गोरेगाँव में एक आदमी तपड़िया दिया गया। ये आदमी मैं भी हो सकता था.. अच्छा हुआ मैं नहीं था। जुर्म उसका बस इतना था कि हमारी राजमाता श्रीमती सोनिया गाँधी को काला झण्डा दिखाने की कोशिश की थी। विरोध-प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार के इस मामले में स्थानीय राजनीति की खींचतान और बढ़ती हुई असहिष्णुता के अलावा एक और अहम पहलू है- वो है कुलीनता का भौकाल। कुलीन रक्त का सम्मान करना दुनिया भर में आम चलन रहा है और हिन्दुस्तान में इसका एक इतिहास है..
नादिर शाह खानदाने तैमूरी के इतने भौकाल में था कि दिल्ली में क़त्ले आम करने के बावजूद उसे मुहम्मद शाह जैसे अय्याश को हाथ लगाने की हिम्मत तक नहीं हुई। नादिर ने कोहिनूर लिया.. तख्ते ताऊस लिया.. दिल्ली के अमीरो-उमरा की खूबसरत लड़कियाँ लीं.. दिल्ली के शहरियों के तन से कपड़े तक उतार लिए .. पर मुहम्मद शाह को गद्दी को हाथ तक नहीं लगाया.. उलटे उस के साथ पगड़ी बदल कर उसे अपनी बराबरी का दरजा दिया।
अहमद शाह अब्दाली ने भी आलमगीर द्वितीय के साथ ऐसा ही व्यवहार किया.. जबकि मुल्क के अमीरों ने आलमगीर द्वितीय के लाल क़िले में रहते-रहते अब्दाली के नाम खुत्बा पढ़वा दिया था.. और मुल्लाओं तक ने चूँ नहीं की.. फिर भी उदार-हृदय अब्दाली ने आलमगीर को उनका मुल्क वापस कर दिया.. आखिर वे अकबर और औरंगज़ेब के फ़रज़ंद थे। दो महीने तक दिल्ली से मथुरा तक सरकटी लाशें सड़कों पर सड़ती रहीं.. आबरुएं लुटती रहीं.. पर खानदाने मुग़लिया की शान में गुस्ताखी की एक आँख तक नहीं उठी।
ईरानी और अफ़्गानी तो छोड़िये अपने रैशनल अंग्रेज़ भी इस राजसी पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं थे। बक्सर की लड़ाई के बाद और उसके पहले भी जब शाह आलम शिकस्तज़दा हो गए तो उनके सरदारों का तो वही हाल हुआ जो पराजितों का होता आया है मगर ज़िलावतन बादशाह को पूरी इज़्ज़त और बादशाही शान-बान से ले जाके इलाहाबाद में स्थापित किया गया।
यहाँ तक मराठे भी बादशाह को बराबर इज़्ज़त बख्शते आए। १७६० में दिल्ली जब भाऊ के क़ब्ज़े में थी और भाऊ की जेब बिलकुल खाली। उन्होने लुटी-पिटी दिल्ली को बहुत निचोड़ा और फिर भी जब कुछ हाथ नहीं आया तो भी उन्होने दबी हुई दौलत की तलाश में लाल क़िले के ज़नानखाने की तरह एक क़दम तक नहीं रखा.. हाँ दीवानेखास की छत से चाँदी ज़रूर उतार ली। बाद में जब ग़ुलाम क़ादिर खान ने शाह आलम को अंधा कर दिया तो इस अक्षम्य अपराध का बदला भी मराठों ने ही लिया।
इन सब मामलों में सियासत का भी एक पहलू है मगर इस सोच की जड़े सियासत के अलावा कहीं और भी हैं। खानदान के ऊँचे गुणों की ‘खून’ के ज़रिये निरन्तरता या आनुवंशिकी पर एक अंधविश्वास इस पूर्वाग्रह की ज़मीन है। इसी सोच से सवर्ण और सय्यद पूज्य हो जाते हैं और राजे-महाराजे ईश्वर का अवतार।
कृष्ण क्या ऐसे ही विष्णु के अवतार बने और पाँच पाण्डव देवपुत्र? शम्बूक इसीलिए तो मारा गया क्यों कि उसका पिता शूद्र था और उसका खून तपस्या के योग्य नहीं था। इस देश में गाँधी-परिवार में श्रद्धा क्या उसी पूर्वाग्रह का परिणाम नहीं है जो एक को पूज्य और दूसरे को दलित बनाता है।
सारे कांग्रेसी चरम अवसरवादिता में आम जनों की इस सोच का ही चुनावी लाभ उठाना चाहते हैं और साथ में मुलम्मा दलित-उत्थान का पहनाना चाहते हैं। अंग्रेज़ी में इस ऑक्सीमोरॉन कहते हैं। इसीलिए हम एक तरफ़ तो सोनिया जी के चरणों में बिछे रहते हैं और दूसरी तरफ़ एक काले झण्डे वाले को भी टीप मार-मार कर मिटा देना चाहते हैं- जैसे कभी चार्वाक को ब्राह्मणों ने अपनी हुंकार से दमित कर दिया था।