मंगलवार, 22 जनवरी 2008

दि काइट रनर

लड़कपन की मासूम दुनिया के बेहद भावुक चित्रण की सफल किताब है दि काइट रनर। किताब में कई जगह घटनाए, भाव बनकर सीधे आप के भीतर उतर जाती हैं। किताब पढ़ते हुए आप बच्चे के अनुराग, उत्साह, ईर्ष्या और ग्लानि के साथ-साथ डूबते-उतराते रहते हैं। यहाँ तक मैं अपनी शरीके हयात की राय से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ पर किताब का एक राजनैतिक पहलू भी है। और अफ़ग़ानिस्तान की उबलती हुई राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई यह किताब एक बार भी राजनीति की चर्चा नहीं करती- बस एक नायक के पिता का बयान है जो बार-बार दोहराया जाता है कि वो मुल्लाओं की दाढ़ी पर पेशाब करना चाहते हैं। बुरा आइडिया नहीं है पर मुझे ये अधकचरी समझ नहीं शातिर सोच लगती है।

राजनीति की बात न करना भी एक तरह की राजनीति होती है। दि काइट रनर पढ़ने वाला कोई भी पाठक तालिबानी मुल्लाओं की दाढ़ियों के प्रति वही नज़रिया रखेगा जो नायक के अब्बाजान रखते हैं; बिलकुल बुरा आइडिया नहीं है। मगर मेरा सवाल यह है कि क्या तालिबान और रूसी फ़ौजे ही अफ़ग़ानिस्तान का पूरा सच है.. अमरीका और आई एस आई की भूमिका शून्य रही है। और अगर कुछ रही है तो लेखक इस बारे में क्या छाप छोड़ता है?

उपन्यास के पहले हिस्से में बचपन के वो जादुई साल १९७३ के पहले के शाह ज़हीर शाह के काल में पैबस्त है। और जब रूसी सेनाएं काबुल में घुस आती हैं और उथल-पुथल शुरु होती है तब नायक और उसका परिवार अमरीका रवाना हो जाते हैं और इस दौरान कहानी कई छलांग लेती है। फिर एक नाटकीय मोड़ के बाद कहानी वापस २००१ के जून में खुलती है जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में क़ाबिज़ हैं।

९/११ के बाद अमरीका के हमले की चर्चा किताब के आखिरी अध्याय में सरसरी तौर पर की गई है बहुत सम्हाल के इस तरह से की गई है कि अमरीका उसमें निर्दोष ही दिखता रहे। नायक के जीवन के उस दौर में जब वो और उसके पिता अफ़ग़ानिस्तान से पलायन कर के अमरीका प्रवास कर रहे थे, तब अमरीका उनके देश में कैसी भूमिका निभा रहा था उसकी कोई चर्चा नहीं की गई है। और इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास का अधिकारी नियमों की दुहाई देने के बावजूद जिस परोक्ष रूप से नायक की मदद करता है वो भी अमरीका की सकारात्मक छवि बनाने में योगदान करता है।


तो भाई साहब बचपन की निर्दोष मानसिक पटल के दोषों की दुनिया उकेरने वाले खालिद होसेनी की राजनीति उतनी मासूम नहीं है जितनी नज़र आती है। और यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि अमरीकी प्रकाशन उद्योग और फ़िल्म उद्योग ने इस कहानी को हाथोहाथ लिया है। मुझे अफ़सोस है कि जिस पतंग को लेकर खालेद होसेनी साहब दौड़ रहे हैं वो पतंग नहीं परचम है.. अमरीकी परचम।

7 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

अभय जी, किताब लाकर रखी हुई है। अभी तक पढ़ी नहीं है। अब आपने चर्चा छेड़ दी तो लगता है पढ़ना ही पड़ेगा।

काकेश ने कहा…

जी इस किताब का विश्लेषण इस ढंग से नहीं किया था. क्या इसीलिये यह बेस्ट सेलर में रही इतने दिनों..?

azdak ने कहा…

@काकेश बाबू,
अमरीकी मीडिया में कोई किताब लल्‍लो-लल्‍लो करके हाथों हाथ ली जाती है तो बहुत बार उसकी यह लेयर्ड-छिपी राजनीति ही होती है जिसका भाई लोग टीवी से पेपर तक में पतंग उड़ा रहे होते हैं!

Srijan Shilpi ने कहा…

उपन्यास के अव्यक्त राजनीतिक निहितार्थ को आपने खूब पकड़ा!

Tarun ने कहा…

Mujhe aisa lag reha hai ki haal hi mai mene is per bani movie ki clipings dekhi thi.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

Abhay ji,
Sahee nabj pakadee hai aapne ...
Yehan ka (USA) Media, multi-dimension liye, apnee hee baat
baar , baar kehta hai --

Bahar McDonalds hain aur TV per bhee wahee, bachchon ke liye bhee
wahee, Badee oomarwalon ki Mandleebhee roj subeh se waheen hotee hai --

Aur ab Europe, ar East ke sheher bhee "Golden Arches " ( Of McDonald ) se bhare hue hain --

Isiliye, main, Australia, Bharat, BBC,
etc etc sare News dekhtee hoon --

The strange thing is, in most of the World media, American news takes the "Lead" over the Local News!

& most folks here , are immersed in their daily lives & are not aware
about rest of the Planet -

Anita kumar ने कहा…

नावेल पढ़े हमें भी बहुत दिन हो गये, आप की इस पोस्ट ने मन में जिज्ञासा जगा दी है, अब यहीं से फ़िर से शुरुवात करेगें

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