शहरों में आज भी बहुत सी चिड़िया रहती हैं, आती-जाती हैं, गाती-चिल्लाती हैं। मगर हमारे पास उन्हे देखने-सुनने के लिए आँख-कान नहीं बचे हैं। ट्रैफ़िक और टीवी के शोर में किस के पास चिड़िया को देखने का धीरज और स्थिरता है। बिना स्थिरता के आप चिड़िया नहीं देख सकते!
जब से मेरे बड़े भाई ने मुझे इस शग़ल से संक्रमित किया है तब से मैं हर जगह चिड़िया देख लेता हूँ। मेरे बालकनी के सामने जो विलायती सिरिस का पेड़ है उसमें पन्द्रह-सोलह तरह की चिड़िया आती हैं। कौए, कबूतर, मैना, कोयल के अलावा तोते, मैगपाई रौबिन या दहियल, शकरख़ोरा, छोटा बसन्ता, गोल्डन ओरियल, छतरदुमा, गुलदुम, दर्ज़ी और कौडिन्ना या किंगफ़िशर भी। इधर-उधर घूमने पर भुजंगा, श्राइक या लटोरे, रौबिन या कलचुरी, और पत्रिंगा या बीईटर भी दिख जाते हैं।
फिर भी कुछ चिड़िया हैं जो ख़तरे में है। कई बार मुझ लगता है कि विकास क्रम में चिड़ियां हम से आगे हैं। उन्होने पानी और धरती को छोड़ कर हवाओं और आकाश से नाता बनाया है। आदमी आज़ादी के लिए तड़पता रहता है मगर चिड़िया तो फ़्रीबर्ड हैं। सूफ़ी मत में पहुँचे हुए साधक परिन्दे ही कहलाते हैं।
चिड़ियों को लेकर मेरे मन की कुछ बातें चन्दू भाई ने की हैं.. उन्हे भी पढ़ें!
तस्वीर में छोटा बसन्ता या कौपरस्मिथ बारबेट।
7 टिप्पणियां:
आप की मेरी ऑफिस यात्रा की याद हो आई। ऑफिस के बाहर के पेंड़ों का नाम पूछ पूछ कर मेरी जान खा गए थे :) मुझे कुछ नहीं पता था। क्यों कि उन विदेशी मूल के बदसूरत और रोगदायी पेड़ों से मुझे नफरत है - कभी जानने की कोशिश ही नहीं की। वे 'एलिएन' लगते हैं। (मुझे कुछ ऐसा वैसा न घोषित कर दीजिएगा :)
हाँ, उन घनी छावों में ढेरो पक्षी रहते हैं। लंच ब्रेक में मैं उन्हें निहारता हूँ। एकाध के अलावा किसी का नाम नहीं जानता :(
जी हाँ चंदू भाई की पोस्ट अभी तक मन के भीतर थमी हुई है .....ओर शायद वही रहेगी....
चिड़ीनिहार अर्थात bird watcher :)
सोचता हू कि ये भी कितना अलग अनुभव होता होगा अपने आस पास के पक्षियो को जानना, समझना, निहारना..
कमलेश्वर की एक कहानी याद आ गयी - ’नीली झील’ जिसमे पात्र झील के किनारे रहते हुये ऎसी ही विधा मे पारन्गत होता है और अन्त मे शिकारियो से उस झील पर आते पक्षियो को बचाने के लिये उस झील को खरीद लेता है ’उन’पैसो से जो उसकी पत्नी ने एक मन्दिर बनाने के लिये छोडे होते है..
गिरिजेश जी की टिप्पणी से कुछ पर्सनल गिरहे भी खुली :)
ऐसी ही पोस्ट शायद आपने बहुत पहले लिखी थी -चिड़ीमार की जगह अब चिडीनिहार ले रहे हैं कितनी अच्छी बात है न !
चन्दू भाई की पोस्ट के लिंक के लिए शुक्रिया -वहां मैंने यह कमेन्ट किया -
जबरदस्त लिखा है गुरू -सतबहिनी(चरखी ) को काहें भूले जो पपीहे के परभृत चूजे को मूर्खाओं की तरह पालती है !
बढ़िया प्रस्तुति! इस बहाने चंदू भाई की पोस्ट भी पढ्ने को मिल गयी!
सुबह तडके 3 : 00 बजे से लेकर 5 : 00 बजे के बीच चिड़ियों की आवाज़ काफी आनंददायक लगती है | मन में एक सुगंध की बयार बहती रहती है उस समय |
सचमुच ...हम चिड़ियों को देखना तो भूल ही गए हैं....
आपने इतने सारे नाम लिए...इनमे से आधे को भी नाम से नहीं पहचानते हम...
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