जीवन मे अधिकतर दो खराब वस्तुओ मे से कम खराब वस्तु को चुनना पडता है। भारत के हिसाब से कम खराब अमेरिका लगता है। ऐसा मेरी पिछली पोस्ट पर कपिल ने कहा और संजय बेंगाणी इस बात से सहमत हो गए। उनकी इस सहमति से मुझे एक जर्मन कविता 'मैं चुप रहा' की याद हो आई.. कविता नाज़ियों के बारे में है पर मुझे प्रासंगिक लगती है क्योंकि तीस के दशक के यूरोप में जर्मनी ने जो भूमिका निभाई आज दुनिया में वह अमरीका निभा रहा है..
मैं चुप रहा
नाज़ी जब कम्यूनिस्टों के लिए आए
तो मैं चुप रहा
मैं तो कम्यूनिस्ट नहीं था
फिर जब उन्होने समाजवादियों को सलाखों में डाला
तो मैं चुप रहा
मैं समाजवादी नहीं था
फिर जब मज़दूरों की धर-पकड़ हुई
तो भी मैं चुप रहा
मैं मज़दूर नहीं था
जब यहूदियों को घेरा गया
तो फिर मैं चुप रहा
मैं यहूदी भी नहीं था
और जब वे मुझे पकड़ने आए
तो बोलने के लिए कोई नहीं बचा था बाकी़..
- मार्टिन नाइमोलर
(ग़लती से इस कविता को बर्तोल्त ब्रेख्त (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट) द्वारा रचित समझा जाता है)
(अनुवाद खाकसार का..)
6 टिप्पणियां:
बढ़िया कविता!
एक बार पुन: इस कविता को हिन्दी में पढ़कर अच्छा लगा.
ये जानने के बाद भी क्यों सब चुप रहते हैं ?
बहुत सुंदर कविता अभय भाई। पढ़वाने के लिए शुक्रिया...
कल संजय बेगाणी की टिप्पणी पर मन हुआ कि मैं भी कुछ कहूँ। किंतु वेदांत से वाकफ़ियत के बाद अब संजय बेगाणी जैसे लोगों पर कुछ कहना ओछा पन सा लगता है।
आज जो बात हमलोग समझने समझाने की कोशिश कर रहे हैं वह तकरीबन 70 साल पहले जर्मन कवि ने कह दिया था।
लेकिन आर्किटेक्चर , काल, आतंकवाद आदि को हिन्दू और मुस्लमान कहने वाले मूर्खों का क्या किया जाए।
काश संजय बेगाणी देश भक्त होते।
ये लाइनें किसी भी जागरुक को अपने सामने लगा लेनी चाहिए। हमेशा सच याद दिलाती रहेंगी।
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