काफ़ी सालों से मेरी बीबी तनु मुझसे ज़्यादा किताबें पढ़ती रही है। ब्लॉग खोलने के बाद से जैसे मेरा एक नया जन्म हुआ और मैंने लिखने के साथ-साथ फिर से पढ़ना भी शुरु कर दिया और उपन्यास जिनको मैं बहुत पहले अलविदा कह चुका था.. उन्होने वापस मेरी मेज़ पर अपनी जगह पा ली! आप को यह बात थोड़ी खटक सकती है कि यह आदमी जो टीवी सीरियल लिखकर अपना पेट पालता है और उपन्यास के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ रहा है.. हद है!
पर क़सम से इसमें हिक़ारत/हिमाक़त जैसी कोई बात नहीं बल्कि हिकायत (कहानियाँ) गढ़ने के जिस बेदर्द टीवी की दुनिया में हूँ उसमें मेरे जैसे दूसरे लेखकों को फ़िक्शन पढ़ने के नाम पर उबकाई नहीं आती; मुझे इस बात की हैरानी होती है। साहित्य की दुनिया में लोग कहानी के साथ सुई-धागे से कढ़ाई जैसा व्यवहार करते होंगे शायद (मै नहीं जानता.. मैं साहित्यकार नहीं हूँ)। फ़िल्म वाले कढ़ाई नहीं करते कढ़ाई में सब्ज़ी-मसाले छौंकते जैसे कहानी बनाते हैं (इसका अनुभव है मुझे)। पर टीवी में हम लेखक (साथ में क्रिएटिव डाइरेक्टर और चैनल) कहानियों को कभी लकड़बग्घों की टोली की तरह नोचते-खसोटते हैं कभी क़साई की तरह काटते-छाँटते हैं।
रोज़ ब रोज़ अपने चरित्रों के एक्सीडेंट/ बीमारी/ हत्या/ कलह/ क्लेश/ तलाक़ हँसते-खेलते कर जाते हैं। इसलिए खुद शातिरपना करते हुए किसी और का शातिरपना देखना मनोरंजक अनुभव नहीं रहा। तो उपन्यास पढ़ना छूटा, टीवी सीरियल देखना भी छूटा (अपना लिखा भी नहीं देखता था.. आज भी नहीं देखता), हिन्दी फ़िल्में जो कभी रोज़ एक दो देखता था.. वो भी छूटा.. बस विदेशी फ़िल्में देखता रहा और दूसरी क़िस्म की किताबें पढ़ता रहा।
मैं कहानियों से कितना पका हुआ था/हूँ कि दुनिया-जहान की बात की मगर पिछले एक साल में मैंने शायद ही किसी कहानी के बारे में चर्चा कभी ब्लॉग पर की। पर ब्लॉग लिखते हुए और एक लम्बी (ओढ़ी हुई) बेरोज़गारी के चलते कुछ भीतर बदल गया और फिर से सहज होने लगा हूँ कहानियों के प्रति।
और इस बदलाव का नतीजा ये हुआ कि मैं पढ़ने भी लगा और उन उपन्यासों की चर्चा करने लगा जो तनु ने नहीं पढ़े थे। तो तंग आकर जवाबी कार्रवाई में उसने भी अपने व्यस्त शेड्यूल के बीच आते-जाते कार में एक ऐसा उपन्यास पढ़ डाला जो मैंने नहीं पढ़ा था- दि काइट रनर। और उसकी खुले दिल से तारीफ़ भी कर डाली.. तो भई मैंने भी हाथ में ले लिया दि काइट रनर। मुझे पढ़ कर कैसा लगा.. यह पढ़िये यहाँ..
9 टिप्पणियां:
तनु को नमस्ते.बहुत दिनो बाद आपको देखकर अच्छा लगा.
इसको कहते हैं पोस्टमपोस्ट यानि पोस्ट में पोस्ट.:-)
बाप रे, दोनो किताबें ही पढ़ते हो तो खाना कैसे बनता है घर में? रोज रोज मैगी नूडल्स से काम चलाते हो क्या?
चलिए, तनु की फोटो तो देखने को मिलीं...हाँ तनू की आवाज भी बहुत मीठी है..
तनु दीदी, आपका फोटो देखते ही मैं 'कितनी खुशी हुई' टाइप कोई कमेंट करने वाली थी, लेकिन यहां तो पहले से ही इतने लोग आपकी फोटो देखकर खुश हो रहे हैं। वैसे मेरा मोबाइल कभी बजेगा और स्क्रीन पर 'तनु दीदी कॉलिंग' लिखा आएगा (आपका नं. इसी नाम से सेव है), ऐसी उम्मीद करना भी मैंने छोड़ दिया है।
अभयजी, हमने आप से एक बार पहले भी पूछा था कि आखिर आप किस सीरियल के लिये लिखते हैं कम से कम मेल से ही बता दीजियेगा, हम इन सीरियल लिखने वालों को कभी बहुत गलियाये थे। तब क्या पता था कि एक दिन उसी का सताया खुद का रोना रोता ब्लोग में मिल जायेगा।
टीवी सीरियल देख कर हम आपका दर्द समझते हैं और इतना कह सकते हैं कि आप बड़े धैर्यवान हैं, काइट रनर पुस्तक पर मूवी बन चुकी है आजकल यहाँ कहीं तो लगी हुई है।
तरुण भाई.. सार्वजनिक रूप से बताने की बात नहीं है.. आप ई मेल बताइये.. तो मन बनाएंगे ये राज़ खोलने का..
thik hai hum aapko email karenge, ye raaj janne ke liye
अच्छा लगा यह पोस्ट पढ़कर ! अगली मुम्बई यात्रा में तनुजी से भी मुलाकात होने का सुयोग बने शायद!
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