कमाने के लिए अपने के बढ़ई मित्र के साथ मिल कर ठेकेदारी का काम लेने लगा है.. मेरे घर के तोड़फोड़ आदि के सारे काम वही करता रहा है.. मगर कोई बड़ी कमाई वाले ठेके आज तक उस की झोली में नहीं गिरे हैं..अपने लिए एक मोटरसाइकिल तक नहीं जुटा पाया है..

मैंने पूछा कि इस जुर्माने का क्या कोई हिस्सा आदिवासी औरत को जाएगा.. बताया गया कि ये सरकारी खज़ाने में जमा किए जाने के लिए है.. मैने रिरिया कर कहा कि भाई कोई दूसरा रास्ता नहीं है.. सिपाही ने कहा.. साब से बात करो.. मै इस तरह की बातें करने की अपने सीमाओं को याद करके उसी से कहा कि आप कहो न.. उस ने साब के पास जा कर कुछ फ़ुसफ़ुस किया.. साब ने कहा.. नहीं कुछ नहीं जुरमाना भरिये.. और वे बाहर निकल कर तीसरे पुलिस वाले से कुछ कहने लगे मराठी में.. मेरी भाषाई सीमाएं भी खुल गईं.. मैंने करीब जा कर हिन्दी में मिमियाया.. ये अदालत जाने से बचाव हो जाता तो.. दोनों गरीब आदमी.. अदालत के चक्कर मारेंगे.. कोई और रास्ता नहीं है.. इस से ज़्यादा इशारा करना मेरे बूते की बात नहीं थी.. साब ने थोड़ी कड़वाहट से कहा.. अब कुछ नहीं हो सकता.. अब तो केस बन गया.. अब कहने से क्या होगा.. पहले क्यों नहीं आए?

मेरे ज्ञान चक्षु खुले.. कि मैंने अपने घर में बैठ कर पुलिस वाले के सामने रामहर्ष को जो प्रगतिशील समाजसेवी टाईप सुझाव दिया था.. उसका दुनियादारी की मुद्रा में क्या मूल्य है, पता चल गया.. मुझे पहले ही घर आए पुलिस वाले से हिसाब किताब कर लेना था जैसा कि छेनी चलाने वाले मज़दूर ने मुझे घर पर सुझाया था.. खैर.. बाद में मुझे पता चला कि आदिवासी औरत को भी इस प्रस्ताव में कोई दिलचस्पी न थी.. वह अपराधियों को सजा दिलाने में अधिक इच्छुक थी..

मैंने हार कर रामहर्ष से पूछा कि भई अब तो अदालत जाना ही पड़ेगा.. मेरी और रामहर्ष की ये मायूसी देख कर चौथे-पाँचवें पुलिस वाले ने समझाया कि इतना घबराने की बात नहीं है.. वहाँ जा के बस अपना अपराध कबूल करना है बस उसके बाद कुछ पैसा वापस मिल जाएगा.. क्योंकि जो लिया जा रहा है वह जुरमाने का डिपाज़िट भर है जो अदालत में न जाने पर ज़ब्त हो जाएगा.. हम तीनों ही इन सब बातों पर बहुत आश्वस्त नहीं थे..हमें लग रहा था कि हमें किसी दलदल में धकेला जा रहा है..

साब ने अपने बैग से दो छोटे डब्बे निकाले और बैठ गए.. उनकी मेज़ के इर्द गिर्द दो पुलिस वाले और बैठ गए.. सब ने अपने अपने घर से लाए लंच पैकेट खोल लिए.. पूरा कमरा बासी खाने की गंध से भर गया.. मुझे अपने स्कूली दिन याद आने लगे.. फिर मुझे याद आया कि मैं थाने में हूँ.. जुरमाने की रसीद काटी जा रही है.. साब अब पहले जैसे भयावह नहीं दिख रहे थे.. मैं उनको अपने घर में धारीदार जांघिए में पसर कर टीवी देखते हुए की कल्पना कर सकता था.. करने लगा.. फिर कल्पना को थोड़ा सुधारा.. आज कल धारीदार जांघिया कोई नहीं पहनता.. अब साब बर्मूडा पहने कर पसरे थे.. वास्तविकता में मुंशी ने पूछा कि छुट्टा नहीं है क्या.. मेरे पास नहीं था.. मैंने २५०० दिए थे.. २४०० लेकर सौ लौटाने थे.. मैं उनसे सौ रुपये लौटाने की ज़िद करने के बजाय उन सब के लिए सौ रुपए छोड़ने को तैयार था.. रामहर्ष ने अदालत की जगह समय आदि समझा.. दस्तखत किया.. मज़दूर ने भी दस्तख़त किया.. मैंने देखा उसने टेढ़े-मेढ़े शब्दों में अपना नाम जयशंकर दुबे लिखा.. और हम बाहर निकल आए..

आरे से लौटते हुए कार में रामहर्ष ने अपना डर ज़ाहिर किया कि वो अदालत में जाकर और किसी लफ़ड़े में पड़ने से २४०० में जान छुड़ाने में खुश है.. तभी दुबे जी यानी मार खाए मज़दूर ने बताया कि वो पहले भी हो आए है अदालत.. सिर्फ़ हाँ बोलना होता है.. और ६०० रुपया वापस मिल जाता है.. यह सुन कर रामहर्ष सहर्ष तैयार हो गया.. लगा कि १२०० रुपये का फ़ायदा हो गया.. वे दोनों मलबे को बोरियों में भर कर रखने और फिर इकठ्ठा टेम्पो से फ़िंकवाने की योजना को अंजाम देने के लिए ज़रूरी बोरियों के इंतज़ाम के लिए नीचे रुक गए.. मैं घर आ गया.. थोड़ी देर बाद बोरियाँ ले के दुबे जी आए.. चेहरा और भी आक्रांत.. पता चला कि अब एक कुत्ते ने उनके पैर में दाँत गड़ा दिया.. खून वगैरा नहीं आया ये अच्छी बात हुई.. मगर सोचिए.. एक साथ बेचारे पर इतनी बिपत्ति.. अब तो मान जाइये.. ग्रह नच्छत्तर भी होती है कोई चीज.. खैर कल का दुर्योगपूर्ण दिन बीता और आज सवेरे पता चला कि ४०० का नुकसान हो गया.. २४०० के जुरमाने से १६०० कट गए.. कुल ८०० ही वापस मिले..

आज दो मज़दूरों के अलावा और दो लोग भी पधारे.. रामहर्ष अभी अदालत से वापसी के रस्ते में था.. तो ये दो नए लोग लगे गलियारे में खड़े हो के बतियाने.. अपनी गलियारे को उनकी गपबाजी का अड्डा बनते देख, मैंने अपने महत्व को याद दिलाने के लिए उनका नाम पता पूछ डाला.. एक का नाम निकला श्यामलाल मिश्रा.. काम- लोगों के बाथरूम में मल की आवाजाही का सुगम रास्ता बनाना यानी प्लम्बिंग.. दूसरे का नाम मोहन मिश्रा.. उनका काम - मल के आवाजाही वाले कक्ष को समतल करके टाइल लगाना याने मिस्त्री.. दोनों बाम्हन.. और ग्रहों की और आदिवासी महिला की मार खाए दुबे जी तो हैं ही..

एक साथ तीन-तीन भूसुरों को अपने घर में मज़दूर के रूप में पाकर मैं आह्लादित कम और चिंतित ज़्यादा हो गया.. और लगे हाथ कल के छेनी चलाने वाले मज़दूर का नाम पूछ डाला..उनका नाम हुआ बलिराम चौहान.. और उनके अन्नदाता और हमारे ठेकेदार रामहर्ष लोध हैं.. भाईसाब.. कौन कहता है कि कुछ नहीं बदला.. गाँव में आज क्या हाल है मैं नहीं जानता.. पर शहर का हाल देखिये न कितना कुछ बदल गया..

तस्वीरें:
सबसे ऊपर गूगल अर्थ में आरे का मानचित्र.. बड़ा रूप देखने के लिए चित्र पर
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बीच में आरे के अन्दर की एक छटा
आखिर में ग्रहों और आदिवासी महिला की मार खाए हुए जयशंकर दुबे

बुधवार, 11 जुलाई 2007

धरम जाय तो जाय.. जात ना जाय..

मारे एक परिचित हैं सुकुल जी.. उनके और हमारे बीच कुछ भ्रम पैदा हो गए हैं और कुछ अनबन हो गई है..हो जाती है.. पर हमारा रिश्ता बड़ा गहरा है.. वे भी बाभन हैं और हम भी बाभन.. ये हिन्दू होने और हिन्दुस्तानी होने से कहीं गहरा नाता है.. नस्ल का रिश्ता है ये.. हो सकता है कभी किसी ज़माने में मैं धर्म बदल कर मुसलमान हो जाऊँ.. सुकुल जी ईसाई हो जायं.. तो क्या हम बाभन नहीं रहेंगे.. ? कैसे नहीं रहेंगे जी बिलकुल रहेंगे..वहाँ भी हमारा श्रेष्ठ होने का वही एहसास होगा.. गरिमा होगी.. बड़प्पन होगा..

हिन्दुस्तानी मुसलमानों में सय्यद कौन हैं.. ?..जी बाभन हैं.. पठान बाबूसाब यानी राजपूत हैं.. शेख कायस्थ हैं.. और अंसारी जुलाहे हैं.. अब मुसलमान होने के नाते ये सब रोटी भले साथ में खा लें.. मगर बेटी.. न-न.. बेटी जात में ही दी जाती है.. आप को लग रहा होगा कि चलो यहाँ तक तो बात मानी पर ईसाईयों में कौन सा बाभन होता है..? कुछ दिन पहले तक हमारा भी यही ख्याल था कि ईसाई धर्म में सब बराबर होते हैं.. कोई जात पाँत नहीं.. पर हमारी प्राचीन संस्कृति.. बड़े गहरे संस्कार बोती है.. और फिर अहिर, जुलाहे, तेली अपनी जात छोड़ दें तो छोड़ दें.. हम बाभन अपनी श्रेष्ठता का गरिमामय बड़प्पन सब जगह साथ ले कर जाते हैं.. धर्म बदल जाने के बाद भी.. ईसाई हो जाने के बाद भी..

देखिये एक नज़र यहाँ..



देख रहे हैं.. ये मेरे द्वारा नेट पर GRC Brahmin के लिए की गई सर्च के नतीजे हैं.. और जो मिला है वो शादी के क्लासीफ़ाईड विज्ञापन हैं.. यहाँ पर ब्राह्मिन तो साफ़ है.. मगर जी आर सी क्या है..? जी आर सी है.. गोवन रोमन कैथोलिक.. तो पूरा नाम हुआ गोवन रोमन कैथोलिक ब्राह्मण.. और गोवा में सिर्फ़ रोमन कैथोलिक ब्राह्मण ही नहीं होते.. रोमन कैथोलिक अछूत भी होते हैं.. ये वर्ग आपस में ही शादियां करते हैं.. और उनके चर्च भी अलग अलग होते हैं.. गोवन मछुआरों की पुरानी हिन्दू जाति कुनबी, ईसाई हो जाने के बाद भले ही अछूत नहीं रही.. मगर सबसे निम्न वर्गीय बनी हुई है..

मेरे भाई संजय तिवारी गोवा में सपरिवार मौज कर रहे थे.. ब्लॉगर संजय तिवारी नहीं, वैसे वो भी मेरे भाई ही हैं.. सरयू पारी हैं तो क्या.. हैं तो बाभन हीं ..पर मैं उनकी नहीं अपने सहोदर.. बड़े भाई की बात कर रहा हूँ.. उन पर यह रहस्य उदघाटित हुआ.. वे हिल गये.. फिर उन्होने मुझे हिलाया.. अब आप भी हिले रहिये.. और अपने धार्मिक और जातीय संस्कारों को ज़रा परखते रहिये.. हो सकता है आप उनके प्रति पूरी तरह अचेत हों.. मैं अपने बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं.. अपने मित्रों की सूची में मुझे बहुत सारे सुकुल, मिसिर और पांड़े दिखाई दे रहे हैं..अहिर एक भी नहीं..

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