मंगलवार, 31 जुलाई 2007

भागी हुई लड़कियाँ

आलोक धन्वा ने गिनी चुनी कविताएं लिखी है.. पर सारी की सारी अविस्मरणीय हैं.. गोली दागो पोस्टर, जनता का आदमी, पतंग, भागी हुई लड़कियाँ, ब्रूनों की बेटियाँ..आलोक धन्वा की उमर पचपन साठ से कम क्या होगी.. मगर कुल जमा उनका एक ही संग्रह छपा है..दुनिया रोज़ बनती है.. आज ही देखने को मिला .. कई कविताएं ऐसी कि साफ़ लगता है कि वे संग्रह की पृष्ठ संख्या को सैकड़े के करीब धकेलने के लिए लिखीं गईं हैं.. पुरानी वाली राय संकट में आ गई.. रायों के साथ ये बहुत होता है.. कुछ नया तथ्य मिलते ही उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है.. क्या करूँ.. राय बनाना ही छोड़ दूँ क्या..?

पिछले दिनों आलोक धन्वा अपनी कविता के कारण नहीं अपने निजी प्रसंगों के चलते चर्चा में रहे.. साथ ही उनकी कविता 'भागी हुई लड़कियाँ' का भी ज़िक्र होता रहा.. कविता मेरी पढ़ी हुई थी पर पास में नहीं थी.. मेरे निवेदन पर मेरे पुराने अज़ीज़ इरफ़ान ने यतन से आलोक जी के संग्रह की एक प्रति मुझे सप्रेम प्रेषित कर दी .. इरफ़ान इस तरह के कामों के लिए हमेशा प्रसिद्ध भी रहे हैं दोस्तों के बीच.. वो जिन दूसरे तरह के कामों के लिए भी प्रसिद्ध रहे हैं.. उनकी बात मैं यहाँ नहीं करूंगा..

वापस आलोक जी पर लौटते हुए पढ़ने वालों से मेरा आग्रह यही रहेगा कि वे कविता को कवि के निजी जीवन की छाया से स्वतंत्र करके पढ़े.. बावजूद इसके भागी हुई लड़कियां वास्तविक से ज़्यादा एक रूमानी दुनिया का खाका खींचती सी लगती है... मेरी ये राय कविता के शब्दों को कुंजी पटल पर पीटते हुए बनी है.. इसे बहुत कान न दें.. राय ही तो है..



भागी हुई लड़कियाँ

एक

घर की ज़ंजीरें
कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है

क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फ़िल्मों में बार बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भागती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने-भर उनकी रोशनी?

और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले?

क्या तुम यह सोचते थे कि
वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गए थे?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी ज़िंदगियों में फैल जाता था?

दो

तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं
कभी वह ख़त
जिसे भागने से पहले वह
अपनी मेज़ पर रख गई
तुम तो छिपाओगे पूरे ज़माने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा, उसका पारा,
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफ़ी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?

उसकी बची खुची चीज़ों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूँज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
सन्तूर की तरह
केश में

तीन

उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहाँ से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहाँ से भी
मैं जानता हूँ
कुलीनता की हिंसा!

लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जाएगी
पुरानी पवन चक्कियों की तरह

वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अन्तिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियाँ होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में

लड़की भागती है
जैसे फूलों में ग़ुम होती हुई
तारों में ग़ुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में


चार

अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा ज़रूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है

तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मज़बूत
घर से बाहर
लड़कियाँ काफ़ी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हे यह इजाज़त नहीं दूँगा
कि तुम अब
उनकी सम्भावना की भी तस्करी करो

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
ग़लतियाँ भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी
शुरु से अन्त तक
अपना अन्त भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

पाँच

लड़की भागती है
जैसे सफ़ेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आर-पार
जर्जर दूल्हों से कितनी धूल उठती है!

तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ़ भटकती है
ढूँढ़ती हुई अपना व्यक्तितव
एक ही साथ वेश्याओ और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में!

अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में भी
जहाँ प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा!

छह

कितनी कितनी लड़कियाँ
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे, अपनी डायरी में
सचमुच की भागी हुई लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है

क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?

क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं?

क्या तुम्हे दाम्पत्य दे दिया गया?
क्या तुम उसे उठा लाए
अपनी हैसियत अपनी ताक़त से?
तुम उठा लाए एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें!

तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर

सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
तुम से नहीं कहा किसी स्त्री ने

सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
कितनी कितनी बार कहा कितनी
स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाज़ों तक दौड़ती हुई आईं वे
सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ़ आज की रात रहेगी।

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
'दुनिया रोज़ बनती है' से साभार

रविवार, 29 जुलाई 2007

अफ़्जल हुसेन के जवाब में..

मेरी पिछली पोस्ट किसे राहत दे रहा है ये न्याय पर एक अफ़्जल हुसेन नाम के एक मित्र की प्रतिक्रिया आई..

afjal husain ने कहा...

तिवारी जी
सिर्फ तिवारी होने के नाते अगर आपकी तुलना मैं अमर मणि त्रिपाठी या हरिशंकर तिवारी या किसी और ऐसे व्यक्ति से करूं तो क्या आप पसंद करेंगे? क्या सिर्फ इसलिए सारे तिवारियों के सारे जघन्य अपराध माफ़ कर दिए जाने चाहिए कि आप तिवारी हैं? नहीं न । असल में डाक्टर हनीफ़ और मेमन या या अफ्ज़ाल गुरू को एक ही पल्दे पर तुलना ऎसी ही गलती है । यह एकदम ऐसी ही गलती होगी जैसे मैं यह कहूं कि चूंकि मेरा नम अफजल है और मैं निरपराध हूँ, इसलिए अफजल नाम के सरे लोगों या मुसलमानों को बेगुनाह माना जाए और उन्हें माफ़ कर दिया जाए । कहॉ तो अफजल गुरू को फांसी न होने के लिए सर्कार की खिंचाई होनी चाहिए और कहॉ आप उल्टे उसकी तरफदारी कर रहे हैं । मैं नहीं जानता कि आप किस पार्टी के झंडाबरदार हैं, लेकिन इतना जानता हूँ कि हिंदुस्तान में मुसलामानों की जो दुर्गति है उसके बडे कारण आप जैसे धर्म निरापेक्षतावादी ही हैं । मुसलामानों पर यह झूठी हमदर्दी अगर आप न जटाएं और अफजल गुरू और मेमन जैसों को फांसी पर चढ़ने ही दें तो मुसलामानों पर आपका बड़ा करम होगा । हनीफ़ पर आयी मुसीबत कि वजह कुछ और नहीं अफजल और मेमन जैसे शैतान ही हैं । और शैतान सिर्फ शैतान होता है, उसे हिंदु या मुस्लमान के तौर पर न देखें तो बेहतर होगा ।
अफजल हुसैन

भाई अफ़जल हुसेन साहब .. शायद मैं अपनी बात पूरी सफ़ाई से रख नहीं पाया.. मेरा इरादा कतई अफ़ज़ल गुरु या याक़ूब मेमन को बेगुनाह साबित करने का नहीं है.. मैंने तो लिखा है कि याक़ूब मेमन कितना गुनहगार है मैं नहीं जानता.. अफ़ज़ल गुरु के बारे में तो मैं कह ही रहा हूँ कि वह भारतीय लोकतंत्र के प्रतीक संसद भवन पर आंतकवादी हमले की साज़िश रचने का दोषी है.. सवाल तो मैं उन्हे दी गई सजा पर उठा रहा हूँ..

और ऑस्ट्रेलिया में आतंकवादियों की सहायता करने के आरोप में गिरफ़्तार डॉक्टर हनीफ़ भी एक मुसलमान हैं और उनका नाम भी मुस्लिम आतंकवाद से जुड़ा जैसे याक़ूब का और अफ़ज़ल गुरु का.. बस समानता यहीं तक थी.. बाकी हनीफ़ निहायत पाकदामन हैं .. उनका नाम इन दोनों के साथ रखने के लिए मैं माफ़ी चाहता हूँ.. मगर मैंने ऐसा किया सिर्फ़ अपनी न्याय व्यवस्था पर ध्यान आकर्षण करने के लिए.. ऑस्ट्रेलियाई न्याय व्यवस्था के सामने अपनी न्याय व्यवस्था पर शर्मसार होते हुए..

मैं अपने लोगों पर शर्मसार हूँ जो इस न्याय का दोहरापन देख के भी खामोश बने रहते हैं.. और नाराज़ हूँ इस शासन के न्याय तंत्र से जो न्याय करते समय अलग अलग दृष्टिकोण अपनाता है..और कुछ अपराधियों के साथ रहम दिली, उपेक्षा और कुछ मामलों में बचाव के सक्रिय हस्तक्षेप तक चला जाता है.. भाई मेरे.. जब कि लगातार मुसलमान मुजरिमों के साथ इस तरह की सख्ती बरती जा रही हो और न्याय की कठोरता याद दिलाई जा रही हो.. तो समझदार आदमी को चाहिये कि गौर से देखे कि मामला क्या है..? और इतना मुक्त भी न हो जाए कि गैर साम्प्रदायिक होने के नाम पर समाज में व्यवहार की जा रही सक्रिय साम्प्रदायिकता को पहचानने की नज़र भी खो बैठे..

पते वगैरह की कोई उम्मीद आप से रखना तो व्यर्थ ही होगा अफ़्जल भाई.. मगर आखिर में एक छोटी सी बात आप को बताना चाहूँगा कि अफ़ज़ल के हिज्जो में 'ज' नही' 'ज़' का का इस्तेमाल होता है.. मायने ये कि आपने अपने नाम को यूँ लिखा है.. afjal.. जबकि होना चाहिये.. afzal.. आगे ख्याल रखियेगा.. कि जब मुसलमानों का नाम ओढ़ कर कोई हिन्दूवादी तर्क प्रस्तुत करना हो तो ऐसी ग़लती न हो..

शनिवार, 28 जुलाई 2007

बिकॉज़

बीटल्स दुनिया के अब तक के सबसे लोकप्रिय और सब से बेहतरीन पॉप बैंड माने जाते हैं.. १९६२ से १९७० तक इस दल ने करीब दस बारह एलबम में एक से एक यादगार गाने रिलीज़ किये.. दिल में आग लगाने वाले और ठंडक पहुँचाने वाले भी .. इन्ही में से एक एलबम है १९६९ में रिलीज़्ड एबी रोड.. इसका एक गाना है.. बिकॉज़..

इस गाने के बारे में कहानी यह है कि जॉन लेनन की पत्नी योको ओनो.. बीथहॉवन का मूनलाइट सोनॉटा पियानो पर बजा रहीं थीं.. तो लेनन ने उनसे उस धुन को उल्टा बजाने को कहा.. और उस के आधार पर इस गाने की रचना की..

एक अजीब सा रूमानी उदासी का समा है .. मेरे लिए ये बीटल्स का सर्वश्रेष्ठ गाना है.. वो बात अलग है कि ये बहुत लोकप्रिय नहीं है.. मगर जब इसे अमेरिकन ब्यूटी जैसी फ़िल्म के एंड क्रेडिट्स में सुना.. तो खुशी हुई.. अमेरिकन ब्यूटी बेहतरीन फ़िल्म है.. पर इस गाने से उसका कोई मुक़ाबला नहीं.. इस का उपयोग कर के फ़िल्म का मूड समृद्ध हो गया.. दिस सॉन्ग इज़ अ प्योर जेम.. शीयर डिलाइट.. इसमें कोई दोष नहीं.. कुछ भी अधिक नहीं.. कुछ टेढ़ा मेढ़ा नहीं.. सरल और सम्पूर्ण..

इस गाने में एक साइकेडेलिक रंगत भी है.. मगर मुझे उस से कोई गुरेज़ नहीं.. मेरे लिए ये सवाल कोई मायने नहीं रखता कि.. क्या बीटल्स ने यह गाना चरस या एल एस डी के नशे में हो कर बनाया था..? मेरे लिए सिर्फ़ इतना तथ्य महत्वपूर्ण है कि मैं बिना किसी नशे के इस आनन्द को प्राप्त कर रहा हूँ..

इस गाने के दो वर्ज़न्स पेश कर रहा हूँ.. पहले संगीत के साथ..



Get this widget Share Track details



गाने के बोल कुछ इस तरह हैं..

Because
the world is round
it turns me on
Because the world is round...aaaaaahhhhhh

Because
the wind is high
it blows my mind
Because the wind is high......aaaaaaaahhhh

Love is all,
love is new
Love is all,
love is you

Because
the sky is blue,
it makes me cry
Because the sky is blue.......aaaaaaaahhhh Aaaaahhhhhhhhhh....


अब बिना संगीत का वर्ज़न.. इस में शुरुआत के दस सेकेण्ड्स तक सन्नाटा है और फिर गाना शुरु होता है.. धीरज से सुनियेगा..

Get this widget Share Track details


अब चाहें तो संगीत वाला वर्ज़न फिर से सुनें.. आनन्द लें.. इस गाने को मैं दिन भर सुन सकता हूँ.. इसको सुन कर एक गहरी भाविक अनुभूति में डूब सकता हूँ.. इसे सुन कर मैं मर सकता हूँ..

किसे राहत दे रहा है ये न्याय?

खुशी की बात ये है कि डॉक्टर हनीफ़ की रिहाई तय हो गई है.. पिछले एक महीने से उनके ऊपर आतंकवादियों की सहायता करने का गम्भीर आरोप था.. एक महीने तक उनका परिवार तथा पूरा भारतीय मुस्लिम समुदाय इस त्रासदी के दर्द को जीते रहे.. भारत की सरकार ने कन्सर्न ज़ाहिर किया और ऑस्ट्रेलियाई सरकार की तरफ़ से की जाने वाली कार्रवाई की निगरानी रखने लगी.. मगर इस से ज़्यादा हमारी सरकार ने कुछ नहीं किया.. शायद कहीं डर रहा हो के कहीं सचमुच आतंकवादी न हो.. ? और ज़्यादा प्रतिरोध करने के चक्कर में दुनिया में अमरीका और देश के अन्दर की हिन्दूवादी जनता अपने खिलाफ़ न हो जाय..?

आज दुनिया में मुसलमान लगातार शक की नज़रों से देखे जा रहे हैं.. और ये घटना भी इसी का एक और उदाहरण थी.. इसलिये मुझे विशेष खुशी है कि डॉक्टर हनीफ़ छोड़े जा रहे हैं.. और इस के लिए मैं ऑस्ट्रेलियाई सरकार की न्यायप्रियता की प्रंशसा करता हूँ कि भले ही उन्होने शुरु में एक निर्दोष पर शक़ किया और उसे लगभग फँसा ही दिया.. फिर भी उन्होने आखिर में न्याय किया..

अब दुख मुझे इस बात का है कि याक़ूब मेमन को फाँसी सुनाई गई है..मेरे वरिष्ठ मित्र अनिल रघुराज ने भी कल इसके बारे में लिखा.. मैं नहीं जानता कि वो दोषी है कि नहीं.. लेकिन लगता नहीं कि एक मुजरिम मरने के लिए देश वापस आ कर आत्म समर्पण करेगा.. जबकि वो टाइगर मेमन की तरह देश से बाहर बने रह सकता था.. याक़ूब के अलावा उन सब मुस्लिम नौजवानों को फाँसी की सजा सुनाई गई है जिन्होने मुम्बई सीरियल बम धमाकों में बम रखने का काम किया.. इसे राष्ट्रद्रोह माना गया.. माननीय जज महोदय ने बम धमाकों के पहले की घटनाओं को नज़रअंदाज़ करके ऐसा फ़ैसला सुनाया है.. बहुत लोग मारे गए इन धमाकों में.. ठीक बात है.. उन के प्रति न्याय ये माँग करता है कि इन्हे फाँसी दी जाय..मगर क्या ये सिर्फ़ संयोग है कि मुम्बई दंगो की जाँच के लिए बैठाये गए श्रीकृष्ण आयोग द्वारा चिह्नित दोषी पुलिस अधिकारियों की नौकरी पर भी कोई आँच तक नहीं आई है, सजा-वजा तो दूर.. दंगो में मारे गए लोग क्या न्याय के अधिकारी नहीं होते?

क्या याकू़ब और दूसरे मुजरिमों को फाँसी दे कर बम धमाकों में मारे गए लोग पुनः जीवित हो जायेंगे..? या इन मुजरिमों के भीतर का राक्षस सुधरने के पार चला गया है इसलिए सिर्फ़ मार देने योग्य हैं.. ? मुम्बई की २६ जुलाई की बाढ़ में जिन लोगों की जान गई.. उस के लिए किस पर मुकदमा चलाया गया..? क्या उस के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं.. ? आप कहेंगे ये सब अमूर्त अपराध हैं.. ठीक.. भोपाल गैस ट्रैजेडी के लिए किसी को ज़िम्मेदार माना जायेगा..? यूनियन कारबाईड के जिस अधिकारी को माना गया उसके कितना पीछे पड़ी रही हमारी सरकार..? इन्दिरा गाँधी की मृत्यु के बाद देश भर में खास कर दिल्ली में सिखों के क़त्लेआम के लिए कोई ज़िम्मेदार..? या वह सिर्फ़ एक बड़े पेड़ गिरने का दोष है..? ये किस प्रकार का न्याय है.. मैं समझ नहीं पाता..? ये न्याय किसे बचा रहा है... किसे मार रहा है.. औए किसे राहत दे रहा है.. मुझे समझ नहीं आता?

अफ़ज़ल गुरु को फाँसी की सजा दे दी गई.. पूरा देश उस आदमी को सबसे बड़ा खलनायक मान रहा है.. क्यों..? क्योंकि उसने इस देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था संसद पर हमला करने की साज़िश रची.. उसने कोई हत्या नहीं की.. सिर्फ़ साज़िश रची लोकतंत्र के खिलाफ़...किस लोकतंत्र के खिलाफ़.? उस लोकतंत्र के खिलाफ़ जो साठ साल से कश्मीर में उसके लोगों का लोकतांत्रिक हनन कर रहा है.. वैसे लोकतंत्र के प्रतीक पर हमला करने की साजिश रची.. तो..? क्या आप को इस लोकतंत्र से कोई शिकायत नहीं..? क्या अफ़ज़ल गुरु और याक़ूब मेनन का अपराध सिर्फ़ यह है कि वे इस देश काल में मुसलमान हैं.. ?

शुक्रवार, 27 जुलाई 2007

बड़े काम की गाली !

पिछले दिनो अपनी हिन्दी ब्लॉग की दुनिया में भाषा की शालीनता और उस से जुड़े हुए सवालों पर काफ़ी चिन्ताएं की जाती रहीं.. समाज में शब्दों की उपयोगिता पर समाज के किसी वर्ग का कभी कोई वर्चस्व नहीं रहा.. कोशिशें की जाती रहीं.. आगे भी की जायेंगी.. लेकिन समाज किस शब्द को कैसे इस्तेमाल करेगा, ये तय करना किसी के लिए भी असम्भव है.. ये एक सामूहिक प्रक्रिया होती है.. जिस पर किसी का भी नियंत्रण नहीं होता है.. कब हगना या झाड़ा शब्द से लिपटी गन्दगी से बचने के लिए टट्टी जैसा शब्द श्लील हो जायेगा.. और कब टट्टी अश्लील और पॉटी श्लील.. कोई नहीं कह सकता..

ऐसा ही मामला शब्दों के रचनात्मक उपयोग का है.. जननांगो से जुड़े हुए शब्दों का उपयोग क्यों इतनी उदारता से तमाम दूसरी भावनाएं व्यक्त करने में किया जाता है.. ये तो मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री ही बतायेंगे.. जो भी इसका कारण हो, सार्वभौमिक होगा.. क्योंकि लगभग सभी संस्कृतियों में ये आम चलन है..

फ़िलहाल यहाँ पर स्त्री-पुरुष समागम की क्रिया के लिए प्रयोग किए जाने वाले अश्लील अंग्रेज़ी शब्द के बारे में मुझे एक ऑडियो क्लिप प्राप्त हुई है.. जिसमें ओशो (आचार्य रजनीश) इस शब्द की विवेचना कर रहे हैं .. और उनके शिष्य आनन्द में हँस-हँस कर लोट-पोट हो रहे हैं.. आप भी सुनिये.. हो सकता है .. आप को भी आनन्द आये.. और यदि आनन्द के बजाय आप की भावनाओं को चोट पहुँचती है तो खुल कर ओशो को गलियाएं..


जिन्होने ओशो को सुना है.. वे ओशो के उच्चारण से परिचित होंगे.. नए लोग चौंके नहीं..
दूसरी बात ऑडियो क्लिप प्रवचन के बीच अचानक शुरु होती है.. उसके लिए खेद है..








रविवार, 22 जुलाई 2007

प्रेम में अपराध..

मेरे घर में एक अंग्रेज़ी का दैनिक आता है डी.एन.ए. .. एक हिन्दी दैनिक हमारा महानगर.. और एक उर्दू का दैनिक इंक़लाब.. हिन्दी के दैनिक हमारा महानगर के छठे पन्ने पर युवा रंगकर्मी असीमा भट्ट की आत्मसंघर्ष कथा की दूसरी कड़ी प्रकाशित हुई है.. ऐसी थी मेरी सुहागरात.. यह कथा सबसे पहले हिन्दी साहित्य की सम्मानित पत्रिका कथादेश में छप चुकी है.. उसके बाद हाशिया नाम के ब्लॉग के मालिक रियाज़ उल हक़ साहिब भी इसे आभासी दुनिया के लिए शाया कर चुके हैं..

जो लोग नहीं जानते उनके लिए बता दूँ कि असीमा जी हिन्दी के प्रख्यात और प्रखर कवि आलोक धन्वा की पत्नी हैं.. उनकी उमर में खासा फ़र्क भी है.. इस कथा में अपने सम्बंध के ऐसे तमाम अंतरंग मसलों पर असीमा जी ने खुल कर चर्चा की है जिन्हे जानने में किसी भी गॉसिप पसन्द महिला/ पुरुष की दिलचस्पी होती है..

दो व्यक्तियों के बीच का हर सम्बन्ध परिभाषा से एक सामाजिक सम्बन्ध है.. और समाज के हर गुण-लक्षण उसमें परिलक्षित होंगे.. मगर स्त्री पुरुष का सम्बन्ध एक सामाजिक सम्बन्ध होने के साथ साथ एक निजी सम्बन्ध भी होता है.. और व्यक्ति की निजता की एक गरिमा भी होती है.. एक मालिक मजदूर के बीच के सामाजिक सम्बन्ध जितनी सरलता की अपेक्षा एक स्त्री पुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध में भी करना बचकाना होगा.. उनके बीच एक आदिम पशुता की स्वार्थी हिंसा भी होती है और उच्च मानवीय प्रेम और बलिदान की संवेदना भी..

यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं.. और ईसा ने तो कहा ही है कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई पाप न किया हो..

स्त्री पुरुष सम्बन्ध में अपराध को आप कैसे परिभाषित करेंगे.. ? सहज रूप से सामने आने वाले अपराध तो स्थूल हिंसा से जुड़े होंगे.. मगर कुछ अपराध सूक्ष्म हिंसा के भी होंगे.. जैसे विश्वासघात और उपेक्षा.. एक स्त्री और पुरुष के बीच क्या घटता है, क्या पकता है.. उस के बारे में मोटी राय बना लेना आसान तो बहुत है.. मगर न्यायशील नहीं..

असीमा जी जिस प्रकार से निजी प्रसंगो में आलोक जी की अमानवीयता को उजागर करके उनकी मान-प्रतिष्ठा और धवल छवि को आघात पहुँचा रही हैं.. वो कितना ठीक है मैं नहीं जानता?.. मैं ये भी नहीं कह सकता कि ये आलोक जी का निजी मामला है.. क्योंकि ये असीमा जी का भी निजी मामला है.. और उन्हे पूरा हक़ है कि वे अपने अति निजी प्रसंगो को समाज के बीच सुलझायें..

मैं ने पूरी कहानी नहीं पढ़ी है.. और मैं नहीं जानता कि सच्चाई क्या है..मैं जानना भी नहीं चाहता.. मगर इस विषय पर जिस तरह से आलोक जी ने अभी तक चुप्पी साधी है .. और वे एक आरोप लगाती स्त्री पर प्रत्यारोप कर के उस की छीछालेदर करने के बजाय मौन रहकर अपनी, उसकी, और रिश्ते की गरिमा बनाए हुए हैं.. मैं फ़िलहाल उस मौन से ज़्यादा प्रभावित हूँ..

फ़ीवर

जवानी में तन और मन पूरी बढ़त को पा चुका होता है.. ताक़त अपने चरम पर होती है.. दुनिया को परखने के लिए कसने के लिए बेचैन.. सपनों और सच्चाई में फ़र्क ज़्यादा नहीं होता.. एक पके फल की तरह सपनों को हाथ बढ़ाकर तोड़ा जा सकता है.. ऐसा एहसास हर जवां अपने दिलोजिगर में लिए फिरता है..


अक्सरियत को मालूम चलता है कि फल तो बस एक सराब था.. धोखा था.. एक झूठ था... पर कुछ विरले ऐसे भी होते हैं जो हाथ में फल लिए मिठास को दाँतों तले कुचलते मुस्कराते हैं.. और सपनों की सच्चाई पर भरोसा दिखाते हैं..जब जवानी कहा जाय तो सबब इनसे समझा जाता है.. हारे हुए को बेवक्त खज़ां की राह पर ढुनकता पाया जाता है.. अधेड़ हो जाने का मतलब ही क़ुव्वत की हदों को समझ जाना है.. समाज और शख़्स के आँकड़े में शख़्स की कमज़ोरी का एहसास हो जाना ही दुनियादार हो जाना है..

जवानी की रूमानियत में एक बुखा़र भी होता है.. उस बुखा़र के बारे में बहुतों ने लिखा है.. १९५६ में एडि कूली नाम के एक अश्वेत गायक ने एक दूसरे अश्वेत गायक ओटिस ब्लैकवेल (चित्र में एल्विस के पोस्टर के साथ) से मदद ले कर अपने फ़ीवर नाम के गाने को पूरा किया.. और गाया.. इसी गीत को १९५८ में पेगी ली ने अपनी तरह से गाया जो इतना पसंद किया गया कि तब से आज तक इस गीत के इतने कवर वर्ज़न किये जा चुके हैं कि ये सबसे ज़्यादा कवर वर्ज़न किए जाने वालों की सूची में शीर्ष के आस पास है.. मुझे ये गाना इतना पसन्द है कि इस गीत के बारह वर्ज़न्स मेरी मीडिया लाइब्रेरी में है..शायद जाती हुई जवानी को पकड़े रखने की एक नाकाम कोशिश के तहत..

इस गीत को एला फ़िट्ज़ेराल्ड, एल्विस प्रेसले, पेरिस बेनेट, बोनी एम, रे चार्ल्स और नैटली कोल, ग्रेटफ़ुल डेड, मैडोना, डॉना समर और बियान्स ने भी गाया है.. यहाँ पर पेगी ली का मौलिक वर्ज़न..



Get this widget Share Track details



Never know how much I love you / Never know how much I care / When you put your arms around me / I get a fever that's so hard to bear / You give me fever

When you kiss me / Fever when you hold me tight / Fever In the morning / Fever all through the night

Sun lights up the daytime / Moon lights up the night / I light up when you call my name / And you know I'm gonna treat you right / You give me fever

When you kiss me / Fever when you hold me tight / Fever / In the morning /Fever all through the night

Everybody's got the fever / That is something you all know / Fever isn't such a new thing / Fever started long ago

Romeo loved Juliet / Juliet she felt the same / When he put his arms around her / He said Julie, baby, you're my flame / Thou givest fever/ When we kisseth / Fever with thy flaming youth / Fever / I'm a fire / Fever, yay, I burn forsooth

Captain Smith and Pocahontas / Had a very mad affair / When her daddy tried to kill him / She said daddy, no, don't you dare / He gives me fever / With his kisses, fever when he holds me tight / Fever / I'm his Mrs. / Daddy, won' t you treat him right

Now you've listened to my story / Here's the point that I have made / Chicks were born to give you fever / Be it farenheit or centigrade / They give you fever

When you kiss them / Fever if you live, you learn / Fever / till you sizzle / What a lovely way to burn / What a lovely way to burn / What a lovely way to burn / What a lovely way to burn

बीमारी का प्रतिबिम्ब?

मेरे एक बेनाम मित्र ने पूछा है कि मैंने फ़ारसी का पीछा क्यों छोड़ दिया.. कलॉम-ए-रूमी पर रुक क्यों गए मित्र. ..कौन है जो फ़ारसी सीखे और उसके बाद फिर अनुवाद की कोशिश भी करे? कोई नहीं. इसलिए इस काम को छोड़िए मत.. मैं अपने इस अनाम मित्र का बड़ा आभारी हूँ.. अपनी इस ब्लॉग की दुनिया में जब कि लोग बेनामों से आक्रांत हैं.. मुझे एक ऐसे बेनाम भाई से प्रेम मिल रहा है.. मगर इस एक अकेले बेनाम के सहारे में अपनी फ़ारसी की साधना नहीं कर सकता..

मेरे बेनाम भाई.. आप तो हिन्दुस्तानी हैं.. अपने समाज के हाल-चाल से आप परिचित हैं.. मेरे इस काम की मेरे समाज को ज़रूरत नहीं.. हो सकता है मेरे लिए ये अमूल्य हो.. पर मेरे समाज के लिए यह मूल्यहीन है.. रूमी को अपनी भाषा में अपने समाज के बीच ले जाने के जुनून की शिद्दत इतनी नहीं कि वो मेरे अपनी जीवन को एक आर्थिक असुरक्षा के घेरे में धकेल कर मेरे अस्तित्व पर काबिज हो सके..

दूसरी रुचियाँ भी हैं जो इस से भी अधिक तीव्रता से अनुभूत होती हैं.. जैसे भारत के इतिहास में शोध करने की इच्छा.. हिन्दी में एक व्युत्पत्ति कोष बनाने की इच्छा.. इस काम को अजित वडनेरकर जी बखूबी कर सकते हैं.. वे योग्यता व रुचि दोनों रखते हैं.. हो सकता है इसे करने की एक गहरी इच्छा भी रखते हों.. पर न वे इस पर कोई ठोस काम कर रहे हैं.. और न मैं.. वे भोपाल में किसी भूत-प्रेत या हत्या-डकैती या ऐसी ही किसी ठोस सामाजिकता रखने वाले मसले का पत्रकारी पीछा कर रहे होंगे.. मैं मुम्बई में टीवी सीरियल्स के ज़रिये समाज के मनोरंजन की सामाजिकता निभा रहा हूँ.. जिसके बदले समाज हमारे अस्तित्व के लिए आर्थिक सुरक्षा मुहय्या करा रहा है..

तो समझने की बात यह है मेरे बेनाम मित्र कि हम कितना भी धूमिल के विचारों पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते रहें कि यदि जीवन जीने के पीछे कोई सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेच कर और रंडियों की दलाली कमा कर रोज़ी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है.. मगर व्यवहारिक दुनिया में.. आजकल के बाज़ारी लोकतंत्र में यदि आप के पास संख्या की शक्ति नहीं है तो फ़ारसी सीख कर रूमी का अनुवाद करने और उड़ीसा के किसी गाँव में कुपोषण का शिकार हो जाने के बीच ज़्यादा फ़र्क नहीं है..

आज प्रमोद जी मुझ से कह रहे थे कि बी बी सी ने कुछ ज़बरदस्त टी वी सीरीज़ बनाई हैं.. विज्ञान, भाषा, कला, राजनीति, समाज, भूगोल, चिकित्सा.. ऐसा काम किया गया है कि आप आत्मिक रूप से गदगद हो जायं..अपने देश के सैटेलाइट टी वी की बात मैं नहीं करूँगा.. मगर हमारे दूरदर्शन के किस कार्यक्रम के प्रति आप ऐसी भावना रख सकते हैं.. भारत एक खोज ? तमस ? मालगुडी डेज़ ?.. या यू जी सी की दोपहर को प्रसारित होने वाली ज्ञानवर्धक एपीसोड्स.. जिन्हे बनाने में मेरे एम सी आर सी से शिक्षित जनता अग्रणी रही है.. जिनमें मैं भी हूँ.. वो बात अलग है.. कि मैं रोज़ी रोटी के लिए उस दुष्चक्र का हिस्सा बनने के बजाय मुम्बई के बड़े गटर में आ गिरा हूँ..

मैं पूरा दोष समाज को देकर मुक्त नहीं हो जाना चाहता .. कुछ गलती तो व्यक्ति की भी है.. मेरी गलती ये है कि मैं रास्ते तलाशने के पहले ही हार मान के बैठा हुआ हूँ.. अगर कुछ पराक्रम किया जाय तो सम्भव है कि कुछ खिड़कियां खुल जायं.. इस बाज़ारी लोकतंत्र में अभी भी कुछ कल्याण राज्य के अवशेष शेष हैं.. उन के द्वारा दी जा रही सुविधाओं का लाभ उठाया जा सकता है.. मगर काल के वेग ने मेरे और उन संस्थानों के बीच दूरी पैदा कर दी है.. टीवी चैनल मेरे लिए करीब है.. मगर यहाँ की दुनिया में कुछ भी सार्थक करना असम्भव है.. फिर भी रवीश जैसे कुछ लोग टी वी न्यूज़ की दुनिया में सार्थक कर ले जा रहे हैं.. मगर आज उन्होने भी यह भ्रम तोड़ दिया और अपनी सफ़लता का काफ़ी श्रेय अपनी संस्था एन डी टी वी को दे डाला..

मगर मैं कोई अकेला तो नहीं.. अनोखा तो नहीं.. मेरे ही जैसे अनेकों अनेक अभय, सभय, विभय.. इस देश के अलग-अलग इलाक़ों में साँस लेते हुए ऐसी चिन्ताओं में लिप्त हैं.. कुछ संस्थानों के करीब भी है.. कुछ विश्वविद्यालयों में शोध भी कर लेते हैं... कुछ को राज्य द्वारा आर्थिक सुरक्षा और अनुदान और दूसरी सुविधाएं भी मिल जाती हैं.. तो फिर वो कोई सार्थक योगदान क्यों नहीं कर पाते..? क्या व्यक्ति अन्दर से इतना बेईमान हो चुका है कि अपने हाथ के काम आधे अधूरेपन से निबटाने, पहुँच के बाहर की चीज़ों के बारे में सपनियाने और अपनी निरर्थकता के लिए समाज को गरियाने के अलावा और कुछ नहीं करता..? या ये व्यवहार भी उस के भीतर हमारे समाज की बीमारी का प्रतिबिम्ब है.. ?

शनिवार, 21 जुलाई 2007

भारत के 'भ' में कुछ खास है..

ज्ञानदत्त जी अक्सर अपने नौकर को भृत्य कहकर उल्लिखित करते हैं.. और हर बार मेरे मन में भृत्य शब्द की व्युत्पत्ति की बात कौंध जाती.. आज उसी से बात शुरु करता हूँ.. भृत्य की व्युत्पत्ति संस्कृत की भृ धातु से है.. जिसका अर्थ है.. भरना, पूर्ण करना, पोषण करना.. भरत, भारत, भृगु, भारद्वाज इसी भृ से निकले है.. इसी भृ धातु से बने दूसरे शब्द हैं भ्रातृ और भर्तृ.. जिसके तद्भव रूप हैं भाई और भरतार.. दोनों को शाब्दिक अर्थ पोषण करने वाला ही होगा.. पर रिश्ते के तौर पर एक भाई हो जाता है और एक पति.. खैर.. भार्या भी भूलने योग्य नहीं क्योंकि वह भरण करने योग्य है..

ये 'भ' एक ऐसी ध्वनि है जो 'ध' और 'घ' के साथ अन्य किसी इंडो-यूरोपियन भाषा में नहीं है.. न केंतुम वर्ग की और न सतम वर्ग की.. डा० रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक "पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद" में लिखते हैं, "..'भ' ध्वनि भारत से बाहर न पहले कहीं थी, न आज है। आदि इंडो-यूरोपियन भाषा में सघोष महाप्राण ध्वनियाँ थीं, सब विद्वान मानते हैं। वे भारत में ही क्यों बच रहीं, इसकी कैफ़ियत कोई नहीं देता.."(अध्याय ८, पृष्ठ २३६)

या ये ध्वनियां आदि इंडो-यूरोपियन भाषा में थी ही नहीं.. ? लेकिन भारत की ओर आने वाली आर्य शाखा ने ये ध्वनियां भारत आ कर विकसित कर लीं..? जन समूहों के भीतर ऐसे भाषाई विकास दूसरे भाषाई समुदाय के संसर्ग में आने से होते हैं.. भारत में ऐसा दूसरा भाषाई समूह द्रविड़ जनो का था.. उन द्रविड़ जनों की प्रतिनिधि भाषा तमिल में 'भ' ध्वनि नहीं है.. 'ख' नहीं है.. 'घ' नहीं है 'ध' नहीं है.. 'थ' नहीं है..

अगर एक पल के लिए मान भी लिया जाय कि 'भ' की यह ध्वनि आर्यों ने द्रविड़ों के प्रभाव में न सही किसी अन्य कारणवश या प्रभाव में विकसित कर ली.. चलिए एक बिरादर को बदल कर भ्रातृ कर लिया.. फिर उसके बाद भ का विस्तृत संसार सिर्फ़ भृ धातु और उसके बच्चे कच्चो पर ही समाप्त नहीं हो जाता.. 'भ' से शुरु होने वाली दूसरी धातुओं पर भी एक बार नज़र डाल ली जाय..

भज.. भक्ति, भगवान, विभाजन आदि..
भक्ष.. भक्षण,भूखा आदि..
भञ्ज.. भंग, भग्न, भंगुर आदि..
भट.. भट्ट, भट्टार आदि
भण.. भणित आदि..
भण्ड.. भाण्ड, भण्डार आदि..
भन्द.. भद्र, भद्दा आदि..
भी.. भय, भयानक आदि..
भृ.. भाई, भरण आदि..
भू.. भव, भवन, भवानी, भविष्य, भूत आदि..
भा.. आभास, भाल.. आदि..
भाष.. भाषा, भाषण.. आदि..

ये सूची और लम्बी है.. और जितने मूलभूत शब्दों का ज़िक्र यहाँ पर हो रहा है उन्हे देख कर ये विश्वास करना कठिन है कि उनके उच्चारण में परिवर्तन हुआ होगा.. तो फिर कैसे ये ध्वनियां संस्कृत में मौजूद है और दूसरी इंडो-यूरोपियन भाषाओं से गायब हैं.. यदि इन सब शब्दों में आर्य जनों ने किसी प्रभाव में परिवर्तन किया है तो फिर सोचने की ज़रूरत है.. कि 'प' और 'ब' के स्वतंत्र शब्दों के अस्तित्व के बाद किन शब्दों की ध्वनियों को 'भ' में परिवर्तित कर देने का निर्णय लिया गया होगा..? और किस आधार पर.. ?

मेरे विचार में यह तर्क ही निहायत हवाई और खोखला लगता है.. कि 'भ' ध्वनि की वे सारे शब्द जो अन्य इंडो-यूरोपियन भाषाओं में 'ब' ध्वनि से हैं.. मूल आर्य भाषा में 'ब' ध्वनि से थे परंतु भारतीय आर्यों ने उन्हे 'भ' ध्वनि में परिवर्तित कर लिया.. ऐसे शब्दों की सूची में भ्रातृ का brother और भू का be.. सहज तौर पर देखे जाने वाले उदाहरण है..

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम। होतारं रत्नधातमम॥ संस्कृत भाषा के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद का यह पहला सूक्त है.. इसके पहले शब्द अग्निमीळे में जो 'ळ' अक्षर का प्रयोग हुआ है.. मराठी में इस का प्रचलन आम है.. तमिल और अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी इस का जम कर इस्तेमाल होता है.. लेकिन इस अक्षर की ध्वनि को उत्तर भारत में इस तरह से लिपिबद्ध नहीं करते.. पर उत्तर भारतीय लोग इस 'ळ' को 'ड़' की तरह लिखते हैं.. मेरी जानकारी में किसी सी इंडो यूरोपियन भाषा में 'ड़' या 'ळ' का प्रयोग नहीं होता है.. और यदि ये द्रविड़ प्रभाव है.. तो इसे ऐसा समझा जाना चाहिये कि आर्य भाषा व संस्कृति किसी आदि इंडो-यूरोपियन भाषा और संस्कृति से अधिक द्रविड़ भाषा व संस्कृति के अन्दर गुँथ कर विकसित हुई हैं..उन को एक दूसरे से अलग-अलग कर पाना असंभव है..

डा० अम्बेदकर, जिन्होने प्राचीन भारतीय साहित्य और इतिहास घोट के पी रखा था, अपने लेख शूद्र और प्रतिक्रांति में लिखते हैं कि, "..इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्य भारत में बाहर से आए. और उन्होने यहाँ के निवासियों पर आक्रमण किया था। इस बात की पुष्टि के लिए प्रचुर प्रमाण है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे.." (सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड ७,शूद्र और प्रतिक्रांति, पृष्ठ ३२१)

और डा० रामविलास शर्मा लिखते हैं, "..विद्वानों ने कल्पना की है कि आर्यगण स्लाव प्रदेशों से चले और ईरान होते हुए भारत आ पहुँचे।सघोष महाप्राण ध्वनियाँ कहीं भी उनके साथ न रहीं, सिंधु पार करते ही भारत में प्रगट हो गईं। अथवा आर्य अनातोलिया से चले,हित्ती मितन्नी क्षेत्रों में कहीं भी वे ध्वनियाँ उनके साथ न रहीं, जब भारत आए तो वे प्रगट हो गईं। दोनों ही स्थितियों में मूल ध्वनियाँ भारत में हैं, पूर्वी-पश्चिमी शाखाओं में उनके रूपान्तर मात्र हैं। उल्टी गंगा बहाने के बदले एक बार मान लें कि 'घ', 'ध', 'भ', इन सघोष महाप्राण ध्वनियों का स्रोत देश भारत है, तो एक धारा पूर्व को और एक पश्चिम को सहज भाव से बहती दिखाई देगी, आर्येतर प्रभावों से भारत के बाहर ये ध्वनियाँ अपना रूप बदलती जायेंगी.." ( वही, पृष्ठ २४१)

इन विद्वानों के तार्किक विचारों के बावजूद ये सहज तौर पर सत्य की तरह से प्रचारित है कि आर्य बाहर से आए १५०० ईसा पूर्व में.. और उन्होने सिन्धु घाटी सभ्यता को नष्ट किया.. जबकि न आर्यों के कहीं से आने के प्रमाण मिलते हैं.. और न ही सिंधु घाटी सभ्यता में किसी संघर्ष के और न ही उस सभ्यता को किसी आक्रमण द्वारा नष्ट करने के.. आर्य कहीं न कहीं से तो आए ही होंगे.. या कहीं से न भी आए हों.. ऐतिहासिक गवेषणा से जो भी सत्य उद्घाटित होता हो वो समझा जाय, जाना जाय, पढ़ाया जाय.. मगर परेशानी की बात यह है कि एक नितान्त काल्पनिक अवधारणा, जो अधिकतम तौर पर एक सिद्धान्त कही जा सकती है.. एक आर्य सत्य की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी देश के एक-एक स्कूल में दाल रोटी की तरह परोसी जा रही है.. क्यों?

इस विषय पर लम्बी बहस है.. और इस से जुड़े हुए दूसरे मामले हैं.. कुछ हिन्दूवादी दल आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत का बुरी तरह विरोध करते हैं बावजूद इसके कि बाल गंगाधर तिलक और विनायक दामोदर सावरकर इस सिद्धांत के पक्षधर थे.. जबकि आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को मानने वाले वामपंथी विद्वान अपने विरोधियों के छिपे हुए एजेण्डे की धार को ये साबित कर के कुंद करना चाहते हैं कि वे खुद इस भूमि पर एक आक्रमणकारी विदेशी की हैसियत से हैं.. और उनके पावन ग्रंथ की रचना किसी अन्य देश में हुई थी..

ये कोशिश नितान्त बचकानी और खोखली है कि सिर्फ़ इसलिए यह सिद्धांत सही सिद्ध हो जाय क्योंकि विरोधी पूर्वाग्रह ग्रस्त है और गलत तर्क का इस्तेमाल कर रहा है.. दूसरे शब्दो में कहें तो क्या आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत सिर्फ़ इसलिए सही सिद्ध हो जाता है क्योंकि आर्यों के भारत के मूल निवासी होने के सिद्धांत की पैरवी एक धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त दल कर रहा है.. ? क्या सिर्फ़ इसीलिए एक झूठ को लगातार ढोया जाता रहेगा..?

शुक्रवार, 20 जुलाई 2007

एक खोए हुए आदमी की तलाश

(३१ जनवरी १९९१ को दिल्ली रेडियो से प्रसारित एक सूचना )


खबर है कि एक आदमी खो गया है, जिसकी उमर यही कोई तीस पैंतीस साल बताई जाती है। वैसे वह चालीस पैंतालिस का भी हो सकता है। जिसने भूरे रंग की बगैर इस्त्री की हुई पतलून और हलके नीले रंग की बुश्शर्ट पहन रखी है। पैरों में एक्शन के स्पोर्टज़ शूज़ हैं और मोज़े कई दिनों से नहीं धुले हैं। बुश्शर्ट की ऊपर की जेब में एक बॉल पेन और कुछ फ़ालतू कागज़ात रखे हुए हैं। जिन्हे वह आदतन बीच बीच में रह रह कर देखता है और बचे हुए कोनों में कुछ लिखता भी है। क्या लिखता है यह अभी तक पता नहीं चल सका है।

वैसे तो उसके बाल उलझे और रूखे रहते हैं पर वो अक्सर नहा कर उनमें नारियल का तेल लगाता है, तब वे एकदम काले और चमकदार हो जाते हैं। हाँ उसके हाथों में एच एम टी की अविनाश मॉडल की घड़ी है जिसके ऊपर उसने पानी से बचाव के लिए पीले रंग का शीशा चढ़ाया हुआ है। उसके बदन का रंग साँवला, आँखों का रंग भूरा और मूँछों का रंग काला है। कई दिन तक दाढ़ी न बनाने पर पतली मूँछे मोटी भी होती रहती हैं। उसे पीलिया नहीं है, पर उसकी आँखों में पीलापन छाया रहता है। उसे डायबिटीज़ ज़रूर है। और शायद वह चाय वगैरह में चीनी का परहेज़ भी करता है। पर उसे अक्सर चावल खाते देखा गया है। और यह भी कहा जाता है कि ज़रा से पैसे मिलने पर वह उन्हे जलेबियों में उड़ा देता है।


विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि उसका घर जमना-पार है। पर अफ़वाह यह भी है कि वह फ़रीदाबाद से आता है। ट्रेनों और बसों में चढ़ने में वह बहुत चुस्त है। यूँ तो उसे नींद कभी-कदार ही आती है, जिसकी वजह से उसकी आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ गए हैं, और वह फटी-फटी सी लगती हैं। रात को बस स्टैंड पर उसे माचिस देने वाले बहुत सारे लोग इन्ही आँखों को देख कर बहुत डर गए थे। नींद आने पर वह कहीं भी सो जाता है। पर अब तक उसे बसों में खड़े-खड़े ही सोता पाया गया है।


उसे बातें करने का बहुत शौक है। जैसा कि पहले कहा गया है कि वहा माचिस माँग कर बात शुरु करता है इसके लिए वह सिगरेट बीड़ियां रखता है पर माचिस कभी नहीं। वह खोई-खोई सी बातें करता है, और कहता है कि वह खो गया है। वह कभी कभी राह चलते लोगों को रोक कर पटलमपुटपू या ऐसी ही किसी जगह का नाम लेता है और उसका रास्ता पूछता है।

शादी या इस तरह के समारोह, जहाँ पर बहुत सारे लोग इकठ्ठा हों, उसे आकर्षित करते हैं। आश्चर्य की बात ये है कि पहले तो अति प्रसन्न हो कर वहाँ घुस जाता है। यदि रोका जाय तो समझाने की कोशिश करता है कि वह भी समारोह का हिस्सा है। लेकिन बाद में वह बहुत दुखी हो कर बड़बड़ाने लगता है और बीड़ियां फूँकने लगता है। कुछ पटलमपुटपु, पहचान और इतिहास जैसे शब्द बार बार दोहराता है। छेड़ा जाय तो गाली गलौज और हाथापाई पर भी उतर सकता है।

आम नागरिकों को हिदायत दी जाती है कि वे सावधान रहें और इस व्यक्ति के दिखने या खबर मिलने पर फ़ौरन १०० न० डायल करें या पास की पुलिस चौकी में सम्पर्क करें। राष्ट्र व समाज के हित में इस व्यक्ति को पकड़वाने वाले को ईनाम व सम्मान प्रदान किया जायेगा।


इस ब्लॉग पर यह प्रविष्टि छपने तक के साढ़े सोलह बाद भी इस आदमी को पकड़ा नहीं जा सका है.. हो सकता है यह अभी भी दिल्ली में भटक रहा हो.. या हो सकता है इस बीच मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, कानपुर या पटना आदि किसी दूसरे बड़े शहर में चला गया हो.. सावधान रहें..

तस्वीरें: प्रसिद्ध नॉरवीजियन चित्रकार एदवर्द मंच की कृतियाँ.. डेस्पेयर, एंग्ज़ाइटी व स्क्रीम।

गुरुवार, 19 जुलाई 2007

मैं और मेरी छवि

पिछले काफ़ी दिनो से बढ़ रही दाढ़ी कटा दी.. कुछ लोग कह भी रहे थे कि कटवा दो कटवा दो.. उनके दिलोदिमाग में मेरी एक खास छवि थी जो मेरी दिनोदिन लम्बी हो रही दाढ़ी से लगातार आहत हो रही थी.. यूं तो मैं किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हूँ.. पर इस प्रकार का मानसिक बदलाव मैं हिंसा में नहीं गिनता.. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर गिनते थे.. ओशो ने कहीं ज़िक्र किया है.. कि वो एक दफ़े गाँधी के साथ टहलने जाने के लिए निकले तो घंटो आईने के सामने बैठे अपने आप को संवारते रह गए.. उन्हे डर था कि कहीं कोई देखने वाला उनकी वृद्धावस्था की कुरूपता से आहत न हो जाय..

मेरे पास अपनी दाढ़ी को कुरूपता में गिनने का कारण अभी पैदा नहीं हुआ है.. मेरी दाढ़ी से लोगों के आहत होने की वजह उनके भीतर बदलती मेरी छवि थी.. बदलाव हिंसक हो सकते हैं पर सभी बदलाव हिंसक होंगे कोई ज़रूरी है.. बल्कि बदलाव ज़रूरी हैं.. लेकिन मनुष्य स्वभाववश बदलाव का प्रतिरोध करता है..

मगर मैंने आहत हो रहे लोगों के दबाव में दाढ़ी नहीं कटाई.. तो फिर क्यों कटाई ? कुछ लोग मुझे बाबा कहने लगे थे, कुछ स्वामी.. मेरे अभिन्न मित्र प्रमोद सिंह भी बार बार मुझे स्वामी कह कर अपनी पोस्टों में हवाला देने लगे थे.. मेरे अन्दर भी एक स्वामी का उदय होना शुरु हो गया था.. किसी भी विशेषण की प्राप्ति होते ही आप उसकी सीमाओं में कै़द हो जाते हैं.. उसके गुण अवगुण और दुर्गुण से बँध जाते हैं.. किसी भी स्वतंत्रता प्रेमी व्यक्ति के लिए ये वांछनीय स्थिति नहीं है.. मगर विशेषण के मोह और लिप्सा में लोग अपनी स्वतंत्रता को कभी गिरवी रख, कभी क़ुरबान कर अपनी निजता को विशेषण के साथ एकाकार कर लेते हैं.. और भविष्य के सारे बदलावों की सम्भावना से स्वयं को वंचित कर देते हैं..

इस परिघटना का क्लासिक उदाहरण फ़िल्म स्टार्स होते हैं.. एक काल विशेष में जनता उनके अभिनय को इतना पसन्द करती है कि उनकी अदाओं की नकल करना शुरु कर देती है.. फ़िल्म स्टार जनता के इस प्रेम से आह्लादित रहता है.. मगर जीवन सदा तो एक सा तो रहता नहीं.. तुलसी बाबा भी लिख गए हैं.. हर दिन होत न एक समाना.. उस काल खण्ड के बीत जाने के बाद फ़िल्म स्टार एक नए बदलाव से गुज़रता है.. उसके अन्दर एक नए व्यक्ति और नए व्यक्तित्व का जन्म होता है.. मगर अपनी छवि के मोह में उस बदलाव को लगातार प्रतिरोध करता है स्टार.. और पहले वाली पर्सनैल्टी को पूरी तरह न प्राप्त कर सकने की विवशता में अपनी अदाओं की नकल करना शुरु कर देता है.. जैसे उसके प्रशंसक करते हैं.. और स्वयं अपने आप का कैरीकेचर बन जाता है.. अपनी ही छवि के गुलाम बन जाता है.. देव साहब से देवानन्द का बेहतर कैरीकेचर कई दूसरे लोग करते हैं.. चार्ली चैपलिन के बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार चार्ली चैपलिन क्लोन प्रतियोगिता में वह खुद भी भाग लेने पहुँचे और बुरी तरह हार गये.. पहले पाँच में भी न आ सके..

और इस परिघटना का दूसरा छोर होगा कि व्यक्ति अपनी कोई छवि बनने ही न दे.. बनते ही तोड़ दे.. छवि व्यक्ति नहीं है.. व्यक्ति की काल्पनिक या आभासी अनुकृति है जो दूसरों के मानस में अंकित होते है.. व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्यकलापों द्वारा ही इसका निमार्ण होने के बावजूद, इस पर व्यक्ति का अधिकार नहीं होता..मैं अपनी छवि पर अपना अधिकार चाहता भी नहीं.. वह दूसरे का अधिकार क्षेत्र है.. वो वही सम्हाले.. दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं इस के प्रति मैं बहुत परेशान नहीं होना चाहता.. मैं उनकी सोच को नियंत्रित नहीं करना चाहता.. और साथ ही साथ इस स्थिति की पलट-स्थिति से भी बचना चाहता हूँ.. जब कि मेरी अपनी छवि मुझे नियंत्रित करने लगे.. दूसरे मेरे बारे में जो सोचते हैं मैं उसी से निर्धारित होने लगूँ.. लोगों ने मेरे बारे में बाबा की स्वामी की छवि बना ली.. मुझे भी अच्छा लगने लगा.. और मैं बाबा हूँ नहीं.. पर छवि के दबाव में बाबा होने की कोशिश करने लगा..

मैं ऐसी किसी भी बाध्यता से बचना चाहता हूँ.. और किसी भी आगामी बदलाव की लहर के लिए.. नए प्रभाव के लिए अपने आप को खुला, लचीला व स्वतंत्र रखना चाहता हूँ.. ताकि नए विचारों, नए जीवन का बिना किसी भय और बोझ के बढ़ कर स्वागत कर सकूँ.. बाबा बनने में कोई तकलीफ़ नहीं.. पर अन्दर की स्फूर्ति से बन गया तो बन गया.. मगर लोगों द्वारा आरोपित छवि के दबाव में बाबा बन जाने से बेहतर है कि ऐसी छवि का विध्वंस कर दिया जाय..

तस्वीरे: सबसे ऊपर मेरी बाबाई छवि की तस्वीर.. बीच में और नीचे अपनी छवि के साथ किए गए कुछ फोटोशॉपाई खेल..

शुक्रवार, 13 जुलाई 2007

बजरबट्टू यानी चश्मे बद दूर

शब्दों के सफ़र को वापस तय करने निकले अजित वडनेरकर जी रोज़ एक दो शब्दों के सफ़र की चर्चा कर रहे हैं.. आज उन्होने बेटा और बजरबट्टू की चर्चा की है.. मैं उनके काम का मुरीद हूँ लेकिन आज मैं उनसे सहमत नहीं हो पा रहा हूँ.. मेरा ख्याल है कि वटु से बेटा तो ठीक है.. मगर बजरबट्टू का जो उन्होने अर्थ और व्युत्पत्ति दी है वो मुझे ठीक नहीं लग रही है.. उनका कहना है कि बजरबट्टू का अर्थ मूर्ख और उसकी व्युत्पत्ति वज्र और वटुः से है..

मैंने पाया है कि बजरबट्टू शब्द का लोकप्रिय प्रयोग बुरी नज़र से बचाने वाले एक पत्थर के अर्थ के बतौर है.. रामशंकर शुक्ल 'रसाल' के भाषा शब्द कोष में भी बजरबट्टू का अर्थ है- एक पेड़ का बीज जिसे दृष्टि दोष से बचाने के लिए बच्चों को पहनाते हैं.. बजर तो साफ़ साफ़ वज्र का तद्भव है.. मगर बट्टू क्या है..? क्या वट? क्या वटन? या वटक?

मुझे तो लगता है कि यहाँ वटक ही सही है क्योंकि वटक मायने है छोटा पत्थर का ढेला..उसकी उत्पत्ति वट धातु से ही है जिसका अर्थ है.. बाँटना.. विभाजित करना.. ध्यान दीजिये.. बाँटना वट से ही आ रहा है.. तो वटक बना वो बाँट..जो चीज़ों को तौलने यानी विभाजित करने में काम आये.. जिसके लिए छोटे पत्थर के ढेलों का ही उपयोग होता रहा होगा.. और कालान्तर में हर छोटा पत्थर वटक कहलाया जाने लगा होगा.. जिसे आज हम बटा या बटिया कहते हैं.. ध्यान दें.. एक बटा दो.. और दो बटा तीन..वाला बटा भी यहीं से उपज रहा है.. तो आपका बजरबट्टू वह छोटा पत्थर है जो नज़र बचाने के काम आता है..

मगर रसाल का शब्दकोष कह रहा है कि वह एक बीज है.. अब देखिये नेट पर क्या क्या सूचना उपलब्ध है..


सूचना १) एक प्रकार के पाम या ताड़ के पेड़ का नाम भी बजर बट्टू है.. देखिये यहाँ.. जिसके पत्तो से लोग अपने झोपड़ों की छत बनाते हैं.. और पेड़ में ३० से ८० साल बाद एक ही बार हज़ारों की संख्या में फल आते हैं.. और उसके बाद पेड़ मर जाता है.. ये फल ३-४ सेंटीमीटर बड़े होते हैं और इसके अन्दर एक ही बीज होता है..

सूचना २) इस बीज का इस्तेमाल कुछ जनजातियां गले का हार बनाने में करती हैं.. देखिये यहाँ..

सूचना ३) बच्चों के गले में पहनाया जाने वाला छत्तीसगढ़ का एक महत्वपूर्ण आभूषण ‘बजरबट्टू’ है.. देखिये यहाँ..

और फिर आखिर में रसाल जी के शब्दकोष का अर्थ पुनः याद किया जाय कि बजरबट्टू, बच्चों को नज़र लगने से बचाने का एक पेड़ का बीज है..

रह गई बात पत्थर और बीज की.. तो हर छोटे पत्थर को वटक या बटा कहना और हर पत्थरनुमा बीज को भी बटा कह देना शब्द की यात्रा के पड़ाव माने जा सकते हैं..

तो मित्र अजित जी.. मेरा ख्याल है कि बजरबट्टू का बट्टू.. वटुः से नहीं बल्कि वटक से आ रहा है..

बुधवार, 11 जुलाई 2007

धरम जाय तो जाय.. जात ना जाय..

मारे एक परिचित हैं सुकुल जी.. उनके और हमारे बीच कुछ भ्रम पैदा हो गए हैं और कुछ अनबन हो गई है..हो जाती है.. पर हमारा रिश्ता बड़ा गहरा है.. वे भी बाभन हैं और हम भी बाभन.. ये हिन्दू होने और हिन्दुस्तानी होने से कहीं गहरा नाता है.. नस्ल का रिश्ता है ये.. हो सकता है कभी किसी ज़माने में मैं धर्म बदल कर मुसलमान हो जाऊँ.. सुकुल जी ईसाई हो जायं.. तो क्या हम बाभन नहीं रहेंगे.. ? कैसे नहीं रहेंगे जी बिलकुल रहेंगे..वहाँ भी हमारा श्रेष्ठ होने का वही एहसास होगा.. गरिमा होगी.. बड़प्पन होगा..

हिन्दुस्तानी मुसलमानों में सय्यद कौन हैं.. ?..जी बाभन हैं.. पठान बाबूसाब यानी राजपूत हैं.. शेख कायस्थ हैं.. और अंसारी जुलाहे हैं.. अब मुसलमान होने के नाते ये सब रोटी भले साथ में खा लें.. मगर बेटी.. न-न.. बेटी जात में ही दी जाती है.. आप को लग रहा होगा कि चलो यहाँ तक तो बात मानी पर ईसाईयों में कौन सा बाभन होता है..? कुछ दिन पहले तक हमारा भी यही ख्याल था कि ईसाई धर्म में सब बराबर होते हैं.. कोई जात पाँत नहीं.. पर हमारी प्राचीन संस्कृति.. बड़े गहरे संस्कार बोती है.. और फिर अहिर, जुलाहे, तेली अपनी जात छोड़ दें तो छोड़ दें.. हम बाभन अपनी श्रेष्ठता का गरिमामय बड़प्पन सब जगह साथ ले कर जाते हैं.. धर्म बदल जाने के बाद भी.. ईसाई हो जाने के बाद भी..

देखिये एक नज़र यहाँ..



देख रहे हैं.. ये मेरे द्वारा नेट पर GRC Brahmin के लिए की गई सर्च के नतीजे हैं.. और जो मिला है वो शादी के क्लासीफ़ाईड विज्ञापन हैं.. यहाँ पर ब्राह्मिन तो साफ़ है.. मगर जी आर सी क्या है..? जी आर सी है.. गोवन रोमन कैथोलिक.. तो पूरा नाम हुआ गोवन रोमन कैथोलिक ब्राह्मण.. और गोवा में सिर्फ़ रोमन कैथोलिक ब्राह्मण ही नहीं होते.. रोमन कैथोलिक अछूत भी होते हैं.. ये वर्ग आपस में ही शादियां करते हैं.. और उनके चर्च भी अलग अलग होते हैं.. गोवन मछुआरों की पुरानी हिन्दू जाति कुनबी, ईसाई हो जाने के बाद भले ही अछूत नहीं रही.. मगर सबसे निम्न वर्गीय बनी हुई है..

मेरे भाई संजय तिवारी गोवा में सपरिवार मौज कर रहे थे.. ब्लॉगर संजय तिवारी नहीं, वैसे वो भी मेरे भाई ही हैं.. सरयू पारी हैं तो क्या.. हैं तो बाभन हीं ..पर मैं उनकी नहीं अपने सहोदर.. बड़े भाई की बात कर रहा हूँ.. उन पर यह रहस्य उदघाटित हुआ.. वे हिल गये.. फिर उन्होने मुझे हिलाया.. अब आप भी हिले रहिये.. और अपने धार्मिक और जातीय संस्कारों को ज़रा परखते रहिये.. हो सकता है आप उनके प्रति पूरी तरह अचेत हों.. मैं अपने बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं.. अपने मित्रों की सूची में मुझे बहुत सारे सुकुल, मिसिर और पांड़े दिखाई दे रहे हैं..अहिर एक भी नहीं..

सोमवार, 9 जुलाई 2007

पाया ब्लॉग जगत ने एक नया नगीना

इस नगीने का नाम है अजित वडनेरकर.. और इनके ब्लॉग का नाम है शब्दों का सफ़र.. यूं तो भोपाल में एक पत्रकार की हैसियत से अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं अजित जी.. मगर मेरी दृष्टि में उस से भी कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण.. वे हिन्दी भाषा के संसार में एक मौलिक काम कर रहे हैं.. शब्दों को उनके मूल में जाकर जाँच परख रहे हैं.. देश काल और विभिन्न समाजों में उनकी यात्रा को खोल रहे हैं.. हमारे हितार्थ.. हिन्दी में इस प्रकार के काम विरल हैं..

रामचरितमानस छाप कर हिन्दी की सेवा पर सीना ठोंकने वाले आप को बहुत मिलेंगे मगर ऐसे नगीने दुर्लभ हैं.. पतनशील प्रकाशकों और साहित्यिक मठाधीशों के हिन्दी के भ्रष्ट भाषा संसार में ऐसी प्रतिभाएं गुमनामी की धुंध से बाहर नहीं आ पाती कभी.. इन्टरनेट की नई तकनीकों ने हमें वो आज़ादी दी है कि आज वैयक्तिक अभिव्यक्ति के लिए किसी की खुशामद की सीढ़ियों पर सर तोड़ने की ज़रूरत नहीं.. मगर अठन्नी के संतरे में बहकने वालो की ज़मीन से उगे लोग जिनकी पुरानी पीढ़ियां चपरासी के पद मद में चूर होती रहीं.. यहाँ भी सत्तामद में रो गा रहे हैं.. उन्हे अपने रुदन में लोटने दीजिये.. आइये आनन्द लीजिये अजित जी के शब्दों के स्वाद का..

संस्कृत में एक क्रिया है सृ जिसका मतलब होता है जाना, तेज-तेज चलना, धकेलना , सीधा वगैरह। इन तमाम अर्थों में गति संबंधी भाव ही प्रमुख है। सृ से ही बना है सर शब्द जिसका मतलब न सिर्फ जाना है बल्कि गतिवाले भाव को प्रदर्शित करता हुआ एक अन्य अर्थ जलप्रपात भी है। यही नहीं सर का मतलब झील भी है। इसी से सरोवर भी बना है । अमृतसर , मुक्तसर , घड़सीसर जैसे अनेक नामों में भी यही सर समाया है..
(सड़क-सरल-सरस्वती )

भारत में आमतौर पर बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर यात्रियों का सामान ढोने वाले के लिए कुली शब्द का प्रयोग किया जाता है। किसी जमाने में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति का सबसे घिनौना पहलू इसी शब्द के जरिये उजागर हुआ था । सभी ब्रिटिश उपनिवेशों के मूल निवासियों के लिए अंग्रेज कुली शब्द इस्तेमाल करने लगे थे। अंग्रेजी, पुर्तगाली के अलावा यह शब्द तुर्की,चीनी, विएतनामी बर्मी, आदि भाषाओं में भी बोला जाता है। हिन्दी को कुली शब्द पुर्तगालियों की देन है पर यह भारतीय मूल का ही शब्द है। हालांकि आर्य भाषा परिवार का न होकर इसका रिश्ता द्रविड़ भाषा परिवार से जुड़ता है।हिन्दी का कुली दरअसल तमिल मूल का शब्द है और कन्नड़ में भी बोला जाता है। इन दोनों भाषाओं में इसका उच्चारण कूलि के रूप में होता है जिसका मतलब हुआ मजदूर अर्थात ऐसा दास जो मेहनत के बदले में पैसा पाए..(कुली के कुल की पहचान )

महाभारत के प्रसिद्ध पात्र अर्जुन और दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना में भला क्या संबंध हो सकता है ? कहां अर्जुन पांच हजार साल पहले के द्वापर युग का महान योद्धा और कहां अर्जेंटीना जिसकी खोज सिर्फ पांच सौ वर्ष पहले कोलंबस ने की। दोनो में कोई रिश्ता या समानता नजर नहीं आती। पर ऐसा नहीं है। दोनों में बड़ा गहरा रिश्ता है जिसमें रजत यानी चांदी की चमक नजर आती है। भारतीय यूरोपीय भाषा परिवार का रजत शब्द से गहरा नाता है। इस परिवार की सबसे महत्वपूर्ण भाषा संस्कृत में चांदी के लिए रजत शब्द है। प्राचीन ईरानी यानी अवेस्ता में इसे अर्जत कहा गया है.. (अर्जुन, अर्जेंटीना और जरीना)

भ‌ाष‌ा क‌ा शुद्धत‌म रस निचोड़ रहे हैं अजीत जी..और शुद्ध आन‌न्द की स‌रित‌ा ब‌ह‌ा रहे हैं.. (ध्य‌ान दें.. स‌रित‌ा में भी स‌र है..).. आन‌न्दम‌.. आन‌न्द‌म‌..

अब के पहले मैंने जिन भी लोगों का परिचय अपने ब्लॉग के माध्यम से कराया वे मेरे मित्र थे.. उनसे मेरी एक लम्बी पहचान रही थी.. मगर अजित वडनेरकर साहब से मेरा परिचय सिर्फ़ हफ़्ता भर पुराना है और चिट्ठाजगत के माध्यम से हुआ है.. वे लगभग रोज़ लिख रहे हैं..

अजित जी जैसे नए नगीनों को देखने के लिए और उन्हे लगातार पढ़ने के लिए या तो उन्हे किसी रीडर से सब्सक्राइब कर लें या देखते रहें चिट्ठाजगत.. या ब्लॉगवाणी..

रविवार, 8 जुलाई 2007

ई-स्वामी का भयानक सपना और मेरा जवाब

जीतेन्द्र चौधरी नारद हैं, ऐसी घोषणा तो वे हर मौके पर करते ही रहते हैं..अब ये ईस्वामी क्या हैं.. मैं नहीं जानता.. वे सनक, सनन्दन, सनातन हैं या सनत्कुमार.. हो सकता है कुछ लोग जानते हों.. मैं नहीं जानता.. हाँ उनके हाल के एक डर के बारें में ज़रूर जान गया हूँ.. उन्हे डर है कि साम्प्रदायिकता के इस (ऑफ़ कोर्स आर्टीफ़ीशिएल) हल्ले में उन्हें साम्प्रदायिक समझ लिया जायेगा.. इस पर मेरा जवाब उन्हे यह है..

साम्प्रदायिकता के मसले पर आप न ही बोलते तो कम से कम हमें आप के बारे में भम बना रहता.. पर बोल के आप ने खुद ही अपना कचरा कर लिया.. अब तो पोल खुल गई कि आप की समझ भी उतनी ही संवेदनहीन है जितनी एक बहुसंख्यक समुदाय के किसी खाते पीते व्यक्ति की होती है.. क्या समस्या है.. क्यों गला फाड़ रहे हो? थोड़ी शांति रहने दो.. हर चीज़ में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता.. हद कर रखी है तुम लोगों ने.. छी.. कब तक इस तरह का ज़हर फैलाओगे..आदि आदि.. इस प्रकार के विचार आप के नारद समुदाय में कूट कूट के भरे हैं..

आप इस बात से ही आहत हुए जा रहे हैं कि किसी ने आपको साम्प्रदायिक कह दिया.. आप को सपने आ रहे हैं कि आप की इमेज खराब हो गई.. ज़रा सोचिये..कि आप, आप के परिवार, आप के समुदाय के लोगों को राज्य और पुलिस के साथ मिल कर बहुसंख्यक समुदाय के लोग, चुन चुन कर खुले आम मारें.. (कारण पर मत जाइये.. किसने शुरु किया इस बहस को भी दिमाग में मत लाइये).. आप के घर परिवार के आधे से ज़्यादा लोग मारे जायें.. आप हत्यारों के खिलाफ़ रपट तक न लिखवा सकें.. अपना जला हुआ घर छोड़ कर कैम्पों मे गुज़ारा करें.. फिर कोई तीसरा व्यक्ति आप पर तरस खा कर आप के इस कैम्प के जीवन पर कोई छोटी से कहानी लिख दे.. और छाप दे.. और मैं उसे पढ़ कर कहूँ कि.. बड़े नीच आदमी हो इस तरह ज़हर फैला रहे हो.. फिर कोई मुझ पर सवाल उठाये तो मैं उसे बदतमीज़ कहूँ.. शालीनता बनाये रखने की बातें करूँ.. आप के समुदाय का एक साथी इस पर विरोध करे तो मै कहूँ कि निकल जाओ तुम भी.. फिर तमाम पानी बह जाने के बाद किसी से कोई माफ़ी माँगने का ख्याल दूर दूर तक मेरे मन में भी आए.. माफ़ी??!!! कैसी माफ़ी??? किस बात की माफ़ी???!!!

समझ रहे हैं..? नहीं.. आप को ये नहीं समझ में आएगा.. क्योंकि आप बहुसंख्यक संवेदनहीनता के शिकार है.. और फिर देश से बाहर भी हैं..आप अपने सपने को भयानक कह रहे हैं.. माफ़ करें आप नहीं जानते कि भय क्या होता है और भयानक क्या होता है..

आप लोगों ने एक समय में देश से बाहर रह कर अपनी ज़मीन से अपनी भाषा से जुड़े रहने के लिए एक सचेत कोशिश के तहत एक सार्थक मंच बनाया.. हम आप के उस योगदान को समझते हैं.. उसकी एक वक्त तक एक भूमिका थी.. पर हर चीज़ की तरह उस भूमिका की भी एक सीमा है.. पिछले कुछ महीनों में आप के इस मंच से जो लोग जुड़े वे अलग ज़मीन और पृष्ठभूमि से आते हैं.. आप उनकी ज़रूरत और जज़्बे को नहीं समझते.. वे विदेशी ज़मीन पर अपनी भाषा को जिलाये रखने की चिंता से ग्रस्त नहीं है.. उनका आकाश दूसरा है.. आप की खिड़कियों से वो नज़र नहीं आयेगा..

आप अभी भी नारद को एक किटी पार्टी समझ रहे हैं..जबकि इस में आजकल बहुत सारे भूखे नंगे अवर्ण अछूत आप की पार्टी स्पॉयल करने घुस आए हैं.. आप के पास दो ही रास्ते हैं या तो अपनी समझ को परिमार्जित कीजिये और इस मंच को शुद्ध व्यावसायिक स्तर पर दुबारा खड़ा कीजिये.. या अछूतों अवर्णों को बाहर कर के अपने घर के दरवाजे और कस के बंद कीजिये.. और चालू रखिये अपनी किटी पार्टी को..

शनिवार, 7 जुलाई 2007

प्यार एक भूली हुई चिट्ठी

ये नन्हा विचार जिसे आम तौर पर हिन्दी की दुनिया में कविता भी कह दिया जाता है काफ़ी पहले किसी डायरी में दर्ज पाया गया.. शायद १९९० के किसी दिन पर अंकित.. तब प्यार , ईर्ष्या, द्रोह, विद्रोह आदि अनुभूतियां भभक कर हृदय को ग्रसती थीं.. काल के प्रभाव में अब सब कुछ ठण्डेपन की एक वैचारिकता के अन्तर्गत हो गया है.. बस विस्मृति का दोष पहले की तरह आज भी का़यम है..

ये विचार भी स्मृति की रिसाइकिल बिन में ही पड़ा हुआ था.. मगर चिट्ठाजगत पर अपने चिट्ठे को अधिकरण करने की अकुलाहट के चलते.. कि क्या चढ़ाऊँ.. दो घण्टे पहले तो एक बाल कविता चढ़ाई है.. अचानक यह टुकड़ा हाथ आ गया.. चिपका रहा हूँ..


प्यार एक भूली हुई चिट्ठी..

जिसे खोजने में गँवा दिया..

फ़ुर्सत का एक अमूल्य दिन..

विस्मृति ... क्षुद्रतम हथियार..




हल्लम हल्लम हौदा

कल की कविता इब्न बतूता पहन के जूता के ऊपर भाई बोधिसत्व की प्रतिक्रिया आई.."..आज कुछ ही कवि हैं जो बच्चों के लिए भी लिखते हैं बनारस के श्री नाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल और सुरेश सलिल को छोड़ दें तो शायद ही कोई कवि बाल कविताएं रच रहा हो। मैं भी अपने को अपराधी पाता हूँ.." ..हिन्दी समाज की आम और हिन्दी साहित्य की खास और उसमें भी बच्चों की खासम खास दुर्दशा पर बोधिसत्व और तमाम दूसरे मित्रों के अपराध बोध को हवा देने के लिए एक और प्यारी और प्रासंगिक कविता को पेश कर रहा हूँ..
इस कविता के लेखक डा० श्री प्रसाद के बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं है.. कविता हाथरस के संगीत कार्यालय के बाल संगीत अंक में प्रकाशित हुई थी .. मेरी मित्र ऋतिका साहनी सम्भवतः इस गीत और कुछ अन्य बच्चों के गीतों पर शीघ्र ही एक ऑडियो एल्बम निकालेंगी.. इस कविता से मेरा परिचय उन्ही के मार्फ़त हुआ .. उनको धन्यवाद देते हुए आप के आनन्द के लिए प्रस्तुत है.. हल्लम हल्लम हौदा..


हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम,
हम बैठे हाथी पर,
हाथी हल्लम हल्ल्म।

लम्बी लम्बी सूँड़,
फटाफट फट्टर फट्टर,
लम्बे लम्बे दाँत,
खटाखट खट्टर खट्टर।

भारी भारी मूँड,
मटकता झमम झमम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

परवत जैसी देह,
थुलथुल थल्लम थल्लम,
हल्लर हल्लर देह हिले,
जब हाथी चल्लम।

खम्बे जैसे पाँव,
धपाधप पड़ते धम्मम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

हाथी जैसी नहीं सवारी,
अग्गड़ बग्गड़,
पीलवान मुच्छड़ बैठा है,
बाँधे पग्गड़।

बैठे बच्चे बीस,
सभी हैं डग्गम डग्ग्म,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

दिन भर घूमेंगे,
हाथी पर हल्लर हल्लर,
हाथी दादा,
ज़रा नाच दो थल्लर थल्लर।

अररे नहीं,
हम गिर जायेंगे धमम धमम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

कवि -डा० श्री प्रसाद

शुक्रवार, 6 जुलाई 2007

इब्न बतूता पहन के जूता

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता यूँ तो बच्चो के लिए लिखी गई थी.. मगर हम बड़े भी एक स्तर पर बच्चे ही होते हैं.. कुछ ज़रा.. कुछ थोड़े.. कुछ निहायत.. खेल खेल में रूठ जाते हैं.. धमकाने लगते हैं.. कि अपने बर्थडे पर नहीं बुलाऊँगा.. अपनी साइकिल पर नहीं बैठाऊँगा.. ये बचपना जीवन भर चलता रहता है.. दाढ़ी मूँछ सफ़ेद हो जाती है.. समाज में लोग ताऊ आदि कह कर पुकारने लगते हैं.. मगर हम वही अपने बर्थडे की धमकी के आगे बढ़ ही नहीं पाते.. बिल्डिंग की सोसायटी या स्पोर्ट्ज़ क्लब के स्तर पर अपनी बाल-सुलभता बिखेरते चलते हैं.. हम सब की इन्ही अबोध वृत्तियों को अर्पित यह कविता..

इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफ़ान में,
थोड़ी हवा नाक में घुस गई,

घुस गई थोड़ी कान में।

कभी नाक को, कभी कान को

मलते इब्न बतूता,
इसी बीच में निकल पड़ा

उनके पैर का जूता।

उड़ते उड़ते जूता उनका

जा पहुँचा जापान में,
इब्न बतूता खड़े रह गए

मोची की दुकान में।

बुधवार, 4 जुलाई 2007

मोबाइल धारको से एक अपील

(और आप लोगों का एक बड़ा वर्ग है.. जो लोग ब्लॉग जैसी तक्नीक का इस्तेमाल कर के इस लेख तक पहुँचे हैं.. वे मोबाइल फोन की सीढ़ी पार कर के यहाँ तक आए हैं..)

मित्रों, मैं एक ऐसी समस्या के प्रति आप का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जिससे मैं तब से आक्रान्त हूँ जब से मोबाइल फोन मेरे जीवन में आया है.. मेर अपराध सिर्फ़ इतना है कि मेरा नाम अभय है.. अंग्रेज़ी अल्फाबेट के पहले दो अक्षर मेरे नाम के पहले दो अक्षर होने के कारण अक्सर मेरा नाम लोगों की फोन बुक के शीर्ष पर होता है..होते होंगे पहला होने के फ़ायदे.. यहाँ कोई नहीं.. उल्टा नुक्सान है.. अकसर मेरे पास ऐसे संदेश आते हैं जिनमें या तो कुछ ऊलजलूल लिखा होता है... कुछ ऐसा.. dskjgkjfdpdjei.. या फिर कुछ भी नहीं.. और एक नहीं.. एक के बाद एक आते ही जाते हैं.. पाँच दस पन्द्रह बीस तीस पचास..

ऐसा तब होता है जब मेरे वे मित्र अपना फोन लॉक नहीं करते.. दुर्भाग्य से मेरा नाम जिनकी फोन बुक में पहला है.. और किन्ही अनजान अनदेखे कारणवश उनके फोन की कुंजियां कुछ इस तरह से दबती हैं कि मेरे नाम संदेश रवाना होना शुरु हो जाते हैं.. ऐसा जेब में पड़े पड़े.. चलते फिरते लेटे बैठे.. किसी भी अवस्था में हो सकता है.. जबकि फोन की कुंजियां दबने के लिए स्वतंत्र हो जाय (विरोधाभासी वाक्य है, माफ़ करें)..

और मुझे सिर्फ़ ऐसे संदेश ही नहीं आते.. कॉल्स भी आते हैं.. मित्र का नाम मेरे फोन के स्क्रीन पर चमकता है.. मैं उत्साह से भरकर हलो कहता हूँ.. या अति उत्साह से भरकर ये तक कह डालता हूँ कि फ़ुर्सत मिल गई हम से बात करने की.. और न जाने क्या क्या.. और दूसरी तरफ़ से अजीब साउन्डट्रैक चल रहा होता है.. कभी कार में संगीत और बाहर के ट्रैफ़िक का शोर.. कभी ट्रेन की घटर घटर.. कभी रेस्तरां का हल्ला गुल्ला.. कभी सिनेमा हॉल की ध्वनियों का संसार.. कभी मियाँ बीबी के झगड़े के बीच बच्चे की चिल्लपों.. कभी कुछ अंतरंग फ़ुसफ़ुसाहटें.. इन सब को मैंने सुनते हुए परिस्थिति के अनुरूप अलग अलग मात्रा में अपराध बोध का अनुभव किया है..

और उनके हालात के अलावा मेरे हालात भी इसी तरह से विभिन्नता लिए होते हैं..और किसी दृष्टि से सुखद नहीं होते.. तो कभी उसी वक्त और कभी बाद में, जैसे वक्त की पुकार हुई, अपने मित्र को फोन करके इस समस्या से मुझे और उसे बचाने का उपाय बताया है.. मित्रों..हो सकता है आप भी इस समस्या का शिकार होते हैं.. समस्या के किसी भी छोर पर रह कर.. तो एक मामूली सा उपाय आप की पेशेनज़र है..

अपनी फोन बुक में एक नई एन्ट्री दाखिल करें.. AAA के नाम से.. और जब नम्बर तलब किया जाय तो या तो आप उसे खाली छोड़ दें.. या फिर एक ऐसा नम्बर भरें जिसके बारे में आप निश्चित है कि वह ग़लत नम्बर है.. ऐसा करने के बाद अगर कभी आप अपने फोन को लॉक करना भूले भी तो आप को चिंता करने की ज़रूरत नहीं..

दो बातों का और ख्याल रखें..
१) कई बार फोन का कुंजीपटल लॉक करने पर भी खुल जाता है.. भाई खुलता भी तो कुंजियां दबाने से ही है.. दब गई कुंजियां.. खुल गया..
२) यह समस्या फोन बुक के शीर्ष नाम के साथ ही नहीं.. अन्तिम नाम के साथ भी हो सकती है.. मेरा खयाल है कि कोई ज़ीनत या ज़ैनब भी मेरे दर्द के साझीदार होंगे.. उनकी राहत के लिए ZZZ नाम से एक एन्ट्री दाखिल करें..

और इस तरह अपनी गाढ़ी कमाई को यूँ ज़ाये होने से और निजी जीवन को यूँ शाये होने से बचायें...

मंगलवार, 3 जुलाई 2007

आयें..पढ़ें एक नया इतिहास..

पिछले दिनों डा० भीमराव अम्बेदकर की पुस्तक "अछूत: वे कौन थे और वे कैसे अछूत बन गये" के सारांश के मेरे प्रयास पर नज़र गई होगी आप की.. कुछ ने नहीं भी देखा होगा.. हर समय व्यक्ति इस तरह की भारी सामग्री पढ़ने की मनःस्थिति में नहीं होता.. तो आप सब के लिए और उन के लिए भी जिन्होने इन कड़ियों को देखा.. और सब से बढ़कर अपने लिए मैं उन निष्कर्षों को रेखांकित करना चाहूँगा जो अम्बेदकर ने अपने इस शोध के उपरांत हासिल किए..



कबायली समाज और छितरे लोग
आदिम समाज घुमन्तु कबीलों में बँटा समाज था.. जो आपस में लड़ते रहते..कृषि क्रांति होने से कुछ लोग गाँवों मे बस गए.. किन्तु कुछ लोग घुमंतु बने रहे और हमले करते रहे.. हारे हुए और उजड़े हुए कबीलों के बिखरे हुए लोग.. दूसरे बसे हुए कबीलों के गाँवों की सीमाओं पर रहते.. इन्हे छितरे लोग (broken men) कहा गया.. इस तरह की परिघटना दुनिया में हर जगह हुई.. और बसे लोगों में और छितरे लोगों में एक समझौता सा हुआ.. जिसके तहत किसी हमले की हालत में छितरे लोग, बसे लोगों के सुरक्षाकवच का काम करेंगे.. बदलें में बसे हुए लोग उन्हे रहने को सीमा पर जगह और अपने मृत पशु देंगे.. जिनके मांस खाल हड्डी आदि का वे उपयोग कर सकेंगे..
दूसरी जगहों पर छितरे लोग धीरे धीरे मुख्यधारा का अंग हो गए पर भारत में ऐसा नहीं हुआ.. भारत में छितरे लोग अछूत बन गए.. कैसे?

आर्य और द्रविड़
अछूत कोई अलग से पैदा हुई हारी हुई नस्ल नहीं है.. प्राचीन भारत में अधिक से अधिक दो ही वर्ग थे.. आर्य और नाग.. आर्य कोई प्रजाति थी या नहीं इस पर शक है..हाँ यह एक संस्कृति थी..जिनके अन्दर भी दो संघर्षरत वर्ग थे.. ऋग्वेदी व अथर्ववेदी.. और नाग, जिन्हे अन्यत्र दास या दस्यु भी कहा गया है.. नाग भी एक संस्कृति थी.. इनकी भाषा द्रविड़ थी.. इन के वंशज आज भी पूरे भारत में हैं.. पर भाषा सिर्फ़ दक्षिण भारत में सिमट गई है.. पहले द्रविड़ भाषा पूरे भारत में बोली जाती थी.. कश्मीर और सिंध में भी.. जिसे पैशाची कहा गया है..
आर्यों और नागों मे अन्तर्सम्बन्ध थे और वैवाहिक सम्बन्ध भी थे..


वैदिक संस्कृति और गोमांस
प्राचीन वैदिक संस्कृति बलि की संस्कृति है.. नरमेध, अश्वमेध और गोमेध आदि यज्ञों में नर, अश्व, गो आदि की बलियां होती थीं.. ये बलियां ब्राह्मणों द्वारा दी जाती थीं और ये ब्राह्मण पुरोहित मिल कर सारा मांस आपस में बाँट लेते थे.. ब्राह्मण पहले भयंकर मांसाहारी थे.. और गोमांस उनका प्रिय खाद्य था..रोज़ रोज़ की इस बलि से समाज ब्राहमणों से आक्रांत था..

बुद्ध की क्रांति
५५० ईसा पूर्व में बुद्ध की धार्मिक क्रांति से सब कुछ बदल गया.. बुद्ध के मानवीय धर्म का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा.. बड़ी संख्या में राजाओं और आम जन ने ब्राह्मण धर्म को ठुकरा कर बुद्ध के सच्चे धर्म को अपना लिया.. ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा और रोज़गार खतरे में आ गया.. वे काफ़ी समय तक हाशिये पर चले गये.. जबकि बौद्ध धर्म का विस्तार पूरे भारत और भारत के बाहर पूरे एशिया में हो गया..

बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष में ब्राह्मणों का पलटवार
पर ब्राह्मण संघर्षशील रहे.. और बौद्ध धर्म से लड़ते रहे..विचार से और हथियार से भी..१८५ ईसा पूर्व में मौर्य शासक बृहद्रथ के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने उसका सर काट लिया और खुद गद्दी पर आरुढ़ हुआ.. उसके बाद से देश में लगातार बौद्धो को हटाकर ब्राह्मण धर्म को पुनर्स्थापित किया जाने लगा.. ब्राह्मणों द्वारा किए जा रहे इस अभियान और तमाम दूसरे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नया साहित्य रचा गया.. जिसमें अग्रणी रहा मनुस्मृति..
मनु स्मृति ने ब्राह्मणवाद को मजबूत करने के तमाम कोशिशे की.. पुराने यज्ञ वाले धर्म को पुनर्स्थापित करने की कोशिश की.. समाज में धीरे धीरे बौद्धों को परिहास का पात्र बनाया गया.. और उनसे घृणा की गई.. भिक्षुक भिखारी हो गया.. बुद्ध बुद्धू बन गया..

हिन्दू धर्म में बदलाव
परन्तु समय बदल गया था.. और जनमामस में अहिंसा का भाव बैठ गया था जो कृषि आधारित समाज के लिये उपयोगी भी था..बौद्ध धर्म जनता के लिए ब्राह्मण धर्म से कहीं अधिक आकर्षक था.. तो ब्राह्मणों ने पैंतरा बदला और बौद्धो की नकल करना शुरु किया उनके जीवन दर्शन को अपनाया.. बौद्धो की तरह मन्दिर बनाये और और मूर्ति पूजा शुरु की.. वैदिक धर्म में मूर्ति पूजा का कोई स्थान न था.. और इस सब से भी बढ़कर ब्राह्मण, गोभक्षक से गोरक्षक बन गये..मगर क्यों?

शाकाहार-मांसाहार
बौद्ध पूरी तरह शाकाहारी नहीं थे... वे हिंसा के विरोधी थे मगर..मरे जानवर का और ऐसे जानवर का मांस खा लेते थे जिसे उनके लिये मारा न गया हो.. तो बौद्धो से भी दो कदम आगे निकलने के लिए ब्राह्मणों ने गोवध को सबसे बड़ा पाप घोषित कर दिया.. और गोमांस खाने वाले को अस्पृश्य..
सबसे पहले ब्राह्मणों ने गोमांस खाना छोड़ा.. कुछ ने तो मांसाहार भी छोड़ा.. फिर ब्राह्मणों की देखादेखी अब्राह्मणों ने भी गोमांस छोड़ा.. किसने नहीं छोड़ा?

अछूतों का जन्म
छितरे लोग जो गाँव के सीमाओं पर रहकर पहरुए और प्राचीन समझौते के तहत मृत जानवरों को ठिकाने लगाने का काम कर रहे थे.. और मृत जानवरों का मांस खाते चले आ रहे हैं.. वे चाह कर भी गोमांस खाना छोड़ नहीं सकते थे क्योंकि गाँव वालों के पास से वही जानवर प्राप्त होंगे जो वे पालते हैं यानी कि गो बैल आदि.. और इसके अलावा जीविका का कोई दूसरा साधन उनके पास नहीं था..
नई बदली हुई स्थिति में यह पाप कर्म था.. और इस महापाप को जानकर भी करते रहने के कारण छितरे लोग अस्पृश्य हो गये.. इस परिघटना की शुरुआत का काल अम्बेदकर ४०० ई. के आस पास का तय करते हैं..

कहाँ गए सब बौद्ध?
उक्त पुस्तक में अम्बेदकर इतने ही निष्कर्षों की चर्चा करते हैं पर सवाल और बहुत हैं.. जो अन्यत्र उठाये गये हैं.. इतना सब हो जाने के बाद भी बौद्ध पूरी तरह सत्ताहीन नहीं हो गए थे.. हर्षवर्धन बौद्धधर्म का संरक्षक था.. और न ही शंकराचार्य के बाद तक उनका वैचारिक रूप से अस्तित्व समाप्त हुआ था.. तो फिर आज हमारे देश में बौद्ध क्यों नहीं हैं..? आखिर कहाँ गए सब बौद्ध..? ये बड़ा प्रश्न है जिसका जवाब अम्बेदकर की किसी दूसरी किताब में तलाशना होगा..

तस्वीरें:
सबसे ऊपर, अम्बेदकर विचार मग्न
बीच में, द्रविड़ विचारक पेरियार के साथ अम्बेदकर
सबसे नीचे, १९५६ में बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अम्बेदकर
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...