
ये अलग बात है कि कृष्णा के घरवाले हाय-तोबा मचा रहे हैं कि न जाने कितने रोज़ से कृष्णा घर नहीं लौटा है। वैसे एक सच्चा देशभक्त होने के नाते मैं उनकी इन बातों पर कान नहीं देता.. आखिर सी बी आई एक सम्मानित केन्द्रीय संस्था है वो कोई अवैध काम करेगी ये कोई सोच भी कैसे सकता है.. उसका तो काम ही अवैध अपराधिक गतिविधियों की जाँच करना है।
इसी जाँच के सिलसिले में कृष्णा के तीन लाई-डिटेक्टर टेस्ट हुए और फिर बेंगालूरू में नार्को टेस्ट। अभी-अभी खबर आई है कि कृष्णा के दूसरे नार्को टेस्ट की भी सम्भावना है? अब वो होगा या नहीं वो तो भविष्य में देखेंगे मगर मुझे जिज्ञासा हुई कि होती क्या है यह बला?
अन्तरजाल से ही पता चला कि ट्रुथ सीरम या सोडियम पेन्टाथॉल नाम की ये दवा गन्धहीन स्वादहीन और लगभग प्रभावहीन है.. इसका एक मात्र प्रभाव फ़िसलती हुई ज़ुबान ही है। ये एक तरह का अनेस्थेटिक है जिसे सर्जरी के वक़्त इस्तेमाल किया जाता है। जंगली जानवरों को क़ाबू में करने के लिए भी ये दवा ट्रान्क्वेलाइज़र के बतौर प्रयोग की जाती है।
आदमी के ऊपर नार्को टेस्ट की दवा का असर खत्म होने के बाद व्यक्ति को जिह्वा-स्वातंत्र्य के इस अनुभव की कोई स्मृति नहीं रहती। लोगों की ज़ुबान खुलवाने का यह तरीक़ा रूसी गुप्तचर संस्था केजीबी ने ईजाद किया था जिसका लाभ आगे चलकर सीआईए ने भी उठाया। फ़िलहाल ये अन्तराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार प्रतिबंधित है। अमरीका ने ग्वान्टानामो बे में क़ैद लोगों का अपराध सिद्ध करने के लिए भी इसके इस्तेमाल नहीं किया है.. कम से कम ऐसा घोषित तो नहीं किया है।
फिर इस सीरम की उपयोगिता पर भी बड़ा प्रश्न चिह्न है क्योंकि ये सीरम सिर्फ़ हिचक तोड़कर ज़ुबान को खोलता है पर उस ज़ुबान से सत्य ही निकलेगा इसे पक्का नहीं करता। दवा के प्रभाव में आदमी ज़ुबान पर से अपने बन्धन उठा लेता है मगर नियंत्रण नहीं खोता और भड़भड़ा कर सब कुछ नहीं बकने लगता। अगर वो सच को छिपाना चाहेगा तो छिपा ले जाएगा। मुझे याद है कि तेलगी के नार्को टेस्ट में उसने कोई ऐसी बात नहीं बोली जिस से वो या कोई दूसरा बड़ा आदमी फँस सकता था।
इसके अलावा ये नार्को टेस्ट व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों का कितना अतिक्रमण करता है यह और भी बड़ा प्रश्न है। आखिर मार-पीट कर किसी से अपराध उगलवाने से कितना अलग है यह? हो सकता है कुछ बन्धुओं को लगे कि इसे प्रताड़ना की कोटि में नहीं रखा जा सकता और यह तरीक़ा न्यायोचित है। हो सकता है.. लोग तरह-तरह से सोचते हैं। कुछ लोग ऐसे भी तो हैं जो दंगो के दौरान मर्दों का पैजामा उतार कर सत्य की परीक्षा करने को भी उचित समझते हैं।