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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

घर लौट जायँ भैये?

राज ठाकरे अपने एक बयान से राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर छा गए हैं। उनकी गिरफ़्तारी की उलटी गिनती की जा रही है। मीडिया को तो परोसने के लिए कुछ गरम मसाला चाहिये, समझ में आता है। पर राज्य सरकार की भूमिका इस में इतनी मासूम नहीं है जितनी किसी को शायद लग सकती है।

पहले ही कुछ लोग यह आशंका व्यक्त कर चुके हैं कि राज ठाकरे को भाव देने में कांग्रेस की सोची-समझी नीति है। पिछले नौ बरसों से सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस और एन.सी.पी. को तिबारा बहुमत पा जाने का विश्वास नहीं है, खासकर तब जबकि प्रदेश में किसान लगातार आत्म-हत्याएं करते रहे हों और उद्धव अपने परम्परागत वोटबैंक से बढ़कर किसानों और उत्तर भारतीयों को जोड़ने के प्रयास कर रहे हों।

ऐसी आशंकाओं के बीच शिव सेना के खिलाफ़ राज ठाकरे को असली सेनापति के रूप में खड़ा कर देने में असली हित तो कांग्रेस का ही है। और राज ठाकरे की विद्रोही छवि को एक नाटकीय रूप देने में जो कुछ बन सकता है, सरकार लगातार कर रही है।

अब उन पर यह रोक लगाई गई है कि वे रैली या प्रेस कान्फ़्रेन्स न करें। नाटकीयता की माँग होगी कि उनकी गिरफ़्तारी ऐसी एक रैली/ प्रेस मीट के बीच हो जिस में राज कुछ सनसनी पूर्ण बयानबाजी कर रहे हों। मेरा डर है कि सरकार राज ठाकरे को ऐसी स्क्रिप्ट लिखने में पूरा सहयोग करेगी। देखें क्या होता है!

अपने राजनैतिक हितों को बचाये रखने के लिए ऐसे खेल राजनीति में किये जाते रहे हैं और कभी-कभी इन खेलों में हज़ारों-लाखों लोग मौत के घाट उतर जाते हैं और भिन्डरांवाले और ओसामा जैसे महापुरुषों के जन्म भी हो जाते है। इस खेल में सीधे-सादे मराठियों को निरीह भैयों से भिड़ाया जा रहा है ताकि शिवसेना-भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सके।

क्या करें बेचारे भैये? मुम्बई छोड़ दें? मेरे विस्फोटक मित्र संजय तिवारी का मानना है कि हाँ छोड़ दे! (कल मेरी उनसे फोन पर बात हो रही थी) .. वे मुम्बई छोड़ेंगे तो ही उत्तरांचल की मनीआर्डर अर्थव्यवस्था के स्थान पर एक असली और स्वस्थ अर्थव्यवस्था कायम होगी। क्योंकि उनका मानना है कि व्यक्ति ही पूँजी है.. वे जहाँ जमा हो जायेंगे विकास और सम्पत्ति पैदा हो जायेगी। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर मुम्बई की सम्पन्नता का असली रहस्य हैं। इन सस्ते मज़दूरों के बाज़ार से हट जाने से मुम्बई का सारी हेकड़ी निकल जाएगी।

मैं अर्थशास्त्र में बहुत मज़बूत नहीं हूँ.. पर संजय की बात मुझे तार्किक लगती है। मार्क्सवादी भी जानते हैं कि पूँजी के उत्पादन का श्रम से सीधा सम्बन्ध है। मज़दूर के उचित श्रम मूल्य और दिये गए श्रम मूल्य के अन्तर से ही पूँजी का निर्माण होता है। विस्थापित मज़दूर कम से कम मूल्य पर काम कर के इस अन्तर को बढ़ाकर अधिक पूँजी उत्पादित करने में सहायक होता है।

फिर भी मैं संजय की इस बात के साथ सहज नहीं हूँ कि भैये मुम्बई छोड़ दें। अभी तक का आदमी का इतिहास कई अर्थों में आदमी के विस्थापन का इतिहास भी है। विस्थापन में कई त्रासदियाँ भी होती हैं पर प्रगति के नए दरवाज़े भी बाहर जाने वालों रास्तों पर ही खुलते हैं। देखा गया है कि विस्थापित लोग ही विकास की मशाल के वाहक होते हैं। अपने जड़ों को पकड़ कर जमे लोग वहीं बने रहते हैं और नई ज़मीन खोजने वाले आगे बढ़ जाते हैं।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

पूर्वग्रह की राजनीति

मेरी माँ और दूसरे शहरों में बैठे मित्र परेशान हैं कि मुम्बई में क्या हो रहा है? पहली बात तो यह कि यह पूरा मामला जितना बड़ा है उस से कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर इसे पेश किया जा रहा है। और इसमें मीडिया की खबरखोरी का लोभ एक बड़ा कारण है। मगर ज़्यादा दुःखद इसमें राज्य सरकार की भूमिका है.. जो अराजक तत्वों को बेक़सूर लोगों को सताने दे रही हैं?

अब वो दिन नहीं रहे जब जनता नेता के पीछे चलती थी.. अब नेता जनता के पीछे चलता है। कोई भी बात कहने से पहले वो देख लेता है कि हवा का रुख क्या है। ऐसे में राजनीति का सबसे आसान रास्ता आम जन में व्याप्त पूर्वग्रहों की गली से होकर जाता है.. क्योंकि वहाँ असंतोष भी होता है और एक बना-बनाया दुश्मन भी।

अधिकाधिक पार्टी इस क़िस्म की राजनीति कर रही हैं.. अकेले मुम्बई ही नहीं, दुनिया के हर कोने में आप को इस तरह के पूर्वग्रह मिल जाएंगे.. जर्मनी में तुर्कों के खिलाफ़, फ़्रांस में नार्थ अफ़्रीकी मुस्लिम विस्थापितों के खिलाफ़, इंगलैण्ड में इण्डियन्स और पाकीज़ के खिलाफ़ और पिछले कुछ सालों में पूरी दुनिया में और खासकर अमरीका में, मुसलमानों के खिलाफ़ एक बनी बनाई सोच मौजूद होती है।

आदमी को जानने के पहले ही उसकी भाषा और चेहरे-मोहरे से उसके बारे में एक राय क़ायम कर ली जाती है। आम तौर पर इन पूर्वग्रह का एक भौतिक आधार भी होता है। मुस्लिमों के बारे में पूर्वग्रह की जड़ आतंकवाद से जुड़ा हुआ है मगर अन्य मामलों में यह विस्थापित मज़दूर के कम दामों में बिकने को तैयार हो जाने की वजह से स्थानीय मजदूर में पैदा हुए क्षोभ के चलते होता है। और भूमण्डलीकरण के इस दौर में इस तरह की राजनीति का भविष्य अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा काफ़ी कुछ।

मुम्बई के इस मामले में विडम्बना की बात यह है कि यहाँ पर जिन विस्थापितों के खिलाफ़ मुहिम चलाया जा रहा है वो किसी दूसरे देश में नहीं अपने ही देश में नफ़रत का निशाना बन रहे हैं। मुम्बई में एक निम्न वर्गीय और निम्न मध्यम वर्गीय मराठी के मन में यह क्षोभ है कि यूपी बिहार के मज़दूरों के रेट गिरा कर उनके रोज़गार के अवसरों में सेंध लगाते हैं। राज ठाकरे इसी सोच का राजनैतिक फ़ायदा उठाना चाहते हैं। इस तरह की राजनीति बेहद खतरनाक है और चिंता का विषय है।

और चिंता का विषय यह भी है कि एक के बाद एक हर राज्य में यह तस्वीर उभर कर आ रही है कि क़ानून लागू किया जाएगा या नहीं इसका फ़ैसला इस बात को ध्यान में रख कर किया जा रहा है कि बहुसंख्यक राय क्या है? अगर बहुसंख्यक राह यह कि मुसलमानों को पिटना चाहिये तो हत्यारों को गिरफ़्तार करने से बचती रहेगी पुलिस। अगर सिवान की जनता भारी वोटों से शहाबुद्दीन को जिताती है तो वे बीसियों क़त्ल और कई नॉन बेलेबल वारन्ट के बावजूद पूरे भारत को अपना अभयारण्य समझ सकते हैं और केन्द्रीय मंत्रियों के गले में हाथ डाल कर संसद में घूम सकते हैं ।

अगर बहुसंख्यक राय यह है कि आधी रात को शराब पी कर होटल से बाहर निकलने वाली औरत परोक्ष रूप से बलात्कार आमंत्रित कर रही है तो उस पर हमला करने वालों को पुलिस सहानुभूति की दृष्टि से देखेगी। मेरा ख्याल है कि वही मानसिकता विलासराव देशमुख को राज ठाकरे को गिरफ़्तार करने से रोके हुए है। वे अभी तौल रहे हैं कि आम राय कितनी राज ठाकरे के साथ है?

राज ठाकरे साहब अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते शिवसेना से अलग हो गए। शिवसेना की सीमाओं को समझते हुए उन्होने एक धर्म निरपेक्ष छवि बनाने की कोशिश में अपने झण्डे में एक हरी पट्टी भी डाली पर चुनाव में उनको दो-ढाई प्रतिशत वोट भी नहीं मिला। बजाय एक लम्बी राजनैतिक पारी के लिए धीरज पैदा करने के वे हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में अपने चाचा के पुराने हथकण्डों को दोहरा रहे हैं। ये हथकण्डे उस समय थोड़े चल भी गए थे अब अपने दुहराव में चलेंगे, इसमें मुझे शक़ है।

मैं मुम्बई में पन्द्रह साल से हूँ और मैंने मराठियों को बहुत सरल, शांतिप्रिय और अपने काम से काम रखने वाले समुदाय के रूप में जाना है। आम मराठी शिवसैनिक नहीं है। शिव सेना बनने के चालीस साल के इतिहास में शिवसेना को अभी तक सिर्फ़ एक बार ही राज्य में सरकार बनाने का मौका़ मिला है- १९९२-९३ के साम्प्रदायिक दंगो के बाद वाले चुनाव में.. वो भी भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर ही।

टीवी क्लिप्स में ठेले का सामान गिराने वाले युवकों की चेष्टा में मुझे जज़बात की गर्मी नहीं एक सोची समझी ठण्डे दिमाग की कार्रवाई दिखी। पहले से तय कर के आए थे कि दो चार टैक्सी वालों को पीटेंगे और दो चार ठेले उलटा देंगे। ज़ाहिर है कि इसमें कोई ऐसी भावना नहीं है जो जुनून बन के कोई हंगामा बरपा कर सके। मेरी समझ में यह मामला अपनी राजनैतिक ज़मीन बनाने की या शिवसेना की राजनैतिक ज़मीन हथियाने की एक ऐसी चाल है.. जिसके जाल में मीडिया तो फँस गया पर मराठी माणूस फँसेगा या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।
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