शनिवार, 27 नवंबर 2010
अकथ कहानी प्रेम की
बुधवार, 26 मई 2010
जाति जन गण ना?
गुरुवार, 2 अगस्त 2007
कितना कुछ बदल गया
दो मज़दूर काम पर लग गए.. एक छेनी ले के तोड़ता रहा.. दूसरा टूटे हुए मलबे को नीचे ले जा कर फेंकता था.. बात करने पर पता चला कि दोनों लोग बोधि भाई के ज़िले भदोहीं के हैं..और सुरियावां के पास के रहने वाले हैं.. जिसकी चर्चा ज्ञान जी भी करते रहे हैं पिछले दिनों.. जान के अच्छा लगा.. वे लोग काम करते रहे.. मैं अन्दर के कमरे में बैठ कर कुछ काम करता रहा.. थोड़ी देर बाद बाहर से कुछ अनजानी आवाज़ आने लगीं.. तो बाहर निकल के देखा तो गलियारे में एक पुलिस वाला खड़ा हुआ मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देख रहा है.. एक पल को मेरी समझ में कुछ नहीं आया.. कि ये क्या माज़रा है..
पता चला कि मज़दूर जिस जगह जा कर मलबा फेंक रहा था.. वो जगह आरे के अन्दर एक आदिवासी की खेत का किनारा था.. अपनी खेती बाड़ी की ज़मीन और अपने प्राकृतिक जीवन को पूरी तरह से नागरीय सभ्यता द्वारा घेर लिए जाने और लगातार उसके उगले हुए कचरे-मलबे से तंग आ चुके आदिवासी स्त्री ने कल के दिन हिंसा के ज़रिये अपने असंतोष की अभिव्यक्ति की.. और मेरे घर का मलबा फेंकने वाले मज़दूर को पहले जी भर के डंडों से पीटा.. मेरा ख्याल है कि उसने भी कुछ ज़बानदराज़ी ज़रूर की होगी.. और उसके बाद उसे बलपूर्वक आरे दुग्ध कॉलोनी के भीतर स्थित पुलिस थाने ले गई.. जहाँ शिकायत दर्ज किए जाने के नतीजतन पुलिस वाला ठेकेदार की तलाश में मेरे घर तक आया..
मैंने बेचैन हो कर थोड़ी में एक दो बार अपने ठेकेदार रामहर्ष को फोन किया..पर तब तक सरकारी दफ़्तरों के बाहर बैठ कर अपनी बारी आने का जो इंतज़ार किया जाता है.. वह चालू था.. फिर राम हर्ष का फोन आया कि आप को आना होगा.. २४०० रुपये का फ़ाइन लगाया है.. बिना आप के आए काम नहीं चलेगा.. मैं तुरंत चल पड़ा.. आरे का थाना भी आरे की ही तरह खुला और हवादार.. न कोई भीड़ भड़क्का.. न शोरोगुल..बस चार छै खाकी वर्दी वाले.. मेरा ठेकेदार रामहर्ष और मज़दूर दोनों अन्दर के कमरे में अपराधी भाव से बैठे थे.. मैंने देखा मज़दूर की आँखें तनाव से भैंगी हो गई थीं.. सुबह ऐसा नहीं था.. मैने अपने घर आने वाले पुलिस वाले से पूछा कि क्या करना है.. बताया गया कि अभी २४०० रुपये जमा करके अगले दिन दोनों ख़तावारों को अदालत में पेश होना होगा..
हिन्दुस्तान में आजकल न्याय को जो स्वरूप देख रहा हूँ.. उसे सोच कर मैं घबरा गया.. मज़दूर तो पूरी तरह रामआसरे है ही.. रामहर्ष भी कोई धन्नासेठ ठेकेदार नहीं है.. एक पुताई मज़दूर जो अधिक पैसा कमाने के लिए अपने के बढ़ई मित्र के साथ मिल कर ठेकेदारी का काम लेने लगा है.. मेरे घर के तोड़फोड़ आदि के सारे काम वही करता रहा है.. मगर कोई बड़ी कमाई वाले ठेके आज तक उस की झोली में नहीं गिरे हैं..अपने लिए एक मोटरसाइकिल तक नहीं जुटा पाया है..
मैंने पूछा कि इस जुर्माने का क्या कोई हिस्सा आदिवासी औरत को जाएगा.. बताया गया कि ये सरकारी खज़ाने में जमा किए जाने के लिए है.. मैने रिरिया कर कहा कि भाई कोई दूसरा रास्ता नहीं है.. सिपाही ने कहा.. साब से बात करो.. मै इस तरह की बातें करने की अपने सीमाओं को याद करके उसी से कहा कि आप कहो न.. उस ने साब के पास जा कर कुछ फ़ुसफ़ुस किया.. साब ने कहा.. नहीं कुछ नहीं जुरमाना भरिये.. और वे बाहर निकल कर तीसरे पुलिस वाले से कुछ कहने लगे मराठी में.. मेरी भाषाई सीमाएं भी खुल गईं.. मैंने करीब जा कर हिन्दी में मिमियाया.. ये अदालत जाने से बचाव हो जाता तो.. दोनों गरीब आदमी.. अदालत के चक्कर मारेंगे.. कोई और रास्ता नहीं है.. इस से ज़्यादा इशारा करना मेरे बूते की बात नहीं थी.. साब ने थोड़ी कड़वाहट से कहा.. अब कुछ नहीं हो सकता.. अब तो केस बन गया.. अब कहने से क्या होगा.. पहले क्यों नहीं आए?
मेरे ज्ञान चक्षु खुले.. कि मैंने अपने घर में बैठ कर पुलिस वाले के सामने रामहर्ष को जो प्रगतिशील समाजसेवी टाईप सुझाव दिया था.. उसका दुनियादारी की मुद्रा में क्या मूल्य है, पता चल गया.. मुझे पहले ही घर आए पुलिस वाले से हिसाब किताब कर लेना था जैसा कि छेनी चलाने वाले मज़दूर ने मुझे घर पर सुझाया था.. खैर.. बाद में मुझे पता चला कि आदिवासी औरत को भी इस प्रस्ताव में कोई दिलचस्पी न थी.. वह अपराधियों को सजा दिलाने में अधिक इच्छुक थी..
मैंने हार कर रामहर्ष से पूछा कि भई अब तो अदालत जाना ही पड़ेगा.. मेरी और रामहर्ष की ये मायूसी देख कर चौथे-पाँचवें पुलिस वाले ने समझाया कि इतना घबराने की बात नहीं है.. वहाँ जा के बस अपना अपराध कबूल करना है बस उसके बाद कुछ पैसा वापस मिल जाएगा.. क्योंकि जो लिया जा रहा है वह जुरमाने का डिपाज़िट भर है जो अदालत में न जाने पर ज़ब्त हो जाएगा.. हम तीनों ही इन सब बातों पर बहुत आश्वस्त नहीं थे..हमें लग रहा था कि हमें किसी दलदल में धकेला जा रहा है..
साब ने अपने बैग से दो छोटे डब्बे निकाले और बैठ गए.. उनकी मेज़ के इर्द गिर्द दो पुलिस वाले और बैठ गए.. सब ने अपने अपने घर से लाए लंच पैकेट खोल लिए.. पूरा कमरा बासी खाने की गंध से भर गया.. मुझे अपने स्कूली दिन याद आने लगे.. फिर मुझे याद आया कि मैं थाने में हूँ.. जुरमाने की रसीद काटी जा रही है.. साब अब पहले जैसे भयावह नहीं दिख रहे थे.. मैं उनको अपने घर में धारीदार जांघिए में पसर कर टीवी देखते हुए की कल्पना कर सकता था.. करने लगा.. फिर कल्पना को थोड़ा सुधारा.. आज कल धारीदार जांघिया कोई नहीं पहनता.. अब साब बर्मूडा पहने कर पसरे थे.. वास्तविकता में मुंशी ने पूछा कि छुट्टा नहीं है क्या.. मेरे पास नहीं था.. मैंने २५०० दिए थे.. २४०० लेकर सौ लौटाने थे.. मैं उनसे सौ रुपये लौटाने की ज़िद करने के बजाय उन सब के लिए सौ रुपए छोड़ने को तैयार था.. रामहर्ष ने अदालत की जगह समय आदि समझा.. दस्तखत किया.. मज़दूर ने भी दस्तख़त किया.. मैंने देखा उसने टेढ़े-मेढ़े शब्दों में अपना नाम जयशंकर दुबे लिखा.. और हम बाहर निकल आए..
आज दो मज़दूरों के अलावा और दो लोग भी पधारे.. रामहर्ष अभी अदालत से वापसी के रस्ते में था.. तो ये दो नए लोग लगे गलियारे में खड़े हो के बतियाने.. अपनी गलियारे को उनकी गपबाजी का अड्डा बनते देख, मैंने अपने महत्व को याद दिलाने के लिए उनका नाम पता पूछ डाला.. एक का नाम निकला श्यामलाल मिश्रा.. काम- लोगों के बाथरूम में मल की आवाजाही का सुगम रास्ता बनाना यानी प्लम्बिंग.. दूसरे का नाम मोहन मिश्रा.. उनका काम - मल के आवाजाही वाले कक्ष को समतल करके टाइल लगाना याने मिस्त्री.. दोनों बाम्हन.. और ग्रहों की और आदिवासी महिला की मार खाए दुबे जी तो हैं ही..
एक साथ तीन-तीन भूसुरों को अपने घर में मज़दूर के रूप में पाकर मैं आह्लादित कम और चिंतित ज़्यादा हो गया.. और लगे हाथ कल के छेनी चलाने वाले मज़दूर का नाम पूछ डाला..उनका नाम हुआ बलिराम चौहान.. और उनके अन्नदाता और हमारे ठेकेदार रामहर्ष लोध हैं.. भाईसाब.. कौन कहता है कि कुछ नहीं बदला.. गाँव में आज क्या हाल है मैं नहीं जानता.. पर शहर का हाल देखिये न कितना कुछ बदल गया..
तस्वीरें:
सबसे ऊपर गूगल अर्थ में आरे का मानचित्र.. बड़ा रूप देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें..
बीच में आरे के अन्दर की एक छटा
आखिर में ग्रहों और आदिवासी महिला की मार खाए हुए जयशंकर दुबे
बुधवार, 11 जुलाई 2007
धरम जाय तो जाय.. जात ना जाय..
हिन्दुस्तानी मुसलमानों में सय्यद कौन हैं.. ?..जी बाभन हैं.. पठान बाबूसाब यानी राजपूत हैं.. शेख कायस्थ हैं.. और अंसारी जुलाहे हैं.. अब मुसलमान होने के नाते ये सब रोटी भले साथ में खा लें.. मगर बेटी.. न-न.. बेटी जात में ही दी जाती है.. आप को लग रहा होगा कि चलो यहाँ तक तो बात मानी पर ईसाईयों में कौन सा बाभन होता है..? कुछ दिन पहले तक हमारा भी यही ख्याल था कि ईसाई धर्म में सब बराबर होते हैं.. कोई जात पाँत नहीं.. पर हमारी प्राचीन संस्कृति.. बड़े गहरे संस्कार बोती है.. और फिर अहिर, जुलाहे, तेली अपनी जात छोड़ दें तो छोड़ दें.. हम बाभन अपनी श्रेष्ठता का गरिमामय बड़प्पन सब जगह साथ ले कर जाते हैं.. धर्म बदल जाने के बाद भी.. ईसाई हो जाने के बाद भी..
देखिये एक नज़र यहाँ..
देख रहे हैं.. ये मेरे द्वारा नेट पर GRC Brahmin के लिए की गई सर्च के नतीजे हैं.. और जो मिला है वो शादी के क्लासीफ़ाईड विज्ञापन हैं.. यहाँ पर ब्राह्मिन तो साफ़ है.. मगर जी आर सी क्या है..? जी आर सी है.. गोवन रोमन कैथोलिक.. तो पूरा नाम हुआ गोवन रोमन कैथोलिक ब्राह्मण.. और गोवा में सिर्फ़ रोमन कैथोलिक ब्राह्मण ही नहीं होते.. रोमन कैथोलिक अछूत भी होते हैं.. ये वर्ग आपस में ही शादियां करते हैं.. और उनके चर्च भी अलग अलग होते हैं.. गोवन मछुआरों की पुरानी हिन्दू जाति कुनबी, ईसाई हो जाने के बाद भले ही अछूत नहीं रही.. मगर सबसे निम्न वर्गीय बनी हुई है..
मेरे भाई संजय तिवारी गोवा में सपरिवार मौज कर रहे थे.. ब्लॉगर संजय तिवारी नहीं, वैसे वो भी मेरे भाई ही हैं.. सरयू पारी हैं तो क्या.. हैं तो बाभन हीं ..पर मैं उनकी नहीं अपने सहोदर.. बड़े भाई की बात कर रहा हूँ.. उन पर यह रहस्य उदघाटित हुआ.. वे हिल गये.. फिर उन्होने मुझे हिलाया.. अब आप भी हिले रहिये.. और अपने धार्मिक और जातीय संस्कारों को ज़रा परखते रहिये.. हो सकता है आप उनके प्रति पूरी तरह अचेत हों.. मैं अपने बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं.. अपने मित्रों की सूची में मुझे बहुत सारे सुकुल, मिसिर और पांड़े दिखाई दे रहे हैं..अहिर एक भी नहीं..