आज फ़ुरसतिया ने अपनी कोणार्क यात्रा के संस्मरण लिखे हैं और उन पर उत्कीर्ण मिथुन मूर्तियों का भी उल्लेख किया है। कोणार्क, खजुराहो तथा मध्यकालीन कई अन्य मन्दिरों में इस प्रकार का 'अश्लील' चित्रण देखने को मिलता है। स्वाभविक रूप से प्रश्न उठता है कि मन्दिरों के बाहर इस प्रकार के मूर्त्याकंन का क्या अर्थ हो सकता है? क्या मध्यकाल में सनातन धर्म इतना पतित हो चुका था कि वह ईश्वर और छुद्र यौनाचारों के भावों के बीच में स्पष्ट रेखा खींचने में सक्षम नहीं था? ईश्वर और यौनाचार.. एक ही प्रांगण में ? हरि- हरि.. !!
इसका कोई समुचित उत्तर नहीं मिलता बावजूद इसके कि हमारे सनातन धर्म में वेदों, पुराणों से लेकर श्रीमदभागवत तक ऐसा गड्ड-मड्ड बराबर होता आया है। चाहे वह अश्वमेध यज्ञ का प्रकरण हो या स्कन्द की जन्म कथा या श्रीकृष्ण का महारास.. सबमें 'अश्लील' तत्व जम कर मौजूद है। फिर भी लोग उसे भक्ति भाव से सुनते-गुनते हैं। आजकल के गुरुओं से पूछिये तो वे इस का जवाब नहीं देते.. लीपापोती करते हैं। कहते इन सन्दर्भों में यौन तत्व देखने वाले लोग मतिभ्रष्ट हैं- जनता ताली बजाकर उनकी बात का अनुमोदन करती है और हमारा धर्म शुद्ध,निर्विकार बना रहता है।
मगर भाई अगर यौन-तत्व है ही नहीं तो व्यासादि ॠषियों को पागल कुत्ते ने काटा था या वे खुद मतिभ्रष्ट थे जो यौन रूपक लेकर आध्यात्मिक ज्ञान धकेल रहे थे? कुछ तो वज़ह रही होगी.. इस पर लोग ज़्यादा बात नहीं करते?
मन्दिरों के बाहर 'अश्लील' मूर्तियों के चित्रण को लेकर मेरी माँ के पास एक दिलचस्प दलील है- उनका कहना है कि मन्दिर के बाहर विभिन्न प्रकार के यौनाचार की सैकड़ों मूर्तिय़ाँ हैं और भीतर ईश्वर की मूर्ति है। ईश्वर तक पहुँचने के लिए तुम्हे उन सारे यौनाचार से ध्यान हटाकर आना होगा, उसे बाहर छोड़कर आना होगा। अगर तुम्हारी दिलचस्पी यौनाचार में ही है तो तुम कभी अन्दर आओगे ही नहीं बाहर ही बाहर बने रहोगे। ईश्वर तक पहुँचना है तो यौनाचार को बाहर छोड़ो और भीतर आओ। और हमारे प्रतीकात्मक सनातन धर्म में मन्दिर कुछ और नहीं हमारे शरीर का मन्दिर है। बाहर भौतिक जगत में यौनाचार है, और वही उसका स्वरूप है.. वही सृष्टि है.. उसको नकारोगे तो सृष्टिक्रम रुक जायेगा.. पर वही सब कुछ नहीं है..भीतर और भी सुन्दरता है.. भीतर ईश्वर है।
13 टिप्पणियां:
माँ के विचार विल्कुल सटीक हैं....
माँ जी के विचार से सहमत हूँ. शायद आपने 'संभोग से समाधि' तक पढ़ी हो. उसमें भी कुछ ऎसा कहा गया है संभोग समाधि के मार्ग में बाधा पैदा करता है. राम तक रास्ता काम की सीढियों से ही होकर जाता है अगर आप सीढियों में फंस गये तो मंजिल तक नहीं पहुंच पायेंगे.
मैं माँ के विचार से सहमत हूँ , क्योंकि यही सत्य है . वैसे काकेश भाई ने रजनीश की जिस सम्भोग से समाधी की और किताब की चर्चा की है , उसमें यह स्पष्ट लिखा है की सम्भोग आत्म संतुष्टि का आधार ही नही आवश्यकता भी है . जैसा की आप को भी विदित है की आत्म संतुष्टि हीं इश्वर प्राप्ति का सहज और सुलभ मार्ग है , आपकी प्रस्तुति वेहद सुंदर और सारगर्भित है , बधाईयाँ !
अभयजी
मुझे लगता है कि इतना हमें आपको भी अनुभव है कि यौन-आचार-व्यवहार और कुछ शांति की चाह। वो, भगवान के मंदिर में जाकर हो। थोड़ा योग करके हो। सुबह पूजा करने से हो या फिर कोई श्लोक बोल-सुनकर या हल्का संगीत बोल-सुनकर हो। दोनों ही साथ होकर भी एक साथ नहीं हो सकते। ऐसे में आपकी मां जी की बात हम लोगों को बढ़िया तर्क के साथ अनुशासन में रहने की भी सीख देती है। खैर, में अभी तक कोणार्क नहीं गया हूं। कोशिश करता हूं जल्दी होकर आऊं।
पण्डित, 'काम' पर ही क्यों ठेल रहे हो, अल्टीमेट रियलाइजेशन के 4 पिलर हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
अर्थ की भी बात करो। उस पर सोच को हेय बताते हो, वह ठीक नहीं है। अर्थोपर्जन को महत्व दो - मजदूरी मत समझो!
(नोट - यह अभय से आपसी नोक झोंक है, बाकी लोग ओवरलुक कर सकते हैं।)
सटीक विश्लेषण!!
मुझे आजतक यह दलील समझ में नहीं आई कि उन मुर्तियों में कोई अश्लिलता है… तो सत्य है वह अश्लिल नहीं हो सकता है… मात्र हमारे समाज के कुछ तथाकथित व्यथित विचारधारा के लोगों की बनाई हुई नीतियाँ है… लोग कुत्तों को और अन्य जीवों के यौन संबंधों को महत्व नहीं देते पर इंसान बहुत ज्यादा देता है… मात्र मानसिकता का खेल है यह और यही हमारे समाज की सबसे महत्पूर्ण बीमारी जिसका रोज ही आरोपण बलात्कार आदि में देखने को मिलता है…।
माता जी के विचारों से सहमत हूँ पर ज्ञान जी का सवाल भी बना हुआ है .....बराबर
हमारे सनातन धर्म में वेदों, पुराणों से लेकर श्रीमदभागवत तक ऐसा गड्ड-मड्ड बराबर होता आया है। चाहे वह अश्वमेध यज्ञ का प्रकरण हो या स्कन्द की जन्म कथा या श्रीकृष्ण का महारास.. सबमें 'अश्लील' तत्व जम कर मौजूद है। "
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अभय भाई, आपकी इस बात से मैँ असहमत हूँ --
श्री कृष्ण के "महारास" मेँ कोई अश्लील तत्व नहीँ था --
" प्रेम - योग " मेँ न भेद भाव की बाधा
राधा कभी कृष्ण कभी, कृष्ण हैँ राधा "
( महाभारत टी.वी सीरीज़ का महारास का गीत हो सके तो अवश्य सुनेँ
- रचना स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा )
जीवन मेँ "धर्म,अर्थ, काम और अँतिम लक्ष्य मोक्ष,"प्राप्ति के उपक्रम,
न्यूयाधिक मात्रा मेँ,
हरेक जीव व हर आत्मा के साथ जुडे रहते हैँ--
मोक्ष तक की यात्रा का, हमारे प्राचीन मँदिरोँ मेँ मूर्तियोँ के रुप मँ
बना सत्य, जीव,जैवी की इस यात्रा का,
एक स्पष्ट यथार्थ है.
आदरणीय विमला जी,ने सच्ची बात समझाई है.कई दफे, घर के बुजुर्ग, ऐसे विषयोँ पर,
बात करने से कतराते हैँ --
परँतु मन मेँ कई विचार व दुविधाएँ आतीँ होँ और उनके समाधानपूर्ण उत्तर मिलेँ तब
जीव की प्रगति को गति मिल जाती है -
ये मेरा मत है -
-- लावण्या
बहुत सटीक विचार.
आप की माता जी ने भी सही कहा , पर दिव्याभ भी सही हैं।
आप की माता जी ने भी सही कहा , पर दिव्याभ भी सही हैं।
बढ़िया लिखा है। :) पढ़ बहुत पहले चुके थे। बता अब रहे हैं। बता दिया ये क्या कम है। :)
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