शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007

एक और प्रतिभाशाली कवि.. एक और चिट्ठा..

अभी कल ही आपका परिचय कराया मित्र बोधिसत्व से और आज मिलाना चाहता हूँ अपने एक वरिष्ठ और पुराने साथी से.. जो एक बेहद प्रतिभाशाली कवि हैं.. नाम है चन्द्रभूषण .. और इनके चिट्ठे का नाम है पहलू..

मैं चन्दू भाई को १९८६ से जानता हूँ.. वो मुझसे पहले से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे.. पर मैंने उन्हे जाना प्रगतिशील छात्र संगठन (पी एस ओ) के माध्यम से.. संगठन का कर्यालय था १७१ कर्नलगंज, इलाहाबाद.. कार्यालय के सामने है प्रसिद्ध जवाहर बाल भवन और आनन्द भवन.. और पीछे है सी आइ डी का कार्यालय.. पीएसओ के कार्यालय में कुछ साथी ऐसे भी थे जो ना सिर्फ़ वहाँ दिन रात काम करते थे बल्कि वहाँ रहते भी थे.. उन साथियों मे एक चन्दू भाई भी थे.. चन्दू भाई ग़रीब ब्राह्मण परिवार से आये थे.. और विश्वविद्यालय में गणित पढ़ रहे थे.. पर अक्सर दिमाग़ में गणित से ज़्यादा रहने खाने के सवाल जगह घेरते.. ऐसे बुरे दिनो के बीच चन्दू भाई अपने दुःख और अपने स्वार्थ की ही चिन्ता नहीं करते रहते.. उनके मानसिक पटल पर वृहत्तर सामजिक सरोकारों की दावेदारी थी.. वहाँ छुद्र स्वार्थों को अपने पैर फैलाने की जगह नहीं मिली.. आरक्षण के सवाल पर उनकी पारिवारिक विपन्नता स्वाभाविक रूप से उन्हे आर्थिक आधार पर आरक्षण वाले तर्क के साथ गोलबन्द कर सकती थी.. पर उन्होने स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पास भी नहीं फटकने दिया.. और सामाजिक न्याय का पक्ष चुना..

अपनी पढ़ाई बीच में ही अधूरी छोड़ के चन्दू भाई १९८८ में सी पी आई एम एल से वैचारिक साम्य रखने वाले समकालीन जनमत में पूर्णकालिक रूप से सहयोग करने के लिये इलाहाबाद से पटना चले गये.. और उस दौरान राजनीति संस्कृति विज्ञान दर्शन से लेकर साहित्य तक अपनी लेखनी चलाते रहे.. उसके बाद भी मिलता तो मैं उनसे रहा हूँ पर मेरी स्मृति में चन्दू भाई की वही छवि अंकित है जो जनमत जाने के पहले उनके व्यक्तित्व की थी.. बाद में १९९६ में जनमत के बंद होने के साथ वो दिल्ली चले आये और तब से अखबारी दुनिया के बीच अपने भीतर के बेहतर इंसान को बचाने की प्रक्रिया में संघर्षरत हैं.. हिन्दी की कई प्रमुख पत्रिकाओं में चन्दू भाई के लेख कविताएं समीक्षाएं और तीन चार कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं.. बारह से अधिक किताबों का अनुवाद सम्पादित कर चुके हैं.. मगर बेहद कोमल संवेदनाओं के स्वामी चन्दू भाई भीतर से कवि हैं.. उनकी एक पंक्ति मुझे नहीं भूलती (जो अब तक शायद किसी कविता का अंग बन गई हो) .. मैं, मेरे एक और मित्र राजेश अभय और चन्दू भाई साथ में थे.. हम कुछ नशे में थे.. कुछ दुख में थे और कुछ गुस्से में.. और चन्दू भाई ने आसमान में घूरते हुये कहा.. साथी आज की रात.. आओ मारें चाँद को एक लात..

परिचय को और लम्बा नहीं करूंगा.. चन्दू भाई का इतनी रात गये नाम से एक कविता संग्रह २००१ में संवाद प्रकाशन से निकल चुका है.. जिन्होने इसे पढ़ा है उनका मानना है कि हमारे समय के सबसे सच्चे और ईमानदार प्रतिबिम्ब आपको यहाँ देखने को मिलेंगे... आप इस संग्रह को निम्न पते से मंगा सकते हैं..
ए-४, ईडेन रोज़, वृंदावन,
एवरशाइन सिटी, वसई रोड,
ठाणे पूर्व, महाराष्ट्र -४०१२०८

'इतनी रात गये' से मेरी पसंद की एक कविता..

दुविधा


सब कुछ खुला खुला सा है
पहरा मगर सख्त है
न दिन है न रात है
अजीब सा कोई वक़्त है

सुन्न शरीरों पर रस की फुहार
अपनी अपनी नींदो में खोये
सभी नाच रहे हैं
बहुत बुरा है यहाँ खुली आँख रखना
देखना सब कुछ चुपचाप सहना
उससे बुरा यह
कि थिरक रहे हैं अपने भी पाँव
न रोक पाता हूँ इन्हे
न शामिल हो पाता हूँ
चहार सू व्यापी इस एकरस लय में

ज़िन्दगी के सफ़र का
ये कौन सा मुकाम, उफ़
कि क्षितिज पर अटका है
आत्मा का सूरज
न उगता है, ना डूबता है

'हिन्दी शब्दानुशासन'.. जैसा कि वचन दिया था..

जैसा कि वचन दिया था.. लिख रहा हूँ हिन्दी शब्दानुशासन के बारे में..पहले कुछ मूल सूचनाएं.. प्रकाशक हैं नागरी प्रचारिणी सभा, काशी.. पहला संस्करण निकला १९५८ में.. मेरे पास जो पाँचवां संस्करण है वो १९९८ का है.. ग्रंथ का विषय है भाषा विज्ञान से संवलित हिन्दी का व्याकरण.. जैसा कि लेखक किशोरी दास वाजपेयी ने उप शीर्षक के बतौर रखा है.. कुल पृष्ठों की संख्या ६०८ है..
पूर्व पीठिका १-७५
(हिन्दी की उत्पत्ति और परिष्कार पर)
पूर्वार्ध ७७-३८३
(स्वर, वर्ण, संज्ञा, आदि पर ७ अध्याय)
उत्तरार्ध ३८५- ५१६
(विभिन्न प्रकार की क्रियाओं पर ५ अध्याय)
परिशिष्ट ५१७-६०८
( हिन्दी की बोलियों पर ३ परिच्छेद)
प्रकाशकीय और विभिन्न संस्करणो की भूमिका इस अनुक्रमणिका के पूर्व ५०-५५ पृष्ठों में संकलित है..

इसके पहले कि मैं किताब के कुछ नमूने आप के सामने पेश करूँ मेरी इच्छा है कि आप लेखक के विषय में थोड़ा सा जान लें.. किशोरीदास जी(१८९८-१९८१) के बारे में राहुल जी ने अपने लेख (पुस्तक में उपलब्ध) में जो लिखा है वह पढ़ने योग्य है..

आज की दुनिया में कितना अंधेर है, विशेष कर हमारे देश का सांस्कृतिक तल कितना नीचा है, इस का सबसे ज्वलंत उदाहरण हमें पंडित किशोरी दास वाजपेयी के साथ हुए और हो रहे बर्ताव से मालूम होता है। प्रतिभाएं सभी क्षेत्रों में एवरेस्ट शिखर नहीं होती; परन्तु जब किसी क्षेत्र में किसी पुरुष का उत्कर्ष साबित हो गया, तो उसकी कदर करना और उस से काम लेना समाज का कर्तव्य है । आज बहुत थोड़े लोग हैं जो किशोरी दास जी को समझते हैं। उनमें से बहुतेरे उनके अक्खड़ स्वभाव या अपनी ईर्ष्या से नहीं चाहते कि लोग इस अनमोल हीरे को समझें, इसकी कदर करें । इसका परिणाम ये हो रहा है कि हिन्दी उनकी सर्वोच्च देनों द्वरा परिपूर्ण होने से वंचित हो रही है और उन्हे लिखना पड़ रहा है- " मैं क्या गर्व करूँ ! गर्व पकट करने योग्य चीज़ें तो अभी तक दे ही नहीं पाया हूँ !" वाजपेयी जी पाँच बड़ी-बड़ी जिल्दों में हिन्दी को निर्वचनात्मक ( निरुक्तीय) कोश दे सकते हैं; पर उसकी जगह वे 'हिन्दी निरुक्त' के रूप में उसकी भूमिका भर ही लिख सके हैं ! वे हमें हिन्दी का महाव्याकरण दे सकते हैं..

...दो विषयों में उनके समकक्ष इस समय हिन्दी में कोई नहीं है, वे हैं व्याकरण और निरुक्त । उनका यह कहना बिलकुल बजा है कि " कोई मुझे गाली न दे कि वह इस विषय पर लिख सकता था, पर कमबख्त साथ ही सब लेकर मर गया !" वाजपेयी जी को लोग गाली नहीं देंगे; बल्कि आज के हिन्दी वालों को देंगे..
..व्याकरण और निरुक्त बड़े ही नीरस विषय हैं, पर वाजपेयी जी के हाथों में पहुँच कर कितने रोचक हो जाते हैं, इसे उनके ग्रंथों को पढ़ने वाले भली भंति जानते हैं..



हरेक असाधारण प्रतिभाशाली पुरुष में कुछ ऐसी विलक्षणता या विशिष्टता भी होती है, जिसे सभ्य गुणग्राही समाज को बर्दाश्त करने के लिये तैयार रहना पड़ता है । यह कोई मँहगा सौदा नहीं है; क्योंकि थोड़ी नाज़बर्दारी करके आप उनसे बहुमूल्य वस्तु प्राप्त कर सकते हैं । प्रतिभायें 'सात खून माफ़' वाली श्रेणी में होती हैं..

क्या यह दुनिया एक क्षण के लिये भी बर्दाश्त करने लायक है कि जिसमें अनमोल प्रतिभाओं को काम करने का अवसर न मिले और ऐरैगैरे-नत्थूखैरे गुलछर्रे उड़ाते राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अपना नाच दिखलायें..

राहुल जी के ये उदगार और दु:खद इसलिये भी हैं कि यह १९५४ में व्यक्त हुए और हिन्दी का निरुक्त अभी भी हमारे पास नहीं है.. किशोरीदास जी सचमुच बहुत कुछ साथ लेकर मर गये..

और ये तिथि भी उल्लेखनीय है क्योंकि १९५४ में राहुल जी ने यह लेख लिखा और हिन्दी शब्दानुशासन का पहला संस्करण १९५८ में आया.. अपनी भूमिका में किशोरीदास जी कहते हैं.. ." ..राहुल जी का वह महत्वपूर्ण लेख निकला जो अभूतपूर्व था । एक ही लेख ने पर्दा हटा दिया । हिन्दी शब्दानुशासन बनाने बनवाने की भूमिका तैयार की राहुल जी ने और फिर उसे ऊँचे उठने बढ़ने में मदद की डा० राम विलास शर्मा ने । (नागरी प्रचारिणी) सभा तो पोषणकर्त्री (धात्री) है ही.. "

यानी कि अगर राहुल जी ये गरियउल ना करते तो इस पुस्तक का भी अस्तित्व ना होता.. धन्य है हमारा समाज..

किशोरीदास जी की पुस्तक एक दिन में पढ़ कर खत्म कर देने वाली पुस्तक नहीं है.. ये तो धीरे धीरे पगुराने वाली चीज़ है.. पूर्वपीठिका में हूँ अभी.. उसी से एक अंश आपके आनन्द के लिये प्रस्तुत करता हूँ..

कुरुजनपद (उत्तर प्रदेश के मेरठ डिवीज़न) की बोली को 'खड़ी बोली' नाम भाषाशास्त्रियों ने नहीं, साधारण साहित्यिकों ने दिया । परन्तु इसकी व्युत्पत्ति के बारे में लोग भटकते रहे । प्रारम्भ में तो 'खड़ी बोली' नाम इसलिये पड़ा कि इसमें कवियों को मधुरता ना जान पड़ी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी इसमें खड़खड़ाहट पाई । जब दाल पकती नहीं, कच्ची रह जाती है तो लोग कहते हैं --'दाल खड़ी रह गई है'। इसी सादृश्य से लोग इसे 'खड़ी बोली' कहने लगे होंगे । परन्तु इस चीज़ को न समझ कर कई विद्वानो ने लिख दिया कि 'खरी बोली' का रूपान्तर 'खड़ी बोली' है ।

यह तो हुई कवि जनों की बात । आगे चलकर कवियों ने ही इसे लोचदार और मधुर-कोमल बना लिया । इधर के काव्य देखिये न !

परन्तु 'खड़ी बोली' नाम भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी खरा उतरता है । 'मीठा', 'जाता,' 'खाता' आदि में जो खड़ी पाई आप (अन्त में) देखते है, वह हिन्दी के अतिरिक्त इसकी किसी भी दूसरी बोली में न मिलेगी। ब्रज में 'मीठो' और अवधी में 'मीठ' चलता है-- 'मीठो जल', 'मीठ पानी' । इसी तरह 'जात है, 'खात है' आदि रूप होते हैं । परन्तु कुरुजनपद में ही नहीं यह खड़ी पाई आगे पंजाब तक चली गई है-- 'मिट्ठा पाणी लावँदा है'' ।

सो, इस खड़ी पाई के कारण इसका नाम 'खड़ी बोली' बहुत सार्थक है ।

आप जानते हैं, यह खड़ी पाई मूलत: क्या चीज़ है ? यह संस्कृत के विसर्गो का विकास है । 'उषः' को 'उषा' होते आपने देखा ही है । विसर्गों का उच्चारण 'ह' के समान होता है; इसी लिये विदेशी 'ज्यादह', 'तमन्न्ह' आदि शब्द हिन्दी में 'ज़्यादा', 'तमन्ना' बन जाते हैं । कुछ दिन पहले तक लोग 'ज़्यादः, 'तमन्नः', 'तर्जुमः', यों विसर्ग इन विदेशी शब्दों में भी दिया करते थे। इसके विरुद्ध बहुत कुछ लिखा-किया गया, तब अब प्रवाह बदला है । लोग 'ह' लिखने लगे हैं यद्यपि 'छः' अभी तक लिखे जा रहे हैं । 'छ्ह' शुद्ध है 'छः' ग़लत है ।

कहा जा रहा था कि खड़ी बोली की यह खड़ी पाई विसर्गों का विकास है । 'अ' का भी कंठ स्थान है और 'ह' का भी, तथा विसर्गों का भी । इस लिये 'ह' तथा विसर्गों की जगह कभी कभी 'अ' ले लेता है । फिर 'सवर्ण-दीर्घ' हो कर आ बन जाता है । 'उष:' से 'उषा' और 'तर्जुमः' से 'तर्जुमा' इसी विधि से बन गये ।

पुस्तक में ऐसे तमाम रहस्य और राज़ पर से परदे खुलते उठते चलते हैं पग पग पर.. मैं तो जानूंगा और आनन्दित होऊंगा.. पर आप.. आप को कौन बताएगा..माफ़ कीजिये मेरी अँगुलियों में इतना दम नहीं है कि पूरी किताब छाप दूँ.. फिर कॉपीराइट का भी तो मामला होगा.. बहुत इच्छा है तो खरीदिये और पढ़िये.. मूल्य कुल १५० रुपये.. प्रकाशक नागरी प्रचारिणी सभा..

गुरुवार, 26 अप्रैल 2007

कवि बोधिसत्व भी बने चिट्ठाकार

हिन्दी साहित्य और हिन्दी भाषाई समाज का तअल्लुक काफ़ी विछिन्न हो चला है । कारण जो भी हो, लोग पढ़ते नहीं है । इसलिये नहीं कि कवि और लेखक इस स्तर के नहीं कि उन्हे पढ़ा न जाय बल्कि इसलिये कि हिन्दी भाषा अपनी राजनैतिक व व्यावसायिक उपयोगिता खो चुकी है । किताब ही खरीदनी होगी तो लोग अंग्रेज़ी की खरीदेंगे । पर हिन्दी ब्लॉग की दुनिया बात अलग है.. यहाँ पर वही प्राणी विचरते हैं जिनका हिन्दी से अटूट प्रेम है । और इन हिन्दी प्रेमियों के बीच कविता प्रेमियों की संख्या खूब प्रबल है । आज मैं आप सब प्रेमी जनों के बीच हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कवि को परिचित करने का आनन्द लेना चाहता हूँ । कवि हैं अखिलेश मिश्र बोधिसत्व और इनके ब्लॉग का नाम है विनय-पत्रिका । ये हमारे समुदाय का हिस्सा तो फ़रवरी में ही बन गये थे पर कुछ निजी कारणों के चलते सक्रिय न हो पाये और नारद में पंजीकरण भी नहीं कर पाये । पंजीकरण अभी भी होना है .. सोमवार का इंतज़ार कर रहे हैं (अब से नये चिट्ठों का पंजी करण सिर्फ़ सोमवार को ही होगा), पर सक्रिय हो गये हैं ।

बोधि और मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहपाठी रहे हैं । इनकी प्रतिभा के पाँव उसी पालने में पहचाने गये थे । तब से अब तक बड़े मुकाम तय किये हैं बोधि ने । तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं -सिर्फ़ कवि नहीं (१९९२), हम जो नदियों का संगम हैं (२०००), और दुःख-तंत्र (२००४) और चार सम्मान प्राप्त कर चुके हैं । कई विश्वविद्यालयों और माध्यमिक पाठ्यक्रमों में इनकी कविता पढ़ी जाती है । फ़िलहाल मुम्बई में रिहाइश है और स्टार न्यूज़ में सलाहकार हैं । निजी तौर पर मुम्बई जैसे साहित्य विरोधी शहर में मेरे कुछ सहारों में बोधि भी हैं । बोधि की कविता के बारे में, मैं क्या कहूँ.. देश के सभी साहित्यिक हस्तियां इन्हे अपनी पीढ़ी के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में मानती हैं । मैं एक इतर बात कहना चाहता हूँ जो वो हस्तियां नहीं जानती और नहीं कहती कि बोधिसत्व एक अद्भुत स्मृति के स्वामी हैं । जिस तरह से वो लगातार उद्धरण छोड़ते चलते हैं वो मेरे जैसे स्मृति शून्य व्यक्ति के लिये बेहद आतंकित करने वाला होता है । पर मैं अपने आपको इसी आश्वासन से बचाये रखता हूँ कि वे मेरे मित्र हैं नहीं तो कब का शर्म से गल कर बह गया होता । रामचरित मानस कुछ इस तरह से उन्हे ज़बानी याद है कि वो मुझे वेदपाठी ब्राह्मणों की परम्परा के लगने लगते हैं बावजूद इसके कि अभी अभी ही वे कुछ आरोपों और हमलों का भी शिकार हुये मोहल्ले में छपी उनकी कविता शांता को लेकर । मेरी इच्छा है कि वो अपनी कवितायें तो लिखते ही रहें साथ साथ अपनी इस प्रतिभा का उपयोग कुछ गद्य लेखन में भी करें ।

आप बोधि की एक कविता पढिये जो मेरी पसंद की इसलिये भी है कि वह हमारे शहर इलाहाबाद के बारे में है..

एक एक करके गिरते जाते हैं तरु,
होता जाता है सूना
वन का आँगन, उड़ते जाते हैं पत्ते
दुःख होता जाता है दूना।


घटती जाती है छाँह, मन होता
जाता है ऊना, हाल पूछना,
राह भूल कर आना जाना, बन्द हुआ
चूमना छूना ।


एक एक कर होते हैं उऋण, सोचते हैं
वहाँ उमड़ा आता है अब पावस,
होता है शुरु पत्तों की आँखों से
जल चूना ।

बुधवार, 25 अप्रैल 2007

मुम्बई में दुनिया किताबों की..

चार पाँच दिन से कुछ नहीं चढ़ाया.. तो आज विमल भाई का एक सन्देसा आया कि क्या भाई, आपने बताया नही कि कितने दिन का मौन रखा है ? मौन टूट्ने का इन्तज़ार है...

तो लगा कि सचमुच ये तो उलटा हो गया कहाँ हम मौन के विरोध में बोल रहे थे.. और बोलते बोलते खुद ही मौन हो गये. आज प्रमोद भाई ने जो चढ़ाया.. उसमें लिखा है कि झोले में कुछ किताबें ढो के लाये हैं और जैज़ सुनने के मूड में हैं.. असल में प्रमोद भाई के साथ मैं भी एक झोला भर किताबें ढो के लाया हूँ.. जो अभी अलट पलट के देख रहा हूँ.. पिछले दिनों भुवनेश ने काशी का अस्सी के बारे लिखा था जिसे पढ़ के मुझे भी प्रेरणा हुई कि किताबों के बारें में सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाय.. तो आज लाई गई किताबों में हैं..

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की ग़ुबारे ख़ातिर
भगवान सिंह की भारतीय सभ्यता की निर्मिति
राम मनोहर लोहिया की हिन्दू बनाम हिन्दू
भगवत शरण उपाध्याय की खून के छींटे इतिहास के पन्नो पर
जियालाल आर्य की जोतीपुंज महात्मा फुले
सुन्दरलाल बहुगुणा की धरती की पुकार
राजकिशोर की जाति कौन तोड़ेगा
सच्चिदानन्द सिन्हा की भूमण्डलीकरण की चुनौतियां
और रामविलास शर्मा की भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद

ये सब किताबें बिस्तर के हेडबोर्ड पर सजाके देखने में जो सुख है वो इन्हे पढ़ने के सुख से ज़रा ही कम है.. ये सोच के ही मेरे भीतर ज्ञान के अभिमान का सागर हिलोरें मारने लगता है कि मैं इन सारी किताबों का मालिक हूँ..दूसरे ही पल सच्चाई का तमाचा भी पड़ता है.. काश सिर्फ़ पुस्तकें खरीद लेने भर से ही आप उनके ज्ञान के भी अधिकारी हो जाते .. इस सब ज्ञान को अपने भीतर उडे़लने और पचाने में ना जाने कितनी रातों का मध्यरात्रि तेल खरचना पड़ेगा.. (अंग्रेज़ी कहावत का जस का तस अनुवादित प्रयोग).. कितनी ही किताबें तो सिर्फ़ उलट पलट कर इधर उधर धर दीं जायेंगी जैसे कि हिन्दी के मशहूर कवि वीरेन डंगवाल ने कहा है कि अमरूद का सौभाग्य है खा लिया जाना तो उनकी इस बात पर हिन्दी के दूसरे मशहूर कवि और उनके पहाड़ी साथी मंगलेश डबराल कहते हैं कि किताब को पढ़ लिया जाना उसका सौभाग्य है.. जैसे हर दिल की किस्मत मे नहीं होता कि उसे प्यार मिले वैसे हर किताब की प्रति के भाग्य में भी नहीं होता कि उसे उसका पाठक मिल जाय.. और विशेषकर हिन्दी किताबों की.. जैसे आज लाईं गई ऊपर दी गई किताबों की सूची में से कई को हलके हलके सहलाते हुये मैं सोचूंगा कि क्या ही अच्छा होता कि मैं अंगुलियों के अन्त पर के शिराग्रों से किताबों में क़ैद सारे ज्ञान को अपने अन्दर खींच लेता.. देर तक पन्ने दर पन्ने पर आँख घुमाने की कसरत तो ना करनी पड़ती.. खैर क्या धरा है इस खामखयाली में .. सच यही है कि आप खरीदी हुई सारी किताबें नहीं पढ़ सकते.. कुछ किताबें अपनी किस्मत को बिसूरती रहेंगी..

तो ये तो हुई किताबों के बारे में सूचना.. मगर एक बात जो दिल में खटकती रहती है वो आपसे कहना चाहता हूँ.. मुम्बई में आप यूं ही चलते फ़िरते हिन्दी किताबें नहीं खरीद सकते.. सारे देश की तरह यहां भी हिन्दी की किताबों की दुकानें आपको खोजनी पड़ेंगी..और जो होती हैं वो प्रकाशक के दफ़्तर में होती हैं.. और दुकानदार का मुख्य ग्राहक हम और आप जैसे आम पाठक नहीं सरकारी संस्थान होते हैं.. मुंबई में हिन्दी किताबों की गिनी चुनी दुकानें हैं ..

एक तो शरद मिश्र का जोगेश्वरी स्थित घर से संचालित पुस्तक बिक्री केंद्र.. कुछ माह पहले तक पृथ्वी थियेटर के एक कोने में एक छोटी सी दुकान के संचालक थे.. अब वो बंद हो गई है और उसकी जगह एक अंग्रेज़ी पुस्तक केंद्र ने ले ली है.. शरद के पास अपने जीवन और हिन्दी के जीवन को लेकर अब क्या योजना है मुझे जानकारी नहीं है..

दूसरा उनके पिता श्री सत्य नारायण मिश्र जी द्वारा संचालित जीवन प्रभात प्रकाशन जो कि इर्ला के कृपा नगर सोसायटी के उनके निवास स्थान में है.. मिश्रा जी वृद्ध आदमी है. . दुबले पतले लम्बे लहराते खिचड़ी बाल .. जब आप उनके दुकान में पहुँचिये तो ऐसे स्वागत होता है जैसे आप किसी के घर पर आ गये हों.. क्यों कि असल में आप उनके घर पर ही आये होते हैं जिसके हॉल में उन्होने चारों तरफ़ अलमारियां लगाकर किताबें सजा दी हैं..सुबह शाम की बात अलग है.. बच्चे या घर के अन्य सदस्य जागते होते हैं खेलते होते हैं.. मगर अगर आप दोपहर में गये तो आपने आगमन से सबके आराम में खलल पड़ जाता है ..आप भले ही सकुचा जायं लेकिन वो आपका स्वागत उतने ही उत्साह से करते हैं जितना कि वो अपने भतीजे या मौसा के आने पर करते.. मिश्रा जी से आपको १०% डिस्कांउट मिल जायेगा...इस दुकान को खोजने के बाद मैं कम से कम अपने पंद्रह मित्रों के साथ अलग अलग समय पर उनके यहाँ जा चुका हूँ.. मेरे सारे टेलेविज़न के मित्रों को तो वो पहली दफ़ा से ही पहचान जाते हैं .. मगर अब मुझे भी पहचानने लगे हैं..

तीसरा स्थल है श्री जीतेंद्र भाटिया द्वारा संचालित पवई के हीरानंदानी स्थित वसुंधरा .. जहाँ से ये सारी किताबों की खरीदारी की गई..ये काफ़ी सुव्यवस्थित दुकान है.. भाटियाजी. सुना है कि आइ आई टी के पुराने पास आउट हैं अब रिटायर हो चुके हैं .. खुद भी लेखक हैं.. पहल से जुड़े रहे हैं.. और इस दुकान से उनको कितना व्यावसायिक लाभ होता होगा कहना मुश्किल है.. वैसे भाटिया जी के दोनों बेटियां शादी करके विदेश में सुखी हैं और भाटियाजी किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी से मुक्त हैं.. साहित्य सेवा करने के लिये..

और चौथा और सबसे पुराना सी पी टैंक स्थित हिन्दी ग्रंथ कार्यालय १९१२ से जो अस्तित्व में है.. उस काल से जब मुम्बई का संस्कृत टाइप प्रसिद्ध था.. खेमराज श्रीकृष्णदास और व्यकेंटेश्वर प्रेस के स्वर्णिम काल से.. दो दिन पहले ही हम यहाँ भी हो के आये हैं.. उस दिन दुकान के कर्ता धर्ता मनीष मोदी कहीं जाने की जल्दी में थे सो हमें अपने पिता के हवाले करके चले गये.. मोदी सीनियर ने काफ़ी अफ़्सोस के साथ हमारी चुनी हुई किताबों पर किसी भी प्रकार का डिस्काउंट देने से मना कर दिया.. वो काफ़ी दुखी और हताश थे.. पहले उनका अपना प्रकाशन भी था. मगर अब बुरे दिन हैं.. अगल बगल जो हिन्दी किताबों की चार और दुकाने थी वो धीरे धीरे कर के सब बंद हो गईं.. उन्होने दूसरा धंधा.. जैसे कपड़े की गाँठो का गोदाम ..शुरु कर दिया.. वो शहर के बीस लाख हिन्दी भाषियों से खासे खफ़ा दिखे.. जो हिन्दी प्रदेश से सब पढ़ लिख कर आते हैं और उसके बाद उन्हे जीवन भर कुछ और पढ़्ने की ज़रूरत नहीं पड़ती.. मैंने और प्रमोद भाई ने उनसे डिसकाउंट के लिये कोई ज़िद नहीं की.. उनकी निराशा और हताशा में हमें अपनी भाषा के भविष्य की प्रति हमारे डर की झाँकी दिख रही थी..

इसके अलावा मेरी जानकारी में हिन्दी की किताबें प्राप्त करने की कुछ और दुकाने है.. जो मेरे मित्र बोधिसत्व ने गिनवाई हैं..
रमन मिश्र की मरीन लाइन्स स्थित परिदृश्य
महालक्ष्मी स्थित पैरामाउंट बुक एजेंसी..
कोई कह रहा था कि मीरा रोड पर भी कोई दुकान खुली है.. देखने का सौभाग्य अभी नहीं मिला है..
इसके अलावा साहित्य आकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट ने मुम्बई में शाखाएं खोल रखी हैं..
गीता प्रेस की भी मरीन लाइन्स और चर्नी रोड पर दो दुकाने हैं..
प्रकाशन विभाग जो पहले बलार्ड पिअर पर होता था अब बेलापुर चला गया है..
सी एस टी और मुम्बई सेन्ट्रल पर व्हीलर और सर्वोदय बुक स्टॉल्स..
एअरपोर्ट पर आपको क्रॉसवर्ड मिल जायेगा वहाँ अनेकों अंग्रेज़ी किताबें मिल जायेंगी.. हो सकता है फ़्रेंच और जर्मन भी मिल जायं पर हिन्दी की पुस्तक नहीं मिलेगी.. बात साफ़ है हिन्दी किस की भाषा है..

इसके पहले कि मैं कुछ और हताश स्वर पकड़ूँ.. बात यहीं खत्म करता हूँ.. किसी खास किताब के बारें में बात नहीं कर पाया इसलिये माफ़ी चाहता हूँ.. वो अगली पोस्ट में करूँगा.. ज़रूर.. किताब का नाम है हिन्दी शब्दानुशासन और लेखक हैं किशोरीदास बाजपेयी.. खरीदी गई हिन्दी ग्रंथ कार्यालय से बिना डिस्काउंट के..

बुधवार, 18 अप्रैल 2007

३६५ दिन का मौन ?

वर्जीनिया टैक यूनिवर्सिटी मे एक कोरियाई छात्र ने अंधाधुंध फायरिंग की.. नतीजतन ३३ लोग मारे गये.. जीतू जी के पास से प्रस्ताव आया है एक अनजान सूत्र से.. कि ३० अप्रैल के रोज़ पूरे ब्लॉग जगत को बंद रखा जाय कोई कुछ ना बोले.. माफ़ करें ये बात मेरे गले नहीं उतरती.. जीतू जी की नेकनीयती पर किसी को शक़ नहीं है.. मगर जिन्होने इस मौन प्रस्ताव का सूत्रपात किया है.. ना जाने कौन लोग हैं.. ना जाने क्या उनकी राजनीति है क्या राजनैतिक मंशा है.. क्यों इस मामले को दुनिया भर में होने वाली हिंसा से जोड़ा जा रहा है.. निश्चित ही ये हिंसा का मामला है.. पर अमरीका की सदारत में होने वाली दुनिया भर की हिंसा की दूसरी परिघटनाओं से अलग है..

मेरा ख्याल है कि इस मामले को बाकी मामलों से अलग करके देखा जाना चाहिये.. एक स्तर पर सब हिंसा एक ही है..मरने वालो का खून हर मामले में लाल ही होता है.. पर यहाँ मारने वाला कौन है.. एक व्यक्ति.. अपनी किसी मनोदशा से प्रेरित हो कर उसने ये जघन्य कृत्य किया.. ये ठीक है कि उस मनोदशा के बीज समाज में ही है.. पर बड़े स्तर पर की जाने वाली सुनियोजित राजनैतिक हिंसा पर तो हम विरोध का कोई सामूहिक कदम ना उठायें .. और एक आदमी के दुष्कत्य पर पूरा ब्लॉग जगत मौन साध ले.. बिना निशाने के इस राजनैतिक हथियार का क्या अर्थ है.. किसके खिलाफ़ है ये पहलकदमी.. कुछ अमूर्त नहीं हो जा रहा है ये दु:ख और संवेदना का प्रदर्शन.. वो भी तब जबकि आज १२७ लोग मारे गये इराक़ के एक सीरियल बम धमाकों में.. ऐसी हिंसा के लिये जो लोग ज़िम्मेदार हैं उनके विरोध में हम कभी इस तरह सामूहिक रूप से बोलेंगे या एक दिन का नहीं ३६५ दिन का मौन धारण करेंगे.. हमारे भीतर के असंतोष को एक फ़र्ज़ी मंच नहीं.. विरोध का एक सच्चा मंच चाहिये..

जो हुआ दु:खद हुआ..पर हमारे अपने देश में ही इतनी ढेरों ढेर मुसीबतें समस्याएं और आपदाएं हैं और उसमें बाकी दुनिया की भी जोड़ दें.. और हम प्रत्येक पर मौन रहें तो ब्लॉग लिखने के अवसर कम आयेंगे.. मेरी निजी राय ये है कि हमें मौन रहने की नहीं खुल के बोलने की ज़रूरत है.. अभी भी हम तमाम मुद्दों पर विवाद के भय से मौन साधना उचित समझते हैं..

बाकी जो आम सहमति बने..

मंगलवार, 17 अप्रैल 2007

नैतिकता का हथौड़ा

अजीब है आदमी के शरीर की बनावट..पेट में आग लगी पड़ी है.. आँते छिल चुकी है.. लेकिन ज़बान लाल मिर्चों के लिये लटपटाती है..ज़बान और पेट के बीच में कोई संवाद ही नहीं है.. ये आदमी के शरीर की रचना में एक मूलभूत दोष है.. और आदमी ने अपने भगवान को ही नहीं अपने संसार अपने समाज को भी अपनी ही शक्ल में ढाला है.. जैसे नाड़ियों और शिराओं का जाल शरीर के अन्दर फैला है वैसा ही बाहर की दुनिया में भी आदमी ने निर्मित किया है (और उसे विज्ञान की अनुपम खोजों का नाम दिया है इस तथ्य को पूरा अनदेखा करते हुए कि शरीर के अन्दर अभी भी कहीं ज़्यादा जटिल संरचनाएं मौजूद है)..और सामाजिक संरचनाओं में भी शरीर से एक साम्य है.. शरीर के विभिन्न अंगो के बीच इस संवादहीनता का मूलभूत दोष उसकी सामाजिक संरचना में भी अभिव्यक्त होता है.. विभिन्न समुदायों के बीच आपसी तालमेल तो नहीं ही है संवाद भी नहीं है.. अपने निजी हित के लिये एक सामाजिक अंग दूसरे सामाजिक अंग का इस्तेमाल करना चाहता है.. कोई नई बात नहीं सदियों से होता आया है.. और इसी विषमता के कारण जैसे शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं वैसे ही समाज को भी अपने असंतुलन का खामियाजा सामूहिक तौर पर भुगतना पड़ता है.. रोग किसी भी अंग में हो कष्ट किसी एक भाग में ही क्यों न केन्द्रित हो .. प्रभावित तो पूरा शरीर ही होता है.. और रोग बढ़ जाने पर शरीर के मृत्यु भी होती है.. समाज और सभ्यताएं भी विनष्ट होती हैं..

हमारे समाज में भी तमाम रोग लगे हुए हैं.. एक रोग का प्रगटीकरण कल देखा गया.. रिचर्ड गेयर ने शिल्पा शेट्टी को चूमा एक एड्स अभियान के प्रचार के एक हथकंडे के बतौर.. सोच ये थी कि इस घटना की वजह से इस अभियान की चर्चा होगी..और आज तक और स्टारन्यूज़ जैसे चैनेल्स ने इसे जानबूझकर गेयर के यौन अतिक्रमण की तरह पेश किया.. टी आर पी पाने के लिये पूरे मामले को और सनसनीखेज बनाया गया.. जनता के एक खास तबक़े ने इस घनघोर अनैतिकता का प्रदर्शन माना.. और इस पर अपनी भयंकर नाराज़गी ज़ाहिर की.. शिल्पा के खिलाफ़ प्रदर्शन करके.. शिल्पा अपने निजी और सामाजिक जीवन में कैसा व्यवहार करें यह वे लोग तय करना चाहते हैं.. दूसरा मामला.. एक १६ वर्षीय लड़की एक विधर्मी पुरुष के साथ भाग कर मुम्बई आती है.. स्टार न्यूज़ उन दोनों को अपने चैनल पर शरण देता है.. उन पर कार्यक्रम कर के सनसनी परोसता है अपने दर्शकों को आगे.. ये भूल कर कि ये ..एक नाबालिग़ लड़की को भगाने का आपराधिक मामला है.. चैनल एक व्यापारिक संगठन है उसे सिर्फ़ अपने मुनाफ़े से मतलब है.. और इसी लिये वो किसी भी सामाजिक ज़िम्मेदारी से बिदकता रहता है.. हाँ उसका नाटक ज़रूर करता है.. जैसे इस पूरे घटनाक्रम के बाद वो कह रहा है कि हम आपकी आवाज़ को दबने नहीं देगे.. हम आपको हमेशा रखेंगे आगे.. वगैरह वगैरह.. स्टार न्यूज़ के खिलाफ़ पोलिस केस दर्ज़ हो चुका है.. मगर एक दर्शक वर्ग को इतना बुरा लगा कि वे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिये चैनल के दफ़्तर में तोड़ फोड़ करते हैं.. उनके अनुसार उन्हे पता है कि सही रास्ता क्या है.. और स्टार न्यूज़ जो भटक कर ग़लत रास्ते पर चला गया है, उसे सही रास्ते पर वापस लाने के लिये वो हिंसा का सहारा लेते हैं..

यहाँ पर दो वर्ग हमें साफ़ साफ़ दिख रहे हैं.. एक वर्ग जो कि अपने मुनाफ़े के लिये किसी भी हद तक गिरने को तैयार है.. और वो इस मुनाफ़े को कमाने के लिये एक समाज की वकालत करता है जहाँ सम्पूर्ण आज़ादी हो कोई रोक टोक ना हो.. किसी प्रकार की नैतिक बन्दिश भी ना हो.. ये उसके हित के लिये आदर्श वातावरण होगा.. ऐसा उस वर्ग का मानना है.. और दूसरा वर्ग है जो किसी प्रकार के मुनाफ़ा कमाने के व्यवसाय में नहीं है.. जो सामाजिकता और नैतिकता का प्रहरी है.. और सामाजिक आज़ादी की उसकी अपनी एक परिभाषा है.. और अपनी परिभाषा को मनवाने के लिये वो हिंसा का रास्ता अख्तियार करने में हिचकिचाता नहीं.. ये दोनों संघर्ष कर रहे हैं.. सरकार फ़िलहाल पहले वर्ग- मुनाफ़ाखोरों के साथ है.. पर लोकतंत्र में ये तस्वीर बदल भी सकती है..

मज़े की बात ये है कि ये दोनों प्रवृत्तियां आज़ादी की लड़ाई के समय भी थी.. तब इनमें मेल था.. या यूं कहें कि एक दूसरे के अधीन थी.. मुनाफ़ाखोर तो मुनाफ़ाखोर ही थे.. पर इतने बेशरम ना थे.. नैतिकता और सामाजिकता के चोले में रहकर धंधा करते थे.. गाँधी जी को अपना नेता मानते थे.. गाँधी जी का भी उनपर खास स्नेह था.. वे जहाँतक हो सके बिड़ला के ही अतिथि होते.. और दूसरी प्रवृत्ति के प्रतिनिधि स्वयं गाँधी जी थे.. देश के हित में अपने सही फ़ैसलों को पर्याप्त सहयोग अनुमोदन आदि ना मिलने पर वो आमरण अनशन पर बैठ जाते.. अगर तुम लोगों ने मेरी बात ना मानी तो मैं जान दे दूंगा.. हिंसा ये भी है.. मारने की नहीं तो मरने की बात है.. चाकू की नोंक दूसरे की तरफ नहीं अपनी तरफ कर ली गई है.. बस इतना फ़रक है.. अम्बेदकर और सुभाष बोस भी, बापू की इस हिंसा का निशाना बने थे.. अंग्रेज़ तो बने ही बने.. उस वक्त ये तरीका बीमारी नहीं था .. जो हो रहा था देश के हित में हो रहा था.. मगर अब यही प्रवृत्ति बढ़ कर एक फ़ासीवादी रूप ले चुकी है.. और अभी भी इस के इलाज के प्रति हम ठीक से सचेत नहीं है.. सरकार तो नहीं ही है.. ऐसी असहिष्णुता कभी कभी हमें अपने ब्लॉग जगत में भी दिखती है.. क्या हम भूलते जा रहे हैं इन शब्दों का अर्थ- आज़ादी.. नैतिकता.. सहिष्णुता.. या जानते ही नहीं हैं..?

गुरुवार, 12 अप्रैल 2007

भाई हम माफ़ी चाह्ते हैं..

भाई हम माफ़ी चाह्ते हैं.. हम्से गल्ती हुई है.. सभी बड़े लोग मुझे माफ़ करें छोटा समझ कर.. और छोटे लोग इस ख्याल को अपने मन में भी न लायें कि हम गल्ती करके बड़े होने के बावजूद उनसे माफ़ी माँग लेंगे.. ये हमारी परम्परा के विरुद्ध है.. गल्ती ये हुई है कि हम्ने अपने आप को भैया कहा.. खुद के हिन्दू न होने के उप्पर इत्ता सब उपदेस दिया कि हम बाहर वालों के दिये नाम से खुद को नहीं बुलायेंगे.. और पहल्वीं लाइन में लिक्खे हैं.. बड़े गर्व से कि हम भैया हैं.. अब वो बात अलग कि हमें घर में सब लोग भैया कहके बुलाते हैं सबसे छोटे हैं फिर भी.. अब.. कान्पुर साइड में ऐसै चल्ता है.. मगर मुम्बई में हम सब यूपी वालों को मराठी गुजराती पंजाबी सब लोग भैया कह के बुलाते हैं.. और गाली टैप का लगता है.. ऐ भैया है क्या.. और देखिये वही बाहर वाला गालीनुमा नाम हम कैसे अपने ऊप्पर ओढ़ लिये.. अंग्रेज़ी में ठीक ही कहा है कि गल्ती करना इंसानी सुभाव है..

हमारा एक ठो प्रस्ताव है.. जैसे बॉम्बे का नाम बदल कर मुम्बई किया गया है.. कलकत्ता का नाम बदल कर कोलकाता किया गया है..उसी तरज पर हम लोगो को चहिये कि हिन्दू का नाम बदल कर गंगू किया जाय.. टिप्पणी कर के सिगनेचर कैम्पेन में सहयोग कीजिये..

बुधवार, 11 अप्रैल 2007

हम तुम गंगू हैं.. हिन्दू नाहीं..

मैं ब्राह्मण हूँ..कान्यकुब्जी हूँ.. पुरुष हूँ.. भैया हूँ.. कन्पुरिया हूँ.. इलाहबादी हूँ.. अब मुम्बईकर भी हूँ.. हिन्दू नहीं हूँ.. मैंने गीता पढ़ी है.. रामायण पढ़ी है.. महाभारत और श्रीमद भागवत भी अलट पलट के देखा है कई दफ़े.. हिन्दू कहीं नहीं मिलता.. धर्म की किताबों की बाहर की दुनिया में हर जगह हिन्दू का हल्ला है.. कुछ विरोध में कुछ समर्थन में गला फाड़ रहे हैं.. कहाँ से आया ये हिन्दू.. कहते हैं कि सिन्धु के स का लोप हो कर ह हो गया.. जी वही सिन्धु जो पाकिस्तान में है.. जिससे उल्हास नगर वाली सिन्धी असोसिएशन और आडवाणी जी का गहरा ताल्लुक है.. ये लोग पाकिस्तान के सिन्द प्रान्त से विस्थापित हुये लोग है.. मगर पाकिस्तान के उस सिन्द प्रान्त और वो सिन्द नदी जो हमारे कब्ज़े वाले कश्मीर में भी ठीक से हो के नहीं बहती.. उस के प्रति हम इतना सेन्टी काहे हैं कि उसके स की जगह ह रख कर हम मुहर्रम वाले अंदाज़ में छाती पीटने और मरने मारने की बातें करने लगते हैं.. क्या उस नदी का उद्गम किसी गरम पानी के सोते से है जो उस के नाम में से स हटा कर ह रखने के बावजूद भी इतनी गरमी शेष रहती है कि करोड़ो करोड़ लोग बेमियादी बेमौसम बुखार में तपते रहते हैं.. कुछ तो बात है..
लेकिन इतनी भी नहीं कि मेरे आस्तिक संशय और सशंकित आस्था को अपनी ऐसी धार में बहा ले जाय जिसमें मैं तीन बार डुबकी मार के हर हर गंगे भी नहीं कर सकता.. माफ़ करें भाई मैं अपने आपको बाहर वालों के दिये हुये नाम से पुकारने को तैयार नहीं हूँ.. और सच बात तो ये है कि असली हिन्दू तो वो लोग हैं जिनके साथ हमारा देश तीन खुलेआम लड़ाईयां लड़ चुका है...और एक छिपी व लम्बी लड़ाई आज भी लड़ रहा है.. वही जो सिन्द में नहाते धोते हैं.. उसका पानी पीते हैं.. उसके पानी से उपजा अनाज खाते हैं.. सिन्धु घाटी की सभ्यता के उत्तराधिकारी तो वो हैं.. हमारे पास तो इस भौगौलिक प्रदेश की दूसरी बड़ी नदी की सभ्यता है.. अपनी मैली गंगा.. और गंगा किनारे की सभ्यता.. और हमारे सनातन धर्म में सारी महिमा तो गंगा की है.. त काहे बरे सिन्द के पाछे हलकान हुइ रहे हो.. तनि होस में आव मनई.. हम तुम गंगू हैं.. हिन्दू नाहीं..



प्रेरणा पुरुष: बड़के लिखवैया उदै परगास

रविवार, 8 अप्रैल 2007

ऐ लम्बरदार जियादा लन्तरानी ना पेलो..

गाँव कस्बे के सहज बोल बचन हैं.. ऐ ना पेलो के अलावा, यहाँ जो बाकी शब्द हैं उनका मूल अरबी भाषा में हैं.. लम्बरदार बिगड़ा हुआ रूप है अलमबरदार का .. अलम का मायने है झण्डा.. और बरदार फ़ारसी का प्रत्यय है जिसका अर्थ है उठाने वाला.. तो झण्डा लेकर आगे आगे चलने वाले को अलमबरदार कहा जाता है.. और अपनी देशज भाषा में भी इसका लगभग यही अर्थ है.. नेता मुखिया के लिये प्रयुक्त होता है.. जियादा में ज़ियादः फेर बदल नहीं हुई.. मगर लन्तरानी.. लनतरानी का अर्थ है.. 'तू मुझे नहीं देख सकता'.. अयँ? .. ये शब्द है कि वाक्य.. ? .. असल में ये वाक्य ही है.. जो ईश्वर ने मूसा से कहा है .. जब मूसा ने उनको देखने की इच्छा प्रगट की.. ईश्वर का यहाँ पर तौर ये है कि कहाँ मैं सर्व शक्तिमान ईश्वर और कहाँ तू एक अदना मनुष्य.. इसी मूल भावना को ध्यान में रखकर इस वाक्य का प्रयोग एक मुहावरे के बतौर होता है.. बहुत बहुत बड़ी बड़ी बातें पेलने वाली प्रवृत्ति को चिह्नित करने के लिये..
इतनी मासूम सी बात है.. क्या आप को लग रहा है कि मैं लनतरानी पेल रहा हूँ?

शनिवार, 7 अप्रैल 2007

बाल बराबर फ़र्क है..

बाल बाल बचे.. का आम तौर पर अर्थ होगा कि बाल की मोटाई बराबर हालात के फ़र्क हो जाने से बचाव ना हो पाता.. बाल का अर्थ बच्चा भी है और केश भी.. अब कहाँ बच्चा और कहाँ केश.. मगर एक बात समान है कि दोनों विकासशील हैं.. ये बाल संस्कृत के बल धातु से उपज रहा है.. और शब्दकोश में बल का अर्थ मिलता है..सांस लेना, जीना, अनाज संग्रह करना.. फिर दूसरा अर्थ है देना, मार डालना, बोलना देखना आदि.. कई अर्थ हैं पर रूढ़ हो गया अर्थ है.. सांस लेना, जीना.. जिसके चलते बल संज्ञा का आम अर्थ है शक्ति, सामर्थ्य, ऊर्जा.. अब साँस से शक्ति के सम्बंध की सफ़ाई तत्काल हो जाती है जब हम 'दम लगा के हइशा' याद करते हैं.. और दम मतलब और कुछ नहीं सांस है.. क्यों आपका दम नहीं फूला कभी? .. और साँस क्या है वायु है.. और वायुपुत्र हनुमान से बढ़कर बलवान कौन है.. है कोई?

मज़े की बात है कि फ़ारसी में भी बाल नाम का एक शब्द है.. वहाँ इस का अर्थ कुछ अलग ही है.. बाल का अर्थ डैना या पँख और भुजा या बाज़ू.. फ़ारसी में बल नाम का भी एक शब्द है जो बल्कि का अर्थ रखता है इसके अलावा और कोई दूसरा अर्थ नहीं.. (प्राचीन पारसी में हो तो नहीं कह सकता.. ईरान में इस्लाम के प्रवेश के पहले उनकी भाषा का नाम पारसी ही था..चूँकि अरबी में प की ध्वनि नहीं होती इसलिये अरबों के द्वारा पारसी के फ़ारसी उच्चारण को ही लोकप्रियता प्राप्त हो गई.. जैसे इस देश में रहने वालों ने कभी अपने आपको हिन्दू नहीं कहा.. किसी प्राचीन ग्रंथ में आपको इस शब्द के दर्शन नहीं मिलेंगे.. मगर आज आपको न सिर्फ़ हिन्दू दर्शन समझाने वाले लोग मिलेंगे.. बल्कि उस पर बल देकर गर्व कराने वाले भी मिलेंगे..) माफ़ करें हम वापस बल पर आते हैं..

फ़ारसी के बाल को जिसका अर्थ बाज़ू होता है अगर चाहें तो अपने संस्कृत के बल जोड़ सकते हैं.. क्योंकि बल का आश्रय तो भुजा ही है ना.. फ़ारसी में एक और शब्द है बाला.. जिसका अर्थ है विकासमान, ऊँचाई और क़द.. इन तीनों का सम्बंध हमारे अपने बाल से है जिसमें विकासशीलता का पहलू निहित है.. और अगर फ़ारसी के बाला से बाल को जोड़ें तो भी बाल का अर्थ निकलेगा.. जो सबसे ऊँचे पर हो.. यानी सर के केश.. फ़ारसी और संस्कृत में ऐसी गहरी समानता कोई हैरानी की बात नहीं.. दोनों का मूल एक ही है.. आखिर में फ़ारसी बाला का एक अपभ्रंश जिसे हम अपनी रोज़ाना की भाषा में खूब इस्तेमाल करते हैं.. दूध की ऊपरी परत सबसे ऊपर पड़े होने के कारण कहलाई बालाई.. और ध्वनि परिवर्तन के ज़रिये ब का म हो कर कहलाई.. मलाई..

जो नहीं बनना चाहतीं राखी सावंत

पिछले दिनों गुरुदेव का स्त्री पर जो लेख आप पढते रहे .. उस पर ऐसा समझा गया कि मैं अपनी बाते गुरुदेव से कहलवा रहा हूँ.. मैं ऐसा कहूँगा कि मैंने जो पहले भी कहा वो गुरुदेव के विचारों से प्रभावित हो कर कहा फिर अपनी बात ठीक ठीक न रख पाने के कारण गुरुदेव को ही आपके सामने पेश कर दिया.. गुरुदेव के पूरे लेख में दो तीन बाते मुख्य तौर पर निकल कर आईं..
१] एक तो स्त्री का स्वभाव पुरुष से अलग है.. उसका स्वभाव कोमल और उदार है.. वह ग्रहणशील है व प्रकृति की तरह समाज में उसकी भूमिका समावेशी है..
२} पुरुष वाह्य रूप से स्त्री से ज़्यादा बलवान है.. और उसने स्त्री जाति को काफ़ी समय से दबा कर रखा है और समाज को अपने गुणों के अनुकूल ढाला है.. इस तरह से पैदा हुआ समाज असंतुलित है और बार बार विनाश होता रहा है आज भी उसी मार्ग पर है..
३] एक मानवीय समाज बनाए के लिये स्त्रैण गुणों को और स्त्री को समाज की अग्रणी भूमिका में आना होगा और वह आयेगी..

नोटपैड वाली सुजाता जी ने और घुघूती बासूती जी ने स्त्री को इस तरह से डिफ़ाइन करने के प्रयास पर भी सवाल खड़ा किया है.. पर मेरा मत यह है कि यहाँ गुरुदेव की मंशा स्त्री को परिभाषित कर उसे एक खास भूमिका में क़ैद कर देने की नहीं है.. बल्कि स्त्री के स्वरूप पर बात करते हुये उन्होने सभ्यता सम्बंधी बड़े प्रश्न उठायें हैं.. स्त्री शोषण के मूल में छिपे तत्वों का अनावरण किया है.. घुघूती बासूती जी ने कहा कि उन पर बाइबिल का प्रभाव है.. आप की बात अंशतः सही है चूँकि गुरुदेव अमेरिका की बहुसंख्यक क्रिश्चियन श्रोताओं से मुखातिब हैं इसलिये उन्होने एक दो जगह बाइबिल के उद्धरण दिये हैं .. इसके अलावा उनके विचार काफ़ी मौलिक है..

सुजाता जी ने बिलकुल ठीक बताया कि अभी का समाज ऐसा है जिसमें स्त्री होना पीड़ा और शर्म का दूसरा नाम हो गया है.. उसके जननांगों का उपहास होता है.. वह बलत्कृत होती है.. गर्भ में ही मार जाती है.. और इस पर मेरा मत यह है कि परिणाम स्वरूप कुछ स्त्रियाँ अपने अन्दर के ऐसे व्यक्तित्व के विकास के प्रति ज़्यादा सचेत हो रही है जो लिंग निरपेक्ष हैं.. और अपने नैसर्गिक स्त्रैण गुणों को नकार रही है..

अन्त में बस इतना कहूँगा कि हमें नहीं चाहिये वो समाज जो एक स्त्री के अन्दर की किरन बेदी और सानिया मिर्जा और राखी सावंत को दमित करता हो.. ऐसा समाज स्त्री विरोधी और मानव विरोधी है.. साथ साथ ही हमें ऐसे समाज से भी सावधान रहना चाहिये जो सुषमा, रेखा और अतिया जैसी हज़ारों हज़ार आम स्त्रियों को अपने आप से शर्मसार करता हो क्यों कि वो नहीं बनना चाहती किरन बेदी, सानिया मिर्ज़ा और राखी सावंत .. वे किसी को अपना पति चुन कर और उसके साथ छोटे छोटे मौलिक मनुष्यों की रचना और उनके पोषण में ही खुश रहना चाहती हैं.. उन्हे रसोई में तकलीफ़ नहीं होती और वही उनकी दुनिया है.. वे दोनों ही समाज स्त्री विरोधी हैं एक वो जो उन्हे धकेल के रसोई के अन्दर बंद करता है.. और दूसरा वह जो उन्हे धकेल के रसोई से बाहर कर मैकडोनाल्ड के रास्ते पर खड़ा कर देता है.. और उन्हे बना देता है अपने विशाल बाज़ार का सिर्फ़ एक मज़दूर.. .

गुरुवार, 5 अप्रैल 2007

स्त्री टूटी नहीं है और ना तोड़ी जा सकती है..

जीवन बदल रहा है.. विशेषकर स्त्री पुरुष सम्बंधों और स्त्री की समाज में भूमिका को लेकर.. इस विषय पर तमाम तरह के विचार समाज में चल रहे हैं.. भारत के एक मूर्धन्य कवि और विचारक और आधुनिक ऋषि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार आपके सामने ला रहा हूँ..स्त्री पर अपने ये विचार उन्होने १९१६-१७ की अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक भाषण में व्यक्त किये.. कल आपने पढ़ा दूसरा टुकड़ा.. जिसमें गुरुदेव ने कहा.. मगर क्योंकि आदमी अपनी सत्ता के अभिमान में उन सारी चीज़ों का उपहास करता है जो कि जीवित हैं और उन सम्बंधो का जो कि मानवीय है, तो बहुत सारी स्त्रियाँ गला फाड़ के चीख रही हैं ये सिद्ध करने के लिये कि वे स्त्रियाँ नहीं हैं और संगठन और सत्ता में ही उनकी सच्ची अभिव्यक्ति होती है। वर्तमान काल में जब उन्हे अस्तित्व की जैविक ज़रूरत और प्रेम और सहानुभूति के गहरी आध्यात्मिक ज़रूरत की संरक्षक के बतौर सिर्फ़ माँ समझा जाय तो उन्हे लगता है कि उनके सम्मान को क्षति होती है.. आज पढ़िये तीसरा और अन्तिम टुकड़ा..


काफ़ी समय से बदलाव जारी हैं समाज की ठोस परत के नीचे जिस पर स्त्री की दुनिया की बुनियाद रखी है। हाल में, विज्ञान की मदद से, मनुष्य की सभ्यता और ज़्यादा पौरुषीय होती जा रही है। जिसके कारण व्यक्ति की पूरी वास्तविकता की उपेक्षा हो रही है। व्यक्तिगत रिश्तों के इलाक़े में संगठन अपने पैर फैला रहा है और भावनाओं का स्थान पर क़ानून। पौरुषीय आदर्शों से प्रभावित कुछ समाजो में, भ्रूण हत्या का चलन होता रहा है ताकि स्त्रियों की जनसंख्या पर क्रूरता से काबू बनाये रखा जाय। वही चीज़ एक दूसरे रूप में आधुनिक सभ्यता में भी हो रही है। सत्ता और सम्पदा के अपने सतत लोभ के चलते इस सभ्यता ने स्त्री को उसकी दुनिया के अधिकतर भाग से वंचित कर दिया है। घर रोज़-ब रोज़ दफ़्तर से और घेरा जा रहा है। स्त्रियो के लिये कुछ भी ना छोड़ कर इस ने पूरी दुनिया को निगल लिया है। ये अपकार ही नहीं अपमान भी है।

सत्ता के लिये आदमी की आक्रामकता के कारण स्त्रियों को महज़ सजावटी क्षेत्रों में हमेशा के लिये धकेला नहीं जा सकता। क्योंकि वह सभ्यता के लिये आदमी से कोई कम ज़रूरी नहीं बल्कि शायद ज़्यादा ज़रूरी है। पृथ्वी की भौमिकी इतिहास में विराट विभीषिकाओं के दौर भी गुज़रे हैं जबकि पृथ्वी ने परिपक्वता की वो नरमी हासिल नहीं की थी जो किसी भी प्रकार के हिंसक प्रदर्शन को तुच्छ समझती है। व्यापारिक स्पर्धा और सत्ता के लिये संघर्ष करने वाली सभ्यता को उस अवस्था की श्रेष्ठता के लिये भी जगह बनानी चाहिये जिसकी शक्ति, सौन्दर्य और शुभता की गहराई में छिपी होती है। इतिहास की बागडोर अभीप्सा के हाथ अब बहुत रह ली। क्योंकि व्यक्ति को अपने हर हक़ के लिये सत्ता पक्ष से बलपूर्वक छीना झपटी करनी पड़ी है और अपनी भलाई को प्राप्त करने के लिये भी बुराई की मदद लेनी पड़ी है। मगर इस तरह की व्यवस्था लम्बे समय तक नहीं चल सकती। ऐसी व्यवस्था को बार बार हिंसा क्रे बीजों का सामना करना होगा जो उसके कोनों दरारों म्रें ही पड़े रहते हैं, और सामना करना होगा अंधेरे में फैले व्यवधानों का जो इसको नेस्तनाबूद कर देंगे जबकि ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं होगी।

हालाँकि इतिहास की वर्तमान अवस्था में पुरुष अपने पौरुष का सिक्का चला रहा है और अपनी सभ्यता को शिलाखण्डों से बनाता आ रहा है, विकास के जीवन सिद्धान्त की उपेक्षा कर के। मगर वह स्त्री के स्वभाव को दबा कर मिट्टी या अपनी बिल्डिंगों का मृत सीमेन्ट रेतादि नहीं बना सकता। स्त्री के घर टूट गये हो पर स्त्री नहीं टूटी है और ना तोड़ी जा सकती है। सिर्फ़ आदमी की व्यापारिक इजारेदारी के खिलाफ़ संघर्ष करते हुये स्त्री अपने रोज़गार की आज़ादी खोज रही है, ऐसा नहीं है कि बल्कि ये संघर्ष है आदमी की सभ्यता पर इजारेदारी के खिलाफ़ जहाँ वह रोज़ उसका हृदय खण्डित कर रहा है और जीवन विध्वंस कर रहा है। उसे स्त्री का सम्पूर्ण भार मानवीय दुनिया के सृजन में लगाते हुये सामाजिक असंतुलन को फिर से संतुलन में लाना चाहिये। संगठन की पैशाचिक मोटर-कार जीवन के राजमार्ग पर चलते हुये, विपत्ति और विकृति फैलाते हुये, घरघरा किरकिरा रही है क्योंकि दुनिया में तेज़ गति ही उसकी प्रथम वरीयता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति के घायल और चोटिल जगत में स्त्री का आगमन हो, और वो हर एक को अपनाये, बेकार को और तुच्छ को भी। वह भावनाओं के सुन्दर सुमनों को वैज्ञानिक प्रवीणता के झुलसा देने वाले ठहाकों से छाँव दे । लोभ के सांगठनिक साम्राज्य के द्वारा जीवन को उसकी सामान्यताओं से वंचित किये जाने पर जन्मी और बढ़ती अशुद्धताओं को बुहार कर बाहर करे । समय आ गया है कि जब उसका कार्य क्षेत्र घरेलू आयामों से कहीं बाहर तक फैल गया है और स्त्री की ज़िम्मेदारी पहले से और बढ़ गई है। दुनिया ने, अपने अपमानित व्यक्तियों के समेत, अपनी गुहार उस तक पहुँचा दी है। इन व्यक्तियों को अपनी सच्चा मूल्य फिर से पाना है, खुले आसमान में फिर से सर उठाना है, और उसके प्रेम के सहारे ईश्वर में अपनी आस्था का पुनर्जागरण करना है। आदमियों ने आज की सभ्यता की अर्थहीनता देख ली है, जो राष्ट्रवाद पर आधारित है, यानी कि आर्थिक और राजनैतिक आधारों पर, और उसके परिणाम सैन्यवाद पर। आदमी अपनी आज़ादी और मानवता खोता रहा है विशाल मशीनी संगठनों मे फ़िट होने के लिये। तो अगली सभ्यता, ऐसी आशा है !!!, सिर्फ़ आर्थिक, राजनैतिक स्पर्धा और शोषण पर नहीं और सिर्फ़ कार्यकुशलता के आर्थिक आदर्शों पर नहीं बल्कि विश्वव्यापी सामाजिक सहयोग, आदान प्रदान के आध्यात्मिक आदर्शों पर आधारित होगी। और तब स्त्रियों को अपना सच्चा स्थान मिलेगा।

क्योंकि पुरुष विशाल और पैशाचिक संगठन बानाते रहे हैं, उन्हे ये सोचने की आदत हो गई है कि सत्ता उत्पादन अपने आप में कोई स्वाभाविक आदर्श है। ये आदत उनमें बैठ गई है। और उन्हे विकास के वर्तमान आदर्शों मे सत्य की ग़ैर मौजूदगी को देखने में मुश्किल हो रही है। मगर स्त्री अपनी एक मानसिक ताज़गी ले आ सकती है इस आध्यात्मिक सभ्यता के निर्माण के इस नवीन कार्य में, यदि वह अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत बनी रहे।

निश्चित ही वह चंचल हो सकती है अपने नज़रिये में संकीर्ण हो सकती है और अपने लक्ष्य से भटक भी सकती है। स्त्री अलग थलग रही है, आदमी के पीछे एक ग़ुमनामी में रही है अब तक, पर मेरा ख्याल है कि आने वाली सभ्यता में इस बात की खानापूरी हो जायेगी। और जीवन की अगली पीढ़ी में हारेंगे वे मनुष्य जो अपनी सत्ता की डींगे मारते रहे, और आक्रामक तरीक़ों से शोषण करते रहे और जिनका भरोसा उठ गया है अपने मालिक की शिक्षा के असल अर्थ से कि कमज़ोर ही पृथ्वी का उत्तराधिकारी होगा। यही बात प्राचीन दिनों में भी घटी थी, प्रागैतिहासिक काल में, डायनासोर और मैमॉथ जैसे विशाल प्राणियों के साथ। उन्होने पृथ्वी का उत्तराधिकार खो दिया है। बलशाली प्रयासों के लिये उनके पास विराट मज्जायें थी लेकिन उन्हे अपने से कहीं कमज़ोर प्राणियों से हारना पड़ा उनसे जिनकी मज्जा कम थी, आकार कम था। और भविष्य की सभ्यताओं में भी, स्त्री जो कि कमज़ोर प्राणी है, अपने बाहिरी आकार में, मज्जा में, और जो हमेशा पीछे रहीं और छोड़ दी गईं पुरुष नाम के उस विशाल प्राणी के साये में, वे अपनी जगह हासिल करेंगी और बड़े प्राणियों को रास्ता देना होगा।
समाप्त

बुधवार, 4 अप्रैल 2007

मानवीय दुनिया स्त्रियों की दुनिया है

जीवन बदल रहा है.. विशेषकर स्त्री पुरुष सम्बंधों और स्त्री की समाज में भूमिका को लेकर.. इस विषय पर तमाम तरह के विचार समाज में चल रहे हैं.. भारत के एक मूर्धन्य कवि और विचारक और आधुनिक ऋषि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार आपके सामने ला रहा हूँ..स्त्री पर अपने ये विचार उन्होने १९१६-१७ की अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक भाषण में व्यक्त किये.. कल आपने पढ़ा पहला टुकड़ा.. जिसमें गुरुदेव ने कहा.. जो स्त्रियां अपनी रुचियों को जीवंत बनाये रखने के लिये अपने माहौल में कुछ विशेष और हिंसक तलाश करती हैं केवल यही सिद्ध करती हैं कि उनका अपने सच्चे जगत से नाता टूट चुका है। देखा गया है कि पश्चिम में बहुत सारी स्त्रियां और पुरुष भी उन चीज़ों की भर्त्सना करते हैं जो आम हैं। और वे उन चीज़ों का पीछा करते हैं जो कुछ खास है, और अपनी सारी शक्तियों का ज़ोर एक ऐसी जाली मौलिकता पर देते हैं जो सिर्फ़ चकित करती है, संतुष्ट भले ना करती हो। मगर ऐसी कोशिशें जीवंतता की सही निशानियां नहीं हैं। और ये पुरुषों से ज़्यादा स्त्रियों के लिये घातक होती होंगी... आज दूसरा टुकड़ा ..

अगर, बाहरी उद्दीपन के प्रयोग से, वे एक मानसिक व्यसन पाल लें, और लगातार सनसनी के घूँट दर घूँट खुराक की लती हो जायें, तो वे अपनी प्राकृतिक संवेदनशीलता खो बैठेंगी और साथ ही अपने स्त्रीत्व की बहार भी और इसके साथ मनुष्य जाति को क़ायम रखने की वह वास्तविक शक्ति भी।

एक आदमी की अभिरुचि दूसरे मनुष्य में तब ही जागती है जबकि उसमें कोई विशेष उपयोगिता या प्रतिभा हो, लेकिन एक स्त्री दूसरे मनुष्यों मे दिलचस्पी रखती है क्योंकि वे जीवित प्राणी है, वे मनुष्य हैं, किसी विशेष प्रयोजन के खातिर नहीं, या उनकी किसी ऐसी क्षमता के कारण भी नहीं जो स्त्री को बहुत भा गई हो। चूँकि स्त्री में यह शक्ति है इसीलिये वह हमारे मानस को इतना मोहित करती है.. जीवन के प्रति उसका ये उल्लास इतना मोहक होता है कि उसकी वाणी, उसकी चाल, उसकी हँसी, सब कुछ एक गरिमा से भर जाता है। उसकी गरिमा का यह सुर हमारे वातावरण की रुचियों के इसी समन्वय में है।
सौभाग्य से हमारे रोज़मर्रा की दुनिया में साधारणता का सूक्ष्म और निराग्रही सौन्दर्य है मगर इसके अदृश्य अचंभों को समझने के लिये हमें अपने स्वयं के संवेदनशील मन पर निर्भर होना होगा क्योंकि वे आध्यात्मिक हैं। यदि हम उसके आवरण को चीर कर भीतर जा सकें, कि दुनिया अपने साधारण आयामों में एक चमत्कार है।

इस सत्य को हम अपने प्रेम की शक्ति के द्वारा अन्तर्बोध से जानते हैं, इस शक्ति के ज़रिये समझते हैं कि हमारे प्रेम और सहानुभूति के पात्र, अपने महत्वहीनता के खुरदुरे भेस के बावजूद, अनमोल हैं। जब स्त्रियाँ साधारण चीज़ों में अपनी रुचि की शक्ति को खो बैठती हैं तो फिर फ़ुर्सत अपने खालीपन से उन्हे डराती है क्योंकि उनकी अपनी कुदरती संवेदनशीलता कुंद हो चुकी है और उनके आस पास ऐसा कुछ भी नहीं जो उनके ध्यान को पकड़ सके। तो फिर वो अपने आप को बुरी तरह से व्यस्त रखती हैं समय के उपयोग में नहीं, महज़ उसको काटने में।

हमारा दैनंदिन जीवन एक बाँस की तरह है, इसका सच्चा मूल्य इसके अपने आप में नहीं मगर जिनके पास ध्यान की शक्ति और शांति है वे सुन सकते हैं वह संगीत, जो अनन्त हमारे खालीपन के ज़रिये बजाता है। लेकिन चीज़ों की क़दर उनके लिये ही करना स्त्रियों की आदत होती है तो आप उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे आप के मानस में तूफ़ान खड़ा कर दें, आपकी आत्मा को अनन्त से मिलन से लुभा लें और अपनी अर्थहीन ध्वनियों की अविराम गति से अनन्त की आवाज़ का गला घोंट दें।

मेरा ये तात्पर्य नहीं है कि घरेलू जीवन ही स्त्री के लिये एकमात्र जीवन है। मेरा मतलब है कि मानवीय दुनिया महज़ संगठित करने का अमूर्त प्रयास नहीं, मानवीय दुनिया स्त्रियों की दुनिया है चाहे वह घरेलू हो या मानवीय जीवन की कोई और गतिविधि।

जब भी कोई चीज़ मूर्त रूप से व्यक्तिगत और मानवीय है तो वह स्त्रैण दुनिया है। घरेलू दुनिया ही वह दुनिया है जहाँ हर व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व का सच्चा मूल्य मिलता है इसलिये उसकी कीमत बाज़ारू कीमत नहीं है..बल्कि प्रेम की कीमत है; कहने का मतलब यह है कि वह मूल्य जो प्रभु ने अपनी अनन्त दया से हर प्राणी को प्रदान किया है। घरेलू दुनिया स्त्रियों को प्रभु की एक भेंट रही है। वह अपने प्रेम की आभा को सभी ओर अपनी सीमाओं के परे ले जा सकती है और छोड़ भी सकती है अपने स्त्रीत्व को सिद्ध करने के लिये समय आने पर । लेकिन ये एक सच है इसकी उपेक्षा की नहीं जा सकती कि जिस पल वह अपने माँ की गोद में जन्म लेती है वह अपनी सच्ची दुनिया, मानवीय सम्बंधों की दुनिया के केंद्र में जन्म लेती है।

स्त्रियों को अपनी शक्ति का प्रयोग सतह को चीर कर चीज़ों के केंद्र में जाने के लिये करना चाहिये जहाँ कि जीवन का रहस्य में मौजूद है एक शाश्वत अभिरुचि। आदमी के पास ऐसी शक्ति नहीं है। मगर स्त्री के पास है यदि वह इसकी हत्या नहीं कर देती- और इसी लिये वह उन प्राणियों से भी प्रेम करती है जो अपने असामान्य चरित्र के कारण प्रेमयोग्य नहीं हैं। आदमी अपनी ही दुनिया में अपना फ़र्ज़ निभाता है जहाँ वह सत्ता और सम्पदा और तमाम तरह के संगठन खड़े करता रहता है। लेकिन प्रभु ने स्त्री को संसार से प्रेम करने के लिये भेजा है, एक साधारण ची़ज़ों और घटनाओं के संसार से। वह किसी परी कथा के संसार में नहीं रहती जहाँ कोई परी सदियो तक सोती रहती है जब तक कि वह जादुई छड़ी से छुई नहीं जाती। प्रभु के संसार में स्त्रियों के पास अपनी जादू की छड़ियाँ हैं जो उनके दिलों को जगाये रखती हैं और ये छड़ियां सम्पदा के सोने की नहीं है और ना ही सत्ता के लोहे की।

हमारे सारे आध्यात्मिक गुरुओं ने व्यक्ति के अनन्त मूल्य का गुणगान किया है। ये वर्तमान काल का निरंकुश भौतिकवाद है जो संगठन के लहूलोलुप बुतों के आगे व्यक्तियों की क्रूर बलि दे रहा है। जब धर्म भौतिकवादी था, जब आदमी अपने भगवानों की अर्चना उनके रौद्ररूप से डर कर करता था या फिर सत्ता और सम्पदा के लोभ से , तब अनुष्ठान नृशंस थे और बलिदान असंख्य। परन्तु आदमी के आध्यात्मिक जीवन के विकास के साथ हमारी अर्चना प्रेम की अर्चना बन गई है।

सभ्यता की वर्तमान अवस्था में जब कि न सिर्फ़ व्यक्ति को विकृत किया जाता है बल्कि उसका महिमा मण्डन भी होता है, ऐसे में स्त्रियाँ अप्ने स्त्रीत्व से ही लज्जा महसूस करती हैं। क्योंकि प्रभु ने अपने प्रेम के संदेश के साथ उन्हे व्यक्तियों के संरक्षक के रूप में भेजा है और अपनी इस दिव्य भूमिका में उनके लिये सेना, नेवी संसद दुकानो और कारखानों से कहीं ज़्यादा व्यक्ति का मूल्य है। यहाँ वे अपने प्रभु के वास्तविक मन्दिर में सेवारत हैं जहाँ प्रेम का मूल्य सत्ता से ज़्यादा है।

मगर क्योंकि आदमी अपनी सत्ता के अभिमान में उन सारी चीज़ों का उपहास करता है जो कि जीवित हैं और उन सम्बंधो का जो कि मानवीय है, तो बहुत सारी स्त्रियाँ गला फाड़ के चीख रही हैं ये सिद्ध करने के लिये कि वे स्त्रियाँ नहीं हैं और संगठन और सत्ता में ही उनकी सच्ची अभिव्यक्ति होती है। वर्तमान काल में जब उन्हे अस्तित्व की जैविक ज़रूरत और प्रेम और सहानुभूति के गहरी आध्यात्मिक ज़रूरत की संरक्षक के बतौर सिर्फ़ माँ समझा जाय तो उन्हे लगता है कि उनके सम्मान को क्षति होती है।

क्योंकि आदमी अपनी उत्पादित अमूर्तताओं की छवियों की चिकनी चुपड़ी तारीफ़ें करता रहता है, स्त्रियाँ शर्म में अपने सच्चे प्रभु का भंजन कर रही हैं, और वो आत्म-बलिदानात्मक प्रेम द्वारा अपनी अर्चना की प्रतीक्षा कर रहा है।

जारी.. कल अन्तिम टुकड़ा..

मंगलवार, 3 अप्रैल 2007

सलोना शब्द है सलोना

.. सलोना चेहरा.. सलोनी सूरत..शब्दकोश में सलोने का अर्थ है नमकीन, स्वादिष्ट, मज़ेदार, सुन्दर, मनोहर.. स-लवण से सलोन बन जाने के कारण..नमकीन और स्वादिष्ट तो स्पष्ट हो जाता है.. फिर सुन्दर और मनोहर भी..!.. समाज में परिपाटी है जिसके व्यक्तित्व में आकर्षण हो उसमें नमक की उपस्थिति को स्वीकार कर लेने की.. बड़ी नमकीन चीज़ है गुरु.. या आकर्षण ना होने पर नमक की अनुपस्थिति की कल्पना करना.. ना‌ऽऽऽ.. उस में नमक नहीं..
पृथ्वी में नमक का बड़ा भण्डार समुद्र में पाया जाता है.. कहा जाता है कि समुद्र से ही चन्द्रमा की भी उत्पत्ति हुई है.. उसके अन्दर भी काफ़ी नमक होगा जो कि वह, पौराणिक कथाओं में आता है, बृहस्पति की पत्नी तारा को बहका कर ले उड़ा और एक पुत्र भी उत्पन्न कर दिया.. जो कालान्तर में जगत में बुध के नाम से विख्यात हुआ.. उसी चन्द्रमा को ज्योतिष में प्रेम व आकर्षण का अधिपति माना गया है और साथ ही साथ उसका स्वाद भी नमकीन माना गया है.. और रंग नमक की तरह सफ़ेद..

वो मनुष्य जाति की मातायें हैं

जीवन बदल रहा है.. विशेषकर स्त्री की समाज में भूमिका को लेकर.. इस विषय पर तमाम तरह के विचार समाज में चल रहे हैं.. उन विचारों के बिल्ले भी हैं.. नारीवादी, अतिनारीवादी, प्रगतिशील, पतनशील, पुरातनपंथी, रूढ़िवादी आदि आदि.. इन विचारों में कुछ पोलिटिकली करेक्ट विचार माने जाते हैं.. और कुछ पोलिटिकली इनकरेक्ट.. मैंने भी कुछ ऐसे ही पोलिटिकली इनकरेक्ट विचार पिछले दिनों व्यक्त किये.. लोग अप्रसन्न भी हुए.. आज मैं भारत के एक मूर्धन्य कवि और विचारक और आधुनिक ऋषि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार आपके सामने ला रहा हूँ.. स्त्री पर ये विचार उन्होने १९१६-१७ की अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक भाषण में व्यक्त किये.. पाठकों से थोड़े धैर्य की अपेक्षा है.. कुछ गुरुदेव की अपनी अंग्रेज़ी की सीमायें हैं और कुछ मेरे अनुवाद की.. एक साथ पूरे भाषण को देना पढने वालों के लिये भारी हो जायेगा इसलिये तीन टुकड़े कर दिये हैं.. आज पहला टुकड़ा..

स्त्री


जब नर प्राणी एक दूसरे को मारने के लिये अपनी हिंसा में लिप्त होते हैं, कुदरत इसकी अनदेखी करती है क्योंकि, तुलनात्मक रूप से, मादा उसके मक़सद में अनिवार्य हैं जबकि नर महज़ एक ज़रूरत। किफ़ायती शील की होने के कारण कुदरत उन भूखी सन्तानों को ज़्यादा तरजीह नहीं देती जो झगड़े की हद तक पेटू हैं मगर कुदरत का ऋण चुकाने के लिये योगदान बहुत ज़रा सा ही करते हैं। इसीलिये कीट जगत में हम यह संवृत्ति देखते हैं जिसमें मादायें नर जन संख्या को कम से कम रखने की ज़िम्मेदारी निभाती हैं।

प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से बहुत हद तक मुक्त हो गये, मनुष्य जगत में नर को, अपने शौक और खुराफ़ातों को पूरा करने की आज़ादी मिल गई है। आदमी को परिभाषा से औज़ार बनाने वाला प्राणी कहा जाता है। ये औज़ार बनाना कुदरत के दायरे से बाहर है।

वास्तव में हम अपनी औज़ार बनाने की ताक़त के ज़रिये ही कुदरत की अवहेलना कर सके हैं। अपनी अधिकतर ऊर्जा की मुक्ति की बदौलत ही मनुष्य ने ये क्षमता पैदा की और शक्तिशाली हो गया। और इस तरह से, बावजूद इसके कि कुदरत द्वारा प्रदत्त जैविक विभाग की गद्दी अभी भी स्त्री के ही पास है, मानसिक विभाग में पुरुष ने अपना प्रभुत्व बना और बढ़ा लिया है। इस महान कार्य के लिये दिमाग़ का अलगाव और गतिविधि की स्वतंत्रता आवश्यक थे।

आदमी ने शारीरिक और भावनात्मक बेड़ियों से अपनी तुलनात्मक आज़ादी का फ़ायदा उठाया और अपने जीवन की सीमाओं को तोड़ने की दिशा में बेरोकटोक बढ़ चला। इस यात्रा में वह क्रांति और विध्वंस के खतरनाक रास्तों से होकर गुज़रा है। समय समय पर उसके संचय समूह ढहते रहे और और तरक़्क़ी की धारा अपने स्रोत से ही अदृश्य होती रही है। लाभ अच्छे खासे हुए मगर नुकसान उससे भी ज़्यादा उठाने पड़े। खासकर कि जब हम ये सोचें कि जो सम्पदा जाती रही वो अपने साथ सारे प्रमाण भी ले गई। विनाश के इन आवृत्तियों से आदमी ने ये समझा है, हालाँकि उस सत्य का पूरा लाभ अभी भी नहीं लिया है, कि उसके सभी संरचनाओं को विनाश से बचाने के लिये एक लय बनाये रखना ज़रूरी है, कि मह्ज़ शक्ति की असीमित बढोत्तरी सच्ची तरक़्क़ी नही लाती, और सच में एक सही प्रगति के लिये एक सन्तुलन होना चाहिये, संरचना का बुनियाद के साथ एक तालमेल होना चाहिये।

स्त्री के स्वभाव में स्थायित्व के गुण के लिये बड़ा मूल्य है। अंधकार के हृदय में जिज्ञासा के चंचल तीर छोड़ते रहने का महज़ चलताऊपन उसे कभी नहीं लुभाता। उसकी सारी शक्तियाँ कुदरतन चीज़ों को एक आकार एक गोलाई देने में लगी रहती हैं क्यों कि यही जीवन का नियम है। जीवन की गति में हालाँकि कुछ भी अन्तिम नहीं मगर फिर भी हर कदम में एक पूर्णता की लय है।एक कली में भी अपने आदर्श की सम्पूर्ण गोलाई है, और फल में भी। मगर एक अधूरी इमारत में सम्पूर्णता का कोई आदर्श नहीं होता। इसलिये अगर वह अपने परिमाण में बढ़ती ही जाय तो धीरे धीरे वह अपने स्थायित्व के दायरे से बाहर चली जाती है। मानसिक सभ्यता की पौरुषीय संरचनायें बेबेल की मीनारें हैं। वे अपने बुनियाद की अवहेलना की ज़ुर्रत करती हैं और बार बार भरभराकर धसक जाती हैं। मनुष्य का इतिहास अपने विध्वसों की परतों पर ही विकसित होता रहा है। ये कोई सतत जीवन विकास नहीं रहा है। अभी चल रहा युद्ध (प्रथम विश्व युद्ध) इसी की एक अभिव्यक्ति है। बुद्धि से जन्मे हुए आर्थिक और राजनैतिक संगठन जो महज़ मशीनी शक्ति के ही नुमाइन्दे हैं, जीवन के बुनियादी आयाम में अपने गुरुत्व के केन्द्रों को भूल जाने के लिये प्रवृत्त हैं। शक्ति और स्वामित्व का संचित लोभ जिसका कोई सम्पूर्णता की कोई अवस्था नहीं हो सकती, जिसका नैतिक और आध्यात्मिक पूर्णता के आदर्शों के साथ कोई तादात्म्य नहीं है, आखिरकार अपने ही उपादान के भारीपन पर एक हिंसक वार कर बैठता है ।

इतिहास के वर्तमान मकाम पर सभ्यता लगभग पूरी तरह से पौरुषीय है, एक ताक़त की सभ्यता, जिसमें स्त्रियों को एक किनारे ढकेल दिया गया है। इसलिये इस सभ्यता का सन्तुलन बिगड़ा हुआ है और ये एक युद्ध से दूसरे युद्ध में उछलते हुए सी गति कर रही है। इसकी नीयत की शक्ति विनाश की शक्ति है, और इसके अनुष्ठान मानव बलि की एक भयंकर संख्या के साथ सम्पन्न होती है। ये एकतरफ़ा सभ्यता एक ज़बरदस्त चाल से दुर्घटनाओं की एक श्रंखला से टकराती हुई चल रही है क्यों कि ये एकतरफ़ा है। और आखिरकार वो समय आ गया है जब स्त्रियों आकर इस ताक़त की इस दुस्साहसी चाल को अपने जीवन लय प्रदान करें।

क्योंकि स्त्री की भूमिका मिट्टी की ग्रहणशील, समावेशी भूमिका है जो न केवल पेड़ को बढने में मदद देती है बल्कि उसकी वृद्धि की सीमायें भी तय करती है। जीवन के जीवट के लिये पेड़ अपनी शाखाएं ऊपर की दिशा में सभी ओर फैलाता है मगर उसके सारे गहरे बन्धन ज़मीन के नीचे मिट्टी में जकड़े हुये छिपे हुए हैं और उसे जीने में सहायक होते हैं। हमारी सभ्यता के भी अपने समावेशी तत्व चौड़े, गहरे और स्थिर होने चाहिये। केवल वृद्धि नहीं, वृद्धि का एक समन्वय होना चाहिये। सिर्फ़ सुर नहीं ताल भी होना चाहिये। ताल कोई बाधा नहीं है, ये वैसे ही जैसे नदी के किनारे होते हैं, वो धारा को सततशील बनाते हैं वरना वह दलदल के अनियतता में खो जायेगी। ये लय है ताल है, जो संसार की गति को रोकती नहीं बल्कि उसे एक सत्य और सौन्दर्य प्रदान करती है।

शील, विनय, समर्पण और आत्म-बलिदान की शक्ति स्त्री को समावेशिता के ये गुण पुरुष से ज़्यादा अनुपात में मिले हैं। ये प्रकृति की समावेशिता का गुण ही है जो इस की पैशाचिक शक्ति के जंगली तत्वों को वश में करके सौम्य और कोमल बनाकर जीवन के सेवायोग्य एक सुन्दर रचना में बदल देता है। स्त्री की इसी समावेशिता की शक्ति ने उसे वह वृहद और गहरी शान्ति दी है जो स्वास्थ्य पोषण और संग्रहण के लिये अत्यावश्यक है। अगर जीवन सिर्फ़ व्यय होने का नाम होता तो वह रॉकेट की तरह एक पल ऊपर जाता और दूसरे पल राख बनकर ज़मीन पर आ गिरता। जीवन एक चिराग़ की तरह होना चाहिये जिसमें कि रौशनी की सम्भावना लपटों से कहीं ज़्यादः है। स्त्री के स्वभाव में इसी समावेशिता की गहराई में जीवन की सम्भावना संग्रहीत होती है।

मैंने पहले कहीं कहा है कि पश्चिमी दुनिया की स्त्रियों में एक खास बेचैनी देखी जाती है जो उस के स्वभाव का सामान्य पहलू नहीं हो सकता। क्योंकि जो स्त्रियां अपनी रुचियों को जीवंत बनाये रखने के लिये अपने माहौल में कुछ विशेष और हिंसक तलाश करती हैं केवल यही सिद्ध करती हैं कि उनका अपने सच्चे जगत से नाता टूट चुका है। देखा गया है कि पश्चिम में बहुत सारी स्त्रियां और पुरुष भी उन चीज़ों की भर्त्सना करते हैं जो आम हैं। और वे उन चीज़ों का पीछा करते हैं जो कुछ खास है, और अपनी सारी शक्तियों का ज़ोर एक ऐसी जाली मौलिकता पर देते हैं जो सिर्फ़ चकित करती है संतुष्ट भले ना करती हो। मगर ऐसी कोशिशें जीवंतता की सही निशानियां नहीं हैं। और ये पुरुषों से ज़्यादा स्त्रियों के लिये घातक होती होंगी क्योंकि स्त्रियों में जैविक शक्ति पुरुषों की तुलना में अधिक प्रबल होती है। वो मनुष्य जाति की मातायें हैं और अपने आस पास की दुनिया की आम चीज़ों में उनकी सच्ची अभिरुचि होती है, यदि ऐसा ना हो तो मनुष्य जाति का विनाश हो जायेगा।


जारी..

रविवार, 1 अप्रैल 2007

क्यों ना गरियायें अमेरिका को - २

अमेरिका को गरियाने के सवाल पर मेरी पिछली प्रविष्टि का जैसा स्वागत हुआ.. सच पूछें तो मैंने ऐसी कल्पना न की थी.. अब स्थिति ये है कि मैं अपने आप को एक विचित्र दबाव में पा रहा हूँ.. आपकी आशाओं पर खरे उतरने का दबाव.. मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ..मैं कोई समाजशास्त्री भी नहीं हूँ.. ना राजनैतिक विषयों में मेरी कोई महारत है.. मेरी जानकारियां और ज्ञान सामान्य स्तर का और सीमित है.. जो है उसे मैं आपके साथ बाँट रहा हूँ.. पिछले ल्रेख पर आयी प्रतिक्रियाओं मे से विनय जी, अफ़लातून भाई और राग ने मुझे कारपोरेशन नाम की एक डॉक्युमेन्टरी देखने की सलाह दी.. मुझे ये जान के अच्छा लगा कि मैं कितने सचेत साथियों के बीच हूँ.. मैं ने भी ये फ़िल्म देखी है.. और मेरे इस विश्लेषण में इस फ़िल्म का बड़ा योगदान है..
कॉरपोरेट: शीर्ष पर साइकोपैथ
हमारी आम बोल चाल की भाषा में कॉरपोरेशन बहुत पुराना शब्द नहीं है.. मुझे भी इस शब्द को सुनते शायद दस साल हुये होंगे.. कॉरपोरेशन का मोटा मतलब धंधा है.. व्यापार है बिज़नेस है.. अब धंधे व्यापार के कई रूप होते हैं.. कोई अकेले धंधा करता है.. जिसे प्रोप्राइटरशिप कहते हैं.. फिर साझेदारी में होता है धंधा.. इसके अलावा प्राइवेट लिमिटेड.. और पब्लिक लिमिटेड कम्पनी.. अगर मैं सही हूँ तो आज भी कॉरपोरेशन कहने से लोग आम तौर पर नगर निगम समझते हैं.. और ये जो कम्पनी शब्द है.. इसके वो सारे अर्थ समझने चाहिये जो कॉरपोरेशन से समझे जायेंगे.. कम्पनी की बात चली तो सभी लोग अपने सामूहिक स्मृति पर ज़ोर डालकर याद करें कि क्या याद आता है.. जी भाइयों और बहनों.. मेरे और आप के दिमाग में एक ही बात है.. क्यों कि हमारा इतिहास साझा है और स्मृति साझी है.. कम्पनी का मतलब ईस्ट इंडिया कम्पनी.. हमारे औपनिवेशिक भूत का माईबाप..

यूरोप के अधिकतर देशों ने मध्ययुग में दूसरे देशों को उपनिवेश बनाने के लिये कई तरह के कॉरपोरेशन की रचना की.. जैसे कि डच ईस्ट इंडिया कम्पनी जो कि दुनिया की पहली कम्पनी थी जिसके पब्लिक शेयर्स निकाले गये.. और हमारी अपनी ईस्ट इंडिया कम्पनी. .जिसने हमारे ऊपर सौ साल तक हुकूमत की.. बरतानिया की रानी को ये कार्यभार सौंपने के पहले.. १६०० में स्थापित इस कम्पनी के व्यापारिक जीवन में एक क्रांतिकारी मोड़ तब आ गया जब कि १७५७ में कम्पनी के एक मुलाजिम रॉबर्ट क्लाइव ने एक निजी सेना, दलाली, घूसखोरी और धोखाधड़ी के ज़रिये बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को उसकी गद्दी से अपदस्थ कर दिया..(बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो भारतीय लोगों के पतनशील व्यवहार को देख के बाप दादाओं के बातों को याद करके उनके यानी के अंग्रेज़ो के ज़माने को ही बेहतर घोषित कर डालते हैं.. इस मौके पर मैं उन लोगों को ये याद दिलाने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि अंग्रेज़ों के इस साम्राज्य की नींव घूसखोरी दलाली और धोखाधड़ी के बुनियाद पर ही रखी गई थी) ..

कम्पनी की सबसे कामयाब बिज़नेस डील के रूप के फल स्वरूप लन्डन में कम्पनी के शेयरों के दाम आसमान छूने लगे.. और फिर शुरु हुआ लूट का एक लम्बा सिलसिला.. जिसमें विशेष उल्लेल्खनीय है १७७० का बंगाल का दुर्भिक्ष.. जिस कम्पनी निर्मित अकाल में आधी आबादी का सफ़ाया हो गया.. मगर जंगल के जानवर बचे रहे.. उसकी इन्ही सफलताओं के बदौलत कम्पनी ने अगले सौ साल और रानी ने उसके बाद के नब्बे साल हिन्दुस्तान पर राज किया.. और यहाँ से होने वाली आय के ज़रिये अपने साम्राज्य को इतना फैलाया कि उनके राज में सूरज कभी डूबता ही नहीं था.. नेहरू जी ने एक बोध की बात लिखी अपनी पुस्तक भारत की खोज में.. ग़ौर तलब है ये बात कि अंग्रेज़ी भाषा में शामिल हो गये हिन्दुस्तानी शब्दों में एक शब्द लूट है.. .

कम्पनी की इस कहानी से एक बात तो ज़ाहिर है कि मल्टीनेशनल कम्पनी, कॉरपोरेशन्स, या मोटे तौर पर बाज़ार.. सिर्फ़ धंधा ही नहीं करना चाहते वे शक्ति का केन्द्र भी बनना चाहते हैं.. आज़ादी के बाद हम नेहरू युग में कम्पनी और बाज़ार से थोड़ा बच बच कर चलते रहे मगर अब वो राज की स्मृतियां मद्धिम पड़ गई हैं.. और अपना देशी पूँजी पति भी इतना तगड़ा हो गया है कि अब इस तरह के विज्ञापन देखते हुये आप हैरान नहीं होंगे कि एक देशी व्यापारी रजनी गंधा खाते हुये ईस्ट इंडिया कम्पनी को खरीदने की बात करे .. २०० साल तक उन्होने राज किया अब हमारी बारी है.. आज हमारे देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि लोग सब कुछ भूल कर इसी बात पर नाज़ करें कि टाटा ने कोरस को खरीद लिया.. जैसे कि टाटा के भारतीय मूल का होने से कोई बहुत क्रांतिकारी अन्तर आ जाने वाला है.. कोई अन्तर नहीं आयेगा.. क्योंकि कॉरपोरेशन का चरित्र ही ऐसा है..

क्या है कॉरपोरेशन.. एक ऐसी वैधिक हस्ती है..जिसे व्यक्ति के रूप में क़ानून मान्यता देता है.. जो ऐसे वैधिक हस्तियों के द्वारा मिल कर बनी होती है जो कुदरतन व्यक्ति हैं.. इनको क़ानून से जो अधिकार हासिल हैं वो इस प्रकार हैं..
१]ये मुकदमा कर सकते हैं और इन पर मुकदमा किया जा सकता है..
२] ये अपने सदस्यों से स्वतंत्र.. सम्पत्ति इकठ्ठा कर स्कते हैं..

३]ये कर्मचारी, वकील और प्रतिनिधि आदि को काम पर रख सकते हैं..
४]ये अनुबंध आदि पर अपनी मोहर लगा के हस्ताक्षर भी कर सकते हैं..
५]और अपने मामलों में खुद मुख्तार होने के लिये नियम क़ानून खुद तय कर सकते हैं..


इनके तीन और वैधिक गुण हैं.. १] शेयर्स को स्थानांतरित किया जा सकता है..२]कोई आये जाये उस से कॉर्पोरेशन के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता.. कॉरपोरेशन शाश्वत रूप से जीवित रह सकता है.. ३]और कॉरपोरेशन के पापो से उसके सदस्य गण यानी कि शेयर होल्डर्स मुक्त रहेंगे.. इन अधिकारों के अलावा कुछ अधिकार अभी ऐसे हैं जो कॉरपोरेशन्स के पास नहीं है जैसे धर्म के पालन का अधिकार.. जो सिर्फ़ उन व्यक्तियों के पास है जो कुदरतन व्यक्ति हैं..और जिनके पास आस्था, विश्वास और अध्यात्म की क्षमतायें हैं..

अब इस कॉरपोरेट के व्यक्ति को समझने के लिये शुरुआत करते हैं इसके सामजिक व्यवहार से.. कोई भी व्यक्ति समाज का हिस्सा होता है.. जिन लोगों के साथ उठता बैठता है उनसे एक रिश्ता क़ायम करता है जब से आदमी ने अपने आपको समझा है तब से ये एक बात अचल है.. आदमी तो छोड़िये..आदमी कुत्ते बिल्लियों पेड़ पौधों खेत मिट्टी तक से रिश्ता बना लेता है.. लेकिन कॉरपोरेट नाम का ये व्यक्ति मानवीय सम्बन्ध बनाने में क़तई नाकामयाब है.. वे लोग जो इस व्यक्ति के सबसे करीबी सम्पर्क में आते हैं जैसे कि मज़दूर आदि.. उनके प्रति इसका रवैया बेहद मशीनी होता है.. उनको रखना निकालना उनकी यूनियन तोड़ना , दुर्घटना आदि में क़तई उनके प्रति कोई सम्वेदना ना रखना और बेहद बेरहमी से पेश आना .. दुनिया भर में स्वीकृत ये इसका ऐसा आम व्यवहार है कि अब कोई इसके बारे में चर्चा भी नहीं करना चाहता..

किसी भी व्यक्ति के सामाजिक दायरे में आस पास के लोगों के बाद वे लोग आते हैं जिनको वो जानता पहचानता नहीं मगर उनके मानव मात्र होने से उनके प्रति सम्वेदना रखता है.. किसी दूसरे मनुष्य को दुख विपदा में देख कर दुखी हो जाना सामान्य मानवीय गुण है.. पर कॉरपोरेट नाम का यह शख्स ना सिर्फ़ ऐसे खतरनाक हथियार आदि माल बनाता बेचता है जो आदमी के जीवन के लिये खतरा हैं बल्कि उनके लिये सचेत रूप से एक बाज़ार तैयार करता है.. विनाशकारी प्रभाव वाले पेट्रोलियम पदार्थों और कृत्रिम खादों कीटनाशकों आदि के उत्पादन को जारी रखता है बावजूद इसके कि ये तमाम स्रोतों से सिद्ध किया जा चुका है वे पदार्थ एक बड़े स्तर पर लोगों के जान और स्वास्थ्य की हानि कर रहे हैं.. और आने वाली नस्लों में भी उस नुकसान के लक्षण मिलते रहेंगे.. वातावरण में विषैला कचरा फेंकता रहता है.. जबकि उसके खिलाफ़ नियम हैं क़ानून हैं.. उन सब की अवहेलना करके भी यह शख्स अपने निजी लाभ के लिये मानवता का और दूसरे मनुष्यों की हानि में अनवरत संलग्न रहता है.. मानव इतिहास में उदाहरण हैं कि क्रूर से क्रूर व्यक्ति के अन्दर प्रायश्चित का भाव जागता है.. अशोक जैसे योद्धा का भी हृदय परिवर्तन होता है.. महामानव की संकल्पना करने वाले नीत्शे जैसे दार्शनिक के जीवन में भी एक ऐसा पल आता है जब उसे एक घोड़े तक को चाबुक मारे जाने से भी पीड़ा होती है.. लेकिन इस कॉरपोरेट नामक व्यक्ति के भीतर ऐसी किसी मानवीय सम्भावना का पता अभी तक नहीं चला है..

जब मनुष्यों के प्रति इस का ये रवैया है तो आपको सोच ही लेना चाहिये कि जानवरों के प्रति ये किस दृष्टि से देखता होगा.. अमेरिका के व्यावसायिक तबेलों में गायों को गाय नहीं प्रॉड्क्शन युनिट कहा जाता है.. दूध की मात्रा को बढ़ाने के लिये उनको ऐसे इन्जेक्शन्स दिये जाते हैं जिनकी वज़ह से गायों में तरह के तरह के रोग और पीड़ायें जन्म लेती हैं.. और गायें तो बोल भी नहीं सकती युनियन बनाने और प्रतिरोध करना तो दूर की बात है.. और पृथ्वी जिसे सनातन धर्मी गाय का ही एक दूसरा रूप मानते हैं..और जो सहनशीलता की अति मानी गई है.. ये शख्स उसके इस गुण का भरपूर शोषण कर रहा है.. नदियां का इस्तेमाल नालों की तरह से.. विषैले बाई प्रॉडक्ट्स को बहाने के लिये .. हवा का इस्तेमाल गैसों का रिसाव करने के लिये.. आशा है हम लोग यूनियन कार्बाईड अभी भूले नहीं होंगे.. .. पहाड़ भी उसके शोषक स्रामाज्य का एक हिस्सा हैं.. खनिज पदार्थ के उत्खनन के लिये वो लगातार उनकी जड़ काट रहा है.. जंगलों की अंधाधुंध कटाई भी हो ही रही है.. आज आपको साफ़ पानी बेचा जा रहा है कल को साफ़ हवा और साफ़ वातावरण भी बेचा जायेगा..

किसी चीज़ के बारे में ये शख्स तब तक विचार नहीं करता जब तक कि उसमें से कोई लाभ ना लिया जा सके.. और थोड़े लाभ से संतुष्ट नहीं होता ये व्यक्ति.. इसके लोभ की सीमा नहीं है.. इसके पेट में आप कितना भी डाल दीजिये ये सदैव असंतुष्ट रहता है.. क्योंकि इसके जीवन का इसके अस्तित्व की एक ही शर्त है.. लाभ.. ये जो करता है लाभ के लिये करता है.. और लाभ का अर्थ इसके लिये सिर्फ़ मुद्रा में होता है.. और किसी रूप में नहीं.. मनुष्यों में अक्सर देखा जाता है कि वो तमाम मामूली चीज़ों के लिये बहुत सारे पैसों की बलि दे देते हैं.. इस शख्स में ऐसी कोई कमज़ोरी नहीं पाई जाती..

यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के क़ानून के प्रोफ़ेसर जोयल बेकन कहते हैं कि कॉरपोरेशन एक संस्थागत साइकोपैथ है.. उनके अनुसार अगर कॉरपोरेशन सचमुच कोई जीवित व्यक्ति होता तो उसके सारे व्यवहार एक असामाजिक तत्व और साइकोपैथ के होते.. अगर इसके मुख्य गुणों की सूची बनाई जाये तो वह कुछ इस तरह की दिखेगी..

१]दूसरों की भावनाओं और हितों के प्रति सम्पूर्ण बेरुखी
२]दूसरे मनुष्यो के साथ लम्बे और दीर्घकालिक रिश्ते बनाने में पूर्ण असफलता
३]दूसरों के सुरक्षा के प्रति पूरी उपेक्षा और सिर्फ़ अपने हित की चिन्ता
४]किसी भी प्रकार के अपराध भाव को महसूस करने के एकदम परे
५]अपने लाभ के लिये बार बार झूठ बोलने और धोखा देने में महारत
६]क़ानून और सामाजिक नियमों का पालन करने में नितान्त अक्षम

ये सारे लक्षण एक मानसिक और सामाजिक रूप से बीमार साइको पैथ के ही है.. जिसे पहचान लिये जाने के बाद समाज उसे मनुष्यों के बीच स्वतंत्र रूप से घूमने फिरने तक की आज़ादी नहीं देता.. मगर मज़े की बात ये है कि ऊपर बताये गये लक्षण में से ज़्यादातर न सिर्फ़ हम जानते हैं बल्कि ये स्वीकार भी करते हैं कि समाज के प्रगति और विकास के लिये उसके पीछे पीछे चलने में ही मानवता की भलाई है.. और कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो ये भी मानते हैं कि ये रास्ता गड्ढे की तरफ़ जा रहा है फिर भी प्रतिरोध नहीं करते.. एक पिछले कुछ सालों मे हवा पानी और वातावरण जितना दूषित हो चुका है उतना शायद पृथ्वी के इतिहास में कभी नहीं हुआ होगा. फिर भी हमे में ज़्यादातर लोग एक सुनियोजित प्रचार के तहत ये सोचते हैं कि मनुष्य प्रगति की राह पर है.. क्या टीवी, एसी, लैपटॉप, सेलफ़ोन यही प्रगति के सच्चे मानक हैं,, या मन की शांति आपसी सौहार्द प्रेम सामाजिक शांति.. खुशहाली.. वातावरण की शुद्धता प्रकृति के साथ एक तादात्म्य इन मानकों का भी कोई अर्थ है..? पृथ्वी के खिलाफ़ ये सब अपराध हो रहे हैं क्यों कि पृथ्वी सहनशील है.. और वो चुप रहती है.. हम बोल सकते हैं पर वो हमें ना तो बोलने का समय देता है ना अवसर .. अपने मीडिया तंत्र के द्वारा उसने २४ घंटे हमारे विचारों पर छा जाने की एक मुहिम चला रखी है.. हम या तो उनकी नौकरी बजा रहे होते हैं.. या उनका माल खरीद रहे होते हैं.. या उनके माल को खरीदने के बारे में सोच रहे होते हैं.. या उनके माल को खरीदने के लिये आवश्यक मनोभावों को अपने अन्दर चला रहे होते हैं.. लोभ ईर्ष्या स्पृहा आदि.. मानव मस्तिष्क बड़ा विचित्र है और हर चीज़ के परे जा कर उसकी काट सोचने और कार्यान्वित करने में सक्षम हैं.. मगर फ़िलहाल मात खा रहा है.. एक ऐसे साइकोपैथ के हाथों जो ना सिर्फ़ समाज में छुट्टा घूम रहा है बल्कि उसके शीर्ष पर बैठ कर हमारे वर्तमान और भविष्य को तय कर रहा है..

प्रसिद्ध विचारक नोअम चोम्स्की का कहना है कि अगर कॉरपोरेशन की एक राजनैतिक स्वरूप की कल्पना की जाय तो उसके शीर्ष में बेहद तीखे केन्द्रीकरण.. नीचे के हर स्तर पर कठोर आदेश पालन.. आपसी लेन देन की ना के बराबर गुंज़ाइश..के फलस्वरूप जो केन्द्रीकृत सत्ता उभरती है वह इतिहास में तानाशाही फ़ासीवाद के रूप से जानी जाती है.. सोचने की बात सिर्फ़ इसका तानाशाही स्वरूप ही नहीं बल्कि वर्तमान राजनीति पर इसका मजबूत पकड़ है.. अमेरिका इस कॉरपोरेट का सबसे बड़ा राजनैतिक प्रतिनिधि है.. जो दुनिया भर में अपने आक़ा की आर्थिक सत्ता के लिये लगातार कहीं न कहीं युद्धरत है.. और ऐसे साइकोपैथ के पाले हुये गुंडे अमेरिका को क्यों ना गरियायें हम सब मिल के.. जब तक वो हमारा गला नहीं टीप देता..
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