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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

कथा अनन्ता


रावण मारा जा चुका है। युद्ध समाप्त हो चुका है। सीता ने अग्नि परीक्षा देकर अपनी पवित्रता सिद्ध कर दी है। युद्ध में खेत रहे वानरों को इन्द्र ने फिर से जिला दिया है। राम अब जल्दी से अयोध्या लौट जाने के लिए उद्यत हैं। उनकी आतुरता देख विभीषण उन्हे पुष्पक विमान सौंप देते हैं। राम जी, राह में सीता जी के आग्रह पर किष्किंधानगरी से तारा आदि वानर पत्नियों को भी साथ ले लेते हैं। और सीता को उनकी यात्रा के विभिन्न पड़ावों का दर्शन कराते हुए श्रीराम भरद्वाज मुनि के आश्रम पर उनका आशीर्वाद लेने रुकते हैं और हनुमान को उनके आगमन की सूचना देने आगे भेज देते हैं। निषादराज गुह से मिलते हुए हनुमान आश्रमवासी कृशकाय भरत को राम की कुशलता का समाचार देते हैं। भरत जी हर्ष से मूर्च्छित हो जाते हैं और दो घड़ी बाद जब उन्हे होश आता है तो भाव विह्वल होकर हनुमान जी को बाहों में भरकर और आँसुओं से नहलाते हुए यह कहते हैं:
देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् || ४०||
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् |
सकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश || ४१||
हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः |

सर्वाभरणसम्पन्ना सम्पन्नाः कुलजातिभिः || ४२||

ऊपर दिये गए श्लोकों का अर्थ है: "भैया, तुम कोई देवता हो या मनुष्य जो मुझ पर कृपा करके यहाँ पधारे हो। हे सौम्य, जितना प्रिय समाचार तुमने मुझे सुनाया है बदले में उतना प्रिय क्या तुम्हें दूँ? मैं तुम्हें एक लाख गायें, सौ उत्तम गाँव, और अच्छे कुण्डल पहनने वाली तथा शुभ आचार वाली सोलह कन्याएं पत्नी बनाने के लिए देता हूँ। सोने के रंग वाली, सुघड़ नाक वाली, मनोहर जंघाओं और चाँद जैसे मुखड़े वाली  उच्च कुल व जाति की वे कन्याएं सभी आभूषणों से भी सम्पन्न होंगी।"

जो लोग हनुमान के ब्रह्मचारी होने का दावा करते हैं या हनुमान के ब्रह्मचारी न होने के किसी भी उल्लेख पर भड़ककर लाल-पीले हो जाते हैं और वाल्मीकि रामायण को ही रामकथा का पहला और बीज स्रोत मानते हैं- तय बात है कि उन लोगों ने रामायण का यह अंश नहीं पढ़ा है और बिना पढ़े ही वे 'मूल' रामायण की मान्यताओं की रक्षा करने को उद्धत हो रहे हैं।

इसे पढ़ लेने के बाद भी कुछ स्वयंसिद्ध विद्वान यह कहने लगेंगे कि श्लोक में भरत के विवाह योग्य कन्याओं के देने भर का उल्लेख है पर हनुमान के स्वीकार करने की बात नहीं है!? पर उनको समझने की ज़रूरत है कि अगर स्वीकारने की बात नहीं है तो अस्वीकार करने की बात भी नहीं है। इन श्लोकों के बाद हनुमान जी प्रेम से भरत जी के साथ बैठकर राम की विजयगाथा की कथा कहने लगते हैं। अगर वे वाक़ई अविवाहित रहने वाले ब्रह्मचारी थे तो भरत भैया के आगे हाथ जोड़ लेते, पर उन्होने ऐसा कोई उपक्रम न किया। और हनुमान के ब्रह्मचर्य से वाल्मीकि जी की यही मुराद होती कि वे स्त्री तत्व से दूर रहेंगे तो वाल्मीकि महाराज भी वहीं पर सुनिश्चित कर देते कि इस मामले को लेकर कोई भ्रांति न पैदा होने पाये। 

मसला यह है कि अभी हाल में दिल्ली विवि के पाठ्यक्रम से ए के रामानुजन का लेख 'थ्री ह्ण्ड्रेड रामायनाज़ : फ़ाइव एक्ज़ाम्पल्स एण्ड थ्री थॉट्स ऑन ट्रान्सलेशन' इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसमें विभिन्न रामायणों की कथाओं के विविध पाठों का वर्णन हैं। और कुछ स्वघोषित संस्कृति के रक्षक (या राक्षस?) इस पर आपत्ति उठा रहे हैं। मुझे यह बात बेहद विचित्र मालूम देती है कि विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम तय करने में ऐसे अनपढ़ों की राय सुनी जा रही है जो न पढ़ते हैं और न पढ़ने देना चाहते हैं। और यह पहला मामला नहीं है जब ऐसा हुआ है इसके पहले मुम्बई विवि में भी ऐसी ही घटना हो चुकी है। आये दिन किसी किताब के किसी अंश को लेकर कोई न कोई बलवा करता रहता है। पर दिलचस्प बात यह है कि इनके बलवों का असर अक्सर उलटा होता है। भले ही मुम्बई विवि से रोहिन्टन मिस्त्री की किताब पाठ्यक्रम से हटा दी गई पर उनकी उठाई आपत्तियों से जनता में उस किताब में वापस दिलचस्पी पैदा हो गई। उसकी बिक्री में ज़बरदस्त उछाल आया। यही रामानुजन वाले मामले में भी हो रहा है। उनके लेख का अंश भले ही पाठ्यक्रम से निकाला गया हो पर इन्टरनेट पर उसे खोज निकाला गया है। और ख़ूब पढ़ा जा रहा है। इस इन्फ़र्मेशन ऎज में इस तरह की बकलोलियों का कोई अर्थ नहीं है। कुछ समय के लिए अपने पूर्वाग्रही समर्थकों के बीच सस्ती लोकप्रियता हासिल भले ही कर लें मगर किताबविरोधी और ज्ञानविरोधी इन कट्टरपंथियों का मक़सद आप विफल हो रहा है और होता रहेगा।

दुहाई रामकथा की दी जा रही है और हमारी परम्परा में रामकथा बेहद लोकप्रिय कहानी है और लगभग हर प्राचीन ग्रंथ में रामकथा का उल्लेख है। अकेले महाभारत में ही चार बार राम की कहानी सुनाई जाती है, जिनके भीतर भी छोटे-मोटे अन्तर मौजूद हैं। जब भी कोई कहानी बार-बार कही-सुनी जाएगी तो उसमें विविधिता आ जाना स्वाभाविक है। काल और देश का अन्तर जितना बढ़ता जाएगा, विविधिता की भी उसी अनुपात में बढ़ते जाने की सम्भावना बनती जाती है।

और विविधता के इसी पक्ष पर बल देता हुआ रामानुजन जी का यह तथाकथित विवादास्पद (सच तो यह है कि उनके लेख में सब कुछ तथ्य पर ही टिका हुआ है) लेख का आधार हिन्दी भाषा के विद्वान कामिल बुल्के का बहुमूल्य शोधग्रंथ 'रामकथा'ही है। रामानुजन अपने लेख की शुरुआत में उसका उल्लेख भी करते हैं। बुल्के जी अपने शोध में महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में वर्णित रामकथाओं के अलावा मगोलिया, तिब्बत, ख़ोतान और इण्डोनेशिया तक प्रचलित विविध रामकथाओं और उनकी विभिन्न पाठों का भी तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। मिसाल के लिए तमाम रामकथाओं में कहीं फल से, कईं फूल से, कहीं अग्नि से, कहीं भूमि से जन्म लेने वाली सीता को महाभागवतपुराण, उत्तरपुराण और काश्मीरी रामायण में रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, तो दशरथ जातक में दशरथ की पुत्री कहा गया है। पउमचरियं में (आम तौर पर अविवाहित समझे जाने वाले) हनुमान की एक हज़ार पत्नियों में से एक पत्नी सुग्रीव के परिवार की है और दूसरी पत्नी रावण के परिवार की। मलय द्वीप में प्रचलित 'हिकायत सेरी राम' में तो हनुमान राम और सीता के पुत्र हैं- और यही नहीं 'हिकायत सेरी राम' के प्रचलित दो पाठों में उनके इस पुत्र होने की दो अलग ही कहानियाँ है। इसी तरह के और भी विचित्र भेद पढ़ने वालों को मिल जाएंगे।

हम जिस रामायण को जानते हैं, उसकी कहानी वाल्मीकि की बनाई हुई नहीं है। उनके बहुत पहले से लोग रामकथा कहते-सुनते रहे थे। पूरी पृथ्वी पर भ्रमण करने वाले नारद ने उनको रामकथा सुनाई थी; जैसे बुद्ध ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त कहते हुए अपने शिष्यों को रामकथा सुनाई थी जो ई०पू० तीसरी शताब्दी से दशरथ जातक में सुरक्षित मिलती है; और जैसे बहुत काल बाद तुलसीदास को उनके गुरु ने सोरोंक्षेत्र में रामकथा सुनाई थी। ध्यान देने की बात यह है कि किसी ने भी रामकथा को पढ़ा नहीं है, सुना-सुनाया है। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस का जो अन्तर है वो इसलिए भी है कि तुलसी स्पष्ट कह रहे हैं कि उनकी कथा, रामायण पर आधारित है ही नहीं- वो तो गुरुमुख से सुनी कहानी पर आधारित है। और बहुत विद्वान ऐसे है जो वाल्मीकि की रामायण को नहीं बल्कि दशरथ जातक को उस कहानी को मूल रामकथा मानते हैं जिसमें न तो रावण है और न लंका, और जिसमें सीता और राम भाई-बहन होकर भी शादी करते हैं। निश्चित तौर पर कथा का यह रूप इसके एक ऐसे प्राचीन काल के होने का संकेत देता है जब राजपरिवारों की सन्तानें रक्तशुद्धि के विचार से आपस में ही विवाह कर लेते थे- जिसका एक और उदाहरण मिस्र के फ़िरौनों में मिलता है।

पर मुद्दा यह नहीं है कि कौन सी रामायण मूल कथा है। ग़ौर करने लायक बात यह है कि रामकथा की ग्रंथ परम्परा से पहले एक जीवंत श्रुति परम्परा भी रही है- जिसे गाथा के नाम से पुराणों आदि में भी पहचाना गया है। और इस श्रुति परम्परा के चलते यदि कोई मूल कथा रही भी होगी तो उसमें देश-काल--परिस्थिति के अनुसार बदलाव होते रहे हैं। अब जैसे जैन रामायण प‌उमचरियं में रावण का वध राम करते ही नहीं, लक्ष्मण करते हैं। क्योंकि जैन धर्म में हिंसा महापाप है और जिस पाप को करने के कारण ही लक्ष्मण नरक के भागी होते हैं।

इतिहास और मिथकों की इस गति को समझने के लिए एक के रामानुजन जैसे लेखों को 'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' का जाप करने वाले आस्थावान कट्टरपंथी न पढ़ना चाहें तो न पढ़ें मगर 'हरि कथा अनन्ता' का मर्म समझने की आंकाक्षा रखने वाले और सजग चेतना विकसित करने के इच्छुक छात्रों के लिए ऐसी पढ़ाई बेहद अनुकूल है।


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शुक्रवार, 28 मई 2010

टाई लगा कर हिन्दी?


भाषा मुँह से निकली ध्वनियों से अलग भी कुछ होती है? क्या होती है? हमारी सोच का विस्तार और सीमा? हमारे चिन्तन का शिल्प? ज्ञानकोष का खाता? सामाजिक और नैतिक मूल्यों की परम्परा?

मेरी परिवार की एक बारह साल की बच्ची को ठीक से 'क ख ग घ' नहीं आता। तीस के आगे गिनती भी नहीं आती। मैं इस बात से अवसादग्रस्त हुआ हूँ। ये भाषा के अप्रसांगिक होने के संकेत हैं। हालांकि बातचीत वह हिन्दी में ही करती है मगर ज्ञानार्जन के लिए उसे हिन्दी वर्णमाला और अंकमाला की ज़रूरत नहीं। एक सफल जीवन जीने के लिए उसे जिस प्रकार की शिक्षा चाहिये वह अंग्रेज़ी में उपलब्ध है। हिन्दी वर्णमाला और अंकमाला के प्रति अपनी अज्ञानता के चलते वह किस चीज़ से वंचित हो रही है? कुछ भी तो नहीं! तो फिर मेरे इस अवसाद का मतलब क्या है?

क्या अपने पूर्वजो से, भाषा और साहित्य में संचित उनके विचारों और अनुभूतियों से कट जाने का दर्द है ये अवसाद? क्योंकि भाषा भी जाति और धर्म की ही तरह एक सामुदायिक प्रत्यय है? और अपनी जानी हुई भाषा पर इसरार करते जाना बस एक तरह की साम्प्रदायिक ज़िद है? क्योंकि समूह को छोड़ दें तो एक अकेला आज़ाद आदमी कभी भी महज़ अपनी उन्नति के प्रति भर चिंतित होता है। यही वह अकेला आदमी है जो धर्म परिवर्तन करता है, यही वो अकेला आदमी है जो अपने पराजित साथियों के बीच से निकल कर, अपनी परम्परा को विजेताओं की परम्परा से हीन और उनकी भाषा के अधीन मान लेता है।

क्या आप जानते हैं ऐसी किसी अकेले आदमी को जिसने अपनी परम्परा को इसी तरह अनुपयोगी मान कर त्यागा हो? भारतीय समाज पर क़ाबिज़ सत्तावर्ग उसी अकेले आदमी का प्रतिनिधि है। हमारे आज के भारतीय राज्य और व्यवस्था के ढांचे में हमारी परम्परा की क्या चीज़ है? शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापार; किस विभाग की स्मृति हमारी भाषा में मौजूद है? हमारे समाज की जितनी भी संस्थाएं जो हमारे जीवन को प्रचालित कर रही हैं उन सबा की स्मृति अंग्रेज़ी या दूसरी योरोपीय भाषाओं में मिलती है। हिन्दी में कुछ नहीं है, संस्कृत में भी कुछ नहीं है।

यानी अपनी उन्नति के प्रति चिंतित उस अकेले आदमी का अपनी परम्परा से हाथ धोने का निर्णय संगत है? क्योंकि हमारी परम्परा में शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापारादि क्षेत्रों में स्वतंत्र स्वरूप विकसित करने की क्षमता नहीं थी या थी तो ख़त्म हो चुकी थी? या बात कुछ ऐसी है कि इस अकेले आदमी की अवसरवादिता के चलते व्यापक समूह के बीच उन क्षमताओं के विकास की सम्भावनाएं कुन्द हो रही हैं?

जैसी स्थिति हिन्दी की भारत में है ठीक वैसी ही स्थिति उर्दू की पाकिस्तान में नहीं है। ये एक तथ्य है। अंग्रेज़ी की एक अन्तर्राष्ट्रीय उपयोगिता के बावजूद उर्दू शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापारादि की भाषा बनी हुई है। क्या पाकिस्तान के लोगों में उस अकेले आदमी की उपस्थिति नहीं है जो अपने धर्म, अपनी भाषा और परम्परा को लेकर शर्मिन्दा है? और जो विजेताओं की पाँत के पकवान खा लेने के लिए उसी तरह से आतुर है जिस तरह से भारतीय जन हैं?

क्या उर्दू का मामला इस्लाम, शरिया और अमरीका-विरोध से अभिन्न है? क्या हिन्दी की दुर्दशा इसलिए है कि हिन्दू जन या हिन्दी जन एक मज़बूत परम्परा पर एकजुट होने में नाकाम रहे हैं? या उस परम्परा को त्यागे बिना उसका संवर्धन और संस्कार करने के बजाय उन्होने अंग्रेजी का कोट और टाई पहनना उन्हे अधिक आसान मालूम हुआ है? फिर सवाल है कि क्या धोती और हिन्दी अलग-अलग नहीं हो सकते या टाई लगा कर हिन्दी भाषा में नए प्राणों का संचार किया जा सकेगा?

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

सड़कों पर नाचते पाकिस्तानी

यह कोई तंज़ या कटाक्ष नहीं है। यह हो रहा है। पाकिस्तान की सड़कों और बाज़ारों में नौजवान लड़के नाच रहे हैं और लड़कियां भी। जी, लड़कियां भी। आज कल एक पाकिस्तानी को लेकर बहस भी गर्म है और लोग डरे हुए हैं कि वो शौएब मलिक हमारी अकेली टेनिस स्टारलेट प्यारी सानिया मिर्ज़ा को पाकिस्तान ले जाकर बुर्क़े में क़ैद कर देगा। यह वीडियो उन भीति आत्माओं के भय-शमन के लिए।



इस से यह पता चलता है कि हम पाकिस्तान के बारे में कितनी एकाश्मी राय रखते है। ये बात सही है कि पाकिस्तान में एक बड़ा तबक़ा औरत को बुर्क़े में बंद रखने और देश में इस्लामी क़ानून लागू रखने का ही हिमायती है, लेकिन साथ ही साथ एक दूसरा अभिजात वर्ग भी है जो उस पुरातन संस्कृति से उस तरह इत्तफ़ाक़ नहीं रखता। कह सकते हैं कि जैसे इस देश में संस्कृतियां वर्गो से विभाजित हैं वैसे ही उस देश में भी।

इसी तर्क को थोड़ा खींच कर यह भी कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में चल रहा ख़ूनी संघर्ष एक तरह का ‘सांस्कृतिक संघर्ष’ है। अभिजात वर्ग के द्वारा पोषित नई पूँजीवादी संस्कृति और आम जन की मध्ययुगीन इस्लामी संस्कृति के बीच। इस नज़रिये से उन घनघोर मार्क्सवादियों (सभी नहीं, कुछ) को क्या कहा जाएगा जो इस संघर्ष में अमरीका की पूँजीवादी संस्कृति के विरुद्ध लड़ने वाले तालिबान के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं?

ये नाच असल में कोका कोला का एक कैम्पेन है। इसकी पूरी रपट यहाँ देखें जहाँ और भी वीडियो हैं।

बुधवार, 24 मार्च 2010

जै सिया राम!

पहले बोलते थे- जै सिया राम! बोलते थे राम-राम! नाम भी होते थे राम सजीवन, राम पदारथ, राम खिलावन, राम कृपाल, राम गोपाल। जन-जन राम से ओत-प्रोत था, सराबोर था। लोग चुहुल में माँ को माताराम भी कहते। अल्पसंज्ञा और संज्ञाशून्य हस्तियों को भी नाम प्रत्यय से पुकारते थे, जैसे कुत्तेराम, और पेड़राम। अवसरवादी भी आयाराम-गयाराम की उपाधि ले कर राम का प्रसाद पा जाते। पिंजड़े में क़ैद मिट्ठू भी पहले सीताराम का पाठ ही सीखता।

लेकिन आडवाणी जी ने अपनी राजनीति खेलकर सब नरक कर दिया। अब लोग राम का नाम लेने में शर्माने लगे हैं। क्योंकि ‘जै श्री राम’ कहते ही एक साम्प्रदायिक फ़िज़ा तैयार हो जाती। क्रूर और हिंसक स्मृतियां कुलबुलाने लगती हैं। राम के नाम के साथ किए इस अपराध के लिए मैं निजी तौर पर आडवाणी जी को कभी माफ़ नहीं कर सकता।

पहले लोग ‘जै श्री राम’ नहीं ‘जै सिया राम’ बोलते थे। पहले पद में ‘सिया’ को निकाल कर बाहर कर के राम के मर्यादा पुरुषोत्तम छवि पर जो धब्बा है वह और गहरा गया है। जबकि ‘जै सिया राम’ में राम के अपराध के प्रति एक विद्रोह है कि राम जी भले आप ने सीता मैया को निकाल दिया हो, हम तो उन्हे हमेशा याद करेंगे और आप के पहले याद करेंगे।

जै सिया राम!

यह कहते हुए सीता को हम राम से वापस मिला देते हैं और राम की छवि को निर्मल बना देते हैं।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

संस्कृति की अश्लील परम्परा उर्फ़ बहुत हुआ सम्मान

इलाहाबाद में अपने छात्र जीवन की शुरुआत के साथ ही अश्लील परम्पराओं से मेरा परिचय हो गया था। हमें हौस्टल के सीनियर्स ने फ़र्शी सलामी सिखलाई और जिस हौस्टल गीत को याद कर के उचित अवसरों पर सुनाने की हमें ताक़ीद की गई उसमें पुरुष के अंग विशेष के गुणगान किए गए थे। ऐसा बताया जाता था कि वह गौरवगीत हौस्टल के एक पूर्ववासी के पेन-प्रताप का ही परिणाम था।

हमारे रहते भी हौस्टल के एक वरिष्ठ वासी हिन्दी भाषा में अपने जौहर, साहित्य की इस अश्लील परम्परा को अर्पित करते रहे थे। उनके गीतों की लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके गायन के सभी अवसरों पर हौस्टलवासियों का आनन्द और उत्साह राष्टगीत और राष्ट्रगान को गाने के मौक़ो से कई गुणा अधिक होता, और उसका उद्गम विशुद्ध, अनहत और मणिपुर से भी गहरे सीधे मूलाधार से होता। सभी सुनने वालों के अंग-अंग से हर्ष का सागर हिलोड़ें मारने लगता।

ये नंगापन था, लेकिन कोई नंगा नहीं था। ये पाशविक वृत्ति की उपज थी, पर भाषा और गायन की मानवीय उपलब्धियों में आबद्ध था। शारीरिक उद्वेगों की ये सामाजिक अभिव्यक्ति थी। जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़ सभी को जोड़ देने वाली यह संस्कृति थी। जन संस्कृति थी। लेकिन किसी भी सभ्य हलक़ों में इस 'जन संस्कृति' को मान्यता नहीं थी। नहीं है।

हौस्टल में ही रहते हुए मेरा परिचय बनारस की उस परिपाटी से हुआ जिसकी आवृत्ति हर बरस होली के अवसर पर होती। अस्सी पर होने वाला इस विशिष्ट सम्मेलन की ख्याति दूर-दूर तक हो चली थी, जिसमें सार्वजनिक मंच से आदमी और औरत के गुप्त प्रसंगो, और सामाजिक मसलों में उन प्रसंगो के मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल, की चर्चा सस्वर गायन के ज़रिये की जाती। इस सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का एक संकलन भी निकलता जो पढ़ना तो हर कोई चाहता लेकिन घर में रखना कोई न चाहता। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले कवि आम तौर पर हास्य कवि ही होते और कविता की मुख्य धारा से उनका कोई सीधा सम्बन्ध न होता।

बाक़ी कवियों को छोड़ दें और सिर्फ़ चकाचक बनारसी की ही बात करें। साल के ३६४ दिन चकाचक की पहचान एक हास्य कवि की ही बनी रही। ये भी पता चला है कि वे दूसरा कोई काम नहीं करते थे और कवि सम्मेलनों में हुई आमदनी के ज़रिये ही अपना खर्चा चलाते थे। लेकिन एक होली के दिन उनका रूप बदल जाता और वे सारी वर्जनाओं को छोड़ कर भाषा को खुला छोड़ देते। और फिर ऐसी कोई चीज़ निकलती जो बड़े-बड़े विद्वानों को किए जा रहे सम्मान को बहुत हुआ बताकर उनकी माता जी से सम्बन्ध स्थापित करने की घोषणा होती :

बड़े-बड़े विद्वान,
तुम्हारी...
बहुत हुआ सम्मान,
तुम्हारी...

इस विद्रोही तेवर की अनुगूँज मुझे दूर-दूर तक सुनाई दी है, सुदूर मुम्बई तक भी। भाषा की मुख्यधारा में पड़े हुए और उस से अड़े हुए दोनों तरह के लोगों के भीतर। इस तरह की ज़बरदस्त मक़बूलियत अच्छे-अच्छे साहित्यकारों की नहीं है जो साहित्य के शीर्ष पुरस्कार पाने के बाद भी जनता के प्यार और स्वीकृति से कटे होने के कारण एक प्रकार की कुण्ठा में जीते हैं। चकाचक की घोषणा शायद उन को भी सम्बोधित है कि बहुत हुआ सम्मान। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि चकाचक सभी तरह की कुण्ठा से मुक्त हो कर वैकुण्ठ हो गए होंगे। मुझे पता लगा है कि एक उनका एक संग्रह ही प्रकाशित हुआ और वो भी बहुत बाद में; सन २००४ में उनकी मृत्यु के कुछ पहले ही और उसमें भी उनकी सबसे लोकप्रिय कविताओं को जगह नहीं थी। वे सिर्फ़ लोगों के दिलों, ज़ुबानों और गुप्त खर्रों में ही बसी रहीं। ये वहीं चकाचक हैं जिनकी एक और कविता का मुखड़ा बहुत लोकप्रिय हुआ है:

हर अदमी परेसान ह
हर अदमी त्रस्त ह
मारा पटक के
जे कहे पन्द्रह अगस्त ह

***

चकाचक की इसी चमक को याद करके मैंने इस बार होली बनारस में मनाने का फ़ैसला किया। इलाहाबाद तक आया था, फिर ऐसा मौक़ा मिले न मिले। तो वापसी के कार्यक्रम को रद्द कर के मैं बस इसी कार्यक्रम में शिरक़त करने के लिए बनारस पहुँचा। बनारस आ कर भाई अफ़लातून और अपने पुराने मित्र मेजर संजय से मालूम हुआ कि न तो अब होली का ये विशिष्ट कवि सम्मेलन अस्सी पर होता है और न उसे चमकाने के लिए चकाचक जीवित हैं। सम्मेलन की जगह बदल कर मैदागिन के एक मैदान में कर दी गई है क्योंकि अस्सी में रहने वाले परिवार, सम्मेलन के तीन-चार घण्टों के दौरान तय नहीं कर पाते थे कि अपने कान बन्द करें कि अपने बच्चों के।

होली तो नहीं खेली मगर भाई अफ़लातून और स्वाति जी के शानदार आतिथ्य का लाभ उठाया और अस्सी पर पप्पू की दुकान पर होली मिलन समारोह में गुलाल से रंगा गया। बनारस के तमाम राजनीतिक और साहित्यिक विभूतियों से मिलना हुआ। और इस साहित्य की इस अश्लील परम्परा पर विचार-विमर्श भी हुआ। मैं कह रहा था कि आने वालों साल में चकाचक को वैसे ही मान्यता मिल जाएगी जैसे पश्चिमी साहित्य में दि साद को मिली, डेढ़-दो सौ साल बाद।

मैं यह भी चाह रहा था कि मेरे हाथ इस अश्लील सम्मेलन के पुराने प्रकाशन मिल जायं लेकिन वे किसी के घर पर नहीं थे, कारण स्पष्ट है। अस्सी से निकलते-निकलते मैंने उत्साहित हो कर अपनी इस राय को भी गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष रखा कि इस अश्लील साहित्य का एक ब्लौग रचा जाय और उसे जनता के लाभार्थ समर्पित कर दिया जाय। अफ़लातून भाई इस बात पर बहुत सहमत नहीं दिखे। न जाने वह कुछ देर पहले उदरस्थ किए भंग के गोले का असर था या मेरी बात का, वे सपाट नज़रों से मेरी तरफ़ देखते रहे। और मुझे अपनी राय पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करते रहे। सबसे विदा लेके मैं मैदागिन को चला आया।

सम्मेलन की सभी कुर्सियाँ काशी की जनता की तशरीफ़ों से घेरी जा चुकी थी। एक शरीफ़ आदमी ने अपनी तशरीफ़ सरका के मुझे भी अपनी तशरीफ़ टिकाने का निमंत्रण दिया; मैंने स्वीकार कर लिया। मंच पर और दर्शकों में सभी धर्म और वर्ग के लोग मौजूद थे। लोग हल्ला मचा रहे थे और संचालक बद्री विशाल की बहन के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति इच्छुक और आतुर दिख रहे थे। हारकर बद्री विशाल ने सामान्य कविताओं के दौर को समाप्त करते हुए विशिष्ट सम्मेलन का आग़ाज़ किया। उसके बाद जो कुछ हुआ उस से अश्लील साहित्य के प्रति मेरा उत्साह धीरे-धीरे ठण्डा पड़ता गया।

मंच पर से जो पढ़ा जा रहा था वो अधिकतर फ़िल्मी गानों की पैरोडी या सस्ती तुकबन्दी के अलावा कुछ नहीं था। बीच में एक कवि, जिनका मैं नाम याद न रख न सका, ने ज़रूर शिल्प और कथ्य दोनों में एक स्तर दिखाया। उस एक को छोड़कर किसी भी कविता में कोई सामाजिक या राजनैतिक सच्चाई को टटोलने की कोई कोशिश नहीं दिखी। जिसका निष्कर्ष मैं यह निकालता हूँ कि कविता श्लील हो या अश्लील, वो आम तौर पर कूड़ा ही होती है। (इस पाठक चाहें तो 'बुरा न मानो होली है' की भावना से प्रेरित मान सकते हैं)।

लगभग एक घण्टे तक किसी बेहतरी की उम्मीद करने के बाद मुझे अपनी तशरीफ़ और देर वहाँ रखने में तकलीफ़ होने लगी और मैं उठ चला आया। बाद में मैंने अफ़लातून भाई से किए अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार करते हुए पाया कि अच्छा यही होगा कि साहित्य की अश्लील परम्परा को अपना स्थान खुद तलाशने दिया जाय। चकाचक के उत्तराधिकारियों को इन्टरनेट तक पहुँचने में मेरी सहायता की ज़रूरत होगी, यह सोचना अहमन्यता होगी। और रही बात चकाचक को उनका स्थान मिलने की तो कौन जानता है कि तमाम कहावतों का निर्माता कौन है? चुटकुले कौन बनाता है? भाषा की उस गुमनामी में हो सकता है कि चकाचक के लिए भी कोई कोना सुरक्षित हो!

***

बाद में सोचते हुए अस्सी पर रामाज्ञा शशिधर की एक बात पर विचार करते हुए मैंने पाया कि ये बात ठीक है कि यह अश्लील परम्परा सिर्फ़ पुरुषवादी सोच या पुरुषों की अभिव्यक्ति है। पूरे का पूरा महिला वर्ग इस से कटा हुआ है। इस संस्कृति पर यह आरोप भी है कि यह महिला के प्रजननांगो को अपनी विकृति का निशाना बनाती है, इसलिए हिंस्र और पतनशील है। मेरा इस से मतभेद है। पहले तो ये कि प्रजनन के प्रति आदमी और औरत का नज़रिया अलग-अलग है। एक-दूसरे के प्रति आप उनसे एक ही जैसे व्यवहार की उम्मीद अगर करते हैं तो आप की उम्मीद निराधार है। प्रजनन के प्राकृतिक ज़िम्मेदारी है और आदमी की प्रजनन में भूमिका गर्भाधान के साथ ही समाप्त हो जाती है। उसके बाद पालन-पोषण में उसकी जो भूमिका है उसे निभाने में कोई सार्वभौमिक मानक नहीं रहा है।

विवाह संस्था का इतिहास से पता चलता है कि अलग-अलग समाजों में यह भूमिका बदलती रही है। और स्त्री को जितनी अधिक आर्थिक स्वतंत्रता मिली है उसने अपने यौन व्यवहार पर से पुरुषवादी बन्धनों को उतना ही तोड़ा है। विवाह की सामंती धारणा स्त्री की यौन शुचिता को एक ऐसे मूल्य की तरह प्रस्तुत करती है जो उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है। एक बार कौमार्यभंग हो जाने पर वह किसी सम्मानित पुरुष के योग्य नहीं रहती और उसके लिए आत्महत्या या किसी भयंकर अपमान और सज़ा के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

इस्लाम में ये मूल्य बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किए गए हैं। जहाँ औरत को ग़ैर-मर्दों से बराबर पर्दे में रहने की बात है। (बहस बस इतनी है कि कितना परदा करने की बात है) और किसी भी प्रकार के व्यभिचार की कड़ी स़ज़ा है। पिछली सदी में आए हिन्दू समाज में सुधारों की चलते उन परम्पराओं से छुटकारा पा लिया जो पति की मृत्यु के बाद भी उसकी विधवा पर उसका यौन-अधिकार बनाए रखती थी। लेकिन आज के पूँजीवादी अमरीकी समाज में प्रथम सहवास के इर्द-गिर्द कोई मिथक नहीं रह गया है बल्कि तमाम अमरीकी फ़िल्मों और साहित्य के ज़रिये देखा जा सकता है कि अमरीकी नवयुवतियों के बीच ‘कौमार्यभंग न होना’ एक पिछड़ेपन की निशानी है और यौन अनुभव होना आकर्षकता की पहचान।

तो हमारे सामंती समाज में यौन-सम्बन्धों पर बन्दिशों के चलते ही इस प्रकार की विकृत अभिव्यक्ति होती है जिसे हम अश्लीलता का नाम देते हैं। अगर यौन-सम्बन्धों के लिए एक स्वस्थ माहौल हो तो इस प्रकार के विकार पैदा होने की सूरत कम हो जाएगी।

दुनिया में हर जगह पारिवारिक रिश्तों में यौन-सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध है और ये क्या सिर्फ़ संयोग है कि अधिकतर गालियां माँ और बहन को लेकर हैं? इन्ही गालियों के कारण कहा जाता है कि इन गालियों के ज़रिये पुरुष समाज स्त्री के प्रजननांगो को अपनी हिंसा का निशाना बना रहा है। ऐसा नज़र ज़रूर आता है लेकिन ये सही समझ नहीं है। ऐसा लग सकता है कि वह किसी दूसरे की माँ के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की बात कर रहा है मगर वास्तव में वह आदमी माँ और बहन के सम्बन्धों में अपनी यौन-आंकाक्षाओं को जगह दे रहा है। जो ‘कर्मणा’ नहीं हो पा रहा उसे ‘वाचा’ कर रहा है।

संस्कृति और विकृति दोनों सामाजिक नज़रिये का फ़रक़ है। मेरा मानना यह है कि गालियाँ प्रजननांगो पर हमला नहीं बल्कि उन के प्रति सम्मोह हैं। और ये गालियां स्त्री के प्रजननांगो पर नहीं बल्कि प्रजननांगो पर हैं और गुप्तांगो पर हैं। भूला न जाय कि कितनी गालियाँ गुदा पर लक्षित है। और ये भी याद कर लिया जाय कि गालियों का एक प्रमुख हिस्सा आदमी के लिंग को बार-बार स्मरण को समर्पित है। और यह मान लेना कि यदि औरतों को मौक़ा मिला तो वे गालियाँ नहीं देंगी, भी ठीक नहीं। इस समाज में ही कितनी औरतें गाली देती हैं। वे शायद पुरुषवादी सोच के प्रभाव में देती हैं लेकिन पश्चिमी समाजों में जहाँ औरतें अपेक्षाकृत स्वतंत्र है, वहाँ औरतें गाली देती हैं और किसी पुरुषवादी सोच के तहत नहीं देतीं। औरतों द्वारा दी जाने वाली अंग्रेज़ी की प्रमुख गालियों में उल्लेखनीय हैं: अपने-आप से यौन सम्बन्ध बनाना, पुरुष के लिंग के समकक्ष होना।

***

समाज हमेशा चाहता है कि यथास्थिति को बनाए रखे। नैतिकता उस की इसी इच्छा का हथियार है। बहुत लोग जो साहित्य को समाज का दर्पण मानते हैं और दर्पण को सजने-सँवरने का साधन देखते हैं और वे जो साहित्य को आदर्शों की हदबन्दी में ही क़ैद रखना चाहते हैं, मुख्यधारा के उन खेवैयों के लिए लिए अश्लीलता हमेशा एक विकृति बनी रहेगी।

यहाँ पूछा जा सकता है कि कविता की मुख्य धारा क्या है और कौन सी है। तुलसी दास के ज़माने में कविता की मुख्यधारा काशी के सांस्कृत-पण्डितों की रही होगी लेकिन आज के ज़माने में वामपंथी विचार के साहित्यकारों की धारा ही मुख्यधारा है। शेष कवियों को अस्सी की धारा* की तरह भ्रष्ट मान लिया गया है और उनका हाल अस्सीवत ही यानी नालेनुमा हो चला है। मुख्यधारा में अपनी-अपनी नाव खे रहे ये महाभाग ऐसे किसी काव्यसाधक को मुख्यधारा में प्रवेश की अनुमति नहीं देते जो उनके वैचारिक और नैतिक मानदण्डों पर ख़रा न उतरता हो।

कुछ लोग ऐसा मान सकते हैं कि साहित्यिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे ये लोग आज भी उसी क़िस्म का छुआछूत चला रहे हैं समाज में जिसकी ये ऊँचे गले से निन्दा करते हैं। ये तर्क किया जा सकता है कि यह बात इस आधार पर ग़लत है कि वामपंथ का सत्ता से कोई जुड़ाव नहीं रहा है। लेकिन ये बात ठीक नहीं है; साहित्य और शिक्षा के दायरों में वामपंथी विचारकों का वर्चस्व शुरु से ही बना हुआ है। और तुलसी दास के भी समय में कौन सा काशी का पण्डित मुग़ल दरबार का सीधा भागीदार था?

उच्च साहित्य की सारी वर्जनाओं और उनके द्वारा जनता की नैतिक रक्षा के बावजूद जनता की संस्कृति बेलाग रूप से चलती रहती है। और जनता उच्च साहित्य द्वारा प्रस्तावित दूसरी ‘जन-संस्कृति’ की घास को अछूता छोड़ देती है। बनारस में एक ऑटो यात्रा के दौरान कुछ भोजपुरी गीतों ने मेरे समेत दूसरे यात्रियों को तरंगित किया उनके बोल थे – ‘तनि सा जींस ढीला करा’ और ‘मीस्ड काल मारत आड़ू कीस देबू का हो, आपन मसिनिया में पीस देबू का हो’।

यह याद रखना चाहिये कि जो साहित्य न सीमाओं को तोड़ता है और न नए आसमानों की ओर पंख पसारता है वह मनुष्यता के विकास में कोई योगदान नहीं करता।



*अस्सी गंगा से ही निकली एक धारा का नाम है। वो जहाँ गंगा से वापस मिलती है उस घाट का नाम अस्सी है। इसी अस्सी और वरुणा के बीच बसे नगर को वाराणसी कहा गया। आजकल यह धारा नाला बन चुकी है।


***


(मुम्बई से दूर अपने इस उत्तरभारतीय प्रवास के दौरान गिरिजेश राव और ज्ञानभाई से भी मिलना हुआ और पाया कि ये दोनों जितने बेहतर ब्लौगर हैं उतने ही बेहतर इन्सान भी)

सोमवार, 6 जुलाई 2009

एक छिलके में दो गिरियां

मुझे याद हैं वो दिन जब मैं और मेरा दोस्त बादाम के एक छिलके में दो गिरियों जैसे बने रहते। फिर अचानक हम बिछड़ गए। कुछ वक़्त बाद मेरा दोस्त लौटा और मुझ पर इल्ज़ाम धरने लगा कि मैंने उस दौरान कोई क़ासिद भी क्यों न भेजा। मैंने कहा कि जिस हुस्न से मैं महरूम हूँ उस पर किसी क़ासिद की नज़र क्यों पड़े?


न दे मुझे सलाहे ज़ुबानी कह दो मेरे यार से।

क्यूंकि तोबा करूँ ये होगा नहीं ज़ोरे तलवार से॥


देख नहीं सकता कि हो तू ग़ैर से रज़ामन्द।

मैं फिर कहता हूँ कि हो सबका मज़ा बन्द॥


तेरहवीं सदी के शाएर शेख सादी की यह लघुकथा समलैंगिक प्रेम पर आधारित है। गुलिस्तान में संकलित इस लघुकथा के आधार पर भले ये सिद्ध न हो कि शेख सादी लौंडेबाज़ थे मगर ये तो ज़रूर पता चलता है कि उनके काल में भी यह तथाकथित बीमारी मौजूद थी। वेश्यावृत्ति की तरह इसका भी इतिहास बड़ा पुराना है। बाईबिल के पुराने विधान में भी इसका ज़िक्र मिलता है। सोडोम नाम का एक शहर था (इसी के नाम से समलैंगिकता सोडोमी कहलाई), जिसके निवासी सलोनी लड़कियों के बजाय खूबसूरत लड़कों के लिए मचलते थे। बाईबिल घोषणा करती है कि ईश्वर ने उनके शहर पर बिजली गिरा कर उन्हे उनके अपराध की सजा दी।


बावजूद इस के तीनों अब्राहमपंथी धर्मावलम्बियों की परम्पराओं में इस बीमारी की उपस्थिति बनी रही। यहूदियों, योरोपीय ईसाईयों और अरब मुस्लिम और ग़ैर अरब मुस्लिम समाजों में समलैंगिकता अबाध रूप से चलती रही। इस रुझान के लोगों की सूची में तमाम बड़े-बड़े नाम हैं जिसमें लियोनार्दो दा विंची जैसे कलाकार और बाबर जैसे सेनानायक शामिल हैं। मैंने इस ब्लॉग पर पहले भी मीर के शौक़ के बारे में लिखा है-


मीर क्या सादे हैं बीमार हुए जिसके सबब,
उसी अत्तार के लड़के से दवा लेते हैं।


ऐसी लौंडेबाज़ी को धर्म और नैतिकता तब भी नहीं स्वीकारती थी। मगर नसीब वाले थे मीर कि उनके समय इस तरह के रुझान अपराध नहीं थे। अंग्रेज़ो के आने के बाद लॉर्ड मैकाले ने क़ानून बना के इसे अपराध घोषित कर दिया। आज हमारे देश में अदालत के आदेश से यह सम्बन्ध अपराध नहीं रहा। इस कारण से बड़ा हो-हल्ला है। लोग नाराज़ हैं। संस्कृति और परम्परा, धर्म और नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं। उनका मानना है कि ये रुझान अप्राकृतिक है इसलिए निन्दनीय है। और समाज के लिए घातक है और इसीलिए आपराधिक है।


एक तर्क यह भी सुनने को मिलता है कि पशु ऐसा नहीं करते! वैसे यह पूरी तरह सच नहीं है कुछ पशु समलैंगिक व्यवहार प्रदर्शित करते पाए गए हैं। एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि ये लोग जो समलैंगिक सेक्स की आज़ादी चाहते हैं कल को पशुओं से सेक्स करने की भी इजाज़त माँगेंगे? मैं ऐसे लोगों के तर्कों के आगे ध्वस्त हो जाता हूँ। क्या कोई सचमुच इजाज़त माँग कर यह काम करता है। क्या कल तक इजाज़त न होने पर लोग समलैंगिक सेक्स नहीं कर रहे थे और आज आज़ादी मिल जाने पर मुफ़्तिया माल की तरह टूट पडेंगे?


क्या इन का सोचना यह है कि हर व्यक्ति के भीतर समलैंगिक सेक्स की ऐसी भयानक चाह है कि अपराध का डर हटते ही समाज में प्रेम का स्वरूप धराशायी हो जाएगा? बाबा रामदेव कहते हैं कि आदमी आदमी पर चढ़ने लगेगा तो बच्चे कैसे पैदा होंगे? यएनी बाबा मानते हैं कि लोग डण्डे के डर से मन मार के बैठे हैं? हास्यास्पद है ये सोच!


क्या आप ने ऐसे व्यक्ति नहीं देखे जो नर के शरीर में क़ैद नारी हैं और ऐसे भी जो नारी के शरीर में क़ैद नर हैं? ज़रूर देखें होंगे। पर मैं इस से अलग जा के एक और बात कहना चाहता हूँ- नर और नारी के चरित्र की यह श्रेणियां ही ग़लत हैं। यह वास्तविक नहीं कल्पित हैं। मानवीय गुण-दोषों की ये शुद्ध परिभाषाएं है। मगर वास्तविकता में कोई तत्व शुद्ध नहीं मिलता। शुद्ध तत्व प्रयोगशालाओं में अशुद्ध तत्वों से अलग कर के पाए जाते हैं। मेरी नज़र में तो ग़लत ये है कि नर-नारी के एक कल्पना की गई छवि के आधार पर लोगों के बारे में कोई फ़ैसला करे। फ़ैसला करे तो करे ये तो हद ही है कि फिर उन्हे आपराधिक घोषित करे? अब आप बताइये कौन प्राकृतिक है?


यह ठीक है कि मनुष्य के शरीर में यौन अंग प्रजनन के उद्देश्य से उपजे हैं। और यह बात भी तार्किक लगती है कि जो चीज़ जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई हो वो उसी उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाय। मगर प्रकृति ऐसा नहीं करती। प्रजनन के लिए एक शुक्राणु ही चाहिये होता है मगर प्रकृति उन्हे करोड़ो के संख्या में पैदा करती है। बबून के समूह में एक बंदर ही प्रजनन करता है मगर प्रकृति प्रजननांग सभी नर बंदरो को प्रदान करती है। पूछा जाना चाहिये कि प्रकृति हर चीज़ नाप-तौल के क्यों नहीं करती? और उद्देश्य के तर्क से घायल ये सारे लोग क्या अपना सारा यौनाचार प्रजनन के उद्देश्य से ही करते हैं?


समलैंगिकता प्रकृति के विरुद्ध है। चलिए माना। पर मनुष्य के जीवन में क्या और कुछ भी नहीं जो प्रकृति के विरुद्ध है? पका हुआ भोजन भी प्रकृति के विरुद्ध है। समलैंगिकता का विरोध करने वाले क्या मिर्च-मसाले छोड़ कर कच्चा भोजन खाना शुरु कर सकेंगे? ईंट-गारे की इमारतें, मोटरकार, और पैसा-रुपया भी तो प्रकृति के विरुद्ध है। और तो और कपड़े भी प्रकृति के विरुद्ध है। पश्चिम में एक ऐसा आन्दोलन है जो प्राकृतिक होने की ज़िद में ऐसे समुदाय बना के रहते हैं जिसमें कपड़ों का कोई इस्तेमाल नहीं। क्या समलैंगिकता के विरोधी कपड़े उतार के नंगे रहना पसन्द करेंगे क्योंकि ईश्वर ने हमें कपड़े पहना के नहीं भेजा?


और सबसे बड़ा प्रकृति का विरोधी तो धर्म है। प्रकृति तो किसी धर्म को नहीं मानती। वो न तो गाय खाने से मना करती है न सूअर खाने से। प्राणी जगत में तो हर जन्तु स्वतंत्र है उस पर कोई बन्दिश नहीं। और इस तर्क से तो मनुष्य पर इस तरह की बन्दिशें लगाने वाला धर्म आप ही अप्राकृतिक है। और समलैंगिको का अपने स्वभावाविक आकर्षण के प्रति जवाबदारी बरतना प्राकृतिक।


मैं मानता हूँ कि नैतिकता समाज को स्वस्थ रखने का एक बेहतर आचरण है। पर नैतिकता स्थिर तो नहीं रहती। देश-काल-परिस्थिति के सापेक्ष है। निरन्तर बदलती है।और धार्मिक दृष्टि से तो समलैंगिकता अभी भी अनैतिक है न! उसे अवैध बनाकर समलैंगिकों को निशाना क्यों बनाना चाहता है धार्मिक नेतृत्व? कहीं ये चोर की दाढ़ी में तिनके वाली बात तो नहीं?


प्रकृति का नियम है जहाँ पानी रोका जाय वहाँ दबाव सबसे तेज़ होता है। साथ ही मैंने अक्सर महसूस किया है कि धर्म और यौनाचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तंत्र कहता है कि दोनों एक ही ऊर्जा का उपयोग करते हैं। शायद इसीलिए दोनों में ऐसा ज़बरदस्त विरोध है। पर वो दूसरी बहस है।


अंत में इतना ही कहूँगा कि मनुष्य का स्वभाव, सामाजिक और धार्मिक नैतिकता से कहीं जटिल है और प्रकृति के अनन्त भाव मनुष्य के सामाजिक परिपाटियों से कहीं विराट है।


क्या आप जानते हैं कि किशोर डॉल्फ़िन्स वयस्कता पाने के पहले अन्य प्रजातियों के जन्तुओं के साथ यौनाचार के प्रयोग करते हैं?

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

व्हाट एन आइडिया सर जी!

थैंक्यू लॉर्ड फ़ॉर द फ़ूड वी ईट, थैंक्यू लॉर्ड फ़ॉर द लवली ट्रीट। ये एक प्रेयर है जो एक बुड्ढा खाना खाने के पहले करता है और अपने सामने बैठे दूसरे बुड्ढे को अपनी उच्च शिक्षा और उच्चतर संस्कार से चकित कर देता है। ये शिक्षा और संस्कार उसकी पोती को एक मोबाइल फोन सेवा के मार्फ़त गाँव में बैठे-बैठे ‘मुफ़्त’ (?) प्राप्त हो रहे है।

यह एक विज्ञापन का हिस्सा है और इसी श्रंखला के पहले विज्ञापन में हम देखते हैं कि अभिषेक बच्चन के स्कूल में एक गाँववालेऔर उसकी बेटी को वापस कर दिया जाता है क्योंकि स्कूल की छात्र-क्षमता पूरी हो चुकी है। अभिषेक बाबा, जो शायद एक ‘फ़ादर’ की पोशाक में है, को एक ‘आईडिया’ आता है कि गाँव वालो को फोन के ज़रिये शिक्षा दी जाय! और उसके बाद आप देखते हैं उसका तुरन्त क्रियान्वन:

१) बच्चे एक फोन के आगे बैठ कर ई फ़ोर एलीफ़ैंट बोलना सीख गए हैं..
२) गाँव में आए एक अजनबी को पता बताने के लिए एक बच्चा अंग्रेज़ी में जवाब देता है..
३) और तीसरे में गाँव की एक बच्ची अपने बूढ़े दादा जी को खाना खाने के पहले अंग्रेज़ी में प्रेयर प्रार्थना करने की सभ्यता सिखा देती है..

आजकल ये विज्ञापन हर चैनल पर दिखाई दे रहा है। मुझे इस से कुछ शिकायतें है। पहली तो ये कि यह विज्ञापन शिक्षा को सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ज्ञान तक ही सीमित कर देता है। यह एक लोकप्रिय भ्रांति है जो समाज में पहले से मौजूद है और यह विज्ञापन उसी भ्रांति को और प्रगाढ़ करता है। बावजूद इस स्वीकृति के कि आज की तारीख में आप हिन्दी भाषा के सहारे ज्ञानार्जन करने की ज़िद में बहुत पीछे छूट सकते हैं। हिन्दी और अन्य देशज भाषाओं की ये जो सीमाएं हैं वो इन भाषा की कम और उनकी उपेक्षा से उपजी हुई मुश्किलों के चलते ज़्यादा हैं।

दूसरी यह कि यह विज्ञापन मुझे याद दिलाता है कि हम एक तरह के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के शिकार हैं। जो विविधता को मार रहा है, हर स्तर पर। दुनिया भर में प्रार्थना करने के विविध तरीक़े रहे हैं। सरस्वती शिशु मन्दिर में सिखाए जाने वाला भोजन मंत्र और कुछ भी शुरु करने से पहले मुसलमानो द्वारा कहे जाने वाला बिस्मिल्लाह भी उसी प्रार्थना के स्वरूप रहे हैं। दुख की बात ये है कि ये दोनों ही अब एक खास साम्प्रदायिक रंग से सीमित हो गए हैं। बिस्मिल्लाह का हाल तो ये है कि उस की परम्परा के प्रति निष्ठा निभाने वाला पाकिस्तानी क्रिकेटर इन्ज़माम उल हक़ कुछ भी बोलने के पहले यह मंत्र बोलने की वजह से बराबर उपहास का पात्र बनता रहा।

मगर देखिये यहाँ वही बात अंग्रेज़ी में बोल दिये जाने भर से प्रगतिशील और शिक्षित होने का प्रतीक बन जाती है। क्या ये कॉलोनियल मानसिकता नहीं है? राम-राम और सलाम अलैकुम करने वालों को बैकवर्ड मानने वाले इस देश के तमाम सुशिक्षित समुदाय के तमाम लोग अनजाने में विस्मय बोध के रूप में ‘जीसस क्राइस्ट!’ को और क्षोभ की अभिव्यक्ति के तौर पर ‘फ़ॉर क्राइस्ट्स सेक’ को बोलने में ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते, भले ही वो घोषित रूप से नास्तिक हों। क्यों? ये धर्म का मामला नहीं सांस्कृतिक मामला है। मुझे निजी तौर पर जीसस से कोई परेशानी नहीं बल्कि उन पर मेरी बड़ी श्रद्धा है। पर इस औपनिवेषिक मानस पर आपत्ति है जो अंग्रेज़ी भाषा को ही शिक्षा का पर्याय मान चुका है।

क्या पैंट-शर्ट पहन कर अंग्रेज़ी बोलना प्रगतिशीलता की और धोती या पैजामा पहनते रहना पिछड़ेपन की पहचान है? मैं पिछड़ेपन का समर्थक नहीं हूँ और न ही धोती और पगड़ी पहनते रहने का। लेकिन उस के त्याग भर से ही प्रगति के पावन आगमन की कल्पना कर लेने के चिन्तन से ज़रूर असहमत हूँ। मेरा मानना है कि भाषा या पोशाक बदलने भर से कोई प्रगतिशील नहीं होता और पुराने पोशाक पहनते जाने से ही कोई पिछड़ा नहीं बना रहता।

आखिरी बात ये कि इस विज्ञापन के द्वारा हम सब से यह परोक्ष रूप से स्वीकार कराया जा रहा है कि गाँव में किसी भी तरह की नियोजित शिक्षा असम्भव है। और अगर फोन के आगे बीस बच्चों को बैठ के ए बी सी डी कहलवा दिया जाय तो आप रोमांचित हो कर कह उठिये.. “व्हाट एन आइडिया सर जी!”
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