पिछले दिनो टी वी पर अभिनव भारत के द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों का एक वीडियो चलाया जा रहा है। जिसमें अभियुक्त समीर कुलकर्णी अपने कार्यकर्ताओं के साथ दिखाई पड़ रहे हैं। मालेगाँव बम काण्ड में अभिनव भारत से जुड़े अभियुक्त दोषी हैं या नहीं, ये तो अदालत ही तय करेगी मगर वीडियो देखकर कोई भी ये समझ सकता है कि अभिनव भारत एक अतिवादी संगठन है जो देश के अल्पसंख्यक समुदायों को अपने घोर शत्रु के रूप में चिन्हित करता है। और इस तरह की हिंसक साम्प्रदायिकता अमानवीय है, अधार्मिक है और अक्षम्य है.. मेरे अपने नैतिक मापदण्ड से।
मगर ऐसी साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अभियुक्तों के प्रति भी देश की पुलिस का पाशविक व्यवहार किस क़ानून और नीति की दृष्टि से जाइज़ है, मैं नहीं समझ सकता। अभियुक्तों ने पुलिस पर यातना की कई आरोप लगाये हैं ।
#साध्वी प्रज्ञा सिंह ने उन्हे हिरासत में जबरन अश्लील सीडी दिखा कर पूछताछ करने, एटीएस पर गाली गलौज की भाषा में बात करने और रात में दो बजे नींद से उठाकर धमकियां देने (उनके कपड़े उतारने की भी) समेत कई सनसनीखेज आरोप लगाए हैं। इसके पहले वे अपने हलफ़नामें में पुलिस पर पहले ही आरोप लगा चुकी हैं कि पुलिस ने उन्हे उनके ही शिष्य के हाथों से पिटवाया।
#लेफ्टीनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित ने आरोप लगाया कि एटीएस अधिकारी उनके घर में आरडीएक्स रखकर उनके परिजनों को फंसाने और उनकी पत्नी को नंगा कर के घुमाने और फिर उसका बलात्कार करवाने की की धमकी देते हैं। अन्य आरोपियों ने भी शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं देने के आरोप लगाए।
#रिटायर्ड मेजर उपाध्याय ने आरोप लगाया कि डी आई जी सुखविन्दर सिंह ने उनसे कहा कि मेजर उपाध्याय की माँ गाँव के सारे मर्दों के साथ सोती थी और उन्हे धमकाया कि उनकी बेटी का बलात्कार कर दिया जाएगा और बेटे को नशीली दवाईयों के केस में फँसा दिया जाएगा।
भाजपा, विहिप समेत देश का तमाम हिन्दू जनमानस पुलिस के इस व्यवहार से अपार कष्ट में है। मैं भी इस से अछूता नहीं। पुलिस के ऐसे व्यवहार के क्या कारण है ठीक-ठीक कहना तो मुश्किल है पर मेरा अनुमान है कि अपनी असली धर्म—निरपेक्षता साबित करने का ये कांग्रेसी तरीक़ा है। बाटला हाउस इनकाउन्टर से पुलिस की विश्वसनीयता पर उठ खड़े सवालों को बराबर करने के लिए ‘हिन्दू आतंक’ को घेरा जा रहा है। ये काम बिना इस तरह की यातनाओं के भी सम्भव था लेकिन मुश्किल दूसरी है.. सिर्फ़ आतंक का ही संतुलन नहीं .. यातना का भी संतुलन होना चाहिये।
१९९३ के मुम्बई सीरियल बम धमाको के अभियुक्तों के पुलिस के साथ अनुभव कैसे रहे .. ज़रा मुलाहिज़ा फ़रमाइये.. .
#टौंक के नवाबी खानदान से ताल्लुक़ रखने वाले सलीम दुर्रानी के सर को टॉयलेट सीट में घुसा के उन्हे विष्ठा खाने के लिए मजबूर किया गया।
#अभियुक्त माजिद खान की बीवी नफ़ीसा को दो महीने तक कपड़े बदलने की इजाज़त नहीं दी गई और उसे मासिक धर्म से सने हुए खून के कपड़ों को पहने रखने के लिए मजबूर किया गया।
#अभियुक्तों के लिए पानी दुर्लभ था और कई स्त्रियों को प्यास से आक्रांत हो कर अपनी पेशाब पीनी पड़ी।
#अभियुक्तों के मुँह में चप्पल घुसेड़ना एक आम बात थी।
#अभियुक्त और उनके रिश्तेदारों के गुप्तांगों में लाल मिर्च लगाना पुलिस की यातना का एक सामान्य हिस्सा होता था। इस के चलते कई अभियुक्तों को जीवन भर के लिए बवासीर हो गई।
#यातना के तमाम तरीक़ो में अभियुक्तों के गुप्तांगो पर बिजली के झटके देना भी शामिल रहता।
#पुलिस, अभियुक्त के परिवार के सदस्यों को एक दूसरे को चप्पल और बेल्ट से पीटने के लिए मजबूर करती।
#गर्भवती शबाना को नंगा कर के अपने पिता को चप्पल से पीटने के लिए मजबूर किया गया।
# Young naked Manzoor Ahmad was told to insert his penis into the mouth of Zaibunnisa Kazi, a woman of his mother's age.
#Najma (the sister of Shahnawaz Querishi, an accused) was forced to fondle her father's penis and eat his shit too.
(इस व्यवहार को हिन्दी में लिखने में भी मुझे शर्म महसूस हो रही है)
#बान्द्रा के स्टमक रेस्तरां के मालिक राजकुमार खुराना को पुलिस ने सीरियल बम धमाकों के बारे में पूछताछ करने के लिए बुलाया और उसे ऐसी यातनाओं को दिखाया और धमकाया कि ये उसके साथ भी हो सकता है। खुराना इतना डर गए कि घर जा कर उसने अपने बीबी-बच्चों को मार कर, खुद को भी गोली मार ली।
ये वो चन्द घटनाएं है जो इस तरह की यन्त्रणाओं की एक लम्बी सूची से ली गई हैं जिसे इतिहासकार अमरेश मिश्र ने अपने एक शोधपत्र में तैयार किया है। खेद की बात ये है कि इस शोध पर आधारित लेखों को उन्होने कई पत्र-पत्रिकाओं में भेजा मगर कोई छापने के लिए तैयार नहीं हुआ।
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मंगलवार, 25 नवंबर 2008
शनिवार, 15 नवंबर 2008
न्याय का आतंक
पिछले दो हफ़्तो में जिस तरह से हिन्दू साधु और साध्वी आतंकवाद के सिलसिले में पकड़े गए हैं उसे लेकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मैं जानता हूँ कि मेरी ही तरह तमाम अन्य मित्र भी ऐसा महसूस कर रहे हैं। ये ऐसा मामला है कि बुरा लगना स्वाभाविक है.. आप की आस्थाएं जहाँ से जुड़ती हों उस इमारत के कुछ लोग यदि गम्भीर आरोपों के घेरे में आ जायं तो धक्का तो लगता है। खासकर और, जब वही आरोप हम दूसरे समुदाय के लोगों पर लगाते रहे हों।
अपने हिन्दू समुदाय के लोगों को मेरा मशवरा हैं कि वे बौखलाए नहीं, संयम से काम लें। यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा।
लेकिन अगर आप मानते हैं कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय सरकार, और पुलिस के साथ-साथ न्याय-प्रणाली भी शामिल है तो इस पर गु़स्सा नहीं अफ़सोस करने की ज़रूरत है कि हमारे देश के बहु-संख्यक हिन्दू जन अपने ही धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में खुशी-खुशी सहयोग कर रहे हैं? और जिस समाज के इतने सारे पहलू इस हद तक सड़-गल गए हों उसके साधु-संत और महन्त बन कर घूमने वाले लोग क्या निष्पाप होंगे?
आम तौर पर माना जाता है कि धर्म की भूमिका मनुष्य और ईश्वर के बीच एक स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित करने की है। पर यह सच नहीं है.. असल में दुनिया के अधिकतर धर्म अपने स्वभाव में आध्यात्मिक से अधिक सामाजिक हैं। इस भूमिका के सन्दर्भ में एक छोर पर इस्लाम जैसा धर्म है जो सामाजिक जीवन के बारे में सब कुछ परिभाषित करने का प्रयास करता है तो दूसरे छोर पर बौद्धों और जैनों की श्रमण परम्परा जो समाज को त्याग देने में ही धर्म का मूल समझते थे।
इन दो छोरों के बीच हिन्दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय जो अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग भूमिका निभाते रहे हैं। आप को हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले साधकों की परम्परा भी मिलेगी, शुद्ध पारिवारिक जीवन जीने और तिथि-वार के अनुष्ठानों से दैनिक जीवन को अर्थवान करने वाली वैष्णव परम्परा भी है, घोर अनैतिक समझे जाने वाले वामाचारी तांत्रिक भी हैं, और अपने सम्प्रदाय के हितों के लिए हथियार ले कर युद्ध करने वाले अखाड़ों के सन्यासी भी हैं।
अपने धर्म के सामाजिक पहलू के पोषण के लिए इस्लाम में एक लम्बी परम्परा रही है जिसे लोकप्रिय रूप से जेहाद का नाम दिया जाता रहा है। ईसाईयत ने भी अपनी धर्म-स्थानों पर क़ब्ज़े के लिए चार-पाँच सौ साल तक क्रूसेड्स का सिलसिला जारी रखा। इसके अलावा ईसाईयों में पेगन्स के खिलाफ़ हिंसक गतिविधियों में भी उनके भीतर वैसा ही उत्साह जगाया जाता रहा जैसे कि इस्लाम में समय-समय पर क़ाफ़िरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम होता रहा है।
सनातन धर्म भी इस तरह की सामाजिक हिंसा से अछूता नहीं रहा है। शैव-वैष्णव संघर्ष, बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष का स्वरूप भी बेहद क्रूर और हिंसक रहा है। पुष्यमित्र का अपने ही राजा बृहद्रथ की हत्या कर राज्य हथियाने के पीछे एकमात्र कारण बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष ही था। फिर गुरु नानक जैसे परम ज्ञानी की सिख परम्परा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य रूप लेना पड़ा (हालांकि विडम्बना ये है सैन्य रूप लेते ही नानक की परम्परा का अस्तित्व गहरे तौर पर बदल गया)।
धर्म के नाम पर होने वाली इस तरह की सारी सामाजिक हिंसा को करने वाले लोग किसी प्रकार के नैतिक दुविधा का सामना नहीं करते क्योंकि वे इस हिंसा का हेतु सीधे अपनी आस्था और नैतिकता के स्रोत अपने धर्म से ग्रहण करते हैं। वे राज्य की न्याय-व्यवस्था से इतर और उससे स्वतंत्र एक न्याय-प्रणाली में विश्वास करते हैं।
किसी ने अपराध किया या नहीं इसका फ़ैसला वो किसी नौकरीपेशा न्यायाधीश पर नहीं छोड़ते, खुद करते हैं। और उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ये भी स्वयं ही तय करते हैं और स्वयं ही निष्पन्न भी कर डालते हैं। उनकी अपनी नज़र में वे अपराधी नहीं होते बल्कि उस न्याय—व्यवस्था के रखवाले होते हैं जिस पर उनका पक्का यक़ीन है।
तमिलो के हितों की लड़ाई लड़ने वाला प्रभाकरन भी अपनी नज़र में न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। भूमिहीन किसानों के हितों के लिए हथियार बन्द संघर्ष करने वाले नक्सली भी न्याय के पक्ष में खड़े हैं। ओसामा बिन लादेन और अफ़ज़ल गुरु भी इंसाफ़ के सिपाही हैं। और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे पर भी यही आरोप है कि उन्होने क़ानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है।
राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक वो अपने द्वारा परिभाषित क़ानून को लागू करा सके। इसके लिए ऐसे सभी लोग जो न्यायप्रणाली में दखल देने की कोशिश करते हैं उन्हे राज्य, अपराधी की श्रेणी में रखता है। मगर राज्य चाह कर भी अपनी न्याय की परिभाषा को हर व्यक्ति के भीतर के न्याय बोध पर लागू नहीं कर पाता।
अब जैसे साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे के मामले में ही लोगों ने अपने-अपने न्याय-बोध से फ़ैसले कर लिए हैं। कुछ लोग तो अवधेशानन्द तक को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं। और कुछ लोग आरोपियों के अपराधी साबित हो जाने पर भी उन्हे अपराधी नहीं स्वीकार करेंगे.. क्योंकि उनके न्यायबोध से उन्होने किसी को मार कर कोई अपराध नहीं किया। ऐसे न्याय-बोध के प्रति क्या कहा जाय?
फ़िलहाल मामला अदालत में है और अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है। वैसे तो आधुनिक क़ानून यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है तब तक उसका जुर्म साबित नहीं हो जाता। मगर आजकल इसका उलट पाया जाता है। जैसे परसों ही मैंने कांगेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन को टीवी पर बोलते सुना कि let them prove their innocence.. । मेरा ख्याल था कि आप अदालत में जुर्म साबित करने की कोशिश करते हैं.. मासूमियत नहीं।
मज़े की बात ये है कि उस पैनल डिसकशन में मौजूद विहिप के लोगों ने भी इस बयान पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। क्योंकि इस बात पर तो वे खुद भी आज तक विश्वास करते आए हैं और इस समझ की पैरवी करते आए हैं। तभी तो एक बड़ा तबक़ा आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने वाले हर मुस्लिम युवक को अपराधी ही समझता रहा है। यहाँ तक कि कुछ शहरों का अधिवक्ता समुदाय एक स्वर से आरोपी की पैरवी तक करने से इंकार करते रहे हैं और उस मुस्लिम युवक के वक़ील बनने वाले के साथ मारपीट तक करते पाए गए हैं। ये है हमारे समाज का न्यायबोध?
आखिर में साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को आतंकवादी मानने वालों से मैं गुज़ारिश करूँगा कि वे याद कर लें कि आतंकवादे के मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों के विषय में उनकी क्या राय होती थी? जो लोग मालेगाँव जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बम विस्फोट करना न्यायसंगत समझते हैं उनसे कोई क्या कह सकता है? मगर साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को निर्दोष क़रार देने वालें मत भूलें कि गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे।
अपने हिन्दू समुदाय के लोगों को मेरा मशवरा हैं कि वे बौखलाए नहीं, संयम से काम लें। यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा।
लेकिन अगर आप मानते हैं कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय सरकार, और पुलिस के साथ-साथ न्याय-प्रणाली भी शामिल है तो इस पर गु़स्सा नहीं अफ़सोस करने की ज़रूरत है कि हमारे देश के बहु-संख्यक हिन्दू जन अपने ही धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में खुशी-खुशी सहयोग कर रहे हैं? और जिस समाज के इतने सारे पहलू इस हद तक सड़-गल गए हों उसके साधु-संत और महन्त बन कर घूमने वाले लोग क्या निष्पाप होंगे?
आम तौर पर माना जाता है कि धर्म की भूमिका मनुष्य और ईश्वर के बीच एक स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित करने की है। पर यह सच नहीं है.. असल में दुनिया के अधिकतर धर्म अपने स्वभाव में आध्यात्मिक से अधिक सामाजिक हैं। इस भूमिका के सन्दर्भ में एक छोर पर इस्लाम जैसा धर्म है जो सामाजिक जीवन के बारे में सब कुछ परिभाषित करने का प्रयास करता है तो दूसरे छोर पर बौद्धों और जैनों की श्रमण परम्परा जो समाज को त्याग देने में ही धर्म का मूल समझते थे।
इन दो छोरों के बीच हिन्दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय जो अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग भूमिका निभाते रहे हैं। आप को हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले साधकों की परम्परा भी मिलेगी, शुद्ध पारिवारिक जीवन जीने और तिथि-वार के अनुष्ठानों से दैनिक जीवन को अर्थवान करने वाली वैष्णव परम्परा भी है, घोर अनैतिक समझे जाने वाले वामाचारी तांत्रिक भी हैं, और अपने सम्प्रदाय के हितों के लिए हथियार ले कर युद्ध करने वाले अखाड़ों के सन्यासी भी हैं।
अपने धर्म के सामाजिक पहलू के पोषण के लिए इस्लाम में एक लम्बी परम्परा रही है जिसे लोकप्रिय रूप से जेहाद का नाम दिया जाता रहा है। ईसाईयत ने भी अपनी धर्म-स्थानों पर क़ब्ज़े के लिए चार-पाँच सौ साल तक क्रूसेड्स का सिलसिला जारी रखा। इसके अलावा ईसाईयों में पेगन्स के खिलाफ़ हिंसक गतिविधियों में भी उनके भीतर वैसा ही उत्साह जगाया जाता रहा जैसे कि इस्लाम में समय-समय पर क़ाफ़िरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम होता रहा है।
सनातन धर्म भी इस तरह की सामाजिक हिंसा से अछूता नहीं रहा है। शैव-वैष्णव संघर्ष, बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष का स्वरूप भी बेहद क्रूर और हिंसक रहा है। पुष्यमित्र का अपने ही राजा बृहद्रथ की हत्या कर राज्य हथियाने के पीछे एकमात्र कारण बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष ही था। फिर गुरु नानक जैसे परम ज्ञानी की सिख परम्परा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य रूप लेना पड़ा (हालांकि विडम्बना ये है सैन्य रूप लेते ही नानक की परम्परा का अस्तित्व गहरे तौर पर बदल गया)।
धर्म के नाम पर होने वाली इस तरह की सारी सामाजिक हिंसा को करने वाले लोग किसी प्रकार के नैतिक दुविधा का सामना नहीं करते क्योंकि वे इस हिंसा का हेतु सीधे अपनी आस्था और नैतिकता के स्रोत अपने धर्म से ग्रहण करते हैं। वे राज्य की न्याय-व्यवस्था से इतर और उससे स्वतंत्र एक न्याय-प्रणाली में विश्वास करते हैं।
किसी ने अपराध किया या नहीं इसका फ़ैसला वो किसी नौकरीपेशा न्यायाधीश पर नहीं छोड़ते, खुद करते हैं। और उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ये भी स्वयं ही तय करते हैं और स्वयं ही निष्पन्न भी कर डालते हैं। उनकी अपनी नज़र में वे अपराधी नहीं होते बल्कि उस न्याय—व्यवस्था के रखवाले होते हैं जिस पर उनका पक्का यक़ीन है।
तमिलो के हितों की लड़ाई लड़ने वाला प्रभाकरन भी अपनी नज़र में न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। भूमिहीन किसानों के हितों के लिए हथियार बन्द संघर्ष करने वाले नक्सली भी न्याय के पक्ष में खड़े हैं। ओसामा बिन लादेन और अफ़ज़ल गुरु भी इंसाफ़ के सिपाही हैं। और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे पर भी यही आरोप है कि उन्होने क़ानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है।
राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक वो अपने द्वारा परिभाषित क़ानून को लागू करा सके। इसके लिए ऐसे सभी लोग जो न्यायप्रणाली में दखल देने की कोशिश करते हैं उन्हे राज्य, अपराधी की श्रेणी में रखता है। मगर राज्य चाह कर भी अपनी न्याय की परिभाषा को हर व्यक्ति के भीतर के न्याय बोध पर लागू नहीं कर पाता।
अब जैसे साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे के मामले में ही लोगों ने अपने-अपने न्याय-बोध से फ़ैसले कर लिए हैं। कुछ लोग तो अवधेशानन्द तक को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं। और कुछ लोग आरोपियों के अपराधी साबित हो जाने पर भी उन्हे अपराधी नहीं स्वीकार करेंगे.. क्योंकि उनके न्यायबोध से उन्होने किसी को मार कर कोई अपराध नहीं किया। ऐसे न्याय-बोध के प्रति क्या कहा जाय?
फ़िलहाल मामला अदालत में है और अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है। वैसे तो आधुनिक क़ानून यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है तब तक उसका जुर्म साबित नहीं हो जाता। मगर आजकल इसका उलट पाया जाता है। जैसे परसों ही मैंने कांगेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन को टीवी पर बोलते सुना कि let them prove their innocence.. । मेरा ख्याल था कि आप अदालत में जुर्म साबित करने की कोशिश करते हैं.. मासूमियत नहीं।
मज़े की बात ये है कि उस पैनल डिसकशन में मौजूद विहिप के लोगों ने भी इस बयान पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। क्योंकि इस बात पर तो वे खुद भी आज तक विश्वास करते आए हैं और इस समझ की पैरवी करते आए हैं। तभी तो एक बड़ा तबक़ा आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने वाले हर मुस्लिम युवक को अपराधी ही समझता रहा है। यहाँ तक कि कुछ शहरों का अधिवक्ता समुदाय एक स्वर से आरोपी की पैरवी तक करने से इंकार करते रहे हैं और उस मुस्लिम युवक के वक़ील बनने वाले के साथ मारपीट तक करते पाए गए हैं। ये है हमारे समाज का न्यायबोध?
आखिर में साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को आतंकवादी मानने वालों से मैं गुज़ारिश करूँगा कि वे याद कर लें कि आतंकवादे के मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों के विषय में उनकी क्या राय होती थी? जो लोग मालेगाँव जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बम विस्फोट करना न्यायसंगत समझते हैं उनसे कोई क्या कह सकता है? मगर साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को निर्दोष क़रार देने वालें मत भूलें कि गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे।
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