यहूदी लोग सर के पिछले हिस्से को टोपी से ढके रखते हैं। दूसरी अन्य बातों के अलावा, यहूदियों की इस रवायत को मुसलमानों ने जस का तस अपनाया हुआ है। यहूदी उस को किप्पा कहते हैं और मुस्लिमों में इस को नमाज़ी टोपी के नाम से जाना जाता है। हालांकि मुस्लिमों की नमाज़ी टोपी आजकल पूरे सर को ढकने वाली कहलाने लगी हैं ।गिरजाघरों में पादरी भी कुछ मिलती-जुलती ही टोपी पहने रहते हैं। वैटिकन वाले पोप को देखिये न!
इसी तरह पुराने सनातन धर्म में भी, सर को कभी भी पूरी तरह न मूँडने के निर्देश थे। सर के ऊपरी पिछले हिस्से पर गाय के खुर के आकार जितनी जगह पर बढ़े हुए बालों को शिखा कहा जाता। जिसे लोग आनुष्ठानिक नियमानुसार गाँठ मार कर रखते या कभी-कभी विष्णुगुप्त कौटिल्य की तरह किसी के सर्वनाश के लिए खोले रखने की शपथ ले लेते। आजकल शिखा का दिखना बंद हो गया मगर सौ-पचास बरस पहले तक वो शिखा ब्राह्मणों की ऐसी पहचान थी कि एक चील और एक मैना का नाम उनकी सर में बालों के ख़ास बनावट के चलते ब्राह्मणी काइट व ब्राह्मणी मैना पड़ गया। है क्या ऐसा सर के उस पिछले हिस्से में?
कभी देखा है कैच छूट जाने पर खिलाड़ी सर के उसी स्थान को दोनों हाथ से ढक लेते हैं? जैसे जापानी फ़ुटबालर ने पेनाल्टी किक मिस की तो उसी जगह सर पकड़ लिया। क्या निकला जा रहा होता है वहाँ से जिसे हाथ लगा कर ढाँप लिया जाता है? कहते हैं ब्रह्म रंध्र का स्थान भी वहीं कहीं है? और सहस्र चक्र का भी स्थान कपाल के भीतर ही बताते हैं।
शम्स तबरेज़ी ने जब भरे बाज़ार में रूमी का गधा रोक लिया और उनसे पूछा कि बता, मुहम्मद बड़ा कि बिस्तामी, तो रूमी उस वक़्त तो गश खाकर गिर पड़े मगर बाद में बताया कि इस का जवाब सोचते हुए उनके दिमाग़ में एक खिड़की खुली, उस से धुआँ निकला और अर्श की तरफ़ चला गया। क्या वह खिड़की सर के इसी पिछले हिस्से से खुली थी?
एक व्याख्या है यहाँ पर।
बुधवार, 30 जून 2010
शनिवार, 26 जून 2010
फ़ुटबाल, क्रिकेट और सेक्स
आज कल क्रिकेट का बुख़ार हलका है और फ़ुटबाल का नश्शा अपने उरूज़ पर है। हैं तो दोनों खेल ही, और दोनों के समकालीन स्वरूप का जन्म भी एक ही जगह -इंगलिस्तान में हुआ मगर क्रिकेट जहाँ दुनिया के सबसे जटिल खेलों में गिना जा सकता है वहीं फ़ुटबाल बड़ा ही प्राथमिक क़िस्म का खेल है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि फ़ुटबाल पाशविक बल पर आधारित एक क़बीलाई खेल है और क्रिकेट तमाम वर्जनाओ से युक्त नागरी क्रीडा।
इसके पहले कि मैं अपनी बात के एक और स्तर को उघाड़ूँ, यह साफ़ कर दूँ कि खेल से मेरी मुराद क्या है? मेरा मानना यह है कि लगभग सभी खेल हमारी मौलिक वृत्तियों के विस्थापन हैं। इसका बहुत मोटा उदाहरण यह है कि विभाजन के अनसुलझे मुद्दों को, असली युद्ध के मैदान में हल करने के बजाय, भारत व पाकिस्तान अपनी प्रतिद्वन्दिता को एक ऐसे क्रिकेट मैच के दौरान, जिसका उस मामले से कोई लेना-देना नहीं है, भावनाओं के उबाल में बहा डालते हैं और कुछ देर के लिए उस पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, तात्कालिक राहत महसूस करते हैं। इस को आप स्खलन का सुख कह सकते हैं। ये मूल समस्या को सुलझाता नहीं बस उस को एक दूसरी संरचना में विस्थापित कर देता है। आदमी की सिगरेटादि लत भी इसी तरह का एक विस्थापन है जो विस्थापन के रस्ते एक तात्कालिक सुख देती हैं।
अब फ़ुटबाल पर वापस आते हैं। फ़ुटबाल कितना सरल खेल है वो इसके नियमों से समझें- कुल जमा तीन-चार नियम हैं इस खेल में। दो दल हैं, दो गोल हैं, एक गेंद हैं, पैर से ही खेलना है हाथ से नहीं, मार-पीट नहीं करनी है। और एक जटिल नियम है औफ़साइड का- गोल और आक्रामक खिलाड़ी के बीच सुरक्षात्मक दल के दो खिलाड़ी होने आवश्यक हैं। इन नियमों की सरलता तब समझ आती है जब आप क्रिकेट के नियमों की सोचिये!
असल में फ़ुटबाल समेत दुनिया के सभी गोल-प्रधान खेलों का आधार शुद्ध सेक्स है। ये सारे खेल गर्भाधान का विस्थापन हैं। कैसे? गोल ओवम/डिम्ब है और खिलाड़ी स्पर्म/शुक्राणु। पूरी गतिविधि का उद्देश्य डी एन ए पैकेट को ओवम तक पहुँचाना है। यौन क्रिया में करोड़ों की संख्या में शुक्राणु होते हैं, यहाँ इस खेल में ग्यारह/आठ. छै/ पाँच हैं। यौन क्रिया में एक ही ओवम होता है यहाँ दो विरोधी दलों के लिए दो अलग-अलग ओवम हैं मगर डी एन ए पैकेट के रूप में मौजूद गेंद एक ही है। असल में यह क़बीलाई समाज में रहने वाले मनुष्य के भीतर की संजीवन-वृत्ति की विस्थापित अभिव्यक्ति है। जिसमें एक दल का अस्तित्व दूसरे दल के अस्तित्व का साथ लगातार टकरा रहा है, और दोनों अस्तित्व की इस लड़ाई में एक-दूसरे को मात दे देना चाहते हैं।
अंग्रेज़ी में इन खेलों के लिए बड़ा अच्छा शब्द है रिक्रिएशन, देखिये क्रिएशन की यौन क्रिया से सम्बन्ध इसमें साफ़ झलक रहा है। ये एक ऐसे समाज के शग़ल हैं जो अपनी मौलिक गतिविधि से दूर आकर ऐसी बातों में उलझ चुका है जिसका जीवन के मूल तत्व से बहुत सम्बन्ध नहीं बचा है। मगर समाज यौन-प्रतिस्पर्धा की खुली छूट नहीं दे सकता, वासना और हिंसा का ताण्डव खड़ा हो जाएगा। इसलिए इस तरह के विस्थापन ईजाद किए गए हैं।
यौन क्रिया का सब से सीधा विस्थापन एथलेटिक्स में दिखता है। शुक्राणुओं की तरह सारे धावक दौड़े जा रहे हैं, जीतने वाले को ईनाम मिलेगा- शरीर की नश्वरता के पार जीवन को क़ायम रखने का ईनाम। कार रेस में जीतने वाले, इस खेल के मूल में छिपी यौन क्रिया को तब साफ़ उजागर कर देते हैं जब वे बोतल हिला कर उस में झागदार शैम्पेन को बहाते हैं। फ़ील्ड एण्ड ट्रैक के सारे ईवेन्ट्स शुक्राणुओं के बीच होने वाली दौड़ का ही स्थानापन्न हैं।
फ़ील्ड व ट्रैक ईवेन्ट्स जिसमें लक्ष्य एक ही है जब कि प्रतियोगी अनेक, मनुष्य समाज की तब की अभिव्यक्ति है जब मातृसत्ता प्रबल थी लेकिन फ़ुटबाल और उसके जैसे दूसरे बाल-गेम्स शुक्राणुओं के बीच की दौड़ नहीं, मनुष्य समाज की थोड़ी विकसित यौन अभिव्यक्ति हैं जब कि पितृसत्ता ने क़बीलों का रूप ले लिया था। मातृत्व को कमज़ोरी बना कर पुरुष ने उसकी रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया ताकि अपनी मादाओं को बचाकर और दूसरे क़बीलों की मादाओं का गर्भाधान कर के वह अपने जीन कोड को आगे बढ़ा सके। पूरा मध्यकालिक इतिहास निरन्तर युद्ध और फिर बलात्कार का अनुष्ठान भर है जैसे।
मनुष्य के विकास की क़बीलाई अवस्था ने औरत का भयंकर दमन किया है लेकिन प्राकृतिक मानकों की दृष्टि से मातृ शक्ति, नर शक्ति से कितनी प्रबल रही है इसे देखिये कीट जगत में, लगभग सभी कीड़ों में मादा समाज के केन्द्र में और नर से कई गुना बड़ी होती है। इसी का एक दूसरा रूप ओवम और स्पर्म की तुलना में देखिये। शुक्राणु अनेक हैं और ओवम एक है और आकार में शुक्राणु से कई गुना बड़ा है।
क्रिकेट बालगेम नहीं है। बाल इसमें है ज़रूर लेकिन वह किसी गोल में नहीं डाली जानी है। यह खेलों के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ है। गोल की जगह विकेट आ गया है। विकेट कीपर- जो गोलकीपर समझा जाना चाहिये- वो विकेट के पीछे खड़ा होता है आगे नहीं। क्यों? क्योंकि असली गोली, विकेटकीपर नहीं बल्कि बल्लेबाज़ है, वो ही है जो विकेट की रक्षा कर रहा है। और सिर्फ़ रक्षा ही नहीं कर रहा बल्कि आक्रमण भी कर रहा है। जितनी बार वो आक्रामक गेंद को प्रति-आक्रमण के ज़रिये आक्रामक दल की पहुँच से बाहर फेकं देता है, उतनी दफ़े उसे मिलता है असली लाभ का वो अवसर जो हार-जीत का फ़ैसला करेगा। ये लाभ विपक्षी दल के क़ब्ज़े में गेंद वापस आने के बीच लगाई गई दौड़ो में नापा जाता हैं।
उफ़! इसके दुर्बोध नियमों की शुरुआत किए बिना ही यह कितना जटिल मालूम दे रहा है। शायद इसीलिए बहुत सारे लोगों को, ख़ासकर घर की महिलाओं को, ये खेल सहज ही समझ नहीं आता। जैसे लम्बे समय तक देखते रहने के बावजूद आज भी मैं बेसबाल ठीक-ठीक नहीं समझता। जबकि रग्बी समझने में कोई मुश्किल नहीं होती। उन दोनों के बीच भी मोटे तौर पर वही अन्तर हैं जो फ़ुटबाल और क्रिकेट के बीच।
क्रिकेट एक बेहद जटिल, नागरी और सभ्य समाज की अभिव्यक्ति है जिसमें वर्जनाएं बहुत बढ़ गई हैं। इस खेल में सिर्फ़ गर्भाधान की वृत्ति ही नहीं झलकती, सभ्य समाज की और भी तमाम उलझी-गुलझी बातें हैं जो इस खेल के ज़रिये विस्थापन और फिर स्खलन की राहत खोजती हैं।यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि क्रिकेट निन्यानबे के फेर वाले पूँजीवादी समाज में किस क़दर आँकड़ो का खेल बन गया है।
विचार विलास के लिए दो अन्य खेलों के बारे में सोचिये; एक तो शतरंज जैसा खेल जिसमें कोई गोल है ही नहीं, सिर्फ़ युद्ध है, मानसिक रणनीतिक युद्ध; और दूसरा कैरम या बिलियर्डस जैसे खेल जिसमें एक नहीं चार गोल हैं और दोनों खिलाड़ी किसी भी/अपनी गोटियों को किसी भी गोल/पौकेट में डाल सकते हैं।
एक बड़ी ख़ास बात इस पूरी व्याख्या में रह जाती है कि आख़िर देखने वाले को क्या मज़ा आता है? मेरी समझ में इसमें दो बाते हैं, एक तो यह कि देखना अपने में एक तरह का विस्थापन और इसलिए मनोरंजक है, और दूसरे एक बेहद बड़े स्तर पर हम शुक्राणु की ही तरह व्यवहार करते हैं। करोड़ों शुक्राणु आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए लक्ष्य की ओर दौड़ते ज़रूर हैं मगर किसी एक की ही सफलता में उन सब की सफलता निहित है, ये बात वो समझते हैं। और हम भी समझते हैं जब हम अपनी टीम, अपनी जाति, अपने देश का समर्थन कर रहे होते हैं, उसकी ओर से लड़ रहे होते हैं।
शुक्रवार, 25 जून 2010
राजनीति: एक बिकाऊ माल
राजनीति नाम से यह आभास होता है कि फ़िल्म भारत की समकालीन राजनीतिक सच्चाईयों पर आधारित कोई फ़िल्म है। और बहुत से लोग इस धोखे का शिकार हो भी गए हैं जिसमें प्रखर राजनैतिक टिप्पणीकार पुण्य प्रसून बाजपेयी भी शामिल हैं।
राजनीति एक कुशल हाथों से गढ़ी हुई रचना है लेकिन उसका मक़सद लोगों का मनोरंजन करना है आज की राजनैतिक सच्चाईयों का चित्रांकन करना नहीं। फ़िल्म की ख़ूबी इसमें है कि वो दो बेहद लोकप्रिय पाठों -महाभारत और गौडफ़ादर- का संकर रूप है जिसे भारतीय चुनावी राजनीति के पृष्ठभूमि में उतारा गया है। महाभारत के तत्व कहाँ ख़त्म होते हैं और कहाँ गौडफ़ादर के तत्व शुरु होते हैं, फ़िल्म के कथानक में ये सरहदें नज़र नहीं आती हैं। जबकि रामायण पर आधारित 'रावण' इसी लिहाज़ से निहायत असफल फ़िल्म है क्योंकि दर्शक लगातार मूल कहानी से तुलना करता रहता है। लेखन के अलावा अभिनय पक्ष में भी 'राजनीति', 'रावण' से बहुत मज़बूत फ़िल्म है। 'रावण' में जहाँ आप अभिषेक और ऐश्वर्या को देख कर दर्शकों के भीतर हिंसा बाहर आने के लिए कुलबुलाने लगती होगी, 'राजनीति' में मामला उलटा है। नाना व मनोज की प्रतिभा को तो सभी मानते रहे हैं लेकिन अर्जुन रामपाल का अभिनेता के रूप में तो जैसे नया जन्म हुआ है 'राजनीति' से।
फ़िल्म के कथ्य पर वापस लौटते हुए यही कहूँगा कि यह फ़िल्म वास्तविकता का एक अच्छा भ्रम पैदा करती है लेकिन है वह भ्रम ही, वास्तविकता नहीं है। प्रकाश झा ने महाभारत और गौडफ़ादर की कहानी का इस्तेमाल किया है एक सफल फ़िल्म बनाने के लिए और सफल हुए हैं। कर्ण को दलित बना कर दलित राजनीति का कोई नया पहलू उजागर नहीं हुआ, कर्ण तो पहले भी सूतपुत्र ही था। बी एस पी जैसी परिघटना को तो अपनी पटकथा में क्यों नहीं सजा पाए झा जी? क्योंकि उनका ज़ोर समकालीन भारतीय सच्चाई को दिखाना नहीं, समकालीन भारतीय सच्चाईयों का इस्तेमाल कर के एक कामयाब यानी बिकाऊ माल बनाने पर है।
इसलिए 'राजनीति' को बिलकुल भी उस नए सिनेमा की श्रेणी में रखने की ग़लती मत करें जिसकी पताका दिबाकर बैनरजी और अनुराग कश्यप लहरा रहे हैं। राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ी पूंजी का दखल, मूल मुद्दे, नक़्ली भावनात्मक मुद्दे, जनता की विविध आकांक्षाएं, सड़क, पानी और बिजली के साथ जंगल, ज़मीन और पर्यावरण के सवालों को घेरे में लिए बिना कोई कैसे भारत की राजनीति की सच्ची तस्वीर बना सकता है?
प्रकाश झा की 'राजनीति' सिर्फ़ सामंती आपराधिक राजनीति की एक अतिरंजित तस्वीर बन गई है जो एक बीती हुई दुनिया का अवाञ्छित अवशेष है। आज की असली राजनीति में अपराध, शुद्ध सामन्ती सत्ता के लिए नहीं आर्थिक सत्ता के लिए होते हैं। सत्ता की राजनीति, अपनी अहम-तुष्टि के लिए गद्दी हासिल करने की राजनीति नहीं है। गद्दी हासिल कर के अर्थव्यवस्था को अपने अनुकूल करने की राजनीति है जिसकी एक भोथरी झलक कर्णाटक के रेड्डी बन्धुओं में और उसका महीन वितान अम्बानियों में मिलता है।
मंगलवार, 22 जून 2010
विभाजन के पहले विविधता
लगभग सभी प्रगतिशील चिन्तक और विचारक यह मानते आए हैं कि फ़ोर्ट विलियम वाले गिलक्रिस्ट साहब ने हिन्दी/उर्दू ज़ुबान का साहित्य नागरी लिपि में लिखवा कर एक साम्प्रदायिक दीवार की नींव रखी। धारणा यह रही है कि लल्लू लाल जी और सदल मिश्र के पहले नागरी लिपि में खड़ी बोली का कोई साहित्य नहीं रचा गया था। इसी बात को आगे खींचते हुए 'हिन्दी' भाषा के बाद के साहित्यकारों पर आरोप लगाया जाता रहा है कि उन्होने आमफ़हम उर्दू के भीतर संस्कृत के शब्द भर कर एक विकृत भाषा को जन्म दिया और समाज को साम्प्रदयिक चेतना से दूषित किया।
असल में इन अवधारणाओं के मूल में वही वृत्ति है जिस से लगभग हर पश्चिमी परिपाटी बीमार रहती है- प्रमाण की अनुपस्थिति को, अनुपस्थिति का प्रमाण मान लिया जाता है।
हिन्दी-उर्दू मसले पर फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित किताब 'बिफ़ोर द डिवाइड' इन सवालों की पड़ताल करने के लिए गिलक्रिस्ट के फ़ोर्ट विलियम के पहले रचे साहित्य को खंगाल कर नए तथ्य सामने लाती है और हमें उन की रौशनी में इस पूरे मामले को नए नज़रिये से देखने के लिए मजबूर करती है।
ओर्सिनी अपनी भूमिका में कहती हैं कि हिन्दी-उर्दू बहस में एक बड़ी समस्या यह भी रही है कि साहित्यिक कृतियों की भाषा को लोगों की आम ज़बान के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। (आज भी हमारी बोलने वाली और लिखने वाली भाषा में लहज़े और वाक्य संऱचना के अलावा शब्द-सम्पदा का बड़ा फ़र्क़ रहता है)
हिन्दी और उर्दू के बीच झगड़े का मुख्य आधार उनकी ऐतिहासिकता रही है। उर्दू वालों, और समझदार विद्वानों के एक बड़े तबक़े का मानना रहा है कि तथाकथित खड़ी बोली को साहित्य के रूप में व्यवहार करने का काम नस्तालिक़ लिपि में होता रहा है और इसलिए मोटे तौर पर दिल्ली और दकन के मुस्लिम अशराफ़ द्वारा विकसित भाषा (खड़ी बोली के साहित्य) को नागरी लिपि में लिखना एक किसी अन्य (औपनिवेशिक व साम्प्रदायिक) मक़सद से प्रेरित हरकत हैं। और हिन्दुओं द्वारा १९वीं सदी में अपनाई गई हिन्दी थोपी हुई, बनाई हुई, गढ़ी हुई भाषा है जिसके अन्दर संस्कृत की शब्दावली घुसा दी गई।
हालांकि हिन्दी-उर्दू के बीच साहित्य का बँटवारा अकेले लिपि के आधार पर तो नहीं होता रहा है। रसखान, रहीम, कबीर और जायसी हिन्दी साहित्य की परम्परा में गिने जाते रहे हैं और तमाम ग़ैर-मुस्लिम शाएर नस्तालिक़ में लिखने के बावजूद मुहम्मद हुसैन आज़ाद के उर्दू साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित किताब आबेहयात में जगह नहीं पा सके। हिन्दी साहित्य का नाम जपने वाले मीर और नज़ीर को गुनते तो रहे मगर इतिहास लिखते समय संकोच वृत्ति/स्मृति लोप/भेद दृष्टि का शिकार हो गए।
उर्दू वालों ने अपने इतिहास को महज़ मुस्लिमों द्वार रचित खड़ी बोली के साहित्य (और उसमें भी मोटे तौर पर गज़ल) तक सीमित रखा था, हालांकि विगत कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आए हैं। लेकिन इमरै बंघा के शोध से पता चलता है कि खड़ी बोली का साहित्य फ़ारसी लिपि के अलावा देवनागरी और गुरमुखी में भी लिखा गया है।फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित ‘बिफ़ोर द डिवाइड’ में पूर्व औपनिवेशिक उत्तर भारत के भाषाई परिदृश्य पर केन्द्रित नौ लेख हैं। सभी लेख पढ़ने योग्य और गुनने योग्य हैं मगर विस्तार और विषयान्तरके भय से मैं यहाँ पर तीन लेखों की ही चर्चा कर रहा हूँ; १) इमरै बंघा का “रेख़्ता: पोएट्री इन मिक्स्ड लैंग्वेज” (द इमर्जेन्स औफ़ खड़ी बोली लिट्रेचर इन नोर्थ इंडिया), २) एलीसन बुश का “रीति एण्ड रेजिस्टर” (लेक्सिकल वैरिएशन इन कोर्टली ब्रज भाषा टेक्स्ट), और ३) फ़्रंचेस्का ओर्सिनी का “बारहमासा इन हिन्दी एण्ड उर्दू”।
शनिवार, 19 जून 2010
शनिवार, 12 जून 2010
चिड़ीनिहार
शहरों में आज भी बहुत सी चिड़िया रहती हैं, आती-जाती हैं, गाती-चिल्लाती हैं। मगर हमारे पास उन्हे देखने-सुनने के लिए आँख-कान नहीं बचे हैं। ट्रैफ़िक और टीवी के शोर में किस के पास चिड़िया को देखने का धीरज और स्थिरता है। बिना स्थिरता के आप चिड़िया नहीं देख सकते!
जब से मेरे बड़े भाई ने मुझे इस शग़ल से संक्रमित किया है तब से मैं हर जगह चिड़िया देख लेता हूँ। मेरे बालकनी के सामने जो विलायती सिरिस का पेड़ है उसमें पन्द्रह-सोलह तरह की चिड़िया आती हैं। कौए, कबूतर, मैना, कोयल के अलावा तोते, मैगपाई रौबिन या दहियल, शकरख़ोरा, छोटा बसन्ता, गोल्डन ओरियल, छतरदुमा, गुलदुम, दर्ज़ी और कौडिन्ना या किंगफ़िशर भी। इधर-उधर घूमने पर भुजंगा, श्राइक या लटोरे, रौबिन या कलचुरी, और पत्रिंगा या बीईटर भी दिख जाते हैं।
फिर भी कुछ चिड़िया हैं जो ख़तरे में है। कई बार मुझ लगता है कि विकास क्रम में चिड़ियां हम से आगे हैं। उन्होने पानी और धरती को छोड़ कर हवाओं और आकाश से नाता बनाया है। आदमी आज़ादी के लिए तड़पता रहता है मगर चिड़िया तो फ़्रीबर्ड हैं। सूफ़ी मत में पहुँचे हुए साधक परिन्दे ही कहलाते हैं।
चिड़ियों को लेकर मेरे मन की कुछ बातें चन्दू भाई ने की हैं.. उन्हे भी पढ़ें!
तस्वीर में छोटा बसन्ता या कौपरस्मिथ बारबेट।
जब से मेरे बड़े भाई ने मुझे इस शग़ल से संक्रमित किया है तब से मैं हर जगह चिड़िया देख लेता हूँ। मेरे बालकनी के सामने जो विलायती सिरिस का पेड़ है उसमें पन्द्रह-सोलह तरह की चिड़िया आती हैं। कौए, कबूतर, मैना, कोयल के अलावा तोते, मैगपाई रौबिन या दहियल, शकरख़ोरा, छोटा बसन्ता, गोल्डन ओरियल, छतरदुमा, गुलदुम, दर्ज़ी और कौडिन्ना या किंगफ़िशर भी। इधर-उधर घूमने पर भुजंगा, श्राइक या लटोरे, रौबिन या कलचुरी, और पत्रिंगा या बीईटर भी दिख जाते हैं।
फिर भी कुछ चिड़िया हैं जो ख़तरे में है। कई बार मुझ लगता है कि विकास क्रम में चिड़ियां हम से आगे हैं। उन्होने पानी और धरती को छोड़ कर हवाओं और आकाश से नाता बनाया है। आदमी आज़ादी के लिए तड़पता रहता है मगर चिड़िया तो फ़्रीबर्ड हैं। सूफ़ी मत में पहुँचे हुए साधक परिन्दे ही कहलाते हैं।
चिड़ियों को लेकर मेरे मन की कुछ बातें चन्दू भाई ने की हैं.. उन्हे भी पढ़ें!
तस्वीर में छोटा बसन्ता या कौपरस्मिथ बारबेट।
गुरुवार, 10 जून 2010
शब्द चर्चा समूह
हिन्दी शब्दों के समान्तर अर्थ;
हिन्दी से उर्दू व उर्दू से हिन्दी में अर्थ;
अंग्रेज़ी से हिन्दी व हिन्दी से अंग्रेज़ी में अर्थ;
हिन्दी से अन्य भारतीय भाषाओं व अन्य भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अर्थ;
हिन्दी से अरबी-फ़ारसी व अरबी-फ़ारसी से हिन्दी में अर्थ
पर चर्चा का एक मंच।
मित्रो,
लिखते हुए,
अक्सर किसी भाव या विचार को चुभलाते हुए,
उसके स्वाद लायक़ उपयुक्त शब्द की कमी हम सब ने महसूस की है,
और ऐसा भी हुआ है कि शब्दकोश के पन्नो पर फ़िसलती उंगलियाँ
हमें सही अभिव्यक्ति तक ले जाने में असमर्थ हुई हैं।
आभासी जगत की इन नज़दीकियों ने जो हमें मौक़ा दिया है
उसके ज़रिये हम एक-दूसरे को
उसकी सही अभिव्यक्ति तक पहुँचा सकते हैं।
ये समूह बस इसीलिए!
समूह का पता यह रहा: http://groups.google.com/group/shabdcharcha?hl=en
चर्चा देखने के लिए कोई बन्दिश नहीं
मगर चर्चा में भाग लेने के आप समूह की सदस्यता हासिल कर सकते हैं।
आप सबका इस समूह में स्वागत है!
रविवार, 6 जून 2010
छविभंजक एडवर्ड सईद
एडवर्ड सईद की किताब ओरयण्टलिज़्म, प्राच्यविद्या (ओरयण्टलिज़्म) की आधुनिक व जनतांत्रिक आलोचना समझी जाती है। ऐसा बताते हैं कि इस किताब के प्रकाशन ने जमे हुए विद्वानों की पोल में से असली रंगत उजागर करने की पद्धति और साहस, नए विद्यार्थियों को दिया। उस दृष्टि से इस किताब को नवसाम्राज्यवाद को चुनौती देती हुई चेतना की प्रतिनिधि किताब माना जाता है।
सईद बड़े विद्वान है इसमें कोई शक़ नहीं; प्राच्यविद्या के इतिहास, उसके समकालीन साहित्य, और विषय से सम्बन्धित या असम्बन्धित सभी दार्शनिक और वैचारिक पद्धतियों से न सिर्फ़ वे परिचित हैं बल्कि उन पद्धतियों के भीतर मज़े से रमण करते हैं। उनमें पर्याप्त तर्क शक्ति व पाठ के भीतर मौजूद सूक्ष्मताओं को पकड़ कर बाहर खींच लाने की ख़ूब प्रवीणता है। उनका मानना है कि मध्यकाल से आधुनिक काल तक पश्चिम का नज़रिया प्राच्य के प्रति पूर्वाग्रह से भरा हुआ रहा है और प्राची के विषय में लिखे गए सभी साहित्य को उन्होने प्राच्यविद्या नाम से एक विषय के भीतर समेट दिया; एक बड़े भौगोलिक विस्तार को और उसकी अनगिनत विविधताओं और सूक्ष्मताओं को एक साथ पटक दिया; चीन से लेकर अरब तक की सभी मुख़्तलिफ़ संस्कृतियों को एक गाढ़े रंग में, एक मोटे आकार में ठूँस दिया।
पश्चिम श्रेष्ठ है, प्राची हीन है; पश्चिम और पूर्व एक दूसरे के बिलकुल विपरीत हैं; पश्चिम पौरुष से परिपूर्ण है और पूर्व स्त्रैण है, और भेदन योग्य है; पश्चिम उत्कृष्ट है, नैतिक है, बौद्धिक है, तार्किक है, जब कि पूर्व इसके उलट अक्षम है, अतार्किक है, भ्रष्ट है, वासनाओ में लिप्त है। पूर्व अपने बारे में ख़ुद आकलन करने और ख़ुदमुख़्तार होने में असमर्थ हैं, और इसीलिए ये दोनों काम पश्चिम पूर्व के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी मानकर ले लेता है, एक एहसान के जैसे। पहली प्रवृत्ति प्राच्यविद्या के बतौर विकसित होती है और दूसरी प्रवृत्ति प्राच्यविद्या को आधार बना कर पश्चिम को पूर्वी सभ्यताओं पर शासन करने का नैतिक अधिकार देती है। ये सईद साहब की मूल प्रस्थापना है और मोटे तौर पर सही भी है।
किताब की शुरुआत में सईद सहब पश्चिम में मौजूद प्राच्यविद्या के दायरे में आने वाली सभी संस्कृतियों की चर्चा करते हैं मगर बहुत जल्दी अपने सरोकारों को अरब जन और इस्लाम धर्म से जुड़े पूर्वाग्रहों तक सीमित कर लेते हैं। और अपनी तीखी नज़र से वे भाँप लेते हैं कि जहाँ पश्चिमी विद्वान भारत की आर्य भाषाओं को लेकर उत्साहित दिखते हैं और उस संस्कृति में पश्चिम के उद्धार तक की सम्भावना खोजते हैं, वहीं अरब जन और इस्लाम के प्रति उनकी नफ़रत और हिकारत है। उसका कारण सईद ये तो समझते हैं कि जिस तरह भारत ने अंग्रेज़ों के आगे समर्पण कर दिया उसके उलट अरब और इस्लाम पश्चिम के लिए एक ख़तरा बना रहा है जिसके बीज इस्लाम की आरम्भिक आक्रामक विस्तार और योरोपीय क्रूसेड्स में पाए जा सकते हैं। लेकिन सईद इस विशेष अन्तर के संदर्भ में और किताब में अन्य सन्दर्भों में भी, 'आर्य' सभ्यता और इस्लामी सभ्यता की विशिष्ट स्वभावों का ज़िक़्र करना ज़रूरी नहीं समझते। चूंकि दोनों सभ्यताएं साम्राज्यवाद का शिकार बनीं तो क्या इसलिए उनके आपसी अन्तर महत्वपूर्ण नहीं रहते? ऐसा कर के सईद साहब वही अपराध कर बैठते हैं जिस का वह पश्चिम पर आरोप लगाते हैं। पश्चिम का अपराध यह है कि वह ओरियण्ट की अन्तर्निहित सूक्ष्मताओं को नकारता है। पश्चिम से दो संस्कृतियों केर प्रति एक से व्यवहार की उम्मीद कर के सईद न सिर्फ़ उन संस्कृतियों की बल्कि पश्चिम की भी सूक्ष्मताओं को नकार देते हैं।
गुरुवार, 3 जून 2010
राष्ट्र क्या है?
राष्ट्र एक आत्मा है, एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है। दो चीज़ें, जो वास्तव में एक ही हैं, इस आध्यात्मिक सिद्धान्त की रचना करती हैं। एक भूत काल में है और दूसरे वर्तमान में। एक है स्मृतियों की एक समृद्ध धरोहर पर साझा अधिकार; और दूसरी है आज की तारीख़ में साथ रहने की कामना, हमें समूचे रूप में मिली धरोहर को आगे ले जाने का संकल्प। आदमी, भला आदमी, तात्कालिकता में नहीं जीता। राष्ट्र, व्यक्ति की ही तरह, उद्यमों, बलिदानों और निष्ठा की एक लम्बी परम्परा का परिणाम है। सारे पूजा पंथों में पूर्वजो का पंथ सबसे अधिक संगत है क्योंकि हम जो आज हैं उन्ही की ही वजह से हैं। एक उदात्त अतीत, महान नायक, गौरव (मेरा अर्थ सच्चे गौरव से है), यही है वो सामाजिक सम्पदा जिस पर एक राष्ट्र के विचार की नींव रखी जाती है। अतीत में साझा गौरव और वर्तमान में साझे संकल्प का होना, साथ हासिल की हुई उपलब्धियाँ, भविष्य में वैसी ही और हासिल करने की कामनाएं- यही एक क़ौम होने की पूर्व शर्ते हैं। उन बलिदानों जिसमें उसकी सहमति थी और झेली गई तक़लीफ़ों के अनुपात में ही आदमी प्रेम करता है। आदमी प्रेम करता है उस मकान से जो उसने बनाया है या उसे विरासत में मिला है। स्पार्टन लोगों का गीत - "हम हैं जो तुम हो, हम होंगे जो तुम हो" - हर राष्ट्र गान का, सरल रूप में, संक्षेप है।
रणनीतिक लिहाज़ से साझी सरहदों और चौकियों की तुलना में अतीत में साझी गौरवशाली धरोहर और हसरतें, और भविष्य में लागू करने के लिए (साझी) योजनाएं या साथ झेली हुई तक़लीफ़ें, साथ लिए हुए मज़े और साझी उम्मीदें कहीं अधिक मूल्यवान होती हैं। यही वो चीज़ें है जो प्रजाति और भाषा के फ़र्क़ों के बावजूद समझी जा सकती हैं। मैं ने अभी कहा 'साथ झेली हुई तक़लीफ़ें' और सच में पीड़ा, आनन्द से अधिक एका पैदा करती हैं। जहाँ तक राष्ट्रीय स्मृतियों का सवाल है, तक़लीफ़ें, विजयोल्लास से अधिक मूल्यवान होती हैं, क्योंकि वे कर्तव्य आरोपित करती हैं और एक साझी कोशिश की तलबगार होती हैं।
तो इसलिए अतीत में किए गए और भविष्य में किए जाने वाले उन बलिदानों- जिन्हे करने के लिए लोग तैयार हैं- की भावनाओं से संघटित, राष्ट्र एक व्यापक भाईचारा है। इसमें अतीत की कल्पना पहले से मौजूद है,जबकि ये वर्तमान में एक ठोस तथ्य से परिभाषित होता है, जो है सहमति- एक साझा जीवन बनाए रखने की स्पष्ट अभिव्यक्ति। जैसे एक व्यक्ति का अस्तित्व, जीवन के प्रति उसकी निरन्तर स्वीकृति है उसी तरह, यदि आप मेरे रूपक को क्षमा करें, एक राष्ट्र का अस्तित्व दैनिक जनमत-संग्रह है। और मैं जानता हूँ कि यह दैवीय अधिकार से कम आध्यात्मिक और ऐतिहासिक अधिकार से कम क्रूर है। मैं जो आप के सामने रख रहा हूँ उस विचार के अनुसार एक राष्ट्र के पास किसी राजा से अधिक अधिकार नहीं है कि वो किसी प्रदेश से कह सके, 'तुम मेरे हो, मैं तुम को हस्तगत कर रहा हूँ'। कोई भी प्रदेश, मेरे हिसाब से, उसके लोग हैं; अगर ऐसे मामलों में किसी की रायशुमारी होनी चाहिये तो वे वहाँ के लोग हैं। किसी राष्ट्र का किसी अन्य देश पर, उसकी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ क़ब्ज़ें में उसका अपना कोई सच्चा हित नहीं है। राष्ट्र की इच्छा ही एकमात्र वैधानिक आधार है, और वही हमेशा होना भी चाहिये।
हमने राजनीति में से आध्यात्मिक और धार्मिक अमूर्तन को निकाल फेंका है। तो बचता क्या है? आदमी; अपनी कामनाओं और ज़रूरतों के साथ। आप कहते हैं, कि लम्बी अवधि में अलगाव, राष्ट्रों का बिखराव एक ऐसे विधान का नतीजा होगा जो इन पुरानी संरचनाओं को उन इच्छाओं के रहमो करम पर छोड़ देता है जिन तक ज्ञान का उजाला नहीं पहुँचा है। ज़ाहिर है कि इन मामलों में किसी भी सिद्धान्त पर बहुत बल नहीं देना चाहिये। इस श्रेणी के सत्य एक बहुत ही आम ढंग से ही लागू करने योग्य हैं। मनुष्य के संकल्प बदलते हैं, और यहाँ भी ऐसा क्या है जो नहीं बदलता? राष्ट्र कोई शाश्वत चीज़ नहीं हैं। उनका एक आदि था और एक अन्त भी होना है। एक योरोपियन यूनियन सम्भवतः उनकी जगह ले लेगी। लेकिन जिस सदी में हम रहे हैं उसका ऐसा क़ानून नहीं है। इस दौर में, राष्ट्रों का अस्तित्व एक हितकारी चीज़ है, बल्कि एक ज़रूरत। उनका अस्तित्व आज़ादी की पूर्व-शर्त है, जो दुनिया में एक क़ानून और एक शासक होने से खो जाएगी।
अपनी विविध और अक्सर विरोधी शक्तियों के ज़रिये राष्ट्र, सभ्यता के साझे कार्य में हिस्सा लेते हैं; मानवता के महायज्ञ में अपनी आहुति देते हैं, जो (मानवता) आख़िरकार, वो उच्चतम आदर्श है जिसे हम हासिल कर सकते हैं। अकेले में, सबकी अपनी कमज़ोरियाँ हैं। अपने झूठे गौरव में फूलते रहना, हद दरज़े तक ईर्ष्यालु होना, अंहकारी और झगड़ालू होना, हर छोटे-बड़े बहाने पर अपनी तलवारें खींच लेना- ये सब गुण जो कि एक राष्ट्र के लिए बड़े सद्गुण समझे जाते हैं अगर किसी व्यक्ति में ऐसी ख़ामियाँ होती तो वो आदमी सबसे असहिष्णु माना जाता। मगर फिर भी ये विसंगतियाँ बड़े परिदृश्य में विलीन हो जाती हैं। बेचारी मानवता, तुम तुमने कितना कष्ट सहा है। और न जाने कितने इम्तहान तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। कामना करता हूँ कि विवेक तुम्हारे साथ रहे और तुम्हारे रास्ते में बिछे अनगिनत ख़तरों से तुम्हारी रक्षा करे!
सार ये है सज्जनों, कि आदमी न तो अपनी भाषा का दास है न प्रजाति का, न अपने धर्म का, न नदियों के मार्ग का, और न पर्वतमालाओं की दिशा का। सर से सतर्क और दिल से जोशीले मनुष्यों का एक बड़ा समूह उस प्रकार की नैतिक चेतना की रचना करता है जिसे हम राष्ट्र कहते हैं। जब तक यह नैतिक चेतना अपने उन बलिदानों के ज़रिये, जो समुदाय के हित में व्यक्ति के आत्म-त्याग की माँग करते हैं, अपनी शक्ति का सबूत देती है,वो वैध है और उस अस्तित्व में बने रहने का अधिकार है। अगर सरहदों के बारे में दुविधा पैदा होती है तो विवादित क्षेत्र की जनता से मशविरा करें। बेशक़, इस मामले में उन्हें अहम राय देन का हक़ है। यह सिफ़ारिश राजनीति के मुस्काने पर मजबूर कर देगी उन कुलीनों को, उन अमोघ हस्तियों को जो जीवन भर ख़ुद को धोखा देते हैं और फिर अपने उत्कृष्ट सिद्धान्तों की ऊँचाई से हमारी नश्वर चिंताओ पर रहम खाते हैं। "जनता से मशविरा, हे भगवान! क्या मूर्खता है।" मगर ज़रा इन्तज़ार कीजिय़े, सज्जनों; कुलीनों का दौर गुज़र जाने दीजिये; बलशालियों की नफ़रत को धीरज से सह जाइय़े। हो सकता है, कई असफल गठजोड़ों के बाद, लोग हमारे मामूली मगर व्यावहारिक हल की ओर लौट आयें। भविष्य में सही होने का सबसे सही तरीक़ा है, कुछ दौरों में, कि आप अपने आप को फ़ैशन से बाहर होना स्वीकार कर लें।
: अर्न्स्ट रेनान
: अर्न्स्ट रेनान
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अर्न्स्ट रेनान (१८३२-९२) एक अहम फ़्रेंच विचारक थे जिन्होने मुख़्तलिफ़ मसलों पर लिखा। उनका ये प्रसिद्ध लेख "राष्ट्र क्या है?" पहली बार १८८२ में सोबन्न में पढ़ा गया था। विद्वानों के बीच आज भी इसकी एक ख़ास जगह बनी हुई है।
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इस लेख का विशेष सन्दर्भ योरोप ही है और उनकी भविष्यवाणी कितनी सही साबित हुई, आज योरोप के सभी राष्ट्र एक यूनियन में आबद्ध हो चुके हैं। इस लेख के नज़रिये से देखें तो, एक स्तर पर, भारत एक राष्ट्र और कई राष्ट्रों के यूनियन के बीच में कहीं हैं; और दूसरे स्तर पर हम कश्मीर, नागालैण्ड और दूसरे अलगाववादी वृत्तियों का दमन ऐतिहासिक अधिकार से करते हैं।
बुधवार, 2 जून 2010
फ़िलिस्तीन-इज़राईल विवाद एनीमेशन में
इज़राईली नज़रिया
फ़िलिस्तीनी नज़रिया
और हमास का पक्ष
जून २००७ में गज़ा पट्टी में छिड़े एक अन्दरूनी संघर्ष में ११८ मौतें हुईं और उसके बाद दिवंगत नेता यासिर अराफ़ात के दल 'फ़तेह' को पूरी तरह से उखाड़ कर 'हमास' गज़ा पट्टी का एकछत्र शासक हो गया। इस संघर्ष के पहले फ़तेह और हमास, फ़िलिस्तीन में आम चुनावों के बाद क़ायम हुई एक मिली-जुली सरकार चला रहे थे। हमास का मानना है कि फ़तेह वाले भ्रष्ट, पतित और इज़राईल के एजेन्ट हैं। जबकि हमास के बारे में आम राय ये है कि वह एक आतंकवादी संगठन है। हमास के हिंसक सत्तापलट के बाद इज़राईल ने गज़ा पट्टी की जो नाकाबन्दी कर रखी है वो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा इसी आधार पर स्वीकृत है।
नीचे के विडियो में फ़तेह वाले चुहों की शकल में चित्रित किए गए हैं जो इस्लामी जीवन और शरिया की धज्जियां उड़ा रहे हैं और हमास को इस्लाम की रक्षा में उठ खड़े हुए शेर के बतौर दिखाया गया है।
अभी हाल में इज़राईल ने फ़्लोटिला नामक नावों के बेड़े पर हमला कर के उस गज़ा पट्टी में राहत सामग्री पहुँचाने से रोक दिया, जिस की नाकाबन्दी वह पिछले तीन सालों से किए हुए है। इस कार्यवाही में पोत पर मौजूद ९ फ़िलिस्तीनी हमदर्द* मारे गए और कई अन्य घायल हो गए। जिसके कारण इज़राईल की चौतरफ़ा निन्दा हो रही है और सही हो रही है। ९ लोगों की मौत किसी भी बहाने से न्यायसंगत नहीं ठहराई जा सकती, वो अन्याय और अत्याचार ही रहेगी।
इज़राईल के बचाव में कुछ विद्वानों का कहना है कि इस फ़्लोटिला अभियान का मक़सद सिर्फ़ इज़राईल को बदनाम करना था। वे जानते थे कि इज़राईल कोई कड़ा क़दम ज़रूर उठाएगा जिसे रिकार्ड करने के लिए दुनिया भर के पत्रकार पोत पर मौजूद थे। उनका तर्क था कि यदि इज़राईल उन्हे नहीं रोकता है तो इलाक़े में उसकी सत्ता, जिसकी हुंकारी वह ६२ वर्ष से भर रहा है, ढह जाती है; और अगर रोकता है तो उसकी छवि और बदतर हो जाती है। ये बात तार्किक लगती है। इस मामले से पहले से ही दाग़दार इज़राईल की और बहुत भद्द हो गई है क्योंकि उसने इलाक़े पर अपनी सत्ता की पकड़ ढीली करने के मुक़ाबले अपनी छवि की धूमिलता का सौदा मंज़ूर कर लिया।
* टीवी पर ख़बरों में जो एक विडियो दिखाया गया जिसमें हेलीकौप्टर से उतरते इज़राईली सैनिकों पर फ़िलीस्तीनी हमदर्द लाठियों से हमला करते नज़र आए। उसे देखने के बाद मैं उन्हे ठीक-ठीक शांति कार्यकर्ता नहीं कह पा रहा हूँ। शांति के कार्यकर्ता लाठी ले के हिंसा करें ये हमारी गाँधीवादी नैतिकता में अट नहीं पाता।
इज़राईल-फ़िलीस्तीन के इतिहास पर मेरे द्वारा लिखी श्रंखला को यहाँ पर पढ़ें..
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