बुधवार, 28 सितंबर 2011

सासू माँ का टीवी



शांति की तीन ननदें हैं। दो बड़ी और एक छोटी। सबसे बड़ी ननद सबसे पास रहती हैं पर लगाई-बुझाई के झंझटो से बहुत दूर रहती हैं। न ऊधो का लेना न माधो को देना- वो अपनी गिरस्थी में ही मगन रहती हैं। जब कभी मिलती हैं तो मुहब्बत से मिलती हैं और मुहब्बत से विदा लेती हैं। सबसे दूर रहनेवाली बीचवाली ननद बोलती बहुत हैं और उनका ख़याल है कि खाना बनाने से लेकर सजने-सँवरने और नाचने-गाने तक, खानदान में उनके बराबर कोई है ही नहीं। शांति अगर इस पर मतभेद ज़ाहिर करना भी चाहे तो बीचवाली ननद की प्रवचनधारा के बीच बोलने का मौक़ा नहीं होता। वो बहुत कम आती हैं ओर जब भी आती हैं तो शांति को बस एक ही परेशानी होती है- वो उनकी बातें सुनसुनकर बुरी तरह थक जाती है। बीचवाली को बीच में टोकने और उनकी बोलती बंद कर सकने का साहस सिर्फ़ छोटीवाली ननद में है। उन्हे सब प्यार से पेटपुछनियां कहते हैं क्योंकि वो अपनी माँ की अंतिम संतान हैं और इसीलिए माँ की लाडली भी हैं। ननद के नाम से जिस खट्टे-मीठे रिश्ते की कल्पना की जाती है उस में छोटी ननद अचला एकदम फिट बैठती हैं। जो कुछ प्यार-तकरार होता है उन्ही से होता है। पहले तो बहुत आती थीं पर अब भी साल में दो-तीन चक्कर उनके लग ही जाते हैं।

इस बार वो बड़े दिनों बाद आईं और हमेशा की तरह सासू माँ के कमरे में ही ठहरीं। शांति ने जब से उन्हे देखा है उनके बीच सबसे अलग एक ख़ास रिश्ता रहा है। जब दोनों साथ रहती हैं तो दोनों को तीसरे की मौजूदगी की ज़रूरत नहीं रहती- तीसरा सिर्फ़ चर्चा में रहता है। घंटो दोनों सर से सर जोड़कर दुनिया-जहान की बातें बतियाया करती हैं। सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती है पर उनकी बातें खतम ही नहीं होतीं। दोनों एक ही बिस्तर पर सोतीं और बिस्तर पर पड़े-पड़े भी देर रात तक खुसुर-फुसुर करती रहतीं- न जाने क्या। घर में अजय की अपनी बहना और बच्चों की अपनी बुआ से बात होती है पर ज़रा कम। उम्मीद थी कि इस बार भी अचला को दूसरे घरवालों की बहुत ज़रूरत नहीं पड़ेगी। दिन में तो सब घर से निकल ही जाते हैं और शाम को जब घर लौटते हैं तो पहलू में अपनी-अपनी परेशानियों के साथ। न अचला को उनसे बात करने की बहुत बेचैनी होती है और न ही घरवालों को। पर इस बार मामला दूसरा हुआ।

शनिवार को जब शांति घर लौटकर आई तो घर में घुसते ही अचला ने उसे घेर जैसे लिया। बाथरूम जाने के समय को छोड़कर सारे समय अचला शांति के पीछे ही लगी रही। अपने पति-बच्चों, सास-ससुर, घर-परिवार की छोटी-बड़ी सब बातें बिना किसी भेद-भाव के शांति के कानों में उड़ेलती रही। शांति को समझ ही न आया कि बात क्या है। अचानक उमड़ी इन नज़दीकियों को सबब क्या है। बीसियों शिकवे-शिकायतों के बाद एक शिकायत अचला ने अपनी माँ की भी कर डाली।

ये अम्मा को क्या हो गया है..?
क्या हो गया है.. ?
कुछ बात ही नहीं करती..!?
करती तो हैं..
क्या करती हैं..? दिन भर बैठकर टीवी देखती हैं..!
हाँ, टीवी तो बहुत देखने लगी हैं आजकल! शांति ने हामी में सर हिलाया।
बहुत..!!?? बहुत से समझ नहीं आता कि वो कितना टीवी देखती हैं.. सुबह उठकर साढ़े छै तक नहाधोकर तैयार हो जाती हैं और तब से लेकर रात ग्यारह बजे तक देखती ही रहती हैं.. देखती ही रहती हैं.. मैं कोई बात करूँ तो एकाधा मिनट तो देखती हैं मेरी तरफ और उसके बाद नजर वापस टीवी पर.. मैं बोलती जाती हूँ और वो टीवी देखती जाती हैं.. जैसे मैं कोई बकवास कर रही हूँ.. और अपनी तरफ से कोई बात ही नहीं??!! और जब मैं कहूँ कि अम्मा कुछ बात करो.. तो ऐसे बात करती हैं जैसे कोई अजनबी से करता है.. ?? तेरे बच्चे कैसे हैं..? पति कैसा है..? फिर मैं कहती हैं कि अम्मा तुम तो कोई बात ही नहीं करती.. कुछ बात करो.. तो कहती हैं कि क्या बात करूँ.. और फिर मुंडी घुमाके टीवी देखने लग जाती हैं.. बताओ, क्या हो गया है अम्मा को.. ?

शांति के पास अचला के सवाल को कोई जवाब नहीं था। सासू माँ को जो बीमारी हुई थी उसके लक्षण किसी डॉक्टरी की किताब में दर्ज़ नहीं थे। टीवी बहुत देखना और अपनी बेटी से बात न करना - इस लक्षण की कोई बीमारी नहीं है। लगातार दिन-रात चलने वाले चैनल यही मानकर के 24 घंटे अपना प्रसारण जारी रखते हैं कि कोई उन्हे देख रहा है। उन्हे देखना कोई असामान्यता नहीं है और किसी से बात करना या न करना भी कोई असामान्यता नहीं है। फिर भी सासूमाँ का जो बरताव था उसे जीवन की भाषा में स्वस्थ व्यवहार नहीं कहते- उदासीनता कहते हैं।

ऐसा नहीं था कि शांति और अजय ने सासूमाँ में आए इस बदलाव पर ग़ौर नहीं किया था पर यह उनके लिए यह बदलाव धीरे-धीरे एक अरसे में हुआ था। और रोज़-बरोज़ उसका सामना करके वे उसके प्रति निरापद भी हो गए थे। सासूमाँ का लगातार टीवी देखना और किसी से ज़्यादा कुछ बातचीत न करना उन्हे अब चौंकाता नहीं था। उन्होने सासूमाँ की उस उदासीनता को स्वीकार कर लिया था।

उस रात शांति यही सोचते-सोचते सो गई। इतवार को भी पूरा समय अचला ने शांति, अजय और बच्चों के साथ के साथ ही गुज़ारा। और सोमवार की सुबह अपना सामान बाँध लिया। शांति ने कुछ दिन और रुक जाने के लिए कहा भी पर अचला को डर था कि अम्मा तो टीवी देखती रहेंगी वो करेगी क्या। शांति और अजय के साथ अचला भी घर से निकल गई। बच्चे तो पहले ही स्कूल चले गए थे। घर में सिर्फ़ सासूमाँ रह गईँ। उनका टीवी चालू था- वो कहीं नहीं जानेवाला था।


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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

शहर में शंका


नाना की तेरहीं मंगल की थी। बड़े मामाजी के तीनों बेटे बाहर रहते हैं और ख़ुद उनको गठिया की पुरानी शिकायत है। तो अनेक आशीर्वाद के साथ सामान की एक लिस्ट मामाजी ने शांति को सौंप दी थी। शांति ने सोचा कि बजाय इतवार ख़राब करने के शनिवार को ही सारा काम निबटा लिया जाय। उस दिन दफ़्तर की आधी छुट्टी होती है- दोपहर के बाद सारी ख़रीदारी कर लेगी। उस दिन शांति सुबह नौ बजे घर से निकली। आम तौर पर शनिवार के दिन शांति टिफिन लेके नही जाती है। पर उस दिन शांति टिफिन लेकर गई। जैसा कि उसने सोचा था एक बजे तक उसने काम किया और फिर फाइलें समेट दीं, दराज़ों में ताला लगा दिया और लैपटॉप शटडाउन कर के खाना खा लिया। तब तक दफ़्तर लगभग सन्नाटा हो गया था। चलने से पहले शांति ने सोचा न जाने बाज़ार में कितना समय लगे- बाथरूम हो लूँ। बाथरूम पहुँचने से पहले ही उसे भाड़-भूड़ की आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं। पर बाथरूम में घुसने पर ही समझ आया कि वहाँ मरम्मत चल रही है। बगल में ही जैन्ट्स टॉयलेट था और पूरी तरह सुनसान था पर शुचिता के मद्देनज़र उसका इस्तेमाल पूरी तरह वर्जित था, लिहाज़ा शरीर के आवेग को दबा दिया।  

अगर अपने लिए ख़रीदारी करना होती तो शायद शांति सस्ते के बजाय सहूलियत का चुनाव करती और कहीं आस-पास से ही सारी ख़रीदारी निपटा लेती। मगर बड़े मामा जी का पूरा ज़ोर सस्ते पर था इसीलिए तो वो अपने क़स्बे के जाने-पहचाने व्यापारियों को छोड़कर शांति की कर्तव्यपरायणता का सहारा ले रहे थे। सस्ता सामान लेने के लिए शांति भीड़ भरे रास्तों से होते हुए शहर की पुरानी गलियों में आबाद थोक के बाज़ार जा पहुँची। गाड़ी, मोटर, स्कूटर, साइकिल, रिक्षा, गाय, कुत्ते, ठेले, सब एक रफ़्तार से और एक अधिकार से अपने आगे बढ़ने का रस्ता ढूँढ रहे थे। उन सब मे शायद सबसे सफल चूहे थे जो निर्द्वन्द्व और निरपेक्ष भाव से बड़ी रफ़्तार से गलियों में विचरण कर रहे थे। शहर के नागरिक सड़क पर ही चाट और मिठाइयों का स्वाद ले रहे थे और सड़क पर ही दोने, पत्तल, और कुल्हड़ फेंक रहे थे। और कुछ लोग वहीं सड़क पर खड़े होकर अपनी शंकाओ का समाधान कर रहे थे। और उनमें से एक नागरिक तो इतना ढीठ निकला कि जिस जगह शांति अपने स्कूटर पर बैठे-बैठे ट्रैफ़िक के आगे सरकने का इंतज़ार कर रही थी, ठीक उसी के सामने पैंट खोलकर पेशाब करने लगा।

शांति ने यकायक चीख पड़ी- 'क्या कर रहे हो.. '
'क्या कर रहे हैं..?'
'अब बताना पड़ेगा कि क्या कर रहे हो.. हद है बेशर्मी की..'
'न करें?'
'हे भगवान.. तो और क्या कह रहे हैं... ?'
शांति की डाँट का लगभग बुरा सा मानते हुए वो नागरिक वहाँ से चलता बना। न चाहते हुए भी इस प्रकरण से शांति को अपनी शंका की याद हो आई। पर न तो वो उनकी तरह सड़क पर खड़े होकर फ़ारिग़ हो सकती थी और न ही उसे आस-पास किसी टॉयलैट के होने की कोई उम्मीद थी। उसने अपने शारीरिक आवेग से ध्यान हटाकर उस काम पर केन्द्रित किया जिसके लिए वो आई थी।

बाज़ार भाव समझने के लिए दो-तीन दुकानें देखना ज़रूरी था। कपड़ों की अलग और बरतनों की अलग। शांति ने सोचा था कि वो अपने आवेग को दबाए-दबाए सारे काम निबटाकर घर जाकर फ़ारिग़ होएगी पर बरतनों की बारी आई नहीं कपड़े ख़रीदते-ख़रीदते ही वो बेचैन होने लगी। सब काम ख़त्म करके घर पहुँचने में उसे कम से कम दो घंटे और लगने वाले थे। तब तक बरदाश्त करना असम्भव हो जाएगा। इस सूरत में उसके पास दो ही रास्ते थे- या तो सब ख़रीदारी छोड़छाड़ कर घर को भागे या फिर आस-पास ही कोई लेडीज़ टॉयलैट तलाशे।

लौटकर घर जाने का विकल्प बेकार था सो शांति उसी कचर-मचर में थोड़ी देर भटकती रही और उसकी उम्मीद के विपरीत एक सुलभ शौचालय उसे मिल भी गया। शांति ने सोचा कि चलो मुश्किल से आज़ादी मिली। पर ऐसा होना न था। अपने आवेग को मार्ग देने की मानसिक तैयारी कि लेने के बाद जब शांति ने सुलभ शौचालय के महिलाओं वाले भाग में प्रवेश किया तो वो एक व्यक्ति से टकराते-टकराते बची। यह व्यक्ति एक बाईस-तेईस बरस का नवयुवक था। शांति एक पल को अचकचा गई। वो उलटे पाँव वापस लौट आई। उसे लगा कि ग़लती से वो पुरुषों के भाग में चली आई। पर बाहर आके उसने देखा कि कोई ग़लती नहीं हुई थी- वो पुरुषों के भाग में नहीं घुसी थी, बल्कि वो नवयुवक ही था जो महिलाओं के भाग में अनाधिकार रूप से घुसा हुआ था।

तमतमाकर शांति उसे हड़काना शुरु किया- 'दिखता नहीं है.. अंधे हो क्या.. बाहर इतना बड़ा-बड़ा लिखा है फिर भी यहाँ घुस आए.. पढ़ने नहीं आता है या लफंगे हो..'
'क्या बात हो गई बहन जी..'
शांति ने सर घुमाकर देखा कि महिलाओं वाले विभाग से दो-तीन और नागरिक उसके आस--पास इकट्ठे हो गए हैँ। इसके पहले कि शांति कुछ और कहती वो नवयुवक ही शांति की शिकायत करने लगा-
'पता नहीं कोहे गरम हो रहीं भैया.. जैसे ही हम पेसाब करके बाहर निकले.. लगी हमको हड़काने. .'

उस नवयुवक और उस भीड़ के हाव-भाव और तेवर से शांति को ये समझ आ गया कि भले ही उसकी आपत्ति सभी पैमानों पर जायज़ हो पर वो जिन से मुख़ातिब थी उनकी चेतना को किसी पैमानों की कोई हवा नहीं थी। अगर शांति पर उसके शारीरिक आवेग का दबाव न होता तो वो उनकी क़ायदे से ख़बर लेती। उसने सोचा कि पहले फ़ारिग़ हो लो फिर उनसे बात करती है। पर अन्दर का जो दृश्य था वो और भी बेढब था। शहर के नागरिक महिलाओं के लिए बने उस मूत्रालय में मल-मूत्र करने और नहाने-धोने से लेकर वो सारे काम किए जा रहे थे जो एक टॉयलैट में किए जा सकते हैं- और वो सब मर्दों द्वारा सम्पन्न किए जा रहे थे। किसी महिला का वहाँ कोई स्थान नहीं था। क्योंकि शायद शहर के पुरुष यह उम्मीद करते थे कि महिलाएं घर से निकले ही ना और अगर निकले भी तो अपने आवेगोँ को दबाकर रखें।

इस अन्याय से उपजे अपने आक्रोश का आवेग तो शांति ने उस समय निकाल दिया। पर शहर में घर से बाहर निकलने वाली हर औरत की तरह शांति को भी अपने दूसरे आवेग को उस रोज़ बहुत ज़ब्त करना पड़ा और बहुत सहन करना पड़ा। जबकि उसी शहर में रहने वाला पुरुष अपने आवेगों के लिए दो क़दम और दो मिनट का अन्तराल भी सहन नहीं करता।


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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

मृत्यु के बाद



शांति जब दरवाज़ा खोलकर अन्दर घुसी तो उसकी उम्मीद थी कि दोनों बच्चे सो चुके होंगे। बहुत हौले से अजय और शांति घर में दाख़िल हुए। अजय ने अपने कपड़े उतार कर किनारे कर दिए और नहाने चला गया। उसी दौरान दोनों बच्चे कमरे में आ गए। हलकी आहटों से बचपन की गाढ़ी नींद नहीं खुला करती। शांति समझ गई वो पहले से जगे हुए थे और शायद उनका इंतज़ार कर रहे थे। एक रोज़ पहले शांति के नाना का देहांत हो गया। और वो अजय के साथ दफ़्तर से सीधे अपने ननिहाल चली गई थी। शांति ने बच्चों को बता दिया था और बीच-बीच में उनकी ख़बर भी लेती रही थी। बच्चे शांति के नाना से एक बार मिले थे। उनसे भावना का कोई जुड़ाव नहीं था पर उनके बारे में जानने को उत्सुक ज़रूर थे। शायद ये समझना चाह रहें हों कि जिस झुर्रीदार चेहरे और जर्जर काया को उन्होने देखा था- क्या था उसमें ऐसा कि उनके माँ-बाप दोनों भागे-भागे चले गए। शुरुआत अचरज ने की-

नाना मर गए..?
हाँ बेटा..
कितने साल के थे नाना.. ?
बानबे साल के..
बानबे.. ?
बानबे मतलब नाइन्टी टू..
क्या हुआ था उनको.. ?
बीमारी तो कोई नहीं थी.. बस बूढ़े हो गए थे..
क्या सचमुच उन्हे कोई बीमारी नहीं थी, अब पाखी ने पूछा।
.. दवा खाकर ठीक होने वाली कोई बीमारी नहीं थी..
तो फिर मर क्यों गए.. ? अचरज ने पूछा।

यह मुश्किल सवाल था। क्यों मर जाते हैं लोग? नाना बहुत मेहनती थे। अस्सी साल की उमर तक अपने सारे काम अपने आप करते थे। अपने कपड़े भी आप धोते थे। घूरकर देख देते थे तो सामने वाला घबराकर भाग खड़ा होता था। कड़कती आवाज़ में किसी को डाँट देते थे तो उसका पेशाब निकल जाता था। चलते थे तो ऐसा लगता था कि सरपट दौड़ रहे हों। उन्होने न तो कभी अंग्रेजी दवा खाई और न कभी हस्पताल का मुँह देखा। हमेशा हाज़मा दुरुस्त रहा। रोज़ नियम से दो घंटे पूजा करते थे और पूजा करके ही खाते थे। दिन में एक ही बार टट्टी जाते और अगर कभी संयोग से दूसरी बार गए भी तो चाहे पूस की आधी रात हो और आसमान से बरफ बरस रही हो- नहाते ज़रूर थे। पर पचासी आते-आते नाना की देह ने जवाब देना शुरु कर दिया। आवाज़ में थरथराहट आ गई। हाथ की पकड़ ढीली पड़ गई। पैर डगमगाने लगे। एक हाथ से दूर के आदमी को पहचानने में धोखा खाने लगे। फिर भी दिल, कलेजे और गुर्दे पर कोई असर न हुआ। सब कुछ खा कर पचाते रहे। फिर भी मर गए। क्यों मर गए -ये तो शांति को भी ठीक-ठीक नहीं मालूम।

शांति के पैर को थपथपाकर अचरज ने फिर से पूछा- ममा बताओ न क्यों मर गए नाना.. ?

मुर्दे सवाल नहीं करते। जीवित लोग ही सवाल करते हैं। चूंकि जीवित लोगों के लिए जीवन सहज अवस्था है और मर जाना उस सहजता से विक्षेप - एक अपवाद। इसीलिए हम कभी सवाल नहीं करते कि हम क्यों जी रहे हैं। ये सवाल भले कर लें कि बच्चे कहाँ से आते हैं पर ये सवाल नहीं करते कि बच्चे क्यों पैदा होते जा रहे हैं। और हर पैदा होने वाला बच्चा कभी न कभी ये सवाल पूछ ही लेता है जो अचरज शांति से पूछ रहा था- वो क्यों मर गए।

वो मर गए क्योंकि एक दिन सबको मरना होता है- शांति ने एक आर्यसत्य दोहराया।

वो कह सकती थी कि मरने के एक-दो महीने पहले से नाना को खाने में बहुत तकलीफ़ होने लगी थी। कुछ भी उनके गले से उतरता नहीं था। रोटी, बिस्कुट, फल, हर चीज़ वो मुँह में डालकर चूसकर उगल देते थे। उनके गले की नली सूख गई थी। उन्हे हस्पताल ले जाकर भर्ती करने की कोशिश की गई- वो नहीं माने। गले में प्लास्टिक की नली डालकर खाना खाने को भी वे राजी नहीं हुए। धीरे-धीरे उनका सारा बदन सिकुड़ता चला गया। हड्डियो से जो मांस झूलता रहता था- वो सब सूख गया। नाना के नाम पर मुरझाई हुई खाल में लिपटा हुआ एक कंकाल भर रह गया। अगर वो अचरज को ये सब बताती तो शायद वो कहता कि नाना भूख से मर गए थे। पर कहा ये भी जा सकता था कि उन्होने किसी तपस्वी की तरह अनशन करके अपने शरीर को छोड़ दिया था।

मरने के बाद लोग स्वर्ग में जाते हैं न? अचरज ने पूछा।
सब लोग नहीं.. कुछ लोग नरक में भी जाते हैं- पाखी ने उसकी बात को छाँटा।
तो नाना जी स्वर्ग में गए कि नरक में? अचरज के प्रश्न हनुमान जी की पूँछ की तरह थे।

शांति के पास उसके सवाल का कोई भी सच्चा और संतोषजनक जवाब नहीं था। बहुत सारे संतोषजनक जवाब थे पर वो सारे के सारे झूठे थे। एक सच्चा जवाब था मगर संतोषजनक न था- मृत्यु के क्षण के बाद अज्ञात का एक अनन्त अंधेरा था। वो अंधेरा इस क़दर बेचैन करने वाला था कि कोई उसे स्वीकार करने को राजी नहीं था। दुनिया की हर संस्कृति ने इस सवाल से जूझने के बाद उसके आगे घुटने टेक दिये हैं और मृत्यु के बाद के अनन्त अंधेरे पर अपनी कल्पना की पच्चीकारी की है। स्वर्ग और नरक के विचार में मृत्यु के बाद जीवन की कल्पना छिपी है। ऐसी ही दूसरी कल्पनाएं हर संस्कृति ने मृत्यु पर आरोपित की हैं। किसी में सालोंसाल क़ब्र में दबे रहने के बाद एक रोज़ सारे मुर्दों का उठाकर हिसाब कर दिया जाता है और अनन्त काल तक जन्नत या अनन्तकाल के लिए दोज़ख़ में धकेल दिया जाता है। तो किसी संस्कृति में देह के मर जाने के बाद भी एक अंगूठे के आकार का प्रेत बचा रहता है जो खा-पी कुछ भी नहीं सकता मगर भूख और प्यास से पीड़ित रहता है और यमदूतों के साथ यमलोक की यात्रा करता है। अगर उसके प्रियजन उसके लिए तर्पण और श्राद्ध न करें तो इधर-उधर भटकता फिरता है। कुछ मानते हैं कि शरीर के साथ आत्मा नाम का जो अज्ञेय तत्व होता है वो रौशनी के एक मैदान में जाकर अपनी थकान मिटाता है और फिर एक नया शरीर धारण कर फिर से जन्म लेता है।

नाना जी कहीं नहीं गए.. वो हमारे आस-पास ही हैं.. हमें देख रहे हैं और हमारी रक्षा कर रहे हैं- शांति ने संतोषजनक झूठ का विकल्प चुना। यह एक विचित्र झूठ था। इस झूठ में किसी भी चेष्टा और प्रतिक्रिया से हीन हो जाने पर जिसे मरा मान लिया गया, वही मरने वाला मरकर इतना शक्तिशाली हो जाता है कि अपने प्रियजनों की हिफ़ाज़त करने लगता है। अचरज के लिए यह थोड़ी मज़ेदार बात थी और थोड़ी डरावनी। उसने अगला सवाल नहीं पूछा और चुपचाप कमरे के भीतर एक अदृश्य आदमी की कल्पना से रोमांचित होने लगा।

आदमी के भीतर जीने की कितनी तगड़ी वासना है कि मृत्यु की इतनी विविध और विचित्र कल्पनाओं में आदमी ने कहीं भी मृत्यु के विचार को कोई मान नहीं दिया। मरनेवाले को मरकर भी जीवन की रक्षा करनी पड़ती है।

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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

शनिवार, 10 सितंबर 2011

एक चुटकी नमक



समय से दफ़्तर पहुँचने के इरादे में शांति की सुबहें काफ़ी हड़बड़ी से गुज़रती हैं। हड़बड़ी की उस अपवित्र नदी में रोज़-रोज़ उतरने से बचने का नया तरीक़ा शांति ने यह निकाला कि पूरे घर की घड़ियाँ दस मिनट आगे कर दीं। अपने आप को बुद्धू बनाने की इस मासूम कोशिश में शांति लगभग कामयाब हो ही गई थी। सब कुछ जानते हुए भी उस ने सुबह के सारे काम दस मिनट पहले कर लिए और दस मिनट पहले दरवाज़े के बाहर भी हो गई। वो बिना किसी हड़बड़ी के दफ़्तर पहुँच ही गई होती मगर एक आवाज़ ने उसे रोक लिया।

हलो जी.. मैं मीना हूँ..’ शांति ने देखा कि एक छरहरी और सलोनी महिला सामने के फ़्लैट में से उस की ओर मुख़ातिब है। जिस तरह के मुख़्तसर अंदाज़ से जिस संवाद की शुरुआत हुई, उसी तरह पर क़ायम नहीं रहा। मीना ने अगले आठ मिनटों को अपने परिचय के नाम किया। शांति अपने तेज-तरार्र छवि के बावजूद किसी दोस्ताना अजनबी से बदतमीज़ी करने का साहस नहीं रखती थी। अपना परिचय हो जाने के बाद मीना ने उसे नई दोस्ती की शुरुआत माना और दोस्ती में शक्कर जैसी मामूली चीज़ को आड़े नहीं आने देने का ऐलान भी कर दिया- आपके पास थोड़ी सी शक्कर होगी क्या..? भला भारत का ऐसा कौन सा बदनसीब घर होगा जिसके अन्दर थोड़ी सी शक्कर रखने की भी गरिमा न हो। मदद शब्द के आगे बेबस होकर तत्पर हो जाने वाली शांति को शक्कर ला कर देने में पूरे डेढ़ मिनट लगे। और अगले साढ़े चार मिनट मीना ने शांति का धन्यवाद करने में लगाए जिसके आदान-प्रदान से दो पड़ोसियों की दोस्ती की बड़ी मीठी शुरुआत हुई थी। अपनी मीठी पड़ोसन से मुक्ति पाने के क्षण में शांति अपनी घड़ी के अनुसार पूरे चौदह मिनट लेट हो चुकी थी और उसके भीतर रोज़ से कहीं ज़्यादा हड़बड़ी मची हुई थी। हालांकि ये ख़याल उसे दफ़्तर जाकर ही आया कि उसने घड़ी दस मिनट आगे कर दी थी।

उस दिन जब शांति लौटकर आई तो मीना उसे बाहर ही मिल गई। इस बार उसने अपने बारे में कम बात की। सात मिनट उसने दूसरे पड़ोसियों के जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को अपने बयान से रौशन किया जिनके विषय में शांति को कई साल के परिचय के बाद भी कुछ हवा नहीं थी। शांति ने माना कि उसकी नौकरी ही इस ग़फ़लत के लिए ज़िम्मेदार थी। और इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभाहीनता की बात को पूरे तौर पर छिपा ले गई। अगले तीन मिनट मीना ने शांति की नौकरी की बारीक़ियों को समझने में समर्पित किए। और शांति ने बिना ये ख़याल किए कि मीना उन सूचनाओं को एक ख़ुराक़ की तरह ग्रहण कर रही है। और मुलाक़ात शेष होने ठीक पहले मीना ने एक आलू माँगकर पड़ोसी धर्म की नींव को और पुख़्ता किया।

फिर तो रोज़ सुबह-शाम, दफ़्तर आते-जाते यही क्रम हो गया। शांति इस बात का फ़ैसला कर ही नहीं पाती थी कि चीज़े माँगने के लिए मीना बातों की भूमिका बनाती है या फिर बतरस की तलब में चीज़े माँगने का बहाना करती है। क्योंकि न तो कभी उसकी बाते शेष होतीं और न ही छोटी-मोटी चीज़ों की माँग। उसके घर में कभी धनिया नहीं होता, कभी अदरक, कभी मिरचा, तो कभी दही। एक दो शांति ने यह भी सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वो कुछ खरीदती ही नहीं, सिर्फ़ माँगकर ही काम चलाती है- शांति को क्या पता.. और किसके घर से वो क्या-क्या माँगती है। लेकिन फिर शांति को अपनी ही सोच पर कोफ़्त हुई।

फिर एक सुबह मीना आ गई ‘शांति, बड़ी मुसीबत है.. मुझे तो ये फ़ोन ही समझ नहीं आता.. नम्बर किसी को कैसे भेजते हैं?’ बस हो गई पन्द्रह मिनट की छुट्टी। जब तक शांति उसे एक सरल और सुलभ तरीक़ा समझाती, मीना अपने प्रचार उपकरण में अटकी हुई सूचनाओं से अपने को ख़ाली करती रही। फ़ोन की समस्या सुलझी तो सीडी में उलझ गई। ‘देखो न, न जाने क्या हो गया है इस सीडी को.. ज़रा चेक तो करो मेरे यहाँ चल ही नहीं रही.. मेरी बड़ी फ़ेवरिट सीडी है, मेरे भगवान के भजन है इसमें.. सुनती रहती हूँ इसे..’ वैसे बड़ी भक्त क़िस्म की औरत है मीना। सवेरे शाम पूजा करती है। हफ़्ते में दो दिन उपवास रखती है और तीन दिन मन्दिर जाती है। और जब भी मन्दिर जाती है शांति को प्रसाद देना नहीं भूलती। अगर उस दिन शांति न मिले तो अगली बार मिलने पर सारे प्रसाद चुकता कर देती है।

एक दिन शांति नीबू लेने नुक्कड़ की दुकान तक जा रही थी कि दरवाज़ा खोलते ही मीना दिख गई। शांति को लगा कि ज़रूर कुछ माँगेगी और माँगा भी- ‘आपके पास बाम होगा क्या.. बड़ा सरदर्द हो रहा है दोपहर से..’ शांति के पास बाम नहीं था। वो चलने लगी।
किधर जा रही हो..’
नुक्कड़ तक.. नींबू लाने..’
नींबू..? तो उसके लिए नुक्कड़ तक क्यों जा रहे हो.. हम क्या मर गए हैं..’

मीना के स्वर में एक विचित्र तल्ख़ी थी। शांति को अचानक एहसास हुआ कि उसने अलिखित पड़ोसी धर्म के विरुद्ध आचरण किया। किसी तरह उसने बात को सम्हाला और मीना की आहत भावनाओं की रक्षा की। उस दिन के बाद से शांति किसी चीज़ की अचानक ज़रूरत खड़ी होने पर पहले मीना के बारे में सोचती, बाद में किसी और के बारे में। मगर परस्पर प्रेम के ये भले दिन ज़्यादा दिन नहीं टिके। मीना के मकान की लीज़ ख़त्म हो गई और वो दूसरे मुहल्ले में रहने चली गई। जब से वो गई है शांति को दफ़्तर से आते-जाते कोई नहीं टोकता, कोई नहीं रोकता। मुहल्ले में क्या हो रहा है शांति को पता चलना बंद हो गया। शांति का जीवन पुराने ढर्रे पर लौट गया।

एक शाम शांति ने देखा कि दाल में छौंक लगाने के लिए लहसुन नहीं है। बेख़याली में दरवाज़ा खोल कर मीना के दरवाज़े तक चली आई और उसकी फ़्लैट की घंटी पर उंगली रखकर अचानक याद आया कि मीना तो चली गई। वहाँ कोई और रहने आ गया है। मीना होती तो बेहिचक घंटी बजाकर दोस्ती कर लेती और लहसुन भी माँग लेती। पर शांति सकुचा गई और शांति को पहली बार मीना जैसा बिंदास न होने पर अफ़सोस हुआ।

क़रीब दो हफ़्ते बाद शांति दफ़्तर से लौटकर साँस ले ही रही थी कि घंटी बजी। देखा तो मीना थी। एक पल के लिए शांति भूल ही गई कि मीना अब उसकी पड़ोसी नहीं है। उसने सोचा कि मीना शक्कर या नमक या ऐसी ही कोई चीज़ माँगने आई है। जैसे ही उसकी नज़र मीना के कपड़ों और मेकप पर गई शांति अपने कालभँवर से उबर आई। मीना कुछ माँगने नहीं, ख़ास उससे मिलने आई है। और दो मिनट बाद जैसे ही मीना ने अपने नए मुहल्ले की सारी खट्टी-मीठी और नमकीन ख़बरें उसे बताना शुरू किया शांति की समझ आया कि वो नमक लेने नहीं, नमक देने आई थी। शांति अपने मुहल्ले की तमाम ख़बरों से अवश्य महरूम हो गई थी पर किसी और मुहल्ले की सारी ख़बरें उसे मिलने लगीं।

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(28 अगस्त को दैनिक भास्कर में शाया हुई) 

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

छुपन -छुपाई



शाम के समय दफ़्तर सिर्फ़ सन्नाटे से गूँज रहा था। शांति को दीवार की ओर मुँह करके सौ तक गिनती गिननी थी पर उसने नहीं गिनी थी। फिर भी अचरज छुप गया था। शांति को उसे खोजना था पर शांति का मन खेल में नहीं था। दफ़्तर ख़त्म हो गया था पर शांति का काम ख़त्म नहीं हुआ था। छूटे हुए कामों ने उसके मन को उलझा रखा था। अचरज ऐसी किसी उलझन में नहीं था। वह शुद्ध प्रतीक्षा कर रहा था ख़ुद को खोज लिए जाने की। यह जैसे शिकारी और शिकार का एक खेल था। शांति को शिकारी होना था और अचरज शिकार की भूमिका में था। वो जो महसूस कर रहा था वो शायद एक आदिम रोमांच था जिसने उसके शरीर की सारी इंद्रियों को अपने चरम सामर्थ्य तक खींच डाला था। आँखों और कान निहायत चौकन्ने, हाथ-पैर किसी भी पल हरकत में आ जाने के लिए तत्पर और दिल पूरे शरीर में ख़ून को तेज़ी से फेंकने के लिए धौंकनी सा धौंक रहा था। एक-एक पल के प्रति सचेत था वो। जब बहुत लम्बे-लम्बे ढेर सारे पल यूँ ही बीत गए तो उसने बहुत हौले से झांक कर देखा उस दिशा में जिधर से शांति को आना था। शांति वहीं अपनी मेज़ के पीछे अपने लैपटॉप में सर सटाए बैठी थी।
ममा, मैं छुप गया हूँ.. आओ! अचरज वापस अपने छुपने की जगह जाकर उत्तेजना में उतराने लगा।

अचरज स्कूल से सीधे शांति के दफ़्तर आ गया था क्योंकि घर पर न तो सासू माँ थीं और न ही पाखी। और दफ़्तर अचरज के लिए एक अनोखा संसार था। उसका विस्तार, उसकी ऊँची छत, छोटे-छोटे चौकोर हिस्सों में विभाजित लम्बे काउन्टर, और हर कुछ का सलेटी-नीली रंगत में रंगा होना भी अचरज के लिए एक भूलभुलैया सा है। चमचमाती रौशनी से जगमगाने के बावजूद वो सारा कुछ अचरज के लिए एक रहस्य के खोल से ढका हुआ है। उस रहस्य का अनजानापन अचरज के लिए भय और उत्तेजना का आधार है।

इसी भय और उत्तेजना की राह से गुज़रकर उसने सबसे पहले घर के अनजानेपन का अनुसंधान किया था। फिर घर से निकलकर जिस-जिस इमारत में रहे उन इमारतों का अनुसंधान किया था। और फिर स्कूल में भर्ती हो जाने के बाद स्कूल में सहज रूप से न दिखने वाले कोनों और अँतरों में छुपे हुए आयामों का भी अपने साथियों के साथ अन्वेषण किया था- बिना यह जाने कि स्कूल में दाख़िला लेने वाली हर पीढ़ी उन्ही कोनों का बार-बार अन्वेषण करती है और उसके रोमांच से गुज़रती है।

अचरज की आशा थी कि उसके शिकार का चरम किसी दबोच लिए जाने वाली चेष्टा या फिर चौंका देने वाले सुर से होगा। पर शांति ने जो किया वो बिलकुल भी उस स्वभाव का नहीं था। अपनी उलझनों को लपेटती हुई सी शांति आई और सिर्फ़ यह कहकर उसके बग़ल से गुज़र गई – चलो! न कोई हमला, न कोई चीख, न जक़ड़ने की जल्दी और न बच निकलने की हड़बड़ी - शिकार के किसी तत्व का कुछ भी नहीं मज़ा नहीं मिला अचरज को। वो मायूस हो गया। अपनी जगह से हिला भी नहीं। शांति खीजकर उलटे पाँव लौटी और लगभग उसे घसीटते हुए सी अपने साथ नीचे ले गई।

पर ममा, तुमने प्रौमिस किया था..
हाँ किया था.. पर अभी टाईम नहीं है बेटा.. घर भी तो जाना है..
प्लीज़ ममा.. चलो खेलो न.. प्लीज़ ममी प्लीज़..
अचरज अपने बालहठ में उतरकर पैर पटकने लगा। हारकर शांति ने समझौते की राह लेनी चाही- अच्छा ठीक है.. घर चलकर खेलेंगे..
घर पर तो मैं रोज़ खेलता हूँ.. यहाँ खेलते हैं न ममा.. कितनी बड़ी जगह है.. यहाँ कितना मज़ा आएगा..

शांति ने उसे फिर से बहलाने की कोशिश की पर अचरज ने ठुनकना शुरू कर दिया। तब तक शांति उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए पार्किंग तक ले आई थी। शांति ने उसे झांसा दिया कि दफ़्तर में तो चौकीदार ने ताला मार दिया होगा- तो वहाँ लौटना तो मुमकिन नहीं और अपनी नेकनीयत दिखाने के लिए उसे पार्किंग में छुपन-छुपाई खेलने का प्रस्ताव दे डाला। अचरज ने नज़र उठाकर देखा- पार्किंग में अंधेरे और उजाले का एक अजब चितकबरा दृश्य फैला हुआ था। काफ़ी कुछ ख़ाली पार्किंग में कहीं-कहीं कारें और मोटरसाईकलें खड़ी हुई थीं। वो एक ऐसी जगह थी जो नन्हे अचरज के लिए बिलकुल अपरिचित और अनजान थी। उसे देखकर ही अचरज के दिल में अज्ञात के भय की एक लहर सी थरथराने लगी। उस भय की छायाओं को उसके चेहरे पर देख शांति को यह उम्मीद हुई थी कि वो ना कर देगा। पर अचरज ने हामी भर दी।

शांति के पास अपने ही प्रस्ताव से पलट जाने का विकल्प नहीं बचा। अचरज एक बार शिकार बन चुका था- अब शांति की शिकार बनने की बारी थी। शांति ने सोचा- वो ऐसी जगह छुपेगी जहाँ से उसे खोजने में अचरज को ज़रा भी मशक़्क़त न करनी पड़े। अचरज उसके स्कूटर के पास वाली दीवार में मुँह गड़ाकर गिनती गिनने लगा और शांति उससे एक खम्बा छोड़कर दूसरे खम्बे के पीछे छुपकर खड़ी हो गई। लेकिन शांति उस पल में मौजूद ही नहीं थी। वह दो घंटे पहले के पल में पैदा हुई किसी दफ़्तरी चिंता में बार-बार गोते खा रही थी।

वहीं खड़े-खड़े जब कुछ मिनट गुज़र गए और अचरज नहीं आया तो अचानक शांति को फ़िक़्र हुई। उसने मुड़कर देखा -अचरज नहीं दिखा। खेल के नियम के अनुसार उसे हर सूरत में अपने आपको छुपाए रखना चाहिए पर वो खेल भूल गई और खम्बे की आड़ छोड़कर वो अचरज को देखने के लिए पार्किंग के बीचोबीच आ खड़ी हुई। फिर भी अचरज उसे कहीं नहीं दिखाई दिया। शांति ने आवाज़ दी- अचरज!! कोई जवाब नहीं आया। दो-तीन बार और पुकारा- कोई जवाब नहीं। फिर तो बुरी तरह घबरा गई शांति। हड़बड़ाए क़दमों से पहले पार्किंग के एक कोने तक दौड़ गई और फिर दूसरे कोने तक। अचरज कहीं भी नहीं मिला। तरह-तरह के डर उसके मन में उमड़ने लगे। हथेलियों से पसीना छूटने लगा, मुँह सूख गया, सांसे उखड़ने लगीं। क्या करे - कुछ समझ नहीं पा रही थी। दिमाग़ हज़ार दिशाओं में एक साथ दौड़ने लगा। उसे ऐसा लगने लगा जैसे कि पैरों में जान ही न हो- सारी शक्ति निचुड़ के कहीं बह गई हो। लगा कि चक्कर खाके गिर पड़ेगी। तो खम्बे के सहारे जैसे ही अपनी देह को टिकाया एक तीखी आवाज़ ने उसे बुरी तरह चौंका दिया। एक पल वो आवाज़ भय की एक लहर बनकर उसके ह्रदय को चीरती चली गई और कहीं गहरे जाकर चुभ सी गई। वो अचरज था जो खम्बे के पीछे से आकर शिकार कर लेने का विजयघोष कर रहा था। अचरज की उत्तेजना में एक शिकारी की सफलता की ख़ुशी थी। पर शांति ख़ुश नहीं हुई, वो झुंझला गई और चिड़चिड़ाने लगी और किसी तरह से अचरज को झापड़ मारने से ख़ुद को रोका। खो जाने और मिल जाने का जो आदिम खेल अचरज खेलना चाह रहा था उसका कोई स्वाद था जो शांति बड़े होने की कसरत में कहीं भूल आई थी।
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