जीवन बदल रहा है.. विशेषकर स्त्री पुरुष सम्बंधों और स्त्री की समाज में भूमिका को लेकर.. इस विषय पर तमाम तरह के विचार समाज में चल रहे हैं.. भारत के एक मूर्धन्य कवि और विचारक और आधुनिक ऋषि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार आपके सामने ला रहा हूँ..स्त्री पर अपने ये विचार उन्होने १९१६-१७ की अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक भाषण में व्यक्त किये.. कल आपने पढ़ा पहला टुकड़ा.. जिसमें गुरुदेव ने कहा.. जो स्त्रियां अपनी रुचियों को जीवंत बनाये रखने के लिये अपने माहौल में कुछ विशेष और हिंसक तलाश करती हैं केवल यही सिद्ध करती हैं कि उनका अपने सच्चे जगत से नाता टूट चुका है। देखा गया है कि पश्चिम में बहुत सारी स्त्रियां और पुरुष भी उन चीज़ों की भर्त्सना करते हैं जो आम हैं। और वे उन चीज़ों का पीछा करते हैं जो कुछ खास है, और अपनी सारी शक्तियों का ज़ोर एक ऐसी जाली मौलिकता पर देते हैं जो सिर्फ़ चकित करती है, संतुष्ट भले ना करती हो। मगर ऐसी कोशिशें जीवंतता की सही निशानियां नहीं हैं। और ये पुरुषों से ज़्यादा स्त्रियों के लिये घातक होती होंगी... आज दूसरा टुकड़ा ..
अगर, बाहरी उद्दीपन के प्रयोग से, वे एक मानसिक व्यसन पाल लें, और लगातार सनसनी के घूँट दर घूँट खुराक की लती हो जायें, तो वे अपनी प्राकृतिक संवेदनशीलता खो बैठेंगी और साथ ही अपने स्त्रीत्व की बहार भी और इसके साथ मनुष्य जाति को क़ायम रखने की वह वास्तविक शक्ति भी।
एक आदमी की अभिरुचि दूसरे मनुष्य में तब ही जागती है जबकि उसमें कोई विशेष उपयोगिता या प्रतिभा हो, लेकिन एक स्त्री दूसरे मनुष्यों मे दिलचस्पी रखती है क्योंकि वे जीवित प्राणी है, वे मनुष्य हैं, किसी विशेष प्रयोजन के खातिर नहीं, या उनकी किसी ऐसी क्षमता के कारण भी नहीं जो स्त्री को बहुत भा गई हो। चूँकि स्त्री में यह शक्ति है इसीलिये वह हमारे मानस को इतना मोहित करती है.. जीवन के प्रति उसका ये उल्लास इतना मोहक होता है कि उसकी वाणी, उसकी चाल, उसकी हँसी, सब कुछ एक गरिमा से भर जाता है। उसकी गरिमा का यह सुर हमारे वातावरण की रुचियों के इसी समन्वय में है।
सौभाग्य से हमारे रोज़मर्रा की दुनिया में साधारणता का सूक्ष्म और निराग्रही सौन्दर्य है मगर इसके अदृश्य अचंभों को समझने के लिये हमें अपने स्वयं के संवेदनशील मन पर निर्भर होना होगा क्योंकि वे आध्यात्मिक हैं। यदि हम उसके आवरण को चीर कर भीतर जा सकें, कि दुनिया अपने साधारण आयामों में एक चमत्कार है।
इस सत्य को हम अपने प्रेम की शक्ति के द्वारा अन्तर्बोध से जानते हैं, इस शक्ति के ज़रिये समझते हैं कि हमारे प्रेम और सहानुभूति के पात्र, अपने महत्वहीनता के खुरदुरे भेस के बावजूद, अनमोल हैं। जब स्त्रियाँ साधारण चीज़ों में अपनी रुचि की शक्ति को खो बैठती हैं तो फिर फ़ुर्सत अपने खालीपन से उन्हे डराती है क्योंकि उनकी अपनी कुदरती संवेदनशीलता कुंद हो चुकी है और उनके आस पास ऐसा कुछ भी नहीं जो उनके ध्यान को पकड़ सके। तो फिर वो अपने आप को बुरी तरह से व्यस्त रखती हैं समय के उपयोग में नहीं, महज़ उसको काटने में।
हमारा दैनंदिन जीवन एक बाँस की तरह है, इसका सच्चा मूल्य इसके अपने आप में नहीं मगर जिनके पास ध्यान की शक्ति और शांति है वे सुन सकते हैं वह संगीत, जो अनन्त हमारे खालीपन के ज़रिये बजाता है। लेकिन चीज़ों की क़दर उनके लिये ही करना स्त्रियों की आदत होती है तो आप उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे आप के मानस में तूफ़ान खड़ा कर दें, आपकी आत्मा को अनन्त से मिलन से लुभा लें और अपनी अर्थहीन ध्वनियों की अविराम गति से अनन्त की आवाज़ का गला घोंट दें।
मेरा ये तात्पर्य नहीं है कि घरेलू जीवन ही स्त्री के लिये एकमात्र जीवन है। मेरा मतलब है कि मानवीय दुनिया महज़ संगठित करने का अमूर्त प्रयास नहीं, मानवीय दुनिया स्त्रियों की दुनिया है चाहे वह घरेलू हो या मानवीय जीवन की कोई और गतिविधि।
जब भी कोई चीज़ मूर्त रूप से व्यक्तिगत और मानवीय है तो वह स्त्रैण दुनिया है। घरेलू दुनिया ही वह दुनिया है जहाँ हर व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व का सच्चा मूल्य मिलता है इसलिये उसकी कीमत बाज़ारू कीमत नहीं है..बल्कि प्रेम की कीमत है; कहने का मतलब यह है कि वह मूल्य जो प्रभु ने अपनी अनन्त दया से हर प्राणी को प्रदान किया है। घरेलू दुनिया स्त्रियों को प्रभु की एक भेंट रही है। वह अपने प्रेम की आभा को सभी ओर अपनी सीमाओं के परे ले जा सकती है और छोड़ भी सकती है अपने स्त्रीत्व को सिद्ध करने के लिये समय आने पर । लेकिन ये एक सच है इसकी उपेक्षा की नहीं जा सकती कि जिस पल वह अपने माँ की गोद में जन्म लेती है वह अपनी सच्ची दुनिया, मानवीय सम्बंधों की दुनिया के केंद्र में जन्म लेती है।
स्त्रियों को अपनी शक्ति का प्रयोग सतह को चीर कर चीज़ों के केंद्र में जाने के लिये करना चाहिये जहाँ कि जीवन का रहस्य में मौजूद है एक शाश्वत अभिरुचि। आदमी के पास ऐसी शक्ति नहीं है। मगर स्त्री के पास है यदि वह इसकी हत्या नहीं कर देती- और इसी लिये वह उन प्राणियों से भी प्रेम करती है जो अपने असामान्य चरित्र के कारण प्रेमयोग्य नहीं हैं। आदमी अपनी ही दुनिया में अपना फ़र्ज़ निभाता है जहाँ वह सत्ता और सम्पदा और तमाम तरह के संगठन खड़े करता रहता है। लेकिन प्रभु ने स्त्री को संसार से प्रेम करने के लिये भेजा है, एक साधारण ची़ज़ों और घटनाओं के संसार से। वह किसी परी कथा के संसार में नहीं रहती जहाँ कोई परी सदियो तक सोती रहती है जब तक कि वह जादुई छड़ी से छुई नहीं जाती। प्रभु के संसार में स्त्रियों के पास अपनी जादू की छड़ियाँ हैं जो उनके दिलों को जगाये रखती हैं और ये छड़ियां सम्पदा के सोने की नहीं है और ना ही सत्ता के लोहे की।
हमारे सारे आध्यात्मिक गुरुओं ने व्यक्ति के अनन्त मूल्य का गुणगान किया है। ये वर्तमान काल का निरंकुश भौतिकवाद है जो संगठन के लहूलोलुप बुतों के आगे व्यक्तियों की क्रूर बलि दे रहा है। जब धर्म भौतिकवादी था, जब आदमी अपने भगवानों की अर्चना उनके रौद्ररूप से डर कर करता था या फिर सत्ता और सम्पदा के लोभ से , तब अनुष्ठान नृशंस थे और बलिदान असंख्य। परन्तु आदमी के आध्यात्मिक जीवन के विकास के साथ हमारी अर्चना प्रेम की अर्चना बन गई है।
सभ्यता की वर्तमान अवस्था में जब कि न सिर्फ़ व्यक्ति को विकृत किया जाता है बल्कि उसका महिमा मण्डन भी होता है, ऐसे में स्त्रियाँ अप्ने स्त्रीत्व से ही लज्जा महसूस करती हैं। क्योंकि प्रभु ने अपने प्रेम के संदेश के साथ उन्हे व्यक्तियों के संरक्षक के रूप में भेजा है और अपनी इस दिव्य भूमिका में उनके लिये सेना, नेवी संसद दुकानो और कारखानों से कहीं ज़्यादा व्यक्ति का मूल्य है। यहाँ वे अपने प्रभु के वास्तविक मन्दिर में सेवारत हैं जहाँ प्रेम का मूल्य सत्ता से ज़्यादा है।
मगर क्योंकि आदमी अपनी सत्ता के अभिमान में उन सारी चीज़ों का उपहास करता है जो कि जीवित हैं और उन सम्बंधो का जो कि मानवीय है, तो बहुत सारी स्त्रियाँ गला फाड़ के चीख रही हैं ये सिद्ध करने के लिये कि वे स्त्रियाँ नहीं हैं और संगठन और सत्ता में ही उनकी सच्ची अभिव्यक्ति होती है। वर्तमान काल में जब उन्हे अस्तित्व की जैविक ज़रूरत और प्रेम और सहानुभूति के गहरी आध्यात्मिक ज़रूरत की संरक्षक के बतौर सिर्फ़ माँ समझा जाय तो उन्हे लगता है कि उनके सम्मान को क्षति होती है।
क्योंकि आदमी अपनी उत्पादित अमूर्तताओं की छवियों की चिकनी चुपड़ी तारीफ़ें करता रहता है, स्त्रियाँ शर्म में अपने सच्चे प्रभु का भंजन कर रही हैं, और वो आत्म-बलिदानात्मक प्रेम द्वारा अपनी अर्चना की प्रतीक्षा कर रहा है।
जारी.. कल अन्तिम टुकड़ा..
11 टिप्पणियां:
""इसीलिये वह हमारे मानस को इतना मोहित करती है.. जीवन के प्रति उसका ये उल्लास इतना मोहक होता है कि उसकी वाणी, उसकी चाल, उसकी हँसी, सब कुछ एक गरिमा से भर जाता है।"
"वह किसी परी कथा के संसार में नहीं रहती जहाँ कोई परी सदियो तक सोती रहती है"---------
हां! इसलिए ही तो हमारी ज़्यादातर गालियां स्त्री जननांगो पर कीचड उछालती हैं।
.शादी करते है तो एक उपयुक्त साथी नही ,मोटा दहेज,मुफ़्त की कामवाली जिससे खुद के खान पान का भी इंतज़ाम रहे मा बाप की भी सेवा टहल हो।
वे मोहक होती है इसलिय बलत्क्रत होती है, शोषित होती है ,जलाई जाती है ,गर्भ मे मार दी जाती है।क्योन्की वो तो संसार को संचालित कर्ती है ।क्यो ,ह ना!
सही कहा स्त्री परी लोक मे नही रहती पर जब भी उसका वर्णन आप करते है वह देवी ही प्रतीत होती है।
आपसे निवेदन करती हूं ,स्त्री होने के नाते, आप हमारा सम्मान करते हो तो प्लीज़ हमारे बारे मे इस तरह न लिखें। हमने कभी पुरुषो को डिफ़ाइन कर्ने के ऐसे पुर्ज़ोर प्रयास नही किए।
बाकी आपकी इच्छा! आप स्वतन्त्र है और शायद स्त्री मोहास्क्त भी!
माफ़ करें सुजाता.. ये मेरे प्रयास नहीं स्त्री को डिफ़ाइन करने के.. गुरुदेव ठाकुर जी के विचार हैं..
अभय जी आपकी लेखन शैली काफी परिपक्व है और विषय विश्लेषण गंभीर.आपके कई विचारों से शायद हमारा इत्तफाक न हो पाए लेकिन इतना तो तय है कि आप की चिंताएं जेनुएन हैं .आशा है हमारी आपसे बहसें जारी रहेंगी कहीं पहुंचा जाएगा
माफ़ करें सुजाता.. ये मेरे प्रयास नहीं स्त्री को डिफ़ाइन करने के.. गुरुदेव ठाकुर जी के विचार हैं.. ---
गुरुदेव को कोट करने का आपका एक मकसद है ।ऐसा हम अपनी बात को बल देने के लिए करते है।इसलिए आप के ही विचार माने जाएंगे।
भई, ऐसा है कि एक श्वेत, अमरीकी, तथाकत्कि स्वतंत्र समाज में गुरुदेव की सामाजिक आदर्शों की अपेक्षाएं.. और भारतीय वास्तविकता में स्त्री उत्पीड़न के भारी दबावों के संदर्भ में ज़ाहिर की जा रही चिंताओं के तल निश्चित ही अलग-अलग होंगे.. कंसेंसश बनाना टेढ़ी खीर होगी.. स्वस्थ सामाजिक परिस्थिति में शायद इस सवाल पर बेहतर संवाद संभव होता.
सुजाता बहन.. ना जाने क्यों मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि आप मुझे अपना विरोधी समझ रहीं हैं.. न मैंने पहले आपका विरोध किया और न ये विचार आपके विरोध में हैं.. पहले भी मैंने कहा कि रसोई सम्बंधी मामले को मैं अलग दृष्टि से देखता हूँ..अलग सोचना और विरोध में सोचना दो भिन्न बाते हैं..
ये प्रयास सिर्फ़ समस्या को एक अलग दृष्टि कोण से समझने की कोशिश हैं..और इस आम तौर पर दुर्लभ लेख को आप सब के बीच ले आने की सदिच्छा.. आप बेशक़ अपने विचारों को प्रभावित ना होने दें..
अभय जी मेरे मन मे कटुता और विरोध जैसा कुछ नही है।
जब आप कोई सामग्री सामने रखते है तो उस पर कई तरह के अन्य मत भी सामने आएंगे ।
मेरी चिन्ता यह है कि इस तरह के विचार व्यक्त करके हम एक भ्रामक वतावरण बना देते है।
गुरुदेव के और भी कई दुर्लभ विचार होगे ।केवल स्त्री पर ही क्यो ।
चलिए वो आपकी मर्ज़ी ,आपने चाहा हम उनके स्त्री सम्बन्धी विचार जाने ।पर कम से कम उनका विश्लेषण तो आप आज के संदर्भो मे कर ही सकते थे।
आज से १० साल पहले के अपने ही विचार मुझे बचकाने और बनावटी अदर्श वाले लगते है तो गुरुदेव त्क बीती शताब्दी की बात है।
उनमे जो प्रासंगिक है उसे सामने लाइए। केवल सामग्री उठा कर सामने रख देने से कुछ और तो नही होता पर आप मिस्टेकन हो जाते है।
जब हम किसी को कोट करते है तो उसको डिफ़ेन्ड कर्ते है या खंडित करते है ।तटस्थ नही रह सकते
मैं तटस्थ बिलकुल नहीं हूँ.. बहुत हद तक गुरुदेव के विचारों के समर्थन में हूँ..
गुरुदेव गुज़रे ज़माने के हैं . वे क्या जानें आज़ के सच को . उनका लेखन कालबद्ध है .
( नोटपैड उवाच )
इधर नोटपैड जी हैं कालबिद्ध भी और कालसिद्ध भी . उनके कोप से बचिए. आप तो इसी ज़माने के हैं . अपने विचारों के प्राण प्यारे हैं कि नहीं. सो थोड़ा साइड में होइए.ये खीर वाली सुजाता नहीं हैं . इनके हाथ में नारीवाद की सुलगती मशाल है और ये क्रांति के घोड़े पर सवार हैं . सो थोड़ा बगल होइए और रास्ता दीजिए . वरना घोड़े की टापों के नीचे आकर बेबात कुचले जाएंगे .
दिल्ली में ही हैं सो इनको अविनाश का पता दे दीजिए और चैन की सांस लीजिए .
जब विदुषी घोड़े पर सवार हो तो पदचारी विदूषक को ज्ञान का राजमार्ग छोड़ कर मुस्कुराहट की पगडंडी पकड़ लेनी चाहिए .
सुजाता आप चौपट स्वामी के विचारों से आवेश में मत आइयेगा..
क्योंकि गुरुदेव के विचार की एक विशेष प्रकृति और स्वभाव है और उन्हे आज एक चश्मे से देखा जा सकता है.. इसीलिये मैंने लेख जस का तस सब के बीच में रख दिया है.. अब सब लोग, हम आप और बाकी सब, चाहे चश्मा उतार कर से विश्लेषण करें या चश्मा लगा के..ये अपनी अपनी समझ और मर्ज़ी..
निश्चिन्त रहें निर्मल जी। इतनी आसानी से हम तैश मे नही आते।
आपसे बहस करके अच्छा लग रहा है ।रहना तो आप लोगो के साथ ही है .इसलिए कोशिश है कि सह अस्तित्व सौहार्द सम्भव हो .यह तभी होगा जब दोनो खुद को खुद से जान समझ लें।किसी और की भाषा मे स्वयं की परिभाषा न गढें।
स्त्री और पुरुष दोनो का महत्व समान है ।
चौपट जी,
आप तो बेकार ही विचारो का फ़ालूदा कर रहे हो ।
कुछ ग्यान आप भी बांटो!
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