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सोमवार, 21 अप्रैल 2008

पुणे में परदा!

पुणे में लड़कियों का मैंने एक खास रवैया देखा है। वे अपने दुपट्टे को अपने सीने पर ओढ़ने के बजाय अपने चेहरे पर कुछ इस तरह से बाँध लेती हैं कि सिर्फ़ आँख ही नज़र आती है.. यानी दुनिया को देखने के लिए आँखे खुली छोड़कर सब कुछ ढक लेती हैं। अकसर ऐसा स्कूटर की सवारी करने वाली लड़कियों ऐसा करती हैं.. पर पैदल जाने वाली महिलाओं को भी मैंने इस स्वरूप में देखा है। इतना ही नहीं कुछ को तो मैंने एक कपड़े की जैकेट और दस्ताने पहने भी पाया.. भरी गर्मी में।

मुझे बताया गया कि ये लड़कियों मुस्लिम हों ऐसा नहीं है.. वे किसी भी धार्मिक आग्रह के चलते ऐसा नहीं करतीं। बस अपने चेहरे को गर्मी, धूल-धक्कड़ और प्रदूषण से बचाने के लिए ऐसा करती हैं। बात समझ आती है.. स्त्रियाँ स्वभावतः इन विषयों और अपने रूप को लेकर अधिक सचेत होती हैं.. वैसे कुछ पुरुष भी होते हैं।

अनोखी परिपाटी चल निकली है पुणे शहर में.. सोचता हूँ शायद अरब और उत्तरी अफ़्रीका के तमाम उन देशों में जहाँ हिजाब का चलन है, ऐसे ही कुछ प्राकृतिक कारण रहें होंगे जो स्त्रियों में और पुरुषों में भी परदे की परम्परा चल निकली और बाद में सामाजिक तौर पर ऐसी रूढ़ हो गई कि मर्द तो अपनी मर्जी का मालिक रहा मगर औरत की आज़ादी में बन्धन और बेड़ी हो गई।

कैसे—कैसे बदल जाती हैं चीज़ें- अच्छी बातें बुरी बातों में पतित हो जाती हैं। कुछ भी तो एक जैसा नहीं रहता कभी.. हमेशा रूप बदलता रहता है। पतंजलि के योगसूत्र में भी यही बात पढ़ी थी कभी।
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