दुनिया के तीन प्रमुख धर्मों से सम्बन्धित यह पोस्ट, असल में बज़ पर मुनीश शर्मा के इसरार पर टिप्पणी के रूप में लिखी गई थी जो अब सतीश पंचम के इसरार पर यहाँ डाल दी गई है।
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
इब्राहिम से तीन धर्म
दुनिया के तीन प्रमुख धर्मों से सम्बन्धित यह पोस्ट, असल में बज़ पर मुनीश शर्मा के इसरार पर टिप्पणी के रूप में लिखी गई थी जो अब सतीश पंचम के इसरार पर यहाँ डाल दी गई है।
रविवार, 10 अगस्त 2008
कोई उम्मीद बर नहीं आती
फ़िलीस्तीन एक तरह से दुनिया का केंद्र है; तीन महाद्वीप की नाड़ियाँ वहाँ से गुज़रती हैं। धर्म, संस्कृति और सभ्यता के प्राचीनतम सूत्र इस जगह से जुड़े हैं और मगर आज वही स्थान विश्व के सबसे घिनौने साम्प्रदायिक संघर्ष की ज़मीन में तब्दील हो गया है।
इस में जो दो पक्ष दिखाए दे रहे हैं उनके अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जो गंगा-यमुना के संगम में सरस्वती की तरह विलुप्त है। मेरा आशय उस योरोपीय कट्टर ईसाई मानस से है जिसकी प्रताड़ना से दग्ध हो कर यहूदी, मुसलमान अरबों के साथ आज इस संघर्ष में लथपथ हुए पड़े हैं। संगम की महिमा पापमोचन में हैं पर ये संगम पाप और प्रतिशोध का दलदल बन चुका है।
अभी तक आप ने इस श्रंखला की तीन कड़िया पढ़ी.. आज अन्तिम कड़ी..
अराफ़ात एक महानायक
1948 में इज़राईल की स्थापना के बाद बिखर आठ लाख शरणार्थियों में जो तमाम तरह की छोटी-छोटी राजनैतिक प्रतिक्रियाएं और अभिव्यक्तियाँ हुई उनमें से एक फ़तह नाम का संगठन भी था जो कुवैत में पढ़ने वाले फ़िलीस्तीनी विद्यार्थियों के बीच १९५९-६० में अस्तित्व में आया। फ़तह का उद्देश्य इज़राईल का विनाश और फ़िलीस्तीन की आज़ादी था। इसकी अगुआई कर रहे थे यासिर अराफ़त, जो वहाँ इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल कर रहे थे। अराफ़ात पहले ऐसा नेता थे जिन्होने फ़तह को अन्य फ़िलीस्तीनी गुटों/संगठनो की तरह किसी भी अरब देश का पिछलग्गू बनने से इंकार कर दिया और फ़िलीस्तीन की मुक्ति को खास फ़िलीस्तीनी संदर्भ में देखा, आम अरब संदर्भ में नहीं। उनसे ही फ़िलीस्तीनी राष्ट्रवाद की शुरुआत होती है और फ़िलीस्तीनी राष्ट्र निर्माण की भी। यहाँ तक कि आरम्भ में उन्होने इन देशों से आर्थिक सहयोग तक लेने से इंकार कर दिया ताकि उन पर किसी तरह का दबाव न रहे। कुवैत के बाद अराफ़ात ने पहले सीरिया और फिर जोर्डन को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया।
१९६४ में फ़िलीस्तीन मुक्ति संगठन (पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन) पी एल ओ की स्थापना हुई और १९६७ में इज़राईल के साथ अरब देशों की छै दिन की जंग। इस जंग के नतीज से लाखों फ़िलीस्तीनी एक बार फिर से शरणार्थी हुए और जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर इज़राईल का क़ब्ज़ा हो जाने से पूर्वी किनारे पर जोर्डन देश में बड़ी संख्या में तम्बुओ में आबाद हुए। इन्ही शरणार्थी कैम्पो में से एक करामह की लड़ाई लड़ी गई जिसने यासिर अराफ़ात को एक महानायक का दरजा दे दिया।
करामह की लड़ाई
फ़तह के लड़ाके इज़राईली सीमा पार कर के उनके ठिकानों पर हमला करने की नीति अपना कर एक छोटे स्तर का गुरिल्ला युद्ध छेड़े हुए थे, जिसमें कभी कदार एक-दो सैनिकों की क्षति हो जाती, मगर इज़राईल अपने रौद्र रूप और कठोर छवि को ज़रा भी कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहता था। १९६८ में करामह कैम्प से किए गए एक फ़िदायीन हमले के जवाब में इज़राईल की सेना पूरे दल-बल के साथ जोर्डन की सीमा में गुस आई और कैम्प पर हमला कर दिया। अराफ़ात ने एक नीति के तहत फ़िलीस्तीनियों को पीछे नहीं हटने दिया। आखिरकार मामले के बहुत अधिक विराट रूप ले लेने से डरकर इज़राईल की सेना स्वयं पीछे हट गई।
हालांकि इस लड़ाई में १५० फ़िलीस्तीनी व २५ जोर्डनी सैनिक मारे गए और दूसरी तरफ़ कुल २८ इज़राईली। मगर इज़राईल की सेना का पीछे हटना अरब जन में एक अद्भुत जीत की तरह देखा गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी अरब ने इज़राईल की सेना का डट कर मुक़ाबला किया था और उसे मुँहतोड़ जवाब दिया था। करामह की लड़ाई के बाद अराफ़ात का क़द अरबों के बीच बहुत ऊँचा हो गया । इसी जीत के प्रभाव का नतीजा था कि अराफ़ात को पीएल ओ का अध्यक्ष चुन लिया गया।
जोर्डन में संघर्ष
अराफ़ात की इस अप्रत्याशित लोकप्रियता से जोर्डन देश के भीतर सत्ता के दो केन्द्र हो गए। किंग हुसेन मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार से थे और वैधानिक रूप से देश के राजा थे मगर अरबों के बीच लोकप्रिय समर्थन अराफ़ात और पी एल ओ के लिए बढ़ता ही जा रहा था। जैसा कि आप को मैंने पहले बताया था कि जोर्डन भी पूरी तरह से एक कृत्रिम देश जो पहले विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया क्योंकि अंग्रेज़ हाशमी परिवार की वफ़ादारी का ईनाम देना चाहते थे। वादा तो एक पूरे अरब राष्ट्र का था पर भागते भूत की लंगोटी भली जानकर, किंग हुसेन के दादा अब्दुल्ला ने वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।
तो किंग हुसेन अरबों के बीच फ़िलीस्तीन को लेकर जो लोकप्रिय जज़्बात थे उनको समझते थे इसीलिए किंग हुसेन ने बहुत कोशिश की मामला सुलझ जाए; यहाँ तक कि उन्होने अराफ़ात के सामने जोर्डन के प्रधान मंत्री पद को सम्हालने का भी प्रस्ताव रखा मगर अराफ़ात फ़िलीस्तीनी मक़्सद के लिए प्रतिबद्ध थे; वे तैयार नहीं हुए।
१९७१ में आखिरकार दोनों पक्षों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अन्य अरब देशों ने किसी तरह बीच-बचाव करके युद्ध विराम कराया गया पर तब तक ३५०० फ़िलीस्तीनी मारे जा चुके थे। फिर भी छिट-पुट घटनाएं होती रहीं। और हालात तब बिगड़ गए जब एक रोज़ अराफ़ात ने हुसेन के सत्ता पलट का इरादा कर लिया और किंग हुसेन पर हमला हो गया। अब समझौता नामुमकिन था और अराफ़ात और उनके लड़ाकों को जोर्डन छोड़ना पड़ा। पचीस साल पहले विस्थापित लोग फिर एक बार अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर लेबनान की शरण में चले गए।
लेबनान
लेबनान आकर अराफ़ात को अपने गतिविधियों के लिए वो आज़ादी मिल गई जो जोर्डन में उपलब्ध नहीं हो पा रही थी क्योंकि लेबनान की सरकार की सत्ता कमज़ोर थी और वहाँ पर पी एल ओ एक स्वतंत्र राज्य की हैसियत से काम करने लगा। इज़राईल के भीतर और बाहर यहूदी सत्ता और यहूदी जनता पर हमले कर के उस पर दबाव बनाना उसकी नीति के अन्तर्गत था। पी एल ओ में अराफ़त के फ़तह के अलावा भी कई दल शामिल थे। उनके नरम से लेकर चरम तक के सब रंग थे और सब पर अराफ़ात का नियंत्रण था भी नहीं।
१९७० से १९८० के बीच लेबनान को केन्द्र बनाकर पीएल ओ के वृहद छाते के नीचे से तमाम तरह की हिंसक गतिविधियाँ की गई जैसे प्लेन हाईजैक, फ़िदायीन हमले, बंधक बनाना आदि। हथगोले, फ़्रिज बम, कार बम आदि का इस्तेमाल करके इज़राईलियों के खिलाफ़ आतंकवादी घटनाएं होती रही। कुछ ऐसी भी थीं जिसमें मासूम बच्चों को निशाना बनाया गया। इन सब में सब से कुख्यात और दुखद घटना रही म्यूनिक ओलम्पिक में की गई ८ इज़राईली खिलाड़ियों की हत्या। जिसका बदला लेने के लिए इज़राईल ने भी एक ग़ैर क़ानूनी पेशेवर हत्यारे का तरीक़ा अपनाया (देखिये स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म म्यूनिक)। इज़राईली कमान्डोज़ ने म्यूनिक हत्याकाण्ड के लिए जितने भी लोग ज़िम्मेदार थे, उन सब को चुन-चुन कर मारा।
इज़राईल का जवाब
१९७८ में एक १८ बरस की फ़िलीस्तीनी लड़की के अगुआई में ११ अन्य फ़तह के सद्स्यों द्वारा अंजाम दिए गए एक कोस्टल रोड मैसेकर में ३७ इज़राइली मारे गए। इस आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए इज़राईल ने फ़िलीस्तीनी गुरिल्लो को लेबनान की अन्दर बहने वाली लिटानी नदी के उत्तर तक धकेलने के इरादे से हमला कर दिया। एक हफ़्ते तक चली इस कार्रवाई में २००० ग़ैर फ़ौजी लेबनीज़ मारे गए और २,८५,००० अपने घरों से उजड़ गए। फ़िलीस्तीनी लड़ाकों का कुछ ज़्यादा नुक़्सान नहीं हुआ।
बड़ी संख्या में फ़िलीस्तीनियों के आ जाने से लेबनान की आन्तरिक राजनीति में उथल-पुथल मच गई थी। लेबनान के ईसाई समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच फ़िलीस्तीनियों को लेकर एक गहरा मतभेद घर कर गया था। जिसके चलते पी एल ओ, लेबनीज़ ईसाई संगठन और इज़राईल के बीच हिंसक झड़पे आम हो चली थीं। सीरिया का भी इस खेल में दखल बराबर बना रहा।
१९८२ में अपने एक राजदूत के हत्या के प्रयास के बदले में इज़राईल ने लेबनान पर हमला कर दिया और उसे नाम दिया ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली। लेबनान में भी तमाम समुदायों के बीच संघर्ष ने एक गृह-युद्ध का रूप ले लिया और इज़राईल ने भी मौके का फ़ायदा उठाकर हमला कर दिया। ये हमला मुख्य रूप से पी एल ओ और फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ने के मक़सद से किया गया था जिसमें वो कामयाब भी हो गए। इस लड़ाई के अन्तिम चरण में जब फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ दिया गया था तब इज़राईल के सरंक्षण में लेबनीज़ ईसाई संगठन फ़लन्जिस्ट ने निहत्थे फ़िलीस्तीनियों के शरणार्थी कैम्प पर एक हमला किया जिसमें मरने वालों की संख्या एक हज़ार से चार हज़ार तक अनुमानित की जाती है। इस ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली में निहत्थे फ़िलीस्तीनियों का जनसंहार प्रच्छन्न था।
फ़िलीस्तीनियों और पी एल ओ के पाँव लेबनान से भी उखड़ गए और अधिकतर फ़िलीस्तीनियों ने इस बार सीरिया में शरण ली और अराफ़ात को अपना पी एल ओ का दफ़्तर दूर ट्यूनिशाई शहर ट्यूनिस ले जाना पड़ा। अराफ़ात का फिर कभी लेबनान लौटना नहीं हुआ।
ओस्लो क़रार
फ़िलीस्तीन से इतना दूर जाकर अराफ़ात की हिम्मत जैसे टूटने लगी और जवानी के वो उत्साही दिन भी नहीं रहे। इज़राईल को नक़्शे से मिटाना हर आने वाले दिन और भी अधिक असम्भव दिखता जा रहा था। और दूसरी इज़राईल भी अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी के बदले कुछ रियायत देने को तैयार होने का मन बनाने लगा था। अराफ़ात का इस नए बदलाव से कोई सम्पर्क नहीं था। उनकी अपनी हालत युधिष्ठिर जैसी होती जा रही थी जो पूरे राज्य की जगह अपने लोगों के लिए पाँच गाँवों पर भी समझौता करने को तैयार हो सकते थे। शायद ऐसी ही किसी हताशा या विकसित चिन्तन के तहत उन्होने समझौते का रास्ता अख्तियार किया।
नवम्बर १९८८ में उन्होने एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन राज्य की स्थापना की उद्घोषणा की और दूसरी तरफ़ अगले ही महीन संयुक्त राज्य में लगातार बढ़ते अन्तराष्ट्रीय दबाव में आकर आतंकवाद की भर्त्सना की। इस भर्त्सना के चलते दबाव अब अराफ़ात से हटकर इज़राईल पर आ गया जिसने पी एल ओ से कभी बात न करने का रुख हमेशा से ही बना कर रखा हुआ था। इसलिए एक स्थायी हल और शांति बहाल करने के लिए पी एल ओ के साथ बैक चैनल संवाद शुरु हुआ, ओस्लो में।
तीन साल तक चले इसी संवाद की बुनियाद पर १९९३ में इज़राईल और फ़िलीस्तीन के बीच ऐतिहासिक समझौता, वाशिंगटन में हो गया। फ़िलीस्तीन ने अपनी तरफ़ इज़राईल के विनाश का मक़सद अपने चार्टर से हटा दिया और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। बदले में इज़राईल गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के कुछ भाग का प्रशासन व प्रबन्धन फ़िलस्तीनियों को सौंपने को तैयार हो गया। यह प्रक्रिया पाँच बरस में पूरी होनी थी लेकिन इज़राईल ने सारे अधिकारों को निर्दयता से भींचे रखा और बराबर नियंत्रण अपनी मुट्ठी में क़ैद किए रहा। १९९४ में यासिर अराफ़ात और इज़राईली प्रधान मंत्री यित्ज़ाक राबिन और विदेश मंत्री शिमोन पेरेज़ को नोबेल शांति पुरुस्कार से नवाज़ा गया पर शांति कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रही आज तक। और आज भी इज़राईल की दमनकारी नीति और नियंत्रण जारी है।
इस समझौते के दो बरस बाद ही यित्ज़ाक राबिन की यहूदी दक्षिणपंथियों ने हत्या कर दी। इसके पहले सुलह का रास्ता अपनाने मिस्र के राष्ट्र्पति अनवर सादात की हत्या मुस्लिम दक्षिणपंथियों द्वारा कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि उन्हे भी नोबेल शांति पुरुस्कार मिला था।
सेटलर्स
१९४८ के नकबे के दौरान फ़िलीस्तीनी अरबों दसे खाली कराए गए गाँवों, क़स्बों और शहरों में योरोप और दुनिया के अन्य देशों से आए यहूदियों को बसा दिया गया। इन्हे सेटलर(settler) कहा गया। १९६७ की छै दिन की जंग के बाद जब इज़राईल के के हाथ काफ़ी बड़ा भू-भाग आ गया तो उस ने गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और सिनाई क्षेत्र पर और भी सेटलर्स को बसाना शुरु कर दिया। ये सारे क्षेत्र सयुंक्त राष्ट्र के बँटवारे के मुताबिक भी उसके लिए अवैध थे, मगर उस की धृष्टता देखिये कि १९७८ में मिस्र के हुए समझौते के बाद सिनाई तो उसे लौटा दिया मगर गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक को इज़राईल का अभिन्न अंग घोषित कर दिया।
गाज़ा और वेस्ट बैंक में बचे रह गए फ़िलीस्तीनी अरबों का सीधा संघर्ष इन सेटलर्स के साथ होता। इज़राईल नए आए यहूदियों को अपने सीमांत पर बसा कर दो मक़सद पूरे करता रहा। एक वो नए ज़मीन पर यहूदियों को बसा कर उन्हे फ़िलीस्तीनियों को वापसी की उम्मीद और क्षीण करता है और दूसरे फ़िलीस्तीनियों को दबाने का काम इन नए आए हथियारबन्द यहूदियों को सौंप कर अपना काम आसान करता है। नए लोग फ़िलीस्तीनियों को दमन एक पाशविक वृत्ति के तहत करते हैं क्योंकि उन के अस्तित्व के लिए यही उनसे अपेक्षित होता है। उस ज़मीन पर या तो सेटलर रह सकते हैं या फ़िलीस्तीनी।
आज भी फ़िलीस्तीनियों और इज़राईलियों के बीच लड़ाई का बड़ा मसला ये सेटलर्स हैं। सेटलर्स और फ़िलीस्तीनी नागरिकों के बीच होने वाले इस संघर्ष में सेटलर्स खुद पुलिस और प्रशासन की भूमिका में रहते हैं।
फ़िलीस्तीनियों अपने रोज़गार-व्यापार के लिए भी पूरी तरह से इज़राईल पर ही निर्भर हैं। रोज़गार के अवसर कम और सीमित हैं, और व्यापार पर अनेको बन्दिशें। वास्तव में इज़राईली शासन में फ़िलीस्तीनी एक प्रकार के विशाल कारागार में ही बन्द कर के रखे गए हैं। जगह-जगह चेक पोस्ट खड़ी कर के लोगों के भीतर लगातार एक अंकुश बनाए रखना, आधी रात को घर में घुसकर तलाशी लेना, अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ करके बिना मुक़दमे लम्बे समय तक क़ैद में रखना, फ़र्जी एनकाउन्टर करना, छोटी सी बुनियाद पर लोगों के घरों का गिरा देना आदि इज़राईली प्रशासन का फ़िलीस्तीनियों के प्रति किया जाने वाला आम रवैया है। आज कल सेटलर्स ने फ़िलीस्तीनियों को परेशान करने की एक नई नीति निकाली है- फ़िलीस्तीनियों के घरों में बड़े-बड़े चूहो के झुण्ड छोड़ देना।
इन्तिफ़ादा
१९८८ में जब अराफ़ात आतंकवाद से तौबा करने की सोच रहे थे। उधर फ़िलीस्तीन में लम्बी निराशा और असहायता के लम्बे दौर की अभिव्यक्ति एक अजब बेचैनी में हो रही थी। नई पीढ़ी एक अजब दुस्साहस लेकर पैदा हो रही थी। गाज़ा में १९८७ में इज़राईली सेना के एक ट्रक से कुचलकर चार फ़िलीस्तीनियों की मौत हो गई। इस की प्रतिक्रिया में फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने पत्थर हाथ में उठा लिए और उसे अपने आक्रोश का हथियार बना कर इज़राईली सेना की तरफ़ फेंकने लगे।
छोटे-छोटे बच्चे जो न गोली से डरते और न टैंक से, कुछ तो पाँच बरस की उमर के। अपमान और दमन की ज़िन्दगी की मजबूरी को परे कर लड़ कर जीने की जज़बा पैदा कर लिया उन्होने। फ़िलीस्तीनी नौजवान के प्रतिरोध को इन्तिफ़ादा के नाम से जाना गया। इन्तिफ़ादा यानी डाँवाडोल के दौरान सिर्फ़ पत्थर ही नहीं चले। फ़िलीस्तीनी लड़के खुदकुश बमबाज़ भी बने, हथियारबन्द दस्तों से कार्रवाईयाँ भी की गईं, और इज़राईली इलाक़ों की तरफ़ रॉकेट भी दाग़े गए।
ये डाँवाडोल छै साल तक चलता रहा। हमास की निन्दा तो हुई मगर उस से अधिक दुनिया भर में इज़राईल के लिए निहायत शर्म का मसला बना। पहले इन्तिफ़ादा के दौरान ४२२ इज़राईली मारे गए और ११०० फ़िलीस्तीनी इज़राईलियों के हाथों मारे गए, जिसमें १५० के लगभग की उमर १६ बरस से भी कम थी। साथ-साथ लगभग १००० फ़िलीस्तीनी अपने ही लोगों के हाथों मारे गए। इनके बारे में शक़ था कि ये गद्दार हैं और इज़रालियों ले किए जासूसी करते हैं।
२००० में वेस्ट बैंक में अल अक़्सा मस्जिद को लेकर दूसरा इन्तिफ़ादा शुरु हुआ और फिर वही हिंसा चालू हो गई।
हमास
१९८७ में इन्तिफ़ादा के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के बीच एक नए संगठन का उदय हुआ- हमास। सत्तर के दशक के बाद से दुनिया भर में मुस्लिम कट्टरपंथी विचारों का पुनरुत्थान हुआ है। पाकिस्तान में जनरल ज़िया की सदारत में, अफ़्ग़ानिस्तान में अमेरिका के पोषण से, इरान में अयातुल्ला खोमेनी के झण्डे के तले, मिस्र में अल जवाहिरी के दल में। अराफ़ात की प्रगतिशीलता और सेक्यूलर सोच के अवसान के साथ ही फ़िलीस्तीन में भी सुन्नी कट्टरपंथी वहाबी चिंतन मजबूती पकड़ी। ये आन्दोलन न सिर्फ़ राजनैतिक है बल्कि धार्मिक भी है। इज़राईलियों से लड़ने के अलावा फ़िलीस्तीनी औरतों का हिजाब अगत व्यवस्थित न हो तो उचित सज़ा देने में भी यक़ीन रखता है।
हमास के नेता अहमद यासीन बचपन से ही एक ऐसी अस्वस्थता के शिकार थे जिसने उनके अस्तित्व को व्हीलचेयर के साथ बाँध दिया थ। पर इस शारीरिक सीमा ने उनकी मानसिक क्षमताओं को सीमित नहीं किया। उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया। उनके इसे खतरनाक प्रभाव के कारण इज़राईल ने उन पर कई बार हमले किए और आखिर में एक मिसाइल हमले से उनकी हत्या कर दी। इसके पहले इज़राईल ने फ़तह के नेता और अराफ़ात के सहयोगी अबू जिहाद को भी ऐसे ही एक हमले में मार डाला था।
आज की तारीख में फ़िलीस्तीन में अराफ़ात के संगठन फ़तह से कहीं अधिक लोकप्रियता हमास की है। २००६ के चुनावों में फ़िलीस्तीनी संसद की १३२ सीटों मे जहाँ फ़तह को ४३ सीटें मिलीं वहीं हमास ने ७६ सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन आज फिर हमास को फ़िलीस्तीनियों का प्रतिनिधि मानने से इंकार किया जा रहा है, क्योंकि वे खुले तौर पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं।
फ़िलीस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का ये रंग पहले से ज़्यादा खतरनाक है मगर क्या फ़िलीस्तीनियों के अधिकार का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिये कि उनका प्रतिनिधि करने वाला दल एक अतिवाद से ग्रस्त है?
हिंसा जारी है
आज भी फ़िलीस्तीन और इज़राईल के बीच आपसी नफ़रत के अलावा तमाम सारे अनसुलझे मुद्दे बने हुए हैं। उनके बीच भू-भाग का बँटवारे का सवाल वैसे ही उलझा हुआ है। इज़राईल अपना आधिकारिक मानचित्र आज भी जारी नहीं करने को तैयार है। सेटलर्स फ़िलीस्तीन के नियंत्रण में घोषित कर दिये भागों में अभी भी बने हुए हैं। इज़राईल की सेना और पुलिस आज भी फ़िलीस्तीनी क्षेत्रों में घुसकर जिसको जी चाहे गिरफ़्तार कर लेती है। और थोड़ी सी हिंसा होते ही इज़राईल फ़िलीस्तीनी इलाक़ो पर बम और मिसाइल वर्षा करने लगता है। ये मामले सुलझ सकते हैं अगर उनके बीच विश्वास का कोई पुल बने मगर जब नफ़रत और प्रतिशोध की खाईयाँ खुद चुकी हों तो कैसे कोई मामला हल हो सकता है।
लेबनान के शिया संगठन हिज़्बोल्ला के साथ भी इज़राईल का ऐसा ही उग्र सम्बन्ध क़ायम है जिसके चलते २००६ में एक महीने लम्बी खूनी लड़ाई लड़ी गई जिसमें हज़ारों जाने गईं और बेरुत जैसा खूबसूरत शहर एक बार फ़िर नष्ट हुआ।
चूँकि ये लेख उन लोगों को समर्पित रहा जो समझते हैं कि इज़राईल जैसी कठोर दमन की नीति अपनाने से आतंकवाद काबू में आ जाएगा.. (याद रखा जाय कि आतंकवादी हमारे देश में हैं फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहना उनका अपमान और उनके ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा जमाए बैठे अपराधी देश इज़राईल का अनुमोदन है, हाँ हिंसावादी निश्चित हैं).. तो अपने उन बन्धुओं को लिए आखिर में एक आँकड़ा रखता चलता हूँ..
१९८७ से २००० तक के बीच चौदह साल में १८७३ फ़िलीस्तीनी और ४५९ इज़राईली मारे गए.. जबकि २००१ से २००७ के सात साल में ४२०७ फ़िलीस्तीनी और ९९१ इज़राईली अपनी जान से गए। यानी कि आधी ही अवधि में मरने वालों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई।
भविष्य के प्रति निराश हूँ
हमारे हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम के बीच का दुराव के पीछे राजनैतिक संघर्ष, धार्मिक पूर्वाग्रह, और आपसी हिंसा के कुछ अध्याय ज़रूर हैं मगर सैकड़ों साल तक एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे को धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक स्तरों पर गहरे तौर पर प्रभावित भी किया और एक साझा जीवन जिया है।
जो लोग साझी संस्कृति की सच्चाई को नकारते हैं वे भी मानेंगे कि पिछले हज़ार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग ज़रूर रहीं पर एक लम्बे सफ़र में कभी-पास कभी दूर रहकर भी एक दूसरे को प्रभावित करती रहीं।
अपने देश के प्रति मैं आशावान हूँ पर फ़िलीस्तीन के लिए मैं नाउम्मीद हूँ क्योंकि वहाँ ऐसे साझेपन की किसी भी सम्भावना को शुरु से ही पनपने ही नहीं दिया गया, पहले ही बँटवारा कर दिया।
१९४८ के नकबा के बाद एक दूसरे के एकदम खिलाफ़ हो गए ये दो समुदाय कभी आपस में सहज हो पाएंगे ये कहना बहुत मुश्किल है। एक फ़िलीस्तीनी, एक इज़राईली को देखकर क्या कभी भूल पाएगा कि ये उसी क़ौम की सन्तति है जिसने हम पर अनेको अत्याचार किए और हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया?
सम्भव है कि हिंसा का ताप मद्धिम पड़ जाय पर वो एक शोले की तरह हमेशा उन के दिलों में दब के रहेगी और कभी भी भड़कने के लिए बेक़रार बनी रहेगी। किसी बहुत बड़ी महाविपत्ति के भार के नीचे ही यह आपसी नफ़रत दफ़न होकर, उन्हे वापस जोड़ सकती है, शेष कुछ नहीं; ऐसा मुझे लगता है। भगवान करे मैं ग़लत होऊँ।
इस श्रंखला की पहले की कड़ियाँ-
गुरुवार, 7 अगस्त 2008
एक क़ानूनी मगर नाजायज़ देश
नकबा

इसीलिए इज़राईल के बनने की घोषणा के साथ ही उन्होने फ़िलीस्तीनी अरबों को खदेड़ देने के लिए उनके गाँव के गाँव का जनसंहार शुरु कर दिया। हगनह और दूसरे हथियारबन्द दस्ते अरबों के गाँवों में जाते और लोगों को अंधाधुंध मारना शुरु कर देते। पहले इज़राईल का कहना था कि अरब आप ही अपने घरों को छोड़कर भाग खड़े हुए ताकि अरब देशों के संयुक्त आक्रमण के लिए रास्ता साफ़ किया जा सके। ये सरासर झूठ था।
खुद इज़राईल मानता है कि डेरा यासीन नाम के गाँव में यहूदी दस्तों ने बमों और गोलियों की वर्षा कर के ११० लोगों की जान ले ली। इन निहत्थे और बेगुनाह लोगों में औरतें और बच्चे भी शामिल थे। और ये घटना कोई अपवाद नहीं थी। क्योंकि अब तो खुद इज़राईल के इतिहासकार मानने लगे हैं कि १९४७ से १९४९ के बीच इज़राईली सेनाओं ने ४०० से ५०० अरब गाँवों, क़स्बों और कबीलों पर हमला कर के उन्हे अरबों से खाली करा लिया। ये जातीय हिंसा अपने परिमाण में हिटलर द्वारा की गई यहूदियों की हत्याओं से संख्या में ज़रूर कम थी पर चरित्र में नहीं।
इज़राईली जिस घटनाक्रम को इज़राईल की स्थापना के नाम से दर्ज करते हैं उसे फ़िलीस्तीनियों ने नकबा कह कर पुकारा- एक महाविपत्ति जो इज़राईल के हाथों उन पर आ पड़ी। वैसे अरबी भाषा में इज़राईल का मायने मृत्यु का देवता यमराज होता है। और यह अर्थ आज का बना नहीं, पुराना है।
अरब राष्ट्र
१४ मई को इज़राईल के बनने के अगले दिन ही पाँच अरब देशों- मिस्र, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और इराक़- ने मिलकर इज़राईल पर हमला कर दिया। इज़राईल ने अपनी तैयारियाँ की थीं मगर इतनी नहीं थी कि वो अकेले पाँच देशों की सेनाओं का मुक़ाबला कर सके। लेकिन उसकी सहायता की रूस ने अपने सहयोगी चेकोस्लोवाकिया के माध्यम से। उल्लेखनीय है कि रूस में भी यहूदियों के प्रति नफ़रत का एक लम्बा इतिहास रहा है और इज़राईल को विस्थापन करने वालों में सबसे बड़ी संख्या जर्मनी के अलावा पूर्वी योरोप और रूस से ही थी।
बेहतर और विकसित हथियारों की इस अप्रत्याशित मदद से अचानक सैन्य संतुलन इज़राईल के पक्ष में हो गया और अरब सेनाएं अपना मक़सद पूरा नहीं कर सकीं। बीच-बचाव कर के युद्ध विराम करा लिया गया। मगर तब तक वेस्ट बैंक (जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे का वो फ़िलीस्तीनी हिस्सा जहाँ बँटवारे के बाद का अरब राज्य क़ायम होना था) पर जोर्डन का और गाज़ा पट्टी पर मिस्र का क़ब्ज़ा हो गया था।
इस क़ब्ज़े के १९ साल तक गाज़ा और वेस्ट बैंक के भू-भाग पर फ़िलीस्तीनी राज्य बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई। फ़िलीस्तीनी लगातार मिस्र और जोर्डन के शासन में शरणार्थियों की तरह रहते रहे। क्योंकि सच यही है कि फ़िलीस्तीन एक अलग राज्य के रूप में अरबों के बीच कभी अस्तित्व में नहीं रहा, वो हमेशा एक अरब राष्ट्र के अंग के रूप में या फिर ऑटोमन साम्राज्य के अंग के रूप में रहा। और वे पाँचों अरब देश इज़राईल के खिलाफ़ इसलिए नहीं थे क्योंकि उसने फ़िलीस्तीन, एक स्वतंत्र राष्ट्र की अवहेलना की थी। नहीं। बल्कि इसलिए कि उसने एक अरब राष्ट्र की अवहेलना की थी जो अलग-अलग देशों में बँटा हुआ था। देश एक भौगोलिक सत्ता है जबकि राष्ट्र एक मानसिक संरचना।
आधुनिक राष्ट्र निर्माण अरबों में प्राकृतिक रूप से नहीं आ गया जैसे हम भारतीय भी मुग़ल सत्ता के क्षीण होते ही अपने एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण में संलग्न नहीं हो गए। ये चेतना तो हमारे भीतर पैदा हुई अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष करते हुए। इसी तरह अरबों के जो देश आज दुनिया के नक़्शे पर है वो अलग-अलग देश ज़रूर हैं उनकी सरकारे अपने राजनैतिक सत्ता और उसके हित के अनुसार अलग-अलग निर्णय लेकर एक दूसरे के खिलाफ़ भी खड़ी दिखाई पड़तीं हैं। मगर राष्ट्र के बतौर अरब जन शायद अभी भी एक हैं। इसीलिए वो किसी भी मसले पर एक स्वर में अपनी राय व्यक्त करते हैं।
सम्भवतः हमारे अपने प्रदेश बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात, केरल, राजस्थान, पंजाब, मणिपुर आदि भाषा, संस्कृति के स्तर पर एक दूसरे से अधिक जुदा है बनिस्बत इन अरब देशों के। वे अलग हैं क्योंकि नक़्शे पर लकीर खींच के उन्हे अलग-अलग कर दिया गया। शायद फ़िलीस्तीन की सरकार ही सबसे लोकतांत्रिक सरकार है जिसे इज़राईल और उसके तमाम दोस्त देश बरसों तक आतंकवादी कह कर दुरदुराते रहे।
फ़िदायीन हमले
१९४७-४९ के नकबे में न जाने कितने लोग मारे गए और तक़रीबन आठ लाख अरब अपने घरों और ज़मीनों से बेघर हो गए। बेघर हुए फ़िलीस्तीनियों में से कुछ ऐसे भी थे जिन्होने वापस लौटकर इज़राईल के शासन में ही सही, अपनी ज़मीन को पाने की कोशिश की। मगर इज़राईल ने तुरत-फ़ुरत क़ानून पारित कर दिया था कि भागे हुए फ़िलीस्तीनियों को वापस लौटने नहीं दिया जाएगा और ऐसी कोशिश करने वालों को घुसपैठी माना जाएगा।
दूसरी तरफ़ दूसरे बाक़ी दुनिया और अरब देशों से यहूदी भाग-भाग कर इज़राईल में चले आए। और इज़राईली सरकार ने उन्हे भगाए गए फ़िलीस्तीनियों की ज़मीनों पर बसाना शुरु कर दिया। ये क़दम अपने घरों को लौटने की फ़िलीस्तीनियों की आशाओं पर कुठाराघात था। लेकिन ये क़ानून बनाने भर से फ़िलीस्तीनी रुक नहीं गए, जो अपनी ज़मीन पाने के लिए थोड़ा संघर्ष करने को भी राजी थे। सीरिया, मिस्र और जोर्डन की सीमाओं से ये फ़िलीस्तीनी नागरिक इज़राईल की सीमा में प्रवेश कर के अपने घरों को लौटने की कोशिश में इज़राईलियों के साथ जिद्दोजहद में उतरने लगे। और वे मरने-मारने को तैयार थे।
इज़राईल का कहना है कि १९५० से १९५६ के बीच ऐसे फ़िदायीन हमलों में ४०० इज़राइलियों की मौत हुई। ये फ़िदायीन तो मारे ही जाते और जवाब में इज़राईली सेना सीरिया, मिस्र और जोर्डन में उनके ठिकानों पर हमले करती जिससे और भी अधिक ग़ुस्से के बीज पड़ते और नफ़रतें और गहरी होतीं। १९५६ में गाज़ा पट्टी में खान युनूस नाम की एक जगह में घुसकर इज़राईली सेना नें २७५ फ़िलीस्तीनियों की हत्या की और राफ़ह नाम के एक शरणार्थी कैम्प पर हमला कर के १११ की।
ये है वो बुनियाद जिसके आधार पर आज तक इज़राईल अपने घर, अपनी ज़मीन, अपने देश को वापस लेने के लिए हक़ की लड़ाई लड़ रहे फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहता आया। मज़े की बात ये है कि इज़राईल एक क़ानूनी मगर नाजायज़ देश होते हुए भी ग़ैर-फ़ौजियों की हत्या करते रहने के बावजूद आतंकवादी नहीं कहलाता। क्यों? क्योंकि उसकी तरफ़ से हत्याएं सेना की वर्दी पहनने वाले लोग करते हैं? क्या एक वर्दी पहनने भर से बेगुनाहों के खिलाफ़ हिंसा जायज़ हो जाती है?
छै दिन की लड़ाई

१९६७ में अरब देशों को फिर यह अन्देशा हुआ कि इज़राईल उन पर आक्रमण करने वाला है और उन्होने इस से बचाव की तैयारी शुरु कर दी। मगर दूसरी तरफ़ इज़राईल ने उनकी सारी तैयारियों को धता बताते हुए उन पर प्रि-एम्प्टिव स्ट्राइक्स कर डाली। मिस्र के वायु-यान हैंगर में खड़े-खड़े तबाह हो गए। जोर्डन की सेनाओं को खदेड़ दिया गया और सीरिया को पीछे धकेल दिया गया।
इस तरह की मध्ययुगीन आक्रमणकारी नीति चलाने की चौतरफ़ा निन्दा हुई और इज़राईल पर सब तरफ़ से दबाव पड़ा कि वो पड़ोसी देशों की ज़मीन वापस करे। इज़राईल सिर्फ़ एक शर्त पर ये ज़मीन वापस करने को राजी था- पड़ोसी देश उसे एक वैध देश के रूप में मान्यता दे दें और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लें। ये एक बात ज़ाहिर कर देती है कि इज़राईल खुद ये बात जानता है कि वो एक अवैध देश है और उसने दूसरों की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा कर के अपना देश बनाया है तभी उसके लिए वैधता का ये प्रमाण-पत्र इतना ज़रूरी हो जाता है।
इज़राईल को आगे घुटने टेककर उसे मान्यता देने में पहल मिस्र की तरफ़ से हुई। बदले में इज़राईल ने उसे सिनाई का क्षेत्र लौटा दिया। इस समझौते के ईनाम के तौर पर मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात को नोबल शांति पुरुस्कार दिया गया जिसे उन्ह्ने इज़राईल के राष्ट्रपति के साथ साझा। लेकिन अरब जनता इस समझौते से खुश नहीं थी। इस समझौते के दो साल बाद ही सादात की हत्या कर दी गई।
यदि विश्व एक मोहल्ला होता तो ये मामला कैसा दिखता ज़रा ग़ौर करें
आप के पूरे मोहल्ले के बेचारे, बेघर, और मज़्लूम लोग एक घर पाने के लिए बेताब हैं। आप को कोई ऐतराज़ भी नहीं मगर वे कहते हैं कि आप के घर में अपना घर बनाएंगे और मोहल्ले वाले कहते हैं कि हाँ-हाँ ठीक तो है.. क्या उन्हे एक छत का हक़ भी नहीं है। विचार नेक है और आप को भी हमदर्दी है उन बेघर मज़्लूमों से। मगर आप के घर में.. ये सोच कर ही आप के होश फ़ाख्ता हो जाते हैं।
फिर ये बेघर लोग आकर डेरा डाल देते हैं और एक अभियान के तहत। और फिर और भी जितने मज़्लूम हैं उन सब को आप ही के घर में आ कर बसने की दावत दे डालते हैं और जब आप विरोध करते हैं तो आप से लड़ते हैं, और आप के घर वालों की हत्याएं करते हैं। मोहल्ले के दबंग लोग उनका साथ देते हैं। फिर मोहल्ले वाले एक पंचायत कर के आप के घर के दो हिस्से कर देते हैं, जिस में सब लोग वोट डालते हैं सिवा आप के।
इसी बीच आप जो अब सड़क पर आ चुके हैं घर में घुसने की कोशिश में थोड़ा हाथ पैर चलाते हैं, उनके घर के सदस्यों को मारते हैं तो वो घर में घुसे मज़्लूम लोग, आप को आतंकवादी घोषित कर देते हैं और मोहल्ले के दबंग लोग उनका साथ देते हैं। उस के बाद जब भी इस घर के स्वामित्व की बात उठती है तो वो आतंकवादियों से बात न करने की नीति दोहरा देते हैं। कहते हैं कि तभी बात करेंगे जब आतंकवाद छोड़ दोगे यानी अपने घर में वापस घुसने की कोशिश। और ये मान लोगे कि घर के स्वामी वे ही मज़्लूम लोग हैं। इन शर्तों को मान लिया तो फिर आप बचेंगे कहाँ?
ग़नीमत ये है कि आपके पड़ोसी अच्छे हैं और आप का साथ देते हैं। मगर जब आप के पड़ोसी आप की मदद के लिए आते हैं तो वे मज़्लूम न सिर्फ़ उन्हे खदेड़ बाहर करते हैं बल्कि उनके घरों की भी ज़मीन दबा लेते हैं। हार कर पडो़सी अपनी-अपनी ज़मीन वापसी की कोशिश में मशग़ूल हो जाते हैं। मज़्लूम लोग उनसे कहते हैं कि पहले तुम साइन कर के हमें इस घर का असली मालिक स्वीकार कर लो तो हम तुम्हारी ज़मीन वापस कर देंगे।
मंगलवार, 5 अगस्त 2008
रचना एक नए देश की
पहला विश्व युद्ध

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यहाँ के शक्ति-समीकरण में तमाम बदलाव आने लगे। क्योंकि ऑटोमन साम्राज्य को तोड़ने के लिए ब्रिटेन और फ़्रांस की एलाइड फ़ोर्सेज़ उन सभी शक्तियों से सम्पर्क साधने लगीं जो उन्हे इस काम में मदद कर सकतीं थीं। इन में मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार के लोग भी थे। जो ७०० से भी अधिक सालों से मक्का और मदीना के कस्टोडियन होते आए थे। और दूसरी ओर साउद वंश के लोग भी। मज़े की बात यह थी कि ये दोनों पक्ष एक दूसरे के खिलाफ़ थे मगर युद्ध में इन दोनों के तुर्की के विरुद्ध अंग्रेज़ो का साथ दिया।

लेकिन अंग्रे़ज़ो ने उनके साथ किया वादा पूरा नहीं किया। क्योंकि उन्होने एक दूसरा बयाना भी लिया हुआ था। यह बयाना था अमरीका को लड़ाई में खींच लाने के लिए यहूदियों के लिए एक यहूदी देश बनाने का वादा- जो फ़िलीस्तीन की भूमि पर बनाया जाएगा। युद्ध में अलाइड फ़ोर्सेज़ के लिए यहूदियों का समर्थन हासिल करने के लिए ब्रिटेन ने ज़ायोनिस्ट आन्दोलन के एक मुखिया के साथ १९१६ में एक लिखित वादा किया कि वे लड़ाई खतम होने पर फ़िलीस्तीन के भू-भाग पर यहूदियों का देश बनाने के लिए हर सम्भव योगदान देंगे। इसे बैलफ़ॉर घोषणा के नाम से जाना गया।
बंदरबाँट
लड़ाई खत्म होते ही अरब और यहूदी अपने-अपने वादे की याद दिलाने लगे। लेकिन ब्रिटेन और फ़्रांस ने आपस में एक और समझौता-साइक्स पिको अनुबंध किया हुआ था जिसके तहत वे पूरे जीते हुए क्षेत्र को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में बाँट लेंगे। आज के देश सीरिया और लेबनान फ़्रांसीसी प्रभाव क्षेत्र में गए, इराक़ और जोर्डन ब्रिटिश प्रभाव क्षेत्र में, अरब की मरुभूमि में किसी की प्रभाव डालने की कुव्वत नहीं थी। वो स्वतंत्र ही रही।
मगर फिलीस्तीन को अंतराष्ट्रीय प्रभाव क्षेत्र माना गया। इसके पीछे मूल कारण ब्रिटेन की साँप-छछूँदर की हालत थी जिसमें ब्रिटेन न तो अपने किए हुए वादों को निभा पा रहा था और न उन से निकल पा रहा था। फ़िलीस्तीन को किसी अरब देश का हिस्सा बना देने से समस्या समाप्त हो जाती। पर वे नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उन पर यहूदियों का ही नहीं सभी पश्चिमी देशों का दबाव था कि किसी तरह वहाँ एक यहूदी देश की रचना की जाय। यहाँ रचा शब्द महत्वपूर्ण है। इसीलिए इस भू-भाग के लिए लीग ऑफ़ नेशन्स ने १९२३ में ब्रिटेन को एक मैनडेट दे दी जिसे ब्रिटिश मैनडेट ऑफ़ पैलेस्टाईन कहा गया।
इस शासनादेश के तहत ब्रिटेन को फिलीस्तीन के क्षेत्र का प्रशासन सम्हालना था जब तक कि वे स्वयं इस लायक नहीं हो जाते। न जाने इसका क्या अर्थ था। मेरे विचार में इसका अर्थ खास यहूदियों के लिए ही था क्योंकि आज भी फ़िलीस्तीनियों को अपना प्रशासन सम्हालने के योग्य नहीं माना जा रहा है।
इस मैनडेट के क्षेत्र में आज का जोर्डन देश का इलाक़ा भी शामिल था। मगर जब साउद ने हमला करके मक्का और मदीना वाले अरब के हेजाज़ क्षेत्र पर भी क़ब्ज़ा कर लिया तो भागे हुए हाशमी परिवार के एक सदस्य किंग अब्दुल्ला के लिए एक नये देश को उस भू-भाग से काट कर निकाला गया। ये एक नया देश था, इस देश को ट्रान्स-जोर्डन कहा गया क्योंकि यह जोर्डन नदी के पूर्वी सीमा पर स्थित था। बाद में इसका नाम सिर्फ़ जोर्डन हो गया। इसी तरह हाशमी परिवार के दूसरे किंग फ़ैसल के लिए इराक़ नाम के देश की सीमाएं तय कर दी गईं। कम से कम इराक़ के साथ ऐतिहासिकता की ऐसी कोई समस्या नहीं थे।
इस बन्दरबाँट में सिर्फ़ साउद ने अपनी सीमाएं अपने प्रभाव से तय की और अपने देश का पुराना नाम अरबिया बदल कर साउदी अरबिया कर दिया। फ़्रांस ने अपने प्रभाव क्षेत्र को सीरिया और लेबनान में विभाजित कर दिया जिन्हे फ़्रांस के प्रभाव से निकलने में और पचीस साल लगे। लेबनान में पुरातन समय से यहूदी-ईसाई और मुसलमान रहते आए हैं, जैसे पुरातन फ़िलीस्तीन में रहते आए थे। मगर अन्तराष्ट्रीय राजनीति, और योरोप में यहूदियों के प्रति गहरी पैठी नफ़रत, अंग्रेज़ो के मुक्त-हस्त वादों और उस के बाद की बन्दरबाँट ने इस ज़मीन पर एक नए खूनी इतिहास का आगाज़ कर दिया।
ओह जेरूसलेम
१९२२-२३ के बाद से ही फ़िलीस्तीन में अरबों और यहूदियों के बीच संघर्ष शुरु हो गए। आने वाले विस्थापितों की अविरल धारा से अरबों के अन्दर एक असुरक्षा घर करती जा रही थी। मामला सिर्फ़ एक साथ रहने में आ रही परेशानियों का नहीं था। यहूदियों और ईसाईयों के अलावा मुसलमान भी जेरूसलेम को पवित्र नगरी मानते हैं। उनका विश्वास है अल-अक्सा मस्जिद की एक दीवार पर चढ़कर ही मुहम्मद साहब अपने उड़ने वाले सफ़ैद घोड़े बुराक़ पर बैठ कर जन्नत की ओर चले गए थे। उस दीवार को वे बुराक़ दीवार कहते हैं। जेरूसलेम की पवित्रता का एक ओर कारण यह भी है कि मक्का की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ने के पहले मुहम्मद साहब ने जेरूसलेम की ओर मुख कर के नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया था। इन्ही कारणों से मुसलमानों के मन में मक्का और मदीना के बाद जेरूसलेम दुनिया के तीसरी सबसे पवित्र जगह है।

अरबों का विद्रोह
विस्थापितों के इस सैलाब से घबराकर फ़िलीस्तीनी अरबों ने ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ़ आम हड़ताल कर दी क्योंकि वे ही ये सब प्रायोजित कर रहे थे। इस हड़ताल के दौरान यहूदियों की जान-माल की भी क्षति हुई। अरबों के इस विद्रोह के फल स्वरूप एक पील कमीशन बैठाया गया जिसने १९३७ में समस्या को हल के परे बताया और सिफ़ारिश की कि फ़िलीस्तीन को दो हिस्सों में बाँट दिया जाय।
ये स्थिति हमें बहुत कुछ हिन्दुस्तान के विभाजन जैसी मालूम दे सकती है। है भी। बस फ़र्क़ इतना है कि यहाँ पर दूसरे पक्ष की विवादित भूभाग पर रिहाइश कुछ सालों ही पुरानी था और साथ में था ढाई हज़ार साले पहले किन्ही यहूदियों के रहने के प्रमाणों के आधार पर उस ज़मीन पर अधिकार का दावा?
अरबों का विद्रोह यूँ ही दो साल और १९३९ तक चलता रहा। जिसको दबाने के लिए ब्रिटिश प्रशासन ने कड़े क़दम उठाये। विद्रोहियों को मौत की सज़ा सुनाई गई, उन्हे बिना मुक़दमे जेल में बन्द रखा गया, उनके घरों को नष्ट कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि बाद में बनने वाली इज़राईल राज्य ने अरबों का दमन करने के लिए इन्ही तरीक़ों को अपनाया।
इसी दौरान यहूदियों ने भी अपनी रक्षा के लिए ‘हगनह’ नाम का एक सैनिक संगठन का बनाया जिसका काम अपनी सुरक्षा करना और अरबों के दमन में ब्रिटिश पुलिस का सहयोग करना। १९३९ में जब यह विद्रोह शान्त हुआ तो लगभग ५००० अरब मारे जा चुके थे और ४०० यहूदी और २०० अंग्रेज़ भी। बावजूद इसके वो अरबों का दमन करने में असफल रहे जो आज भी इज़राईल का मुक़ाबला कर रहे हैं। दमन की नीति का समर्थन करने वाले कृपया ध्यान दें।
उसके बाद दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा यहूदियों के साथ किए गए होलोकास्ट में लाखों यहूदियों ने अपने प्राण खोये और लाखों को जानवरों से भी बदतर हालत में क़ैद करके रखा गया। आम आकलन है कि मारे जाने वाले यहूदियों की संख्या साठ लाख तक थी।
रचना एक नए देश की
६ साल तक चले युद्ध के चलते ब्रिटेन के हौसले पस्त हो चुके थे और वे दुनिया भर में फैली अपनी साम्राज्यवाद की दुकान समेटने का मन बना चुके थे। फ़िलीस्तीन की समस्या से भी वो किसी तरह खूँटा तुड़ाकर भाग जाना चाहते थे। लेकिन सताए हुए यहूदियों के जहाज पर जहाज चले आ रहे थे फ़िलीस्तीन की धरती पर शरण पाने के लिए। अरब इस पूरी प्रक्रिया का भविष्य देख कर और भी अधिक भयानक असुरक्षा से ग्रस्त होते जा रहे थे। ब्रिटेन ने समस्या को संयुक्त राष्ट्र के पाले में सरका कर अपने जाने की तारीख की घोषणा कर दी।
संयुक्त राष्ट्र ने नवम्बर १९४७ में एक प्रस्ताव के तहत फ़िलीस्तीन की भूमि के दो टुकड़े कर देने को मंज़ूरी दे दी। इस प्रस्ताव को ३३ के मुक़ाबले १३ मतों से पारित किया गया। ब्रिटेन ने अब्स्टेन किया। ३३ और १३ की संख्या को ध्यान से देखने पर इस बहुमत का राज़ खुल जाएगा। प्रस्ताव के समर्थन में मत देने वाले ३३ देशों में योरोप और अमरीका महाद्वीप के देश शामिल थे। और प्रस्ताव का विरोध करने वाले देश थे- साउदी अरब, सीरिया, लेबनान, येमन, तुर्की, इराक़, ईरान, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, मिस्र, ग्रीस और क्यूबा।
अरबों ने इस तक़्सीम को मानने से बिलकुल इन्कार कर दिया। लेकिन उन्हे नहीं पता था कि अगला क्या क़दम उठाया जाय। क्योंकि १९३६-१९३९ के अरब विद्रोह के समय उनके राजनैतिक नेतृत्व का सफ़ाया हो चुका था और हथियार भी उनसे छीने जा चुके थे। वे असमंजस में पड़े रहे। अरबों की तरफ़ से जवाब दूसरे अरब देशों ने दिया। मिस्र, सीरिया आदि ने धमकी दी कि वो किसी यहूदी देश को अस्तित्व में नहीं आने देंगे।
दूसरी तरफ़ यहूदी नेतृत्व पूरी तैयारी कर चुका था और उसके पास एक वैकल्पिक सरकार, हथियारबन्द दस्ते, योजनाएं सब कुछ तैयार था। ब्रिटिश प्रशासन की आखिरी तारीख १५ अगस्त १९४८ घोषित हो चुकी थी। इस के काफ़ी पहले १४ मई को एक स्वतंत्र यहूदी देश की घोषणा कर दी गई जिसका नाम इज़राईल रखा गया।